Kaimas Dahiya
Kaimas Dahiya or Kaimas or Kaimas Dahima was chief minister of Prithviraj Chauhan during his childhood. He was a big jagirdar and Bayana Fort was in his Jagir. Dahiya/Dahima were very important in darbar of Prithviraj Chauhan. [1] James Todd writes his clan to be Dahima.
History
James Todd[2] writes that Dahima has left but the wreck of a great name. Seven centuries have swept away all recollection of a tribe who once afforded one of the proudest themes for the song of the bard. The Dahima was the lord of Bayana, and one of the most powerful vassals of the Chauhan emperor, Prithwiraja. Three brothers of this house held the highest offices under this monarch, and the period during which the elder, Kaimas, was his minister, was the brightest in the history of the Chauhan : but he fell a victim to a blind jealousy. Pundir, the second brother [120], commanded the frontier at Lahore. The third, Chawand Rae, was the principal leader in the last battle, where Prithwiraja fell, with the whole of his chivalry, on the banks of the Ghaggar. Even the historians of Shihabu-d-din have preserved the name of the gallant Dahima, Chawand Rae, whom they style Khandirai ; and to whose valour, they relate, Shihabu-d-din himself nearly fell a sacrifice. With the Chauhan, the race seems to have been extinguished. Rainsi, his only son, was by this sister of Chawand Rae, but he did not survive the capture of Delhi. This marriage forms the subject of one of the books of the bard, who never was more eloquent than in the praise of the Dahima.
Chand, the bard, thus describes Bayana, and the marriage of Prithwiraja with the Dahimi : "On the summit of the hills of Druinadahar, whose awful load oppressed the head of Sheshnag, was placed the castle of Bayana, resembling Kailas. The Dahima had three sons and two fair daughters : may his name be perpetuated throughout this iron age ! One daughter was married to the Lord of Mewat, the other to the Chauhan. With her he gave in dower eight beauteous damsels and sixty-three female slaves, one hundred chosen horses of the breed of Irak, two elephants, and ten shields, a pallet of silver for the bride, one hundred wooden images, one hundred chariots, and one thousand pieces of gold." The bard, on taking leave, says : " the Dahima lavished his gold, and filled his coffers with the praises of mankind. The Dahimi produced a jewel, a gem without price, the Prince Rainsi."
The author here gives a fragment of the ruins of Bayana, the ancient abode of the Dahima.
जाट सामंत कैमास दहिया नागौर
लेखक - सोनवीर सिंह चाहर
नागौर क्षेत्र दहिया जाटों द्वारा शासित रहा है। यहाँ के दहिया जाटों ने नागवंशी चौहानों के राज्य को स्थिरता प्रदान की। पृथ्वीराज चौहान तृतीय के पिता सोमेश्वर के समय यहाँ कदम्बवास दहिया का शासन था जिसकी सहायता से ही पृथ्वीराज के पिता अजमेर की गद्दी पर अपने भाइयों (चचेरे) को हरा के बैठे। यह कदम्बवास दहिया आगे चलकर कैमास नाम से प्रसिद्ध हुआ दहिया जाट कैमास ने वैशाख सुदी 3 विक्रम संवत 1211 (1154) को नागौर के किले का पुनः निर्माण करवाया जिसने पृथ्वीराज के पिता की मृत्यु होने पर स्वयं अजमेर का शासन चलाया। किसी राजा की सेना की वीरता के पीछे योग्य सेनापति होता है। उनमे से कैमास जाट दहिया एक योग्य सेनापति था जिस के जीवित रहते हुए चौहान पृथ्वीराज कभी कोई युद्ध नहीं हारा। कैमास की मृत्यु के बाद हुए प्रथम युद्ध तराइन के दूसरे युद्ध में ही पृथ्वीराज की सेना योग्य सेनापति नेतृत्व की कमी के कारण हार गया।
जाट राजा कैमास की वंशावली - विमलराजा - सिवर - कुलखत - अतर - अजयवाह - विजयवाह - सुसल - शालिवाहन (रानी हंसावली) - नरवाण - देड़ -चूहड़ - गुणरंग - देवराज - भरह - रोह - कड़वाराव - कीर्तिसिंह - वैरिसिंह - चच्चाराणा - मुठिया – जोगराज - लखन - बल्लू - जूनदेव - पीपा –सहजराव -कैमास- प्रताप सिंह
दहिया जाट वश की शाखा
राजस्थान में दहिया जाटों की उप-शाखाएँ हैं।
- कड़वा राव दहिया के वंशज कड़वा कहलाये
- सुसल के वंशज सिसमल कहलाये
- बेरीसिंघ के वंशज बेरिया दहिया
- सहजराव के वंशज रणवा दहिया
- चच राज देव के वंशज राज दहिया
- मंडदेव के वंशज मंडीवाल दहिया
- गंगदेव के वंशज गुगड़ दहिया
कैमास और भुनैकमल्ल की सहायता से कर्पूरदेवी ने पृथ्वीराज के विद्रोही सामन्तों का दमन किया।
कैमास दहिया ने अपने जीवन ने अनेक युद्ध लडे और सभी में विजय प्राप्त की। जब कन्नोज राजा जयचंद ने अश्वमेध यज्ञ किया तब उसके भाई बालकराय को मार के यज्ञ को भंग भी कैमास दहिया ने किया।
तराईन के प्रथम युद्ध में कैमास ने बड़ी वीरता दिखाई जिससे ही पृथ्वीराज की विजय हुई। चन्दबरदार्इ ने अनेक रूपों में केमास की प्रशंसा की है। शहाबुद्दीन गोरी की सेना के साथ युद्ध करते समय एक बार केमास के सामने एक हजार यवन सैनिक टूट पड़े। कवि ने वर्णन किया है कि केमास ने उन पाँच सौ के दुगने यानी एक हजार योद्धाओं को मार के जलाकर राख कर दिया।
पृथ्वीराज चौहान जब संयोगिता के विरह में चिन्तन करता हुआ बेचैन था और मन बहलाने के लिए आखेट में लिप्त रहता था, उस समय भी केमास को ही राजकार्य का प्रबन्ध दे रखा था। उसी के मास के कारण मरुस्थल के गिरिनार प्रान्त के नाहरराय मल्हन को दबाया था। उसी केमास ने बलवान म्लेच्छ गौरी को बांधा था और उसी केमास के कारण पृथ्वीराज चौहान की चारों ओर शक्ति प्रदर्शित हुई थी। तुरुक सभी उससे डरते थे। कैमास का ऐसा प्रताप था कि वाराह रूप पृथ्वीराज चौहान और व्याघ्ररूप गौरी के युद्ध मार्ग में पड़ने वाले मरुस्थल के लोग सुखपूर्वक रहते थे
- जिहि कैमास सुमन्त, खोदि खटटुव धन गढयउ।
- जिहि कैमास सुमन्त, राज चहुआनह चढयउ।।
- जिहि कैमास सुमन्त, परि परिहार मुरस्थल।
- जिहि कैमास सुमन्त, मेछु बंध्यौ बल सब्बल।।
- चह वोर जोर चहुवान न्रप, तुरक हयंदु डरपत डरइ।
- बाराह, बाघ वा रह विचैं, सुवस वास जंगल घरइ।।2
लेकिन विनाश काल में विपरीत बुद्धि हो जाती है। अपने योग्य सेनापति की हत्या पृथ्वीराज धोखे से बाण चलाकर कर देते है क्योंकि पृथ्वीराज की दासी करनाटी कैमास से प्रेम करने लगती है जिसकी जानकारी पृथ्वीराज को हो जाती है। पृथ्वीराज धोखे से तीर चलाकर कैमास की हत्या कर देता है। इसके लिए रासो में लिखा है -
- हन्यौ दासि के हेतु कैमास बना। गज खून चामुंड बेड़ी बधानं।।
- बँधे कन्ह काका चषं पटट गाढे।। बिना दोष मुंडीर से भ्रत्तकाठे।।
- बरज्जंत चंद चल्यौ हुँ कनौजंं तहाँ सूर सामंत कटि घê फिैजं।।
- लिये राज लोकं रमंतं सिकारं। भ्रमं केहरी कंदरा रिष्ष जारं।
कैमास की मृत्यु की बात जब सभी को पता चलती है तो शोक फ़ैल जाता है। पृथ्वीराज विद्रोह की शंका से कैमास की गद्दी उसके पुत्र प्रताप सिंह को दे देता है ताकि किसी प्रकार से इस गलती पर पर्दा दाल सके। रासो में इसके लिए कहा गया है -
- हन्यौ दासि के हेतु कैमास बना। गज खून चामुंड बेड़ी बधानं।।
- बँधे कन्ह काका चषं पटट गाढे।। बिना दोष मुंडीर से भ्रत्तकाठे।।
- बरज्जंत चंद चल्यौ हुँ कनौजंं तहाँ सूर सामंत कटि घê फिैजं।।
- लिये राज लोकं रमंतं सिकारं। भ्रमं केहरी कंदरा रिष्ष जारं।
नागौर किला
नागौर किले के निर्माता नागवंशी जाट राजा थे जिन्होंने चौथी शताब्दी में इसका निर्माण करवाया था थी. अहिछत्रपुर (नागौर) इनकी राजधानी थी। आज जहां नागौर का किला है वहाँ इन्हीं नाग जाटों के द्वारा सर्वप्रथम चौथी सदी में धूलकोट के रूप में दुर्ग का निर्माण किया गया था। इसका नाम रखा नागदुर्ग। नागदुर्ग ही बाद में अपभ्रंश होकर नागौर कहलाया। नागौर किला का परकोटा पांच हज़ार फीट लम्बा है पहल परकोटा 25 फीट ऊँचा दूसरा परकोटा 50 फीट ऊँचा है.
पाँचवीं शताब्दी(458 ईस्वी) में नागवंशी जाट अनंतनाग का शासन था। 551 ई. के आस-पास वासुदेव नाग यहाँ का शासक था। इस वंश का उदीयमान शासक हुआ सातवीं शताब्दी में नरदेव हुआ। यह नागवंशी शासक मूलतः शिव भक्त थे। यहाँ नागौर की धरती पर नाग वंश की जाट शाखा के राव पदवी धारी जाटों ने सैकड़ो वर्षो तक राज किया था। नागौर कई बार बसा और उजड़ा, उजड़ने के कारण इसका नाम नागपट्टन भी पड़ा। नागौर किले का माही दरवाजा भी नागवंशी परंपरा का उदाहरण है। इसके प्रस्तर खंडों पर नाग-छत्र बना हुआ है। यह नागवंशी राजा आज भी नागा नाम से जाटों में जाने जाते है इन्ही नागवंशी जाटों ने मंडोर के पास नागकुंड का निर्माण करवाया था
आठवी सदी में इसी नाग वंश की काला नाग शाखा ने नागौर दुर्ग पर अधिकार कर लिया था दसवी सदी तक यहाँ काला शाखा के नाग जाटों का राज्य था । यह कालानाग वंश के असित नाग के वंशज थे। बाद में कुछ समय यह दुर्ग प्रतिहारों के अधीन रहा फिर दुबारा दहिया जाटों ने इस पर कब्ज़ा कर लिया दहिया जाट कैमास ने वैशाख सुदी 3 विक्रम संवत 1211 (1154) को नागौर के किले का पुन निर्माण करवाया इन्ही नागवंश की श्वेत शाखा (धोलिया) में तेजाजी महाराजा का जन्म हुआ.
यही वजह है कि नागौर के आस-पास चारों ओर अनेक नागवंशी मिसलों के नाम पर अनेक गांव बसे हुये हैं जैसे काला मिसल के नाम पर काल्यास, फ़िरड़ोदा का फिड़ोद, इनाणियां का इनाणा, भाकल का भाखरोद, बानों का भदाणा, भरणा का भरणगांव / भरनांवा / भरनाई, गोरा का डेह तथा धोला का खड़नाल आदि ।
Ref - International Jatt martial Race (अंतरराष्ट्रीय जाट मार्शल रेस,26.6.2018)
External links
References
- ↑ Devi Singh Mandawa,p.128
- ↑ Annals and Antiquities of Rajasthan, Volume I,: Chapter 7 Catalogue of the Thirty Six Royal Races,pp.143-144
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