Karan Singh Madapuria

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Karan Singh Madapuria

Karan Singh Madapuria (Sinsinwar) was a great martyr warrior from Madapura village in Rupbas tahsil in district Bharatpur, Rajasthan. He was Senapati of Lohagarh Fort and died protecting it. His statue was installed on 5 August 2010 by Maharaja Vishvendra Singh of Bharatpur. [1]

लोहागढ का महावीर करनसिंह माडापुरिया

करनसिंह माडापुरिया

भरतपुर से दक्षिण में ४० किमी, बयाना से १५ किमी उत्तर पूर्व में माडापुर गांव किलेनुमा ऊंचे टीले पर बसा है. इस गांव के चित्रसाल सिंह के दो पुत्र थे - केहरी सिंह तथा करनसिंह. दोनो भाई लम्बी चौडी कद-काठी के थे और पहलवानी के शौकीन थे. उनके आस-पास दूर दराज में उनके मुकाबले का पहलवान न था.

जेल गये

किम्बदन्ती है कि एक बार भाई केहरी सिंह की भैंसें करनसिंह के खलिहान पर पहुंच गई और काफ़ी नुक्सान कर दिया. करनसिंह को इस पर बहुत क्रोध आया. उसने अपने खलिहान से भाई की भैंसों को पूंछ पकड़ कर फ़ैंक दिया, जिससे भैंसें मर गई. भाई ने राजा को इसकी शिकायत की. राजा ने करनसिंह को दंड देकर सेवर की जेल भेज दिया. करनसिंह की खुराक बहुत ज्यादा थी. करनसिंह अकेला रोज दस सेर की रोटियां खाता था. जेल अधिकारियों ने करनसिंह की खुराक रोज दस किलो सूखा चना तय कर दी क्योंकि इतनी रोटियां बनाने में दिक्कत होती थी.

कैदी से सेनापति

एक बार संयोग से ऐसा हुआ कि इंण्ग्लैण्ड का सबसे बडा पहलवान भारत आया. दिल्ली दरबार में उस समय अंग्रेज पहलवान से लड़ने को भारत का कोई पहलवान राजी न हुआ. भरतपुर के राजा ने प्रस्ताव रखा कि जो पहलवान अंग्रेज पहलवान को कुस्ती में हरा देगा उसको ईनाम दिया जायेगा. दरबारियों ने करनसिंह माडापुरिया का नाम सुझाया. राजा ने कहा कि यदि करनसिंह अंग्रेज पहलवान को हरा देगा तो उसकी जेल माफ़ कर दी जायेगी. करनसिंह को दरबार में बुलाया गया और राजा के प्रस्ताव से अवगत कराया गया. करनसिंह ने शर्त स्वीकार कर ली और कहा कि उस पहलवान को मुझे पहले दिखा दिया जाये. विदेशी पहलवान को भरे दरबार में बुलाया गया. करनसिंह ने उस पहलवान को अपना सिर दबाने के लिये कहा. अंग्रेज पहलवान के सिर दबाने का उस पर कोई असर नहीं हुआ. इसके बाद करनसिंह ने अंग्रेज पहलवान का सिर इस प्रकार दबाया जैसे प्याज को दोनों हाथों से फोडा जाता है. ऐसा करते ही अंग्रेज पहलवान के कान, नाक व मुंह से खून की धारा बह निकली. वह तड-फ़डाने लगा और छुडाकर कहा कि मैं करनसिंह से कुस्ती नहीं लड़ सकता. भरतपुर के राजा बड़े खुस हुये कि करनसिंह ने इण्गलैण्ड के प्रसिद्ध पहलवान को बिना कुस्ती लड़े ही हरा दिया. राजा ने करनसिंह की जेल माफ़ कर दी और उसको भरतपुर के किले लोहगढ का सेनापति बना दिया. बाद में करनसिंह अपने गांव गया. वहां बड़े भाई केहरीसिंह से अपने किये की माफ़ी मांगी और उन्हें भी फ़ौज में भर्ती करा दिया.

अंग्रेजी फ़ौज से टक्कर

१९वीं शताब्दी की शुरुआत में अंग्रेजों के अत्याचार बढ गये थे. कुछ रजवाड़े अंग्रेजों के भक्त बन गये थे. भरतपुर का लोहागढ दुर्ग उनके लिये अजेय थ. ११ दिसंबर, १८२५ को भरतपुर पर अंग्रेजी सेना ने कमांडर-इन-चीफ़ कैम्बर मियर एवं जनरल निकोलस के नेतृत्व में हमला किया. अंग्रेज लोहागढ के उत्तराधिकारी के गृह-क्लेश का फ़ायदा उठाना चहते थे. लोहागढ का निर्माण इस प्रकार का था कि दुश्मन के तोपों के गोले या तो मिट्टी में धंसते थे या फ़िर हवा में जाते थे. उत्तर दिशा में किले पर जहां आक्रमण होता था उस द्वार पर चितौड़गढ वाले किले का गेट चढा था. यहां यह उल्लेखनीय है कि अल्लाउद्दीन खिल्जी चित्तौड़गढ किले पर हमला कर उसका गेट दिल्ली ले गया था. बाद में भरतपुर के राजा जवाहरसिंह ने दिल्ली जीत कर उस दरवाजे को भरतपुर के किले लोहागढ में लगाया था.

अंग्रेजों को अभितक भरतपुर के किले पर आक्रमण में कोई सफ़लता नहीं मिली थी. दुश्मन जब भी भरतपुर पर हमला करता और किला घेरता उसे कुछ हाथ नहीं लगता था, यहां तक कि उसकी तोपों के गोले भी धूल में गिरते ही ठंडे हो जाते थे. करनसिंह पूर्णत: संग्राम में व्यस्त था. उसने किले के दरवाजे के एक पट को हाथ से पकड़ रखा था और दूसरे हाथ से दुश्मनों को काट रहा था, तभी एक देशद्रोही राजा के पास गया और कहा कि करनसिंह मारा गया है. तब राजा ने कहा कि करनसिंह मारा जाता तो भरतपुर अंग्रेजों के अधीन हो जाता. राजा और रानी युद्ध देखने उत्तर दिशा के मुख्य द्वार पर आये. उसने देखा कि उन्हें झूठा समाचार दिया गया है. वीर सेनापति करनसिंह फ़ाटक पर अड़ा हुआ लड़ रहा है. करनसिंह का तहमद खुल गया है और वह लड़े जा रहा है. उधर राजा ने सोचा वीर नंगा हो गया है. क्यों न उसको मैं तहमद पहना दूं. जैसे ही करनसिंह ने राजा को तहमद पहनाते देखा उसको शर्म महसूस हुई कि राजा और रानी ने उसको नंगा देख लिया. फ़िर भी उसने युद्ध कर रहे नौ अंग्रेज अफ़सरों को बाहों में भर लिया व नहर में कूद गया. कहते हैं बाद में अन्तिम संस्कार के लिये उनके शरीर का कोई भी हिस्सा इस नहर में नहीं मिला.

जनमानस में करनसिंह

ब्रज क्षेत्र में जनमानस में करनसिंह की वीरता के बहुत किस्से प्रचलित हैं. एक बार करनसिंह के पुत्र ने कहा-सुनी में अपनी पत्नी को थप्पड़ मार दी. करनसिंह को अपने पुत्र पर गुस्सा आया. करनसिंह ने नीम के पेड़ को अपनी कुहनियों से फाडा और दो फाड़ के बीच ६० किलो का पत्थर भर दिया और पुत्र को कहा कि तू ज्यादा ताकतवर बनता है तो इस पत्थर को नीम के पेड़ से निकाल कर बता. पुत्र ऐसा नहीं कर पाया. कहते हैं कि आज से कोई २०-२५ वर्ष पूर्व तक नीम के उस पेड़ में वह पत्थर फ़ंसा था. एक बार खलिहान में आग लगने पर वह पेड़ जल गया. वह पत्थर आज भी बाबूसिंह के बाड़े में रखा है.

करनसिंह के अवशेष

वीर करनसिंह के अवशेष आज भी माडापुरिया में मौजूद हैं. माडापुरिया के चार दरवाजों में से आज मात्र एक दरवाजा खड़ा है, बाकी धराशायी हो चुके हैं. करनसिंह को ठंडाई पीने का शोक था. बुजुर्ग लोग बताते हैं कि स्वयं करनसिंह ठंडाई को घोट कर जिस बर्तन में पीता था वह पत्थर की प्याऊ है, जिसमें आज ९०-१०० लीटर पानी आता है. जिसे वह उठाकर पीता था आज इस प्याऊ का वजन ३-४ मन से कम नहीं है. उनके द्वारा बनाई गई सफ़ेद पत्थर की छतरियां आज भी मौजूद हैं. सवा मन की वह तलवार जिससे करनसिंह लड़ते थे वह आज भी भरतपुर के अजयबघर में मौजूद है.

करणसिंह माडापुरिया की वीरता

करणसिंह माडापुरिया - जिसकी वीरता की प्रशंसा खुद दुश्मन भी करते है। करणसिंह भरतपुर राज्य का सेनापति था। जब अंग्रेज़ इस अजेय दुर्ग को जीतने का असफल प्रयास कर रहे थे पर जीत नहीं पा रहे थे। जब जनरल लेक और उनके साथियो ने इस युद्ध के बारे में इंग्लैंड में asiatic journal (1830) में एक लेख प्रकाशित हुआ। जिस में अंग्रेज़ अधिकारीयों ने करणसिंह की वीरता की प्रशंसा की है। ऐसा इतिहास में बहुत कम ही देखने को मिलता है जब दुश्मन भी आप की वीरता के कायल हो। पर दुःख इस बात का है की हम अपने इन वीरो की राष्ट्रीय स्तर पर भी पहचान नहीं बना पाए।[2]

सम्मान

वीर करनसिंह को वर्ष २०१० में उसकी मूर्ती उसके गाँव में स्थापित कर सम्मान दिया गया. भरतपुर के पूर्व सांसद महाराजा विश्वेन्द्र ने वीर करनसिंह की मूर्ती व् स्मारक का अनावरण ५ अगस्त २०१० को भव्य समारोहपूर्वक किया. इस अवसर पर उन्होंने सांसद निधि से पांच लाख रुपये दिलवाए तथा राजकीय माध्यमिक विद्यालय का नाम वीर करनसिंह के नाम पर करने की घोषणा की. इस गाँव में प्रतिवर्ष दंगल लगाने की भी घोषणा की.

संदर्भ

  • लक्ष्मनसिंह सिनसिनवार: जाट समाज, जुलाई २०११, पृ.२३-२५

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