Maharaja Kishan Singh
Maharaja Kishan Singh (born, 1899 – death, 1929) (महाराजा किशन सिंह, भरतपुर) was the ruler of princely state Bharatpur (1918 - 1929) and successor of Maharani Girraj Kaur.
Maharaja Kishan Singh, KCSI (1.1.1926) was born at Moti Mahal, Bharatpur on 4th October 1899. He was eldest son of Maharaja Ram Singh by his second wife, Maharani Girraj Kaur. He got education at Mayo College, Ajmer and Wellington. He succeeded on the deposition of his father on 27th August 1900. Installed on the gadi at Bharatpur on 30th August 1900. He reigned under the regency of his mother until he came of age and was invested with full ruling powers on 28th November 1918. He was a promising student of the Ajmer Mayo College Ajmer.
Honours
On Tuesday, the 27th February 1906, when only seven years old he had the honour to pay his respect at Agra to Her Gracious Majesty the Queen Empress (then Princess of Wales) on her Indian tour of 1905-6.
Attended the funeral of the King-Emperor Edward VII in 1910. He received Delhi Durbar gold medal in 1911 and GO of the Order of the Crown of Belgian on 12 February 1926.
He went on a voyage to England in 1910 and rendered obeisance to His late Majesty Emperor Edward VII of blessed memory and when the heart-rending event of His Majesty's demise occurred he joined the funeral procession on the 14th May and represented the Indian aristocracy under the care of Sir Dunlop Smith in St. George's Chapel at the interment of His late Majesty on the 22nd May. On the 13th June 1910 His Gracious Majesty Emperor George V very kindly received him at the Marlborough palace.
His Highness took an important part in the recent Coronation Darbar held by His Gracious Majesty the King-Emperor at Delhi. Being appointed a page to attend upon Their Imperial Majesties in the Darbar ceremonials, he went to Delhi on tho 20th November 1911, met the Darbar Committee and learnt all that he had to do in that capacity. To his great credit he discharged his duties thoroughly and efficiently when the occasion required.
He was among the principal Rajputana ruling chiefs on the representation to the reception by His Majesty the King-Emperor in the pavilion in the fort before the state entry and in His Majesty's camp in the afternoon on the 7th December 1911.
Along with his equally vigilant colleague Sumer Singh the Maharaja of Jodhpur, Maharaja Kishan Singh cut a prominent figure in the picturesque group of young princes that lined the steps on Their Imperial Majesty's proceeding to the throne in the Darbar Shamiana on the 12th December 1911 and supported the purple and white coronation robes of His Majesty, and the train of Her Majesty. Similarly he followed Their Imperial Majesties in their investiture procession on the 14th December 1911.
His swiftness and alacrity were particularly displayed when leaving his place amongst the pages on the dais he advanced to the front of the throne, looked a charming veritable prince in shining garments broidered with gold, duly paid his homage to Their Imperial Majesties and moved backwards without, the least tottering in his steps.
Likewise he had a very enthusiastic reception in the review on the 4th December when in his brilliant uniform and riding on his beautiful horse with golden saddle cloth and trappings, he led his Imperial Service Infantry, "the Maharaj Paltan," past with steady and proportionate pace.
Marriage
He married on 3rd March 1913 with Maharani Rajendra Kaur, youngest daughter of Raja Balbir Singh of Brar clan Raja of Faridkot.
Social service
He reorganized army in 1919. He made Hindi as state language. He toured to Sri Lanka and established ‘Brij-mandal’ in Shimla. He also made primary education compulsory. He promulgated social reforms act. He introduced the system of participation of public in state affairs through credit banks, issuing society and village panchayat acts. He promoted the establishment of Ayurvedic hospitals. He started organizing exhibition in Bharatpur every year to promote trade and arts. He took steps towards the protection of cows. The steps taken by him in 1924 famine in the interest of public are always remembered. He was proud to be a Jat and presided over the 1925 Jat Mahasabha adhiveshan organized at Pushkar.
Death
He died at Agra on 27th March 1929, having had issue, four sons and three daughters. His eldest son Maharaja Brijendra Singh succeeded him.
महाराज श्रीकृष्णसिंह
ठाकुर देशराज लिखते हैं कि आपका जन्म 4 अक्टूबर सन् 1899 ई. को हुआ था। महाराज रामसिंह के गद्दी से हट जाने पर सन् 1990 ई. की 26 अगस्त को आपको राजगद्दी पर बिठाया गया था। चूंकि आप नाबालिग थे, इसलिए सरकार ने राज्य का प्रबन्ध स्टेट-कौंसिल के हाथ में दिया। महाराज यशवन्तसिंह के समय में ‘पंचायत’ नाम की राज-सभा थी, उसी का रूप पलटकर स्टेट-कौंसिल हो गया। राजमाता श्रीमती गिर्राज कुमारी जी ने आपके लालन-पालन और शिक्षा का पूणतः प्रबन्ध किया। जब महाराज साहब कुछ सयाने हुए तो ‘मेयो कॉलेज’ अजमेर में पढ़ने के लिए भेजे गए। सन् 1910 ई. में आप इंग्लैंड भी गए। उन्हीं दिनों सप्तम एडवर्ड का स्वर्गवास हुआ था। महाराज भी बादशाह की अर्थी में शामिल हुए। सन् 1914 ई. में महाराज ने दुबारा अपनी माताजी के साथ विलायत की यात्रा की। लड़ाई के लिए भरतपुर से 25 लाख से ऊपर सहायता सरकार को दी गई। इंग्लैंड से लौटकर महाराज फिर मेयो कॉलेज में पढ़ने लगे।
आपका विवाह फरीदकोट की वीर राजकुमारी श्रीमती राजेन्द्रकुमारी के साथ हुआ था।
28 नवम्बर सन् 1918 ई. को भारत के तत्कालीन लार्ड चेम्सफोर्ड ने भरतपुर आकर महाराज को अधिकार दिए। इसी प्रसन्नता के समय एक महान् खुशी यह हुई कि 30 नवम्बर सन् 1918 ई. को श्रीमानजी के यहां युवराज श्री ब्रजेन्द्रसिंह जी देव का शुभ जन्म हुआ। प्रजा में भारी खुशी हुई। नगर-नगर और गांव-गांव में आनन्द-बधाए गाए जाने लगे।
सन् 1919 ई. में महाराज ने सेना का पुनः संगठन किया। राजमाता हिन्दी और लिपि देवनागरी कर दी गई, क्योंकि अंत तक राजकीय सारा कार्य उर्दू में होता था। 24 सितम्बर सन् 1922 को श्रीमती राजमाता गिर्राजकुमारीजी का र्स्वगवास हो गया। महाराज ने लंका की भी यात्रा की थी और शिमले में ‘ब्रज-मण्डल’ की स्थापना की। आपके समय में प्रारम्भिक शिक्षा अनिवार्य कर दी गई। समाज-सुधार-एक्ट पास किया गया। क्रेडिट बैंक व सोसायटी तथा ग्राम-पंचायत-एक्ट पास किया गया। क्रेडिट बैंक व सोसायटी तथा ग्राम-पंचायत-एक्ट जारी करके प्रजा को प्रबन्धाधिकार दिए। राज्य भर में देशी औषधालयों की स्थापना की। व्यापार और कला-कौशल में प्रजा की रुचि बढ़ाने के लिए प्रति वर्ष क्वार के महीने में भरतपुर में प्रदर्शिनी करने की नींव भी आप ही ने डाली। आपकी मित्रता भारत के अनेक राजा, रईस और अंग्रेजों से थी। बेलजियम के बादशाह से भी आपका सामाजिक सम्बन्ध था। वह अपनी महारानी समेत भरतपुर में पधारे भी थे। गौ-रक्षा के लिए राज्य के प्रत्येक बडे़ नगर में प्रबन्ध किया गया।
जाट इतिहास:ठाकुर देशराज,पृष्ठान्त-673
सन् 1924 ई. की भयंकर बाढ़ में प्रजा के जान-माल की रक्षा के लिए जो आपने कष्ट उठाए और प्रजा की सेवाएं कीं, वे भारत के वर्तमान देशी नरेशों के लिए अनुकरणीय थीं।
महाराज को इस बात पर बड़ा अभिमान था कि मैं जाट हूं। वह अपने जातीय गौरव से पूर्ण थे। सन् 1925 ई. में पुष्कर में होने वाले जाट-महासभा के अधिवेशन के आप ही प्रेसीडेण्ट थे। आपने कहा था-
- “मैं भी एक राजस्थानी निवासी हूं। मेरा दृढ़ निश्चय है कि यदि हम योग्य हों तो कोई शक्ति संसार में ऐसी नहीं है जो हमारा अपमान कर सके। मुझे इस बात का भारी अभिमान है कि मेरा जन्म जाट-क्षत्रिय जाति में हुआ है। हमारी जाति की शूरता के चरित्रों से इतिहास के पन्ने अब तक भरे पड़े हैं। हमारे पूर्वजों ने कर्तव्य-धर्म के नाम पर मरना सीखा और इसी से, बात के पीछे, अब तक हमारा सिर ऊंचा है। मेरे हृदय में किसी भी जाति या धर्म के प्रति द्वेषभाव नहीं है और एक नृपति-धर्म के अनुकूल सबको मैं अपना प्रिय समझता हूं। हमारे पूर्वजों ने जो-जो वचन दिए, प्राणों के जाते-जाते उनका निर्वाह किया था। तवारीख बतलाती है कि हमारे बुजुर्गों ने कौम की बहबूदी और तरक्की के लिए कैसी-कैसी कुर्बानियां की हैं। हमारी तेजस्विता का बखान संसार करता है। मैं विश्वास करता हूं कि शीघ्र ही हमारी जाति की यश-पताका संसार भर में फहराने लगेगी।”
आपने अपने व्यय से भरतपुर में हिन्दी-साहित्य-सम्मेलन भी कराया था। देश के प्रत्येक हितकर कार्य में वे भाग लेते थे। प्रजा में ज्ञान और जीवन पैदा करने के लिए उन्होंने ‘भारत-वीर’ नाम का पत्र भी निकलवाया था। वे प्रजा को शासन-कार्य में सहयोगी बनाना चाहते थे, इसी उद्देश्य से उन्होंने शासन-समिति की स्थापना की थी। म्यूनिसिपल कमेटियां कायम की थीं। महाराज जहां एक ओर समाज-सुधार और प्रजा-हित के कार्य कर रहे थे, वहां दूसरी ओर उनके विरोधियों की संख्या बढ़ रही थी। सन् 1928 ई. में उन्हें अपव्ययी सिद्ध करके सरकार ने राज्य छोड़ देने पर विवश किया। उन्होंने गवर्नमेण्ट के इस कार्य का विरोध किया। वे न्याय के लिए अन्त तक लड़े। देहली में उनके जन्म-दिवस के अवसर पर, जब इन लाइनों का लेखक उनकी सेवा में उपस्थित हुआ था, तब उन्होंने कहा था -
- “मैं अपने अधिकार को छोड़ने के लिए तैयार नहीं हूं। तुम्हारा (प्रजा का) अधिकार (शासन-समिति) में पहले ही दे चुका हूं।”
आज सारा भारत कहता है कि महाराज श्रीकृष्णसिंह वीर थे, देश-भक्त और समाज-सुधारक थे। वे भारत के मौजूदा राजाओं में से सैकड़ों से बहुत श्रेष्ठ थे। ऐसे महारथी का देहली में मार्च सन् 1929 ई. को स्वर्गवास हो गया। उनके लिए राजा-प्रजा, हिन्दु-मुसलमान, गरीब-अमीर सभी श्रेणियों के लोग रोए। उनकी मृत्यु से सारे भारत के हृदयवान् लोगों
जाट इतिहास:ठाकुर देशराज,पृष्ठान्त-674
के हृदय को धक्का लगा। दूसरे केवल पांच ही महीने बाद राजमाता श्रीमती राजेन्द्रकुमारी का जुलाई सन् 1929 को स्वर्गवास हो गया। आपने चार राजकुमार और तीन राजकुमारियां छोड़ी जिनमें मंझली बहन का सन् 1930 में विछोह हो गया।
महाराजा श्री किसनसिंह जी बहादुर के जीवन की एक झाँकी
(This article was first written and published in the year 1957, on the occasion of the first anniversary of First War of Independence (1857). Edited and published by Swami Omanand Saraswati in the year 2000 also, in one of his books - see the footnotes at the end of this post).
भरतपुर की भूमि वीर-प्रसूता रही है । भरतपुर की भूमि ने अनेक वीरों, दूरदर्शी नेताओं तथा अत्यन्त सफल लोकप्रिय राजाओं को जन्म दिया है । वर्तमान राजवंश के राजाओं ने भरतपुर राज्य की स्थापना सन् १७३३ ई० में की थी । इसी पुण्य भूमि में ४ अक्तूबर १८९९ में एक बालक का जन्म हुआ जो बाद में "लैफ्टिनेंट कर्नल हिज हाईनेस, महाराजा श्री व्रजेन्द्र सवाई कृष्णसिंह बहादुर जंग" के नाम से प्रसिद्ध हुआ । श्री रामसिंह को गद्दी से उतारने पर श्री कृष्णसिंह जी को २६ अगस्त १९०० ई० में राज्याधिकारी घोषित किया । सन् १९१८ तक जब तक ये नाबालिग रहे, राज्य का प्रबन्ध कौंसिल आफ एजेन्सी द्वारा किया जाता था जो कि ब्रिटिश सरकार के पोलिटिकल एजेन्ट की देख-भाल तथा नियंत्रण में कार्य करती थी । इनकी माता गिरराजकौर सी० आई० इस काल में राजप्रबन्ध की पूरी देखभाल रखती थी । २८ नवम्बर को कृष्णसिंह जी राजगद्दी पर बैठे । इसके राजा होने पर प्रजा को बड़ी प्रसन्नता हुई । सर्वत्र खुशियाँ मनाई गईं । महाराजा जसवन्तसिंह के बाल्यकाल में भी राज-प्रबन्ध एक पंचायत द्वारा किया जाता था जो कि राज्य कार्यकारिणी सभा थी । उसी पंचायत का संगठन पुनः किया गया और उसका नाम अब 'स्टेट कौंसिल' रखा गया । इस कौंसिल के प्रधान धाऊ बख्शी रघुवीरसिंह जी के ऊपर बाल महाराजा श्री कृष्णसिंह के पालन-पोषण का पूर्ण उत्तरदायित्व था । राजमाता अत्यन्त समझदार विदुषी थी । वही श्री कृष्ण को शिक्षा दिलाती थी । इन्होंने प्रारम्भ में इनको मेयो कालेज अजमेर भेजा । सन् १९१६ में इन्होंने वहाँ से डिप्लोमा प्राप्त किया । कालेज के जीवन काल में भी आपसे प्रिंसीपल तथा प्रोफेसर बड़े प्रभावित हुए ।
सन् १९१६ में महाराजा ने जार्ज पंचम 'प्रिंस आफ वेल्स' तथा साम्राज्ञी 'मेरी प्रिंसेज आफ वेल्स' से आगरे में भेंट की । १९१७ में जार्ज पंचम के राज्याभिषेक पर आपने देहली दरबार में आयोजित सभा में भाग लिया । आपने सन् १९१० में 'कमोरी महल' से भेंट की और १९१४ में इंग्लैंड की यात्रा की । इस प्रकार बाल्यकाल से ही इन्होंने अंग्रेज शासकों से भी सम्पर्क बना लिया ।
सन् १९१४ में प्रथम विश्व महायुद्ध की ज्वाला प्रज्वलित हुई । छोटी आयु होते हुए भी इन्होंने युद्ध में जाने की बड़ी इच्छा प्रकट की । ब्रिटिश सरकार ने इनकी बड़ी प्रशंसा की । युद्ध में जाने की अनुमति न दी । भरतपुर की सेनायें भेजीं जो वीरता में सारे यूरोप में प्रशंसनीय थीं । महाराजा को इससे बड़ी प्रसन्नता हुई कि भरतपुर के वीरों ने अपनी वीरता दिखाकर गौरव रखा । भरतपुर के वीरों की सर्वत्र प्रशंसा होने लगी । ये सैनिक फ्रांस, यूनान, अफ्रीका आदि के रण-क्षेत्रों में भी गये, सब स्थानों पर भरतपुर की वीरता व साहस की अमिट छाप छोड़ गये । इन वीरों की रणप्रशंसा का स्मारक विक्टोरिया हास्पिटल के समीप बना हुआ है । यह सेनाएं युद्ध के समाप्त होने पर ही भरतपुर लौटीं । महाराजा ने अंग्रेजों को आर्थिक सहायता भी प्रयाप्त दी । महाराजा का हृदय उदार था । भिन्न-भिन्न फंडों में आपने १५ लाख रुपये की सहायता दी । यह बात ध्यान देने योग्य है कि भरतपुर की सेनायें युद्ध समाप्ति तक रणक्षेत्र में रहीं किन्तु अन्य किसी राज्य की न रहीं ।
३ मार्च १९१३ को महाराजा का विवाह पंजाब की रियासत फरीदकोट के राजा की छोटी बहिन के साथ बड़ी धूम-धाम से हुआ । महाराजा के ७ सन्तानें हुईं जिनमें ४ राजकुमार तथा ३ राजकुमारियाँ थीं । ३० नवम्बर १९२८ को सबसे बड़े राजकुमार सवाई ब्रजेन्द्रसिंह का जन्म हुआ जो कि भरतपुर के वर्तमान महाराजा हैं । महाराजा कृष्णसिंह का सम्बन्ध नाभा तथा जीन्द रियासतों से था तथा वैवाहिक सम्बन्ध पटियाला तथा फरीदकोट रियासतों से था ।
महाराजा ने १९१९ में सैनिक बोर्ड की स्थापना की । अनाथ, अपाहिज, अंग-भंग सैनिकों की सहायता की । प्रजा को सन्तान के बराबर समझते थे । वीरगति को प्राप्त हुए सैनिकों के परिवारों को आर्थिक सहायता देते तथा बड़ी सहानुभूति रखते थे । प्रजा भी आपको पिता समान समझती थी । सारा राज्यप्रबन्ध आपने बड़े सुचारू रूप से चलाया । राज्य में एक राजा होते हुए भी प्रजातंत्र था । भरतपुर की आर्थिक स्थिति को अपने सुदृढ़ किया । सारा रुपया प्रजा का है । वह प्रजा के काम में आना चाहिये, यह आपका विश्वास था । वह अपने आप को ट्रस्ट का ट्रस्टी समझते थे । जनता में पूर्ण सन्तोष था । महाराजा ने राज्य की सर्वतोमुखी उन्नति की । सेना का संगठन व पुनर्गठन किया । महाराजा सैंकड़ों सैनिकों की देखभाल करते थे । उनकी सुविधा का ध्यान रखते थे । उनसे व्यक्तिगत सम्पर्क रखते थे । महाराजा गौवों के बड़े भक्त थे । स्वयं गाय रखते थे और नगरों में गोशालायें स्थापित करवाते थे । इन्होंने राज्य में अनेक सुधार किये । म्युनिसिपैलिटी की स्थापना भी आपने की । प्रजा के हितार्थ अनेक परिवर्तन भी शासन व्यवस्था में किये । सारी प्रजा सम्पन्न तथा प्रसन्न थी । श्रीमान जी अनुभवी तथा कुशल शासक रहे । २४ सितंबर १९२२ ई० को इनकी माता का देहान्त हो गया जिससे सारी प्रजा को बड़ा दुःख हुआ । राजमाता बड़ी न्यायप्रिय और दयालु थी । महाराजा को भी उनकी मृत्यु से बड़ा धक्का लगा । वे इसी कारण रोगग्रस्त हो गये । सारी प्रजा में दुःख के बादल छा गए । सर्वत्र मन्दिर मस्जिदों में उनके स्वस्थ होने की प्रार्थना की जाने लगी । उनके स्वस्थ होने पर प्रजा फूली न समाई ।
महाराजा को शिक्षा से बड़ा प्रेम था । प्रारम्भिक शिक्षा को अनिवार्य कर दिया । पठित जनों को आदर दिया । योग्य छात्रों को छात्रवृत्तियां दी जाने लगीं । हिन्दी भाषा को बड़ा महत्त्व दिया । सभी राज्यकार्य हिन्दी में होने लगा । इसीलिये आपने भरतपुर में हिन्दी साहित्य सम्मेलन भी करवाया जिसमें रवीन्द्रनाथ टैगोर भी सम्मिलित हुए । आपने जनता के हितार्थ 'भारत वीर' नामक पत्र भी प्रकाशित कराया ।
इन्होंने एक एक्ट जारी किया जिसमें भरतपुर राज्य की विधवाओं को सहायता देकर उनका उपकार किया । सहकारी समितियाँ तथा सरकारी बैंक व ग्राम पंचायतों की स्थापना की और इनके सम्बंध में एक एक्ट जारी किया । उसके प्रबन्ध का अधिकार जनता को दे दिया । ग्रामों में आयुर्वैदिक अस्पताल खुलवाये । पशुओं के लिए प्रदर्शनी खुलवाई जिसका नाम जसवन्त नुमाइस पड़ा जो अब भी दशहरे के अवसर पर होती है । व्यापार तथा वाणिज्य की वृद्धि के लिए राजा ने सारे शहर में टेलीफोन तथा बिजली का भी प्रबन्ध कराया ।
सन् १९२८ ई० में जयपुर तथा अजमेर राज्य का पानी बाँध टूटने पर भरतपुर के चारों तरफ भर गया । उस समय महाराजा ने प्रजा के प्राणों की रक्षा की और जन और धन की रक्षा की । आहतों को सहायता प्रदान की । इस प्रकार के कार्यों से वह सर्वजन के हृदय में प्रीतिभाजन हो गए ।
महाराजा को जाट होने का गौरव था । १९२५ ई० में पुष्कर में आयोजित जाट महासभा के अध्यक्ष पद को आपने ही ग्रहण किया था । आप में कर्त्तव्य-परायणता कूट-कूट कर भरी थी । वे किसी भी जाति व धर्म से द्वेष नहीं करते थे । किसनसिंह बड़े उच्च भाव वाले पथप्रदर्शक नृपति थे । आपने अनेक संशोधन राज्य के प्रबन्ध में किए जिसके कारण भरतपुर राज्य का भविष्य उज्ज्वल बन सका । भूमिसुधार की ओर से भी आपने अनेक सुधार किए ।
इतना होते हुए भी सन् १९२८ में तत्कालीन भारत सरकार ने इन्हें राज्य छोड़ने पर विवश किया । इन पर अपव्ययता तथा राज्य कुप्रबन्ध के आरोप लगाये । इनके भरतपुर प्रवेश पर रोक लगा दी गई जिनसे इनके हृदय को बड़ी ठेस पहुँची । इन्होंने सरकार का विरोध किया । वे न्याय के लिए अन्त तक लड़ते रहे । भरतपुर निर्वासन के १६ महीने बाद २७ मार्च १९२९ को यह सितारा हमेशा के लिए विलीन हो गया ।
महाराजा अनन्य देशभक्त, वीर तथा महान समाज सुधारक थे । भरतपुर की जनता इस महारथी को सदैव स्मरण करती रहेगी ।
________________________________________
उद्धरण (Excerpts from): “देशभक्तों के बलिदान”
पृष्ठ - 334-336 (द्वितीय संस्करण, 2000 AD)
लेखक - चौधरी मूलचन्द
सम्पादक - स्वामी ओमानन्द सरस्वती
प्रकाशक - हरयाणा साहित्य संस्थान, गुरुकुल झज्जर, जिला झज्जर (हरयाणा)
मैकेंजीशाही
महाराजा किशन सिंह के समय में आजऊ का नौजवान राम किशन फौज में भर्ती हुआ और जमादार के ओहदे पर पहुँच गया। महाराजा किशन सिंह के बीमारी के समय उनकी सेवा करने के कारण अपने स्टाफ में ले लिया और चीफ अफसर मुकर्रिर कर दिया। महाराजा किशन सिंह के बुरे दिन आए तब राजा किशन पर नए एडमिनिस्ट्रेटर मैकेंजी के समय अनेक मुकदमे चले और उन पर 28 साल की सजा ठोक दी। [1]
Authors
- Laxman Burdak 17:32, 12 July 2009 (UTC) - English version updated
- Dndeswal 02:02, 20 April 2009 (UTC)- Hindi version
.
Further reading
- History of Bharatpur/Chapter III, by Jwala Sahai, pp.57-59
- Thakur Deshraj: Jat Itihas (Hindi), Maharaja Suraj Mal Smarak Shiksha Sansthan, Delhi, 1934, 2nd edition 1992.
- Ram Swarup Joon: History of the Jats, Rohtak, India (1938, 1967)
- Dr Natthan Singh: Jat - Itihas (Hindi), Jat Samaj Kalyan Parishad Gwalior, 2004
External link
Gallery
-
The Princess of wales ( United Kingdom) with the young Prince Krishan Singh, The king/ Maharaja of Bharatpur Jat kingdom (only independent kingdom of India till 1947), Painting 1906. Photo Courtesy _ Sahil Singh Baliyan[2]
-
-
Flag of Bharatpur State
-
Col.H.H. Maharaja Sawai Kishan Singhji of Bharatpur after Hunting a Tiger.
-
Maharaja Brijendra Singh of Bharatpur with Maharaja Kishan Singh
-
H.H. Maharaja Kishan Singh of Bharatpur (left side), Maharaja Brijendra Singh of Faridkot (right side), Raja Raghunath Singh of Bharatpur in centre standing at Faridkot wedding of H H. Maharaja Kishan Singh of Bharatpur 1914. Credit:- Raja Raghuraj Singh Of Bharatpur.
-
Maharaja Kishan Singh of Bharatpur
-
References
Back to The Rulers