Jasnathi Sampraday aur Paryavaran Raksha

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लेखक : प्रो. एचआर ईसराण, पूर्व प्राचार्य, कॉलेज शिक्षा, राजस्थान

जसनाथ धाम कतरियासर
जसनाथी समाज और पर्यावरण-रक्षा

पर्यावरण-रक्षा और जसनाथी समाज

राजस्थान के भू-भागों को स्थानीय एवं भौगोलिक विशेषताओं के परिचायक नामों से भी पुकारा जाता रहा है। इसके अलावा शासक बदलते रहने के साथ उनके द्वारा शासित प्रदेशों की भौगोलिक सीमाओं में परिवर्तन-परिवर्द्धन होने से क्षेत्रों के नाम भी बदलते रहे।

राजस्थान के मरूप्रदेश में शामिल बीकानेर संभाग का प्राचीन नाम 'जांगल देश' था। इसमें बीकानेर राज्य तथा जोधपुर का उत्तरी भाग शामिल था। 'जांगल' शब्द जंगल या उजाड़ प्रदेश को द्योतित करता है। उप नाम और स्थानीय नाम भी प्रचलन में रहे हैं। 'थली' या उत्तरी मरुभूमि क्षेत्र में बीकानेर, चूरू जिलों का अधिकांश भाग, दक्षिणी गंगानगर और दक्षिणी पूर्वी हनुमानगढ़ जिलों के मरुस्थलीय भाग आदि सम्मिलित हैं

बीकानेर रियासत की स्थापना से पूर्व 'जांगलू' नाम का नगर इस प्रदेश की राजधानी था। 'जांगलू' में 'जांगल प्रदेश' का भाव निहित है। बीकानेर नरेशों को 'जय जंगलघर बादशाह' की उपाधि इसीलिए दी गई थी कि वे इस प्रदेश के शासक थे।

पुरातन जमाने में यह इलाका 'जांगल', 'बागड़', 'थली', मरू प्रदेश व धोरा-धरती के नामों से जाना जाता रहा है। सिद्ध जसनाथजी एवं उनके शिष्य परंपरा के कवियों की रचनाओं में अधिकांशतः इसका नाम 'थली' व 'भागथली' प्रयुक्त हुआ है। बालू रेत के इस शुष्क मैदानी इलाके को बीते जमाने में बागड़ देश नाम से भी संबोधित किया जाता था। विशेष संदर्भों में अभी भी ये नाम प्रयुक्त होते रहते हैं।

पृष्ठभूमि एवं परिदृश्य

'जांगल प्रदेश' जैसा की नाम से द्योतित जो होता है, अधिकांशतः वीरान था, उजाड़ था, जंगल था, रेतीला शुष्क मैदान था। प्रकृति ने बरसात के मामले में यहाँ ख़ूब कंजूसी बरती है। कम वर्षा, विरल वनस्पति एवं चरम तापमान इसकी ख़ासियत रही है। ये इलाका सूखे की मार अक्सर सहता रहा है। शुष्क जलवायु इसकी ख़ास पहचान रही है। प्रतिकूल मौसमी परिस्थितियों से अभिशप्त रहा है।

अद्भुत है ये रेगिस्तानी इलाका। गर्मियों में यहां की रेत उबलती है। इस मरुभूमि में 52 डिग्री सेल्शियस तक तापमान रिकार्ड किया गया है। जबकि सर्दियों में तापमान शून्य से नीचे चला जाता है। जिसका मुख्य कारण है यहाँ की बालू रेत जो जल्दी गर्म और जल्दी ठंडी हो जाती है। गर्मी ऋतु में यहां पर आंधियां कई- कई रात- दिन इतनी तेज गति से चलती हैं कि रेत के बड़े-बड़े टीलों को इधर से उधर धकेल देती हैं। हालांकि इस सदी में हुए पर्यावरणीय बदलाव के कारण आंधियों की तीव्रता और अनवरतता में कमी देखी गई है।

अनुपजाऊ भूमि, ऊंचे-ऊंचे रेतील टीले, बालू रेत का समंदर और झाड़ियों का वर्चस्व स्थापित था। मध्ययुगीन संत कबीर ने अपने एक पद में इस प्रदेश को ग्रीष्म ऋतु में 'लूओं का घर' (home of heat waves) कहा है। उन्होंने इसकी भौगोलिक एवं प्रतिकूल मौसमी परिस्थितियों का जो वर्णन किया है, वह इसकी विकट परिस्थितियों को उजागर करता है। मरुभूमि की दुरूहता व विकटता ने ही इसे रोमांचकता प्रदान की है। कवि जोधोलियो का एक 'सबद' इस इलाक़े की विकटतर भोगौलिक स्थिति की ओर इंगित करता है:

'नदी न नाला बाव न बेरा - थल माथै कायम देसी डेरा।'

धोरा-धरती (थली भूभाग) पर मध्य युग में अशिक्षा का घुप्प अंधेरा था। भैरव, खेतरपाल (क्षेत्रपाल), भोमिया, भूत-प्रेत, पितर, योगिनियां, डाकणी आदि की तंत्र-मंत्रों से पूजा करने का प्रचलन था। पग-पग पर पशु-बली का तांडव देखने को मिलता था। मद्यपान और मांसाहार का प्रचलन जोरों पर था। कल्पित देवों--भैरव, क्षेत्रपाल, भोमिया आदि-- के थान/ मढ़ों पर बकरा-बलि तथा मद/ शराब की धार देकर उनकी पूजा की जाती थी। गांव- गांव में भोमिया अथवा भैरव आदि के जो मढ़ थे, वे पशु -बलि के केंद्र -स्थल थे।

किसी भी खेजड़ी के नीचे भोमिया जी का थान कल्पित कर दिया जाता था, जहां पर गांववासी बकरों-मींड़ों का कत्लेआम करते थे। लोग अंधविश्वासों से जकड़े हुए थे, जादू- टोने की गिरफ्त में थे। इसलिए किसी भी मामले में देवों की बोलना' (मनौती) बोलकर उन्हें बकरा चढ़ा दिया जाता था। शराब भी अर्पित करते थे। हिंसा और नशे की यह प्रवृत्ति लोगों में प्रमाद और क्रूरता पनपा रही थी। नशे से वशीभूत लोग परस्पर छल- कपट और असभ्यता का व्यवहार करने लगे थे। मामूली सी बात पर वाद-विवाद कर लेते थे। शालीनता का क्षरण हो रहा था। अनैतिकता पनप रही थी। अफीम का सेवन जोरों पर था। अफीम को ' शूरवां (सूरमा) नशा' कहां जाता है

सिद्ध जसनाथजी

सिद्ध जसनाथजी

किसी आंदोलन, संगठन, सम्प्रदाय आदि का जन्म तत्समय की सामाजिक-आर्थिक-धार्मिक-राजनीतिक परिस्थितियों की कोख़ से होता है। परिस्थिति-समुच्चय जमाने की ज़रूरत के हिसाब से किसी नई सोच की पृष्ठभूमि का निर्माण करता है। मरुप्रदेश के मध्ययुगीन परिदृश्य में दो समकालीन संत विभूतियों-- गुरु जाम्भोजी और सिद्ध जसनाथजी--ने प्रकृति-प्रेमी, निर्गुण-निराकार भक्तिधारा के सम्प्रदाय स्थापित कर पर्यावरण संरक्षण और कर्मकांड मुक्त सदाचरण का मार्ग प्रशस्त किया। सिद्ध जसनाथजी के बारे में उपलब्ध ज़्यादातर साहित्य में उनके योगदान के मूल्यांकन की बज़ाय मत-मतान्तरों, किंवदंतियों, मनोकल्पित, भ्रामक, अनैतिहासिक धारणाओं की भरमार है। इस आलेख का उद्देश्य सिद्ध जसनाथजी द्वारा समाज का नैतिक स्तर ऊंचा उठाने एवं पर्यावरण संरक्षण के लिए दिए गए रचनात्मक योगदान को उजागर करना है।

सिद्ध जसनाथजी का मरुप्रदेश में धर्म-सुधार, सामाज-सुधार, सामाजिक सद्भाव व सहिष्णुता तथा पर्यावरण संरक्षण के क्षेत्रों में विशेष योगदान रहा है। इस मध्ययुगीन संत ने बहुदेववाद (polytheism), मूर्ति- पूजा, पाखण्ड, कर्मकाण्ड, अंधविश्वास आदि से धर्म को मुक्त कर उसे आमजन के लिए सहज व सरल स्वरूप प्रदान करने की दिशा में सार्थक कदम उठाया। उन्होंने निर्गुण और निराकार ईश्वर की उपासना पर बल दिया और इस बात को रेखांकित किया कि निराकार ईश्वर प्रत्येक व्यक्ति में निवास करता है। मानवतावाद, मानवीय मूल्यों और पर्यावरण संरक्षण को सर्वोपरि स्थान प्रदान किया। अपने अनुयायियों को छुआछूत और जात-पात, धर्म के आधार पर भेदभाव छोड़ने की सीख दी। जाम्भोजी की भांति जसनाथजी भी समन्वयकारी संत थे। हिंदू, इस्लाम, जैन, नाथ, शाक्त आदि उस समय के प्रमुख धर्म-संप्रदाय थे। जसनाथजी ने समेकन एवं संश्लेषण (fusion and synthesis) को महत्व देते हुए उस समय के धर्म-सम्प्रदायों के सिद्धांतों को अपने पंथ में आत्मसात किया।

सिद्ध जसनाथजी का आविर्भाव/ जन्म विक्रम स. 1539 (1482 ई.) को कार्तिक शुक्ला एकादशी को गांव कतरियासर (बीकानेर) में हुआ। मान्यता है कि वहां के हमीरजी ज्याणी और उनकी पत्नी रूपांदे के ये पोष्य (पाल-पोषकर बड़ा किया गया) थे।[1] पिता हमीरजी तथा माता रूपांदे ने अपने इस लाड़ले का नाम जसवन्त रखा तथा बड़े प्रेम से पालन-पोषण किया ।

दस साल की उम्र में जसनाथजी की सगाई गांव चूड़ीखेडा़ (हरियाणा के हिसार जिले में स्थित) निवासी नेपालजी बेनीवाल के की बेटी काळलदे के साथ हुई थी। किंतु इन्होंने विवाह से पूर्व ही साधना मार्ग को अपना लिया था। [2]

'यशोनाथ पुराण' में उल्लेख है कि विक्रम संवत 1551 (1494 ई.) आश्विन शुक्ला सप्तमी के दिन जब 12 साल का बालक जसवंत भागथली (कतरियासर से छह किलोमीटर उत्तर में स्थित एक स्थान ) में ऊंटनियों को ढूंढने गया था उस समय उनके सामने गुरु गोरखनाथ प्रकट हुए। बालक जसवंत ने गुरु गोरखनाथ से दीक्षा ली। लेकिन इस पुराणोक्ति का दोनों के कालखंड से तालमेल नहीं बैठता है। ऐसा लगता है कि गुरु गोरखनाथ इनके मनसा (through the mind) गुरु रहे होंगे। दीक्षा के बाद बालक जसवंत का नाम ‘जसनाथ’ हो गया।

तप-शक्ति: जसनाथजी ने बीकानेर से लगभग 36 किलोमीटर उत्तर-पूर्व में स्थित गोरखमालिया नामक स्थान पर 12 वर्ष तक तपस्या की और अपने पास आने वाले व्यक्तियों को जीव-दया तथा आत्मचिंतन का उपदेश दिया। उनकी दशा सिद्धावस्था मानी जाती है। इस समयावधि में उन्होंने एक नाथपंथी जमाती साधु लोहापांगल जो कि एक तांत्रिक व पाखंडी था तथा जादूगीरी के करिश्मे दिखाकर लोगों को गुमराह कर रहा था, उसके अभिमान को तोड़ दिया और उसकी बोलती बंद कर दी।[3]

जसनाथ जी ने लूणकरण (बाद में बीकानेर राजा) को बीकानेर राज्य की राजगद्दी प्राप्त करने का आशीर्वाद दिया और राव बीका के दंभी पुत्र घड़सी को सशक्त वाणी में उपदेश देकर सन्मार्ग पर चलने को उद्यत किया।

"गरब करै ना गैला घड़मल, ओ थारो राज न जाणू।
राज दियों म्हे लूणकरण नै, गुरु गोरख परवाणू।।" [4]

पायलेट के 'बीकानेर गजिटियर... और मुंशी सोहनलाल ने 'तवारीख राजश्री बीकानेर' में सिद्ध जसनाथजी से दिल्ली के तत्समय के लोदी वंश के शासक सिकंदर लोदी का प्रभावित होना बतलाया है। जसनाथी संप्रदाय के कथा-प्रसंगों में सिकंदर का सिद्ध जसनाथजी के दर्शनार्थ कतरियासर आना बताया जाता है।[5]

दिल्ली के सुल्तान सिकंदर लोदी ने जसनाथ जी के चमत्कारों से प्रभावित होकर उन्हें भूमि प्रदान की।[6]

सिद्ध जसनाथजी ने मात्र 24 वर्ष की आयु में अपने गांव कतरियासर में विक्रम संवत 1563 (1506 ई. ) की आश्विन शुक्ला सप्तमी शुक्रवार को अपने अनुयायियों को यथोचित आदेश-उपदेश देकर जीवितावस्था में समाधि ले ली थी।

"संवत पंद्रह सौ तिरेसठ आई, मास आसोज सप्तम सुध लाई।
सुकरवार, बरत्यो दिन आई, उण दिन नाथजी समाधि लगाई।" [7]

जसनाथी साहित्य में उल्लेख मिलता है कि वहां से पूर्व की ओर लगभग एक किलोमीटर दूर सती काळलदे ने विक्रम संवत पंद्रह सौ तिरेसठ, आसोज सुदी चौथ मंगलवार को जीवित समाधि ले ली थी, जहां इनके सम्मान में बाड़ी बनी हुई है।[8] ’चौथ मंगलनै सती समाधी, घर-घर मंगल गाया। सात्यूं शुकर मास आसोजी, सुरगां अमर लगाया।’

शिक्षाएं

सिद्ध जसनाथजी ने व्यक्तिगत एवं सामाजिक जीवन में पवित्रता, शुद्धता व शुचिता को महत्व दिया। समाज में ऊंचे नैतिक आदर्श प्रस्तुत करने पर जोर दिया।

जसनाथजी की शिक्षाओं के प्रमुख उद्देश्य थे:

1. नैतिक शिक्षा के जरिए समाज -सुधार करना,
2. पाखंडों पर प्रहार कर धर्म-सुधार का मार्ग प्रशस्त करना,
3. पर्यावरण संरक्षण के प्रति लोक चेतना जागृत करना।

नैतिक शिक्षाएं: समाज को नैतिक रूप से ऊपर उठाने के लिए जसनाथजी ने मनुष्य को सत्य के मार्ग पर चलने, मिथ्या भाषण/ झूठ बोलने से बचने तथा संयम से जीवन यापन करने की शिक्षाएं दीं। मनुष्य को अच्छे वचन बोलने चाहिए और अच्छे गुणों को ग्रहण कर गुरु के बताए सदमार्ग पर चलना चाहिए।

"अभी चवै मुखइमरत बोलो, हालो गुरु फरमानी।"

काम, क्रोध, मोह, लोभ तथा अहंकार का सर्वथा त्याग करने तथा शील, संतोष, दया आदि गुणों को आत्मसात करने, परपीड़ा को महसूस करने, सदा शुद्ध, निर्मल रहने आदि पर जोर दिया।[9]

संसार की परिवर्तनशीलता के संबंध में जसनाथजी का कहना है कि जैसे पतझड़ में पीपल के पुराने पत्ते गिर जाते हैं और बसंत का आगमन होने पर नए पत्ते प्रस्फुटित होते हैं, ठीक यही गति इस संसार की है।

शरीर की नश्वरता की ओर ध्यान आकृष्ट करते हुए जसनाथजी कहते हैं:

" काची काया गलबल जासी, कूंम कूंम वरणी देहा
माटी में माटी मिल जासी, भसम उड़े हुए खेहा।।"

पाखण्ड का खण्डन: सिद्ध जसनाथजी मरुभूमि के एक सशक्त समाज सुधारक के रूप में उभरे। उन्होंने तत्कालीन समाज में व्याप्त अनेक पाखण्डों, प्रपंचों की खुलकर आलोचना की। भोले-भाले लोगों को प्रपंच में फंसाने वाले योगियों के पाखण्डों की आलोचना करते हुए उन्होंने कहा कि कान फड़वाकर कुंडल पहन लेने और श्मशान में डेरा डालने तथा कंधे पर मेखला डालकर घर-घर घूमने से ज्ञान प्राप्त करना संभव नहीं है।

" भूखा भरड़ा कान फड़ावै, सैवै मड़ां मसांणी ।
कांधे पाछे मेंखल घाले, कोरा रहयां अयांणी।।
हिवड़ै भूला घर- घर हांडै, बोले अटपट बांणी।।"

जसनाथजी ने पशु-बलि का प्रबल विरोध किया। मांस-मदिरा से भैरव की पूजा करने वालों को भी ख़ूब लताड़ा।

"भैरुँ भूत पितर भोमिया, फिर फिर पीर मनावो
गाय'र गाड़'र भैंस'र छाली, गलबो काट न खाणी
सिरज्या देव अमीरा कूंपा दुय-दुय पीवो पिराणी"

अर्थात गाय, भेड़, भैंस और बकरी का अपनी क्षुधा मिटाने के लिए गला नहीं काटना चाहिए। परमात्मा ने इनको अमृत की कुप्पे बनाया है। अतः इनका दूध पीना चाहिए।

जसनाथजी ने मुसलमानों के पाखण्डों की निंदा करते हुए कहते हैं कि काजी, भला तुम मोहम्मद साहब के गहन विचारों का भावार्थ क्या समझ पाओगे। पैगंबर मोहम्मद तो दूसरों के बुरे विचारों को मारकर हलाली बने किंतु तुम तो मुर्दा खाने वाले हो।

"मैंमद मैंमद मत कर काजी, मैंमद बिखम विचारी।
मैंमद पीर हलाली होता, तुम काजी मुरदारी।।"

सिद्ध जसनाथजी ने पशु-हत्या में लिप्त व्यापारियों को और हिंसा का समर्थन करने वालों को प्रतिबोधित करने के लिए ये 'सबदोपदेश' दिया:

"सांभल मुल्ला सांभल काजी सांभल बकर कसाई।
किण फ़रमाई बकरी बिरधो, किण फरमाइए गाई?
गाय गोरख नै इसी पियारी, पूत पियारो माई।
फिर चरि आवै सांझ दुहावै, राख लेवै सरणाई।
थे मत जाणो रूली फिरै है, चांद सूरज गिंवाली[10]

जसनाथ जी ने कर्म प्रधान जीवन जीने की सीख दी। उनका कहना है कि प्राणी को अपने कर्मों का फल भोगना ही पड़ेगा। व्यक्ति के कर्म ही उसके भविष्य का निर्माण करते हैं। [11]

जसनाथी सम्प्रदाय के सिद्धांत

सिद्ध जसनाथजी ने निर्गुण भक्ति धारा का जो सम्प्रदाय स्थापित किया वह जसनाथी सम्प्रदाय के नाम से प्रसिद्ध हुआ। यह पंथ मूर्ति-पूजा, अवतारवाद, बलि, कर्मकाण्ड के मकड़जाल व अंधविश्वासों को अस्वीकार करता है। इसकी स्थापना कर्मकांडों, तंत्र-मंत्र, रूढ़ियों, कुरीतियों, आडम्बरों, पाखण्डों, तांत्रिकों की जालसाजियों से जकड़े धर्म-तन्त्र से छुटकारा पाने के लिए की गई। तत्कालीन हालात ये थे कि लोग कर्मकाण्ड को ही धर्म का पर्याय समझने लगे थे। पुरोहितवाद जनसामान्य के मन-मष्तिष्क पर विभिन्न कर्मकांडों तथा निरर्थक व जटिल धार्मिक कृत्यों की सहायता से वर्चस्व स्थापित कर रहा था।

सिद्ध जसनाथजी ने मूर्ति-पूजा, धर्म के नाम पर किए जाने वाले पाखंड-आडंबर का विरोध किया। उनके एक 'सबद' से उन द्वारा स्थापित संप्रदाय के नियमों का ज्ञान होता है, जैसे: जीवन में उत्तम कार्य करना, सद्मार्ग का अनुसरण करना, स्वच्छता का ध्यान रखना, स्नान करने के बाद भोजन करना, जीवों के प्रति दया भाव रखना, अंहिसा के सिद्धांत को जीवन में अपनाना, जीवन में संतोष धारण करना आदि-आदि। स्पष्ट है कि जसनाथजी ने व्यक्ति के आचरण की शुद्धता, जीव दया, नैतिक स्तर को ऊपर उठाने एवं पर्यावरण संरक्षण पर खास जोर दिया।

सिद्ध जसनाथजी के इन सिद्धांतों को 18वीं सदी के सिद्ध रामनाथ ने 36 धर्म नियमों के रूप में कवित्व-शैली में संकलित किया।[12]

कर्मकांडी परंपराओं को खत्म करने का संकल्प लेकर इस पंथ में 36 नियमों (धर्मादेशों) का निर्धारण किया गया।

"नेम छत्तीस ही धर्म के, कहै गुरु जसनाथ।
या विध धर्म सुधारसी, भवसागर तिरजात।।"

एक नए स्वर्णिम समाज के निर्माण हेतु स्थापित किए गए इस सम्प्रदाय के 36 सरलीकृत नियम (धर्मादेश) जनसाधारण की मायड़ भाषा में हैं। इसलिए आमजन को ये आसानी से समझ में आ जाते हैं। शास्त्रों में उल्लिखित नैतिक शिक्षा का सार इनमें समाहित है।

जसनाथी पंथ की आचार-संहिता: जसनाथी संप्रदाय में साधना के चार अंग बताये हैं: संयत जीवन, सद्व्यवहार, सद्गुरू के प्रति निष्ठा और विवेकपूर्ण आदर्श। संप्रदाय के 36 नियमों के अनुरूप जीवन यापन को ‘अगम के मार्ग पर अग्रसर होना’ कहा जाता है तथा जो व्यक्ति इन नियमों की ‘चलू’ (पानी का आचमन ) लेकर संकल्प करता है वह ‘जसनाथी’ कहलाता है।

जसनाथी सम्प्रदाय के 36 नियमों में से 8 नैतिकता व जीवन मूल्यों, 6 जीव-दया व पर्यावरण संरक्षण, 7 शारीरिक स्वच्छता व शुद्धता सुनिश्चित करने और 2 नशाख़ोरी-मांसाहार का परित्याग करने से संबंधित हैं। वस्तुतः इन नियमों के ज़रिए जसनाथजी ने मानव को धार्मिक पाखण्ड व आडम्बर से मुक्त रहकर प्रकृति से नातेदारी का निर्वाह करते हुए जीवन जीने की सहज सरल विधि बताई है।

सम्प्रदाय की शिक्षाओं में चरित्र निर्माण के लिए भोगवादी प्रवृत्ति से बचने पर जोर दिया गया है। पंथ के 36 नियमों में से स्वच्छता, शुद्धता, शुचिता, अहिंसा, पर्यावरण संरक्षण, जीव दया, नैतिकता, मानवीय मूल्यों से सम्बंधित नियमों को स्पष्ट कर रहा हूँ।

  • शील स्नान सावरी सूरत।: इस नियम में शारीरिक स्वच्छता के महत्व को समझते हुए प्रतिदिन स्नान करने का निर्देश है। बालों को स्वच्छतापूर्वक रखने की भी बात कही है। जीवन में स्वच्छता, शुद्धता, पवित्रता के महत्व को स्वीकार करते हुए शारीरिक स्वच्छता के साथ-साथ मानसिक स्वच्छता अर्थात सोच-विचार की शुचिता (purity) की बात अंतर्निहित है।
  • शील, संतोष आदि का पालन करना। जीवन में चारित्रिक रूप से श्रेष्ठ और बलशाली बनने की बात को इस नियम में रेखांकित किया गया है। 'शील' से अभिप्राय नैतिक आचरण व व्यवहार ( moral conduct ) तथा मन की स्थायी वृत्ति, स्वभाव से है। उसे श्रेष्ठ स्तर पर बनाए रखना सबका कर्तव्य माना गया है। मर्यादित आचरण की सीख इस नियम में समाहित है। शील -क्षरण या शील-भंग होना धर्म के पथ से विचलित होना माना गया है। जीवन में लालच से वशीभूत होकर क्रियाकलाप करने से दूर रहने की सीख दी गई है। प्राकृतिक संसाधनों के उपयोग में संयम बरतने, मितव्ययता धारण करने, संग्रह की प्रवृत्ति से बचने, जीवन में संतोष रूपी धन धारण करने की जरूरत की ओर इशारा किया गया है।
  • पानी-दूध को वस्त्र से छानकर पीने अर्थात स्वच्छता और निर्मलता का ध्यान रखने पर जोर दिया गया है ताकि बीमारियों से बचाव हो सके।

पर्यावरण संरक्षण सम्बन्धी नियम

  • भूख मरो पण जीव ना भखो।: अहिंसा के सिद्धांत का पालन करने पर विशेष बल देते हुए सिद्ध जसनाथजी कहते हैं कि चाहे भूखे रहना पड़े पर जीव- हत्या से परहेज़ करें। उन्होंने सभी प्राणियों के प्रति प्रेम और दया भाव रखने तथा जीवों की रक्षा करने को पंथ की आचार- संहिता में शामिल किया है :
‘दया धर्म सदा ही मन भाई।’

मन में दया और धर्म के प्रति निष्ठा रखने का सिद्धांत है। पशु-बलि वर्जित है। सहिष्णु और क्षमाशील बनने पर जोर दिया गया है।

जसनाथी सम्प्रदाय में जाल वृक्ष को पवित्र मानते हुए इसे श्रद्धा के साथ देखा जाता है। इसके संरक्षण को विशेष महत्व दिया गया है। रेगिस्तानी इलाके में उस दौर में जाल का पेड़ वहां का प्रमुख प्राकृतिक पेड़ था। जसनाथी संप्रदाय में माना गया है कि पेड़ों का जीवन से निकट संबंध है, इसलिए इस संप्रदाय में जोहड़, बीड़, वणी, ओयण आदि के रूप में वनस्पति-रक्षा का जनोपयोगी कार्य किया जाता रहा है।

जसनाथी बाड़ियों में सब जगह जाल के वृक्ष फल-फूल रहे हैं और मरुभूमि की इन बाड़ियों की सुंदरता को खूब बढ़ा रहे हैं। इनके नीचे मोर व अन्य पक्षी कलरव करते रहते हैं। जसनाथी पंथ की बाड़ियाँ एक तरह के संरक्षित जंगल हैं। कतरियासर के चारों ओर जसनाथी ओयण तथा सती ओयण नाम से रक्षित जंगल छूटा हुआ है। इनकी देखभाल वहां के सिद्ध करते हैं। यहां पेड़ काटना वर्जित है। सावण में चित्ताकर्षक हरियाली मन मोह लेती है। भीषण गर्मी और लू के थपेड़ों के बीच रेगिस्तानी मेवा के नाम से प्रसिद्ध पीलू की बहार जाळ पर नजर आने लगती है।

जाल के सघन पेड़ों के साथ-साथ यहाँ पर रेगिस्तान में पनपने-बढ़ने वाले अन्य दरख़्त भी अपने पूर्ण वैभव के साथ सर ऊंचा उठाए हुए दिख जाएंगे। यहाँ तक कि बीकानेर संभाग का प्रमुख बांठ फोग, जो वर्तमान में संकटग्रस्त हो चुका है, उसकी बहुतायत भी इस ओण/ओरण में देखी जा सकती है। पेड़नुमा स्वरूप में ऊंची गर्दन उठाए यहाँ के कुछ फोग तो दर्शकों का बरबस घ्यान आकृष्ट करते हैं। ये सब यहां पर पेड़-पौधों की हो रही समुचित देखभाल का ही कमाल है। जसनाथी बाड़ियों व ओरणों में विचरण करने वाले जीव-जंतुओं को कोई भी नुकसान पहुंचाना प्रतिबंधित है।

बीकानेर रियासत के बीकानेरी झंडे में तथा गंगाशाही रुपए में जाल वृक्ष को अंकित किया गया था। महाराजा गंगासिंह ने एक फ़रमान जारी किया था कि रियासत के कार्यालयों में जाल वृक्ष लगाए जाएं। इसी क्रम में लालगढ़ का राजमहल भी जाल वृक्षों से घिरे हुए मैदान में बनवाया गया था।[13]

  • मृगां वन में रखत कराई: इस नियम के ज़रिए वन्य जीवों, विशेषकर छोटे हिरणों (चिंकारा), का संरक्षण सुनिश्चित करने हेतु पाबंद किया गया है।
  • पारिस्थिकी संतुलन में पक्षियों की अहम भूमिका को समझते हुए प्रतिदिन पक्षियों को चुग्गा-पानी देना का धर्मादेश भी इस आचार- संहिता में है। जसनाथी कृषक खेत में उपजा अन्न खलिहान से घर ले जाने से पूर्व ही उपज का एक हिस्सा हर फसल के बाद जसनाथी बाड़ियों में पक्षियों के चुग्गा के लिए देते हैं। बाड़ियों में फुटकर रूप में भी चुग्गा प्रतिदिन आता रहता है। चुग्गा-पानी की व्यवस्था का ही नतीजा है कि इन बाड़ियों में मोर, तीतर, चिड़ियों की बहुतायत है।

जीव दया सम्बन्धी नियम

  • साटियो सौदा वर्जित ताई: पशुओं का साटियों की तरह सौदा करने और कसाइयों को बेचने की बजाय साथी पशुपालकों को बेचने का निर्देश इस नियम में है।
  • बैल बढ़ावन पावै नाहीं: अर्थात बैलों को सांईंवार यानी खस्सी न करना तथा पशु क्रूरता को रोकने हेतु बछड़ों का बधियाकरण (जबरन नपुंसक करना) करने की मनाही इस नियम में की गई है। पशु-क्रूरता की मनाही है।
  • घेटा, बकरा ठाठ सवाई: मेंड़ों और बकरों को कसाई को बेचने की मनाही कर उनके लिए ठाठ (पशु-शाला) की व्यवस्था का धर्मादेश दिया गया है।

समाज के नैतिक उत्थान सम्बन्धी नियम:

  • तत्कालीन सामाजिक बुराइयों जैसे विवाह में लड़की के बदले धन लेने, उधारी पर ब्याज-प्रति ब्याज लेने आदि बुराइयों का परित्याग करने के नियम भी हैं।
  • आचार -संहिता में कुछ नियम परोपकार, धर्म-कर्म का काज करने, श्रेष्ठ जीवन जीने से सम्बंधित हैं, जैसे:
धन के अनुपात में बीसवां हिस्सा धर्म-कार्य पर व्यय करना।
निंदा कूड़ कपट नहीं कीजे, चोरी जारी पर हर दीजे। अर्थात मन, वचन से किसी की निंदा नहीं करना,
चोरी आदि दुष्कर्मों का मन, वचन, कर्म से त्याग करना तथा कपट व परस्त्रीगमन का परित्याग करना। निंदा व कुविद्यासे दूर रहने तथा उत्तम कार्य करते हुए सही रास्ते पर चलने, दुराचारियों की संगति से बचने और विवाद नहीं करने की सीख दी गई है।

होको तमाखू पीजे नाहीं, लसन अरि भांग दूर हटाई।: नशाखोरी, (भांग, गांजा, चरस आदि न पीना ), धूम्रपान, मदिरापान, तामसिक भोजन, मांसाहार की निषेधाज्ञा/ मनाही है।

सिद्ध जसनाथजी द्वारा प्रतिपादित नियम जीवन में स्वच्छता को महत्व देने, 'सादा जीवन, उच्च विचार' की प्रवृत्ति को जीवन में अपनाने, पर्यावरण का संरक्षण-संवर्धन करने , आडंबर रहित जीवन जीने, नशाख़ोरी व मांसाहार से दूर रहने और सात्विक भोजन करने पर जोर देते हैं।

स्पष्ट है कि जसनाथी पंथ के सिद्धांत सोद्देश्य आचार संहिता की श्रेणी में आते हैं। कुछ नियमों पर जोर देने के लिए उन्हें दोहराया भी गया है, जैसे नशाखोरी को वर्जित करने की बात (नियम नंबर 18, 28, 35) तीन बार की गई है। इसी तरह जीव-जंतुओं के प्रति दया भाव रखने और उनकी रक्षा करने का फरमान भी तीन बार (नियम न. 20, 21, 22 ) दोहराया गया है। सिद्ध जसनाथजी ने अपने अनुयायियों को सदाचार-पालन की ओर प्रवृत्त किया। समाज की उन्नति एवं समसामयिक समस्याओं के समाधान हेतु एक अनुशासन नियमावली प्रतिपादित की और उनके अनुयायियों ने इसे स्वीकार किया।

सिद्ध परम्परा

सिद्ध एवं शिष्य परंपरा में कई प्रसिद्ध संत हुए हैं। सिद्ध रामनाथ का 'यशोनाथ-पुराण' ग्रंथ तो जसनाथियों के लिए बाइबिल के बराबर है। सिद्ध टीलोजी भी बड़े सिद्ध महात्मा थे। इन्होंने बीकानेर महाराजा रायसिंह को अपनी सिद्धि का परिचय दिया था और राजा ने इनको पंद्रह सौ बीघा भूमि प्रदान की थी।

लिखमादेसर के सिद्ध रुस्तम जी का नाम जसनाथी संप्रदाय में सर्वोपरि है। ये लिखमादेसर धाम के मंहत धन्नानाथ जी के शिष्य थे। इन्होंने 1679 ई. में दस लंफरों के साथ दिल्ली जाकर बादशाह औरंगजेब को अनेक सिद्धियां बताई थीं, जिस पर बादशाह ने खुश होकर इन्हें कुछ उपहार दिए और जसनाथी सिद्धों को हिंदुस्तान में नकारे-निशान सहित बेरोकटोक घूमने-फिरने का ताम्रपत्र प्रदान किया था।

पूनरासर के संत पालोजी भविष्यवक्ता व चमत्कारिक सिद्ध पुरुष थे। मुगल सम्राट अकबर ने इनसे प्रभावित होकर दो हलवा भूमि चाऊ में प्रदान की थी, जिसके ताम्रपत्र को जोधपुर महाराजा गजसिंह ने प्रमाणित कर पट्टा प्रदान किया था। [14]

विधिवत प्रवर्तन: इस सम्प्रदाय के साहित्य में इस बात का उल्लेख है कि जसनाथी सम्प्रदाय का विधिवत प्रवर्तन वि. संवत 1561 (1504 ई.) में लालदेसर गाँव (बीकानेर) के रामूजी सारण को धर्म-नियम पालने की प्रतिज्ञा करवाने पर हुआ। सिद्ध जसनाथजी स्वयं ने उन्हें सम्प्रदाय की आंकड़ी नियमावली सुनाई, 'चलू' (पानी के आचमन के साथ संकल्प करवाना) ग्रहण करवाई, ऊन का काला धागा बांधा और इस तरह रामूजी सारण का विधिववत दीक्षा-संस्कार सम्पन्न किया।

संस्कार: जसनाथी संप्रदाय का अभिवादन वाक्य 'ॐ नमो आदेश' है। जसनाथी परस्पर 'ॐ नमो आदेश' कहकर अभिवादन करते हैं।

अंतिम संस्कार में शव को भू-समाधि दी जाती है। दूसरे शब्दों में, मुर्दे का दाह संस्कार करने की बज़ाय जमींदाग देते हैं। पारंपरिक अरथी (bier) की बज़ाय शव को ऊनी कंबल या पट्टू में लिटा कर ले जाया जाता है, जिसे ’झांझा झोली’ कहते हैं। इसके चारों कोनों को चार लोग पकड़े रहते हैं। बीच में कोई कपड़ा नीचे से निकाल कर दो व्यक्ति दोनों तरफ एक- एक सिरा पकड़ लेते हैं। जसनाथी जाटों में कतरियासर, लिखमादेसर, बम्बलु, मालासर, लीलसर आदि गांवों में शव को भू-समाधि दी जाती है। कुछ गांव के जसनाथी जाटों में शव का दाह संस्कार करने का रिवाज़ भी है।

जसनाथी संप्रदाय की परंपराओं और साहित्य की समुचित समझ रखने वाले जसनाथी श्री बहादुरमल सिद्ध, निवासी गांव बीकमसरा ( जिला- चूरू), से हुई चर्चा से ज्ञात हुआ कि उनके गांव बीकमसरा में 200 भारी गोत्र के जसनाथी परिवार हैं और उनमें निम्नलिखित परंपराओं का पालन किया जाता है -- 1. परिवार में किसी की मृत्यु होने पर ’भदर होने’ (परिजनों द्वारा शौक में सिर के बाल कटवाना) की परंपरा नहीं है। 2. मृतक के अंतिम संस्कार से जुड़ी किसी रस्म अदायगी के लिए हरिद्वार जाने का रिवाज नहीं है। 3. श्राद्ध नहीं किया जाता है। इसके अलावा, यह भी ज्ञात हुआ कि गांव बीकमसरा के जसनाथी मंदिर में मूर्ति-स्थापना नहीं है। यहां क़रीब तीन साल पहले बने म़ंदिर में भी सबकी सहमति से समाधि ही रखी गई है।

जसनाथ जी के आगे दिया (दीपक) नहीं जलाया जाता सिर्फ धूपिया खेया (किया) जाता है तथा सिर्फ नारियल का प्रसाद चढ़ाया जाता है। धूपिया घी से प्रज्वलित किया जाता है और उसमें नारियल भी होमते हैं। ये एक तरह से यज्ञ का छोटा रूप है। जब सिद्ध घरों में जागरण देने आते हैं तो वो शाम की पहली आरती के समय ही एक जोत, जिसे हम दीपक बोल सकते है, प्रज्वलित कर देते है जो सारी रात अखंड रहती है। सुबह की आरती के बाद जो घी और जोत शेष बचती है उसे धूणे में होम दिया जाता है।

जसनाथी सम्प्रदाय ने अपने को 'बंद समाज' (closed society) की बज़ाय खुले समाज (open society) का स्वरूप देने का प्रयास किया है।

शब्दों के अर्थ बदलते वक़्त के साथ बदलते हैं और संकुचित भी होते हैं। 'भाषा विज्ञान' में इस प्रकार के परिवर्तन को अर्थ परिवर्तन और अर्थ संकुचन कहते हैं। शब्द के अर्थ किस प्रकार अदल-बदल हो जाते हैं , इसका एक उदाहरण भी है संप्रदाय शब्द !

एक जमाना था, जब संप्रदाय के आधार पर ही कोई विचार प्रामाणिक माना जाता था। ये शब्द महत्वपूर्ण विरासत का अर्थ धारित करता था। सम्यक्‌ प्रदाय ! उत्तम विरासत ! महत्वपूर्ण विरासत। सम्यक्‌ प्रदाय अर्थात महान विरासत। संप्रदाय को किसी विचार प्रणाली या सिद्धांत की आनुषंगिक संस्थाएं माना जाता था।

आज वही संप्रदाय शब्द विकृति का अर्थ देने लगा है। संकीर्णमतवाद अथवा पंथ ! वर्तमान में सम्प्रदाय शब्द के साथ संकीर्णता का अर्थ चिपक चुका है। अब संप्रदाय बाँधता है। बांधने के अर्थ को द्योतित करता है।

सम्प्रदाय के ग्रन्थ

जसनाथ जी के उपदेश 'सिंभूदडा' एवं ' कोड़ा ' ग्रन्थों मे संग्रहित हैं। स्फुट वाणियां भी मिलती हैं। यज्ञ संबंधी ’ग्रंथों में ‘सिंभूधड़ा’ ‘कोड़’ ‘ताछ’ और ‘गोरख छंदों आदि प्रमुख हैं। इनके अतिरिक्त होम (हवन) में जिन रचनाओं का महत्व है उनमें ‘विस्नजाप’, ‘सूरजस्तुति’, ‘धूपजाप‘, ‘जोतजाप’ ‘धरतपुराण’, होम गाऊतरी’ आदि सम्मलित हैं। होम संबंधी ‘सबदों’ में 'बालकिसनजी बोलिया’ -'जलम झूलरा’ ‘चोजुगी सबद’ और ‘आदेश’ आदेश छंदा’ बोले जाते हैं।[15]

जसनाथी संप्रदाय के चर्चित कवि:

1. सोभोजी सोनी: लिखमादेसर गांव की ‘जसनाथजी की बाड़ी’ के सेवक थे। जाति के सुनार थे। इनका ‘गोपीचंदौ’ नामक काव्य लोकगाथा काव्य परम्परा के समकक्ष की रचना है, जिसमें राजा गोपीचंद की वैराग्य मूलक कथा का वर्णन है।

2. हरजी: इनका ‘सबद’ जसनाथी सिद्ध गायकों द्वारा बड़े आदर के साथ गाया जाता है।

3. गांगोजी: जसनाथी संप्रदाय का धाम लिखमादेसर में जन्में गांगोजी जाति से खाती थे। गांगोजी ने अपने सबद में आचरण शुद्धि एवं दान पुण्य करने पर जोर दिया है।

4. दयाल या दयालनाथ: इनका ‘चंपलौ’ सबद जसनाथी गायकों का प्रिय 'सबद' है। यह सोरठ राग में या प्रभाती राग में गाया जाता है। [16]

जसनाथी सम्प्रदाय की पीठ

जसनाथी संप्रदाय की प्रमुख गद्दी कतरियासर (बीकानेर) में है, जहां सिद्ध जसनाथजी ने जीवितावस्था में समाधि ली थी। जसनाथ जी के समाधि लेने के पश्चात जागोजी उनकी गद्दी पर बैठे अर्थात कतरियासर 'धाम' के महंत अथवा 'टिकायत सिद्ध' पद पर आसीन हुए।

इसी तरह उनके अन्य प्रमुख शिष्यों में से हरोजी ने बम्बलू (कतरियासर से 14 किलोमीटर दक्षिण में स्थित गांव) में, हाँसोजी ने लिखमादेसर में, पालोजी ने पूनरासर में, टोडर जी ने मालासर में तथा बोयत जी ने पांचला में अपनी-अपनी पीठ स्थापित की। ये सब इस संप्रदाय की उप-पीठ कहलाती हैं। इस प्रकार जसनाथी सम्प्रदाय की कतरियासर में प्रधान पीठ तथा पांच उप-पीठ विद्यमान हैं। इन पीठों की गद्दी पर जो बैठते हैं, वे 'सिद्ध' कहलाते हैं।[17]

प्रमुख पीठ कतरियासर पर आसीन सिद्ध परम्परा से ज्याणी जाट रहे हैं। उप-पीठों पर अन्य गोत्र के जसनाथी जाट आसीन होते रहे हैं।

सम्प्रदाय में 5 धाम (कतरियासर, लिखमादेसर, बम्बलु, पूनरासर, पांचला), 12 धाम, और 84 बाड़ियाँ, 108 स्थापना तथा अन्य स्थानों की 'भावना' रूप में प्रतिष्ठा है। बारह धामों में सुरतोजी (झँझेऊ) के 'सबद' में उल्लिखित 'बाड़ियों' की गणना होती है।

जसनाथी सिद्धों की जहां समाधियां बनी हुई हैं तथा जहां मंदिर बने हुए हैं, उन्हें बाड़ी नाम से संबोधित किया जाता है। ये जसनाथी सम्प्रदाय के उपासना-स्थल हैं। बाड़ी का दूसरा नाम आसाण (आश्रम) भी है। कतरियासर की बाड़ी का क्षेत्रफल 84 बीघा है।

चौरासी 'बाड़ियों' में जसनाथजी के लगभग 140 अनुयायियों द्वारा जीवित समाधियां लीं गई हैं जो कि शोध का विषय है। जसनाथी संप्रदाय के 'बारह धाम’ ‘चौरासी बाड़ी’ में रात्रि जागरण के पश्चात् विराट होम होता है। प्रतिदिन इन स्थानों में प्रातः सांय- घृत की ‘जोत’ होती है

गद्दी पर बैठने वाले सिद्ध भी खेती करते हैं और विवाह भी करते हैं परंतु पांचला में अविवाहित सिद्ध ही गद्दी पर बैठते हैं।[18]

इसलिए पांचला की गद्दी को कुंवारी गद्दी कहा जाता है।

सिद्धों के अलावा इस संप्रदाय में विरक्त संत भी होते हैं जो परमहंस कहलाते हैं तथा वे विवाह नहीं करते हैं।[19]

सम्प्रदाय के वर्ग

जसनाथी संप्रदाय को मानने वाले जसनाथी कहलाए। ये अधिकांशतः खेतिहर जाट थे। कालांतर में इसमें दो वर्ग बन गए : सिद्ध और जसनाथी जाट। इन दोनों की मान्यता और धर्म पालन की परिपाटी एक सी है। केवल इनके पहनावे में थोड़ा सा अंतर है। जिन्होंने अपने आदि गुरु जसनाथजी के नाम का 'बाना' धारण किया, वे सिद्ध कहलाए तथा जो पूर्ववत अपने सादे/ परंपरागत वेश में बने रहे, वे जाट कहलाते रहे।

'सिद्ध' सिर पर भगवे रंग की पगड़ी (saffron coloured turban) बांधते हैं, जसनाथी मंदिरों में पूजा करते हैं, 'सबद' गाते हैं, जागरण देते हैं।

'जसनाथी जाट' साधारण राजस्थानी वेशभूषा में ही रहते हैं। जसनाथी संप्रदाय के अनुयायी अधिकांशतः खेती करने वाले जाट ही हैं। जसनाथजी की शिक्षाओं से प्रभावित कुछ ब्राह्मण, ओसवाल, नाई, सुथार और सोनी भी इस पंथ के अनुयायी हैं।

जसनाथजी को जो धोकते हैं वे ‘सेवक’ कहलाते हैं। महंत को ‘साधु’ कहते हैं। सभी के लिए सम्प्रदाय के 36 नियमों का पालन करना जरूरी है। सिद्धों की दीक्षा सिद्ध गुरु द्वारा दी जाती है।

जसनाथी काली ऊन की त्रिगण्ठी युक्त (तीन गांठ की) डोरी गले में बांधते हैं। तथा मोरपंख और जाल वृक्ष को पवित्र मानते हैं। यहाँ ये स्पष्ट कर देता हूँ कि श्री सूर्यशंकर पारीक द्वारा लिखित 'सबद- ग्रंथ' एवं अन्य कई पुस्तकों में त्रिगण्ठी का उल्लेख है जबकि जसनाथी बताते हैं कि उनके गले में जो तांती (डोरी) बंधी हुई है, उसमें सात गांठें हैं।)

जसनाथी संप्रदाय को अपनाने वालों में अधिकांश थली प्रदेश (बीकानेर संभाग) और मालाणी परगने (जोधपुर संभाग) के खेतिहर जाट थे। युगानुकूल शब्दावली में पंथ का यथेष्ट प्रचार-प्रसार नहीं हो पाने के कारण इसका दायरा कुछ इलाकों तक ही सीमित रहा।

मुख्य पर्व: जसनाथी संप्रदाय में यज्ञ संबंधी पर्वों में निम्न तीन पर्व मुख्य माने गये हैं:

1. गुरु जसनाथ जी द्वारा समाधि लेने के दिन यानी जसनाथ जी का निर्वाण पर्व आसोज (आश्विन ) शुक्ला सप्तमी को मनाया जाता है।

2. माघ शुक्ला सप्तमी को पर्व इसलिए मनाया जाता है कि इस दिन जसनाथ जी के शिष्य हांसूजी में जसनाथ जी की ज्योति प्रकट हुई थी।

3. चैत/ चैत्र में दो पर्व मनाये जाते हैं। चैत्र सुदी चौथ को सती काळलदेजी का और उसके तीन दिन बाद सप्तमी को जसनाथजी का पर्व मनाया जाता है। जातरी( तीर्थ यात्री ) अपने बच्चों का झडूला इसी दिन गोरखमालिया पर आकर उतारते हैं। जसनाथी को कतरियासर गठजोड़े की यात्रा करना अनिवार्य माना जाता है। [20]

जसनाथी समाज और अग्नि नृत्य/ अंगारा -नृत्य

जसनाथियों का अग्नि नृत्य

अंगारा नृत्य जसनाथी सम्प्रदाय की आस्था से जुड़ा विषय रहा है। सम्प्रदाय की शिक्षाओं के प्रचार-प्रसार के लिए लोगों को आकर्षित करने हेतु यह विस्मयकारी आयोजन किया जाने लगा होगा जो निरंतर आस्था से जुड़ता चला गया। अग्नि नृत्य के आयोजन के दौरान लोगों के मानस में नैतिक उत्थान के उपदेश प्रतिष्ठित किए जाने लगे। कहना था कि 'कान सुणै ज्यूं जो सूरत पड़ै' अर्थात श्रवण करने से ही मनुष्य प्रतिबोधित होता है। सरल शब्दों में जब मनुष्य उपदेश सुनेगा तो उन्हें धारण भी करेगा।

अग्नि-नृत्य इस संप्रदाय के प्रचार-प्रसार का प्रभावी माध्यम बन गया। दर्शकों की भीड़ जुटने लगी। इस दौरान हतप्रभ लोगों को कर्मकांडी जटिलताओं से मुक्त होकर सरल व शालीन जीवन जीने, मद्यपान व मांसाहार त्यागने के लिए प्रेरित किया जाने लगा।

राजस्थान के लोक नृत्यों में से सबसे ज्यादा आश्चर्याभिभूत करने वाला नृत्य अग्नि नृत्य है। इसकी शुरुआत 'जसनाथी सम्प्रदाय' के जाट सिद्धों द्वारा कतरियासर (बीकानेर) में की गई। यह नृत्य 'अग्नि' अर्थात् धधकते हुए अंगारों पर किया जाता है।

अग्नि पर नृत्य रतजगा (रात्रि मे होने वाला जागरण) का हिस्सा रहा है। इसका मंचीय प्रदर्शन (stage show) जब से प्रचारित होने लगा तब से यह अग्नि नृत्य कहलाने लगा। इस रात्रि जागरण के चार प्रमुख घटक हैं:

1. हवन
2. ज्योति-आरती
3. गायबा (गायन-वादन)
4. अग्नि नृत्य

रातिजगे (रात्रि जागरण) मय अग्नि नृत्य आश्विन, माघ और चैत्र शुक्ला सप्तमी की विशेष तिथियों पर जसनाथी पंथ के 12 धाम और 84 सिद्ध बाड़ियों पर हर वर्ष सम्पन्न होते हैं। ये रात्रि जागरण समाधियों पर धूप-ध्यावना तथा हवन से आरंभ होते हैं। हवन के समय जसनाथ जी की रचना 'सिम्भूधड़ा' का पाठ किया जाता है।

रात्रि-जागरण में अग्नि नृत्य और सबद गायन के पूर्व ‘माराज (महाराज) की जोत’ करते हैं और 'सबद' बोलते हैं। अग्नि कुण्ड को ‘धूंणा’ कहते हैं। जागरण में ‘धूंणा’ जगाते (अग्नि प्रज्ज्वलन) हैं। 'सबद गायकों' को ‘गायबी/गावणिया’ और नाचने वालों को ‘नाचणिया’ कहा जाता है। अग्नि नृत्य के दौरान अंगारों को ‘मतीरा’ कहते हैं।

रतजगे में अंगारों पर यह नृत्य सिद्ध जसनाथजी के सम्मान में किया जाता है। अग्नि नृत्य में केवल पुरुष भाग लेते हैं और सिर पर पगड़ी, धोती-कुर्ता और पाँव में कड़ा पहनते हैं। 'नाचणिये' अग्नि कुंड के धधकते अंगारों के ढेर पर फते- फते कहते हुए नृत्य करते हैं और कई करतब दिखाते हैं।

आरंभिक तैयारियां: नृत्य स्थल पर जल छिड़कर पवित्र किया जाता है और नृत्य के लिए बनाए गए घेरे ( circle ) को पानी से तरबतर कर दिया जाता है ताकि नृत्य के दौरान मिट्टी न उड़े व तीव्र अग्नि की आंच से भी नर्तकों को रेत की ठण्डक से राहत महसूस होती रहे।

नृत्य से एक-डेढ़ धण्टे पूर्व नृत्य- स्थल पर एक 4'x7' के घेरे का एक गोलाकार अग्निकुंड बनाया जाता है, जिसे 'धूणा' कहते हैं। धूणें में मोटी- मोटी लकड़ियां एक के ऊपर एक करीने से जमाई जाती हैं। फिर हवन विधि के अनुरूप मंत्रोचारण के साथ घी की आहुति देकर धूणें में अग्नि प्रज्वलित की जाती है। धूणे से अग्नि प्रज्वलित होते ही दर्शक ‘धूणें’ के चारों ओर उचित दूरी पर बैठ जाते हैं। सामने दूसरे सिरे पर ऊंचे तख्तों पर गायबी (गायक-कीर्तनकार ) चन्द्राकार आसन ग्रहण कर लेते हैं। जलती लकड़ियों के ‘धूणें’ और नर्तन सीमा में किसी अन्य को आने की अनुमति नहीं रहती है। सिर पर गेरुआ रंग का साफा, बदन पर सफेद रंग का कुर्ता पहने व धोती बांधे जसनाथी गायबियों (कीर्तनकारों व वादकों) का समूह मंच पर बड़े- बड़े नगाड़ों की थाप पर मंगलाचरण व स्तवन की परंपरा का निर्वहन करता है। गायबियों का सबद गान वातावरण को भक्तिमय बना देता है।

तीन ‘सबद’ गान के बाद जसनाथजी की जोत (ज्योति) की जाती है। जोत को ही गुरु महाराज का प्रतीक मानकर आरती को धूणें की चारों दिशाओं में घूमाया जाता है और अखण्ड धार से अग्निकुण्ड में घी होमा जाता है। आरती के दौरान नगाड़े, शंख तथा झालर की अनुगूंज सारे माहौल में भक्ति का रस घोल देती है। नाचणिये तथा ‘गायबी’ समवेत स्वर में सुरीली आरती गाते हैं।

इसके बाद चौथे ‘सबद’ का गान प्रारम्भ होता है और ज्यों ही राग में परिवर्तन आता है, इसे राग फुरना कहते हैं। तीसरे सबद के बाद और होम जाप के तथा आरती के उपरान्त चौथा सबद -- मल्हार राग पर ‘सतगुरु सिंवरो मोवण्या, जिण ओ संसार उपायो’-- सबद गान के साथ एक-एक नर्तक खड़े होकर धूणे के चारों ओर पहले चार चक्कर लगाते हैं फिर विभिन्न प्रकार के हाव- भाव के साथ नगाड़े की ताल पर पैर उठने लगते हैं। नगाड़े पर जोर की तीन थापी पर छलांग लगाते हैं और तीन थापी पर अग्नि पर बैठते हैं।

अग्नि नृत्य करने वाले नर्तक पहले तेज गति से धूणा की परिक्रमा करते हैं। तेजी से नगाड़ों और निशान को प्रणाम करते हुए गुरु की आज्ञा लेकर फतै-फतै- 'फ़तह'! फ़तह!' (अर्थात् विजय हो! विजय हो!) कहते हुए अंगारों के बीच कूद जाते हैं।

जैसे ही राग की ध्वनि और नगाड़े की ताल की गति बदलते हैं, ये नृतक अंगारों के ढेर में कई बार प्रवेश करते हैं और बाहर निकलते हैं। नगाड़े की ताल पर ही अंगारों पर खड़े होते हैं और धूणें के चारों ओर अलग-अलग मुद्राओं में नाचते हैं, चक्कर लगाते हैं। नृतक नगाड़े की थापी का पूरा ध्यान रखते हैं। नगाड़े राग के आरोह- अवरोह पर बजाये जाते हैं और पैर स्वयं नगाड़ों की थाप पर उठते जाते हैं। नगाड़ों की थाप और नृतकों के पैरों की गति की लयबद्धता शोध का विषय है। नृतक नगाड़े की थापी का पूरा ध्यान रखते हैं। ताल रुक जाने पर नर्तक भी रुक जाते हैं।

प्रारम्भ में गति धीमी होती है और गान बड़ा सहज होता है। गति बढ़ने के साथ नर्तकों के कदमों की गति भी तेज होने लगती है। धीमी गति में बैठते हैं और तेज गति में 'धूणें’ से अंगारे उछालते रहते हैं। नगाड़ा बजाने वाले की दृष्टि नर्तकों के कदमों पर टिकी रहती है। नगाड़ों की थापी पर अंगारों पर खड़े होना, बैठना, अंगारों पर पैर रख कर चलना प्रारम्भ कर देते हैं। नाचणिये नर्तन करते हुए अपने हाथों को आशीर्वादात्मक संकेत में ऊपर करते हैं। यह दृश्य अत्यन्त मनोरम होता है। [21]

नर्तक अग्नि के दहकते अंगारों से गुजरते हैं, अठखेलियां करने लगते हैं। दहकते अंगारों पर चलते हैं। खिलौनों की तरह अंगारों को हाथों में ले लेते हैं। अंगारों को हाथ में लिए रखना तथा छोटी-छोटी चिंगारियों को मुंह में डालकर फूं- फूं करते हुए उन्हें दर्शकों की ओर फेंकना-- ये सब कौतूहल पैदा करने वाले करतब दिखाए जाते हैं। अग्नि-ढेर में बैठकर अंगारों को हथेली में रखकर 'मतीरा' फोड़ने का प्रदर्शन करना, पैरों से अग्नि- ढेर को कुरेदना, इस नृत्य के सबसे ज़्यादा कमाल के करतब हैं।

पूरी रात तक चलने वाले इस आयोजन में रात्रि के प्रथम प्रहर से अन्तिम प्रहर तक ‘सिरलोकों’ ( सबदों ) यानी जसनाथजी की वाणी से वातावरण गुंजायमान रहता है। भारी तादाद में उपस्थित श्रद्धालु पूरी रात अलग-अलग रागों में गाई जाने वाली वाणी का रसास्वादन करते हैं। ऐसा लगता है मानो कि मरुस्थल में भक्तिसागर हिलोरे मार रहा है।

नृत्य के उपरान्त ब्रह्ममुहूर्त में प्रातःकालीन ‘जोत’ (ज्योत) करने के समय ‘जम्मो जागतो’ ‘सबद’ गाते हैं। सबद गान के साथ ‘अरथाव’ चलता है। यानी सबद का विश्लेषण, अन्तर कथाओं के दौरान अर्थ भाव चलता है और इसमें हुंकारिये की भूमिका और उसके हुंकारा भरने का अंदाज़ सब का मन मोह लेता है।

रात्रि जागरण में गाई जाने वाली वाणी, राग और ‘सबदों’ के अर्थ से अनभिज्ञ श्रोता भी उस भक्तिमय संगीत की धारा में खो जाता है। गायन की लय-ताल तथा साथ में 'मजीरों’ की झंकार कानों में रस घोलती है। सारा माहौल मधुर स्वर- लहरियों एवं संगीत से गुंजायमान रहता है। राजस्थानी लोक संगीत व नृत्य का ये झरना रेगिस्तान की धरती पर झरता रहता है और श्रोता उसमें डुबकी लगाते रहते हैं।

नृत्य में मनोरंजन के साथ-साथ आगामी वर्ष के लिए शगुन/ शकुन (omen) भी लिया जाता है। दो लोगों को बैल बना कर हल जोतने, आदमियों के बोरे बना कर मोठ- गंवार भरने का प्रदर्शन किया जाता है। इस प्रदर्शन ( show ) में अगर सब कुछ निर्धारित मानदण्डों के अनुसार सम्पन्न होता है तो जमाना ( अच्छी पैदावार/ उपज ) होने और यदि कोई दोष रह जाता है तो अकाल का संकेत माना जाता है। आखिर में अंगारों को बिखेर दिया जाता है और जिस दिशा में अंगारे ज्यादा- कम बिखरते हैं उसी से 'सुकाल'- 'अकाल' का अनुमान लगाया जाता है। श्रद्धालु आधे-अधूरे बुझे अंगारों, जिन्हें ‘मतीरा’ कहा जाता है, को एकत्रित करते हैं।

रात्रि जागरण में जसनाथजी द्वारा रचित ‘सिंम्भूधड़ो’, ‘कोड़ो’, ‘गौरखछन्दौ’, स्तवन रचनाओं का सस्वर ‘गायबा’ गायन किया जाता है। इनका पहला ‘सिरलोक’ ‘बड़ी राग’ सिन्धु राग कहलाता है जो पहले पहर में, दूसरा सबद 'सूहब राग' द्वितीय प्रहर में तथा तीसरा सबद 'हंसा राग' तीसरे पहर में गाया जाता है।

जागरण में ‘सबद’ गायन विभिन्न रागों में बद्ध होता है। प्रमुख रागें हैं -बड़ी राग, सूहब, हंसा, मल्हार, गवड़ी, सोरठ, मारू, रांमगीरी, जांगळू, पींडतांणी, आसा, माड़ेची, बिरावल, धनासरी, भीमपल भंवरा, मेघमल्हार, हंसावली आदि।

'जसनाथी संगीत' और 'अग्नि -नृत्य' सिद्ध जसनाथजी की कतिपय मौलिक सौगतों में से हैं। इस मौलिक संगीत को 'जसनाथाणी राग शैली ' नाम दिया जाता है।

जारगण के उपरान्त इस पंथ के मतावलंबी अपने तीर्थ स्थान से चरणामृत का आचमन लेकर विदा लेते हैं। 'चलू' के लिए कहा गया है कि यह धर्म की आण, गुरु की काण, गंगा का स्नान, गोरखनाथ का ज्ञान, ईश्वर का ध्यान, सत पुरखों का मान तथा सिद्ध जसनाथजी का आचार-विचार है।

जसनाथी सम्प्रदाय ने अग्नि नृत्य को तप-शक्ति विकसित करने, नैतिक गुणों के उत्थान, आत्मिक शुद्धता, संयमित जीवनयापन करने आदि का माध्यम बनाया। आध्यात्मिक रस से आप्लावित कर इसे उपदेशात्मक स्वरूप प्रदान करना इसका मुख्य उद्देश्य रहा होगा।

दोहरा रहा हूँ कि लिखमादेसर धाम के सिद्ध रुस्तम जी का नाम जसनाथी संप्रदाय में विशिष्ट स्थान रखता है। इन्होंने 1679 ई. में दस लंफरों के साथ दिल्ली जाकर बादशाह औरंगजेब को अनेक सिद्धियां बताई थीं। अग्नि नृत्य भी उनके सम्मुख प्रस्तुत किया था। इस पर बादशाह ने खुश होकर इन्हें कुछ उपहार दिए और जसनाथी सिद्धों को हिंदुस्तान में नकारे- निशान सहित बेरोकटोक घूमने-फिरने का ताम्रपत्र प्रदान किया था। इसमें जिसमें औरंगजेब के सम्मुख प्रस्तुत किए चमत्कारों का उल्लेख है। औरंगजेब की दी गई बिना सूई और तागे से सिली गुदड़ी और दो नारियल बीनादेसर मंहत के पास सुरक्षित बताए जाते हैं।

सिद्घ रूस्तमजी ने बाद में छाजुसर में जीवित समाधि ली थी। यहाँ रूस्तमजी का टोप रखा हुआ है और उनके हाथ की छाप दीवार पर अँकित है। ये भी बताया जाता है कि मंदिर औरंगजेब के निर्देश से बना हुआ है।

जसनाथी पंथ के लोक साहित्य में जागरण (अग्नि नृत्य) की महत्ता का ख़ूब बखान किया गया है। राजस्थान में लोकोत्सवों, पर्यटन विभाग के आयोजनों व कुछ ख़ास मौकों पर ‘अग्नि नृत्य’ का आयोजन किया जाता रहा है। बीकानेर में हर साल आयोजित होने वाले ऊंट उत्सव ( camel festival ) के दौरान जसनाथी धधकते अंगारों पर नृत्य करते हैं। सैलानियों को हर साल इस फेस्टिवल का बेसब्री से इंतजार रहता है। इसमें बड़ी संख्या में विदेशी सैलानी भी जुटते हैं।

इस संक्षिप्त आलेख का दायरा अग्नि नृत्य के उद्भव, इसकी तैयारियों, ये कैसे किया जाता है, इस दौरान कौन- कौन से करतब दिखाए जाते हैं और इसकी प्रस्तुति के समय के भक्तिमय माहौल तक ही सीमित रखा गया है। इसके रहस्य और विभिन्न आधारों के विवेचन को इस आलेख की परिधि से बाहर रखा गया है।


अग्नि पर चलने का वैज्ञानिकविश्लेषण: दुनिया में कई जगह अग्नि पर चलने की चमत्कारिक घटनाओं का प्रदर्शन किया जाता रहा है। उनका मनोवैज्ञानिक अध्ययन कर वैज्ञानिक स्टीवन् ने लिखा है कि आग पर चलने या नृत्य करने वाले लोग उस समय तन्द्रा की स्थिति में रहते हैं। इस संबंध में एक अन्य वैज्ञानिक कैने ने अपने शोध निष्कर्ष में लिखा है कि सम्मोहन की स्थिति में व्यक्ति को आग के संसर्ग में जलन महसूस नहीं होती है। वैज्ञानिकों का कथन है कि आग पर चलना एक शारीरिक एवं मानसिक कौशल है।

विस्तृत अध्ययन

शोधपरक पुस्तकें एवं आलेख जिनका अनुशीलन कर यह आलेख लिखा गया है, उनका विवरण इस प्रकार है:

1. सूर्यशंकर पारीक: जसनाथी साहित्य का सिलसिलेवार संकलन 'सबद- ग्रंथ' [ समग्र जसनाथी साहित्य की शोधपूर्ण प्रस्तुति ], 1996

2. प्रो. पेमाराम एवं डॉ. विक्रमादित्य: जाटों की गौरव गाथा, 2008, पृष्ठ 188-204

3. नटवर त्रिपाठी: 'जसनाथी सम्प्रदाय का अग्नि नृत्य'; अपनी माटी' में प्रकाशित, मई -2013 अंक

4. परशुराम चतुर्वेदी: उत्तरी भारत की संत परम्परा, पृष्ठ 440-41

5. Encyclopaedia of Oriental Philosophy and Religion, Volume 2 J-R , Hinduism, Edited by N.K. Sinha and A.P. Mishra, 2005, page 359-60

6. People of India: Rajasthan, Volume 38, Part Two, General Editor K. S. Singh, 1998, 'Sidh', page 901-02

7. Popular Literature and Pre-modern Societies in South Asia, Edited by Surinder Singh and Ishwar Dayal Gaur, 2008, Chapter 8- 'Oral Traditions and Little Cultures: Jasnathis in Historical Perspective' by Sunita Zaidi, page 162-75

बाहरी कड़ियाँ

चित्र गैलरी

संदर्भ

  1. सिद्ध रामनाथ: यशोनाथ पुराण' पृष्ठ 2 रिपोर्ट मर्दुमशुमारी- राज मारवाड़, पृष्ठ 62, 1891 ई.
  2. सिद्ध चरित्र, पृष्ठ 53
  3. श्री कन्हैयालाल सहल तथा पतराम गौड़: सिद्धाचार्य जसनाथ जी तथा लोहा- पांगल, राजस्थानी साहित्य, वर्ष-1, पृष्ठ 24 - 27
  4. सिद्ध चरित्र, पृष्ठ 123
  5. सूर्यशंकर पारीक: जसनाथी साहित्य का सिलसिलेवार संकलन 'सबद- ग्रंथ' [ समग्र जसनाथी साहित्य की शोधपूर्ण प्रस्तुति ], प्रथम खण्ड, पृष्ठ 15, 1996
  6. मुंशी सोहनलाल: तवारीख़ राज श्री बीकानेर, पृ. 46
  7. यशोनाथ पुराण, पृष्ठ 88
  8. सिद्ध -चरित्र, पृष्ठ 159-60
  9. यशो नाथ पुराण, पृष्ठ 60- 71
  10. जसनाथ पुराण [ हस्तलिखित ग्रंथ ] पृ. 61-68 संवत 1820
  11. जसनाथ पुराण [ हस्तलिखित ग्रंथ ] पृ. 40,46, 66, 67 संवत 1820
  12. सिद्ध रामनाथ: यशोनाथ पुराण, पृष्ठ 53- 55
  13. सिद्ध चरित्र, पृष्ठ 121-22
  14. सिद्ध चरित्र, पृष्ठ 177, 189-192, 214
  15. विश्वम्भरा पृ. 92-3, वर्ष-2, अंक-2-3, सं. 2021.
  16. विश्वम्भरा पृ. 49-55, वर्ष -9, अंक-1, सं. 2032.
  17. रिपोर्ट मर्दुमशुमारी राज- मारवाड़ पृष्ठ 63, 1891ई.
  18. संवत 1879 ई. के हस्तलिखित पत्र पांचला से प्राप्त
  19. राजस्थान का आध्यात्मिक परिचय, पृष्ठ 31
  20. सिद्ध चरित्र, पृष्ठ 17
  21. रिपोर्ट मर्दुमशुमारी राज मारवाड़, पृष्ठ 63- 65, 1891 ई.