Pravarshanagiri

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(Redirected from Pravarṣaṇa)
Author:Laxman Burdak, IFS (R)

Pravarshanagiri (प्रवर्षणगिरि) is a hill mentioned in Srimad Bhgavatam, Ramayana and Mahabharata.

Origin

Variants

History

Pravarṣaṇa (प्रवर्षण) was a peak of the mountain Gomanta. Śrī Kṛṣṇa and Balarāma once went to its top to observe the movements of their enemy Māgadha. (10th Skandha, Bhāgavata). [1][2]

Pravarṣaṇa (प्रवर्षण) was the top hill of Gomanta. Pursued by Jarāsandha, Rāma and Kṛṣṇa fled to this. Besieged by Jarāsandha.[3][4]


Lord Krishna accepted the defeat 17 times against Jarasandha. Lastly Krishna and Balrama hidden in the hills of Pravarshanagiri to escape from Jarasandha. Unable to find Krishna in the hill, Jarasandha burnt the entire hill and turned back. Krishna shifted himself along with all the Yadavas to a newly built city, Dwaraka, amidst ocean, thus inaccessible to Jarasandha.[5]

In Ramayana

Kishkindha Kanda Sarga 47 mentions that search for Sita failed in east, north, and west. Pravarshana is mentioned in Ramayana (4.47.10)[6].....All of the expeditionists have reached and venerated Sugriva who is sitting along with Rama on the peak of Mt. Prasravana and spoke this to him. [4-47-10]

In Srimad Bhgavatam

Srimad Bhgavatam (10.52.10) mentions: Apparently exhausted after fleeing a long distance, the two Lords (Krishna & Balarama) climbed a high mountain named Pravarṣaṇa, upon which Lord Indra showers incessant rain.[7]

Srimad Bhgavatam (10.52.11) mentions: Although he knew They were hiding on the mountain, Jarāsandha could find no trace of Them. Therefore, O King, he placed firewood on all sides and set the mountain ablaze.[8]

Srimad Bhgavatam (10.52.12) mentions: The two of Them then suddenly jumped from the burning mountain, which was eleven yojanas high, and fell to the ground.[9]

Srimad Bhgavatam (10.52.13) mentions: Unseen by Their opponent or his followers, O King, those two most exalted Yadus returned to Their city of Dvārakā, which had the ocean as a protective moat.[10]

Srimad Bhgavatam (10.52.14) mentions: Jarāsandha, moreover, mistakenly thought that Balarāma and Keśava had burned to death in the fire. Thus he withdrew his vast military force and returned to the Magadha kingdom.[11]

प्रवर्षणगिरि

विजयेन्द्र कुमार माथुर[12] ने लेख किया है .....प्रवर्षणगिरि (AS, p.588-589) का वर्णन वाल्मीकि रामायण में हुआ है, जो होस्पेट तालुका, मैसूर में है। इसे 'प्रस्रवण गिरि' भी कहते हैं। प्राचीन किष्किंधा के निकट माल्यवान् पर्वत स्थित है, जिसके एक भाग का नाम 'प्रवर्षणगिरि' है। यह किष्किंधा के विरूपाक्ष मन्दिर से चार मील दूर है। वाल्मीकि रामायण के अनुसार यहीं पर एक गुहा में श्रीराम ने वनवास काल में सीताहरण के पश्चात् और सुग्रीव का राज्याभिषेक करने पर प्रथम वर्षा ऋतु व्यतीत की थी। 'अभिषिक्ते तु सुग्रीवे प्रविष्टे वानरे गुहाम, आजगाम सह भ्रात्रा राम: प्रस्रवणं गिरिम्'- किष्किंधा 27, 1. इस पर्वत का वर्णन करते हुए वाल्मीकि लिखते हैं- 'शार्दूल मृगसंघुष्टं सिंहैर्भीमरवैवृतम्, नानागुल्मलतागूढ़ं बहुपादपसंकुलम्। ऋक्षवानरगोपुच्छैर्मार्जारैश्च निषेवितम्, मेघराशिनिभं शैलं नित्यं शुचिकरं शिवम्। तस्य शैलस्य शिखरे महतीमायतां गुहाम्, प्रत्यगृह्लात वासार्थ राम: सौमित्रिणा सह' किष्किंधा 27, 2-3-4

श्रीराम-लक्ष्मण से इस पर्वत का वर्णन करते हुए कहते हैं- 'इयं गिरिगुहा रम्या विशाला युक्तमारुता, श्वेताभि: कृष्णताम्राभि: शिलाभिरुपशोभितम्। नानाधातुसमाकीर्ण नदीदर्दुरसंयुतम्। विविधैर्वृक्षखंडैश्च चारुचित्रलतायुतम्। नानाविहग संघुष्टं मयूरवनादितम्। मालतीकुंद गुल्मैश्च सिंदुवारै: शिरीषकै:, कदंबार्जुन सर्जेश्च पुष्पितैरुपशोभिताम्, इयं च नलिनी रम्या फुल्लपंकजमंडिता, नातिदूरे गुहायानी भविष्यति नृपात्मज' किष्किंधा 27, 6-8-9-10-11

किष्किंधा 47, 10 में भी प्रस्रवण गिरि पर राम को निवास करते हुए कहा गया है- 'तं प्रस्रवणपृष्ठस्थं समासाद्याभिवाद्य च, आसीनं सहरामेण सुग्रीवमिदमब्रुवन्' अध्यात्म रामायण में प्रवर्षण गिरि पर राम के निवास करने का वर्णन सुंदर भाषा है- 'ततो रामो जगामाशु लक्ष्मेण समन्वित:, प्रवर्षणगिरेरुर्घ्व शिखरं भूरिविस्तरम्। तत्रैकं गह्वरं दृष्टवा स्फटिकं दीप्तिमच्छुभम्, वर्षवातातपसहं फलमूलसमीपगम्, वासाय रोचयामास तत्र राम: सलक्ष्मण:। दिव्यमूलफलपुष्पसंयुते मौक्तिकोपमजलौध पल्वले, चित्रवर्णमृगपक्षिशोभिते पर्वते रघुकुलोत्तमोऽवसत्'- किष्किंधा 4, 53-54-55.


वाल्मीकि रामायण, किष्किंधाकांड 27 में प्रवर्षणगिरि की गुहा के निकट किसी पहाड़ी नदी का भी वर्णन है। पहाड़ी के नाम प्रवर्षण या प्रस्रवणगिरि से सूचित होता है कि यहाँ वर्षा काल में घनघोर वर्षा होती थी। (टि. वालमीकि रामायण में इस पहाड़ी को प्रस्रवण गिरि कहा गया है और उत्तर रामचरित में भवभूति ने भी इसे इसी नाम से अभिहीत किया है- 'अयमविरलानोकहनिवहनिरंतरस्निग्धनीलपरिसराण्यपरिणद्वगोदावरीमुखकंदर:, संततमभिष्यन्दमान मेघदुरित नीलिमाजनस्थान मध्यगोगिरि प्रस्रवणोनाम मेघमालेव यश्चायमारादिव विभाव्यते, गिरि: प्रस्रवण: [p.589] सोऽयं यत्र गोदावरी नदी,' उत्तर राम चरित 2, 24))

तुलसीदास ने इसे प्रवर्षण गिरि कहा है- 'तब सुग्रीव भवन फिर आए, राम प्रवर्षण गिरि पर छाये' रामचरित मानस, किष्किंधा कांड

External links

References

  1. Source: archive.org: Puranic Encyclopaedia
  2. https://www.wisdomlib.org/definition/pravarshana
  3. Source: Cologne Digital Sanskrit Dictionaries: The Purana Index
  4. https://www.wisdomlib.org/definition/pravarshana
  5. https://www.speakingtree.in/blog/nishkama-karma
  6. तम् प्रस्रवण पृष्ठस्थम् समासाद्य अभिवाद्य च । आसीनम् सह रामेण सुग्रीवम् इदम् अब्रुवन् (4.47.10)
  7. प्रद्रुत्य दूरं संश्रान्तौ तुङ्गमारुहतां गिरिम् । प्रवर्षणाख्यं भगवान् नित्यदा यत्र वर्षति ŚB 10.52.10
  8. गिरौ निलीनावाज्ञाय नाधिगम्य पदं नृप । ददाह गिरिमेधोभि: समन्तादग्निमुत्सृजन् ŚB 10.52.11
  9. तत उत्पत्य तरसा दह्यमानतटादुभौ । दशैकयोजनात्तुङ्गान्निपेततुरधो भुवि ŚB 10.52.12
  10. अलक्ष्यमाणौ रिपुणा सानुगेन यदूत्तमौ । स्वपुरं पुनरायातौ समुद्रपरिखां नृप ŚB 10.52.13
  11. सोऽपि दग्धाविति मृषा मन्वानो बलकेशवौ । बलमाकृष्य सुमहन्मगधान् मागधो ययौ ŚB 10.52.14
  12. Aitihasik Sthanavali by Vijayendra Kumar Mathur, p.588