Siranwali

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Ruins of Mansion of Ranjit Singh's Era

Siranwali (Punjabi/Urdu:سرانوالی is a town on the Gujranwala to Pasrur road in Daska Tehsil, Sialkot District, Pakistan..[1]

Location

History

Ram Sarup Joon[2] writes about Siddhu Chief Of Saranwali: The leader of this dynasty, Hasan, fought fierce battles against the people of Kariya community. Later, they settled down in Gurdaspur and his widow daughter was married to Ranjit Singh's elder son Kharak Singh. The annual income of this Jagir was Rs. 36,000.


The village of Siranwali in Pasrur (Sialkot) was founded by Sindhu-Jat ancestor Hassan at place where he overcame Karayah tribe. Hassan also founded a village Hassanwala (Gujranwala) in 1500 AD.[3]

Siranwali traces its history with the reign of Ranjit Singh of Lahore. While the area was Settled by the Sandhu Jat migrants who believed to come here from northeastern Ottoman Empire (modern Georgia, Chechenya, Adjara, Abkhazia) as per Sir Lepel Griffin.

The Sandhu family of Siranwali rose to the position of power under the rule of Ranjit Singh of Lahore. He awarded this Jagir to Sardar Lal Singh Sandhu whose daughter was married with Ranjit Singh's elder son Kharak Singh in 1840.[4]

In 1849 the area was captured by British army and they allotted a pension of Rs 1,000 a month to Lal Singh's elder son Rachpal singh Sandhu. In 1884 he was the nominated president of Sialkot District. In the same year British entrusted him with civil and criminal powers as an honourary magistrate with his court in Siranwali mansion.

Rachpal Singh died in 1907 and his son Sardar Shiv Deo Singh Sandhu succeeded him as a magistrate and administered the village as part of a region extending from Wadala Sandhuan to Kalaswala.[5] He erected a wall around the sarai both this wall and the mansion itself are now largely ruined.

Partition of 1947 occurred during the rule of Sheo Dave Singh, and the ruling family departed for India. Their mansion was subsequently acquired by Mewati-speaking immigrants.

Notable persons

सिरानवाली

इस खानदान के पूर्वज हुसैन नाम के एक सिन्धू जाट थे, जिन्होंने लगभग सन्


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-539


1500 के गुजरानवाला जिले में हसनवाला गांव की नींव डाली थी। सिरानवाली नामक गांव स्यालकोट जिले की पसरूर नामक तहसील में है। कहा जाता है कि इस गांव को भी इन्होंने बसाया था, जहां पर इन्होंने शक्तिशाली करिया वंश को परास्त किया था और वध किए हुए व्यक्तियों के सिर काटकर उनका एक ढेर इकट्ठा कर दिया और उन पर बैठकर स्नान किया। इसी कारण से इस गांव का नाम सिरानवाली (सिरों की जगह) रखा गया। किसी प्रकार सिरानवाली गांव इस वंश के हाथों से निकल गया और इस वंश का दरगा नामक व्यक्ति जो सिक्ख हो गया था, गरीबी के कारण स्यालकोट जिले को छोड़कर जिला गुरदासपुर में चला आया, जहां पर वह जयमलसिंह फतेहगढ़िया की फौज में घुड़सवारों में भर्ती हो गया। इसका पुत्र लालसिंह इसका उत्तराधिकारी हुआ, जो अपनी योग्यता के कारण 100 घुड़सवारों का मालिक हो गया।

लालसिंह की पुत्री ईश्वरकौर की सुन्दरता स्यालकोट जिले में प्रसिद्ध थी। सन् 1815 में जब महाराज रणजीतसिंह इधर आए तो लालसिंह ने अपनी पुत्री को इनके महल में लाहौर भेज दिया। दो महीने के पश्चात् रणजीतसिंह ने उसे अपने पुत्र कुंवर खड़गसिंह के पास भेज दिया, जिन्होंने अमृतसर में चादर डालकर उससे शादी कर ली। इसके थोड़े ही दिन पश्चात् लालसिंह की तो मृत्यु हो गई, किन्तु उनके पुत्र मंगलसिंह ने इस सम्बन्ध से लाभ उठाया। जब ये पहली बात दरबार में आए तो ये केवल एक गंवार जाट किसान थे। कहा जाता है कि महाराज रणजीतसिंह ने अपने सेवकों से इनके देहाती वस्त्र बदलने को कहा और उन्हें दरबार के लायक वस्त्र पहनाने की आज्ञा दी। मंगलसिंह ने कभी पाजामा नहीं पहना था और इसी कारण से उसने पाजामे की एक ही टांग को दोनों पैरों में चढ़ाने की चेष्टा की, इस पर दरबारियों को बड़ा ही अचरज हुआ।

यद्यपि मंगलसिंह दरबारी नहीं था, किन्तु वह एक चतुर युवक था। अतः उसने शीघ्र ही दरबार में मान प्राप्त कर लिया। कुंवर खड़गसिंह ने थालूर और खीटा की जागीर इसे दे दी जिसकी कि आमदनी 5000) थी और साथ ही लाहौर जिले के चुनियान इलाके का चार्ज भी दे दिया। कुंवर साहब मंगलसिंह के इस पद की कार्य-कुशलता से ऐसे प्रसन्न हुए कि उन्होंने सन् 1820 में महाराज रणजीतसिंह की मंजूरी से मंगलसिंह को अपने फौजदारी और दीवानी सभी मामलात का मैनेजर नियुक्त कर दिया और सरदार की उपाधि के साथ 19000) की आमद की जागीर भी इसे दे। मंगलसिंह ने अपने कुटुम्ब के प्राचीन गांव सिरानवाली को भी अपने अधिकार में कर लिया जो कि अब तक सरदार श्यामसिंह अटारीवाला के कब्जे में था। कई वर्षों तक मंगलसिंह उच्च-पद पर बने रहे और जागीर को बढ़ाते रहे तथा कुंवर खड़गसिंह के साथ उनके सभी युद्धों में जाते रहे। किन्तु सन् 1834


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-540


में सरदार चेतासिंह बजुआ को मंगलसिंह के स्थान पर कुंवर साहब के सभी मामलात के प्रबन्ध के लिए नियुक्त कर दिया गया, जिसके साथ सरदार मंगलसिंह की मौसी चांदकौर ब्याही गई थी और जिसे उसने स्वयं ही खड़गसिंह से परिचित कराया था। इस अदला-बदली से मंगलसिंह को कोई हानि न हुई, क्योंकि खड़गसिंह ने पहली जागीर के अलावा और भी नई जागीर दे दी थीं और अब कुल जागीर की आमाद 261250) हो गई थी, जिसमें से कि 62750) तो व्यक्तिगत थे और शेष रुपये 780 सवार, 30 जम्बूरा और 2 तोपें रखने की शर्त पर थे।

चेतसिंह की उन्नति ही उसके नाश का कारण हुई। रणजीतसिंह के शासनकाल में वह कुंवर साहब का प्रधान प्रीति-पात्र बना रहा और उसकी शक्ति भी बहुत अधिक थी क्योंकि खड़गसिंह तो कमजोर व्यक्ति था और उनका प्रीति-पात्र उन पर चाहे जैसा प्रभाव डाल सकता था। किन्तु रणजीतसिंह की मृत्यु के पश्चात् और कुंवर खड़गसिंह के गद्दी पर बैठते ही उन सरदारों ने जिनकी कि ईर्ष्या चेतसिंह ने जाग्रत कर दी थी, इसे नष्ट करने का पक्का विचार कर लिया। राजा ध्यानसिंह और कुंवर नौनिहालसिंह षड्यंत्र के नेता थे और इन्होंने अभागे चेतसिंह को महाराज की उपस्थिति में ही महल में प्रत्यक्ष रूप से कत्ल कर दिया।

सन् 1834 में जब कि चेतसिंह शुरू में ही महाराज के पास रक्खा गया था, तब सरदार मंगलसिंह को जिला डेरागाजीखां में जंगली मजारी कौम को शान्त रखने के लिए भेजा था, किन्तु वह सीमाप्रान्त पर शान्ति स्थापित न कर सका। नवम्बर सन् 1840 में महाराज खड़गसिंह की मृत्यु हो गई और रानी ईश्वरकौर उनके साथ सती हो गई। उस समय यह निश्चय किया गया था और इसका विश्वास करने के लिए हर एक कारण भी है कि रानी ईश्वरकौर अपनी इच्छा से सती नहीं हुई थी, बल्कि उन्हें मजबूर किया गया था और यह बीभत्स कार्य राजा ध्यानसिंह का था। रानी ईश्वरकौर और रानी चांदकौर में जो कि खड़गसिंह की प्रधान रानी थीं, सदैव ही बड़ी ईर्ष्या रहती थी और इस रानी के प्रभाव ने भी रानी ईश्वरकौर को सती होने के लिए अग्रसर किया।

मंगलसिंह ने यह आशा की थी कि इस समय उसे कुछ अधिकार प्राप्त हो जायेगा। स्वर्गीय महाराज का साला होने के कारण और कई वर्षों तक सर्विस करके बहुत सा धन इकट्ठा करने के कारण, उसे कुछ विश्वास हो गया था कि कुंवर शेरसिंह से भी वह कुछ जागीर प्राप्त कर सकेगा। किन्तु राजा ध्यानसिंह सरदार चेतसिंह से पिण्ड छुड़ा कर यह नहीं चाहता था कि दूसरे व्यक्ति को यह अधिकार मिले। अतः मंगलसिंह धीरे-धीरे अवनति को प्राप्त हो गए। कुछ समय के बाद महाराज शेरसिंह ने उसकी पहली जागीर को सिवाय 37000) के जब्त कर लिया। किन्तु उसे सहीवाला और वंकलचिमी में 124500) की आमद की नई जागीर दे दी। सन् 1846 तक वह इसे अपने अधिकार में रक्खे रहा, जब कि


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-541



राजा लालसिंह ने इसे ले लिया और मंगलसिंह के लिए केवल 86000) की पुरानी जागीर रहने दी और 36000) की नई जागीर इस शर्त पर मंजूर की कि वह 120) घुड़सवार तैयार रक्खे। इसमें कमी करना एक अन्याय की बात थी, क्योंकि सरदार मंगलसिंह ने खड़गसिंह की मृत्यु के बाद किसी भी राजनैतिक मामले में भाग नहीं लिया था। किन्हीं अंशों में इसकी कमी की पूर्ति के लिए रेजीडेण्ट मेजर लारेन्स ने उसे रचना दुआव का अदालती मुकर्रिर कर दिया था। इस मुकर्रिरी से उसे संतोष न हुआ, क्योंकि वह सिपाही स्वभाव का व्यक्ति था। अतः यह कार्य उन्हें रुचिकर प्रतीत न हुआ। जब सन् 1848 में गदर शुरू हुआ, तब यह वजीराबाद में थे। उस समय इनको नावों का चार्ज दिया गया। उन्हीं के लेख के अनुसार उन्हें राजा शेरसिंह ने जिस समय कि वह बागी फौज के रास्ते को रोक रहे थे, कैद कर लिया और वे रामनगर युद्ध तक कैदी ही बने रहे। उस समय उन्हें छुटकारा मिला था और वे मैजर निकलसन के साथ में हो गये जिनकी कि कमान में इस युद्ध की समाप्ति तक रहे। सरदार मंगलसिंह को सरकार अंग्रेज सन्देह की निगाह से देखने लगी और पंजाब मिला लेने के बाद उनके लिए केवल 1200) रु० की नकद पेन्शन उनकी जिन्दगी के लिए मंजूर हुई। किन्तु यह याद रखना चाहिए कि इनके विरुद्ध राज-द्रोह कभी प्रमाणित नहीं हुआ था, बल्कि वह नाजुक समय में अंग्रेजों के साथी हो गये थे और युद्ध के अन्त तक वह रसद पहुंचाने तक अंग्रेजी फौज की दूसरी सेवाओं में लगे रहे थे। सरदार मंगलसिंह का जून सन् 1864 में देहान्त हो गया। इन्होंने अपने पीछे 4 विधवायें छोड़ीं, जिनमें से कि हर एक के लिए 200) रु० सालाना की पेंशन गवर्नमेंट से मुकर्रर हुई थी। इनके रिछपालसिंह नाम का एक ही पुत्र था जिसे कि सरदार का खिताब देकर प्रान्तीय दरबार में स्थान दिया गया और सन् 1668 तक जब तक कि वह बालिग हुआ, उसे कोर्ट ऑफ वार्ड के अधिकार में रक्खा गया। सन् 1870 में इसने सरदार कश्मीरासिंह की विधवा रानी झींदकौर की भतीजी से विवाह कर लिया। सन् 1884 में यह डिस्ट्रिक्ट बोर्ड के प्रधान चुने गए। गवर्नमेण्ट की सर्विस में न होते हुए इस प्रकार की मुकर्ररी का एक भारतीय के लिए यह पहला ही मौका था। इसी साल में उनको दीवानी और फौजदारी के अधिकारों के साथ आनरेरी मजिस्ट्रेट बनाया गया, जिसमें कि ढाई सौ गांव मुकर्रिर किए गए और सिरानवाली में कचहरी बनाई गई। इस स्थान पर उन्होंने प्रसन्नता के साथ 18 साल तक काम किया और सन् 1902 में इस पद से त्याग-पत्र दे दिया, इनके स्थान पर उनका पुत्र सरदार शिवदेवसिंह मुकर्रर किया गया। सन् 1907 में शिवदेवसिंह को सरदार का खिताब तथा प्रान्तीय दरबार में खानदान का स्थान दे दिया गया।



जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-542


सिरानवाली राजवंश

सर लैपिल ग्रिफिन ने इस खानदान का वंश-वृक्ष निम्न प्रकार दिया है -

  • दरगासिंह के दो पुत्र थे - लालसिंह और तेजचन्द। इन दोनों की वंशावली इस प्रकार है।

लालसिंह की वंशावली - इनकी दो सन्तान थीं - 1. रानी ईश्वरकौर (राजा खडगसिंह के साथ विवाह हुआ) 2. मंगलसिंह। मंगलसिंह का पुत्र सरदार रिछपालसिंह और प्रपौत्र सरदार शिवदेवसिंह। शिवदेहसिंह के दो पुत्र थे - बलवन्तसिंह और रघुवन्तसिंह।

तेजचन्द की वंशावली - इनका एक पुत्र था जिसका नाम 'घसीटा' था। घसीटा के दो पुत्र हुए - हुक्मसिंह और हाकिमसिंह। फिर हुक्मसिंह के भी दो बेटे थे - गंडासिंह और देवासिंह।

External links

References


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