Shekhawati Ke Gandhi Amar Shahid Karni Ram/Amukh

From Jatland Wiki
Jump to navigation Jump to search
Digitized by Dr Virendra Singh & Wikified by Laxman Burdak, IFS (R)

अनुक्रमणिका पर वापस जावें

पुस्तक: शेखावाटी के गांधी अमरशहीद करणीराम

लेखक: रामेश्वरसिंह, प्रथम संस्करण: 2 अक्टूबर, 1984

आमुख

रामेश्वर सिंह
रामेश्वर सिंह

13 मई सन 1952 शेखावटी क्षेत्र के लिए सर्वाधिक मनहूस दिन था जिस दिन एक निर्मम एवं नृशंस हत्याकांड में इस धरती के दो वीर पुत्रों श्री करणीराम जी और श्री रामदेव सिंह ने अपने प्राणों की आहुति दी। समाचार सुनते ही लोग स्तंभ रह गए और सर्वत्र अंधेरा एवं शून्यता छा गई । इस भयंकर बज्रपात से शेखावटी के लाखों लोगों के दिल में दारूण वेदना की ज्वाला सुलग उठी । गरीबों का मसीहा एवं मुक्तिदाता विलुप्त हो गया। आलौकिक आभा जो शिक्षित पर रोशनी विकीर्ण कर रही थी, जैसे छुप गई।

श्री करणी राम जी की मृत्यु से मेरे अंतर्मन पर एक जबरदस्त आघात लगा जो एक चिरस्थाई वेदना में परिवर्तित हो गया। श्री करणीराम जी मेरे गांव के थे और मेरे ससुर मोहनराम जी के भांजे थे । इस निकट संबंध के अलावा मेरे लिए एक आदर्श पुरुष थे । मैं तो उन दिनों 13 वीं क्लास का विद्यार्थी था। उस समय झुंझुनू जिले में श्री करणी राम जी की लोकप्रियता एक ज्वार की तरह उद्वेलित हो उठी थी। उनका जीवन साधारण परिवेश में एक असाधारण व्यक्तित्व की छवि के लिए हुआ था। उनके सौम्य, सरल एवं मधुर व्यक्तित्व में इतनी भव्यता थी जिसे कोई देव पुरुष इस धरती पर विचरण कर रहा कर हो । उनके कार्य एवं व्यवहार में व्यष्टि की बजाय समष्टि का हित चिंतन प्रधान था। उनके लिए अपने और पराए में कोई अंतर नहीं था।

पूर्णत: स्पृहा रहित, ममता रहित व परहित चिंतक थे। कथनी और करनी मैं कोई अंतर नहीं था । जिन्होंने श्री करणी राम जी को देखा और सुना है वे सब एकमत


है कि उनके व्यक्तित्व मैं भगवान कृष्णा कर्मयोग , गौतम बुद्ध की करुणा, ईसा मसीह का प्रेम एवं गांधी की अहिंसा एवं शुद्ध आचरण एक साथ प्रस्तुत हो गए थे इसीलिए तो श्री करणी राम जी को आज भी लाखों गरीब श्रद्धा से याद करते है और उनका हृदय दर्द से कराह उठता है। उनका अभाव आज भी समाज एवं राजनीति में रह-रह कर खटक रहा है।

श्री करणी राम जी अपने आप में एक संपूर्ण व्यक्तित्व थे। उन्होंने गांधी जी को अपने आप में आत्मसात कर लिया और वे शेखावटी की तपोभूमि के गांधी वन गए । उदयपुरवाटी उनके लिए अहिंसा की पुण्य स्थली बन गई । गांव-गांव, ढाणी ढाणी और खेत-खेत में उनके द्वारा आयोजित किसान जागरण सभायें उनकी प्रार्थना सभायें थी। और अंत में चंवरा की ऐसी ही प्रार्थना सभा में किसी नाथूराम गोडसे की गोलियां को सीने में उतार लिया और शेखावाटी का गांधी आतताइयों से अहिंसा की लड़ाई लड़ते हुए विजय पताका हाथ में लिए इस दुनिया से विदा हो गए।

श्री करणी राम जी की चारित्रिक विशेषताओं एवं उनके द्वारा किए गए कार्यों के बारे में इस पुस्तक में विस्तारपूर्वक उल्लेख किया गया है परंतु फिर भी एक बात को बलपूर्वक लिखना चाहता हूं कि श्री करणी राम जी व राम देव सिंह जी ने जो बलिदान किया अपनी किस्म का उच्च कोटि का बलिदान है जिसका सानी मिलना दुर्लभ है। भारत के आजाद होने के पूर्व शहीद होने का काम चलता रहता था क्योंकि पराधीनता की अंधेरी रात में प्रत्येक भारतवासी त्याग और बलिदान के लिए आरूढ़ था। आजादी के बाद लोग त्याग की संस्कृति का संवरण कर भोग के मार्ग पर संचरण करने लगे। ऐसे माहौल में अपने प्राणों का बलिदान कोई धरती का पुत्र माई का लाल ही कर सकता था। तथ्यों से अनभिज्ञ लोग यह कह सकते हैं कि आजाद हिंदुस्तान में शहीद होने की क्या जरूरत थी। श्री करणी राम जी एवं श्री रामदेव सिंह जी को प्राणों की बाजी लगानी पड़ी क्योंकि उदयपुरवाटी में भोमियों ने अत्याचार एवं निरंकुशता का दमन चक्र चालू कर रखा था और गरीब पद दलित किसान वर्ग कराह रहा था। जागीरदार अपने हक को छोड़ने के लिए कतई


तैयार नहीं थे हालांकि देश आजाद हो गया था। अतः इस जागीरी प्रथा को खत्म करने के लिए श्री करणी राम जी को जबर्दस्त संघर्ष एवं श्रम करना पड़ा। सामन्तों की प्रतिक्रियावादी एवं दमनकारी शक्तियां काश्तकारों की आजादी के लिए एक जबरदस्त चुनौती बन गई। जागीरदारों के जुल्मों से मुक्ति दिलाने में कांग्रेस सरकार एवं प्रशासन असमर्थता महसूस कर रहे थे । उस समय श्री करणी राम जी व राम देव सिंह जी ने काश्तकारों के हृदय मैं वीरता एवं जागृति का बिगुल बजा कर जागीरी जुए को फेंक देने के लिए उन्हें संगठित किया। इस तरह किसानों की मुक्ति का संघर्ष गुलामी के दिनों में भी नहीं करना पड़ा था। जागीरदारों ने श्री करणी राम जी और रामदेव जी को अपना दुर्दांत शत्रु समझा। उन्होंने अपने प्राणों का उत्सर्ग कर सामंती अत्याचार के कफन पर कील ठोक दी। उनके खून से जागृति का ऐसा चिराग जल गया जिसकी रोशनी स्वतंत्र राजस्थान मैं फैल गई और परिणाम स्वरूप जागीरदारी प्रथा सदा सदा के लिए राजस्थान की धरती से विलुप्त हो गई। निकट इतिहास के झरोखे मैं देखें तो राजस्थान में ही क्या पूरे भारत में आर्थिक राजनीतिक स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए किसी ने भी ऐसा बलिदान नहीं किया । मैं कहता हूं कि उनका बलिदान उच्च कोटि का बलिदान है क्योंकि देश में आजाद होने के बाद शहीद होना बहुत बड़ी बात है और वह भी उस समय कि अधिकांश लोग सत्ता के उच्च कंगूरों पर पहुंचने के प्रयास में लगे हुए थे। अगर श्री करणी राम जी भी साधारण व्यक्ति होते तो वे भी आसानी से सत्ता की जाजिम पर बैठकर उच्च पद प्राप्त कर सकते थे।

उनका प्राणोत्सर्ग निष्फल नहीं गया।


बीज जब मिट्टी में मिल जाए,

वृक्ष तब उगता है हे मित्र,

कलम से स्याही गिरती जाए,

पत्र पर उठता जाता चित्र।

करणीराम जी बीज या जो मिट्टी में मिल गया, जो कृषकों के अधिकारों की


व्यवस्था के रूप में अंकुरित, पल्लवित एवं पुष्पित होकर विराट वट का रूपाकार ग्रहण कर गया, जिसकी सुखद छाया में अदना सा धरती का बेटा आज अपने जीवन को संवारने और सजाने में स्वतंत्र है। वह निरंकुश जागीरी क्रूरताओं से मुक्त हो गया है।

पिछले दो दशक से निरंतर मेरी अंतरात्मा की व्यथा करणीराम जी की जीवनी लिखने के लिए रह रह कर कुरेदती रही है । कई दोस्त भी इस कार्य के लिए मुझे उत्प्रेरित करते रहे हैं। मैं भी इसे अपना ऐतिहासिक कर्तव्य मानता था कि ऐसे निकट से जाने पहचाने महापुरुष के बारे में कुछ लिखना चाहिए ताकि भावी पीढिंया उनके जीवन दर्शन, त्याग एवं बलिदान से कुछ शिक्षा एवं प्रेरणा ग्रहण कर सकें तथा ऐसा महामानव कहीं विस्मृति के गहन गह्वर में लुप्त ना हो जाए। इस सारे प्रयास में सर्वाधिक सहयोग एवं साथ श्री रतनलाल मिश्रा का प्राप्त हुआ जिसके लिए मैं उनसे अत्यधिक उपकृत हुआ हूं । अगर श्री रतनलाल मिश्रा का साथ ना मिलता तो मेरा यह प्रयास इतना जल्दी मूर्त रूप न ले पाता।

इस पुस्तक को तीन खंडों में विभक्त किया गया है। प्रथम खंड में करणीराम जी के जीवनवृत को समसामयिक राजनीतिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक गतिविधियों के परिपेक्ष में चित्रित किया गया है ताकि उनके व्यक्तित्व के विकास एवं उभार को सही रूप में समझा जा सके। दूसरे खंड में करणीराम जी के बारे में सम्मतियाँ, श्रद्धा-पुष्पों और संस्मरणों का समावेश किया है। तीसरे खंड में तत्कालीन सामाजिक एवं राजनीतिक व्यवस्थाओं के बारे में लेख माला है। श्री नरोत्तम लाल जोशी द्वारा लोकवादी 29 मई, 1945 के लिए लिखे गए लेख को उद्धत किया है। इसके पढ़ने मात्र से उदयपुरवाटी की तत्कालीन हालात की जीती जागती तस्वीरें सामने आ जाती है और करणीराम जी के बलिदान की महानता एवं सार्थकथा उभर कर सामने आ जाती है।

इस पुस्तक के लिखने में जिन जिन महानुभावों मैं समय-समय पर विविध


रूप से अपना सहयोग प्रदान किया है उन सबका में हृदय से आभार व्यक्त करता हूं। श्री बलराम जाखड़, स्पीकर लोकसभा, श्री शिवचरण माथुर, मुख्यमंत्री राजस्थान, श्री राम निवास मिर्धा, विदेश राज्य मंत्री, श्री जगन्नाथ पहाड़िया, भूतपूर्व मुख्यमंत्री, श्री हरिदेव जोशी, भूतपूर्व मुख्यमंत्री, श्री पूनमचंद विश्नोई स्पीकर विधानसभा, श्री मथुरा दास माथुर, श्री नाथूराम मिर्धा सांसद, श्री शीशराम ओला के सहयोग से मैं विशेष रूप से उपकृत हूं क्योंकि उन्होंने अति व्यस्तता के बावजूद अमर शहीद के बारे में लिखने के लिए कुछ समय निकाला।

इसके अलावा मैंने शिवनाथ सिंह भूतपूर्व सांसद, श्री कन्हैयालाल एडवोकेट, श्री नरोत्तम लाल जोशी व श्री भाग सिंह सोंथली के प्रति भी विशेष आभार प्रकट करता हूं जिन्होंने करणीराम जी के बारे में विश्वसनीय तथ्य एवं मार्गदर्शन प्रदान किया।

श्री करणी राम जी का जीवन-वृतांत समाज के सामने प्रस्तुत कर मुझे कर्तव्य पालन का संतोष है । अगर इस कृति के माध्यम से श्री करणी राम जी के बारे में पाठकों को विश्वसनीय जानकारी का भान होगा और युवा वर्ग उनकी जीवन दर्शन से प्रेरणा ले सकेगा तो मैं अपने आप को सफल मानूंगा।

इसके साथ में यह महसूस करता हूं की श्री करणी राम जी व रामदेव सिंह जी का काश्तकारों एवं अन्य वर्गो पर इतना उपकार होते हुए भी, उनकी याद को चिरस्थाई बनाने का कोई विशेष प्रयास नहीं किया गया न तो शहीदों के नाम से झुंझुनू में किसी मार्ग का नाम रखा गया, न किसी सार्वजनिक चौराहे पर उनकी प्रतिमा स्थापित की गई तथा ना उनके नाम से कोई अच्छी संस्था या अन्य गतिविधि चालू की गई। मैं उम्मीद करता हूं कि प्रबुद्ध नागरिक एवं संचेत जनप्रतिनिधि इस उपेक्षा भाव का निराकरण कर शहीदों के प्रति अपनी कृतज्ञता का परिचय देंगे।

इस पुस्तक को प्रेस की प्रसव पीड़ा से निकालने से स्वर्गीय श्री अमिताभ विजय, और खलीक खान का सहयोग मिला। जिसके लिए उनका आभार प्रकट करता हूं।


अंत में मैं शहीद शिरोमणि श्री करणी राम जी एवं रामदेव सिंह जी को अति सम्मान पूर्वक श्रद्धांजलि अर्पित करता हुआ इस पुस्तक को समाज के लिए भेट करता हूं।

(रामेश्वर सिंह)


अनुक्रमणिका पर वापस जावें