Utsavasanketa

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Author:Laxman Burdak, IFS (R)

Utsavasanketa (उत्सवसंकेत) were people and Janapada mentioned in Mahabharata.

Variants

Origin

History

Sandhya Jain[1] mentions Utsavasanketa (उत्सव संकेत) in the list of Tribes With unclear Position. They were defeated by Arjuna (II.24.4) and Nakula (II.29.8). Possibly the Kinnar tribes between Kangra and Rampur Bushar.

In Mahabharata

Utsavasanketa (उत्सवसंकेत) are mentioned in Mahabharata (II.24.15),(II.29.8), (VI.10.59)

Sabha Parva, Mahabharata/Book II Chapter 24 mentions countries subjugated by Arjuna that lay to the North. Utsavasanketa (उत्सवसंकेत) are mentioned in Mahabharata (II.24.15). [2]...Having vanquished in battle the Puru king as also the robber tribes, of the mountains, the son of Pandu (Arjuna) brought under his sway the seven tribes called Utsava-sanketa.


Sabha Parva, Mahabharata/Book II Chapter 29 mentions the Countries subjugated by Nakula in West. Utsavasanketa (उत्सवसंकेत) are mentioned in Mahabharata (II.29.8). [3] ....And making circuitous journey that bull among men then conquered the (Mlechcha) tribes called the Utsava-sanketas. And the illustrious hero (Nakula) soon brought under subjection the mighty Gramaniya that dwelt on the shore of the sea,....


Bhisma Parva, Mahabharata/Book VI Chapter 10 describes geography and provinces of Bharatavarsha. Utsavasanketa (उत्सवसंकेत) is mentioned in the list of other Provinces in south in Mahabharata (VI.10.59). [4]....Samangas, Kanakas, Kukkuras, Angara-Marishas; Dhwajinis, Utsava Sanketas, Trigartas, and the Sarwasena;....

उत्सवसंकेत

विजयेन्द्र कुमार माथुर[5] ने लेख किया है ...उत्सवसंकेत (AS, p.93) वर्तमान हिमाचल प्रदेश और पंजाब की पहाड़ियों में बसे हुए सप्त गणराज्यों का सामूहिक नाम जिनका उल्लेख महाभारत में है। इन्हें अर्जुन ने जीता था- 'पौरवं युधि निर्जित्य दस्यून् पर्वतवासिन:, गणानुत्सव संकेतानजयत् सप्त पांडव:।'(सभा पर्व महाभारत 27, 16)

[p.93]: कुछ विद्वानों का मत है कि प्राचीन साहित्य में वर्णित किन्नर देश शायद इसी प्रदेश में स्थित था। इन गणराज्यों के नामकरण का कारण संभवत: यह था कि इनके निवासियों में सामान्य विवाहोत्सव की रीति प्रचलित नहीं थी, वरन् भावी वर वधू संकेत या पूर्व-निश्चित एकांत स्थान पर मिलकर गंधर्व रीति में विवाह करते थे। (आदिवासी गौंडों की विशिष्ट प्रथा जिसे घोटुल कहते हैं इससे मिलती-जुलती है। मत्स्यपुराण 154, 406 में भी इसका निर्देश है)

वर्तमान लाहूल के इलाके में, जो किन्नर देश में शामिल था इस प्रकार के रीतिरिवाज आज भी प्रचलित हैं, विशेषत: यहाँ की कनौड़ी नामक जाति में। कनौड़ी शायद किन्नर का ही अपभ्रंश है। कालिदास ने भी उत्सवसंकेतों का वर्णन रघु की दिग्विजय-यात्रा के प्रसंग में देश के इसी भाग में किया है और इन्हें किन्नरों से सम्बद्ध बताया है- 'शरैरुत्सबसंकेतान्स कृत्वा विरतोत्सवान्, जयोदाहरणं बाह्वोर्गापयामास किन्नरान्।' ( रघुवंश 4, 78) अर्थात् रघु ने उत्सवसंकेतों को बाणों से पराजित करके उनकी सारी प्रसन्नता हर ली और वहाँ के किन्नरों को अपनी भुजाओं के बल के गीत गाने पर विवश कर दिया। रघुवंश 4, 77 में कालिदास ने उत्सवसंकेतों को पर्वतीय गण कहा है- 'तत्र जन्यं रघोर्घोरं पर्वतीयगणैरभूत'।

लाहूल, हि.प्र.

विजयेन्द्र कुमार माथुर[6] ने लेख किया है .....लाहूल (AS, p.817): हिमाचल प्रदेश में स्थित प्राचीन स्थानों में से एक है। महाभारत के समय यह स्थान उत्सवसंकेत अथवा किन्नर देश के अन्तर्गत था। आज भी यहाँ पर प्रचलित विवाह आदि की प्रथाएं प्राचीन काल के विचित्र रीति रिवाजों की ही परंपरा में हैं। कुछ विद्वानों के मत में महाभारत, सभापर्व 27,17 में लाहूल को ही लोहित कहा गया है। लाहूल में 8वीं शती ई. का बना हुआ 'त्रिलोकनाथ का मंदिर' स्थित है। इसमें श्वेत संगमरमर की 3 फुट ऊंची मूर्ति प्रतिष्ठित है। मंदिर की पुस्तिका के लेख के अनुसार त्रिलोकनाथ अथवा बोधिसत्व की इस मूर्ति का प्रतिष्ठान पद्यसंभव नामक एक बौद्ध भिक्षु ने आठवीं शती ई. में किया था। भिक्षु पद्यसंभव ने तिब्बत के राजा के निमंत्रण पर भारत से तिब्बत जाकर बौद्ध धर्म का प्रचार किया था। त्रिलोकनाथ मंदिर को हिन्दू तथा बौद्ध दोनों ही पवित्र मानते हैं। भारत से तिब्बत को जाने वाला प्राचीन मार्ग लाहूल होकर ही जाता है।

External links

References

  1. Sandhya Jain: Adi Deo Arya Devata - A Panoramic View of Tribal-Hindu Cultural Interface, Rupa & Co, 7/16, Ansari Road Daryaganj, New Delhi, 2004, p. 129, sn. 23.
  2. पौरवं तु विनिर्जित्य दस्यून पर्वतवासिनः, गणान उत्सव संकेतान अजयत सप्त पाण्डवः (II.24.15)
  3. गणान उत्सव संकेतान वयजयत पुरुषर्षभ, सिन्धुकूलाश्रिता ये च ग्रामणेया महाबलाः (II.29.8)
  4. समङ्गाः कॊपनाश चैव कुकुराङ्गथ मारिषाः, धवजिन्य उत्सव संकेतास त्रिवर्गाः सर्वसेनयः (VI.10.59)
  5. Aitihasik Sthanavali by Vijayendra Kumar Mathur, p.93-94
  6. Aitihasik Sthanavali by Vijayendra Kumar Mathur, p.817