Aurangzeb
Author of this article is Dayanand Deswal दयानन्द देसवाल |
Abul Muzaffar Muhi-ud-Din Mohammad Aurangzeb, (14 October 1618 – 3 March 1707) commonly known as Aurangzeb Alamgir and by his imperial title Alamgir ("world-seizer or universe-seizer") was the sixth Mughal Emperor and ruled over most of the Indian subcontinent. His reign lasted for 49 years from 1658 until his death in 1707.
Aurangzeb's policies partly abandoned the legacy of pluralism, which remains a very controversial aspect of his reign. Rebellions and wars led to the exhaustion of the imperial Mughal treasury and army. He was a strong and effective ruler, but with his death the great period of the Mughal Empire came to an end, and centralized control of the empire declined rapidly.
Aurangzeb was born on 14 October 1618, in Dahod, Gujarat. He was the third son and sixth child of Emperor Shah Jahan and Mumtaz Mahal. His father was a governor of Gujarat at that time. In June 1626, after an unsuccessful rebellion by his father, Aurangzeb and his brother Dara Shikoh were kept as hostages under their grandparents' (Nur Jahan and Jahangir) Lahore court. On 26 February 1628, Shah Jahan was officially declared the Mughal Emperor, and Aurangzeb returned to live with his parents at Agra Fort, where Aurangzeb received his formal education in Arabic and Persian
After long duel wilth his three brothers, in 1658, Aurangzeb murdered all his 3 brothers (Dara Shikoh, Shah Shuja and Murad) and put his father, Shah Jehan, under house arrest in the Agra fort.
During his emperorship (1658 to 1707 AD), Aurangzeb had to fight various battles against the Sikhs, Marathas and Jats. He adopted a tough policy against non-muslims subjects. Among the Hindu temples he demolished were the three most sacred: the Kashi Vishwanath temple, Kesava Deo temple and Somnath temple. He built large mosques in their place.
सम्राट् औरंगजेब और जाट
(सन् 1658 से 1707 ई०)
औरंगजेब के शासनकाल में संवत् 1718 (सन् 1661 ई०) को छपरौली गांव जिला मेरठ में सर्वखाप पंचायत की बैठक हुई जिसमें भिन्न-भिन्न खापों के 40,000 लोगों ने भाग लिया। इस बैठक में औरंगजेब द्वारा हिन्दुओं पर फिर से लगाया गया जजिया एवं खापों और सर्वखाप पंचायत के कार्य करने पर पाबन्दी और उसकी साम्प्रदायिक हठनीतियों की खुले तौर पर आलोचना तथा कड़ा विरोध किया गया। बैठक में यह भी निर्णय लिया गया कि औरंगजेब के दरबार में जाकर उसके इन आदेशों तथा साम्प्रदायिक नीतियों के प्रति विरोध प्रकट किया जाये और कहा जाये कि शाही दरबार अपनी इस कूटनीति को बदले।
ऐसा करने के लिए पंचायत के 21 पंच औरंगजेब के दरबार में गये जिनको औरंगजेब ने बन्दी बना लिया और सबको मौत के घाट उतरवा दिया दस्तावेज 49 सर्वखाप रिकार्ड)।
इस घटना के विषय में हस्तलिखित अप्रकाशित सर्वखाप पंचायत के इतिहास से श्री जगदेवसिंह शास्त्री सिद्धान्ती ने एक लेख दिया है जो सुधारक बलिदान विशेषांक, लेखक श्री भगवान् देव आचार्य, पृ० 152-154 पर निम्न प्रकार से लिखा है -
- “रामगढ़ के युद्ध में सर्वखाप पंचायत के वीर सैनिकों ने औरंगजेब के विरुद्ध बादशाह शाहजहाँ और दारा का साथ दिया था। औरंगजेब ने धोखा देकर सर्वखाप पंचायत के कुछ नेताओं को देहली बुलाया। उनको दिल्ली दरबार में कपट जाल से पकड़कर बन्दी बना लिया गया। इन वीरों के नाम यह हैं -
- 1. राव हरिराय 2. धूमसिंह 3. फलसिंह 4. सीसराम 5. हरदेवसिंह 6. रामलाल 7. बलीराम 8. लालचन्द 9. हरिपाल 10. नवलसिंह 11. गंगाराम 12. चन्दूराम
जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-588
- 13. हरसहाय 14. नेतराम 15. हरबंश 16. मनसुख 17. मूलचन्द 18. हरदेवा 19. रामनारायण 20. भाला 21. हरद्वारी। इनमें 1 ब्राह्मण, 1 वैश्य, 1 त्यागी, 1 गुर्जर. 1 सैनी, 1 रवा, 1 रोड 3 राजपूत और 11 जाट थे।
- ये सब बड़े वीर योद्धा और शिक्षित नेता थे। क्योंकि इनको शुभ निमन्त्रण के नाम पर बुलाया गया था, अतः इनकी देवियां तथा कुछ व्यक्ति भी इनके साथ देहली पहुंचे थे। उस समय इन नेताओं के मुखिया राव हरिराय और औरंगजेब की बातों का सारांश निम्न प्रकार से है –
- औरंगजेब - तुम बागी हो, तुमने द्रोह किया है। तुमने दारा का साथ दिया था।
- राव हरिराय - आपकी बात मिथ्या है। निमन्त्रण देकर समझौते के लिए बुलाया और धोखा देकर पकड़वा लिया, अब हमें बागी कहते हो? हमने देश के बादशाह का साथ दिया था। दारा उसके साथ था।
- औरंगजेब - इस्लाम कबूल करो या मौत?
- राव हरिराय - इस्लाम में क्या खूबी है?
- औरंगजेब - इस्लाम खुदा का दीन (धर्म) है।
- राव हरिराय - क्या खुदा भी गलती करता है, जो अपने दीन में सबको पैदा नहीं करता? खुदा के दीन के खिलाफ लोगों के घर में सन्तान क्यों होती है? यह दीन खुदा का नहीं है। यह तेरा दीन है।
- औरंगजेब - मैं खुदा और पैगम्बर के हुक्म को मानता हूं, दूसरे को नहीं। कुरानशरीफ खुदा की किताब है, वह सच्ची है और सब झूठे हैं।
- राव हरिराय - मैंने कुरान को कई बार पढ़ा है। उसमें यह कहीं नहीं लिखा कि बाप को कैद कर लो, भाई-भतीजों को मार दो और जनता पर अत्याचार करो। क्या खुदा और रसूक का ऐसा हुक्म है? जनता की दृष्टि में तू जालिम है। यदि कुछ साहस है तो तलवार पकड़ और अपने 21 सैनिकों को बुला ले और उन्हीं में तू शामिल हो जा। हम भी 21 हैं। बाहर निकलकर मुकाबला कर, कुछ ही समय में नतीजा मालूम पड़ जाएगा।
- औरंगजेब - तुम मेरे पिंजड़े में बन्द हो। निकलने के दो ही रास्ते हैं - इस्लाम और मौत एक को मानना ही पड़ेगा।
- राव हरिराय - आत्मा अजर, अमर, अविनाशी है। यह शरीर हटा, दूसरा तैयार है। हम अपने धर्म को छोड़कर इस्लाम धर्मी कभी नहीं बनेंगे। तुझे जो करना है, कर। तेरे जीवन में तेरा बेड़ा गरक़ हो जाएगा।
- औरंगजेब के आदेश पर उसी समय उन 21 वीरों को चान्दनी चौक ले जाया गया और उनको फांसी दे दी गई। वे वीर सं० 1727 वि० कार्तिक कृष्णा दशमी को मातृभूमि के लिए अपने प्राणों का बलिदान दे गए। यह कुकृत्य दिन के 10 बजे किया गया।
- राजा जयसिंह के बहुत कहने-सुनने पर मृतक शरीर पंचायत के लोगों को दे दिए गये। दिन
जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-589
- के एक बजे इन वीरों की वीरांगनाओं ने भी अपने-अपने पतियों की जलती चिताओं में परिक्रमापूर्वक अपने प्राणों की बलि चढ़ा दी और सती हो गईं। देहली का राजघाट आज भी उन वीरों की धधकती चिताओं की साक्षी दे रहा है।
- राव हरिराय का बालकपन का साथी नजफअली सूफी 33 वर्षीय ब्रह्मचारी था। वह पंचायत का बड़ा पक्षपाती था। उसने औरंगजेब को बहुत कठोर शब्द कहे और जालिम ठहराया। औरंगजेब ने इस फकीर को भी 100 कोड़े लगवाये और मैदान में फिकवा दिया। फकीर जब होश में आया तब पूछा “मेरा प्यारा मित्र हरिराय कहां है”? पता चलने पर फकीर नजफअली हरिराय की चिता के पास गया। उसने मित्र की चिता की 7 बार परिक्रमा की और जलती चिता में कूदकर अपने मित्र के साथ न्याय की रक्षा के लिए अन्याय के विरुद्ध अपने प्राणों का बलिदान दे दिया।”
औरंगजेब भारतवर्ष में एक इस्लामी राज्य स्थापित करना चाहता था। वह यहां पर मूर्तिपूजा को सहन नहीं कर सकता था। परिणामस्वरूप उसने हिन्दू धर्म के प्रति न केवल असहिष्णुता की, अपितु अत्याचार की नीति अपनाई। ऐसी नीति उसके और उसके वंश के लिये घातक सिद्ध हुई। सन् 1669 ई० में उसने बहुत से मन्दिर जैसे - गुजरात का सोमनाथ मन्दिर, बनारस का विश्वनाथ मन्दिर तथा मथुरा का केशवदेव मन्दिर गिरवा दिये।
हिन्दुओं पर जजिया एवं 5% चुंगी कर लगा दिए। धर्म परिवर्तन को प्रोत्साहन दिया जाने लगा। जो हिन्दू मुसलमान बन जाते उन्हें पुरस्कार और ऊंची सरकारी नौकरियां दी जाती थीं। उसने हिन्दुओं को बलपूर्वक मुसलमान बनाना आरम्भ कर दिया। सन् 1668 में उसने हिन्दू मेले बन्द करवा दिए। हिन्दुओं पर बड़े-बड़े अत्याचार होने लगे।
औरंगजेब के इन अत्याचारों से हिन्दू जाति में सामूहिक रूप से विद्रोह की ज्वाला प्रज्वलित होने लगी।
(1) मथुरा प्रदेश के जाटों ने गोकुल जाट के नेतृत्व में विद्रोह कर दिया। इसके बाद आगरा, मथुरा एवं वृन्दावन के जाटों ने मुगल शासन के विरुद्ध युद्ध जारी रखा जिसके कारण भरतपुर जाट राज्य की स्थापना हुई। इसका पूरा वर्णन आगे अष्टम अध्याय में लिखा जायेगा।
(2) सतनामी (साध जाट) विद्रोह - दूसरा प्रबल विद्रोह सन् 1672 ई० में सतनामियों ने नारनौल क्षेत्र में किया। सतनामी शब्द का अर्थ है ईश्वर के सतनाम में विश्वास करने वाला। सतनामी एक प्रतिष्ठित और शक्तिशाली संघ था (जिनको साध जाट भी कहते हैं)। यदि कोई इनको शक्ति के बल पर दबाना चाहता तो ये लोग इसे सहन नहीं कर सकते थे। इन लोगों का प्रधान केन्द्र नारनौल (हरयाणा प्रदेश) और मेवात प्रदेश था।
सन् 1672 ई० में एक शाही सिपाही ने एक सतनामी किसान का सिर तोड़ दिया जिससे सारा सतनामी संघ बिगड़ गया। उन्होंने उस शाही सिपाही को मृतप्राय करके छोड़ दिया। जब स्थानीय शिकदार (हाकिम) ने अपराधी को कैद करना चाहा तो सतनामी इकट्ठे हुए और उन्होंने विद्रोह का झण्डा खड़ा कर दिया। नारनौल का फौजदार अपनी सेना लेकर वहां पहुंचा। परन्तु युद्ध में उनकी हार हुई और उसने युद्धक्षेत्र से भागकर अपनी जान बचाई।
जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-590
जब औरंगजेब को इसकी सूचना मिली, तो उसने एक के बाद एक करके कई शाही सेनायें इस विद्रोह को दबाने के लिए भेजीं। परन्तु सतनामियों ने इन सब सेनाओं को करारी हार दी।
मुगलों पर सतनामियों का रौब जम गया। औरंगजेब ने अन्त में मुगलों की एक शक्तिशाली सेना भेजी जिसका सतनामियों के साथ भयंकर युद्ध हुआ जिसमें शाही सेना विजयी हुई। लगभग 2,000 सतनामी मारे गये और बाकी भाग खड़े हुए। विद्रोह बड़ी क्रूरता से दबा दिया गया1।
आज भी जाटों में साध या सतनामी कहलाने वालों की संख्या बहुत है। हरयाणा प्रान्त के कई गांवों में ये लोग पाए जाते हैं।
उत्तरप्रदेश के फरुखाबाद जिले में इन लोगों की बड़ी संख्या है।
(3) राजपूतों से युद्ध - औरंगजेब ने जोधपुर के राजा जसवन्तसिंह को जमरूद (पैशावर से पश्चिम में) का फौजदार नियुक्त किया था, जिसका 10 दिसम्बर सन् 1678 ई० को स्वर्गवास हो गया। इस घटना से औरंगजेब को बड़ी प्रसन्नता हुई। औरंगजेब जोधपुर राज्य को अपने अधिकार में लेना चाहता था परन्तु जोधपुर के प्रसिद्ध सैनिक सरदार दुर्गादास राठौर ने वीरता के साथ एक लम्बे समय तक मुगलों का सामना किया। दुर्गादास का राजपूतों के इतिहास में एक विशिष्ट स्थान है। इसमें असाधारण साहस और मारवाड़ वंश के प्रति असीम भक्ति थी।
उसने जसवन्तसिंह की रानी एवं बालक पुत्र को बड़ी चतुराई एवं साहस से औरंगजेब की कैद से छुड़ाकर जुलाई 1679 ई० को जोधपुर पहुंचा दिया। उस राजकुमार का नाम अजीतसिंह था जिसको राजा मानकर दुर्गादास ने मुगलों से संघर्ष जारी रखा। रानी ने, जो मेवाड़ की राजकुमारी थी, वहां राणा राजसिंह से सहायता मांगी। राणा ने अनाथ राजकुमार को अपनी शरण में ले लिया। मुगलों के जोधपुर पर आक्रमण और अत्याचार के कारण राठौर और मेवाड़ के सिसोदियों ने परस्पर मिलकर एक संयुक्त मोर्चा स्थापित किया। औरंगजेब ने मेवाड़ पर एक बड़ी सेना के साथ आक्रमण किया। राजपूतों के विरुद्ध युद्ध में औरंगजेब को कोई विशेष सफलता नहीं मिली। उसके साम्राज्य की प्रतिष्ठा को धक्का लगा2।
(4) सिक्खों से विद्रोह - सिक्ख धर्म के संस्थापक गुरु नानक जी का जन्म लाहौर से कुछ मील दूर तलवण्डी नामक गांव में सन् 1469 ई० में हुआ। उन्होंने सत्य के ज्ञान के लिए धर्म-यात्रा और धर्म-प्रचारक का जीवन अपनाया। वे सभी धर्मों को समान समझते थे। उनका कथन था कि मुक्ति का मार्ग ईश्वर की पूरा और अच्छे कर्मों द्वारा है। उनकी मृत्यु के पश्चात् गुरु अंगद, गुरु अमरदास और गुरु रामदास ने उनकी शिक्षाओं का प्रचार किया। चौथे गुरु रामदास अकबर से मिले थे। उनसे वार्तालाप करके बादशाह बहुत प्रसन्न हुआ और उसने पंजाब में कुछ भूमि दान के रूप में दे दी थी, जिस पर उन्होंने अमृत सर अथवा अमृत के तालाब का निर्माण करवाया, जो बाद में सिक्खों का मुख्य धार्मिक केन्द्र बना। पांचवें गुरु अर्जुनदेव सन् 1581 ई० में गद्दी पर बैठे। उन्होंने ग्रन्थ साहिब का संपादन किया और सिक्खों को निश्चित आदर्शवाली एक जाति के रूप में परिणत कर दिया। खुसरो का पक्ष लेने के कारण जहांगीर उनसे अप्रसन्न हो गया। वे बन्दीगृह में डाल दिये गये,
जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-591
जहाँ घोर कष्ट देकर सन् 1606 ई० में उनके जीवन का अन्त कर दिया गया। गुरु अर्जुनदेव की हत्या से सिक्ख बड़े कुपित हुए। अपने नवीन गुरु हरगोविन्द (सन् 1606 - 1645 ई०) के नेतृत्व में सिक्खों ने अपने को एक सैनिक संघ के रूप में परिवर्तित कर दिया और शस्त्र धारण की नीति अपनाई। सातवें और आठवें गुरु हरराय और हरकृष्ण के काल में कोई विशेष घटना नहीं हुई। नवें गुरु तेगबहादुर का सन् 1675 ई० में औरंगजेब ने दिल्ली में वध करवा दिया। इस हत्या का कारण यह था कि गुरु तेगबहादुर ने औरंगजेब की हिन्दू-धर्म पर आघात और मन्दिरों को अपवित्र करने वाली नीति का विरोध किया था। बादशाह ने गुरु को दिल्ली बुलवाया और कारागार में डाल दिया। उनसे इस्लाम-धर्म स्वीकार करने के लिए कहा गया, किन्तु उन्होंने ऐसा करने से साफ इन्कार कर दिया तो उनका सिर काट दिया गया। सिक्खों में अब तक कहावत है कि गुरु ने सिर दिया, सार न दिया।
इस घटना से सिक्ख मुगलों के विरुद्ध भड़क उठे और गुरु तेगबहादुर के पुत्र दसवें और अन्तिम गुरु गोविन्दसिंह के नेतृत्व में एक लम्बे समय तक मुगलों का दृढ़ता पूर्वक मुकाबला किया। उन्होंने सिक्खों को सैनिक सांचे में ढालने के लिए सन् 1699 ई० में ‘खालसा’ का निर्माण किया। उन्होंने अपने अनुयायियों पर पांच कक्के अर्थात् केश, कंघा, कड़ा, कच्छा और कृपाण धारण करने का आदेश दिया। कई स्थानों पर सिक्खों और मुग़ल सेना में युद्ध हुए। गुरुजी के दो पुत्र युद्ध में मारे गये और दो फतेहसिंह एवं जोरावरसिंह नामक पुत्र सरहिन्द के फ़ौजदार के हाथों पड़ गये। फ़ौजदार ने उन्हें मुसलमान बनने पर बड़ा दबाव डाला परन्तु उन वीरों ने वीरता से उत्तर दिया कि हम अपना धर्म कभी नहीं छोड़ेंगे। इस पर मुगल फौजदार ने उन्हें बड़ी निर्दयता के साथ दीवार में चिनवा दिया। परन्तु सिक्खों ने बड़े साहस और संकल्प के साथ औरंगजेब की मृत्यु तक संघर्ष जारी रखा। गुरु गोबिन्दसिंह हारकर दक्षिण में चले गये। वे नान्देड़ (महाराष्ट्र) में रहने लगे। उनके एक सेवक पठान ने उन्हें वहां सन् 1708 ई० में छुरा घोंपकर मार डाला। गुरु गोविन्दसिंह बड़े दूरदर्शी थे। वे जानते थे कि गद्दी के लिए सिक्खों में संघर्ष अवश्य होगा। अतः उन्होंने गुरु की गद्दी तोड़ दी और सेना के नेतृत्व के लिए बन्दा को वहां से पंजाब को भेजा3।
बन्दा बैरागी के बलिदान के पश्चात् पंजाब में जाट सिक्खों के राज्य के विषय में आगे अलग अध्याय में लिखा जायेगा।
(5) दक्षिण में मराठा शक्ति का उदय - औरंगजेब की हिन्दू विरोधी नीति के कारण मराठा जाति ने वीर शिवाजी (सन् 1627-1680 ई०) के नेतृत्व में स्वतन्त्रता संग्राम आरम्भ कर दिया। मराठा लोग औरंगजेब की मृत्यु तक संघर्ष करते रहे। मुगल सम्राट् ने उनकी शक्ति को कुचलने के लिए अनेक युद्ध किए परन्तु मराठों की गुरिल्ला युद्ध-शैली, देशप्रेम और भौगोलिक परिस्थितियों के सामने औरंगजेब को कोई सफलता न मिली। इतने लम्बे संघर्ष ने राज्य को खोखला कर दिया और मुगल राज्य की सत्ता को भारी धक्का लगा। छत्रपति शिवाजी दक्षिण भारत में एक स्वतन्त्र राज्य स्थापित करने में सफल हुए। उनके राज्य में पुर्तगाली प्रदेश (दमन, सालसेट, बसीन) को
- 1, 2, 3. मध्यकालीन भारत का संक्षिप्त इतिहास, पृ० 466-469 एवं 464-466, लेखक ईश्वरीप्रसाद; भारत का इतिहास पृ० 202-204, हरयाणा विद्यालय शिक्षा बोर्ड भिवानी।
जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-592
छोड़कर, उत्तर में धर्मपुर से लेकर दक्षिण में कारवार तक समूचा किनारा था। पूर्व में राज्य की सीमा नासिक से कोल्हापुर तक तथा बेलगांव से लेकर तुंगभद्रा नदी तक थी। इसके अतिरिक्त आधुनिक मैसूर तथा तमिलनाडु के राज्यों में भी कुछ प्रदेश शिवाजी के अधिकार क्षेत्र में थे। मुगल राज्य के कुछ प्रदेशों पर भी शिवाजी का अधिकार था। यह प्रदेश प्रायः मुगलाई (मुगल राज्य का भाग) कहलाता था। यहां से मराठा एक प्रकार का कर वसूल करते थे जिसे ‘चौथ’ कहा जाता था। चौथ प्रदेश की आमदनी का चौथा हिस्सा होता था। सन् 1680 ई० में शिवाजी की मृत्यु होने पर उसका बड़ा पुत्र शम्भुजी राजगद्दी पर बैठा। उसके बाद शिवाजी के दूसरे पुत्र राजाराम ने मुगलों से लड़ाई जारी रखी। सन् 1699 ई० में औरंगजेब स्वयं मराठों को पराजित करने गया। सन् 1700 ई० में राजाराम की मृत्यु होने पर राजमाता ताराबाई ने अपने पुत्र शिवाजी द्वितीय को सिंहासन पर बैठाया और संरक्षिका का काम करने लगी। ताराबाई ने साहस और शक्ति से मराठों का नेतृत्व किया। मुगलों की लगातार कौशिशों के बावजूद वे न तो मराठों की शक्ति कुचल सके और न ही उनके देश को जीत सके। औरंगजेब की सन् 1707 में मृत्यु हो गई। इसके बाद 18वीं शताब्दी में मराठे भारत की जबरदस्त शक्ति बने। (भारत का इतिहास, पृ० 208-210 और 213, हरयाणा विद्यालय शिक्षा बोर्ड, भिवानी)।
A poem on Aurangzeb
जोगियों की गाई साखा :
- मुगल काल का छठा बादशाह, नौरंगशाह बड़ा अन्यायी ।
- अपने सारे भाई भतीजे मार कर बापू की कैद कराई ॥१॥
- बापू गेरा कैद में, खोसी उसकी सारी बादशाही ।
- बाई, पाखण्डी मुल्ला मौलवियों से गाजी की पदवी पाई ॥२॥
- उसी समय सारे भारत में फिरी समर्थ गुरु रामदास की बुहाई ।
- उत्तर भारत के तीर्थों पै गुरु रामदास ने अपनी वाणी सुनाई ॥३॥
- उसी समय हरयाणा देश के गोकल मल्ल योद्धा ने ली अंगड़ाई ।
- उनसठ हजार का दल लेकर जा मथुरा पर करी चढ़ाई ॥४॥
- जा पहुंचा था उस मन्दिर में जिसमें गऊ गई थी कटवाई ।
- अठारह सौ मारे कूंजड़े ग्यारह सौ मारे हत्यारे कसाई ॥५॥
- लूटा खजाना नौरंगशाह का सारे हरयाणा में दिया बंटवाई ।
- धर्म देश की खातिर इकट्ठे हो जाओ मेरे सारे वीर भाई ॥६॥
- तीन बार में बादशाह की सब भारी फौज हराई ।
- सारे भारत राज में विद्रोह की चिंगारी आग जलाई ॥७॥
- सबसे पहले विद्रोह किया हरयाणा नै, ऐसी आग लगाई ।
- नौरंगशाह के राज की कर दी फूँक कर खूब तबाही ॥८॥
- लड़ता लड़ता मरा दक्खन में, दिल्ली में नहीं आया ।
- जिसनै जुल्म किया धर्म पै उसी का भगवान ने करा सफाया ॥९॥
- सबगे के दौलत जोगी ने, यह वीर गीत सभा में गाया ।
- समय-समय पर भारत का साधु-सन्तों ने मान बढ़ाया ॥१०॥
Jatland Links
- The Jat Uprising of 1669
- Expansion of the Jat power (1680-1707)
- Jat History Dalip Singh Ahlawat/Chapter VII
- http://www.jatland.com/forums/showthread.php?20204-The-Jat-Uprising-of-1669-Part-I&highlight=Aurangzeb
- http://www.jatland.com/forums/showthread.php?31963-Fight-against-Aurangzeb-by-Panchayati-knights&highlight=Aurangzeb
External Links
References
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