Shin

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Shin (शिन) clan is found in Afghanistan.[1]

Origin

History

H. W. Bellew[2] writes that The Shin country is called Shinkari and comprises a tract of that name on both sides the Indus ; that on the east bank being a part of Pakli, and inhabited now by Afghan tribes, Swatis and others ; whilst that on the opposite west bank, between Gor and Ghorband, is inhabited by the independent Shin. A notable peculiarity of the Shin is their aversion to the cow and its productions, and to the domestic fowl also, both of which they consider unclean and will not touch, though they have for several generations past professed Islam. The Shin are described as of inferior caste to the Rono ; but they consider themselves of a superior race, despise labour and handicrafts, and look upon hunting and agriculture as the only honourable pursuits. In Baltistan, where they are subordinate to the Tatar occupants, the Shin are called Brokpa, " Highlander," by the Balti Tatar ; but they call themselves Rom.

H. W. Bellew[3] thinks that The Shin of Gilgit and Dardistan represent the China named by Manu amongst the races of the Kshatriya class, who by their neglect of Brahmanism, gradually sunk to the lower class. The China who thus lapsed from the Kshatriya class are named by Manu along with the Parada, Pahlava, Kirata, Darada, and Khasa ; all which races inhabited the mountainous country between Kabul and Kashmir in which Buddhism long held its strongest sway.

Shin God of Bharatpur Rulers

A above group of Yadavas came from Sindh to Brij area and occupied Bayana in Bharatpur district in Rajasthan. After some struggle the 'Balai' inhabitants were forced by Shodeo and Saini rulers to move out of Brij land and thus they occupied large areas. 'Saur Saini' was changed to 'Shin-Shoor' or 'Sinsini' after their God 'Shin'. These people of Sinsini were called Sinsinwar.

शिन देवता:ठाकुर देशराज

ठाकुर देशराज[4] ने लिखा है.... भरतपुर के संबंध में जागा लोगों का कहना है कि बालचंद्र ने एक डागुर गोती जाट की स्त्री का डोला ले लिया था, अतः बालचंद राजपूत से जाट हो गया। बृजेंद्रवंश भास्कर के लेखक ने भी इसी गलती को दोहराया है। हालांकि महाराजा श्री कृष्णसिंह जी इस बेहूदा


[पृ.129]: बात पर बड़े हंसे थे। वे तो कहते थे हम राजपूतों से बहुत पुराने हैं। उनका गोत सिनसिनवार क्यों हुआ? इसके लिए जगा कहते हैं क्योंकि ये सिनसिनी में जाकर आबाद हुए थे किंतु उन बेचारों को यह तो पता ही नहीं कि गांवों के नाम सदा किसी महान पुरुष के नाम पर होते हैं। और उसी के नाम पर गोत्र का नाम होता है। जैसे मथुरा नाम मधु के नाम से प्रसिद्ध हुआ और उसके साथी मधुरिया अथवा मथुरिया कहलाए। पुरानों के अनुसार भी देश और नगरों के नाम किन्हीं महान पुरुषों के नाम से प्रसिद्ध हुए हैं। हाँ 2-4 घटनाएं अपवाद भी होती हैं।

वास्तव में बात यह है कि इन लोगों ने वहां पर शिन देवता की स्थापना की थी। उसी शिन के नाम पर जिसे कि ये लोग सिनसिना कहते थे सिनसिनी प्रसिद्ध हुआ। ये शिन अथवा सिनसिना कौन है यह भी बता देना चाहते हैं। शिन वैदिक ऋचा का दृष्ट्वा एक ऋषि हुआ है जिसका वैदिक ऋचा में नाम है और चंद्रवंशी क्षत्रियों में ही हुआ है। चंद्रवंश की वंशावली में भगवान श्रीकृष्ण से 6 पीढ़ी पहले शिनि हुये हैं। एक शिनी कृष्ण से 10 पीढ़ी पहले वृषणी के जेठे भाई थे। संभव है इन दोनों शिनियों को वे सिनसिना के नाम से उसी भांति याद करते हैं जैसे लोग नलनील अथवा रामकृष्ण को याद करते हैं। सिंध में तो इन लोगों की कुछ मोहरें भी मिलीं जिनपर शिनशिन और शिन ईसर लिखे शब्द मिले हैं। यह याद रखने की बात है कि ब्रज की


[पृ.130]: संतान के कुछ लोग पंजाब के जदू का डांग और सिंध के मोहनजोदारो में जाकर आबाद हुए थे। वहां से लौट कर इनके एक पुरुष ने बयाना पर कब्जा किया। यहां पर बहुत प्राचीन समय में बाना लोग राज करते थे। उनकी पुत्री उषा का वहां अब तक भी मंदिर है। आगे चलकर इनकी दो शाखाएँ हो गई। एक दल नए क्षत्रियों में दीक्षित हो गया जो कि राजपूत कहलाते थे। उसने उन सब रस्मों रिवाजों को छोड़ दिया जो कि उसके बाप दादा हजारों वर्ष से मानते चले आ रहे थे। इस तरह जाट संघ से निकलकर वे लोग अपने लिए यादव राजपूत कहलाने लगे। करौली में उन्होंने अपना राज्य कायम किया।

Notable persons

References

  1. An Inquiry Into the Ethnography of Afghanistan By H. W. Bellew, The Oriental University Institute, Woking, 1891, p.154
  2. An Inquiry Into the Ethnography of Afghanistan By H. W. Bellew, The Oriental University Institute, Woking, 1891, p.154
  3. An Inquiry Into the Ethnography of Afghanistan By H. W. Bellew, The Oriental University Institute, Woking, 1891, p.150
  4. Thakur Deshraj: Jat Itihas (Utpatti Aur Gaurav Khand)/Shashtham Parichhed, p.128-130

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