Shringverpur

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(Redirected from Sringverpur)
Author:Laxman Burdak, IFS (R)

Allahabad District Map

Shringaverpur (श्रृंगवेरपुर) is a place 33 km from Prayagraj (Allahabad) on Lucknow road. According to the local folklore, it was at this place that Rama crossed the river Ganges on his way to exile along with Sita and Lakshmana. Its present name is Singraur (सिंगरौर).

Origin

Variants

History

The place has been mentioned at length in the epic Ramayana. Shringverpur is mentioned as the capital of the famous kingdom of Nishadraja. The excavation works that were carried out in Shringverpur have revealed a temple of Shringi Rishi.[1] It is widely believed that the city got its name from that sage itself.

Ramayana mentions that Lord Rama, his brother Lakshmana and consort Sita stayed for a night in the village before going to the forest on exile.

It is located in Soraon tehsil, 33 km from Allahabad on the Allahabad-Lucknow highway. One has to go about 3 km off the highway towards the Ganga. Its official name is Sigraur. It was the ashram of Shringi rishi. There is a temple of Shringi rishi and goddess Shanta. Ruins of the fort of Nishad king Guh are also here. Rama, Lakshmana and Sita are said to have stopped here while on their way to exile from Ayodhya, and had asked the kevat for a boat to cross the Ganga. Mention of Shringverpur is made in several religious texts and later, in official documents. It was possibly a center of sun worship. Several excavations were held there, yielding invaluable findings.[2]

श्रृंगवेरपुर

विजयेन्द्र कुमार माथुर[3] ने लेख किया है ...श्रृंगवेरपुर (AS, p.908-909): इलाहाबाद से 22 मील उत्तर-पश्चिम की ओर स्थित 'सिंगरौर' नामक स्थान ही प्राचीन समय में श्रृंगवेरपुर नाम से परिज्ञात था। रामायण में इस नगर का उल्लेख आता है। यह नगर गंगा घाटी के तट पर स्थित था। महाभारत में इसे 'तीर्थस्थल' कहा गया है। डॉ. बी. बी. लाल के निर्देशन में इस स्थल का उत्खनन कार्य किया गया है।

'श्रृंगवेरपुर' रामायण में वर्णित वह स्थान है, जहां वन जाते समय राम, लक्ष्मण और सीता एक रात्रि के लिए ठहरे थे। इसका अभिज्ञान सिंगरौर (जिला इलाहाबाद, उ.प्र.) से किया गया है। यह स्थान गंगा के तीर पर स्थित था तथा यहीं रामचंद्रजी की भेंट गुह निषाद से हुई थी- 'समुद्रमहिषीं गंगां सारसक्रौंचनादिताम्, आससाद महाबाहुः श्रंगवेरपुरं प्रति। तत्र राजा गुहो नाम रामस्यात्मसमः सखा, निषादजात्यो बलवान् स्थपतिश्चेति विश्रुतः।' (वाल्मीकि रामायण, अयोध्याकाण्ड 50,26-33)

यहीं राम, लक्ष्मण तथा सीता ने नौका द्वारा गंगा को पार किया था और अपने साथी सुमंत को वापस अयोध्या भेज दिया था। भरत भी जब राम से मिलने चित्रकूट गए थे तो वे श्रंगवेरपुर आए थे- 'ते गत्वा दूरमध्वानं रथ यानाश्चकुंजरैः समासेदुस्ततो गंगां श्रंगवेरपुरं प्रति। (अयोध्याकाण्ड 83,19)

अध्यात्मरामायण, अयोध्याकाण्ड (5,60) में भी श्रीराम का श्रंगवेरपुर में गंगा के तट पर पहुचना वर्णित है-'गंगातीरं समागच्छच्छ्र गवेराविदूरत: गंगां दृष्टवा नमस्कृत्य स्नात्वा सानन्दमानसः।' इसी स्थान पर भगवान श्रीराम शीशम के वृक्ष के नीचे बैठे थे- 'शिंशपावृक्षमूले स निषसाद रघुत्तमः।' (अध्यात्मरामायण, अयोध्याकाण्ड 5, 61) भरत का श्रंगवेरपुर पहुंचना 'अध्यात्मरामायण' में इस प्रकार वर्णित है- 'श्रंगवेरपुरं गत्वा गंगाकूले समन्ततः उवास महती सेना शत्रुघ्नपरिणोदिताः।' (अयोध्याकाण्ड 8,14)

कालिदास ने 'रघुवंश' में निषादाधिपति गुह के पुर (श्रृंगवेरपुर) में श्रीराम का मुकुट उतार कर जटाएँ तथा यह देखकर सुमन्त के रो पड़ने के दृश्य का मार्मिक वर्णन किया है- 'पुर निषादाधिपतेरिदं तद्यस्मिन्मया मौलिमर्णि विहाय, जटासु बद्धास्वरुदत्सुमंत्रः कैकयिकामाः फलितास्तवेति।' ( रघुवंश 13, 59)

भवभूति ने 'उत्तररामचरित' ( 1,21) में राम से अपने जीवन चरित्र संबंधी चित्रों के वर्णन के प्रसंग में श्रंगवेरपुर का वर्णन इस प्रकार करवाया है- 'इंगुदीपादपः सोयं श्रंगवेरपुरे पुरा, निषादपतिना यत्र स्निगवेनासीत्समागमः।'

तुलसीदास ने भी 'रामचरितमानस', अयोध्याकांड में सिंगरौर या श्रंगवेरपुर का इन्हीं प्रसंगों में उल्लेख किया है- 'सीता सचिव सहित दोउ भाई, श्रंगवेरपुर पहुंचे जाई;' 'अनुज सहित [p.909]: शिर जटा बनाए, देखि सुमंत्र नयन जल छाए;' 'केवट कीन्ह बहुत सेवकाई, सो जामिनि सिंगरौर गंवाई;' 'सई तीर बसि चले बिहाने, श्रंगवेरपुर सब नियराने;' 'श्रंगवेरपुर भरत दीख जब, भे सनेह वश अंग विकल सब।'

महाभारत मे श्रंगवेरपुर का तीर्थरूप में उल्लेख है- 'ततो गच्छेत राजेन्द्र श्रंगवेरपुरं महत् यत्र तीर्णो महाराज रामो दाशरथिः पुरा।' महाभारत, वनपर्व 85, 65


वर्तमान सिंगरौर (जान पड़ता है तुलसीदास को श्रंगवेरपुर का 'सिंगरौर' होना पता था, जैसा ‘सो जामिनि सिंगरौर गंवाई’ से प्रमाणित होता है) अयोध्या से 80 मील दूर है। यह क़स्बा गंगा के उत्तरी तट पर एक छोटी पहाड़ी पर बसा हुआ है। प्रयाग से यह स्थान 22 मील उत्तर-पश्चिम की ओर है। उस स्थान को जहां राम, लक्ष्मण, सीता ने रात्रि व्यतीत की थी, 'रामचौरा' कहते हैं। घाट के पास दो सुंदर शीशम के वृक्ष खड़े हैं। लोग कहते हैं कि ये उसी महाभाग वृक्ष की संतान हैं, जिसके नीचे श्रीराम ने सीता और लक्ष्मण के समेत रात्रि व्यतीत की थी। तुलसीदास ने इसी संबंध में लिखा है- 'तब निषाद पति उर अनुमाना, तरु शिंशपा मनोहर जाना; लै रघुनाथहिं ठांव दिखावा, कहेउ राम सब भांति सुहावा'; 'जहं शिंशपा पुनीत तरु रघुवर किय विश्राम, अति सनेह सादर भरत कीन्हें दंड प्रनाम।'

वाल्मीकि रामायण, अयोध्याकाण्ड (50, 28) में इस वृक्ष को 'इगुंदी' (हिंगोट) कहा गया है- 'सुमहानिंगुदीवृक्षो वसामोऽ त्रैव सारथे।' भवभूति ने भी इसे 'इंगुदी' ही कहा है। 'अध्यात्मरामायण' तथा 'रामचरितमानस' में इस वृक्ष को शीशम लिखा है।

श्रृंगवेरपुर में गंगा को पार करके रामचंद्रजी उस स्थान पर उतरे थे, जहां लोकश्रुति के अनुसार आजकल 'कुरई' नामक ग्राम स्थित है। कहा जाता है कि इस स्थान पर श्रृंगि ऋषि का आश्रम स्थित था, जिनसे राजा दशरथ की कन्या शांता ब्याही थी। शांता के नाम पर प्रसिद्ध एक मंदिर भी यहां स्थित है। यहां एक छोटा-सा राम मंदिर बना है। श्रृंगवेरपुर के आगे चलकर श्रीरामंद्रजी प्रयाग पहुचे थे।

उत्खनन

डॉ.बी.बी. लाल के निर्देशन में इस स्थल का उत्खनन कार्य किया गया है। इनका सहयोग के. एन. दीक्षित ने किया। यहाँ 1977-1978 ई. के बीच टीले का उत्खनन करवाकर महत्त्वपूर्ण संस्कृतियों का उद्घाटन किया गया। श्रृंगवेरपुर टीले के उत्खनन से विभिन्न संस्कृतियों का पता चलता है।

प्रथम संस्कृति: पहली संस्कृति गैरिक मृद्भाण्ड संस्कृति है, जिसका समय 1050 ई. पू. से 1000 ई. पू. आँका गया है। इसमें गेरुए रंग के मिट्टी के टुकड़े मिले हैं, जिनका प्रसार सम्पूर्ण गंगाघाटी में दिखाई देता है। सरकण्डों की छाप लगे हुए तथा जले हुए मिट्टी के टुकड़े भी हैं, जिससे सूचित होता है कि इस काल के लोग बाँस-बल्ली की सहायता से अपने आवास के लिए झोपड़ियों का निर्माण करते थे।

द्वितीय संस्कृति: द्वितीय संस्कृति का काल निर्धारण 950 ई. पू. से 700 ई. पू. किया गया है। इस संस्कृति के प्रमुख पात्र काले-लाल, धूसर आदि हैं।

तीसरी संस्कृति: तीसरी संस्कृति उत्तरी काले मार्जित मृद्भाण्ड (एन.बी.पी.) से सम्बन्धित है। इन मृद्भाण्डों के साथ-साथ इस स्तर से ताम्र निर्मित तीन बड़े कलश एवं अन्य सामग्री बहुतायत मात्रा में मिली हैं।

चौथी संस्कृति: चौथी संस्कृति शुंग काल से सम्बन्धित है। इस स्तर से एक आयताकार तालाब के प्रमाण उल्लेखनीय हैं। यह पक्की ईंटों से निर्मित था। उत्तर की ओर से जल के प्रवेश और दक्षिण की ओर से उसके निकास के लिए नाली बनाई गई थी। इसमें पेयजल की सफाई का विशेष प्रबन्ध किया गया था। भारत के किसी पुरास्थल से उत्खनित यह सबसे बड़ा तालाब हैं। इस काल में नगरीकरण अपने उत्कर्ष पर था।

पांचवी संस्कृति: पांचवी संस्कृति का सम्बन्ध गुप्त युग से है। इस काल के गुप्तकालीन मिट्टी की मूर्तियाँ तथा गहरे लाल रंग के मृद्भाण्ड मिले हैं। इस युग में नगर के ह्रास के प्रमाण मिले हैं।

छठे सांस्कृतिक स्थल का सम्बन्ध कन्नौज गहड़वाल वंश से है। यहाँ से गहड़वाल नरेश गोविन्द चन्द्र की 13 रजत मुद्राएँ तथा मिट्टी में रखे हुए कुछ आभूषण मिले हैं। उस काल के पश्चात् यह स्थल लम्बे समय तक गुमनाम रहा।

संदर्भ: भारतकोश-श्रृंगवेरपुर

कुरई

विजयेन्द्र कुमार माथुर[4] ने लेख किया है ... कुरई (AS, p.205) इलाहाबाद ज़िला, उत्तर प्रदेश में सिंगरौर के निकट गंगा नदी के तट पर स्थित एक ग्राम का नाम है। एक किवदंती के अनुसार यह माना जाता है कि श्रृंगवेरपुर में गंगा पार करने के पश्चात् श्रीरामचंद्र जी इसी स्थान पर उतरे थे। इस ग्राम में एक छोटा-सा मन्दिर भी है, जो स्थानीय लोकश्रुति के अनुसार उसी स्थान पर है, जहाँ गंगा को पार करने के पश्चात् राम, लक्ष्मण और सीता जी ने कुछ देर विश्राम किया था। यहां से आगे चलकर श्रीराम अपने भाई और भार्या सहित प्रयाग पहुँचे थे।

External links

References