Torawati

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Torawati (तोरावाटी) is a region in Sikar district of Rajasthan. It was a province of erstwhile Jaipur princely state.

Origin of name

It gets name from Tomar/Tanwar.

Variants of name

History

Torawati was a small chieftainship whose rulers claimed to be direct descendants of Anangpal II, the Tomara king of Delhi. Anangpal established the city of Patan during his rule in the 12th century AD and Torawati was governed from there. The region consisted of some 380 villages spread over 3000 sq kilometres.[1]


We have an Inscription of Vigraharaja of s.v. 1215 (1159 AD) which tells us the authority of Chauhan ruler Vigraharaja III. This inscription writes him as Mahabhattaraka Maharajadhiraja Parameshwar Vigraharajadeva.[2]. Shekhawati had been the centre of struggle between Chauhans and Tomars during those days. Harsh Inscription of 961 AD tells us that Chauhan ruler Chandana killed Tomar ruler Rudrena and Chauhan ruler Sinharaja killed Salavana Tomar. Even after this Tomars were rulers up to 1150 AD in Torawati and parts of present Haryana. Regular attacks of Vigraharaja III on Tanwars of Haryana had weakened them. [3]

Highest Jat density area

Highest Jat density areas, according to Thakur Deshraj in the earstwhile Jaipur state were – Malpura, Sambhar, Shekhawati, Torawati, Khetri and Sikar. [4]

इतिहास

ठाकुर देशराज[5] ने लिखा है ....जयपुर राज्य में लगभग पौने 6 हजार गांव हैं जो 11 निजामतों द्वारा शासित होते हैं। हिंडोन, मालपुरा, सांभर, कोटकासिम, शेखावाटी और तोरावाटी की निजामत में जाट मधुमक्खियों की भांति आबाद है।

मांवडा-मंढोली युद्ध:ठाकुर देशराज के इतिहास में

ठाकुर देशराज[6] लिखते हैं कि भारतेन्दु जवाहरसिंह ने पुष्कर स्नान के उद्देश्य से सेनासहित यात्रा शुरू की। प्रतापसिंह भी महाराज के साथ था। जाट-सैनिकों के हाथ में बसन्ती झण्डे फहरा रहे थे। जयपुर नरेश के इन जाटवीरों की यात्रा का समाचार सुन कान खड़े हो गए। वह घबड़ा-सा गया। हालांकि जवाहरसिंह इस समय किसी ऐसे इरादे में नहीं गए थे, पर यात्रा की शाही ढंग से। जयपुर नरेश या किसी अन्य ने उनके साथ कोई छेड़-छाड़ नही की और वह गाजे-बाजे के साथ निश्चित स्थान पर पहुंच गए।


स्नान-ध्यान करने के पश्चात् भी महाराज कुछ दिन वहां रहे। राजा विजयसिंह से उनकी मित्रता हुई। इधर महाराज के जाते ही राजपूत सामंतो में तूफान-सा मच गया। उधर के शासित जाट और इस शासक जाट राजा को वे एक दृष्टि से देखने


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज,पृष्ठान्त-656


लगे। इस क्षुद्र विचार के उत्पन्न होते ही सामंतों का संतुलन बिगड़ गया और वे झुण्ड जयपुर नरेश के पास पहुंचकर उन्हें उकसाने लगे। परन्तु जाट सैनिकों से जिन्हें कि उन्होंने जाते देख लिया था, उनकी वीरता और अधिक तादात को देखकर, आमने-सामने का युद्ध करने की इनकी हिम्मत न पड़ती थी।

जवाहरसिंह को अपनी बहादुर कौम के साथ लगाव था, उसकी यात्रा का एकमात्र उद्देश्य पुष्कर-स्नान ही नहीं था, वरन् वहां की जाट-जनता की हालत को देखना भी था। उनको मालूम हुआ कि तौरावाटी (जयपुर का एक प्रान्त) में अधिक संख्या जाट निवास करते हैं तो उधर वापस लौटने का निश्चय किया। राजपूतों ने लौटते समय उन पर आक्रमण करने की पूरी तैयारी कर ली थी। यहां तक कि जो निराश्रित प्रतापसिंह भागकर भरतपुर राज की शरण में गया था और उन्होंने आश्रय ही नहीं, कई वर्ष तक अपने यहां सकुशल और सुरक्षित रखा था, षड्यन्त्र में शामिल हो गया। उसने महाराज की ताकत का सारा भेद दे दिया। राजपूत तंग रास्ते, नाले वगैरह में महाराज जवाहरसिंह के पहुंचने की प्रतीक्षा करते रहे। वे ऐसा अवसर देख रहे थे कि जाट वीर एक-दूसरे से अलग होकर दो-तीन भागों में दिखलाई पड़ें तभी उन पर आक्रमण कर दिया जाए।


तारीख 14 दिसम्बर 1767 को महाराज जवाहरसिंह एक तंग रास्ते और नाले में से निकले। स्वभावतः ही ऐसे स्थान पर एक साथ बहुत कम सैनिक चल सकते हैं। ऐसी हालत में वैसे ही जाट एक लम्बी कतार में जा रहे थे। सामान वगैरह दो-तीन मील आगे निकल चुका था। आमने-सामने के डर से युद्ध न करने वाले राजपूतों ने इसी समय धावा बोल दिया। विश्वास-घातक प्रतापसिंह पहले ही महाराज जवाहरसिंह का साथ छोड़कर चल दिया था। घमासान युद्ध हुआ। जाट वीरों ने प्राणों का मोह छोड़ दिया और युद्ध-भूमि में शत्रुओं पर टूट पड़े। जयपुर नरेश ने भी अपमान से क्रोध में भरकर राजपूत सरदारों को एकत्रित किया। जयपुर के जागीरदार राजपूतों के 10 वर्ष के बालक को छोड़कर सभी इस युद्ध में शामिल हुए थे। सब सरदार छिन्न-भिन्न रास्ते जाते हुए जाट-सैनिकों पर पिल पड़े। जाट सैनिकों ने भी घिर कर युद्ध के इस आह्नान को स्वीकार किया और घमासान युद्ध छेड़ दिया। आक्रमणकारियों की पैदल सेना और तोपखाना बहुत कम रफ्तार से चलते थे। जाट-सैनिकों ने इसका फायदा उठाया और घाटी में घुसे। करीब मध्यान्ह के दोनों सेनाएं अच्छी तरह भिड़ीं। इस समय महाराज जवाहरसिंह जी की ओर से मैडिक और समरू की सेनाओं ने बड़ी वीरता और चतुराई से युद्ध किया। जाट-सैनिकों ने जयपुर के राजा को परास्त किया। परन्तु जाटों की ओर से सेना संगठित और संचालित होकर युद्ध-क्षेत्र में उपस्थित न होने के कारण इस लड़ाई मे महाराज जवाहरसिंह को सफलता नहीं मिली। लेकिन वह स्वयं सदा की भांति असाधारण वीरता और जोश के साथ अंधेरा होने तक युद्ध करते रहे।


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज,पृष्ठान्त-657


जयपुर सेना का प्रधान सेनापति दलेलसिंह, अपनी तीन पीढ़ियों के साथ मारा गया। यद्यपि इस युद्ध में महाराज को विजय न मिली और हानि भी बहुत उठानी पड़ी, परन्तु साथ ही शत्रु का भी कम नुकसान नहीं हुआ। कहते हैं युद्ध में आए हुए करीब करीब समस्त जागीरदार काम आये और उनके पीछे जो 8-10 साल के बालक बच रहे थे, वे वंश चलाने के लिए शेष रहे थे।

External Links

References

  1. Sarkar, Jadunath (1994). A History of Jaipur 1503-1938. Orient Longman. ISBN 978-8-12500-333-5.
  2. Annual Report, Rajputana Museum, 1932-33 No. 3, p. 2
  3. रतन लाल मिश्र:शेखावाटी का नवीन इतिहास, मंडावा, १९९८, पृ.30
  4. Thakur Deshraj: Jat Itihasa (Hindi), Maharaja Suraj Mal Smarak Shiksha Sansthan, Delhi, 1934, 2nd edition 1992.
  5. Thakur Deshraj:Jat Jan Sewak, 1949, p.482-483
  6. Jat History Thakur Deshraj/Chapter IX,pp.656-658

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