स्वामी ओमानन्द सरस्वती का जीवन-चरित/तृतीय अध्याय
(आचार्य भगवानदेव)
(१९१०-२००३) का
जीवन चरित
तृतीय अध्याय |
हैदराबाद सत्याग्रह
सन् १९३९ ई० में आर्यसमाज के सामने एक बहुत बड़ी चुनौती आ खड़ी हुई । निजाम हैदराबाद ने अपने राज्य में आर्य-धर्म के प्रचार-प्रसार पर प्रतिबन्ध लगा दिया । अनेक पुराने हिन्दू मन्दिर गिरा दिये और नये मन्दिर बनाना कानूनन बन्द कर दिया । सम्पूर्ण हिन्दू समाज के लिये यह घोर अपमान की बात थी । हैदराबाद राज्य की समस्त हिन्दू जनता "त्राहि-त्राहि" कर रही थी । इस आपत्ति के समय हिन्दुओं में केवल एक ही संस्था ऐसी थी "आर्यसमाज" जिसने निजाम से लोहा लेने की ठानी । देशभर के आर्यनेता वहां की परिस्थिति का अध्ययन करने हैदराबाद गये । उन्होंने वहां की दयनीय दशा देखकर स्थानीय आर्यनेताओं से परामर्श किया । भावी योजना तैयार करने के लिये शोलापुर में आर्य महासम्मेलन हो रहा था कि उसी समय हैदराबाद के प्रसिद्ध आर्यनेता श्री पं० श्यामलाल का शव शोलापुर आया । सम्मेलन में शव को देखकर भयंकर रोष छा गया । पं० श्यामलाल को निजाम सरकार ने बीदर जेल में भयंकर कष्ट देकर मार डाला था । पण्डित जी का शव भी सरकार नहीं दे रही थी । बड़ी कठिनाई और चतुराई से प्राप्त किया । जब यह निश्चित हो गया कि निजाम सरकार पण्डित जी का शव नहीं देगी तो पण्डित जी के मामा श्री दत्तात्रेय एडवोकेट ने बीदर जेल के जेल विभाग के किसी उच्च अधिकारी के नाम से तार किया जिसमें शव दे देने का आदेश था । तार आते ही जेलर ने शव दे दिया और आर्यनेता शव को लेकर शोलापुर पहुंच गये । शव का पहुंचना था कि आर्यमहासम्मेलन में उत्तेजना फैल गई । क्योंकि पण्डित जी के शव पर भयंकर चोटों के निशान थे और उनका शरीर मृत्यु से पूर्व ही अस्थिपंजर हो चला था । उत्तेजना के क्षणों में ही सम्मेलन ने निजाम से लोहा लेने का निर्णय किया और हैदराबाद सत्याग्रह प्रारम्भ हो गया ।
सत्याग्रह के संबन्ध में महात्मा गांधी ने कहा कि "आर्यसमाज ने सत्याग्रह का निर्णय कर बहुत बड़ी भूल की है । उसने अपने पहली परीक्षा में ही हिमालय से टक्कर ले ली है ।" इस अर्थ में उनका कहना ठीक भी था कि निजाम की ताकत उस समय बहुत अधिक थी । यदि आर्यसमाज के स्थान पर कोई और संस्था होती तो उसका असफल होना निश्चित था । यह तो आर्यसमाज ही था जो इस अग्नि-परीक्षा में से सफल होकर निकला ।
ब्रह्मचारी भगवानदेव ने दिल्ली देहात में घूम-घूम हैदराबाद सत्याग्रह के लिये लोगों को तैयार किया और पहला जत्था लेकर इन्होंने स्वयं प्रस्थान किया । सत्याग्रह में जाने के लिए विद्यार्थी आश्रम इन्होंने श्री सत्यवीर सुपुत्र लाला रामचन्द्र जी अग्रवाल को सौंप दिया जो ब्रह्मचारी जी के निकट सहयोगी थे । इनके जत्थे में नरेला व आस-पास के तीस व्यक्ति थे जिनमें कुछ नाम निम्नलिखित हैं -
१. श्री अतरसिंह शास्त्री नरेला, २. श्री पं० गिरधारीलाल नरेला, ३. श्री चौ. जिलेसिंह नरेला, ४. श्री चौ० रामसिंह मामूरपुर (राजपाल आर्य के ताऊ जी), ५. श्री चौ० रामकिशन सुपुत्र तोफनसिंह (मा) पूर्णसिंह आर्य के ताऊ जी) ६. श्री चौ० ग्यासीराम पाना उद्यान नरेला, ७. श्री रामसिंह हरिजन (वर्तमान में दिल्ली पुलिस में), ८. श्री महाशय चेतराम बांकनेर (आप हिन्दी व गोरक्षा आन्दोलन में जेल गये), ९. श्री चौ० मौजीराम सबोली, १०. भगत मथुराप्रसाद माजरा डबास (आपने गुरुकुल झज्जर में भी काम किया), ११. बाबा टेकन माजरा डबास, और १२. चांद पहलवान के मामा माजरा डबास ।
जत्था ब्रह्मचारी जी के नेतृत्व में नरेला से चलकर दिल्ली पहुँचा । वहां इस जत्थे में स्वामी धर्मानन्द जी के साथ पांच सत्याग्रही और मिल गये । ब्रह्मचारी जी चूंकि स्वामी जी का बहुत आदर करते थे अतः इन्होंने जत्थे का नेतृत्व स्वामी धर्मानन्द जी को सौंप दिया । दिल्ली से चल १८ अप्रैल १९३९ के दिन जत्था शोलापुर पहुँच गया । वहां दयानन्द वेद विद्यालय के ब्रह्मचारियों का जत्था पहले ही पहुंचा हुआ था । इनमें ब्रह्मचारी हरिशरण जी भी थे । सत्याग्रह के सर्वाधिकारी पूज्य स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी ने दोनों जत्थों का निरीक्षण किया और परिचय प्राप्त किया । फिर वेद विद्यालय वाले जत्थे को भी इसी जत्थे में मिला दिया । अब ८७ सत्याग्रही इस जत्थे में हो गये । अब प्रश्न आया कि इस जत्थे को किस मोर्चे पर सत्याग्रह करना है । स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी ने आदेश दिया कि यह बहुत मजबूत जत्था है इसलिये इसको तुलजापुर के मोर्चे से सत्याग्रह करना है । तुलजापुर का मोर्चा सबसे खतरनाक मोर्चा था । वहां निजाम की पुलिस और मुसलमान दोनों सत्याग्रहियों पर हमला करते थे । इस मोर्चे पर पहला जत्था पंजाब का पहुँचा था, जिस पर बड़े घातक प्रहार किये गये थे । दूसरा जत्था स्व० पं० जगदेवसिंह सिद्धान्ती जी के नेतृत्व में पहुँचा था । इस पर भी पुलिस ने लाठियाँ बरसाईं थीं । सत्याग्रह करने से पूर्व सर्वाधिकारी की ओर से सत्याग्रहियों को आवश्यक निदेश दिये जाते थे और पूरा रिकार्ड तैयार कर लिया जाता था । प्रत्येक जत्थे का पृथक्-पृथक् चित्र (फोटो) भी लिया जाता था । २० अप्रैल को इस जत्थे का फोटो हुआ और २२ अप्रैल को ब्रह्मचारी जी के इस जत्थे ने स्वामी धर्मानन्द जी के नेतृत्व में तुलजापुर के मोर्चे पर सत्याग्रह किया परन्तु उस समय सत्याग्रहियों के आश्चर्य का ठिकाना न रहा जब मोर्चे पर तैनात पुलिस ने अपनी प्रसिद्धि के विपरीत जत्थे पर किसी प्रकार का कोई वार नहीं किया । कारण यह था कि खुफिया पुलिस से उनको पहले ही पता चल गया था कि इस जत्थे में अधिकांश ब्रह्मचारी हैं जो बहुत शक्तिशाली हैं और यदि जनता की ओर से हमला हुआ तो वे मुकाबला करने के लिये तैयार हैं । हमला तो नहीं किया परन्तु किसी न किसी बहाने से तंग अवश्य किया गया । बहुत देर तक वहीं थाने में बिठाये रखकर और खाने-पीने को कुछ न देकर कष्ट देने का प्रयास किया परन्तु सत्याग्रही कब डगमग होने वाले थे । उन्होंने उनकी हर शैतानी का मुकाबला बहुत गम्भीर रहकर किया और किंचित् भी विचलित व उत्तेजित नहीं हुये । जेल में कैसा व्यवहार होना है इसकी बानगी यहीं मिल गई थी । यहाँ एक वर्ष चार मास की बामुशक्कत (सश्रम) सजा सुनाकर आप सबको नलदुर्ग जेल भेज दिया गया । नलदुर्ग से सबको अलग-अलग जेलों में भेजा गया । निजाम सरकार की नीति एक जगह के सत्याग्रहियों को अलग-अलग रखने और कठोर दण्ड देने की थी जिससे उनका मन उखड़ जाये और वे माफी मांगकर चले जायें परन्तु सरकार अपने उद्देश्य में सफल नहीं हो पाई । भयंकर रुग्णावस्था में भी किसी ने माफी नहीं मांगी । अनेक सत्याग्रही तो जेलों में ही शहीद हो गये । इसी कारण सत्याग्रह में विजय हुई और निजाम को झुकना पड़ा । जिस निजाम को महात्मा गांधी ने हिमालय जैसी चट्टान की संज्ञा दी थी वह चट्टान आर्यों के तप, त्याग और बलिदान से टकराकर चकनाचूर हो गई । इसी आर्य सत्याग्रह की सफलता ने आगे चलकर हैदराबाद राज्य की पृथक् सत्ता समाप्त कर उसे भारतीय गणराज्य में मिला लेने के लिये सरदार पटेल को उत्साहित किया ।
ब्रह्मचारी जी कई मास तक उस्मानाबाद और औरंगाबाद आदि जेलों में रहे । औरंगाबाद जेल में आपका सम्पर्क पं० मुक्तिराम (स्वामी आत्मानन्द) जी से हुआ । उनसे आपने प्राणायाम और यौगिक क्रियाओं की शिक्षा ली तथा उनका निरन्तर अभ्यास किया । पंडित जी आपके स्वास्थ्य, नियमित जीवन और तप से प्रभावित हुये और बहुत स्नेह करने लगे । आपके भोजन व अन्य सुविधाओं का भी वे ध्यान रखते थे । आपकी भी उनके प्रति अत्यधिक श्रद्धा हो गई जो कालान्तर में दृढ़तर होती चली गई ।
निजाम सरकार की ओर से इस सत्यागृह को कुचलने के लिये सब प्रकार के हथकंडे अपनाये गये । सत्याग्रहियों से अत्यधिक कठोर श्रम कराया जाता । चक्की पीसना, मिट्टी ढ़ोना, पत्थर ढ़ोना और पत्थर तोड़ने जैसे कामों में हर समय जुटाये रखा जाता था । एक जगह से उठाये हुए मिट्टी के ढ़ेर को थोड़ी देर बाद वापिस उसी जगह पर फिर डालना और डाले हुए को फिर उठाना जैसे व्यर्थ काम केवल इसलिये लिए जाते थे, जिससे सत्याग्रहियों का मनोबल टूट जाये । इस पर भी खाने के लिये सड़ी हुई जुआर की सूखी रोटी दी जाती थी । उसके साथ दाल के नाम पर उबाला हुआ पानी होता था जिसमें गोता लगाने पर भी दाल के दानों के दर्शन होना कठिन था ।
पाठकवृन्द ! कल्पना कीजिये ऐसे वातावरण में आर्यवीरों ने कितने कष्ट सहे हैं । इसी का परिणाम था कि १२ हजार सत्याग्रहियों का छः हजार मन वजन घट गया था । २० सेर वजन प्रति व्यक्ति कम हो गया था । हमारे चरित्रनायक ब्रह्मचारी भगवानदेव जी का भी ३५ पौंड वजन घट गया था । इस पर भी आर्य सत्याग्रहियों ने हिम्मत नहीं हारी और तब तक निरन्तर सत्याग्रह करते रहे जब तक कि निजाम को झुका न दिया । अनेक व्यक्ति ऐसे थे जिन्होंने अपने बच्चों सहित सत्याग्रह किया और एक बार छोड़ दिये तो दूसरी और तीसरी बार सत्याग्रह कर सफलता मिलने तक जेल में रहे । इसीलिए तो आर्यसमाज ने असम्भव को सम्भव बना दिया । सर्वोच्च राष्ट्रीय नेता जिस कार्य की सफलता को सन्देह की दृष्टि से देखते थे, उसे पूर्ण सफल बना दिया ।
नामुमकिन को मुमकिन कर दिखलाता है करने वाला ।
जिसने सिर रख लिया हाथ पर उसने सब कुछ कर डाला ॥ (विकल)
संस्कृत भाषा के विद्वान् बनने का निश्चय
सत्याग्रह से लौटकर ब्र० भगवानदेव जी ने आर्य विद्यार्थी आश्रम के माध्यम से आर्यसमाज और कांग्रेस का कार्य और अधिक उत्साह से करना प्रारम्भ किया । सत्याग्रह में चले जाने के कारण जिस किसी कार्य में कहीं शिथिलता आई थी उसको गति प्रदान की । रात्रि पाठशालाओं और सामूहिक सहभोजों का आयोजन नये सिरे से प्रारम्भ किया । ब्रह्मचारी जी संस्कृत भाषा एवं वैदिक वाङ्मय में विद्वत्ता प्राप्त करने की बात मन में संजोये हुए थे । हैदराबाद सत्याग्रह में दयानन्द वेद विद्यालय के ब्रह्मचारियों से सम्पर्क हुआ तो इस भावना को और अधिक बल मिला । किन्तु यहाँ कार्य का इतना अधिक विस्तार हो चुका था कि उसको छोड़कर जाना बड़ा कठिन हो रहा था । दूसरों को संस्कृत पढ़ने तथा गुरुकुलों में भेजने की प्रेरणा और आर्थिक सहायता देने का कार्य तो करते ही रहते थे किन्तु स्वयं बहुत चाहते हुये भी नहीं जा पा रहे थे । इसी बीच एक दिन पं० हरिध्यानसिंह नरेला वालों ने व्यंग्यात्मक भाषा में कहा - "ब्रह्मचारी जी ! आप संस्कृत पढ़ने के लिये दूसरों की तो बहुत मदद करते हो, पर स्वयं किसी गुरुकुल में जाकर क्यों नहीं पढ़ते ? उनकी बात सुनकर ब्रह्मचारी जी ने स्वयं संस्कृत में पाण्डित्य प्राप्त करने का निश्चय कर लिया । इसी बीच में आप एक बार गुरुकुल डौरली के वार्षिकोत्सव पर गये । वहां आपने व्यायाम तथा योग-आसनों का प्रदर्शन किया । गुरुकुल के आचार्य पं० लेखराम जी अत्यधिक प्रभावित हुये । कठिन से कठिन आसन व मोगरी चलाना आपने जिस सरलता से दिखलाया वैसा गुरुकुल के ब्रह्मचारियों को भी नहीं आता था । उन्होंने ब्रह्मचारी जी को कहा - आपको संस्कृत, व्याकरण तथा दर्शन आदि का अध्ययन पूरा करना चाहिये । यदि आप पूरा नहीं करेंगे तो आपकी तपस्या जड़ रह जायेगी । साथ ही उन्होंने कहा - हमारे गुरुकुल में आर्ष पाठविधि नहीं है, परन्तु यदि आप चाहें तो मैं आपके लिये अलग से प्रबन्ध कर सकता हूं । बाद में सरकार ने इस गुरुकुल को जब्त कर लिया ।
दयानन्द वेद विद्यालय में प्रवेश
नरेला में आश्रम और दूसरे कार्यों को अपने सहयोगियों को सौंप ब्रह्मचारी जी दिल्ली में यमुना के किनारे स्थित (बाद में यूसुफ सराय) दयानन्द वेद विद्यालय में पहुँच गये । श्री आचार्य राजेन्द्रनाथ शास्त्री (वर्तमान में स्वामी सच्चिदानन्द योगी) जी वहां आचार्य थे । वे ब्रह्मचारी जी के स्वास्थ्य व लगन से अत्यधिक प्रभावित हुये । संस्कृत का कुछ ज्ञान तो इन्हें पहले से ही था, अतः आचार्य जी ने इनको शीघ्र ही अष्टाध्यायी पढ़ने के लिये दे दी । यहाँ पर एक वर्ष पाँच मास तक आप निरन्तर संस्कृत व्याकरण व साहित्य का अध्ययन करते रहे । साथ ही व्यायाम, मुदगर आदि का अभ्यास भी चलता रहा । लाठी चलाना भी आपने यहीं सीखा । यहां आपने बौद्धिक तथा शारीरिक दोनों ही प्रकार का अत्यधिक परिश्रम किया । यहां का पानी आपको अनुकूल नहीं पड़ा । फलस्वरूप आपका स्वास्थ्य खराब रहने लगा ।
गुरुकुल चित्तौड़गढ़ में अध्ययन
एक बार चित्तौड़गढ़ गुरुकुल के संस्थापक स्व० व्रतानन्द जी दयानन्द वेद विद्यालय में आये और उन्होंने ब्रह्मचारी जी को आश्वासन दिया कि आप हमारे यहां चलिये, वहां आपका सब प्रबन्ध कर दिया जायेगा । पानी भी वहां का बहुत अच्छा है जो आपके अनुकूल रहेगा । स्वामी जी की प्रेरणा पर आप वेद विद्यालय छोड़कर गुरुकुल चित्तौड़गढ़ चले गये । वहां पांच मास रहकर आपने महाभाष्य आदि पढ़ा परन्तु अनुकूलता वहां भी नहीं बन पाई । अतः चित्तौड़गढ़ से भी वापिस आना पड़ा ।
चित्तौड़गढ़ से लौटकर आपने आश्रम में रहते हुये ही आगे अध्ययन का क्रम जारी रखा । समाज-सुधार की अन्य गतिविधियां भी चलती रहीं ।
भारत छोड़ो आन्दोलन
इस समय हरयाणा में कई गुरुकुल चल रहे थे । इनमें गुरुकुल झज्जर तथा गुरुकुल भैंसवाल प्रमुख थे । भैंसवाल गुरुकुल की स्थापना भक्त फूलसिंह जी ने की थी । भक्त जी की प्रसिद्धि उन दिनों दूर-दूर तक फैल चुकी थी । हरयाणा में तो वे बहुत ही लोकप्रिय थे ।
भक्त जी को किसी ऐसे व्यक्ति की आवश्यकता थी जो गुरुकुल के आचार्य पद के लिये उपयुक्त हो । इन्हीं दिनों भक्त जी को ब्रह्मचारी भगवानदेव जी के संबन्ध में पता चला । वे ब्रह्मचारी जी के पास आश्रम में आये और इनसे गुरुकुल भैंसवाल सम्भालने का आग्रह किया । साथ ही कहा कि "आपकी सहायता के लिए मैं भी तैयार रहूंगा तथा बाहर से भी आपकी अधिकाधिक मदद कराऊंगा ।" किन्तु ब्रह्मचारी जी ने उनसे अपनी असमर्थता प्रकट की और गुरुकुल संभालने से निषेध कर दिया । क्योंकि तब तक अखिल भारतीय कांग्रेस के आह्वान पर देश में 'भारत छोड़ो' आन्दोलन प्रारम्भ होकर अपने यौवन की ओर बढ़ रहा था । ब्रह्मचारी जी भी पूरी शक्ति से इसमें जुटे थे । इनके सम्पर्क में रहे अनेक युवकों ने इस अन्दोलन में मुख्य भूमिका निभाई और जेलें काटीं । वास्तव में देखा जाये तो 'भारत छोड़ो' आन्दोलन की भूमिका तो आर्यसमाज ने ही तैयार की थी । आर्यसमाज की ओर से अंग्रेज सरकार का विरोध हो रहा था । विशेषकर पूरे हरयाणा में आर्यसमाज के स्कूल और पाठशालाओं का जाल बिछा हुआ था और ये सब राष्ट्रीयता के गढ़ थे । हरयाणा भर में ५०० के लगभग पाठशालायें थीं जिनका संचालन आर्यसमाज करता था । जहां से अंग्रेज सरकार के विरुद्ध बगावत की योजनायें बनतीं थीं । हरयाणा भर में आर्य अध्यापकों ने 'प्रजामंडल' बना लिये थे । दिन भर शिक्षा का काम और रात्रि में सरकार के खिलाफ प्रचार और संगठन बनाना इन अध्यापकों का मुख्य ध्येय था । लगन इतनी थी कि रविवार के दिन भी ये छुट्टी नहीं करते थे । लक्ष्य बड़ा लंबा बनाया था । लंबी लड़ाई लड़ने की भूमिका तैयार करने के लिये शिक्षा का क्षेत्र अपनाया था जिससे आने वाली पीढ़ी को भी तैयार किया जा सके । उस समय यह पता नहीं था कि स्वतन्त्रता इतनी निकट है । विशेष रूप से दादरी तहसील में तो आर्यसमाज की पाठशालायें बहुत अधिक थीं । उनमें सभी अध्यापक कर्मठ और आर्यसमाजी ही नियुक्त किये जाते थे । उनके ऊपर आठ निरीक्षक (इंस्पेक्टर) भी आर्यसमाजी ही थे । इन निरीक्षकों के ऊपर प्रधान निरीक्षक प्रसिद्ध आर्यसमाजी नेता श्री निहालसिंह तक्षक थे । श्री तक्षक बाद में पेप्सू के मन्त्री-मंडल में मंत्री भी रहे । तक्षक जी उन दिनों दिन रात उंट की पीठ पर सवार रहकर शिक्षा, आर्यसमाज-प्रचार और अंग्रेज सरकार के विरुद्ध प्रचार में लगे रहते थे । अनेक अध्यापक जेल भी जा चुके थे । इस तरह भारत छोड़ो आन्दोलन का कार्य आर्यसमाज पहले ही से कर रहा था । अब कांग्रेस के आह्वान पर आर्यसमाज ने अगुवा बनकर कार्य किया । किन्तु आर्यसमाज ने कभी भी अपनी पृथक् सत्ता नहीं दिखलाई । उस समय आर्यसमाज और कांग्रेस में विभेद नहीं था । एक ही तस्वीर के दो पहलू थे । इसीलिए सुभाषचन्द्र बोस ने कहा था कि उत्तर भारत में काम करने वाले ८०% लोग आर्यसमाजी हैं और वही आन्दोलन के प्राण हैं ।
ब्रह्मचारी जी ने अठारह-अठारह घण्टे प्रतिदिन घूम-घूमकर इस आन्दोलन के लिये जन-समर्थन जुटाया । आन्दोलन के प्रारम्भ में ही देश के शीर्षस्थ नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया । इससे देशभर में रोष फैल गया । तोड़-फोड़ की कार्यवाहियां होने लगीं । ब्रह्मचारी जी के पीछे गुप्तचर रहने लगे । उन दिनों अधिकांश सक्रिय आर्यसमाजियों पर खुफिया दृष्टि रखी जाती थी । किन्तु ब्रह्मचारी जी ने भी सावधानी से कार्य किया और अपने सहयोगियों को प्रेरित किया । इनके आश्रम में रहने वाले युवक श्री अजीतसिंह सुपुत्र सूबेदार धीरजसिंह (महीपालपुर) ने कुछ युवकों को साथ लेकर डाकखाना फूंक दिया । वे पकड़े गये और उनको नौ वर्ष की सजा सुनाकर लाहौर जेल भेज दिया गया । नरेला आर्यसमाज के सदस्य श्री जयलाल स्वर्णकार उन दिनों इन कार्यों के लिये औजार व शस्त्रादि बनाते थे । वे भी गिरफ्तार हुये और जेल गये । १९४६ में गोपीचन्द भार्गव मन्त्री व प्रो० शेरसिंह संसदीय सचिव बने तो उनके प्रयत्नों से ये लोग जेल से छूटे ।
इन दिनों श्री सी. के. नायर व चौ० हीरासिंह आदि इस क्षेत्र में आन्दोलन के अगुआ थे । ब्रह्मचारी जी से मिलकर ये योजनायें बनाते थे । नायर जी वेश बदलकर इनके पास आते रहते थे । आगे चलकर स्वतन्त्रता के बाद श्री नायर जी इस क्षेत्र से लोकसभा के लिये चुने गये । यह ब्रह्मचारी जी के कार्यों का ही परिणाम था ।
पटरी का उखाड़ना
ब्रह्मचारी जी की प्रेरणा से अनेक क्रान्तिकारी कार्य हुये । स्वामी धर्मानन्द जी के साथ मिलकर श्री जयलाल आर्य स्वर्णकार, श्री हरनन्द, ताराचन्द और श्री रतीराम (स्वामी ईशानन्द) आदि ने दिल्ली अम्बाला रेलवे लाइन को राठधाना गांव के पास उखाड़ दिया । इनमें से कुछ को रेलवे सिगनल के तार तोड़ने का काम सौंपा गया था, जो इन्होंने पूरा किया । फलस्वरूप वहां एक भयंकर रेल दुर्घटना हुई । अनेक व्यक्ति उसमें काम आये । अंग्रेज सरकार इस घटना से हिल उठी । दिल्ली की सरकार की नाक के नीचे इतनी बड़ी घटना हो जाना सरकार के लिये बहुत बड़ी चुनौती थी । फलस्वरूप खुफिया पुलिस के माध्यम से सरकार सावधान हो गई और इस घटना में लगे सभी व्यक्तियों को गिरफ्तार कर लिया । उपर्युक्त व्यक्तियों के अतिरिक्त बवाना के डा० राजेश्वर व श्री हरिदत्त (ततीना) का भी इसमें हाथ था, वे भी गिरफ्तार कर लिये गये । इनमें से कुछ को लालकिले के दुर्घन्ध भरे भूमिगत अंधेरे तहखानों में डाल दिया गया । भयंकर यातनायें दी गईं । कई दिन तक भूखा रखा गया परन्तु ये सब बहुत पक्के थे । इनमें से किसी ने भी नहीं बतलाया कि इस प्रकार की गतिविधियों का संचालक कौन है और कहां योजनायें बनती हैं । ब्रह्मचारी जी ने भूमिगत रहकर कार्य चालू रखा । अंग्रेज सरकार ने इस केस के शनाख्ती गवाह भी बनाये किन्तु ब्रह्मचारी जी ने उन सबको तोड़ लिया । इस कारण सरकार जिस तरह के मुकदमे में इनको फंसाना चाहती थी, सफल नहीं हुई और इनकी लम्बी जेलें भी न हो सकीं ।
गुरुकुल सम्भालने के लिए आग्रह
इसी बीच भक्त फूलसिंह जी फिर दो-तीन बार इनको गुरुकुल भैंसवाल संभलवाने के लिये आये किन्तु ब्रह्मचारी जी नहीं गये । अन्तिम बार भक्त जी के वापिस जाने के दस दिन बाद उनको गोली मार दी गई और भक्त फूलसिंह जी का बलिदान हो गया । कुछ दिन बाद स्वामी ब्रह्मानन्द जी, पं० जगदेवसिंह सिद्धान्ती तथा श्री छोटूराम राठी ब्रह्मचारी जी के पास आये और उन्होंने इनसे गुरुकुल झज्जर संभालने के लिये आग्रह किया । स्वामी ब्रह्मानन्द जी उन दिनों गुरुकुल के आचार्य और श्री राठी जी मन्त्री थे । उनके आग्रह को ब्रह्मचारी जी टाल नहीं सके । ब्रह्मचारी भगवानदेव (स्वामी ओमानन्द) जी का प्रारम्भ से ही यह स्वभाव रहा है कि ये प्रायः उस कार्य को अवश्य करते हैं जिसको कठिन समझकर दूसरे व्यक्ति करने का साहस नहीं कर पाते । असम्भव नहीं तो कठिनतम कार्य को करने के लिए संघर्ष मोल लेना इनका स्वभाव है । जब इनको बतलाया गया कि गुरुकुल झज्जर की स्थापना नौकरी छोड़कर पं० विश्वम्भरदास जी ने किस प्रकार की विषम परिस्थितियों में की थी । उस व्यक्ति का तप, त्याग अब अपनी दयनीय अवस्था के कारण विपन्नता को प्राप्त हो रहा है तब ब्रह्मचारी जी ने इस गुरुकुल को सम्भालना और इसका पुनरुद्धार करना स्वीकार कर लिया ।
गुरुकुल झज्जर के आचार्य
श्री स्वामी ब्रह्मानन्द जी व श्री राठी जी ब्रह्मचारी जी को लेकर गुरुकुल पहुंचे । वहां सम्मान के साथ इन्होंने ब्रह्मचारी जी को गुरुकुल सौंप दिया । दीपावली के शुभ दिन २२ सितंबर १९४२ ई० को आपने गुरुकुल सम्भाला । आचार्यत्व के साथ-साथ गुरुकुल के अन्य कार्यों का भार भी आप पर ही था । दो-चार छोटे ब्रह्मचारियों और दो-तीन बूढ़े व्यक्तियों के अतिरिक्त वहां गोशाला में दो बैल और तीन-चार बूढ़ी गायें थीं । इनकी दशा बहुत दयनीय थी । एक बड़ा कमरा (हाल) तथा उसके साथ लगते हुये दो छोटे कमरे थे किन्तु उनका शहतीर (लकड़ी का गाटर) लोग उतार ले गये थे । गायों के लिये दो-तीन छप्पर पड़े थे । बस यही सब था उस समय गुरुकुल की सम्पत्ति । इस अवस्था से निकालकर अपने स्वप्नों का गुरुकुल बना पाने में बार-बार सन्देह दीख पड़ता था । पग-पग पर बाधायें थीं । गुरुकुल के आस-पास रहने वाले गुरुकुल से चिढ़ते थे । सहायता की जगह वे गुरुकुल से ही खाने की अपेक्षा रखते थे । अन्य ब्रह्मचारी जुटाकर स्वयं उनको पढ़ाना, स्वयं उनके लिये रोटी पकाना और गायों के लिए स्वयं चारा काटना और स्वयं अपने हाथ से गोबर उठाना आदि सब काम एक ही व्यक्ति पर आ पड़े तो अनुमान कीजिये उसकी शारीरिक और मानसिक स्थिति क्या होगी । तीन वर्ष तक लगातार स्वयं ब्रह्मचारी जी अपने हाथ से यह सब करते रहे । इस पर भी इन्होंने कभी साहस नहीं छोड़ा । कोई और व्यक्ति होता तो पल्ला झाड़कर भाग खड़ा होता किन्तु श्रेष्ठ लोग प्रारम्भ किये अच्छे कार्य को अधूरा नहीं छोड़ते - "प्रारब्धमुत्तमजना न परित्यजन्ति ।" कदाचित् भर्तृहरि ने यह पंक्ति ऐसे ही नरश्रेष्ठ महापुरुषों के लिए लिखी है । ब्रह्मचारी जी को आचार्य बनाने वाले सज्जन सम्भवतः पहले से ही भलीभांति जानते थे कि गुरुकुल का पुनरुद्धार केवल ब्रह्मचारी जी ही कर सकते हैं । स्वामी ब्रह्मानन्द जी भी प्रयत्न करके थक गये थे ।
तीन-चार वर्ष तक अहर्निश कठोर परिश्रम करके जब गुरुकुल की स्थिति को संभाल लिया और जब इनको पक्का विश्वास हो गया कि अब यदि किसी पंडित को बाहर से भी बुलाया जाये तो वह टिक सकेगा, तब ब्रह्मचारी जी ने अपने वेद विद्यालय के सहपाठी श्री पं० विश्वप्रिय शास्त्री को बुलाकर मुख्याध्यापक नियुक्त कर दिया । गुरुकुल के साथ ब्रह्मचारी जी (जो अब आचार्य के नाम से भी जाने जाने लगे थे) का नाम सुनकर नये ब्रह्मचारियों ने प्रवेश लेना प्रारम्भ किया । गुरुकुल की प्रबन्धकर्त्री सभा ने भी अब गुरुकुल की उन्नति में रुचि लेना आरम्भ किया । सदस्य अपने पुत्रों को प्रवेश दिलाने लगे । आचार्य जी के आने के बाद पहले ही वर्ष में बारह विद्यार्थी आये । सबसे पहले दहकोरा गांव के श्री चौ. अमीलाल जी ने अपने दो लड़के प्रविष्ट कराये । ये चौधरी जी प्रारम्भिक दिनों में गुरुकुल की बहुत अधिक सहायता करते थे । गुरुकुल के लिए अनाज व भूसा स्वयं अपनी बैलगाड़ी से समय-समय पर डालकर जाते थे तथा आर्थिक सहायता भी करते थे । अब पिछले चौदह वर्षों से आपने गृह त्यागकर वानप्रस्थ लेकर अपना पूरा जीवन ही गुरुकुल की सेवा में लगा रखा है । पिछले वर्ष आपने सन्यास ले लिया है और गुरुकुल में ही सेवारत हैं । आप सरीखे अनेक भक्तों ने प्रारम्भिक दिनों में गुरुकुल की भरपूर सहायता की । इसके बाद लाखन माजरा के दो लड़के जयदेव व रणधीर प्रविष्ट हुये । चौ. झुण्डासिंह फरमाणा (महम) ने भी अपने दो लड़के भेजे थे । गुरुकुल में इस समय तक एक कुआं था, वह भी खारी पानी का । अरहट भी नहीं था । आचार्य जी ने दूसरा कुआं बनवाया जिसमें बहुत अच्छा मीठा पानी निकला । इस पर अरहट लगवाया । गोशाला के लिये कच्ची ईंटों के कमरे बनवाये । कुछ वर्ष बाद इसी जगह गोशाला के विशाल भवन का निर्माण किया, जिसकी नींव डा० राजेन्द्रप्रसाद ने रखी । गुरुकुल को अब जिसने देखा है वे जानते होंगे कि आचार्य जी का तप त्याग वहां किस रूप में फलीभूत हो रहा है । इन्होंने कभी भौतिक साधनों को महत्त्व नहीं दिया अपितु उनकी अपेक्षा देश धर्म का कार्य करने वाले ब्रह्मचारियों के निर्माण पर अधिक ध्यान दिया । तथापि वहां आज महाविद्यालय, पुरातत्त्व संग्रहालय, पुस्तकालय, औषधालय और गोशाला आदि के जितने विशाल भवन बनाये हैं उनको देखकर आश्चर्य होता है । महाविद्यालय में आर्ष-पाठविधि से सैंकड़ों विद्यार्थी पढ़ते हैं । अनेक प्रवेश के लिए लालायित रहते हैं । पुरातत्त्व संग्रहालय में विपुल ऐतिहासिक पुरावशेष एकत्रित हैं । औषधालय में लगातार औषध-निर्माण चलता है । गोशाला में हरयाणा नसल की स्वस्थ सुन्दर सैंकड़ों गायें हैं । विशाल उद्यान है । उसके बीच बनी भव्य यज्ञशाला है । उसके साथ लगा ब्रह्मचारियों का स्नानागार है जिसके साथ ही एक तरणताल भी बनाया गया है और यह सब बिना सरकारी अनुदान के किया गया है । इतना बड़ा यज्ञ आचार्य जी के तप, त्याग, साधना, श्रम और हरयाणा के किसानों के दान का प्रतिफल है जो अपने आप में एक बहुत बड़ा आश्चर्य भी है और अनूठा प्रयोग भी है । किन्तु यह सब उतना सहज में नहीं हो पाया जितना सहज में कलम से लिख देना या बतला देना । इसके पीछे आचार्य जी ने एक लम्बी दूरी तय की है । अनेक संघर्षों का साम्मुख्य (मुकाबला) किया है । दुनियादारी से सर्वथा अलग लकीर चलाकर भी जिसमें अपने तप के आकर्षण से उन्होंने कुछ दुनियां वालों का भी सहयोग प्राप्त किया है ।
चिकित्सा कार्य
जिस समय गुरुकुल संभाला तो आचार्य जी के सामने सबसे बड़ा प्रश्न था कि गुरुकुल के कार्य में सहभागी बनाने के लिये लोगों से सम्पर्क कैसे साधा जाये । इस कार्य के लिये इन्होंने भैषज्य (वैद्यक) का सहारा लेना प्रारम्भ किया । सबसे पहले महाशय हरफूलसिंह जी भदानी गांववाले अपने एक रिश्तेदार को लेकर आचार्य जी के पास आये । वे रांघड़ बाव के रोगी थे । आचार्य जी की औषध ने उन पर जादू का काम किया और वे ठीक हो गये । यहीं से इनकी एक सफल वैद्य के रूप में प्रसिद्धि होने लगी । देखते ही देखते थोड़े दिन बाद इतने रोगी इनके पास आने लगे कि दोपहर तक का समय रोगी देखने में ही लगाना पड़ता । गुरुकुल के अन्नादि के कार्य के लिये यदि गांव में जाना पड़ता तो वहां भी पूरे गांव के लोग उपचार के लिये एकत्रित हो जाते । आचार्य जी के लिए उनका यह सेवा-कार्य उनके अपने लिये सिर-दर्द बनने लगा । औषध की विश्वसनीयता के लिये इनको स्वयं औषध-निर्माण भी आरम्भ करना पड़ा । आचार्य जी ने अनेक नई आयुर्वैदिक औषधियों का भी आविष्कार किया जिनमें संजीवनी तैल, बलदामृत, स्वप्नदोषामृत, स्त्री-रोगामृत, अर्शरोगामृत, सर्पदंशामृत (सर्प काटे की औषध) और नेत्रज्योति सुरमा आदि उल्लेखनीय हैं । संजीवनी तैल और सांप की औषध ने तो आपको बहुत ही प्रसिद्धि दिलाई । जले तथा कटे पर संजीवनी तैल अचूक सिद्ध हुआ । बैल के पैर में फाली लगने पर भी किसान लोग इसी का प्रयोग करने लगे । परिणामस्वरूप आचार्य जी ने इस कार्य के लिये भी अनेक व्यक्ति रखे । वैद्य बोधेन्द्रदेव ने सबसे पहले इस कार्य में सहयोग दिया ।
गुरुकुल में अध्यापन व व्यवस्था का कार्य श्री पण्डित विश्वप्रिय जी ने सम्भाला । मास्टर धर्मसिंह ने भी उनका सहयोग किया । आगे चलकर ज्यों-ज्यों विद्यार्थी बढ़ते गये, त्यों-त्यों अध्यापकों की भी संख्या बढ़ती गई । प्रथम स्नातकों में से श्री पं० वेदव्रत जी ने पं० विश्वप्रिय जी के पश्चात् अधिष्ठाता पद तथा पं० सुदर्शनदेव जी ने मुख्याध्यापक का पद संभाला । इनके अतिरिक्त पं० सत्यव्रत, पं० राजवीर (स्नातक), ब्र० यशपाल, ब्र० धर्मव्रत (चुड़ेला), ब्र० सोमदेव (बालन्द), पं० गंगाराम (स्वामी दर्शनानन्द), स्वामी भागवतानन्द, ब्र० बलदेव नैष्ठिक मुख्याध्यापक, ब्र० इन्द्रदेव मेधार्थी (स्वामी इन्द्रवेश), ब्र० धर्मदेव आदि ने अध्यापन कार्य संभाला । श्री देवकरण जी लम्बे समय तक संरक्षक रहे । उनके समय में गुरुकुल का अनुशासन अपने आप में एक आदर्श था । अब आचार्य जी गुरुकुल के लिये अन्न, धन्न आदि जुटाने के लिये अधिकतर बाहर गांवों में जाने लगे । आर्यसमाज के प्रचार के लिये जगह-जगह ब्रह्मचर्य शिक्षण शिविर लगाना भी इन्होंने प्रारम्भ किया ।
सन् १९४७ ई० तक आचार्य जी की झज्जर और रोहतक में बड़ी प्रसिद्धि हो चुकी थी । पहले-पहल इनके सम्पर्क में आने वाले व्यक्तियों में विशेष उल्लेखनीय हैं - श्री जगदेव सिंह जी सिद्धान्ती, श्री छोटूराम राठी खरहर, श्री न्योनन्दसिंह (स्वामी नित्यानन्द), श्री ब्रह्मदेव (सीदीपुर लोवा), श्री रघुनाथसिंह खरहर, महाशय प्रहलादसिंह व महाशय हरफूलसिंह भदानी, दफेदार रिसालसिंह बेरी, श्री उमरावसिंह, श्री जगराम मातनहेल, मा० मंगलीराम खेड़ीजट्ट, ठाकुर हरफूलसिंह बराणी, महा० प्यारेलाल भापड़ौदा, श्री गरीबराम राठी, श्री चौ० अमीलाल दहकोरा, श्री रिसालसिंह महराणा, नम्बरदार सुल्तानसिंह भदानी, कैप्टन ब्रह्मसत्य भापड़ौदा, महा० हरनारायण व चौ० शीशराम बाघपुर, हरकेराम गुभाणा, जुगलाल ढ़ाकला, सुखराम सुरेहती, नम्बरदार शुभराम व सुखचैन मातनहेल, रामगोपाल पलड़ा, भोलाराम महराणा, चुन्नीलाल लाडपुर, चौ० शिवनारायण आकूपुर, अमरसिंह मारौत, नम्बरदार धीरू भापड़ौदा, चौ० खुशीराम आसौदा, सूबेराम समायल, महाशय इन्द्राज खेड़का, रामगोपाल व लज्जेराम छारा, पं० सोहनलाल लूखी, किशनसहाय लूलोढ़, चौ० ललतीराम दातौली, जुगलाल सुबाणा, मास्टर पोहकरमल गोयला, कप्तान रामकला धांधलाण, मेजर मेहरचंद खुंगाई, सीताराम गोच्छी (इन्होंने उस जमाने में गुरुकुल को २५०० रुपये दान दिया), राव उदयसिंह खेड़ी खुमार, राव मंगलीराम, लाला परशुराम व भगत खेमराम झज्जर, मास्टर घीसूराम कलोई, फकीरचन्द दहकोरा, चन्दगीराम मुण्ढ़ेला, भक्त लेखराम टीकरी, लहरीसिंह कोट, महा० सूरतसिंह रैय्या । प्रो० शेरसिंह से परिचय कुछ दिन बाद हुआ । इसी प्रारम्भिक परिचय ने थोड़े समय बाद ही बहुत अधिक विस्तार पाया । आचार्य जी की कार्यशैली ने सम्पर्क में आने वाले प्रत्येक व्यक्ति को प्रभावित किया । प्रभावित व्यक्ति इनका प्रंशसक और प्रचारक बना और १९४७ तक पूरे हरयाणा में जन-जन तक ही नहीं, भारतभर मे आर्यसमाजी क्षेत्रों में आचार्य जी सुप्रसिद्ध हो गये ।
फतहसिंह भण्डारी
गुरुकुल के संबन्ध में सुनकर झज्जर हाई स्कूल के विद्यार्थी भी ब्रह्मचारियों को देखने आने लगे । इन्हीं में युवक फतहसिंह रैय्या वाले भी थे । ये तो इतने अधिक प्रभावित हुये कि उन्होंने बीच में अध्ययन छोड़ अपना पूरा जीवन गुरुकुल को अर्पित कर दिया । गुरुकुल में आकर आपने अन्न संग्रह और भंडार आदि का कार्य सम्भाल लिया अतः आपको सभी सम्मानित रूप में भण्डारी जी के नाम से पुकारने लगे । श्री भण्डारी जी गुरुकुल के प्रमुख स्तम्भों में से एक हैं । आप आज भी गुरुकुल की सेवा में पूरे उत्साह से जुटे हैं । अन्न-संग्रह व बाहर की व्यवस्था की देख-रेख की जिम्मेवारी आप पर है । आचार्य जी के बाद आप ही सबसे पुराने व्यक्ति हैं जो गुरुकुल में हैं । आपने गुरुकुल के अनेक उतार-चढ़ाव देखे हैं । आपने गुरुकुल की सेवा का व्रत उस समय लिया था जब आचार्य जी उसकी उजड़ी हुई अवस्था से अपने हाथों पुनरुद्धार करने में लगे । आचार्य जी के साथ मिट्टी से स्वयं कच्चे मकानों की लिपाई करना, पशुओं के लिये हाथ से चारा काटना और खेत का काम करना जैसे कठिन कार्य इन्होंने प्रारम्भ में स्वयं किये हैं । अत्यधिक अनुभवी और कर्मठ हैं । गुरुकुल की उन्नति की अहर्निश चिन्ता रखते हैं । इस प्रकार ज्यों-ज्यों आचार्य जी का प्रभाव बढ़ता गया, त्यों-त्यों गुरुकुल के लिये सहायक व्यक्ति भी जुटते गये ।
मेवात में सहायता कार्य
सन् १९४६ ई० में हरयाणा में एक बड़ी भयंकर घटना हुई । गुड़गांव के मेवात क्षेत्र में मुसलमानों ने हिन्दू गाँवों पर हमला कर दिया । अनेक गाँवों में आग लगा दी । कई गाँव जलकर भस्म हो गये । भयंकर रक्तपात की शुरुआत हुई । यह अंग्रेजों की उस चाल का फल था जो लम्बे समय से हिन्दू-मुस्लिम भाई-भाई के बीच फूट का जहर बो रहे थे । इन दोनों को लड़ाकर राज करते रहना उनका उद्देश्य था । इस कांड में मुख्यरूप से गुड़गांव के अंग्रेज डिप्टी-कमिश्नर का हाथ था । उसने मुसलमानों में शस्त्रास्त्र बंटवाये और उनको आक्रमण के लिये उकसाया । इस घटना से पूरा देश हिल उठा । कांग्रेस के उच्च नेताओं ने हस्तक्षेप किया । सरदार पटेल ने बिरला जी को प्रेरणा की । उन्होंने आर्थिक सहायता तथा दो ट्रक अन्न के भिजवाये । आचार्य भगवानदेव जी व प्रो० शेरसिंह ने जले हुये सभी गांवों का दौरा किया और दो हजार मन अनाज इक्ट्ठा कर वहां भिजवाया । बहुत सारी औषधियां भी भिजवाईं । आर्थिक सहायता भी बहुत करवाई । गांव-गांव जाकर पीड़ित लोगों को आश्वास्त किया । उस कठिन समय में की गई इनकी सहायता और सेवा को मेवात के लोग आज भी श्रद्धापूर्वक याद करते हैं । यह सेवा आगे चलकर श्री प्रकाशवीर शास्त्री के चुनाव में काम आई । यहां के लोगों ने आचार्य जी आदि के आह्वान पर शास्त्री जी का भरपूर साथ दिया और उनको विजयी बनाया ।
गुरुकुल की रजत-जयन्ती
गुरुकुल झज्जर की स्थापना तिथि २ ज्येष्ठ सम्वत् १९७२ तदनुसार १६ मई १९१५ को झज्जर के पं० विश्वम्भरदास ने की । इस दिन महात्मा मुन्शीराम (स्वामी श्रद्धानन्द) जी ने गुरुकुल की आधारशिला रखी । महाशय कृष्ण भी इस अवसर पर उपस्थित थे । स्थापना के २५ वर्ष बाद गुरुकुल का रजत-जयन्ती समारोह १९४० ई० में सम्पन्न हो जाना चाहिये था किन्तु उस समय गुरुकुल की अवस्था अच्छी नहीं थी । पं० विश्वम्भरदास के उपरान्त आठ वर्ष तक गुरुकुल लगभग बन्द ही पड़ा रहा । उसके बाद २ मार्च १९२४ से १९४० तक गुरुकुल का संचालन स्वामी ब्रह्मानन्द जी व स्वामी परमानन्द जी ने किया । सन् १९४० में गुरुकुल के अधिष्ठाता स्वामी परमानन्द जी का देहावसान हो गया । स्वामी ब्रह्मानन्द जी अधिक वृद्ध हो गये । फलस्वरूप गुरुकुल की अवस्था डगमगा गई । रजत-जयन्ती मनाना तो दूर रहा, गुरुकुल को चलाते रहना भी कठिन हो गया । ऐसी स्थिति में आचार्य भगवानदेव जी ने १९४२ ई० में इस संस्था को संभाला । पांच वर्ष अथक परिश्रम करके इसको पैरों पर खड़ा किया । तब ८ से २२ फरवरी १९४७ तक रजत-जयन्ती महोत्सव मनाने का निश्चय किया गया । ८ फरवरी से चतुर्वेदपारायण महायज्ञ प्रारम्भ हुआ और २०, २१, २२ फरवरी को रजत-जयन्ती महोत्सव पूर्ण तैयारी के साथ मनाया गया ।
फौजी भाइयों का सहयोग
इस समय तक हरयाणा में आचार्य जी की ख्याति हो चुकी थी । इनके त्यागी, तपस्वी और कर्मठ जीवन से हरयाणावासी अत्यधिक प्रभावित थे । विशेषकर फौजी भाइयों की ओर से बहुत अधिक सहयोग मिल रहा था । सबसे पहले १७ पूना होर्स के फौजियों ने आचार्य जी को निमन्त्रित किया । उस समय यह बटालियन लखनऊ में थी । आचार्य जी ने वहां पहुंचकर एक वेद से यज्ञ करवाया । यज्ञ के उपरान्त प्रतिदिन आचार्य जी का विशेष उपदेश होता था, जिसको बटालियन के सभी छोटे-बड़े आफीसर और सैनिक बड़ी श्रद्धा से सुनते थे । वे सब आचार्य जी से इतने अधिक प्रभावित हुये कि इनकी प्रेरणा पर अधिकांश लोगों ने यज्ञोपवीत धारण किये । यहां आचार्य जी को गुरुकुल के लिए आठ सौ रुपये दान मिला । इस बटालियन के अधिक सहयोगी व्यक्तियों में दफेदार रिसालसिंह बेरी, श्री रिसालसिंह महराणा, श्री रघुनाथसिंह खरहर, श्री ब्रह्मदेव व श्री उमरावसिंह खेड़ी विशेष उल्लेखनीय हैं । आचार्य जी इनसे विदा होकर अयोध्या गुरुकुल होते हुये बनारस पहुंचे । वहां से आपने दान के मिले सब रुपयों के वे संस्कृत ग्रन्थ खरीद लिये जो विद्यार्थियों के पाठ्यक्रम में लगते थे ।
माता का देहान्त
बनारस से लौटते ही सूचना मिली कि आपकी माता का एक दुर्घटनावश देहान्त हो गया है । सूचना पाकर आचार्य जी बिना विचलित हुये आसन लगाकर भगवान के ध्यान में बैठ गये । मोहमाया से दूर रखने की शक्ति के लिये प्रभु से प्रार्थना कर वे निरन्तर काम में जुटे रहे । वे पं० लेखराम की भांति ही इस परीक्षा में भी खरे उतरे ।
जयन्ती महोत्सव की तैयारी
जयन्ती महोत्सव की तैयारी के लिये आप गांव-गांव घूमे । अनेक जगह ब्रह्मचर्य शिक्षण शिविर लगाये । लोगों ने जयन्ती के लिये दिल खोलकर दान दिया । जयन्ती की शुरुआत से पहले ही दूर-दूर से आकर लोग गुरुकुल में एकत्रित होने लगे । आचार्य जी की कर्मठता को देखने का अनेक लोगों को अवसर मिल रहा था । श्री जगदेवसिंह सिद्धान्ती, आचार्य राजेन्द्रनाथ शास्त्री, प्रो० शेरसिंह और चौ. गरीबराम राठी खरहर आदि अनेक गणमान्य व्यक्ति समारोह को सफल बनाने के लिये जुटे हुये थे । चार दिन तक लगातार गुरुकुल भूमि में अथाह जन-समुद्र उमड़ पड़ा था । स्वयं आचार्य जी की आशा से भी बहुत अधिक उत्साह लोगों में था । कुम्भ का सा दृश्य था । हजारों लोग आचार्यप्रवर के आगे नतमस्तक हो इनकी चरणवन्दना कर अपनी श्रद्धा आस्था प्रकट कर रहे थे । दूसरी ओर दण्ड कमण्डलुधारी शिखावान् ब्रह्मचारी लोगों के लिए सुखद आकर्षण का केन्द्र बना हुआ था । हरयाणा के प्रसिद्ध प्रचारक चौ. न्योनन्दसिंह (स्वामी नित्यानन्द) और महाशय प्यारेलाल भापड़ौदा के ओजस्वी भजनोपदेशों की अपनी निराली ही छटा थी । जिस समय आचार्य जी ने गुरुकुल के लिये दान देने के लिये अपील की थी तो उस समय जो भावविह्वल दृश्य बना उसको देखने वाले आज भी उसका बखान करते हुये भावविभोर हो उठते हैं । आचार्यप्रवर की अपील पर देखते-देखते ३० हजार रुपये लोगों ने दान दिया । अनेक लोग ऐसे थे जिन्होंने अपने पास किराये के लिये भी एक पैसा न रखा, सब दे डाला ।
पहले दो वर्ष आचार्य जी ने गुरुकुल में इसलिये उत्सव नहीं किया था कि उत्सव में स्त्रियां भी आने लगेंगी तो गुरुकुल के लिये अच्छा नहीं होगा । किन्तु बाद में गुरुकुल की प्रबन्धकर्त्री सभा के आग्रह पर गुरुकुल में उत्सव करना तथा केवल उत्सव के समय माता बहिनों का आगमन स्वीकार कर लिया था । इस अवसर पर माता व बहिनें भी पीछे नहीं रहीं । उन्होंने भी अपने आभूषण उतारकर दान करने आरम्भ किये । यदि आचार्य जी उस समय न रोकते तो न जाने कितने आभूषण दान कर दिये जाते । इस प्रकार यह समारोह बहुत उत्साह से सम्पन्न हुआ ।
ब्रह्मचारियों द्वारा वेद-मन्त्रों का मधुर उच्चारण तथा संस्कृत सम्भाषण सुनकर और आसनादि देखकर एक गहरी छाप लिये जब लोग घरों को लौट रहे थे तो भविष्य में गुरुकुल की और अधिक सहायता का संकल्प मन में ले रहे थे । आचार्य जी को उन्होंने अब अपना गुरु स्वीकार कर लिया था । उनके किसी भी आह्वान पर मर-मिटने की तमन्ना उनके मन में जाग चुकी थी । आने वाला समय उनकी इन भावनाओं का साक्षी बना । हिन्दी आन्दोलन हुआ, चाहे चण्डीगढ़ आन्दोलन, गोरक्षा आन्दोलन या कुण्डली का बूचड़खाना तोड़ने का अभियान, लोगों ने सदा अपने को सपर्पित रखा है । मैं समझता हूं आचार्य जी के समवेत् चरित्र-धन और महान् व्यक्तित्व के कारण ही लोग सदा इनके पीछे चले हैं । इनका सब कुछ औरों के लिए है । जीवन में इनका यह व्रत इनको महान् से महत्तर और महत्तम बनाता रहा है । इन्होंने जीवन के उषःकाल से ही दूसरों के लिए करना सीखा है । इसीलिए लोग सदा इनके लिए जीवन देने को तैयार रहते हैं ।
आचार्य जी के जीवन में यह खूबी प्रखर रूप में उस समय सामने आई जब जयन्ती पर मिले ३० हजार रुपये गुरुकुल में खर्च न कर सन् १९४७ की मारकाट में फंसे लोगों के प्राण बचाने में लगा दिये ।
आजादी के लिए संकल्प
जयन्ती महोत्सव के अन्तिम सन्देश के रूप में लोगों को राष्ट्रीय स्वतन्त्रता आन्दोलन में जी-जान से जुटे रहने का आह्वान किया । प्रत्युत्तर में लोगों ने यज्ञ में आहुति डालकर देश की आजादी के लिये मर-मिटने की कसमें खाईं । इससे इस क्षेत्र में स्वतन्त्रता आन्दोलन में नवजीवन का संचार हुआ । लोग कफन बांधकर जंगे आजादी में कूद पड़े । आचार्य जी महाराज भी गुरुकुल से निकल पड़े । अहर्निश मोटर साइकिल दौड़ाते जन-सम्पर्क करते रहे और लोगों में नये प्राण फूंके । फलतः गांव-गांव में प्रभातफेरियां होने लगीं । भारतमाता के और गांधी जी के जयकारों से हरयाणा की चप्पा-चप्पा भूमि अनुप्राणित हो गई । भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का तिरंगा झंडा हर जगह लहराने लगा । बिस्मिल, अशफाक, रोशन, लाहिड़ी, भगतसिंह और आजाद की शहादत के गीत आबाल वृद्ध वनिता की जबान पर आ गये । आजादहिन्द फौज की मार्चपास्ट धुन बजने लगी । नौजवानों की मस्त टोलियां अद्भुत आत्मविश्वास से गाने लगीं -
इलाही वो भी दिन होगा जब हम अपना राज देखेंगे ।
जब अपनी ही जमीं होगी और अपना आसमां होगा ॥
सम्पूर्ण राष्ट्र उत्साह, उमंग और सरफरोशी की तमन्नाओं से सरोबार था । राष्ट्रीय नेता आजादी को सन्निकट मानकर अपनी भावी योजनाओं की ओर उन्मुख हो रहे थे । उन पर दोहरा भार था । एक जनता में आई जागृति को बरकरार रखना तो दूसरा गौरांग महाप्रभुओं पर डाले गये दबाव को कायम रखते हुये उनको निश्चित अवधि के अन्दर सत्ता हस्तान्तरित करने हेतु तैयार करना । भारतीय जनमानस और नेतृवर्ग का ध्यान इधर लगा था । जबकि अंग्रेज दूसरी ओर चुपके-चुपके एक भयंकर विषवृक्ष को लगाकर उसमें खाद और पानी देने में लगे थे । उनको अपनी बुद्धि पर विश्वास था । भारतीयों की सदियों पुरानी बीमारी फूट को वे जानते थे । उसका कारगर प्रयोग कर वे आजादी देकर भी वापिस लेने की घात में थे । हिन्दू और मुस्लिम दो भाइयों के बीच आत्मघाती फूट का बीजारोपण वे वर्षों से करते आ रहे थे । इस बीज को अंकुरित हुये बहुत दिन हो चले थे । अब वह बढ़कर पौधा बन गया था, जिसे पल्लवित, पुष्पित और फलित होते देखने का स्वप्न संजोये एक भयंकर विस्फोट की आशा से वे आगे बढ़ रहे थे । उनकी आशा निष्फल भी नहीं हुई ।
आजादी तथा रक्तपात
अंग्रेजों ने हमें आजादी और रक्तपात दोनों एक साथ दिये । एक आंख में आजादी की खुशी के आंसू तो दूसरे में गम के आंसू हमारी नियति बना दिये गये ।
१५ अगस्त सन् १९४७ की अर्धरात्रि में वे एक हाथ से सत्ता दे रहे थे और दूसरे हाथ से फूट के बम में पलीता लगाकर उसे छीनने का प्रयास शुरु कर चुके थे । यदि उनको कहीं थोड़ी शंका थी तो केवल राष्ट्रीय नेताओं की उच्च योग्यता और भारतीय जनता की सहनशीलता के कारण थी । यदि मिस्टर जिन्ना अंग्रेजों के हाथ की कठपुतली न बनते तो उनके बुरे इरादों पर उसी दिन पानी फिर जाता और जो भयंकर रक्तपात हुआ उससे देश बच जाता । लाखों लोगों की जानें न जातीं, माताओं की कोख सूनी न होती, युवतियों के सुहाग न लुटते और बहिनों से भाई अलग न होते । न भाइयों को बहिनों का चीरहरण का विक्षोभ होता और न बच्चे दर-दर की ठोकरें खाते । तब लार्ड माऊंटबेटन को शिमला में बैठकर हमारा मजाक उड़ाने का अवसर न मिलता । वह उसी रात अपना बोरिया बिस्तर बांध इंग्लैंड कूच कर जाता । अंग्रेजों की दुरभिसन्धि का भांडा बीच चौराहे पर फूट जाता ।
तब जो कुछ हुआ सो तो हुआ । अब भी उसकी परछाई नहीं मिटी है । उस समय का डाला गया भयंकर विष आज भी जब कभी जहां कहीं अपना असर दिखाता है और दो भाइयों की तलवारें म्यान से बाहर आकर एक दूसरे के खून की प्यासी बन जाती हैं । एक मिट्टी में जन्मे, उसी में पले दोनों भाई भारत मां के भाल पर अपने पवित्र रक्त का कलंक में परिवर्तित हुआ टीका लगाने में शर्म भी अनुभव नहीं करते और इसको तूल देते हैं वे लोग जिनको ईर्ष्या, द्वेष, घृणा और साम्प्रदायिकता घुट्टी में घोलकर पिला दी जाती है । वे अपना अस्तित्व ही इस घृणा की नींव पर मानते हैं । इस पर भी तुर्रा तो इस बात का कि वे समझाने पर उल्टे हमें ही उपदेश देने लगते हैं । इस प्रवृत्ति से कब हमारा राष्ट्र बच सकेगा, भगवान जाने ।
अंग्रेजों ने साम्प्रदायिकता और जातीय भावनाओं से सींचकर फूटरूपी विषवृक्ष को किस प्रकार बड़ा किया और उसका उपयोग किस रूप में किया, यह एक अलग और दिलचस्प कहानी है । इसका उल्लेख करना विषयान्तर होगा परन्तु यहां यह लिखना अनिवार्य है कि इस जहर ने जो रूप धारण किया उसके मायाजाल में बड़े-बड़े लोग फंस गये, या यूं कहना चाहिये कि जिन्ना के दिल में दहकाई आग ने पूरे पाकिस्तान को अपनी लपेट में ले लिया । वहां हिन्दुओं का जघन्यतम नरसंहार हुआ और नई सीमा के उस पार से गाजर-मूलियों की तरह कटे मानव शरीर से भरी रेल गाड़ियां आने लगीं तो भारतीय जनमानस के धैर्य का बांध टूट गया । नेता किंकर्त्तव्यविमूढ़ हो गये । गांधी जी द्वारा बार-बार की गई अपीलों का भी कोई असर नहीं हुआ तो प्रतिक्रियास्वरूप यहां भी वही नरसंहार प्रारम्भ हुआ जो उधर हो रहा था । यद्यपि जो कुछ हुआ हम उसका औचित्य सिद्ध करने के कायल नहीं किन्तु वास्तविकता तो यही है कि इधर प्रतिक्रिया होना स्वाभाविक ही नहीं अपितु अनिवार्य इसलिये माना गया कि जवाबी कार्यवाही होने पर ही उधर से निर्वासित होने वाले व्यक्ति बचकर आ सकेंगे अन्यथा एक भी जिन्दा नहीं आयेगा । इस दलील के देने वालों में सबसे प्रमुख थे सरदार वल्लभभाई पटेल । पं० जवाहरलाल नेहरू बचाव के रास्ते की तलाश में थे कि सरदार पटेल ने चुपके-चुपके हर क्षेत्र के लोगों को बुलाकर तुरन्त जवाबी कार्यवाही का आदेश दिया ।
परिस्थितियां कुछ इतनी विषम बन गईं थीं कि सांप को भी न मारने वाले सन्यासियों को भी इस मैदान में कूदना पड़ा । राष्ट्रधर्म ने कदाचित् उनको अब अपनी व्यक्तिगत और आध्यात्मिक दोनों ही मान्यताओं को छोड़ सामयिक अनिवार्यता का बन्दी बन लिया था । तब शायद उन्हें सर्वजन नहीं तो कम से कम राष्ट्रजनहिताय, राष्ट्रजनसुखाय यह करना ही पड़ा । यह उस समय सबसे बड़ा कर्त्तव्य था । स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी तथा स्वामी आत्मानन्द जी महाराज ने भी सरदार पटेल की तरह प्रेरित किया । स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी सरदार से पहले ही मिल चुके थे । परिणामस्वरूप रोहतक में एक मीटिंग बुलाई गई और भावी योजना तैयार की गई । उधर रावलपिंडी से स्वामी आत्मानन्द जी महाराज का आचार्य जी को सन्देश आया कि एकदम २० जुलाई से पहले पहुंचो । ध्यान रहे मारकाट १५ अगस्त से पहले ही प्रारम्भ हो चुकी थी । क्योंकि अंग्रेज ऐसी परिस्थिति पैदा करने का अन्तिम प्रयास करना चाहते थे जिसका बहाना कर निश्चित हुई आजादी को टाला जा सके । भारतीय नेताओं को भी इस बात की भनक थी और वे भी कोई अवसर चूकना नहीं चाहते थे । भावी घटनाओं से सभी परिचित हो गये थे । इसलिये इधर से भी तैयारियां हो रहीं थीं । परन्तु वे तैयारियां तभी क्रियान्वित करने की शर्त स्वयं इन लोगों ने लगा रखी थी जब कि वैसा करना विवशता न बन जाये ।
स्वामी जी ने आचार्य जी को हथियार देने के लिये रावलपिण्डी बुलाया था । उन दिनों उधर जाना भी खतरे से खाली नहीं था । रक्तपात उस समय अपनी परकाष्ठा पर था । ऐसे में उधर जाना स्वयं मौत को बुलावा देने जैसा था किन्तु क्या किया जाये । स्वामी जी का आदेश था जो टाला नहीं जा सकता था । इस समय आचार्य जी दाढ़ी-मूंछ रखते थे । सिर पर बड़ी चोटी भी थी । ऐसे में ये और महाशय भरतसिंह वेश बदलकर रावलपिंडी पहुंचे । सिर की चोटी छुपाने के लिये जो कपड़ा बांधा वो कफन समझकर बांधा था । रास्ते में इन्होंने नरकंकालों का जो हृदयविदारक दृश्य देखा वह वर्णानातीत था । हृदय में भयंकर पीड़ा और सन्ताप लिये जैसे-तैसे करके आचार्य जी व महाशय जी चूहां भक्ता (रावलपिंडी) में स्वामी जी के पास पहुँचे । स्वामी जी ने रात में घुमाकर वहां के हालात दिखाये । स्वामी जी ने इनके लिये हथियारों का जो प्रबन्ध किया था उनको वहां से निकाल कर लाना भी एक बहुत बड़ी समस्या थी । क्योंकि उधर से आने वाले प्रत्येक पुरुष की ही नहीं, अपितु हर स्त्री की भी तलाशी ली जाती थी । जिसके पास जो कुछ मिलता उसे छीन लिया जाता था । अनेकों को मार भी दिया जाता था । ऐसे में हथियार लाना कितना भयावह था यह आसानी से समझा जा सकता है । उधर आने वालों की रावी के किनारे शाहदरा में तलाशी ली जाती थी । स्वामी आत्मानन्द जी महाराज इस स्थान पर निरीक्षण के लिये आये । वहां ली जा रही तलाशी की बारीकियों का अध्ययन कर स्वामी जी ने तरीका सुझाया । उसके अनुसार पीपियों में ग्रीस भरकर उनमें रिवाल्वर डाल दिये गये । उनका पार्सल करा दिया गया । इस तरह १० रिवाल्वर वहां से निकाले । पांच पाकिस्तान बनने के बाद में आये ।
शस्त्रास्त्र प्राप्त करने के लिये देहरादून भी जाना पड़ा । क्योंकि रावलपिंडी से लाये गये हथियार अपर्याप्त थे । देहरादून में आर्यवीर दल के एक कार्यकर्त्ता ने हथियारों की व्यवस्था की । इसके लिये उसको बहुत अधिक भागदौड़ करनी पड़ी । यहां आचार्य जी के साथ महाशय भरतसिंह के अतिरिक्त ब्रह्मचारी हरिशरण व कप्तानसिंह (मांडौठी) भी थे । यहां से भी हथियार लाना कठिन था । मार्ग में अनेक जगह तलाशियां हो सकतीं थीं । आचार्य जी ने सावधानी के लिये चारों व्यक्तियों को दो भागों में बांट दिया । कप्तान कंवलसिंह व महाशय भरतसिंह को बड़े हथियार लेकर कार द्वारा झज्जर पहुंचने का कार्य सौंपा और स्वयं तथा ब्र० हरिशरण जी कुछ अन्य हथियार लेकर बस के द्वारा देहरादून से चले । यदि पकड़े भी जायें तो चारों एक साथ न पकड़ में आयें, यह सोचकर यह योजना बनी थी । कार से लाये जाने वाले हथियारों को बहुत सावधानी से छुपाया गया था । जो सन्देह मन में था आखिर वह पूरा हुआ और रास्ते में एक बार तो तलाशी में कार के हथियार बाल-बाल बचे । यदि इस समय महाशय जी व कप्तान साहब ने साहस व बुद्धिमत्ता से काम न लिया होता तो हथियार तो जाते ही जाते, ये दोनों व्यक्ति भी पकड़े जाते और भावी योजना को धक्का लगता । हुआ यह कि जब पुलिस ने इनकी कार को तलाशी के लिये रोका तो इन्होंने चेहरे पर किसी भी प्रकार की घबराहट के चिन्ह नहीं आने दिये । बल्कि बड़ी मस्ती में उनको तलाशी देने के लिये तैयार हो गये । पुलिस वालों को यह कहकर कि हम सामने वाले कुएं पर पानी पी लेते हैं तब तक आप आराम से तलाशी ले लीजिये, कुएं पर चले गये और पूर्व निश्चयानुसार ड्राईवर भी गाड़ी से दूर जा बैठा । इनके इस व्यवहार से पुलिसवालों को किसी प्रकार का सन्देह नहीं हुआ और इन्होंने बहुत ही उपेक्षाभाव से तलाशी लेकर कार को छोड़ दिया । कार की आगे पीछे की दोनों सीटों में हथियार भरे गये थे । कार के नीचे भी गुप्तविधि से शस्त्र छिपाये गये थे । यदि सीटों को थोड़ी सावधानी से पुलिस वाले देख लेते तो पूरी योजना पर पानी फिर सकता था परन्तु जब बचाने वाला साथ हो तो मारने वाला क्या करेगा ? जब महाशय जी व कप्तान साहब ने यह देखा कि पुलिसवाले कार को छोड़ दूर जा बैठे हैं तो ये बहुत ही स्वाभाविक रूप से कार के पास विलम्ब करके आये । आते ही पुलिस वालों ने कहा आप जाइये, हम तलाशी ले चुके हैं । उनकी यह बात सुनकर इनके दम में दम आया । गाड़ी में बैठ प्रभु का लाख-लाख धन्यवाद करते हुये ये अपनी मंजिल की ओर बढ़ चले । दूसरी ओर आचार्य जी तथा ब्रह्मचारी हरिशरण जी भी बस द्वारा अभीष्ट सामग्री लेकर गुरुकुल झज्जर पहुँच गये । इसके बाद आरम्भ हुआ भय, आतंक और मारकाट का वह भयावह दौर जो समय और परिस्थितियों ने इन लोगों पर लाद दिया था ।
जब गुरुकुल एक छावनी बना
कई महीनों से इस प्रकार की तैयारियां चल रहीं थीं । अंग्रेजों की कूटनीतिक चाल में हिन्दू व मुस्लिम दोनों फंस गये थे । हवायें गर्म थीं । दोनों का खून खोल रहा था । इस पर नेताओं के असंयत् वक्तव्य स्थिति को बिगाड़ रहे थे । विशेषकर मिस्टर जिन्ना के बयान तो सुलगते अंगारों में हवा का कार्य कर रहे थे । भारत मां के दो टुकड़े होने पर बनने वाले पाकिस्तान की भूमि पर घटने वाले घटनाचक्र की संभावनाओं और उधर से आने वाली अफवाहों ने इधर के लोगों को भी सजग कर दिया था । ज्यों-ज्यों आजादी का पवित्र दिन निकट आ रहा था त्यों-त्यों साम्प्रदायिक तनाव भी तेजी से बढ़ रहा था । इसी बीच खबर आई कि लाहौर में हिन्दुओं को गाजर-मूली की तरह काटा जा रहा है । विश्ववन्द्य महात्मा गांधी और पं० नेहरू सरीखे नेताओं ने शान्ति स्थापित करने के लिये बार-बार अपीलें कीं तब उनका असर भी हुआ और हिन्दू जनता कुछ समय शान्त भी रही परन्तु जब यह पता चला कि पश्चिमी पंजाब और पूर्वी बंगाल में हिन्दुओं की बहन-बेटियों को नंगा करके गोलियों से उड़ाया जाने लगा है । गोद में लिये बच्चों को तथा दूध पिलाती माताओं को उनके पतियों के सामने मौत के घाट उतार दिया गया है । हजारों अबलाओं ने इज्जत बचाने के लिये कुएं में कूदकर आत्महत्या कर ली है, कोई परिवार ऐसा शायद ही हो जिसके सब सदस्य सकुशल भारत आ गये हों । किसी का पुत्र मारा गया, किसी की पुत्री, किसी की मां तो किसी का बाप । कोई विधवा हो गई, कोई विधुर । हजारों असहाय नन्हें-मुन्ने तड़फ-तड़फ कर मर गये तो हजारों अनाथ हो गये ।
तब इधर भारत में हिन्दुओं में भी प्रतिहिंसा की अग्नि धधक उठी । यहां भी असंख्य मुसलमानों को मौत के घाट उतारा जाने लगा । वह समय इतना भयावह था कि किसी को भी अपने प्राण व धन-सम्पत्ति की रक्षा का विश्वास नहीं रहा था । झज्जर के पूरे क्षेत्र में केवल आचार्य भगवानदेव जी ही ऐसे व्यक्ति थे जिनसे लोग सुरक्षा की आशा लगाये हुए थे । फलस्वरूप झज्जर और उसके आस-पास के गांवों के हजारों परिवार गुरुकुल पहुँच गये । आचार्य जी ने दिन-रात एक करके उनके लिये टैंण्टों में निवास और भोजन का प्रबन्ध किया । हथियार पहले ही जुटा लिये थे । प्रतिदिन दस मन चने की बाकली और ढ़ेरों खाना पकाया जाने लगा । गुरुकुल ने अब एक युद्ध शिविर एवं छावनी का रूप ले लिया ।
एक ओर हजारों परिवारों का रहने और खाने का प्रबन्ध करना और दूसरी ओर जगह-जगह जाकर चढ़ाई करने का कार्य आचार्य जी के ही बूते की बात थी । इस समय आचार्य जी ने लोगों को जो अभयदान दिया उससे इस क्षेत्र में देवता की तरह पूजे जाने लगे । जगह-जगह चढ़ाई करने की कमान स्वयं आचार्य जी व ब्र० हरिशरण जी ने संभाली । दिन-रात ऊंट की पीठ पर बैठकर उसे दौड़ाते हुए पूरे इलाके में अगले दिन की योजना समझाना और उसको क्रियान्वित करने की जिम्मेवारी सौंपने का कार्य भी स्वयं करना कितना कठिन था । अनेक बार चलते-चलते नींद आ जाती थी । न जाने इन्होंने उन दिनों ऊंट की पीठ पर ही कितनी रातें काटी हैं । इससे आचार्य जी के स्वास्थ्य पर बहुत बुरा असर पड़ा । पर उससे क्या ! वे तो एक लक्ष्य को पाने में जुटे थे ।
वे तो एक अनोखी जिद में जान पे अपनी खेल गये ।
उन ने अपनी नाव डुबोकर हम को पार उतारा है ॥
बिलोचपुरा, खेतावास, कन्हवा, छूछकवास, शाहजहांपुर और दादरी आदि पर चढ़ाई की गई । फिर यहां की देखा-देखी चढ़ाइयों का सिलसिला सब जगह शुरू हो गया । छूछकवास पर चढ़ाई के समय ब्र० हरिशरण की छाती में गोली लगी । उनको शीघ्र ले जाकर बेरी हस्पताल में भर्ती कराया गया । वहां डाक्टर ने कहा कि यह तो बच नहीं सकता किन्तु तभी ब्रह्मचारी जी ने डाक्टर से कहा कि "यदि आप मुझे अंग्रेजी दवाई न दें तो मैं मर नहीं सकता ।" डाक्टर उनकी बात सुनकर अत्यधिक विस्मित हुआ और कहने लगा कि मैंने इतना साहसी एवं संकल्प का धनी आदमी आज तक नहीं देखा । डाक्टर ने उनका इलाज किया और वे ठीक हो गये और आचार्य जी का हाथ बटाने लगे । इस प्रकार यहां शुरू की गई मारकाट का परिणाम यह हुआ कि उधर पकिस्तान में हो रही मारकाट भी बन्द हो गई । हालात बदल गये या बदल दिये गये ।
दुनियां में वही शख्स है ताजीम के काबिल ।
जिस शख्स ने हालात का मुंह मोड़ दिया है ॥
वहां के लोगों ने समझ लिया कि हिंसा का जवाब प्रतिहिंसा है जो किसी अवस्था में सहायक नहीं, घातक है । दोनों ओर की द्वेष और घृणा ने हजारों लोगों की जानें ले लीं ।
ऐसे विकट समय में आचार्य जी ने भय से त्रस्त लोगों को सहारा दिया । रजत-जयन्ती पर गुरुकुल के निमित्त लोगों द्वारा दान में आया ३० हजार रुपया इन्होंने उन्हीं की रक्षा के लिये खर्च कर डाला । इसी कारण आप इलाके को सुरक्षा के लिये विश्वस्त कर पाये और भविष्य को निष्कंटक बना पाये । इस समय आचार्य जी ने जो कार्य किया उससे इनका प्रभाव बहुत अधिक बढ़ गया । हरयाणाभर के प्रतिष्ठित लोग इनके लिये आदरपूर्वक अपने पलक पांवड़े बिछाने लगे । जगह-जगह से इनको गुरुकुल की सहायतार्थ सन्देश मिलने लगे । जहां नहीं पहुंच सके वहां से उलाहना मिलता कि आपने दर्शन नहीं दिये । अनेक व्यक्ति स्वयं गुरुकुल पहुँचकर दान देने लगे । एक समय वह था जब गुरुकुल के चन्दे के लिए आचार्य जी को बड़ी कठिनाई का सामना करना पड़ता था, लोगों में दान देने की प्रवृत्ति बहुत कम थी किन्तु अब आचार्य जी ने जो कार्य किया उसने उस कठिन समय को बदल दिया और गुरुकुल को लोग प्रसन्नतापूर्वक दान देने लगे । कई ऐसे भी व्यक्ति थे जिन्होंने दस-दस मन अनाज प्रतिवर्ष देना निश्चित कर दिया । एक सज्जन ऐसे भी थे जिन्होंने अपने दोनों बैल, गाड़ी और घर का सब सामान गुरुकुल को दान कर दिया । अपना इकलौता लड़का भी आचार्य जी को सौंप दिया और स्वयं भी सेवा करने गुरुकुल आ गये । इस प्रकार जब आचार्य जी एवं गुरुकुल ने लोगों के जानमाल की रक्षा के लिये सब कुछ न्यौछावर कर दिया तो लोगों ने भी अपने प्राणपण से गुरुकुल को सींचना प्रारम्भ किया और गुरुकुल उन्नति-पथ पर अग्रसर होने लगा ।
Digital text of the printed book prepared by - Dayanand Deswal दयानन्द देसवाल |
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