स्वामी ओमानन्द सरस्वती का जीवन-चरित/प्रथम अध्याय
(आचार्य भगवानदेव)
(१९१०-२००३) का
जीवन चरित
(स्वामी ओमानन्द के ७५ वें जन्म दिवस पर सन् १९८३ में एक "अभिनन्दन-ग्रन्थ" प्रकाशित हुआ था । यह जीवनी उसी से ली गई है । इसमें स्वामी जी के जीवन की केवल १९८३ तक की ही घटनाओं का उल्लेख है । उनके जीवन के अन्तिम २० वर्षों का वर्णन इसमें नहीं है ।)
प्रथम अध्याय |
हरयाणा प्रान्त का गौरव
हरयाणा अति प्राचीन काल से ही कर्म और अध्यात्म की भूमि रही है । इन दोनों का समन्वय इस धरती की सबसे बड़ी विशेषता है । वैदिक काल और उसके उपरान्त सहस्राब्दियों तक यह ऋषि-मुनियों की तपः-स्थली वैदिक ऋचाओं से गुंजायमान और अध्यात्म-सुधा से अनुप्रमाणित रही है । इसी कारण मनु ने इसको 'ब्रह्मर्षि देश' की संज्ञा दी है । कालान्तर में यहां कर्म ने अपना प्रखर रूप दिखाया । तब इसे 'कुरुक्षेत्र' की गरिमा और कुरुजांगल का नाम मिला । मोहमाया के जाल में फंसे अर्जुन को गीता का उपदेश भी योगिराज श्रीकृष्ण ने इसी भूमि पर दिया । समय और आगे बढ़ा, तब इतिहास-प्रसिद्ध वीर यौधेयों ने इसको अपनी कर्म-भूमि बनाया । तब इसको 'बहुधान्यक' और 'यौधेय देश' के नाम से जाना गया ।
५वीं शती ई० पूर्व से ४थी शती तक का वह समय था जब भारतीय इतिहास को बहुत कुछ मिला । विश्वविजय का मनोरथ लेकर पश्चिम से पूर्व की ओर बढ़ते हुए सिकन्दर के सपने भी इसी भूमि पर चकनाचूर हुये । कुषाणों का विस्तृत साम्राज्य भी इसी भूमि के वीर सपूत यौधेयों के पैरों तले रौंदा गया । महमूद गजनवी को भी यहीं लूटा गया । १८५७ के स्वातन्त्र्य-संग्राम की ज्वाला भी यहीं से भड़की और उसके बाद यहां के वीर राव कृष्णगोपाल, बल्लभगढ़ नरेश नाहरसिंह और नवाब झज्जर ने हंसते-हंसते मातृभूमि के लिए प्राणोत्सर्ग किया । इसी धरती ने हजारों ऐसे वीर पैदा किये हैं जिन्होंने प्राणों तक की परवाह न कर, राष्ट्र की बलिवेदी पर अपना सर्वस्व स्वाहा कर दिया । फांसी की जयमाला को गले का हार बनाया और संगीनों के प्रहारों को सीना तानकर रोका । पैशाचिक यंत्रणाएं जिनके साहस का उपहास न कर सकीं, बडे से बड़े प्रलोभन जिनके मार्ग में कभी रोड़ा न बन सके, लोकैषणाएं जिनके संकल्प का विकल्प न बन सकीं, निराशा जिनको कभी छू न पाई, बड़े से बड़ा प्रलोभन जिनको विचलित न कर सका और बड़ी से बड़ी बाधा जिनकी राह न रोक सकी, जिनका जीना भी औरों के लिये था और मरना भी औरों के लिए और 'चरैवेति चरैवेति' जिनका जीवन-मन्त्र बन गया । नरपुंगवों की इसी अविरल परम्परा में ही हमारे चरित्रनायक का स्थान है ।
स्वामी ओमानन्द सरस्वती स्वयं में एक व्यक्ति हो सकते हैं । परन्तु देश और समाज के लिए वे एक महती संस्था हैं । उनमें वह सब कुछ है जो व्यक्ति को मानव से ऊपर उठाकर महापुरुष बना देता है और महापुरुष को कालान्तर में देवत्व प्रदान कराता है । किन्तु सबसे बड़ी बात तो यह है कि उन्हें स्वयं न कभी बड़प्पन भाया, न उन्होंने कभी बड़प्पन को ओढ़ने का प्रयास किया और न कभी इस पर सोच ही होगा । कारण, कि इनको इन सब के लिए समय कहां । जीवन को निरन्तर कठोर साधना की भट्ठी में झोंके रखकर विविध कार्यों की पूर्ति हेतु अहर्निश जुटे रहकर सोद्देशिक चिन्तन की लगाम कसे ढ़ेर सारे उत्तरदायित्वों का बोझा जिस तन मन पर पड़ा हो उसमें इन सब बातों को सोचने के लिये जगह फिर रह भी किस कोने में जाती है । हमारे चरित्रनायक के स्वभाव, जीवन और कार्यों से जो भलीभांति परिचित हैं वे जानते हैं कि वे कितने महान् हैं । उन्होंने जो कार्य किया है उसका मूल्यांकन कब होगा, यह तो समय ही बतलायेगा । यहां हम उनके जीवन पर यथाशक्य लिख रहे हैं ।
जन्म
हरयाणा की वीरभूमि में (वर्तमान दिल्ली राज्य) दिल्ली से २५ किलोमीटर पश्चिम में स्थित नरेला गांव के एक प्रतिष्ठित कृषक परिवार में चैत्र बदी अष्टमी सम्वत् १९६७ विक्रमी तदनुसार मार्च १९१० ई० के दिन बालक भगवानसिंह का जन्म हुआ । आपके पिता का नाम चौधरी कनकसिंह और माता का नाम श्रीमती नान्हीदेवी था । चौ. कनकसिंह के यहां इनसे पहले एक पुत्री थी । दूसरी सन्तान के रूप में अब उनको पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई । पुत्र जन्म पर सब परिजनों और सगे-सम्बन्धियों में प्रसन्नता होना स्वाभाविक था । क्षेत्र में जाना पहचाना परिवार था, इस कारण उनके यहां पुत्र जन्म पर हजारों व्यक्तियों ने घर पहुंचकर अपनी प्रसन्न्ता प्रकट की और बधाइयां दीं । चौ० कनकसिंह के दो विवाह हुए । पहला विवाह ग्राम मैदानगढ़ी दिल्ली में (महरौली के समीप) हुआ । उनकी इस धर्मपत्नी से आपकी बड़ी बहिन का जन्म हुआ, जिसका नाम मथुरादेवी था । कुछ वर्ष उपरान्त उनकी इस धर्मपत्नी का देहान्त हो गया । परिणामस्वरूप चौ० कनकसिंह का दूसरा विवाह ग्राम गोच्छी (रोहतक) में नान्हीदेवी से हुआ । इन्हीं की कोख से हमारे चरित्रनायक भगवानसिंह (आचार्य भगवानदेव, वर्तमान में स्वामी ओमानन्द सरस्वती) का जन्म हुआ । इनके बाद दो और बहिनों का जन्म हुआ । इस प्रकार आप तीन बहिनों के बीच अकेले भाई हैं । घर में तथा पड़ौस में आपको 'भानु' के नाम से पुकारा जाने लगा । कितना स्वाभाविक लघु नामकरण था आपका यह । किसको पता था कि आगे चलकर यही बच्चा भानु वास्तव में भानु (सूर्य) बनेगा और मध्यान्ह की सूर्य की भांति देदीप्यमान अपने तेज से दुनियां को चमत्कृत करेगा । कुछ दिन बाद नवजात शिशु का नामकरण संस्कार किया और भगवानसिंह नाम रखा गया । यही बालक भगवानसिंह आगे चलकर आचार्य भगवानदेव के नाम से जाना गया और ब्रह्मचर्य से सीधा सन्यास लेने पर यह स्वामी ओमानन्द के नाम से प्रख्यात हुआ ।
वंश
आपका परिवार पुराना संभ्रान्त (खानदानी) परिवार रहा है । आपके दादा श्री निहालसिंह तथा श्री सूरजमल दो सहोदर भाई थे । ये दोनों सम्मिलित रूप से रहते थे और ६०० बीघा भूमि के स्वामी थे । निहालसिंह से कनकसिंह का जन्म हुआ । ये अपने पिता के इकलौते पुत्र थे इस कारण जायदाद में चौ० कनकसिंह को विशाल सम्पत्ति और भूमि मिली । चौ० कनकसिंह सत्यवादी, ईमानदार और बहुत गम्भीर व्यक्ति थे । इनके खेत पर हर समय अनेक व्यक्ति मजदूर के रूप में काम करते थे । उन सबके साथ इनका व्यवहार अतीव मधुर होता था । साथ ही समय समय पर ये उनकी आर्थिक सहायता भी करते थे । इस कारण गांव के गरीब वर्ग के सभी व्यक्ति इनको अपना रखवाला मानते थे । सामाजिक स्तर पर भी जब कभी उनके साथ भेदभाव का व्यवहार किया जाता तो चौ० कनकसिंह उसके विरुद्ध आवाज उठाते । इसीलिए वे लोग इनको देवता मानकर आदर देते थे ।
चौ० कनकसिंह नरेला के गिने-चुने व्यक्तियों की सबसे अग्रिम पंक्ति में आते हैं । वे गांव के नम्बरदार भी थे । नरेला की भूमि अत्यधिक उपजाऊ भूमि है । यह भूमि अन्न के रूप में सोना उगलती है । जिन परिवारों के पास केवल दस-पन्द्रह बीघा भूमि है वे भी केवल इसी पर निर्भर रहकर भरे पूरे परिवार का सानन्द निर्वाह करने में सफल हैं । फिर चौ० कनकसिंह तो ३०० बीघा भूमि के स्वामी थे, जिसमें जल सिंचन के लिए पांच कुएं थे । एक बड़ा उद्यान (बाग) था । फिर उन्हें विरासत में पैतृक सम्पत्ति भी बहुत मिली थी । इस प्रकार उनकी आर्थिक सम्पन्नता का आकलन सहज में ही किया जा सकता है । दूसरी ओर समाज में उनका ऊंचा स्थान था । विशेषकर इसलिए कि वे हर सामाजिक कार्य में बढ़-चढ़कर भाग लेते थे । सामाजिक कार्यों में दान भी बहुत देते थे । सम्पन्नता का अभिमान उनको छू भी नहीं गया था । उस समय उत्तर भारत में आर्यसमाज का बोलबाला था । आर्यसमाज ही राष्ट्रीयता का प्रचार करने वाली सबसे बड़ी और अग्रगण्य संस्था थी । आर्य-प्रचारक महर्षि दयानन्द और महात्मा गांधी के सन्देशों को जन-जन तक पहुंचाने के लिए नरेला गांव में इस प्रकार के उपदेशकों के भोजन और निवास का प्रबन्ध श्री चौ० कनकसिंह के घर पर ही होता था । आपकी माता जी अतिथि-सत्कार में अतिदक्ष थी । वे स्वभाव से बहुत ही मृदु एवं धर्म-परायण तथा सामाजिक मर्यादाओं में विश्वास रखने वाले स्त्री थी । वे अतिथि-सत्कार में किसी प्रकार की कोई कसर न उठा रखती थीं । इसी कारण इस परिवार को दूर-दूर तक जाना पहचाना जाने लगा ।
यहां यह लिखना भी आवश्यक है कि भगवानसिंह के दादा चौ० निहालसिंह उस समय के अच्छे पढे-लिखे व्यक्ति थे । वे कुछ समय उत्तरप्रदेश की एक मुसलमान बेगम की रियासत में अच्छे पद पर काम कर चुके थे । उसके बाद वे बहुत समय तक सरकारी पटवारी भी रहे । उर्दू भाषा की उनकी अच्छी योग्यता थी । वे आम बोलचाल में भी देहाती भाषा की अपेक्षा उर्दू भाषा का ही अधिक प्रयोग किया करते थे । उन्होंने अपने पुत्र कनकसिंह को दूसरी कक्षा के बाद स्वयं घर पर ही पढ़ाया । उन्हीं के द्वारा पढ़ाये जाने के कारण ही श्री कनकसिंह उर्दू भाषा की कठिन से कठिन पुस्तक और समाचारपत्र सरलता से पढ़ लेते थे । उस समय उर्दू के साप्ताहिक पत्रों का प्रचलन था । उन्हें समाचार-पत्रों का इतना शौक था कि वे साप्ताहिक पत्र अपनी आयु भर डाक द्वारा मंगवा कर पढ़ते रहे । उन दिनों गांव में केवल आप और दूसरे चौ. अभय राम (चौ. रामदेव के पिता) दो ही व्यक्ति थे जिनको समाचार-पत्र पढ़ने का शौक था । उनकी पढ़ाई में एक कमी अवश्य रह गई कि वे पढ़ तो सब कुछ लेते थे परन्तु लिख नहीं सकते थे । कारण, कि उन्होंने लिखने का अभ्यास ही नहीं किया । केवल पढ़ने का ही अभ्यास करते रहे । वे अपने हस्ताक्षर भी उर्दू भाषा में नहीं कर सकते थे । अपितु जहां कहीं उनको हस्ताक्षर करने की आवश्यकता पड़ती तो मुण्डी हिन्दी (महाजनी) में किया करते थे परन्तु उस मुण्डी भाषा को भी लिख नहीं सकते थे । मात्र हस्ताक्षर ही कर सकते थे । वे नरेला गांव के मामूरपुर पाना में रहते थे और अपने ठौळे के नम्बरदार थे ।
नरेला में आर्यसमाज की स्थापना
भगवानसिंह के जन्म से पूर्व ही इनके पिता आर्यसमाज के प्रचार में रुचि लेते थे । वे न केवल प्रचार सुनते थे अपितु उपदेशकों के भोजन, निवास आदि की भी पूरी व्यवस्था करते थे । अब उन्होंने गांव में आर्यसमाज की स्थापना करने का निश्चय किया । उन्होंने चौ. अभयराम तथा अन्य साथियों के साथ मिलकर गांव में विधिवत् आर्यसमाज की स्थापना की और आर्यसमाज का प्रथमोत्सव बड़ी धूमधाम से मनाया । चौ. कनकसिंह समाज के संस्थापक, मन्त्री व चौ. अभयराम प्रधान चुने गये । वे दोनों कई वर्ष तक इन पदों पर काम करते रहे । इसी अवसर पर आपके पिता और दूसरे कई व्यक्तियों ने यज्ञोपवीत धारण किये । उसी दिन से उन्होंने पुरानी रूढ़ियों को छोड़ दिया । प्रतिदिन स्नान और दोनों समय संध्या करना आरंभ कर दिया । अपने इस व्रत को उन्होंने पूरी आयु तक निभाया । इसके उपरान्त वे प्रतिवर्ष गांव में आर्यसमाज का उत्सव नियमित रूप से कराते रहे । गांव के अन्य सभी प्रतिष्ठित लोगों का उन्हें इस कार्य में भरपूर सहयोग मिलता था । स्वर्णकार श्री चन्द्रभान और ओमदेवा ने आर्यसमाज के लिए कमरा दिया, जो नरेला में मस्जिद के साथ था । जब तक आर्यसमाज का वह मन्दिर, जिसमें वर्तमान में आर्यसमाज चलता है, न बना, तक तक समाज का सब कार्य स्वर्णकार महानुभावों द्वारा दिये स्थान पर ही चलता रहा । आर्यसमाज के वार्षिकोत्सव धराणी जोहड़े के साथ मैदान में होते रहे । उनके इन्हीं संस्कारों का प्रभाव बालक भगवानसिंह पर पड़ा, जो उनको भगवानसिंह से आचार्य भगवानदेव और उससे स्वामी ओमानन्द सरस्वती तक की लम्बी तपस्यापूर्ण तथा कंटकाकीर्ण डगर पर चलने का मार्ग प्रशस्त कर सका ।
गांव में आर्यसमाज की स्थापना के साथ ही समाज में फैली कुरीतियों को दूर कर, समाज सुधार का कार्य भी उन्होंने आरम्भ कर दिया । गांव में उन्होंने सांग पर पाबन्दी लगवा दी । सांग का हरयाणा में बहुत विकृत रूप हो गया था और उसका भावी पीढ़ी पर बुरा प्रभाव पड़ता था । अतः उसका विरोध करना आवश्यक था । इस कार्य के लिए उन्होंने बहुत ही बुद्धिमत्ता से कार्य लिया । गांव के प्रतिष्ठित व्यक्तियों की सहमति प्राप्त कर उनको इसके विरोध में एकत्रित और एकजुट कर दिया । इस प्रकार स्वयं एकाकी विरोध करने की अपेक्षा उस विरोध को सार्वजनिक रूप प्रदान कर दिया ।
बाल्यकाल और शिक्षा
आर्यसमाज के कामों में निरन्तर भाग लेने और श्रद्धापूर्वक उसके सिद्धान्तों का पालन करते रहने से चौ. कनकसिंह अटूट आस्थावान् आर्यसमाजी बन गये । उनके परिवार में आर्य वातावरण की झलक स्पष्ट दिखलाई देने लगी । अब उनके और चौ. अभयराम के प्रभाव से दूसरे व्यक्ति भी आर्यसमाज की ओर आने लगे । आर्यसमाज के रूप में अब यहां एक प्रबल राष्ट्रीय विचारधारा का प्रसार होने लगा । इसी बीच चौ. कनकसिंह ने अपने इकलौते पुत्र का यज्ञोपवीत संस्कार कराने का निश्चय किया । उन्होंने एक दिन आर्यसमाज सब्जी मण्डी दिल्ली से एक आर्य पुरोहित को बुलाकर भगवानसिंह का यज्ञोपवीत संस्कार कराया । यहां यह स्मरणीय है कि भगवानसिंह के जन्म से पूर्व चौ. कनकसिंह का कोई लड़का न था । इस कारण उन्होंने अपने दोहते को अपने पास रख लिया था, जिसको वे पुत्रवत् रखते थे । उनके ये दोहते अब भी नरेला में ही रहते हैं । भगवानसिंह के जन्म के बाद भी ये उन्हीं के यहां रहे । भगवानसिंह (आचार्य भगवानदेव) यद्यपि इनके मामा हैं, किन्तु आयु में बड़ा होने के कारण वे बाबू बनवारीलाल को सदा ही बड़े भाई का आदर देते रहते हैं और उनकी बात को मानते रहे हैं । इस प्रकार चौ. कनकसिंह ने इन दोनों का यज्ञोपवीत कराकर बाल्यकाल से देवपथ का पथिक बनाने का प्रयास किया । कदाचित् यही कारण था कि भगवानसिंह इस मार्ग पर इतने आगे बढ़े कि पिता को उसकी कल्पना भी न थी । एक समय वह भी आया जब पिता इस मार्ग की एक सीमा से पुत्र को आगे नहीं बढ़ने देना चाहते थे और पुत्र आगे ही नहीं, बहुत आगे बढ़ना चाहता था । इसके लिए पुत्र को बहुत संघर्ष करना पड़ा परन्तु अन्ततोगत्वा हुआ वही जो पुत्र चाहता था ।
जब बालक भगवानसिंह आठ वर्ष का हुआ तो पिता ने अप्रैल १९१९ में उसको गांव की प्राथमिक पाठशाला (प्राइमरी स्कूल) में अध्ययनार्थ प्रविष्ट करा दिया । यहां से भगवानसिंह ने मार्च १९२३ में चतुर्थ श्रेणी उत्तीर्ण की । आगे की शिक्षा के लिए आपको इसी वर्ष अप्रैल मास में, हेली रिफार्म हाई स्कूल, जो आजकल मुसद्दीलाल राजकीय उच्च विद्यालय (हायर सैकेन्ड्री स्कूल) नरेला के नाम से जाना जाता है, में प्रवेश दिलाया गया ।
इस स्कूल के हैडमास्टर रामचन्द्र भारती थे । वे आर्यसमाजी थे । विद्यार्थियों को आर्य विचारधारा में ढालने का भारती भरसक प्रयास करते । कक्षाओं में महर्षि दयानन्द के चित्र दिखलाते और उनके जीवन की अनेक घटनायें बतलाया करते थे । स्कूल में इन्होंने ही भगवानसिंह को आर्यसमाज की ओर आकर्षित किया । पारिवारिक संस्कार आर्यसमाजी थे ही । मास्टर धर्मसिंह (झिझोंली) भी आर्यसमाजी थे । इन्होंने स्कूल में छूआछूत मिटाने के लिये हरिजन लड़कों का प्रवेश आरम्भ किया । गांव के कई लोगों ने इस पर आपत्ति की परन्तु गांव के गणमान्य व्यक्तियों, जिनमें भगवानसिंह के पिता भी थे, ने हरिजन लड़कों के प्रवेश का समर्थन किया । परिणामस्वरूप प्रवेश प्रारम्भ हो गया । आगे चलकर स्वयं भगवानसिंह ने पूरे क्षेत्र के गांवों में घूम-घूमकर हरिजन भाइयों में जाकर सहभोजों का आयोजन और रात्रि पाठशालाओं का संचालन कर एक नया आदर्श प्रस्तुत किया । इनमें ये संस्कार स्कूल के समय से ही विद्यमान थे । आर्यसमाज के संसर्ग ने उनको कार्यरूप में परिणत करने के लिये प्रेरित किया ।
गांव में एक बार भजन हो रहे थे । अपने दूसरे मित्रों से मिलकर इन्होंने एक शरारतपूर्ण योजना बनाई कि इस भजनी का मजमा उखाड़ना है । रात्रि का समय था । दिन में देखी एक मरी हुई बिल्ली को ये सब उठा लाये और गायक के पास लोगों के बीच उसे फेंक दिया । लोग हक्के-बक्के रह गये और वहां से बच्चे व स्त्रियां डरकर भाग खड़े हुये । पकड़े जाने के भय से बिल्ली फेंकने वाले भी सभी दौड़ गये । बाल्यकाल में इस तरह की चंचलता इनको खूब सूझती थी । पढ़ाई का कार्य आप घर पर केवल उतना ही करते थे, जितना कि अध्यापक घर के लिए काम देते थे । शेष पूरा समय खेल-कूद में ही बिताया करते थे । इस पर भी भगवानसिंह अपने सहपाठियों में बहुत होनहार विद्यार्थी माने जाते थे । प्रारम्भ से ही ये बहुत कुशाग्रबुद्धि थे किन्तु उसका उपयोग पढ़ाई में न कर खेल या चंचलता में अधिक करते थे ।
उच्चकोटि के नटखट
एक बार की बात है कि गांव के एक वृद्ध व्यक्ति जो हज्जाम का कार्य करते थे, सोये हुये थे । उन्होंने बड़ी-बड़ी दाढ़ी-मूंछें रखी हुई थीं । उस वृद्ध को सोता देख एक बार इनको चंचलता सूझी । इन्होंने अपने कुछ साथियों को इकट्ठा किया और उनको साथ लेजाकर उस बूढ़े व्यक्ति की दाढ़ी में आग लगा दी । इन बच्चों के लिये तो वह मात्र एक तमाशा था परन्तु उस बेचारे पर क्या बीती होगी । किन्तु बच्चे तो बच्चे ही होते हैं । उनका स्वभाव बन्दर का स्वभाव होता है । वे जो कर दें, वही थोड़ा ।
एक बार गांव से बाहर कुछ अंग्रेज शिकार करने आये । वे सड़क पर गाड़ी खड़ी कर शिकार के लिये दूर खेतों में निकल गये । गांव में उस समय शिकार को बहुत बुरा समझा जाता था किन्तु अंग्रेजों को कौन रोके । वे उस समय के शासक जो थे । परन्तु बच्चों के लिए तो बादशाह और सेवक में अधिक अन्तर नहीं होता । भगवानसिंह और इनके दो साथी शौच आदि के लिए उधर आये तो इन्होंने शिकार करते अंग्रेजों को देख स्थिति को भांप लिया और उनकी कार के नट और बोल्ट उतारकर चलते बने । अंग्रेज वापिस जाने लगे तो उन्हें शिकार का भाव मालूम पड़ा । वे बड़े लाल-पीले हुये परन्तु करते भी क्या ? क्रान्तिकारी वीर बालक तो वहां से रफूचक्कर हो चुके थे ।
कमबख्ती खरीदना
एक बार कई साथी बच्चे मिलकर दुकान पर गये और दुकानदार के हाथ में एक पैसा थमाकर बोले - लालाजी, हमें कमबख्ती दे दो । लाला ने इनको नीचे से ऊपर तक बड़े ध्यान से देखा और बड़े सरल भाव से कहा, "बेटा ! उसको खरीदने की आवश्यकता नहीं । तुम्हारी शादी होने पर कम्बख्ती तो खुद ही आ जावेगी ।" लाला का यह उत्तर सुनकर भगवानसिंह बड़ा गम्भीर हो गया और मन ही मन निश्चय किया कि कम्बख्ती को नहीं आने दूंगा । पर इन्हें क्या पता था कि इनके इकलौतेपन के कारण पिता जी ने उसका प्रबन्ध तो पहले ही कर दिया है । उसी समय जबकि आप विवाह नाम से भी परिचित न थे ।
विवाह-बन्धन का त्याग
यह वह जमाना था जब बहुधा बच्चों के पलना झूलते-झूलते उनको अग्नि की साक्षी कर सप्तपदी करा दी जाती थी । फिर यौवन आने पर तो उसका इतिहास ही जाना जा सकता था, या दूसरों का इतिहास बनते देखा जा सकता था । क्या अजब चाल थी जमाने की उस समय । जिसका विवाह हो रहा होता था न वह जानता था और न ही वह जिससे हो रहा होता था । बाद में जब जानने योग्य होते थे तो जो हुआ वह मात्र एक ऐसा स्वप्न बन जाता था जिसके फल लगते हैं परन्तु हमारे चरित्रनायक ने उस स्वप्न को मात्र स्वप्न रखने का ही प्रण लिया । घरवालों, सगे-संबन्धियों और पड़ौसियों की ओर से इन पर भारी दबाव पड़ा, किन्तु इन्होंने उसे बन्धन कहकर त्याग दिया और त्यागा भी ऐसा कि उस दिशा में जीवनभर कभी विचारा तक नहीं । पर इसके पीछे उनकी गहन तपस्या, साधना और जीवन की सोद्देश्यता ही प्रमुख कारण है । वे एक बार जिधर निकल पड़े, उधर से कभी पीछे मुंह मोड़ने का विचार तक भी नहीं आया । यह दृढ़ संकल्पशक्ति का ही परिणाम है । संभवतः इसी के कारण वे जीवन में वह महान् कार्य करने में सफल हुये जो एक व्यक्ति के सामर्थ्य से बहुत परे है । हम आगे इनके जीवन में जगह-जगह इनके इस गुण का विस्तार पायेंगे ।
चोरी का त्याग
भगवानसिंह बाल्यकाल में बहुत नटखट तो थे ही । एक बार की बात है, वे अपने कई अन्य सहपाठियों के साथ मिलकर अवकाश के दिन स्कूल गये । स्कूल की एक खिड़की तोड़कर अन्दर घुसे और वहां रखी सभी पुस्तकों को फाड़ आये और एक चाकू और कुछ पेंसिल चुरा लाये । पिता जी को जब इस घटना का पता चला तो उन्होंने बालक भगवानसिंह की बहुत पिटाई की और नाक से लकीर निकलवाकर आगे कभी ऐसा कार्य न करने की प्रतिज्ञा करवाई । पिता चौ. कनकसिंह पुत्र भगवानसिंह से भरपूर स्नेह रखते थे । किन्तु यदि पुत्र किसी प्रकार की त्रुटि करता तो वे उसे न केवल डांटते ही थे अपितु पिटाई भी कर देते थे । वे जानते थे कि बच्चों को केवल अन्धा प्यार देना उनको पथभ्रष्ट करना है । इसलिए जब कभी भगवानसिंह कोई भी अच्छा कार्य करता तो पिता की ओर से उसको भरपूर प्रशंसा और उत्साह मिलता था । यदि वह अनावश्यक उच्छृंखलता करता तो उसको पिता से कड़ा दण्ड भी मिलता था । हर त्रुटि पर कड़ा दण्ड ही मिलता रहा हो, ऐसा भी नहीं था । पिता जी बहुत ही सुलझे हुये और गम्भीर व्यक्ति थे । वे जानते थे बच्चों के साथ कब कैसा व्यवहार करना चाहिए । अतः बहुत बार वे भगवानसिंह को अपनी भावभंगिमा से ही अपनी प्रतिक्रिया वयक्त कर और कभी समझाकर आगे के लिये सावधान कर देते थे । उनका तरीका बहुत ही मनोवैज्ञानिक था । इसी कारण बाल्यकाल में भगवानसिंह अपने अन्य साथियों से सर्वथा भिन्न था । उसने बालसुलभ चंचल स्वभाववश यदि कोई गलती कर भी दी तो उसको दुबारा कभी नहीं दोहराया । इसमें पिताजी की देखरख और पुत्र के प्रति उनका सन्तुलित व्यवहार ही मुख्य कारण था ।
धूम्रपान का त्याग
बारह-तेरह वर्ष की आयु में दूसरे समवयस्क बच्चों के संसर्ग में आकर भगवानसिंह ने दो तीन बार हुक्के की घूंट मारी । उनके पिता जी को जब इस बात का पता चला तो उन्होंने पुत्र को बहुत ही प्यार से अपने पास बुलाया । पहले तो उन्होंने भगवानसिंह की पढ़ाई और वाक्-पटुता आदि की बहुत प्रशंसा की और जब उन्होंने देखा कि पुत्र अब बहुत प्रसन्न है तो उन्होंने धीमे से कहा, "देखो बेटे ! हमें तो हुक्का पीने की बुरी आदत पड़ गई है । प्रयास करने पर भी हम छोड़ नहीं पा रहे हैं । परन्तु तुम्हें यह कुटेव नहीं डालनी चाहिये । यह बुरी आदत है । इस पर भी यदि तुम हुक्का पीना अच्छा समझो तो चोरी से कभी मत पीना, मेरे सामने पी लेना, मुझे बुरा नहीं लगेगा । किन्तु छिपकर पीना अच्छा न होगा ।" पिता की बात ने प्रभाव डाला । उस दिन के बाद साथियों के कहने पर भी बालक भगवानसिंह ने कभी हुक्के को नहीं छुआ । उस समय की पुरानी पीढ़ी में अधिकांश आर्यसमाजी व्यक्ति हुक्का पीते थे । कारण, कि हरयाणा में आर्यसमाज के जो प्रचारक उस समय थे, उनमें पं० बस्तीराम का स्थान सर्वोच्च था और वे स्वयं हुक्का पीने के आदी थे । वे उन सबके लिये उदाहरण बन जाते थे, जिनको हुक्का पीने की आदत थी ।
अध्ययन-कुशलता एवं बालहठ
हाई स्कूल में आपकी पढ़ाई का कार्य भली प्रकार चलता रहा । वक्तृत्वकला में दक्ष होने के कारण स्कूल में होने वाली साप्ताहिक सभा का आपको मन्त्री चुना गया । पिछली सभा की कार्यवाही का अंकन और वाचन बहुत भली प्रकार करने तथा सभा का संचालन उत्तम तरीके से करने पर गुरुजनों की ओर से भरपूर प्रोत्साहन और शाबाशी मिलती रही और इस तरह बालक भगवानसिंह के मन में आगे बढ़ने की भावना भी पल्लवित होती गई । ये अग्रगामी और होनहार विद्यार्थियों में अगुआ माने जाने लगे । स्वयं इनके मन में भी सर्वश्रेष्ठ बनने की भावनायें जागीं । किन्तु इसी बीच एक ऐसी घटना घटी जिसने इस प्रवाह को रोक दिया । वैसे तो साधारण सी ही बात थी, परन्तु भगवानसिंह ने उसको अधिक बढ़ाकर देखा । अपना अपमान समझा और स्कूल छोड़ देने की ठान ली । हुआ यह कि एक दिन वे अपना संस्कृत का पाठ याद नहीं कर पाये, जिस पर अध्यापक ने इनको डांट फटकार बताई और कुछ शारीरिक मार भी डाल दी । उस समय विद्यार्थियों के प्रति गुरुओं की ओर से ऐसा कर देना एक साधारण बात थी । किन्तु स्वाभिमानी भगवानसिंह ने निश्चय कर लिया कि वह आगे से कभी स्कूल नहीं जायेगा । माता-पिता ने बहुत समझाया परन्तु भगवानसिंह अपनी हठ पर दृढ़ रहा । इस पर इनके पिता चौ. कनकसिंह ने अपने दौहित्र बाबू बनवारीलाल, जो उन दिनों दिल्ली के पहाड़ी धीरज स्थित हीरालाल जैन हाई स्कूल में अध्यापक थे, को बुलाया और उनको पूरा वृत्तान्त सुनाया । बाबू जी ने इनको दिनभर समझाया तो बहुत कठिनाई से इस बात पर सहमत हुये कि मैं नरेला स्कूल की अपेक्षा किसी दूसरे स्कूल में पढ़ लूंगा । परन्तु वहां भी संस्कृत का विषय नहीं लूंगा । पिता ने भी उनकी बात मान ली । परिणामस्वरूप इनको दिल्ली गेट पर स्थित सेन्ट स्टीफेन्स (मिशन) हाई स्कूल में प्रवेश दिला दिया । यह स्कूल उन दिनों दिल्ली में सर्वोत्तम स्कूलों में गिना जाता था ।
वेशभूषा
भगवानसिंह ने आर्यसमाज के संसर्ग के कारण गांव में पढ़ते हुए ही खद्दर पहनना आरम्भ कर दिया था । सिर पर ये साफा या टोपी पहनते थे । जिस समय ये इस सेन्ट स्टीफेन्स स्कूल में प्रवेश के लिए आये तो स्कूल के एक अध्यापक फतहमसीह ने प्रवेश देने से मना कर दिया । परन्तु स्कूल के प्रिंसीपल जो स्कॉटलैंड के रहने वाले थे, ने भगवानसिंह को तुरन्त प्रविष्ट कर लिया । यह प्रिंसीपल बहुत सी सादा और उच्च विचारों का व्यक्ति था । जब कभी प्रसंग आता है, स्वामी जी आजकल भी अनेक बार अपने व्याख्यानों में उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा करते हैं । प्रिंसीपल सच्चे देशभक्त थे और देशभक्तों के प्रति अत्यधिक श्रद्धा रखते थे । स्वयं सदा वे स्काटिश वेशभूषा और जूते पहनते थे । दूसरी ओर वे विद्यार्थियों से भी यही अपेक्षा रखते थे कि सब भारतीय परिधान में रहें । कदाचित् इसीलिये भगवानसिंह को खद्दर के कपड़ों में देखकर बहुत प्रसन्नता से प्रवेश के लिये तुरन्त तैयार हो गये । पढाई में तो ये अच्छे थे ही । यहां पढ़ते हुए भगवानसिंह मेदगंज में बाबू बनवारीलाल के साथ रहने लगे । घी तथा अन्य खाद्य सामग्री घर से आ जाती थी और भोजन पकाने के लिये एक नौकर था । दिल्ली में पढ़ते व रहते हुये अभी थोड़ा ही समय व्यतीत हुआ था कि आर्यसमाज सदर बाजार और पहाड़ी धीरज के वार्षिकोत्सव डिप्टीगंज दिल्ली में हुये । अन्य साथियों के साथ भगवानसिंह भी इन उत्सवों में सम्मिलित हुये । इन उत्सवों में सन्यासी, महात्माओं और विद्वानों के उपदेशों की विद्यार्थी भगवानसिंह पर गहरी छाप पड़ी । इन सभी भाषणों में राष्ट्रीयता की व्याख्या के साथ-साथ वेदों के पढ़ने तथा उसके लिए संस्कृत अध्ययन पर अधिक बल दिया गया था । इसका यह प्रभाव हुआ कि जहां भगवानसिंह को पिता से विरासत में मिली आर्यसमाजी विचारधारा को बल मिला, वहां साथ ही संस्कृत को पुनः पढ़ना प्रारम्भ करने का संकल्प इन्होंने किया । इतना ही नहीं, स्कूल की अर्द्ध-वार्षिक परीक्षा में अपनी कक्षा में अन्य विषयों सहित संस्कृत में भी सर्वप्रथम रहे । मार्च १९२९ में संस्कृत सहित पंजाब विश्वविद्यालय से मैट्रिक परीक्षा उत्तीर्ण की ।
प्रधानाचार्य का प्रभाव
स्कूल के इस स्कॉटिश प्रिंसीपल के जीवन ने भगवानसिंह पर गहरी छाप डाली । वे वास्तव में महान् थे । एक दिन दिल्ली में लाला लाजपतराय का भाषण होना था । प्रिंसीपल ने यह कहकर स्कूल की छुट्टी कर दी कि "जाओ, लाला जी तुम्हारे देश के एक बहुत बड़े नेता हैं, उनका भाषण सुनो और दर्शन करो ।" कितना बड़ा दिल था उस व्यक्ति का जिसने खुद अंग्रेज होते हुए उस लाला लाजपतराय को महान् बताया और उसके दर्शन करने हेतु विद्यार्थियों को भेजा जो अंग्रेजों के बोरिया-बिस्तर बंधवाने के लिए देश के कोने-कोने में अलख जगा रहा था । इतना ही नहीं, साईमन कमीशन का विरोध करने वाले विशाल प्रदर्शन का नेतृत्व करते हुये लगे घावों से जब लाला लाजपतराय का देहावसान हो गया तो उस दिन भी प्रिंसीपल स्कॉट साहब ने रुंधे हुए गले से यह दुःखद समाचार सुनाते हुये स्कूल बंद कर दिया और विद्यार्थियों से कहा कि - तुम सब जाओ, मन्दिर और मस्जिदों में लाला जी की आत्मा की शान्ति के लिये जाकर प्रार्थना करो और मैं चर्च (गिरजाघर) जाकर प्रार्थना करूंगा ।
स्कॉट साहब प्रिंसीपल होने के साथ-साथ पादरी भी थे । इस पर भी न जाने क्यों वे आर्यसमाज से प्रभावित थे । कदाचित् इसका कारण उन दोनों आर्यसमाज ही एक ऐसी संस्था थी जो कट्टर देशभक्त, जागरूक और स्वतन्त्रता के प्रति समर्पित थी । कांग्रेस में काम करने वाले भी अस्सी-नब्बे प्रतिशत व्यक्ति आर्यसमाजी ही थे । सम्भवतः इसी कारण स्कॉट साहब उसे अच्छा मानते रहे होंगे । एक दिन उन्होंने कक्षा में पूछा कि आप में से आर्यसमाजी कौन-कौन हैं । इस पर भगवानसिंह खड़े हो गये । प्रिंसीपल ने उनको साधुवाद (शाबाशी) दिया । इस समय तक भगवानसिंह पूरी तरह आर्यसमाज के रंग में रंगे जा चुके थे । एक बार परीक्षा में बाईबिल पर एक प्रश्न आया । इन्होंने उत्तर में वही सब लिखा जो सत्यार्थप्रकाश में बाईबिल के सम्बंध में लिखा है । परन्तु प्रिंसीपल ने इसका तनिक भी बुरा नहीं माना, अपितु विद्यार्थी भगवानसिंह की तार्किक बुद्धि की प्रशंसा की और साहस पर पीठ थपथपाई । सम्भवतः इन्हीं थपकियों ने ही उनके स्वभाव की उस खूबी (विशेषता) का बीजारोपण किया, जिसके कारण एक बार ठीक मार्ग चुनने के बाद संसार का सबसे बड़ा प्रलोभन भी इनको डगमग नहीं पर पाया ।
दसवीं श्रेणी उत्तीर्ण करने तक भगवानसिंह पक्के आर्यसमाजी हो गये थे । सत्यार्थप्रकाश का कई बार पारायण कर चुके थे । इन्हीं दिनों दीनदयाल स्वर्णकार (धर्मदेव के पिता) और मोतीराम आर्यसमाज में जाकर प्रतिदिन व्यायाम और कुश्ती करते थे । भगवानसिंह भी इनसे बहुत प्रभावित थे और प्रायः इनके पास खड़े होकर देखते रहते थे । एक दिन दीनदयाल जी ने इनको अपने पास बिठाकर ब्रह्मचर्य और व्यायाम के सम्बंध में उपदेश दिया और कहा - "नौजवान, हम तो बुढापे की ओर बढ़ रहे हैं, तुम्हारा समय है, कुछ बनो और कुछ करके दिखाओ ।" सच्चे दिल से निकले उनके उदबोधन ने अपना काम किया और भगवानसिंह ने उसी दिन से ब्रह्मचारी रहकर कुछ कर गुजरने का संकल्प लिया ।
धर्म-निर्णय पुस्तक का अध्ययन
इन्होंने दिल्ली दरीबा से ढ़ूंढ़कर तहरीके धर्म (धर्म-निर्णय) पुस्तक खरीदी परन्तु इसका एक ही भाग वहां मिल पाया, दूसरा भाग इनके लिये सूबेदार शिवलाल मेरठ से लाये । इस पुस्तक ने तो मानो काया ही पलट दी । अब भगवानसिंह नियमित रूप से व्यायाम, स्नान और संध्या करने लगे । जीवन को साधना में ढ़ालने लगे । परिणाम यह हुआ कि दुबले-पतले और यकृत के रोगी भगवानसिंह अब हृष्ट-पुष्ट हो गये । अब इन्होंने प्रातः चार बजे उठने के लिये अलार्म घड़ी खरीदनी चाही । परन्तु पिता जी ने यह कहकर कि यह तो शौकीनी की वस्तु है, मना कर दिया । पर जब ये नहीं माने तो बाबू बनवारीलाल दिल्ली से अलार्म घड़ी दिलवाकर लाये । अब पिता जी भी धर्म-निर्णय पुस्तक इनसे सुनने लगे । इससे इन्हें इस तरह की पुस्तकें पढ़ने के लिये और भी उत्साह मिला ।
महाविद्यालय के प्राध्यापक और उनकी देशभक्ति
सेंट स्टीफन स्कूल से मैट्रिक उत्तीर्ण कर ये हिन्दू कॉलिज में प्रविष्ट हो गये । यहां भी कई प्राध्यापक ऐसे मिले जिन्होंने इनकी देशभक्ति की भावनाओं को न केवल प्रोत्साहन ही दिया अपितु उनको कार्यरूप में परिणत करने के लिए भी प्रेरित किया । यहां अंग्रेजी भाषा के प्राध्यापक प्रो० एन. के. निगम थे । ये सरदार भगतसिंह आदि क्रांतिकारियों के साथी थे । अनेक क्रांतिकारी इनके घर आकर ठहरते थे किन्तु उस समय किसी को इस बात का पता न था । प्रो० निगम पढ़ाते समय बहुधा देश की परिस्थितियों और उनमें युवकों के कर्त्तव्य एवं भूमिका के संबन्ध में बतलाते थे । वे बहुत गम्भीर व्यक्ति थे । इतिहास के प्रवक्ता प्रो० गणपतराय थे । प्रो० इन्द्रसेन भी इसी कॉलिज में थे जो बाद में पांडीचेरी के अरविन्द आश्रम में चले गये । ये सब खद्दर पहनते थे और राष्ट्रीय गतिविधियों में भाग लेते थे । विद्यार्थियों पर भी इनकी विचारधारा का प्रभाव होना स्वाभाविक था । भगवानसिंह विशेष रूप से इनकी बातों से प्रभावित थे । वहां से आपने एफ. ए. (बारहवीं) पास किया ।
कॉलेज शिक्षा का त्याग
एक दिन समाचार मिला कि भगतसिंह को फांसी दे दी गई है । जिस समय युवक भगवानसिंह ने यह हृदयविदारक समाचार सुना तब ये एक पेड़ के नीचे बैठे पढ़ रहे थे । पुस्तक इनके हाथ से छूट गई । वे कुछ समय तो स्तब्ध हुये बैठे रहे । फिर वहीं बैठे-बैठे निश्चय किया कि अब आगे पढ़ना छोड़कर देश-कार्य में लगूंगा । इस समय केवल इन्होंने ही नहीं अपितु हजारों युवकों ने कॉलिज छोड़ दिये थे । भगतसिंह की फांसी युवकों के लिये एक बहुत बड़ी चुनौती (चैलेन्ज) बनकर आई थी । उस दिन सम्पूर्ण राष्ट्र शोक में डूब गया था । उन्हीं घड़ियों में भगवानसिंह ने उस शिक्षा को तिलांजलि दे दी जिसको भगतसिंह के हत्यारे अंग्रेजों ने भारतीयों को क्लर्क बनाने के लिये चला रखा था । इसीलिए भगवानसिंह ने संकल्प लिया - "हमें क्लर्क नहीं बनना, हमारी राह दूसरी है ।" इस निर्णय के साथ इन्होंने दिल्ली छोड़ दी और गांव में रहकर ही आर्यसमाज और कांग्रेस का कार्य प्रारम्भ कर दिया ।
Digital text of the printed book prepared by - Dayanand Deswal दयानन्द देसवाल |
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