Chanderi
Author:Laxman Burdak, IFS (R) |
Chanderi (चंदेरी) is an ancient historical town and tehsil in Ashoknagar district in Madhya Pradesh.
Variants of name
- Chandragiri (चन्द्रगिरि) (AS, p.316)
- Chedi (चेदि) (AS, p.342)
- Chandrapura (चंद्रपुर) (AS, p.318)
- Chandrapuri चंद्रपुरी (AS, p.318) 1. (जिला बनारस, उ.प्र.), 2. Chanderi चंदेरी, म.प्र.,3. Chanda चांदा, म.प्र.:मध्य प्रदेश में स्थित वर्तमान चांदा जहाँ कनिंघम के अनुसार 7वीं शती में दक्षिण कोसल की राजधानी थी. (Ancient Geography of India,p.595)
History
लेखक :-मानवेन्द्र सिंह तोमर
राजा पूरणमल जाट मुगल काल और सूरी वंश के समय मे चंदेरी के शासक थे। राजा पूरणमल के पूर्वजो की जड़े गुप्त वंश(धारण गोत्र) के जाटों में जाकर मिलती है। चंदेरीका प्राचीन नाम चंद्रनगर था। गुप्त वंश के राजा चंद्रगुप्त विक्रमादित्य ने यहां पर किले का निर्माण करवाया था।उन्ही(चंद्रगुप्त विक्रमादित्य) के नाम से यह जगह चंद्रनगर( चंद्रपुर) नाम से जानी गई थी। चंद्रनगर से अपभ्रंश होकर यह नगर चंदेरी के नाम से प्रसिद्ध हुआ । गुप्त वंशी जाट चंदेरी के शासक होने के कारण चंदेरी के नाम पर चंदेरी(चंदेरिया/चंदेलिया) नाम से प्रसिद्ध है|गुप्त वंश की चंदेरी(चंदेरिया/चंदेलिया) शाखा मध्यप्रदेश, राजस्थान, पंजाब में निवास करती है।
चंदेरी किले के निर्माण पर कुछ दूसरे वंश भी दावा प्रस्तुत करते हैं। लेकिन सबसे ज्यादा प्रामाणिक दावा गुप्त वंश के जाट राजा चंद्रगुप्त विक्रमादित्य का ही सिद्ध होता है
चंदेरी के गुप्त वंश के पश्चात यह किला मालवा के जाट महाराजा यशोधर्मन के अधिकार में रहा था। यशोधर्मन के पश्चात चंदेरी का किला अलाउद्दीन ख़िलजी ,तुगलक वंश ,लोधी वंश , और मालवा के सुल्तान महमूद ख़िलजी के अधीन रहा था । 1527 ईस्वी में मैदिनी राय खंगार ने मालवा के सुल्तान के समय चंदेरी पर कब्ज़ा कर लिया था। लेकिन 1528 ईस्वी में बाबर ने मेदिनीराय खंगार को हराकर चंदेरी किले को जीत लिया था। बाबार के समय मुगलिया अत्याचार से जब चंदेरी की जनता त्राहि त्राहि कर रही थी उस समय एक जाट यौद्धा पूरणमल चंदेरी का उद्धारक बनके उभरा था। मुगल सेना और पूरणमल के मध्य 1529 ईस्वी में भयंकर युद्ध हुआ जिसमें मुगलो ने जाटों के आगे युद्ध भूमि में घुटने टेक दिए इस तरह अविजित मुगलो ने प्रथम बार मध्य भारत मे हार का स्वाद चखा था। भारत भूमि के पुत्र पूरणमल जाट ने मुगलो की रक्त सरिता में स्नान कर, भारत माता की आत्मा को तृप्त किया था।
चंदेरी के किले पर चंद्रगुप्त के वंशज राजा पूरणमल जाट का अधिकार हो गया था। जाटों ने चंदेरी का चौमुखी विकास किया था। चंदेरी के दुर्ग को सुरक्षित अभेद किले के रूप में परिवर्तित करने के लिए किले में नवीन निर्माण किए गए थे। पूरणमल जाट ने मुगलो के सेनायनक(पठान) को जिस जगह काटा था आज वो खूनी दरवाजा कहलाता है। बाद में चुन चुनकर मुगल तुर्को को इस ही जगह (खूनी दरवाजे) पर मौत के घाट उतारा गया था। तब से इसी खुनी दरवाजे पर शत्रु के रक्त का अभिषेक किया जाता है।अर्थात शत्रुओ को खूनी दरवाजे पर मृत्यु दंड दिया जाता था।
दिल्ली के अफगान सुल्तान शेरशाह सूरी ने 1542 ईसवी के अंत मे चंदेरी पर आक्रमण किया था। बाबर के समय शेरशाह सूरी ने चंदेरी के 1528 ईस्वी के युद्ध मे एक सैनिक के रूप में भाग लिया था। शेरशाह ने सोचा कि पल भर में चंदेरी को जीत लेगा लेकिन भविष्य में शेरशाह का सामना उन जाट वीरो से होने वाला था जिन्होंने रण भूमि में वीरगति या विजय को अपना लक्ष्य बना रखा था।शीघ्र ही शेरशाह को पता चल गया कि उसका पाला सवा शेरो से पड़ गया है। चार महीने तक लाख प्रयत्न करने के बाद भी शेरशाह को युद्ध क्षेत्र में सिर्फ नाकामी हाथ लगी थी। रणक्षेत्र में हर बार विजयश्री का सेहरा जाट राजा पूरणमल के सिर पर ही बंधा था। जाटों ने अपनी युद्ध कौशलता वीरता,साहस के दम पर अफगानों को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया था जब युद्ध क्षेत्र में विजय की कोई भी आश शेष नही बची थी । तब अफगानी लोमड़ी शेरशाह ने छल कपट का सहारा लिया
शेरशाह ने अपना शांति दूत चंदेरी के राजा पूरणमल जाट के पास भेजा
दूत ने शेरशाह का संदेश राजा को सुनाते हुए बताया कि शेरशाह आपकी वीरता का मुरीद हो गया है अतः वो ऐसे वीर यौद्धा से युद्ध की जगह मित्रता (संधि) करना चाहता है। जाट राजा कुरान की सौगंध के साथ भेजे इस संदेश पर विश्वास करते हुए किले से बाहर आकर संधि वार्ता करने के लिए शेरशाह के कैम्प में आ गया था। लेकिन शेरशाह ने मित्रता की आड़ में निहत्थे राजा की पीठ में खंजर घोप कर उसकी हत्या कर दी जब यह खबर किले में पहुँची तो जाट महिलाओं और बच्चो को गुप्त रास्ते से सुरक्षित क्षेत्रो में भेज दिया गया था आज वो जाट लोग चंदेरी से आने के कारण चंदेरी(चंदेरिया/,चंदेलिया) ,गोत्र के जाट कहलाते हैं।
चंदेरी किले में शेष बचे सैनिकों और वीरांगनाओ ने कायर की तरह मरने के बजाए युद्ध भूमि में प्राणों का बलिदान देना अपना सनातन धर्म समझा इसके बाद भयंकर कत्ले आम हुआ था।एक और भारतीय राजा अफगानों की छल का शिकार हुआ था।इसी के साथ भारत के एक स्वर्णिम अध्याय का दुःखद अंत हुआ
Jat Gotras
Villages in Chanderi tahsil
Aket, Amjhera, Amrod, Arron, Badera, Bajana, Baksanpur, Bamnoi Laloi, Bamor Hurra, Bamori Chanderi, Bankalpur, Barai, Barana, Bari, Barkheda Chanderi, Barodiya Pachhar, Bedhai, Beethala, Behati, Besra, Bhandree, Bhariya Khedi, Bhatija, Bhatoli, Bheekali, Bheelari, Bhojpur, Budhawali, Chakchhapara, Chakeri, Chanderi (M), Chhapara, Chimla, Churari, Dabiya, Danga Bairasiya, Daulat Khedi, Derasa, Desai Kheda, Dewla Kho, Dhamrasa Muhal, Dongar, Dungasara, Garethi, Godhan, Gora Kalan, Gora Seharai, Govind Kheda, Halanpur, Hans Nagar, Hasari, Hirawal, Imaliya Chanderi, Jama Khedi, Jarsal, Jiyajipur, Kadrana, Kaithan, Kanawata, Karmai, Katakheda Chanderi, Khagal, Khaira, Khairai Piprai, Khairpur (Mardan Khedi), Khakron, Khalilpur, Khanpur Chanderi, Khanpur Pachhar, Khiraka Tanka, Khiriya Sehrai, Khyawada, Kirraya, Koopgarh, Kukretha, Kunwarpur, Kurwasa, Laloi Tanka, Lidhora Kalan, Lidhora Munjapta, Ludhaya, Luhari Pachhar, Madhi Chanderi, Mahidpur, Maholi, Mala Kheda, Manihari Muhal, Mitha Kheda, Mogara, Mohanpur Chanderi, Mohanpur Sehari, Mohari Tarai, Mudra Kalan, Muradpur, Naderi, Nanakpur, Nanon, Naron, Nawni, Naya Kheda, Nidanpur, Pagra, Pahadpur, Pandri Chanderi, Pandri Seharai, Piparesara, Piprod, Pranpur, Rakhatera, Ramnagar, Rampur Muhal, Rehatwas, Sakwara, Salaiya, Salon Muhal, Sangampur, Sarsela, Satpaiya, Shankarpur, Sigon, Singhpur Chalada, Singhpur Tal, Sirsod, Sona, Soter, Sunpura Muhal, Surel, Tagari, Tanda Chanderi, Tarai Pachhar, Thobon, Toda, Umariya Chanderi, Vasantpur, Vikrampur,
History
According to James Todd[1] Sishupala was the founder of Chedi,modern Chanderi. The modern Chanderi [in the Gwalior State, IQI, x. 163 f.] is said to be this capital, and one of the few to which no Englishman has obtained entrance, though I tried hard in 1807. Doubtless it would afford food for curiosity ; for, being out of the path of armies in the days of conquest and revolution, it may, and I believe does, retain much worthy of research.
Chanderi is located strategically on the borders of Malwa and Bundelkhand. History of Chanderi goes back to the 11th century, when it was dominated by the trade routes of Central India and was proximate to the arterial route to the ancient ports of Gujarat as well as to Malwa, Mewar, Central India and the Deccan. Consequently, Chanderi became an important military outpost.
The town also finds mention in Mahabharata. Shishupala was the king of Chanderi during the Mahabharata period. It was capital of Chedi Kingdom.
Chanderi is mentioned by the Persian scholar Alberuni in 1030.
Ghiyas ud din Balban captured the city in 1251 for Nasir ud din Mahmud, Sultan of Delhi.
Sultan Mahmud I Khilji of Malwa captured the city in 1438 after a siege of several months.
In 1520 Rana Sanga of Mewar captured the city, and gave it to Medini Rai, a rebellious minister of Sultan Mahmud II of Malwa.
The Mughal Emperor Babur captured the city from Medini Rai and witnessed the macabre Rajput rite of jauhar, in which, faced with certain defeat and in an attempt to escape dishonor in the hands of the enemy, women with children in their arms jumped in a fire pit to commit suicide.
In 1540 it was captured by Sher Shah Suri, and added to the governorship of Shujaat Khan. The Mughal Emperor Akbar made the city a sarkar in the subah of Malwa.[2] According to Ain-e-Akbari, the autobiography of Akbar, Chanderi had 14000 stone houses and boasted of 384 markets, 360 sapcious caravan sarais (resting place) and 12,000 mosques.
The Bundela Rajputs captured the city in 1586, and it was held by Ram Sab, a son of Raja Madhukar of Orchha.
In 1680 Devi Singh Bundela was made governor of the city, and Chanderi remained in the hands of his family until it was annexed in 1811 by Jean Baptiste Filose for the Maratha ruler Daulat Rao Sindhia of Gwalior.
The city was transferred to the British in 1844. The British lost control of the city during the Revolt of 1857, and the city was recaptured by Sir Hugh Rose on 14 March 1858. Richard Harte Keatinge led the assault, for which he was awarded the Victoria Cross.
The city was transferred back to the Sindhias of Gwalior in 1861, and became part of Isagarh District of Gwalior state.
After India's independence in 1947, Gwalior became part of the new state of Madhya Bharat, which was merged into Madhya Pradesh on 1 November 1956.
कोलाहलगिरि
विजयेन्द्र कुमार माथुर[3] ने लेख किया है ... कोलाहलगिरि (AS, p.238) मालवा और बुंदेलखंड को अलग करने वाली पर्वतमाला का नाम है, जो चंदेरी के पास स्थित है।[4] विष्णुपुराण के अनुसार कोलाहलगिरि एक पर्वत का नाम है- 'सापि द्वितीय संप्राप्ते वीक्ष्य दिव्येन चक्षुषा, ज्ञात्वा श्रृगालं तंद्रष्टुं ययौ कोलाहलं गिरिम्' (विष्णुपुराण 3, 18, 72.)
कोलाहलगिरि का उपर्युक्त उल्लेख एक आख्यान के प्रसंग में है। वायुपुराण 1, 45 में भी कोलाहलगिरि का उल्लेख किया गया है। यह 'कोलाचल' या 'कोलगिरि' का भी रूपांतरित नाम हो सकता है। श्री नं. ला. डे के अनुसार इसका अभिज्ञान ब्रह्मयोनि पहाड़ी, गया (बिहार) से किया गया है।
चंदेरी
विजयेन्द्र कुमार माथुर[5] ने लेख किया है ...चंदेरी (AS, p.315), ग्वालियर ज़िला, (वर्तमान अशोकनगर जिला) मध्य प्रदेश में स्थित है। इसका प्राचीन नाम 'चंद्रगिरि' था। चंदेरी महाभारत काल में श्रीकृष्ण के प्रतिद्वंद्वी शिशुपाल की राजधानी थी। शिशुपाल चेदि देश का राजा था। महाभारत में चेदि की राजधानी का नाम नहीं है। भारतीय इतिहास में चंदेरी का बड़ा ही महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। प्रथम मुग़ल बादशाह बाबर ने इस पर अधिकार किया था, बाद में 18वीं शती के अंतिम चरण में, जब मुग़ल वंश का पतन हो रहा था, इस पर सिंधिया का अधिकार हो गया।
चंदेरी में प्राचीन काल के अनेक ध्वंसावशेष बिखरे पड़े हैं। यहाँ से 8 मील (लगभग 12.8 कि.मी.) उत्तर की ओर 'बूढ़ी चंदेर' (या चंदेरी) नाम का एक उजाड़ ग्राम है, जो 10वीं-12वीं शती ई. का जान पड़ता है। चंदेरी से प्राप्त 11वीं-12वीं शती ई. के प्रतिहार राजा कीर्तिपाल के अभिलेख से सूचित होता है कि यहाँ उसके समय में कीर्तिदुर्ग नामक क़िले का निर्माण हुआ था। इस अभिलेख में चंदेरी का नाम 'चंद्रपुर' अंकित है।
1528 ई. में चंदेरी के राजा मेदिनीराय को हराकर प्रथम मुग़ल सम्राट बाबर ने इस नगर पर अधिकार कर लिया था। 18वीं शती के अंतिम चरण में, मुग़ल साम्राज्य की अवनति और मराठों के उत्कर्ष के समय, सिंधिया का ग्वालियर के इलाके में आधिपत्य स्थापित होने पर चंदेरी भी ग्वालियर रियासत में सम्मिलित हो गई।
एक जनश्रुति के आधार पर कहा जाता है कि चंदेरी की स्थापना संभवत: आठवीं शती ई. में चंदेल राजाओं ने की थी, जो चंद्रवंशीय क्षत्रिय माने जाते थे। इन्होंने इसका नाम 'चंद्रपुरी' रखा था। यह भी संभव है कि महाभारत कालीन चेदि देश की राजधानी होने से इस नगरी को 'चेदिपुरी' या 'चेदिगिरि' कहा जाता था, जिसका अप्रभंश कालांतर में चंदेरी हो गया। चंदेरी के ऐतिहासिक स्मारकों में यहाँ का क़िला, फ़तेहाबाद का कोशकमहल (15वीं शती ई.), पंचमनगर और सिंगपुर के महल (18वीं शती) उल्लेखनीय हैं।
जाट इतिहास
1527 ई में मोदिनी राय राजपूत शासक ने अवध से आकर चँदेरी के किले पर कब्जा किया। फिर पूरन मल जाट ने चँदेरी किले को जीता। चँदेरी पर अंत में शेरशाह ने आक्रमण किया। लंबे समय की बाद भी किला हाथ नहीं आया तो संधि प्रस्ताव किया। जिसके अंतर्गत पूरनमल को सामान सहित किला छोडकर चले जाने का आश्वासन था। बाद में शेरशाह ने कत्ले आम मचाकर किले को जीत लिया। [6]
चंदेरिया जाट गोत्र का इतिहास
लेखक :मानवेन्द्र सिंह तोमर
गुप्तवंशीय (धारण गोत्र का जाट राजवंश) चंदेरी के जाट राजा पूरणमल के वंशज चंदेरी, चंदेरिया, चंदोलिया कहलाते हैं।
राजा पूरणमल जाट मुगल काल और सूरी वंश के समय मे चंदेरी के शासक थे। राजा पूरणमल के पूर्वजों की जड़ें गुप्त वंश (धारण गोत्र) के जाटों में जाकर मिलती है।
चंदेरीका प्राचीन नाम चंद्रनगर था। गुप्त वंश के राजा चंद्रगुप्त विक्रमादित्य ने यहां पर किले का निर्माण करवाया था। उन्ही (चंद्रगुप्त विक्रमादित्य) के नाम से यह जगह चंद्रनगर (चंद्रपुर) नाम से जानी गई थी। चंद्रनगर से अपभ्रंश होकर यह नगर चंदेरी के नाम से प्रसिद्ध हुआ । गुप्त वंशी जाट चंदेरी के शासक होने के कारण चंदेरी के नाम पर चंदेरी (चंदेरिया/चंदेलिया) नाम से प्रसिद्ध है|गुप्त वंश की चंदेरी (चंदेरिया/चंदेलिया) शाखा मध्यप्रदेश, राजस्थान, पंजाब में निवास करती है।
चंदेरी किले के निर्माण पर कुछ दूसरे वंश भी दावा प्रस्तुत करते हैं। लेकिन सबसे ज्यादा प्रामाणिक दावा गुप्त वंश के जाट राजा चंद्रगुप्त विक्रमादित्य का ही सिद्ध होता है
चंदेरी के गुप्त वंश के पश्चात यह किला मालवा के जाट महाराजा यशोधर्मन के अधिकार में रहा था। यशोधर्मन के पश्चात चंदेरी का किला अलाउद्दीन ख़िलजी, तुगलक वंश , लोधी वंश, और मालवा के सुल्तान महमूद ख़िलजी के अधीन रहा था । 1527 ईस्वी में मैदिनी राय खंगार ने मालवा के सुल्तान के समय चंदेरी पर कब्ज़ा कर लिया था। लेकिन 1528 ईस्वी में बाबर ने मेदिनीराय खंगार को हराकर चंदेरी किले को जीत लिया था।
बाबार के समय मुगलिया अत्याचार से जब चंदेरी की जनता त्राहि त्राहि कर रही थी उस समय एक जाट यौद्धा पूरणमल चंदेरी का उद्धारक बनके उभरा था। मुगल सेना और पूरणमल के मध्य 1529 ईस्वी में भयंकर युद्ध हुआ जिसमें मुगलो ने जाटों के आगे युद्ध भूमि में घुटने टेक दिए इस तरह अविजित मुगलों ने प्रथम बार मध्य भारत मे हार का स्वाद चखा था।
भारत भूमि के पुत्र पूरणमल जाट ने मुगलों की रक्त सरिता में स्नान कर, भारत माता की आत्मा को तृप्त किया था।
चंदेरी के किले पर चंद्रगुप्त के वंशज राजा पूरणमल जाट का अधिकार हो गया था। जाटों ने चंदेरी का चौमुखी विकास किया था। चंदेरी के दुर्ग को सुरक्षित अभेद किले के रूप में परिवर्तित करने के लिए किले में नवीन निर्माण किए गए थे। पूरणमल जाट ने मुगलों के सेनायनक (पठान) को जिस जगह काटा था आज वो खूनी दरवाजा कहलाता है। बाद में चुन चुनकर मुगल तुर्को को इस ही जगह (खूनी दरवाजे) पर मौत के घाट उतारा गया था। तब से इसी खुनी दरवाजे पर शत्रु के रक्त का अभिषेक किया जाता है।अर्थात शत्रुओ को खूनी दरवाजे पर मृत्यु दंड दिया जाता था।
दिल्ली के अफगान सुल्तान शेरशाह सूरी ने 1542 ईसवी के अंत मे चंदेरी पर आक्रमण किया था। बाबर के समय शेरशाह सूरी ने चंदेरी के 1528 ईस्वी के युद्ध मे एक सैनिक के रूप में भाग लिया था। शेरशाह ने सोचा कि पल भर में चंदेरी को जीत लेगा लेकिन भविष्य में शेरशाह का सामना उन जाट वीरों से होने वाला था जिन्होंने रण भूमि में वीरगति या विजय को अपना लक्ष्य बना रखा था। शीघ्र ही शेरशाह को पता चल गया कि उसका पाला सवा शेरों से पड़ गया है। चार महीने तक लाख प्रयत्न करने के बाद भी शेरशाह को युद्ध क्षेत्र में सिर्फ नाकामी हाथ लगी थी। रणक्षेत्र में हर बार विजयश्री का सेहरा जाट राजा पूरणमल के सिर पर ही बंधा था। जाटों ने अपनी युद्ध कौशलता वीरता,साहस के दम पर अफगानों को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया था जब युद्ध क्षेत्र में विजय की कोई भी आश शेष नही बची थी । तब अफगानी लोमड़ी शेरशाह ने छल कपट का सहारा लिया
शेरशाह ने अपना शांति दूत चंदेरी के राजा पूरणमल जाट के पास भेजा। दूत ने शेरशाह का संदेश राजा को सुनाते हुए बताया कि शेरशाह आपकी वीरता का मुरीद हो गया है अतः वो ऐसे वीर यौद्धा से युद्ध की जगह मित्रता (संधि) करना चाहता है। जाट राजा कुरान की सौगंध के साथ भेजे इस संदेश पर विश्वास करते हुए किले से बाहर आकर संधि वार्ता करने के लिए शेरशाह के कैम्प में आ गया था। लेकिन शेरशाह ने मित्रता की आड़ में निहत्थे राजा की पीठ में खंजर घोप कर उसकी हत्या कर दी जब यह खबर किले में पहुँची तो जाट महिलाओं और बच्चो को गुप्त रास्ते से सुरक्षित क्षेत्रों में भेज दिया गया था आज वो जाट लोग चंदेरी से आने के कारण चंदेरी(चंदेरिया/,चंदेलिया), गोत्र के जाट कहलाते हैं।
चंदेरी किले में शेष बचे सैनिकों और वीरांगनाओ ने कायर की तरह मरने के बजाए युद्ध भूमि में प्राणों का बलिदान देना अपना सनातन धर्म समझा इसके बाद भयंकर कत्ले आम हुआ था।एक और भारतीय राजा अफगानों की छल का शिकार हुआ था।इसी के साथ भारत के एक स्वर्णिम अध्याय का दुःखद अंत हुआ
चंदेरी के राजा पूरणमल जाट
पूरे एशिया को जीतने वाला बाबर एशिया में सिर्फ एक युद्ध हारा था। लगभग पूरे हिंदुस्तान को जीतने वाला पठान शेर शाह सूरी भी एक ही युद्ध हारा था। इन दोनों को 11 साल के अंतर में हराने वाले वीर योद्धा थे चंदेरी के जाट राजा पूरणमल सिंह। विडंबना इस बात की है कि इतनी बड़ी फौज लाकर भी ये योद्धा इस राजा को नही हरा पाए। इनका जिक्र सिर्फ मध्यप्रदेश की इतिहास की किताबो में होता है जाट होने के कारण इनका नाम हमेशा दबाया गया वरना अगर राजपूत होता तो इनके ऊपर पूरा ग्रंथ लिखा जाता। इतनी बड़ी फौज के मालिक दो दो एशिया के विजेताओं को हराने वाले वीर योद्धा का नाम दबा कर जाटो के साथ नही इतिहास के साथ छल किया गया है।
राजा पूरणमल जाट मुगल काल और सूरी वंश के समय मे चंदेरी के शासक थे। राजा पूरणमल के पूर्वजों की जड़ें गुप्त वंश के जाटों से जाकर मिलती है।
चंदेरी का प्राचीन नाम चंद्रनगर था। गुप्त जाट वंश (धारण गोत्त) के राजा चंद्रगुप्त विक्रमादित्य ने यहां पर किले का निर्माण करवाया था। चंद्रनगर से अपभ्रंश होकर यह नगर चंदेरी के नाम से प्रसिद्ध हुआ। गुप्त वंशी जाट चंदेरी के शासक होने के कारण चंदेरी के नाम पर चंदेरिया (चंदेलिया) नाम से प्रसिद्ध है। चंदेरी किले के निर्माण पर कुछ दूसरे वंश भी दावा प्रस्तुत करते हैं। लेकिन सबसे ज्यादा प्रामाणिक गुप्त वंश के जाट राजा चंद्रगुप्त विक्रमादित्य का ही सिद्ध होता है चंदेरी गुप्त वंश के पश्चात मालवा का जाट महाराजा यशोधर्मन के अधिकार में रहा था। यशोधर्मन के पश्चात अलाउद्दीन ख़िलजी, तुगलक, लोधी , के बाद मालवा के सुल्तान महमूद ख़िलजी के अधीन रहा था । 1527 ईस्वी में मैदिनी राय को ये किला मिला था। लेकिन 1528 ईस्वी में बाबर ने मेदिनीराय खंगार को बड़ी आसानी से हराकर चंदेरी किले को जीत लिया।
मुगलिया अत्याचार से जब चंदेरी की जनता त्राहि त्राहि कर रही थी उस समय एक जाट यौद्धा पूरणमल चंदेरी का उद्धारक बनके उभरा था। मुगल सेना (55000 सैनिक) और पूरणमल (7 हज़ार जाट सैनिक) के मध्य 1529 ईस्वी में भयंकर युद्ध हुआ जिसमें मुगलो ने जाटों के आगे घुटने टेक दिए। इस तरह अविजित मुगलों ने प्रथम बार मध्य भारत में हार का स्वाद चखा था। भारत भूमि के पुत्र पूरणमल जाट ने मुगलो की रक्त सरिता में स्नान कर, भारत माता की आत्मा को तृप्त किया। चंदेरी के किले पर चंद्रगुप्त के वंशज पूरणमल जाट का अधिकार हो गया था। जाटों ने चंदेरी का चौमुखी विकास किया । चंदेरी के दुर्ग को सुरक्षित अभेद किले के रूप में परिवर्तित करने के लिए किले में नवीन निर्माण किए गए थे।
पूरणमल जाट ने मुगलों के सेनायनक (पठान) को जिस जगह काटा था आज वो खूनी दरवाजा कहलाता है। बाद में चुन चुनकर मुगल तुर्को को इसी जगह (खूनी दरवाजे पर मौत के घाट उतारा था जाटों ने) तब से इसी खुनी दरवाजे पर शत्रु के रक्त का अभिषेक किया जाता है। अर्थात शत्रुओ को खूनी दरवाजे पर मृत्यु दंड दिया जाता था।आज भी इसे खूनी दरवाजा कहा जाता है।
दिल्ली के अफगान सुल्तान शेरशाह सूरी ने 1542 ईसवी के अंत मे 60 हज़ार पठान फौजियों को साथ लेकर चंदेरी पर आक्रमण किया था। बाबर के समय शेरशाह सूरी ने चंदेरी के 1528 ईस्वी के युद्ध मे भाग लिया था। शेरशाह ने सोचा कि पल भर में चंदेरी को जीत लेगा लेकिन भविष्य में शेरशाह का सामना उन जाट वीरों से होने वाला था जिन्होंने रण भूमि में वीरगति या विजय को अपना लक्ष्य बना रखा था।शीघ्र ही शेरशाह को पता चल गया कि उसका पाला सवा शेरो से पड़ गया है। चार महीने तक लाख प्रयत्न करने के बाद भी शेरशाह के हाथ युद्ध क्षेत्र में सिर्फ नाकामी लगी थी। रणक्षेत्र में हर बार विजयश्री का सेहरा जाट राजा पूरणमल के सिर पर बंधा था। इस युद्ध में 9 हज़ार जाट फौजी लड़ रहे थे जिनमें से 1200 शहीद हुए पर जाटों ने अपनी युद्ध कौशलता वीरता,साहस के दम पर अफगानों को घुटने टेकने पर मजबूर कर दिया था। जब युद्ध क्षेत्र में विजय की कोई भी आस शेष नही बची इस युद्ध मे 20 हज़ार पठान मारे गए शेर शाह को यकीन हो गया कि जाटो को हराना असंभव है। तब अफगानी लोमड़ी शेरशाह ने छल कपट का सहारा लिया।
शेरशाह ने अपना शांति दूत चंदेरी के राजा पूरणमल जाट के पास भेजा। दूत ने शेरशाह का संदेश राजा को सुनाते हुए बताया कि शेरशाह आपकी वीरता का मुरीद हो गया है अतः वह ऐसे वीर यौद्धा से युद्ध की जगह मित्रता (संधि) करना चाहता है। जाट राजा ने कुरान की सौगंध के साथ भेजे इस संदेश पर विश्वास करते हुए किले से बाहर आकर संधि वार्ता करने के लिए शेरशाह के खेमे में गया। लेकिन शेरशाह ने मित्रता की आड़ में निहत्थे राजा की पीठ में खंजर घोप कर उसकी हत्या कर दी। जब यह खबर किले में पहुँची तो जाट महिलाओं और बच्चो को गुप्त रास्ते से सुरक्षित क्षेत्रों में भेज दिया गया ओर बचे हुए जाटों ने सिर पर केसरी रंग का साफा बांध कर अंतिम सैनिक ओर अंतिम सांस तक युद्ध लड़ा। इसी बीच 20 हज़ार अतिरिक्त पठान सैनिक आ चुके थे। किले का दरवाजा पहले ही खुल चुका था क्योंकि राजा को दोस्ती के लिए बुलाया गया था। पठान किले में घुस गए,एक भी जाट इस युद्ध मे जिंदा नही बचा पर फिर भी अपनी से 20 गुना बड़ी फौज को मारकर जाटों ने आधा कर दिया,इस तरह एक जाट राज्य समाप्त हुआ।
आज ये जाट लोग चंदेरी से आने के कारण चंदेरी (चंदेरिया/चंदेलिया) गोत्र के जाट कहलाते हैं। किले में शेष बचे सैनिकों और वीरांगनाओ ने कायर की तरह मरने के बजाए युद्ध भूमि में प्राणों का बलिदान देना अपना सनातन धर्म समझा इसके बाद भयंकर कत्ले आम हुआ था। एक और भारतीय राजा अफगानों की छल का शिकार हुआ था।इसी के साथ भारत के एक स्वर्णिम अध्याय का दुःखद अंत हुआ।
गुरीला गिरि
विजयेन्द्र कुमार माथुर[7] ने लेख किया है ...गुरीला गिरि (AS, p.292) मध्य प्रदेश में चंदेरी से 9 मील की दूरी पर पूर्वोंत्तर में स्थित है। इस स्थान का पुरातत्त्व के दृष्टिकोण से बड़ा महत्त्व है। यहाँ अनेक प्राचीन जैन मंदिर के खंडहर विस्तृत क्षेत्र को घेरे हुए हैं।
बटियागढ़
विजयेन्द्र कुमार माथुर[8] ने लेख किया है .....बटियागढ़, जिला दमोह, म.प्र., (AS, p.602): मध्य प्रदेश का एक ऐतिहासिक स्थान है। इस स्थान पर विक्रम संवत 1385 ई. (=1328 ई.) का एक अभिलेख प्राप्त हुआ था (एपिग्राफिका इंडिया-12,42) जिसके बारे में विशेष बात यह है कि इसमें मुस्लिमों को शक कहा गया है। इस स्थान से प्राप्त अभिलेख में मुहम्मद तुग़लक़ का उल्लेख है। मुहम्मद तुग़लक़ के समय में सुल्तान की ओर से जुलचीख़ाँ नामक सूबेदार चंदेरी में नियुक्त था और सूवेदार का नायक बटियागढ़ में रहता था। उस समय इस नगर को बटिहाड़िम या बड़िहारिन कहते थे। प्राप्त अभिलेख में दिल्ली का एक नाम 'जोगिनीपुर' भी दिया हुआ है। एक दूसरा शिलालेख विक्रम संवत 1381 (=1324 ई.) का यहाँ के प्राचीन महल के खंडहरों में मिला है, जिसमें गयासुद्दीन तुगलक का उल्लेख है, जिसके सूबेदार ने इस महल को बनवाया था।
Batihagarh stone Inscription of the Vikrama Year 1385 (1328 AD)
Batihagarh is a village 21 miles north-west of Damoh. The inscription refers itself to Jallala Khoja, a local Muhammadan Governor at Batihadim (the present Batihagarh). It states that Jallala was the representative of Hisamuddin, son of Julachi, who was appointed Commander of the Kharapara armies and Governor of Chedi country by Sultan Mahmud of Yoginipura or Delhi. This Mahmud must be Nasiruddin Mahmud of the Slave dynasty who reigned between 1246 and 1266 A. D. It was in 1251 that he conquered Chanderi and Malava and appointed a Governor there.1 The mention of Kharapara armies gives importance to this record. They are apparently identical with the Kharaparikas of Samudragupta's inscription on the Allahabad pillar. They must have been a powerful tribe to deserve mention by that great Emperor in the 4th Century A.D. The record is dated in the Vikrama year corresponding to 1328 A.D.
1. Briggs' Firishtā, Volume I, page 232, and Tabakāt-i-Nasīri as quoted in Dowden's Elliott, Volume VI, page 351, and Cunningham's archaeological Reports, Volume II. page 402,
Source- (Epigraphia Indica, Volume XII, page 44 ff.), Hira Lal:Descriptive lists of inscriptions in the Central provinces and Berar, p.50
Notable persons
- Pooranmal Jat , Chanderi district Ashoknagar M P, पूरनमल जाट चंदेरी जिला अशोकनगर म प्र
External links
References
- ↑ James Todd Annals/Chapter 4 Foundations of States and Cities by the different tribes,p.47-48
- ↑ Abū al-Fazl ibn Mubārak, The Ain - I - Akbari, Volume 2, page 196
- ↑ Aitihasik Sthanavali by Vijayendra Kumar Mathur, p.238
- ↑ पौराणिक कोश |लेखक: राणा प्रसाद शर्मा |प्रकाशक: ज्ञानमण्डल लिमिटेड, वाराणसी |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 556, परिशिष्ट 'क' |
- ↑ Aitihasik Sthanavali by Vijayendra Kumar Mathur, p.315
- ↑ Dainik Bhaskar 19.11.2017
- ↑ Aitihasik Sthanavali by Vijayendra Kumar Mathur, p.292
- ↑ Aitihasik Sthanavali by Vijayendra Kumar Mathur, p.602
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