Sapta Sindhu

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Sapta Sindhu (सप्त सिंधु), Hapta Hindu (हप्तहिंदु) in Avestan, meaning -seven rivers, are the seven sacred rivers in Sanskrit mythology.

Variants

In Rigveda

The Rig Veda often refers to the seven rivers.[2] In RV 7.36.6[3], the Sarasvati is the seventh river, whose mother is the Sindhu. The Avesta's hapta həndu are generally equated with the Vedic Sapta Sindhavahá; in Vendidad 1.18 these are described to be the fifteenth of the sixteen lands created by Mazda.[4]

Identity of the Seven Rivers: It is unclear how exactly the seven rivers were intended to be enumerated. They are often located in the Punjab region in northwestern India / northern Pakistan. If Sarasvati's membership is taken for granted, and the five major rivers of the Punjab are included (Sutudri, Parusni, Asikni, Vitasta, Vipas all tributaries of Sindhu River)[5], one river is missing (or perhaps two, since the Sindhu is a special case, having feminine or masculine gender and in this case not being invoked as a goddess), perhaps Arjikiya or Sushoma compare also the list of ten in the Nadistuti sukta, RV 10.75. David Frawley extends the Sapta Sindhu region from the Punjab to the Gangetic plain, specifically suggesting Sindhu, Ashikni, Parushni, Sarasvati, Yamuna, Ganga and Sarayu. (Frawley 2000) In 6.61.10, Sarasvati is called "she with seven sisters" (saptasvasā) which would logically indicate a group of eight rivers, but which probably is just due to the number seven being more important than the individual members (see also saptarshi, haft keshvar), so that the list of the Sapta sindhu may not have been fixed or immutable. In RV 10.64.8 and RV 10.75.1, three groups of seven rivers are referred to (tríḥ saptá sasrâ nadíyaḥ "thrice seven wandering rivers"), as well as 99 rivers.

Sakadwipa and Sakasthan

Hukum Singh Panwar (Pauria)[6] states: One such starting formulation of ours is likely to shock those who have been drilled to believe that Sakas (Scythians) are not only different, but were antagonistic peoples - the Sakas (Scythians, being all that Aryans were not. We, on the contrary hold that the Ailas and Iksvakus (former's sub-section) lived side by side in the sub-Sivalik zone of the Sapta-Sindhu, where Saka trees (teak in English and Sagawan in Hindi) were grown in abundance in ancient times. The Rechna Doab in which Sakala (Sialkot) was situated was known as Sakaladwipa. The region as well as its inhabitants, derived their names from Saka, which, as some eminent anthropologists and geographers rightly hold, conveys only a geographical sense and not a racial one. The so-calico Skythia or Scythia of the Greeks, which is represented as Sakadwipa in the


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ancient Indian literature, is now proved to be a misnomer: it actually stands for Sakasthan of central Asia, and not for Sakadwipa. Sakadwipa and Sakasthan are distinct, separate entities in site of similarity in sound, Sakadwipa was the landmass in the South and South east of the Meru (Pamir), the climate of which was suitable for the growth of teak; and the Sakasthan comprises the countries of adoption by the Sakas as their second home in central Asia after their exile or emigration to those countries in pre-historic times from Sapta Sindhu (cf, S.M. Ali, 1973, app., pp. 205ff). Ali has aptly vivified the distinction between the two terms.

Migration from Sapta-Sindhu

Hukum Singh Panwar (Pauria)[7] states: "Mohanjodaro sold its seals at Ur and Kish. The humped bull of tile Guts of the Indus valley was developed as winged sentinel of Assyrian palaces at Nineveh. It is represented as human-headed & bearded emblem of bull-god of prosperity on the columns of Apadan. The Indus bull created the Apis bull of the Egyptians. The Indus metric system standardised the weights and measures of Mesopotamia and further west. The cheque and banking system of the Panis (Phoenicians) of the Sapta Sindhu and their coins struck and minted at Carthage, Sodom and Tyre, after migrations there, became models for the currency and banking in the west. All these are the solid proofs, now universally accepted, of the migrations to and occupations of those countries by Indians in the hoary past (B.S.Upadhayaya, 1973: 2).

सप्तसिंधु

Saptasindhu सप्तसिंधु (AS, p.934) देखें सिंधु.[8]

हप्तहिंदु

हप्तहिंदु (AS, p.1007) = सप्तसिंधु दे. सिंधु (1)

सिंधु

विजयेन्द्र कुमार माथुर [9] ने लेख किया है ... 1. सिंधु (AS, p.958) = सिंधु नदी हिमालय की पश्चिमी श्रेणियों से निकल कर कराची के निकट समुद्र में गिरती है।

इस नदी की महिमा ऋग्वेद में अनेक स्थानों पर वर्णित है- 'त्वंसिधो कुभया गोमतीं क्रुमुमेहत्न्वा सरथं याभिरीयसे' ऋग्वेद10,75,6. ऋग्वेद 10,75,4 में सिंधु में अन्य नदियों के मिलने की समानता बछड़े से मिलने के लिए आतुर गायों से की गई है- 'अभित्वा सिंधो शिशुभिन्नमातरों वाश्रा अर्षन्ति पयसेव धेनव:' सिंधु के नाद को आकाश तक पहुंचता हुआ कहा गया है। जिस प्रकार मेघों से पृथ्वी पर घोर निनाद के साथ वर्षा होती है उसी प्रकार सिंधु दहाड़ते हुए वृषभ की तरह अपने चमकदार जल को उछालती हुई आगे बढ़ती चली जाती है- 'दिवि स्वनो यततेभूग्यो पर्यनन्तं शुष्ममुदियर्तिभानुना। अभ्रादिव प्रस्तनयन्ति वृष्टय: सिंधुर्यदेति वृषभो न रोरूवत्' ऋग्0 10,75,3.

सिंधु शब्द से प्राचीन फ़ारसी का हिन्दू शब्द बना है क्योंकि यह नदी भारत की पश्चिमी सीमा पर बहती थी और इस सीमा के उस पार से आने वाली जातियों के लिए सिंधु नदी को पार करने का अर्थ भारत में प्रवेश करना था। यूनानियों ने इसी आधार पर सिंध को इंडस और भारत को इंडिया नाम दिया था। अवेस्ता में हिन्दू शब्द भारतवर्ष के लिए ही प्रयुक्त हुआ है (दे. मेकडानेल्ड-ए हिस्ट्री आव संस्कृत लिटरेचर, पृष्ठ 141). ऋग्वेद में सप्त सिंघव का उल्लेख है जिसे अवस्ता में हप्तहिन्दू कहा गया है। यह सिंधु तथा उसकी पंजाब की छ: अन्य सहायक नदियों (वितस्ता, असिक्नी, परुष्णी, विपाशा, शुतुद्रि, तथा सरस्वती) का संयुक्त नाम है। सप्तसिंधु नाम रोमन सम्राट् आगस्टस के समकालीन रोमनों को भी ज्ञात था जैसा कि महाकवि वर्जिल के Aeneid, 9,30 के उल्लेख से स्पष्ट है- Ceu septum surgens, sedates omnibus altus per tacitum-Ganges.

सिंधु की पश्चिम की ओर की सहायक नदियों-कुभा सुवास्तु, कुमु और गोमती का उल्लेख भी ऋग्वेद में है। सिंधु नदी की महानता के कारण उत्तर वैदिक काल में समुद्र का नाम भी सिंधु ही पड़ गया था। आज भी सिंधु नदी के प्रदेश के निवासी इस नदी को 'सिंध का समुद्र' कहते हैं। (मेकडानेल्ड, पृ0 143)

[p.959]: वाल्मीकि रामायण बालकाण्ड 43,133 में सिंधु को महा नदी की संज्ञा दी गई है, 'सुचक्षुशचैव सीता च, सिंधुश्चैव महानदी, तिस्त्रश्चैता दिशं जग्मु: प्रतीचीं सु दिशं शुभा:' इस प्रसंग में सिंधु की सुचक्षु (=वंक्षु) तथा [[Sita River|सीता (=तरिम) के साथ गंगा की पश्चिमी धारा माना गया है।

महाभारत भीष्म 9,14 में सिंधु का, गंगा और सरस्वती के साथ उल्लेख है, 'नदी पिवन्ति विपुलां गंगा सिंधु सरस्वतीम् गोदावरी नर्मदां च बाहुदां च महानदीम्' सिंधु नदी के तटवर्ती ग्रामणीयों को नकुल ने अपनी पश्चिमी दिशा की दिग्विजय यात्रा में जीता था। 'गणानुत्सवसंकेतान् व्यजयत् पुरुषर्षभ: संधुकूलाश्रिता ये च ग्रामणीया महाबला:' महाभारत सभा पर्व 32,9.

ग्रामणीय या ग्रामणीय लोग वर्तमान यूसुफजाइयों आदि कबीलों के पूर्वपुरुष थे। उत्सेधजीवी ग्रामीणीयों (उत्सेधजीवी=लुटेरा) को पूगग्रामणीय भी कहा जाता था। ये कबीले अपने सरदारों के नाम से ही अभिहित किए जाते थे, जैसा कि पाणिनि के उल्लेख से स्पष्ट है 'स एषां ग्रामणी:'।

श्रीमद्भागवत 5,19,18 में शायद सिंधु को सप्तवती कहा गया है, क्योंकि सिंधु सात नदियों की संयुक्त धारा के रूप में समुद्र में गिरती है।

महारौली स्थित लौहस्तंभ पर चंद्र के अभिलेख में सिंधु के सप्तमुखीं का उल्लेख है (दे. सप्तसिंधु)। रघुवंश 4,67 में कालिदास ने रघु की दिग्विजय के प्रसंग में सिंधु तीर पर सेना के घोड़ों के विश्राम करते समय भूमि पर लोटने के कारण अनेक कंधों से संलग्न केसरलवों के विकीर्ण हो जाने का मनोहर वर्णन किया है, 'विनीताध्वश्रमास्तस्य सिंधुतीरविचेष्टनै: दुधुवुर्वाजिन: स्कंधांल्लग्नकुंकुमकेसरान्' इस वर्णन से यह सूचित होता है कि कालिदास के समय में केसर सिंधु नदी का दक्षिणी समुद्र तट है।

जैनग्रंथ जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति में सिंधु नदी को चुल्लहिमवान् के एक विशाल सरोवर के पश्चिम की ओर से निस्सृत माना है और गंगा को पूर्व की ओर से।

External links

References

  1. परोपकारी, अप्रेल प्रथम 2019, s.n. 15, p.6
  2. RV 2.12; RV 4.28; RV 8.24)
  3. आ यत साकं यशसो वावशानाः सरस्वती सप्तथी सिन्धुमाता | याः सुष्वयन्त सुदुघाः सुधारा अभि सवेन पयसा पीप्यानाः || (RV 7.36.6)
  4. Gnoli, Gherardo (1989), "Avestan geography", Encyclopaedia Iranica, 3, New York: Routledge & Kegan Paul, pp. 44–46.
  5. इमं मे गङगे यमुने सरस्वति शुतुद्रि सतेमं सचता परुष्ण्या | असिक्न्या मरुद्व्र्धे वितस्तयार्जीकीये शर्णुह्यासुषोमया || (RV 10.75.5)
  6. The Jats:Their Origin, Antiquity and Migrations/The identification of the Jats, pp.297-298
  7. The Jats:Their Origin, Antiquity and Migrations/The identification of the Jats, p.308
  8. Aitihasik Sthanavali by Vijayendra Kumar Mathur, p.934
  9. Aitihasik Sthanavali by Vijayendra Kumar Mathur, p.958-959