Jat History Thakur Deshraj/Chapter X
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दशम अध्याय : सिंध के जाट-राज्य |
नाम, सीमा, प्राचीन राज्य और वर्तमान दशा
सिन्ध का नामकरण
इस प्रदेश का नाम सिन्धु नदी के कारण तथा समुद्र के किनारे अवस्थित होने के कारण सिन्धु देश पड़ा था, जो अब सिन्ध कहलाता है। महाभारत-काल में सिन्धु नाम की एक जाति भी थी। सिन्धु देश सप्त-सिन्धु के अन्तर्गत है। प्राचीन समय में इसकी सीमा पूर्व में काश्मीर, पश्चिम में मकरान, उत्तर में सुलेमान और दक्षिण में सूरत बन्दर तक थी।
मुसलमान लेखक कनीज बेग अपने इतिहास में इस देश का सिन्धु नाम होने की एक बड़ी विचित्र बात लिखता है -
- “हिन्द और सिन्ध दोनों भाई थे जो जाम के बेटे थे। वह जाम हजरत नूह का बेटा था। उनकी सन्तान के ही नाम से सिन्ध नाम पड़ा।”
यह निरी बेहूदी कल्पना है। जाम नाम बहुत पीछे का है। जैसलमेर के भाटियों के ग्रन्थों से पता चलता है कि गजनी की ओर से लौटकर आने वाले लोगों में से किसी सरदार का नाम जाम था, जो कि ईसवी सन् के आरम्भिक काल में भारत में लौटा था। कोई-कोई जाम को साम्ब का अपभ्रंश मानते हैं । साम्ब श्रीकृष्ण के पुत्र का नाम था, जो ईरान से मग ब्राह्मणों को भारत में लाया था। इन सब घटनाओं से जाम विदेशी तो जान पड़ते हैं, किन्तु यह सही नहीं कि जाम की सन्तान में कोई सिन्धू व हिन्दू थे अथवा जाम्ब नूह का बेटा था।
भारत में जयद्रथ को सिन्धुराज के नाम से सम्बोधित किया गया है। उनकी राजधानी सेवन में थी। उनका राज्य-प्रबन्ध प्रशंसनीय था। तीन सभाओं द्वारा वह शासन करते थें - राजसभा, शासकसभा और धर्मसभा उनके नाम थे।1
जयद्रथ के पश्चात् सिन्ध-देश के एक बड़े प्रदेश पर श्रीकृष्ण और युधिष्ठिर
- 1. सिन्ध देश का सच्चा इतिहास (उर्दू) लेखक ‘गोवर्धन शर्मा’
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के पक्ष के लोगों ने अपना अधिकार जमा लिया और दोनों जातियों के लोगों ने वहां ज्ञात-राज्य की नींव डाली। जिस स्थान पर उनकी राजधानी थी, वह (मोहन युधिष्ठिर के नाम से) मोहन युधरा कहलाता था, जो कालान्तर में मोहन-जु-हारो अथवा मोहन-जो-दारो के नाम से प्रसिद्ध हुआ। पिछले वर्षों में पुरातत्व विभाग की ओर से इसकी खुदाई हुई है। उसमें अति प्राचीन नगर, प्रतिभा, सिक्के, ईंट, बर्तन आदि निकले हैं। कोई उन्हें सुमेरियन सभ्यता और कोई द्रविडियन तथा कोई रोमन सभ्यता के चिन्ह बताता है, क्योंकि उनको देखने से पांच हजार वर्ष पूर्व-काल की सभ्यता का अनुमान होता है। आर्यन शिल्प कारीगरी और सभ्यता से प्रतिभाओं और सिक्कों में कुछ भेद बताया जाता है। किन्तु ऐसे अनुमान गलत हैं। इस देश में सिन्धु-वंश अति प्राचीन है, इसमें शिव-उपासक आरम्भ से ही रहे हैं। जयद्रथ के पिता बृहद्रथ को महाभारत में शिव का उपासक लिखा है, अथवा यह समझना चाहिए कि सिन्धु-वंश शिव जाति का ही एक अंग है।
नन्दि की मूर्ति और आराधक की मूर्ति जो मोहन-जो-दारो में मिली है, वह सिन्धु लोगों की उन्नति और सभ्यता का नमूना है। सिन्धु लिपि भी एलाम और क्रीट से मिलती-जुलती है।
हमारे कहने का मतलब यह है कि मोहन-जो-दारो की मिली हुई वस्तुओं से सिन्धु लोगों की ही उन्नति और सभ्यता का बोध होता है, न कि विदेशियों की सभ्यता का। सिन्धु लोग किसी न किसी रूप में ईसा की चौथी शताब्दी तक राज करते चले आए हैं जो कहीं सिन्धुराज और कहीं सिन्धुसैन लिखे गए हैं। पंजाब और सिंध के जाटों में सिन्धु एक प्रसिद्ध गोत्र है। अनेक उपगोत्र भी सिन्धु गोत्र में से निकले हैं।
“मुजमल तवारीख” में एक बड़ी मजेदार कहानी लिखी हुई है। जाट और मेड सिन्ध में वहर नदी के किनारे पर रहते थे। दोनो जातियों में सदैव विरोध रहा करता था। जाट पवन नदी के दूसरे किनारे पर चले गये। नाविक-विद्या में कुशल होने के कारण, मेडों पर आक्रमण करके उन्हें तंग करते थे। मेडों की शक्ति क्षीण हो गई। उन्हें तलवार के घाट उतार दिया गया। उनके देश को लूट लिया गया। तब मेड जाटों की अधीनता में आ गए।
जाटों के एक सरदार ने मेडों की इस दुर्दशा को देख अपनी जाति के लोगों को समझाया कि इन दोनों जातियों के मिलकर रहने में ही भलाई है। हमने अपना बदला ले लिया है। अंत में दोनों जातियों की ओर से दुर्योधन के पास प्रतिनिधि भेजे गए कि वह अपनी ओर से इन दोनों जातियों पर शासन करने के लिए शासक भेज दे। दुर्योधन ने अपनी बहन दुःशाला को जो कि जयद्रथ को ब्याही थी और बड़ी बुद्धिमान थी, इस देश पर शासन करने को भेज दिया । दुःशाला ने जाट और मेडों के नगरों और देश का शासन अपने हाथ में ले लिया। चूंकि उस देश
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में ब्राह्मण न थे, इसलिए उसने तीस हजार ब्राह्मण उस देश में बसाए।
महाभारत में इस सम्बन्ध की कोई चर्चा नहीं है। किन्तु ऐसा जान पड़ता है कि ब्रह्मनाबाद के ब्राह्मणों ने इस कथा को पढ़ा होगा, क्योंकि जाट और मेड उनके विरोधी और बौद्ध धर्मावलम्बी थे। जयद्रथ तो सिन्धु लोगों के आरम्भ से ही राजा थे फिर दूसरा राजा लाने का प्रश्न नहीं उठता। जाट राज्य का खात्मा इन्हीं ब्रह्मणाबाद के ब्राह्मणों ने किया था। श्री कालिकारंजन कानूनगो ने इन ब्राह्मणों के सम्बन्ध में लिखा है -
- “ब्रह्मणाबाद नामक प्रसिद्ध नगर का नाम उस स्थान को बतलाता है जहां बाहर से आने वाले ब्राह्मण पहले बसे थे। वे अपने देश के राजाओं की अध्यक्षता में फले-फूले और इतने शक्तिशाली हो गए कि चच नामक ब्राह्मण ने अपने ही स्वामी साहसीराय द्वितीय की गद्दी पर सुन्दर किन्तु अविश्वस्त रानी सुहानदी के प्रभाव से, जो कि उससे प्रेम करने लगी थी अधिकार जमा लिया।"
सिन्ध देश को जाटों की कुछ लोग तो आदि भूमि मानते हैं। आरम्भ में समस्त आर्य ही सिन्ध प्रदेश में बसे थे, किन्तु सिन्ध में अधिकांश ऐल (चन्द्रवंशी) आर्यों का समूह आबाद हुआ था। जाटों का आवास द्वाबे में था। वे वहीं से सर्वत्र फैले थे। सिंध में उनके अनेक छोटे-छोटे राज्य थे जो गणतंत्र प्रणाली पर संचालित थें। बंगला विश्वकोष में लिखा है कि
- “पूर्वे सिन्धु देश जाट गणेर प्रभुत्व थी लो”
अर्थात् पूर्वकाल में सिन्धु देश में जाटों का राज्य था।1
इसी विश्वकोष में पेज 7 पर जाट रमणियों के सम्बन्ध में लिखा है -
- “सिंधु प्रदेश जाट रमणी गण सुन्दर व औ, सतीत्व जन्य सर्वत्र प्रसिद्ध होइय”
अर्थात् सिन्धु देश की जाट स्त्रियां सुन्दर और सतीत्व के लिए सर्वत्र प्रसिद्ध हैं।
शत्रुवत्स
कुछ इतिहासकारों ने (जिनमें मेगस्थनीज भी है) लिखा है कि भारत पर असीरिया से सेमिरे मिस ने ईसा से लगभग 1964 वर्ष पूर्व चढ़ाई की थी। उसके साथ में चालीस लाख पैदल घुड़सवार, दो लाख ऊंट, तीन हजार जहाज, चार हजार नौकाएं थीं। इसने ऊंटों पर चर्म चढ़ाकर नकली हाथियों की सेना भी इकट्ठा की थी। उस समय सिन्ध नदी के पास शत्रुवत्स राजा राज करता था। यूनानी लेखकों ने शत्रुवत्स को सटारोवेटस लिखा है। उसने अपने देश में सूचना दे दी कि युद्ध के लिए तैयार हो जाओ। पहली लड़ाई में मिस जीत गई किन्तु राजा ने हिम्मत न हारी। इतने में बरसात आ गई और ऊंटों पर की कच्ची खाल में से बदबू आने लग गई। लोंगों ने नकली हाथियों का भेद पा लिया। घनघोर युद्ध हुआ।
- 1. बंगला विश्वकोष। जिल्द 7। पेज 6, लेखक नगेन्द्रनाथ वसू
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मिस हार कर भाग गई। यह लड़ाई सिन्धु लोगों के सरदार शत्रुवत्स की अध्यक्षता में हुई थी। किन्तु इसका समय ईसा से पूर्व आठ सौ वर्ष से अधिक नहीं माना जा सकता। यूनानी लेखक भी समय और घटनाओं का वर्णन पुराणकारों की भांति ही करते हैं।
मूसक सैन
इसे यूनानी लेखकों ने मूसीकेनस लिखा है, किन्तु काशीप्रसाद जायवाल इसे एक जाति मानते हैं। इसका वर्णन हम पिछले पृष्ठों में कर चुके हैं। यह सिकन्दर का समकालीन था। जब सिकन्दर इसके राज्य में होकर गुजरने लगा तो इसने बिना युद्ध किए उसे उधर से नहीं जाने दिया। इसकी राजधानी अलोर थी। अलोर में आगे एक दूसरे जाट वंश का भी हम राज्य पाते हैं।
हिन्दूकुश से सिन्ध तक जाने में सिकन्दर को केवल 10 महीने लगे थे, किन्तु उसे सिन्ध से व्यास तक आने में 19 महीने लग गए।1 इसका कारण सिन्ध के लोगों का सिकन्दर से पग-पग पर लोहा लेना था। ये लड़ाइयां उसे जाट और मेडों के भिन्न-भिन्न वंशों से लड़नी पड़ी थीं।
सिन्धु सैन
जिस समय सिकन्दर ईरान पर हमला करने के लिए बढ़ रहा था, उस समय पर्शिया के अधीश्वर शैलाक्ष (सेल्यूकक्ष) ने सिन्धु देश के राजा सिन्धु सैन के पास, जो कि सिन्धु के जाटों के गणतंत्र के अध्यक्ष थे, सहायता के लिए याचना की। महाराज ने यहां से तीर-कमान और बर्छे धारण करने वाले सैनिकों को उसकी सहायता के लिए भेज दिया। हेरोडोटस ने इस लड़ाई के सम्बन्ध में लिखा है कि सिकन्दर की सेना के जिस भाग पर जेटा लोग झुक जाते थे वही भाग कमजोर पड़ जाता था। उसके योद्धा लोग रथों में बैठकर लड़ते थे। वह अपनी कमान को पैर के अंगूठे से दबाकर और कान की बराबर तानकर तीर छोड़ते थे। सिकन्दर को स्वयं इनके मुकाबले के लिए सामने आना पड़ा था। इसी समय बिलोचिस्तान में राजा चित्रवर्मा राज करता था। कुलूत उसकी राजधानी थी।
इससे पहले जाटों को हम साइरस की सहायता देते हुए भी पाते हैं। साइरस ईसा से 600 वर्ष पूर्व हुआ था। बेबोलिनिया के लोगों से उसे युद्ध करना था। उस समय सिन्धु लोगों के अधीश्वर सिन्धुराज ने एक प्रतिनिधि-मंडल इस बात की जांच करने के लिए भेजा था कि जांच करो कि कौन-सा पक्ष न्याय पर है जिसे कि सहायता दी जाए। अन्त में साइरस का पक्ष न्याय-संगत ज्ञात हुआ, इसलिए
- 1. मौर्य-साम्राज्य का इतिहास, लेखक सत्यकेतु विद्यालंकार
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उसे सहायता दी गई। यहां से जो सेना गई थी, उसके पास सूती-वर्दी और तीर-कमान थे। सिन्धुराज की इस सहायता से साइरस की विजय हो गई। कर्नल टाड ने इस समय के जाट-जाति के वैभव के लिए निम्नलिखित शब्दों का प्रयोग किया है।
- “साइरस के समय में ईसा से 600 वर्ष पहले इसी बड़ी जेटिक जाति के राजकीय प्रभाव की यदि हम परीक्षा करें तो यह बात हमारी समझ में आ जाएगी कि तैमूर की उन्नत दशा में भी इन जातियों का पराक्रम ह्रास नहीं हुआ था।”
जिस साइरस को जाटों ने सहायता दी थी, उसी ने इनकी स्वाधीनता का भी अपहरण करना चाहा था। इसी से उन्हें साइरस से भी लोहा लेना पड़ा था। निरन्तर लड़ाई करते-करते उन्हें सतलुज पार उतरना पड़ा। इस लड़ाई से पीछे को हटने की घटना ने जाटों के हृदय को बड़ा धक्का पहुंचाया। पंजाब के जाट अब तक कहते रहते हैं कि सिन्धु छोड़ देने के कारण हम नीचे हो गए हैं।1
साहसीराय द्वितीय
यह मौर्य-वंश के जाट थे। इनके मरने के बाद जाट और लुहानों पर भारी आपत्तियां आईं। इनके पूर्वज और वंशज सबकी उपाधि राय थी। ये लोग राय के नाम से मशहूर थे। इनकी राजधानी अलोर में थी। इनका राज्य पूर्व में कश्मीर और कन्नौज तक और पश्चिम में मकरान तथा समुद्र के देवल बन्दर तक, दक्षिण में सूरत बन्दर तक, उत्तर में कंधार, सीस्तान, सुलेमान, फरदान और केकानान के पहाड़ों तक फैला हुआ था।
- (1) राय देवाज्ञ नाम का सरदार इन लोगों में सबसे बड़ा, पहला ज्ञात पुरुष था,
- (2) राय महरसन,
- (3) राय साहसी,
- (4) राय महरसन द्वितीय,
- (5) राय साहसी द्वितीय नाम के राज राजवंश में हुए।
राय महरसन द्वितीय को ईरान के बादशाह नीमरोज से लड़ना पड़ा था। गले में तीर लग जाने के कारण राय महरसन की मृत्यु हो गई। इसकी मृत्यु के बाद इसका बेटा राय साहसी राजा बनाया गया। इसने पहले तो अपने राज्य की सीमाओं का प्रबन्ध किया और फिर प्रजा को हुक्म दिया कि एक वर्ष के लगान के बदले में माथेला, सिवराय, मऊ, अलोर और सेबिस्तान के किलों की मरम्मत कर दी जाए। प्रजा ने ऐसा ही किया । इस तरह इसके राज्य का विस्तार भी होने लगा। सारी प्रजा प्रसन्न थी। कोई खिन्न था।
इसके यहां राम नामक एक वजीर था और इसी नाम का एक ड्योढ़ीदार। एक समय शालायज्ञ नाम के ब्राह्मण का एक लड़का जिसका नाम चच था, इस
- 1. डिस्ट्रीब्यूशन आफ दी नार्थ वैस्टर्न प्रोविन्सेज आफ इण्डिया। लेखक - सर हेनरी एम. इलियट के. सी. वी.
जाट इतिहास:ठाकुर देशराज,पृष्ठान्त-700
ड्योढ़ीदार राम से आकर मिला। ड्योढ़ीदार ने उसे मंत्री के यहां नौकरी करा दिया। एक समय राजा साहसीराय बीमार हुआ तो उसने मंत्री को इस वास्ते महल में ही बुलाया कि देश-प्रदेश से आई हुई चिट्ठियों को सुना दे। मंत्री ने अपने मुंशी चच को भेज दिया। राजा साहसीराय चच की विद्वता को देखकर प्रसन्न हुआ और उसे ड्योढ़ीवान बना दिया। वह बे रोक-टोक जनाने में जाता था। राजा साहसी की स्त्री सुहानदी की नीयत में फर्क आ गया और उसने चच से अनुचित सम्बन्ध कर लिया और चच ने नमकहरामी करके रानी की मदद से राज्य को हड़प लिया। साहसीराय के मरने पर चच ने उस रानी से शादी कर ली।
चच की इस धोखेबाजी के समाचार जब साहसीराय के दामाद राणा महारथ जो कि चित्तौड़ का शासक था1 ने सुने तो वह क्रोध से जल गया और सेना लेकर उसने चच पर चढाई कर दी। चच पहले तो घबरा गया, किन्तु रानी सुहानदी के साहस दिलाने पर उसने लड़ाई की तैयारी की। यहां भी चच ने धोखे से काम लिया और यह तय होने पर कि राणा और चच दोनों एक-दूसरे को निपट लें, बिना बात हजारों आदमियों का खून क्यों हो। चच ने राणा के साथ विश्वासघात करके मार डाला, यह घटना संवत् 689 सन् 632 ई० की है।
मत्ता
शिवस्तान में उस समय शिव-गोत्री जाट मत्ता का राज था। वह साहसीराय से द्वेष तो रखता था, किन्तु किसी अवसर की ताक में था। कुछ दिन बाद जब चच मर गया तो राणा मत्ता ने कन्नौज के महाराज के पास जाकर कहा कि अब मौका है कि हम सिन्ध का राज अपने हाथ में ले लें। उसने अपने भाई बसाइस को सेना देकर मत्ता के साथ कर दिया। इन्होंने सिन्ध में लूट-मार तो की किन्तु चच के लड़के चन्द्र को हरा न सके ओर उससे मित्रता कर ली। अलोर में जब चन्द्र का लड़का और चच का पौत्र दाहर गद्दी पर बैठा तो कन्नौज के राणा रणमल ने भी इरादा किया कि इस ब्राह्मण-राज्य को नष्ट कर दिया जाय जो कि जाट और लुहानों के लिए अहितकारी है। किन्तु राणा भी विफल रहा।
नेरून
नेहरा वंश के लोगों का उस समय राज नेरुन में था। जब उन्होंने देखा कि अरब के रास्ते से वजील, जो कि आड़ था, मर गया तो उसने हजाज के पास अपने आदमी भेजकर मित्रता कायम कर ली। उस समय लुहाने और जाटों को
- 1.यह चित्तौड़ और कन्नौज, राजस्थान और सिन्ध में थे
जाट इतिहास:ठाकुर देशराज,पृष्ठान्त-701
एक तरफ अरब-आक्रमणकारियों से लड़ना पड़ता था और दूसरी ओर उनके बीच में घुस पड़ने वाले ब्राह्मण राजाओं से संघर्ष करना होता था। नेरुन की भूमि पर इस समय हैदराबाद बसता है।
चन्द्रराम
यह चन्द्रराम ‘हाला’ वंश का जाट सरदार था। पहले सूस्थान का शासक था, किन्तु सूस्थान इसके हाथ से निकल गया था। कुछ समय यह इधर-उधर मारा-मारा फिरता रहा। किन्तु ज्योंही अवसर आया सूस्थान से मुसलमानों को निकालकर किले पर कब्जा कर लिया। मुहम्मद कासिम ने इस खबर को सुना तो वह नाराज हुआ और अब्दुल रहमान के साथ एक हजार सवार और दो हजार पैदल देकर चन्द्रराम का दमन करने के लिए भेजा। ‘चन्द्रराम हाला’ बड़ी बहादुरी से लड़ा, किन्तु हार गया। उसका प्रदेश हालाखण्डी नाम से प्रसिद्ध है।1
कैकान
यह एक प्रदेश का नाम है। कीकानियां नाम का एक पहाड़ भी है। जिस समय कीकान पहाड़ में पहले पहल अरब विजेता आए थे तो जाटों ने उन्हें मारकर भगा दिया था। ‘हिस्ट्री आफ जाटस्’ में श्री कालिकारंजन कानूनगो ने कैकान प्रदेश के जाटों का वर्णन इस प्रकार किया है -
- “कैकान का देश, जो कि अफगानिस्तान के दक्षिण-पूर्व में अनुमान किया जाता है, अरब के सेनापति अमरानवीन मूसा ने बाद में उनसे सन् 833 ई. के लगभग छीन लिया था। उन्हीं दिनों में जाटों पर जिन्होंने कि हजारा की सड़क पर अपना अधिकार जमा लिया था और रेगिस्तान की तरफ खम्बे गाड़कर सबके दिल दहला दिए थे, दूसरा हमला किया गया। पच्चीस दिन के खून-खच्चर के बाद वे जीत लिए गए और सत्ताईस हजार की संख्या में कैद कर लिए गए। इन लोगों में लड़ाई के समय तुरई बजाने का रिवाज था।”
कहा जाता है कि सिन्ध में सातवीं शताब्दी तक जाटों का राज रहा था। चच ने उन्हें सामाजिक स्थिति से बहुत कुछ गिरा दिया। नये शासक मुहम्मद बिन कासिम ने भी उनके साथ कोई अच्छा व्यवहार नहीं किया। ब्राह्मण वजीर ने तो मुहम्मद कासिम को बताया था कि जाट, राजाओं के विरुद्ध विद्रोह करने में प्रवीण हैं। वे कभी भी आपका साथ नहीं दे सकते।
मौलाना सुलेमान नदबी ने अपने ‘अरब भारत के संबंध’ नामक व्याख्यान में लिखा है -
- 1. सिन्ध का इतिहास, पृ. 30
जाट इतिहास:ठाकुर देशराज,पृष्ठान्त-702
- “सिन्धु में काका नाम का एक व्यक्ति प्रसिद्ध, बुद्धिमान और राजनीतिज्ञ था। जाट रईस लोग उसके पास जाकर उससे सलाह करते हैं कि क्या मुसलमानों की सेना पर छापा मारा जाए? वह उत्तर में कहता है - यदि तुम ऐसा कर सको तो अच्छा है। पर सुनो हमारे पंडितों और योगियों ने मंत्र देखकर भविष्यवाणी की है कि इस देश को एक दिन मुसलमान जीत लेंगे। जाट लोग उसकी बात नहीं मानते और हानि उठाते हैं।... इसके बाद काका मुहम्मद बिन कासिम के पास जाता है और जाटों के विचार से सूचित करता है।
यद्यपि उस समय ब्राह्मण राजाओं के साथ जाटों का संघर्ष था, फिर भी वे अपनी मातृभूमि की रक्षा के लिए मुहम्मद कासिम के विरुद्ध युद्ध छेड़ते हैं। यदि काका भी जो कि चन्ना वंश का राजपूत था, जाटों के साथ शामिल हो जाता तो अरब से आए मुसलमानों के सिन्ध में पैर न जमते।
जहाजी बेड़ा
सिन्ध के जाट नाविक विद्या में बड़े निपुण थे। अपने पड़ौसी मेड़ लोगों से उनका अतीत काल तक विरोध रहा था। फिर भी जहां जाट पाए जाते हैं, वहां मेड़ भी मिलते हैं। ईरान में जाटाली के पास ही मेड़ लोगों का राज्य मीडिया था। अजमेर-मेरवाड़े में जाटों के पड़ौस ही में मेर या मेड़ मिलते हैं। इन मेड़ों को परास्त करने के लिए उन्होंने अपनी नाविक विद्या का ही सहारा लिया था। वे जहाजों के द्वारा विदेश में भी जाते थे। समोस टापू में वे जहाजों द्वारा ही गए थे। सिकन्दर के आने के समय भी उन्होंने जल-मार्ग से उसका सामना किया था। यूनानी लेखकों ने उन्हें अर्ध-सभ्य के नाम से लिखा है। उनके लड़ने के ढंग और पहनावे की निन्दा की है। उनके जहाजों के, उनके बड़े-छोटे होने के आकार और जाति के अनुसार नाम होते थे।
कच्छ
बंगला विश्व-कोष में उनके कच्छ में अवस्थित होने का वर्णन है - नागेन्द्रनाथ वसु द्वारा सम्पादित बंगला विश्व-कोष की सातवीं जिल्द में लिखा है -
- “कच्छ के जाट सैनिक होते हैं। वह बर्छा अधिक पसन्द करते हैं। अपने सरदार की आज्ञा को मानना अपना कर्तव्य समझते हैं। अपने देश की रक्षा के लिए इन्हीं सरदारों की अध्यक्षता में लड़ने को तत्पर रहते हैं। जाट नौजवान अपने सरदारों के पास सैनिक-शिक्षा पाता है। वे ऊंची भूमि पर बसना पसन्द करते हैं।”
उनके नाम
जाट कहीं अवार और कहीं वार और कहीं अरट कहलाते थे। यह नाम उनके
जाट इतिहास:ठाकुर देशराज,पृष्ठान्त-703
सिन्ध में रहने के समय तक के थे। कन्दहार के आस-पास जाटों का एक समूह गूजर भी कहलाता है। हमें सातवीं सदी में कन्दहार में जयपाल नामक राजा का पता चलता है। मुसलमानों के आक्रमण के समय इसने सामना किया था। उसने अपने सूबे मकरान को जो कि आज बिलोचिस्तान के नाम से भी मशहूर है, अरबों को दे दिया था। हमारा यह भी मत है कि बिलोचिस्तान जो कि सिन्ध का ही एक सूबा था, बिलोच गोत्र के जाटों का अधिकृत प्रदेश था और मौर्यकालीन राजा चित्रवर्मा जाट था।
इस्लाम का प्रभाव
सातवीं सदी से सत्रहवीं सदी तक, सिन्ध में मुसलमानों का राज्य और आक्रमण रहा है। ऐसी स्थिति में यह कैसे हो सकता था कि जाटों पर इस्लाम का कुछ असर न होता? इस प्रभाव से बचे रहने के लिए कुछ इधर-उधर के देशों की ओर चले गए, जो डटे रहे वे कालान्तर में इस्लाम के प्रभाव में आ गए। सिन्ध गजेटियर दूसरी जिल्द में इन मुसलमान जाटों के सम्बन्ध में इस तरह से लिखा हुआ है -
- The Jats were found all over Sindh but those in the South acknowledge as their chief a “Malik” who held lands in the Jali Talluka (which perhsps took its name from) under title deeds from the Emperors of Delhi. The present representative is Malik Mohammad Sadiq Walad Malik Gulam Hussain, first class Jagirdar. (Gazetter of the Proma of the Sindh. B. Vol.I, Kiranchi. P.II)
अर्थात् - जाट प्रायः सिन्ध में सब जगह पाए जाते, लेकिन जो दक्षिण में हैं, उनके सरदार को मलिक कहते हैं, जो जाटी तालुका में जमीन के मालिक हैं (शायद यह नाम उनसे लिया गया हो) जो कि देहली के बादशाहों ने उन्हें दिया था। उनका वर्तमान प्रतिनिधि मलिक मुहम्मद सद्दीक वल्द मलिक गुलाम हुसैन फर्स्ट क्लास जागीरदार है।
शिकारपुर जिले में जो मुस्लिम जाट हैं, वे बिलोच जाटों की छः शाखाओं में से हैं। वे इस समय अपने को अरब कहते हैं। संभव है कि वे उस पार्टी के जाट हों जो सिन्ध और मकरान (बिलोचिस्तान) से अरब में जाकर बसे थे और फिर इस्लाम अभियान के समय भारत में आ गये। सिन्ध में मुस्लिम जाट प्रायः जट-मुसलमान के नाम से पुकारे जाते हैं। सारे प्रान्त में इन जट-मुसलमानों की संख्या अस्सी हजार के लगभग है। वे देहात में ऊंट खूब रखते थे। शिक्षा का प्रचार भी
जाट इतिहास:ठाकुर देशराज,पृष्ठान्त-704
उनमें इस समय खूब था। करांची में सिन्ध-मदरसे के नाम से एक विद्यालय था, उसमें अधिकांश में जट-मुसलमानों के बालक पढ़ते थे। किसी समय इस विद्यालय में कुल 1200 छात्र पढ़ते थे और सरकार की ओर से एक लाख वार्षिक सहायता विद्यालय को दी जाती थी।
उमर कोट
सिन्ध और राजपूताना के मध्य में यह स्थान है। इस पर हुमायूं के समय तक पंवार गोत्री जाटों का राज्य था। पंवार शब्द के कारण कर्नल टाड ने उसे राजपूतों का राज्य बताया है। किन्तु जनरल कनिंघम ने 'हुमायूं नामा' के लेखक के कथन का हवाला देकर उसे जाट पंवार लिखा है। टाड राजस्थान के कथन का प्रतिवाद करते हुए जनरल कनिंघम लिखते हैं - “किन्तु हुमायूं की जीवनी लिखने वाले ने प्रमार के राजा और उनके अनुचरों का 'जाट' के नाम से परिचय दिया है।”1 यह वंश धारा नगर के जाट-परमारों से सम्बन्धित रहा होगा। क्योंकि धारा नगर में जगदेव नाम का जाट राजा राज्य करता था और प्रमार जाट था। बिजनौर के कुछ जाट अपने को धारा नगर के महाराज जगदेव की संतान बताते हैं2, जो कि वहां से महमूद गजनवी के आक्रमण के समय यू० पी० की ओर बढ़ गए थे। प्रमार भी 'अवार' की भांति एक शब्द है। जाट एक समय अवार कहलाते थे, जिसका कि भारत में अवेरिया से सम्बन्ध है। इसी भांति एक प्रदेश का नाम पंवार-प्रदेश था, जो कि धारा नगर और उज्जैन के मध्य में था और जो प्रान्त पंवार लोगों के बसने के कारण प्रसिद्ध हुआ।
इसी तरह से सिन्ध के अन्य अनेक स्थानों पर जाट-राज्यों की सामग्री मिल सकती है, किन्तु उसके लिए महान् साधन और खोज की आवश्यकता है।
- 1. Memoirs of Humayoon P.45 ।
- 2. ट्राइब्स एण्ड कास्ट्स ऑफ दी नार्थ वेस्टर्न प्राविंसेज एण्ड अवध।
जाट इतिहास:ठाकुर देशराज,पृष्ठान्त-705
नोट - इस पुस्तक में दिए गए चित्र मूल पुस्तक के भाग नहीं हैं. ये चित्र विषय को रुचिकर बनाने के लिए जाटलैंड चित्र-वीथी से लिए गए हैं.
संदर्भ
1. सिन्ध देश का सच्चा इतिहास (उर्दू) लेखक ‘गोवर्धन शर्मा’।
2. बंगला विश्वकोष। जिल्द 7। पेज 6, लेखक नगेन्द्रनाथ वसू।
3. मौर्य-साम्राज्य का इतिहास, लेखक सत्यकेतु विद्यालंकार।
4. डिस्ट्रीब्यूशन आफ दी नार्थ वैस्टर्न प्रोविन्सेज आफ इण्डिया। लेखक - सर हेनरी एम. इलियट के. सी. वी.।
5. यह चित्तौड़ और कन्नौज, राजस्थान और सिन्ध में थे।
6. सिन्ध का इतिहास, पृ. 30।
7. Memoirs of Humayoon P. 45 ।
8.ट्राइब्स एण्ड कास्टस आफ दी नार्थ प्रोविन्सेज एण्ड अवध।
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