Jat Itihas (Utpatti Aur Gaurav Khand)/Tratiya Parichhed

From Jatland Wiki
Jump to navigation Jump to search
Digitized & Wikified by Laxman Burdak, IFS (R)

विषय-सूची पर वापस जावें

जाट इतिहास (उत्पत्ति और गौरव खंड), 1937, लेखक: ठाकुर देशराज

तीसरा परिच्छेद

वर्ण मीमांसा

जाटों के वर्ण के बारे में भ्रम क्यों ?

[पृ.28]

कुछ एक विदेशी इतिहासकारों को जाटों के संबंध में जिस भांति उनके शक अथवा हूण होने का भ्रम हुआ था उसी प्रकार थोड़े लोगों को उनके क्षत्रीय होने में भी संदेह होने लगा था। और हमारा तो यहां तक अनुमान है कि यदि भरतपुर, धौलपुर, नाभा, फरीदकोट और मुरसान प्रवृत्ति छोटी-बड़ी जाट रियासतें न होती तो जाटों से द्वेष रखने वाले लोग बड़ी मुश्किल से यकीन करते कि जाट वर्ण से क्षत्रिय हैं। क्योंकि -

(1) न तो उन्होंने अपने को उस संगठन में शामिल किया था जो कि बौद्ध और जैन प्रभृति धर्मों को बलपूर्वक विताड़ित करने के लिए ब्राह्मणों ने अग्निकुल और ब्रह्मकुल क्षत्रियों के नाम पर खड़ा किया था और जो आगे चलकर राजपूत गण जैसे चमत्कारिक नाम से प्रसिद्ध हुआ।

(2) न उन्होंने बौद्ध काल के बाद ब्राह्मणों द्वारा बनाई हुई विधवा-विवाह निषेध, पर्दा प्रचलन, श्राद्ध और उत्सवों में बलिदान तथा खान-पान की संकुचितता आदि सामाजिक रिवाजों को ही ग्रहण किया।

(3) बाप-दादों की कीर्ति का बखान करके गुजर करने वाले चारण और भाट उनको भी उन्होंने प्रोत्साहन नहीं दिया

[पृ.29]

(4) और न अपने बहादुराना कारनामों का ही लेख-बद्ध संग्रह कराया।

जाट-ब्राह्मण संघर्ष

उधर ब्राह्मण लोग जाटों से उनकी सामाजिक उदारता के कारण असंतुष्ट थे ही। जैन और ब्राह्मणों का जिस समय संघर्ष चल रहा था उस समय तो ब्राह्मणों ने स्पष्ट कह दिया था कि कलयुग में कोई क्षत्रिय नहीं है। क्योंकि जैन लोग आरंभ में केवल तीन ही वर्ण मानते थे: क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। बौद्ध लोग भी ब्राह्मण की अपेक्षा क्षत्रिय को ऊंचा समझते थे। यही कारण था कि ब्राह्मणों को क्रोध में वह फतवा देना पड़ा कि कलयुग में क्षत्रिय वर्ण ही नहीं है। किंतु राज शक्ति के बिना धर्म का प्रचार होने में बड़ी कठिनाई थी। अतः पहले तो उन्होंने कई राज्यों को षड्यंत्र द्वारा अपने हाथ में किया। शुंग, चच और कण्व इसके उदाहरण हैं* किंतु कुछ काल बाद अनेकों बौद्ध जैन राजाओं को अपने धर्म में दीक्षित कर लिया। दीक्षा संबंधी सबसे बड़ा उत्सव आबू का यज्ञ है जिसमें उत्तरी भारत के अनेक वंश आकर दीक्षित हुए थे। चाहू, परिहार, सोलंकी और परमार इन में मुख्य हैं। यहीं से एक तीसरे अग्निकुल की स्थापना हुई। पीछे से ब्राह्मण और अग्निकुल एक हो गए। हो ही जाने चाहिए थे उनकी स्थापना का उद्देश्य ही एक था। इस आंदोलन


* देखो विश्वेश्वरनाथ रेऊ कृत भारत के प्राचीन राजवंशी द्वितीय भाग में शुंग और कण्व वंश का वर्णन।


[पृ.30]:आंदोलन (movement) के मुख्य दो केंद्र थे। आबु और नैमिषारण्य। यह अग्निकुली और ब्रह्मकुली लोग ही आगे चलकर राजपूत के नाम से प्रसिद्ध हो गए और अब क्षत्रिय शब्द का स्थान राजपूत शब्द ने ले लिया। हालांकि राजपूत क्षत्रिय वंशवृक्ष की एक शाखा मात्र थे। बढ़ते बढ़ते एक समय राजपूतों के संगठन में 36 कुल शामिल हो गये थे। इनकी कई बार गणना हुई है। पहले के बाद में जितनी बार भी गणना हुई संख्या बढ़ती ही गई। किंतु नाम 36 ही रहा है। चंद्रबरदाई के बाद कर्नल टोड ने ही शायद इस गिनती को दोहराया था।* यदि आज गिनती की जाए तो यह संख्या अब 200 के करीब पहुंचाएगी क्योंकि तब से कई राज खानदान इस राजपूत संगठन में शामिल हो गए हैं। कपूरथला के अहलूवालिया और पडरौना के कुर्मी तो अभी पिछले 15-20 वर्षों में ही दीक्षित हुए हैं। बस इस संगठन में जो भी क्षत्रिय खानदान शामिल नहीं हुए उन्हें ही क्षत्रीयेतर वृषल और शूद्र तक कहने की धृष्टता की गई। हालांकि खत्री, लुहाना, धाकड़, गुर्जर, रवा और जाट पुरातन क्षत्रियों में से हैं। जाटों ने अनेक प्रकार के कष्ट सहकर भी उन रिवाजों को आज तक नहीं छोड़ा है जो वैदिक काल के उनके पूर्वजों द्वारा निर्धारित की गई थी।


* कर्नल टॉड ने इस 36 कुलों की संख्या में जाटों का भी नाम दर्ज किया है।


[पृ.31]: धार्मिक विद्वेष से बौद्ध काल के बाद के ब्राह्मणों और उनके अनुयायियों ने जाटों को गिराने के लिए ही यह कहना आरंभ किया था कि वे क्षत्रिय नहीं हैं। वरना क्या कारण है कि एक राजपूत प्रमार तो क्षत्रिय है और दूसरा जाट प्रमार क्षत्रीय नहीं है। जबकि वे दोनों इस बात को स्वीकार करते हैं कि हमारे दोनों के बाप-दादा एक ही थे। जाटों में वे सारे गोत्र मौजूद हैं जो राजपूतों की 36 कुलों में गिने जाते हैं। जाट और राजपूतों में जिनके गोत्र मिलते हैं रक्त का तो कोई अंतर है नहीं। हां रिवाजों का थोड़ा अंतर अवश्य है।

और (....?) ही कि जाट अधिकांशत: मांस भक्षण, कन्यावध, गुला...., विधवाओं से आजन्म वैधव्य पालन कराने, स्त्रियों को चारदीवारी में बंद रखने की राक्षसी प्रथाओं का पालन नहीं करते है।

विचार स्वातंत्र्य एक अच्छी बात है किंतु जब यह आजाद ख्याली सांप्रदायिकता का रूप पकड़ लेती है तो विष का काम देने लगती है। इसी सांप्रदायिकता ने ही ईरानी आर्यों को भारतीय आर्यों से असुर कहलवाया। उन्होंने भी इन्हें सुर (ईरानी भाषा में शराबी) कहा। * कहाँ तक कहें अनेकों सूर्यवंशी और चंद्रवंशी खानदानों को वृषल की पदवी से बदनाम किया था:-

शनकैस्तु कियालोपादिमा क्षत्रियजातयः। वृषलत्वं गता लोके ब्राह्मणादर्शनेन च ॥


[पृ.32]: पौंड्रकाश्चौडद्रिवडाः कम्बोजा: यवनाः शकाः । पारदा पल्हवाश्चीन: किराता दरदाः खशाः ॥

अर्थात् - पौन्ड्र, ओड, द्रविड़, कम्बोज, शक, पारद, पल्हव, चीन, किरात, दरद, खश ये क्षत्रिय जातियां हैं किन्तु ब्राह्मणों के दर्शन न करने और क्रियालोप होने से वृषल हो गईं।

देशों को पतित करार दिया : यह बात तो जातियों की है। उन देशों को भी पतित करार दे दिया जिनमें अपने संप्रदाय के आदमी न थे। ब्राह्मण लोग मगध को मलेच्छों का देश मानते थे और जैन लोग ब्रह्मावर्त और काशी को अपवित्र देश कहते थे।

धार्मिक संघर्षों का इतिहास बड़ा मजेदार है। ये पहले पहल ईरानी और पंजाबी आर्यों के बीच आरंभ हुआ था। कुछ लोग तो कैस्पियन समुद्र के किनारे हुआ बताते हैं। समुद्र-मंथन की कथा कैस्पियन सागर के किनारे की ही बताई जाती है। इसके बाद का भारत का धार्मिक संघर्ष वह है जिसमें द्रविड़ लोगों को राक्षस करार दे दिया गया और भीलों को अन्त्यज्य एवं दस्यु। परशुराम और कार्तवीर्यार्जुन के संघर्ष में ब्राह्मण वर्ग ने अहीरों को क्षत्रीय के महानपद से धकेल दिया। इसके अलावा अनेकों और भी सांप्रदायिक संघर्ष भारत में हुए। इन सब में अधिक प्रसिद्ध बौद्ध और ब्राह्मण संघर्ष ही है। जिसका वर्णन हम ऊपर कर चुके हैं। इतना वर्णन करने से हमारा केवल यही मतलब है कि सिर्फ सांप्रदायिक द्वेष से


[पृ.33]:मध्य काल के कुछ लोग जाटों को क्षत्रीय कहने में अपनी हेटी समझते थे वरना वे क्षत्रिय तो हैं ही। और यही कारण है उन्हें लेख रुप में क्षत्रीय के सिवा कुछ और बताने की हिम्मत किसी की नहीं हुई। हालांकि राजपूतों के संबंध में एकाध कृतघ्न स्मृतिकार उन्हें करण कन्या में उत्पन्न होने की बात लिख गया है।

खेती करने से जाट क्षत्रिय से वैश्य नहीं हो सकते

एक-दो इतिहासकारों ने जाटों को, क्योंकि वह खेती करते हैं और पशु पालते हैं इसलिए वैश्य लिखा है। श्री सी वी वैद्य ने भी यही भूल की है। वह कहते हैं कि जाट वैदिक जमाने के विश या वैश्य हैं। केवल खेती करने से जाट क्षत्रिय से वैश्य नहीं हो सकते। वैदिक काल में तो सभी लोग खेती करते थे यहां तक कि राजा लोग भी हल चलाते थे। जैसा कि ऋगवेद के इन मंत्रों से प्रकट होता है:

यवं वृकेणाश्विन्त वपंतेषं दुहन्ता मनुषाय दस्रा। अभि दस्युं बकुरेण धमन्तोरु ज्योतिषश्चक्र थूरार्य्याय॥(ऋगवेद 1.117.23)

अर्थात - (दस्रा+अश्विना) दर्शनीय राजन तथा मंत्रिन् आप दोनों (वृकेण) लांगल+खेती करने के कर्षक यंत्र से (यवम्+ पवन्ता) जौ जाति के अन्न को बोते हो, (इषम्+दुहन्ता) निराले हो, तथा बकुरेण = बकुर नामक यंत्र से (दस्युं+अभि+धमन्तो) फसल को नुकसान पहुंचाने वाले


[पृ.34]:जंतुओं से रक्षा करते हो,इस प्रकार तीनों कामों से आर्यजनों के लिए (उरु+ज्योति) लाभ एवं प्रकाश का कार्य कर रहे हो। अतः आप प्रशंसनीय हो।

इन्द्रः सीतां नि गर्ह्णातु ताम पूषानु यछतु। सा नः पयस्वती दुहाम उत्तराम-उत्तरां समाम॥ (ऋग्वेद 4.57.4)

अर्थात (इंद्र) राजा हो वह (सीताम+निगर्ह्णातु) लांगल को पकड़े और (ताम+अनु) पीछे उस सीता (हल) संबंधी खेती क्रिया को (पूषा) मंत्री आदि (मि+यच्छतु) नियम में चलावें (उतराम्+उतराम+समाम्) प्रत्येक वर्ष के अंत में (सा+पयस्वती+ दुहांत्) वह खेती दूध देने वाली अर्थात फसल देने वाली होवे।

सीरा युञ्जन्ति कवयो युगा वि तन्वते पर्थक। धीरादेवेषु सुम्नया॥ (ऋग्वेद 10.101.4)

अर्थात - विद्वान लोग अर्थात खेती कर्म में सुविज्ञजन हल में बैल जोतते हैं। और जुओं से ढंग से बैलों की गर्दन पर रखते हैं। यह सब जनता के भले के लिए करते हैं।

यह उदाहरण तो हुये खेती करने के लिए। अब पशु पालन के संबंध में भी देखिये।

आ निवर्त नि वर्तय पुनर्न इन्द्र गा देहि। जीवाभिर्भुनजामहै॥ (ऋग्वेद 10.19.6)

[पृ.35]: अर्थात - हे भगवान आप मेरे घर में आवें। प्रत्येक काम में सहायता करें। बारंबार गौ देवें। जिससे हम जीवन प्रद गौओं से विविध भोगों को भोगें।

तामे अश्विना सनीनां विद्यान्त न वातां यथा चिद्। चैद्य: कशु: शतमुष्ट्राणां ददत् साहस्रा दश गोनाम्॥ (ऋग्वेद 8.5.37)

अर्थात - हमारे परिश्रमी पुत्र पौत्र भ्राता आदि जन नवीन 2 धनों को उपार्जन करें। ...परिश्रम से सर्वदृष्ट ईश्वर एक सौ ऊंट और हजारों गायें दें।

जाट क्षत्रिय होने के प्रमाण

हम जानते हैं कि प्राचीन ग्रंथ में लिखा नहीं मिलता जिसमें खेती और गौपालन क्षत्रियों के लिए वर्जित करार दिया हो। किन्तु गण राज्यों में तो यह नियम था कि शांति के समय लोग खेती और युद्ध के समय तलवार हाथ में पकड़ें। ऐसे क्षत्रियों को कृष्योपजीवी कहा है अर्थात जिनकी आयुद्ध के सिवा दूसरी जीविका खेती हो।

दूसरी यह भी बात है कि जाट लोगों में कोई भी गोत्र ऐसा नहीं है जो वैश्यों से मिलता हो। न उनकी दंत कथाओं में ऐसा जिक्र आता है जिससे उनके वैश्य होने का संदेह किया जा सके। उनका रहन सहन, पहनावा, भाषा और स्वभाव कुछ भी वैश्यों से नहीं मिलता। रीति रिवाज और संस्कारों की प्रणाली सभी उनकी वैश्यों से भिन्न है।


[पृ.36]: वास्तव में तो इस प्रकार की धारणा रखने वाले सज्जनों ने जाट और जट शब्द के अर्थो अथवा व्युत्पति पर ध्यान नहीं दिया है।

जाटों के संबंध में उनके क्षत्रिय होने के प्रमाण देना तो वास्तव में ऐसा है जैसा सूर्य को दिखाने के लिए दीपक को काम में लाया जाए।

यदि वैदिक कालीन वर्ण व्यवस्था के आधार पर संगठित हुई भारत में कोई क्षत्रिय जाति है तो जाट जाति का उनमें पहला नंबर है। वे उन राजवंशों के वास्तविक उत्तराधिकारी हैं जिनके यशगान के लिए महाभारत, रामायण .... जैसे महान ग्रंथ बने थे। सदियाँ बीत गई और तूफान उनके सिर पर से उतर गए। किन्तु उन्होने अपने पूर्वजों की मर्यादा को नहीं छोड़ा है। वे आज भी कृष्ण युधिष्ठिर की तरह आज़ाद खयाल के हैं। इसी बात को धर्म-इतिहास के लेखक ने इस भांति लिखा है -

"जाट जाति में कुछ बात अभी तक प्राचीन चंद्रवंशी क्षत्रियों अर्थात कौरव पांडवों से टक्कर खाती हैं।"

तीसरा परिच्छेद समाप्त

विषय-सूची पर वापस जावें