Kalinjar

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Kalinjar Fort

Kalinjar (कालिंजर) is a fortress-city in Banda District of Uttar Pradesh. Its ancient name was Kalanjara (कालंजर) as recorded in Mahabharata. Its antiquity is proved by its mention in the Mahabharata.

Variants

  • Kalinjara (कलिंजर) दे. कालिंजर (AS, p.150)
  • Kalinjara (कालिंजर) = Kalanjara (कालंजर) (तहसील नरेली, जिला बांदा, उ.प्र.) (AS, p.179)
  • Kalanjara (कालांजर) = Kalinjara (कालिंजर) (AS, p.176)

Location

Banda district map

कालंजर (तहसील नरेली, जिला बांदा, उ.प्र.) (AS, p.179): अतर्रा नामक स्थान से यह ग्राम 24 मील दूर है.

The fortress is strategically located on an isolated rocky hill at the end the Vindhya Range, at an elevation of 1203 feet overlooking the plains of Bundelkhand.

In Mahabharata

Kalanjara (कालंजर) (Mount)/(Tirtha) is mentioned in Mahabharata (III.83.53), (III.85.15), (XIII.26.34)


Vana Parva, Mahabharata/Book III Chapter 83 mentions the tirthas: Kalanjara (कालंजर) (Mount)/(Tirtha) is mentioned in Mahabharata (III.83.53).[1].... There in that tirtha is the mountain known over the whole world and called Kalanjara (कालंजर) (III.83.53). Bathing in the celestial lake that is there, one acquires the merit of giving away a thousand kine. He that, O king, after a bath, offereth oblations (to the gods and the Pitris) on the Kalanjara mountain, is, without doubt, regarded in heaven. Proceeding next, O monarch, to the river Mandakini (मन्दाकिनी) (III.83.55) capable of destroying all sins and which is on that best of mountains called Chitrakuta (चित्रकूट) (III.83.55), he that bathes there and worships the gods and the Pitris, obtains the merit of the horse-sacrifice and attains to an exalted state.....


Vana Parva, Mahabharata/Book III Chapter 85 mentions sacred asylums, tirthas, mountans and regions of eastern country. Kalanjara (कालंजर) (Mount)/(Tirtha) is mentioned in Mahabharata (III.85.15). [2].....O chief of the Bharata race, that the place hath come to be called Prayaga (प्रयाग) (III.85.14). In this direction, O foremost of kings, lieth the excellent asylum of Agastya (अगस्त्य) (III.85.15), O monarch, and the forest called Tapasa, decked by many ascetics. And there also is the great tirtha called Hiranyavinda (हिरण्यबिन्दु) (III.85.15) on the Kalanjara (कालंजर) (III.85.15) hills, and that best of mountains called Agastya, which is beautiful, sacred and auspicious.


Anusasana Parva/Book XIII Chapter 26 mentions the sacred waters on the earth. Kalanjara (कालंजर) (Mount)/(Tirtha) is mentioned in Mahabharata (XIII.26.34). [3]....Bathing in the confluence of the Ganga and the Yamuna as also at the tirtha in the Kalanjara mountains and offering every day oblations of water to the Pitris for a full month, one acquires the merit that attaches to ten Horse-sacrifices. Bathing in the Shashthi lake one acquires merit much greater than what is attached to the gift of food.

Ancestry of Kalanjar

According to James Todd[4] One great arm of the tree of Yayati remains unnoticed, that of Uru or Urvasu, written by others Turvasu. Uru was the father of a line of kings who founded several empires. Virupa, the eighth prince from Uru, had eight sons, two of whom are particularly mentioned as sending forth two grand shoots, Druhyu and Bhabru. From Druhyu a dynasty was established in the north. Aradwat, with his son Gandhara, is stated to have founded a State : Prachetas is said to have become king of Mlecchhades, or the barbarous regions. This line terminated with Dushyanta, the husband of the celebrated Sakuntala, father of Bharat, and who, labouring under the displeasure of some offended deity, is said by the Hindus to have been the cause of all the woes which subsequenty befell the race. The four grandsons of Dushyanta, Kalanjar, Keral, Pand, and Chaul, gave their names to countries.

History

It served several of Bundelkhand's ruling dynasties, including the Chandela dynasty in the 10th century, and the Solankis of Rewa. The fortress contains several temples, dating as far back as the Gupta dynasty of the 3rd-5th centuries.

Kalinjar means The destroyer of time in Sanskrit. 'Kal' is time and 'jar' destruction. Legend says that after manthan Hindu God, Lord Shiva, drank the poison and his throat became blue (hence the name Neel (blue) Kantha (throat)) and he came to Kalinjar and overcome the 'Kal' i.e. he achieved victory over death. This is the reason the Shiva temple at Kalinjar is called Neelkanth.

Its origin being shrouded in mystery, not much is known as to when and by whom the fort was built on this holy hill, though modern historians conjecture that Bargujar Kings built it from 150 to 250 CE. The fort contains Shiva temple of Neelkanth Mahadev. Similar to the one built by King Manthandev Bargujar,(a shilalekh/rock edict stands testimony to this fact,now inside Sariska Tiger Reserve ) confirmed by Col.James Tod in his classical, "Annals and Antiquties of Rajasthan" 18th century British historian,and at Baroli near Rana Sagar Dam. Later the Bargujars were part of a much bigger Gurjara–Pratihara Empire in North India which was at its peak from 500 to 1150 CE.

The Hindu princes of different dynasties as well as the Muslim rulers fought hard to conquer it and the fort continued to pass from one ruler to another. But, except for the Chandelas, no other ruler could reign over it for long, Chandelas are also a branch of the Bargujars called Chandela Rajputs.

It was besieged by Mahmud of Ghazni in 1023 without success, and later by the Mughal Babur who was the only commander in history to have captured the fort in 1526 when driving away Raja Hasan Khan Mewattpati. It was also the place where Sher Shah Suri met his death in 1545 when he was killed either in the fort or nearby on the grounds.

James Tod[5] writes that The warriors assembled under Visaladeva Chauhan against the Islam invader included the Chandels, who contended with Pirthi Raj, who deprived them of Mahoba and Kalinjar, and all modern Bundelkhand.

कालिंजर

विजयेन्द्र कुमार माथुर[6] ने लेख किया है ...कालिंजर = कालंजर (तहसील नरेली, जिला बांदा, उ.प्र.) (AS, p.179): अतर्रा नामक स्थान से यह ग्राम 24 मील दूर है. इसके निकट ही कालिंजर का इतिहास प्रसिद्ध दुर्ग है. पहाड़ी पर बना हुआ यह प्रसिद्ध दुर्ग भारत के प्राचीनतम स्मारकों में से एक है. महाभारत काल में पांडवों ने अपने वनवास का कुछ समय यहां बिताया था. इस के नामकरण के विषय में शिवपुराण की कथा है कि इसी पर्वत पर काल को जीर्ण किया गया था इसी कारण यह कालंजर कहलाया. पुराणों के मत में सतयुग में इस दुर्ग का नाम कीर्तिदुर्ग क्रेता में महत्गिरि और द्वापर में पिंगलागढ़ था. पर्वत पर कई स्थानों पर श्री राम के वनवास काल में यहां ठहरने के कुछ चिन्हों का निर्देश किया जाता है किंतु यह उतने प्राचीन नहीं जान पड़ते. अकबर का समकालीन इतिहास लेखक फरिश्ता लिखता है कि इस किले की बुनियाद केदार ब्रह्म नामक ब्राह्मण ने डाली थी जो हिंद का राजा था और कालिंजर में रहता था. इसने 19 वर्ष राज्य किया. राजा केदार कुछ समय तक ईरान के शाह कैकाओस और खुसरो के अधीन रहा. अंत में उसे कालिंजर का किला राजा शंकर को दे देना

[p.180] पड़ा. शंकर अपने पुत्र पुर्त को राज्य सौंप कर तूरान चला गया. फरिश्ता के इस वर्णन में कितनी सच्चाई है यह कहना कठिन है किंतु इससे दुर्ग की प्राचीनता अवश्य सिद्ध होती है. दूसरी या तीसरी सदी ई.पू. में कालिंजर पर मौर्यों का शासन रहा. कालांतर में कनिष्क (दूसरी सदी ई.) में और तत्पश्चात गुप्त नरेश और हर्ष का क्रम से यहां राज्य रहा.

हर्ष के पश्चात मध्ययुग में राजपूतों की अनेक रियासतों ने अपना आधिपत्य कालिंजर पर स्थापित किया. एक किंवदंती के अनुसार यहां के दुर्ग का निर्माण चंदेल नरेश चंद्रवर्मा ने किया था. राजा कीर्तिवर्मन् के समय में इस दुर्ग की ख्याति दूर दूर तक पहुंच गई थी. महमूद गजनवी ने 1022 ई. में यहां आक्रमण किया और उसे तत्कालीन नरेश गंगदेव चंदेल से करारी हार खानी पड़ी. 1203 ई. में राजा परमाल को कुतुबुद्दीन ऐबक की सेनाओं के आगे झुकना पड़ा. जिसके फलस्वरूप कालिंजर के सब मंदिरों को मुसलमानों ने तोड़ कर वहां की भूमि को सहस्रों हिंदुओं के रक्त से रंग दिया. यह वृतांत तत्कालीन इतिहासकार ताजुलमासिर के लेखक ने लिखा है. सुल्तान इल्तुतमिश के दिल्ली में राज्य करने के समय कालिंजर पर खंगार राजपूतों का अधिकार था. सोहनपाल बुंदेला ने 1266 ई. में खंगरों को समाप्त कर यह किला छीन लिया. शेरशाह सूरी ने 1545 ई. में कालिंजर पर आक्रमण किया. तब यह किला बुंदेलों के हाथ में ही था. यहां बारूदखाने में आग लग जाने से शेरशाह सूरी बुरी तरह जल गया और थोड़े ही दिन बाद परलोक सिधार गया. कालिंजर की पहाड़ी पर शेरशाह की कब्र बनी है (शेरशाह का मकबरा सहसराम बिहार में है). शेरशाह ने दुर्ग को लेने के पश्चात अपने दामाद अलीखां को यहां का सूबेदार बनाया था. 1550 ई. में रीवा नरेश महाराज रामचंद्र ने अलीखां से यह दुर्ग खरीद लिया. तत्पश्चात अकबर और फिर भटराजपूतों ने यहां राज्य किया. 1666 ई. में औरंगजेब से भटराजाओं ने इसे छीन लिया. उसने दुर्ग के सात दरवाजों में से एक का नाम आलम-दरवाजा रखा. 1673 ई. में इसका जीर्णोद्धार करवाया गया. इस पर फारसी में 'साद अजीम' तिथि लेख खुदा है जिससे 1084 हिजरी सन् निकलता है. एक पत्थर पर औरंगजेब ने निम्न शेरें अंकित करवाई थी: शाह औरंगजेब दी परवर शुद मरम्मत चूँ किला कालिंजर; चूँ मोहम्मद मुराद आज हुकमश शाख्त दर हामुहकनों खुशत आज खिरद माल जुस्त मशमी गुफ़त सद अजीम चूँ सद असकन्दर'.

1677 ई. में बुंदेला-नरेश छत्रसाल ने औरंगजेब के सूबेदार करमइलाही से यह दुर्ग छीन लिया और उसके स्थान में मांधाता चौबे को किलेदार बनाया और 500 सैनिक यहां नियुक्त किए. मांधाता

[181]: के वंशजों का अधिकार यहां 1822 ई. तक रहा. इस वर्ष अंग्रेजों ने कालिंजर को जीत लिया और चौबों को कुछ जागीर देकर संतुष्ट कर दिया. इस लड़ाई में अंग्रेजों के काफी सैनिक मारे गए थे जिनकी कब्रें दुर्ग के पास मनीपुर में बनी हैं.

कालिंजर में आलमगिरी दरवाजे के अतिरिक्त छह अन्य प्रवेश द्वार हैं. 1. गणेशद्वार, जिसे मुसलमान काफिर घाटी दरवाजा कहते थे क्योंकि यहां की चढ़ाई बहुत कठिन है. 2. चंडी-द्वार जहां शिवोपासना संबंधी 1199, 1570, 1580 और 1600 ई. के अभिलेख अंकित हैं और समीप ही एक सुंदर भवन (राजमहल) है; 3. हनुमान द्वार- 1580 के विक्रम संवत वाला द्वार हनुमान द्वार जो हनुमान कुंड के पास है, जहां 1560 और 1580 विक्रम संवत के कई अभिलेख हैं. 4. लाल द्वार और अंतिम शिव पार्वती की मूर्तियों वाला द्वार जिस के समीप पहाड़ी में सीता कुंड नामक झरना है जहां दिन में भी अंधेरा रहता है. पास ही सीता-सेज है. इन स्थानों का संबंध वनवासकाल में रामचंद्र जी के यहां कुछ समय तक निवास करने से बताया जाता है. हनुमान द्वार और लालद्वार के बीच सिद्धगुफा नामक स्थान है जहां से भैरवकुंड को मार्ग जाता है.

कालिंजर दुर्ग के अन्य उल्लेखनीय स्थल ये हैं-- पातालगंगा, पांडू-कुण्ड, कोटि-तीर्थ, नीलकंठ मंदिर और भगवान सेज. पातालगंगा के समीप हुमायूँ के नाम का एक अभिलेख 936 हिजरी = 1558 ई. का है. कोटितीर्थ में कई प्राचीन भवन तथा तडाग आदि हैं. नीलकंठ मंदिर पवित्र तीर्थ है. यहां 1194,1200, 1400, 1579 विक्रम-संवत के कई के कई लेख और अनेक खंडित मूर्तियाँ विद्यमान हैं. भगवान सेज में पत्थर की सैया है. वृद्धक-क्षेत्र का संबंध चंदेल राजा कीर्तिब्रह्म से बताया जाता है. पांडुकुण्ड पातालगंगा के समीप एक झरने से बना हुआ कुण्ड है जिसका संबंध पांडवों से बताया जाता है. महाभारत वन पर्व 85, 46-53 और पद्मपुराण आदि. 39, 52-53 के अनुसार कालिंजर पर्वत तुंगारण्य या तुंगकारण्य में स्थित था. इस पर्वत पर स्थित देवहृद तीर्थ का वर्णन वनपर्व 85,56- में इस प्रकार है-- अत्र कालंजरंनाम पर्वतं लॊकविश्रुतम् तत्र देवह्रदे सनात्वा गॊसहस्रफलं लभेत,यो स्नात: साधयेत् तत्र गिरौ कालंजरे नृप, सवर्गलॊके महीयेत नरॊ नास्त्य अत्र संशयः'।

कालिंजर परिचय

उत्तर प्रदेश के बुंदेलखण्ड क्षेत्र में बांदा ज़िले में स्थित पौराणिक संदर्भ वाला एक ऐतिहासिक दुर्ग है। भारतीय इतिहास में सामरिक दृष्टि से यह क़िला काफ़ी महत्त्वपूर्ण रहा है। यह विश्व धरोहर स्थल प्राचीन नगरी खजुराहो के निकट ही स्थित है। कालिंजर दुर्ग भारत के सबसे विशाल और अपराजेय क़िलों में एक माना जाता है। एक पहाड़ी की चोटी पर स्थित इस क़िले में अनेक स्मारकों और मूर्तियों का खजाना है। इन चीज़ों से इतिहास के विभिन्न पहलुओं का पता चलता है। चंदेलों द्वारा बनवाया गया यह क़िला चंदेल वंश के शासन काल की भव्य वास्तुकला का उम्दा उदाहरण है। इस क़िले के अंदर कई भवन और मंदिर हैं। इस विशाल क़िले में भव्य महल और छतरियाँ हैं, जिन पर बारीक डिज़ाइन और नक्काशी की गई है। क़िला भगवान शिव का निवास स्थान माना जाता है। क़िले में नीलकंठ महादेव का एक अनोखा मंदिर भी है।

इतिहास: इतिहास के उतार-चढ़ावों का प्रत्यक्ष गवाह बांदा जनपद का कालिंजर क़िला हर युग में विद्यमान रहा है। इस क़िले के नाम अवश्य बदलते गये हैं। इसने सतयुग में कीर्तिनगर, त्रेतायुग में मध्यगढ़, द्वापर युग में सिंहलगढ़ और कलियुग में कालिंजर के नाम से ख्याति पायी है। कालिंजर का अपराजेय क़िला प्राचीन काल में जेजाकभुक्ति साम्राज्य के अधीन था। जब चंदेल शासक आये तो इस पर महमूद ग़ज़नवी, कुतुबुद्दीन ऐबक और हुमायूं ने आक्रमण कर इसे जीतना चाहा, पर कामयाब नहीं हो पाये। अंत में अकबर ने 1569 ई. में यह क़िला जीतकर बीरबल को उपहार स्वरूप दे दिया। बीरबल के बाद यह क़िला बुंदेल राजा छत्रसाल के अधीन हो गया। इनके बाद क़िले पर पन्ना के हरदेव शाह का कब्जा हो गया। 1812 ई. में यह क़िला अंग्रेज़ों के अधीन हो गया।

कालिंजर के मुख्य आकर्षणों में नीलकंठ मंदिर है। इसे चंदेल शासक परमादित्य देव ने बनवाया था। मंदिर में 18 भुजा वाली विशालकाय प्रतिमा के अलावा रखा शिवलिंग नीले पत्थर का है। मंदिर के रास्ते पर भगवान शिव, काल भैरव, गणेश और हनुमान की प्रतिमाएं पत्थरों पर उकेरी गयीं हैं। इतिहासवेत्ता राधाकृष्ण बुंदेली व बीडी गुप्त बताते हैं कि यहां शिव ने समुद्र मंथन के बाद निकले विष का पान किया था। शिवलिंग की खासियत यह है कि उससे पानी रिसता रहता है। इसके अलावा सीता सेज, पाताल गंगा, पांडव कुंड, बुढ्डा-बुढ्डी ताल, भगवान सेज, भैरव कुंड, मृगधार, कोटितीर्थ व बलखंडेश्वर, चौबे महल, जुझौतिया बस्ती, शाही मस्जिद, मूर्ति संग्रहालय, वाऊचोप मकबरा, रामकटोरा ताल, भरचाचर, मजार ताल, राठौर महल, रनिवास, ठा. मतोला सिंह संग्रहालय, बेलाताल, सगरा बांध, शेरशाह सूरी का मक़बरा व हुमायूं की छावनी आदि हैं।

इस दुर्ग के निर्माणकर्ता के नाम का ठीक-ठीक साक्ष्य कहीं नहीं मिलता, पर जनश्रुति के अनुसार चंदेल वंश के संस्थापक चंद्रवर्मा द्वारा इसका निर्माण कराया गया था। चन्देल शासकों द्वारा 'कालिन्जराधिपति' (कालिंजर के अधिपति) की उपाधि का प्रयोग उनके द्वारा इस दुर्ग को दिये गए महत्त्व को दर्शाता है। कतिपय इतिहासकारों के मुताबिक इस दुर्ग का निर्माण केदारवर्मन द्वारा ईसा की दूसरी से सातवीं शताब्दी के मध्य कराया गया था। कुछ इतिहासकारों का मत है कि इसके द्वारों का निर्माण मुग़ल शासक औरंगज़ेब ने करवाया था। कालिंजर दुर्ग में प्रवेश के लिए सात द्वार थे। इनमें आलमगीर दरवाजा, गणेश द्वार, चौबुरजी दरवाजा, बुद्धभद्र दरवाजा, हनुमान द्वार, लाल दरवाजा और बारा दरवाजा थे। अब हालत यह है कि समय के साथ सब कुछ बदलता गया। दुर्ग में प्रवेश के लिए तीन द्वार कामता द्वार, रीवां द्वार व पन्नाद्वार हैं। पन्नाद्वार इस समय बंद है।

स्थापत्य: कालिंजर दुर्ग विंध्याचल की पहाड़ी पर 700 फीट की ऊंचाई पर स्थित है। दुर्ग की कुल ऊंचाई 108 फ़ीट है। इसकी दीवारें चौड़ी और ऊंची हैं। इनकी तुलना चीन की दीवार से की जाये तो कोई अतिश्योक्ति न होगी। कालिंजर दुर्ग को मध्यकालीन भारत का सर्वोत्तम दुर्ग माना जाता था। इस दुर्ग में स्थापत्य की कई शैलियाँ दिखाई देती हैं, जैसे गुप्त शैली, प्रतिहार शैली, पंचायतन नागर शैली आदि। प्रतीत होता है कि इसकी संरचना वास्तुकार ने अग्निपुराण, बृहदसंहिता तथा अन्य वास्तु ग्रन्थों के अनुसार की है। क़िले के बीचों-बीच अजय पलका नामक एक झील है, जिसके आसपास कई प्राचीन काल के निर्मित मंदिर हैं। यहाँ ऐसे तीन मंदिर हैं, जिन्हें अंकगणितीय विधि से बनाया गया है। दुर्ग में प्रवेश के लिए सात दरवाजे हैं और ये सभी दरवाजे आपस में एक-दूसरे से भिन्न शैलियों से अलंकृत हैं। यहाँ के स्तंभों एवं दीवारों में कई प्रतिलिपियां बनी हुई हैं, जिनमें मान्यता के अनुसार यहाँ के छुपे हुए खजाने की जगह का रहस्य भी छुपा हुआ है।


कालिंजर दुर्ग एवं इसके नीचे तलहटी में बसा कस्बा, दोनों ही इतिहासकारों की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं, क्योंकि यहाँ मन्दिरों के अवशेष, मूर्तियां, शिलालेख एवं गुफ़ाएं आदि सभी उनके रुचि के साधन हैं। कालिंजर दुर्ग में कोटि तीर्थ के निकट लगभग 20 हजार वर्ष पुरानी शंखलिपि स्थित है, जिसमें रामायण काल में वनवास के समय राम के कालिंजर आगमन का भी उल्लेख किया गया है। इसके अनुसार श्रीराम, सीता कुंड के पास सीता सेज में ठहरे थे। कालिंजर शोध संस्थान के तत्कालीन निदेशक अरविंद छिरौलिया के कथनानुसार इस दुर्ग का विवरण अनेक हिन्दू पौराणिक ग्रन्थों जैसे पद्मपुराण व वाल्मीकि रामायण में भी मिलता है। इसके अलावा बुड्ढा-बुड्ढी सरोवर व नीलकंठ मंदिर में नौवीं शताब्दी की पांडुलिपियां संचित हैं, जिनमें चंदेल वंश कालीन समय का वर्णन मिलता है।

दुर्ग के प्रथम द्वार में 16वीं शताब्दी में औरंगज़ेब द्वारा लिखवाई गई प्रशस्ति की लिपि भी है। दुर्ग के समीपस्थ ही काफिर घाटी है। इसमें शेरशाह सूरी के भतीजे इस्लामशाह की 1545 ई. में लगवायी गई प्रशस्ति भी यहाँ उपस्थित है। इस्लामशाह ने अपना दिल्ली पर राजतिलक होने के बाद यहाँ के कोटि तीर्थ में बने मन्दिरों को तुड़वाकर उनके सुन्दर नक्काशीदार स्तंभों का प्रयोग यहाँ बनी मस्जिद में किया था। इसी मस्जिद के बगल में एक चबूतरा बनवाया था, जिस पर बैठकर उसने ये शाही फ़रमान सुनाया था कि अब से कालिंजर कोई तीर्थ नहीं रहेगा एवं मूर्ति-पूजा को हमेशा के लिये निषेध कर दिया था। इसका नाम भी बदल कर शेरशाह की याद में 'शेरकोह' (अर्थात शेर का पर्वत) कर दिया था। बी. डी. गुप्ता के अनुसार कालिंजर के यशस्वी राजा व रानी दुर्गावती के पिता कीर्तिवर्मन सहित उनके 72 सहयोगियों की हत्या भी उसी ने करवायी थी। दुर्ग में ऐतिहासिक एवं धार्मिक महत्त्व के ढेरों शिलालेख जगह-जगह मिलते हैं, जिनमें से अनेक लेख हजारों वर्ष पूर्व अति प्राचीन काल के भी हैं।

नीलकंठ मन्दिर: क़िले के पश्चिमी भाग में कालिंजर के अधिष्ठाता देवता नीलकंठ महादेव का एक प्राचीन मंदिर भी स्थापित है। इस मंदिर को जाने के लिए दो द्वारों से होकर जाते हैं। रास्ते में अनेक गुफ़ाएँ तथा चट्टानों को काट कर बनाई शिल्पाकृतियाँ बनायी गई हैं। वास्तुशिल्प की दृष्टि से यह मंडप चंदेल शासकों की अनोखी कृति है। मंदिर के प्रवेश द्वार पर परिमाद्र देव नामक चंदेल शासक रचित शिवस्तुति है व अंदर एक स्वयंभू शिवलिंग स्थापित है। मन्दिर के ऊपर ही जल का एक प्राकृतिक स्रोत है, जो कभी सूखता नहीं है। इस स्रोत से शिवलिंग का अभिषेक निरंतर प्राकृतिक तरीके से होता रहता है। बुन्देलखण्ड का यह क्षेत्र अपने सूखे के कारण भी जाना जाता है, किन्तु कितना भी सूखा पड़े, यह स्रोत कभी नहीं सूखता है। चन्देल शासकों के समय से ही यहाँ की पूजा-अर्चना में लीन चन्देल राजपूत जो यहाँ पण्डित का कार्य भी करते हैं, वे बताते हैं कि शिवलिंग पर उकेरे गये भगवान शिव की मूर्ति के कंठ का क्षेत्र स्पर्श करने पर सदा ही मुलायम प्रतीत होता है। यह भागवत पुराण के सागर मंथन के फलस्वरूप निकले हलाहल विष को पीकर, अपने कंठ में रोके रखने वाली कथा के समर्थन में साक्ष्य ही है। मान्यता है कि यहाँ शिवलिंग से पसीना भी निकलता रहता है।

ऊपरी भाग स्थित जलस्रोत हेतु चट्टानों को काटकर दो कुंड बनाए गए हैं, जिन्हें स्वर्गारोहण कुंड कहा जाता है। इसी के नीचे के भाग में चट्टानों को तराशकर बनायी गई कालभैरव की एक प्रतिमा भी है। इनके अलावा परिसर में सैकड़ों मूर्तियाँ चट्टानों पर उत्कीर्ण की गई हैं। शिवलिंग के समीप ही भगवती पार्वती एवं भैरव की मूर्तियाँ भी स्थापित हैं। प्रवेश द्वार के दोनों ही ओर ढेरों देवी-देवताओं की मूर्तियां दीवारों पर तराशी गयी हैं। कई टूटे स्तंभों के परस्पर आयताकार स्थित स्तंभों के अवशेष भी यहाँ देखने को मिलते हैं। इतिहासकारों के अनुसार इन पर छः मंजिला मन्दिर का निर्माण किया गया था। इसके अलावा भी यहाँ ढेरों पाषाण शिल्प के नमूने हैं, जो कालक्षय के कारण जीर्णावस्था में हैं।

निकटवर्ती दर्शनीय स्थल: यहाँ ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण कई दर्शनीय स्थल हैं, जो पुरा-पाषाण काल से बुन्देल शासकों के समय तक के हैं। इनमें रौलीगोंडा, मईफ़ा, बिल्हरियामठ, ऋषियन, शेरपुर श्योढ़ा, रनगढ़, अजयगढ़, आदि हैं। प्राकृतिक दृष्टि से आकर्षक स्थलों की भी कमी नहीं है। इनमें बाणगंगा, व्यासकुण्ड, भरत कूप, पाथरकछार, बृहस्पति कुण्ड, लखनसेहा, किशनसेहा, सकरों एवं मगरमुहा, आदि आते हैं। इन स्थानों में अनेक खनिज एवं विभिन्न वन सम्पदाएं भी मिलती हैं।


बस मार्ग: बांदा रेलवे स्टेशन कालिंजर का निकटवर्ती बड़ा रेलवे स्टेशन है। कालिंजर की भौगोलिक स्थिति दक्षिण-पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बुन्देलखण्ड क्षेत्र के बाँदा ज़िले से दक्षिण पूर्व दिशा में ज़िला मुख्यालय, बाँदा शहर से 55 कि.मी. की दूरी पर है। बाँदा शहर से बस द्वारा बारास्ता गिरवाँ, नरौनी, कालिंजर पहुँचा जा सकता है। कालिंजर प्रसिद्ध विश्व धरोहर स्थल एवं पर्यटक स्थली खजुराहो से 105 कि.मी. दूरी पर है। यहाँ से चित्रकूट 78 कि.मी., बांदा 62 एवं इलाहाबाद 205 कि.मी. पर है।

रेल मार्ग: रेलमार्ग के द्वारा कालिंजर पहुंचने के लिए अर्तरा रेलवे स्टेशन है, जो झांसी-बांदा-इलाहाबाद रेल लाइन पर पड़ता है। यहाँ से कालिंजर 36 कि.मी. की दूरी पर है। यह स्टेशन बांदा रेलवे स्टेशन से 57 कि.मी. की दूरी पर स्थित है।

वायु मार्ग: वायुमार्ग से आने के लिये कालिंजर से 130 कि.मी. दूर खजुराहो विमानक्षेत्र पर वायु सेवा उपलब्ध है।

In Rajatarangini

Rajatarangini[7] tells us that during the reign of Harsha of Kashmir, in the Kashmrian era 76 (=1100 AD), in the month of Agrahiyana, the two brothers Uchchala and Sussala fled, and reached the seat of the Damaras. One of the Lavanyas, named Prasnastaraja, intending to rise against the king, sent his younger brother Sillaraja, and invited the youths to his territory. But the elder Uchchala went to Rajapuri in the kingdom of Kahla, and the younger went to the king of Kalingjara. None ever thought at that time that these exiles would one day be kings.

Rajatarangini[8] tells us ...The king Sussala was very much grieved at the accession of Kahla to the throne of Kalinjara and at the death of Malla, mother of his-principal queen.

Rajatarangini[9] tells us ...In the meantime Somapala, Vimba and others who were at Lohara came to Parnotsa to fight with king Sussala. Padmaratha, king of Kalinjara, remembered his friendship with Sussala, as he was born of the same family, and came with Kahla and others. The proud Sussala with his strong men came on the thirteenth


[p.79]: bright lunar day of Vaishakha and fought with the enemy. Those who have seen this great battle near Parnotsa describe it to this day. Sussala first wiped his disgrace in this engagement. From that day Sussala's natural vigour returned to him, as the lion returns to the forest. The Turushka soldiers dropped their ropes in fear and were destroyed by Sussala within a short time. Sussala also killed the maternal uncle of Somapala in the battle on the banks of the river Vitola. Though Sussala's army was smaller, yet he defeated tho enemies, killed them and made them flee, and they impeded one another in flight.


According to Rajatarangini[10]this incidence is of the year 1121 AD, when Sussala became king of Kashmir second time.


Rajatarangini[11] tells us that King of Kashmir Sussala was married to the pure Meghamanjari, daughter of Vijayapala. She had lost her father and had been affectionately brought up by her mother's father Kahla, king of Kalindara, as his own child. (p.18)

External links

References

  1. ततः कालंजरं गत्वा पर्वतं लॊकविश्रुतम, तत्र देव हरदे सनात्वा गॊसहस्रफलं लभेत (III.83.53)
  2. अगस्त्यस्य च राजेन्द्र तत्राश्रमवरॊ महान, हिरण्यबिन्दुः कथितॊ गिरौ कालंजरे नृप
  3. गङ्गायमुनयॊस तीर्थे तथा कालंजरे गिरौ, षष्टिह्रद उपस्पृश्य दानं नान्यद विशिष्यते
  4. James Todd Annals/Chapter 4 Foundations of States and Cities by the different tribes, p.52
  5. James Tod: Annals and Antiquities of Rajasthan, Volume II,Annals of Haravati,p.414-416
  6. Aitihasik Sthanavali by Vijayendra Kumar Mathur, p.179-181
  7. Rajatarangini of Kalhana:Kings of Kashmira/Book VII (i),p.263-264
  8. Kings of Kashmira Vol 2 (Rajatarangini of Kalhana)/Book VIII,p.53
  9. Kings of Kashmira Vol 2 (Rajatarangini of Kalhana)/Book VIII,p.78-79
  10. Kings of Kashmira Vol 2 (Rajatarangini of Kalhana)/List of Kings mentioned in Book VIII
  11. Kings of Kashmira Vol 2 (Rajatarangini of Kalhana)/Book VIII, p.18

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