Krishna Jakhar

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Dr. Krishna Jakhar from village Khariyabas, Churu,Rajasthan is an author of Rajasthani and Hindi languages. She is married with Dula Ram Saharan, an author of repute in Rajasthani language.

जीवन परिचय

डॉ. कृष्णा जाखड़ - चूरु (राजस्थान) के एक छोटे से गांव खारियाबास में जन्मी डॉ. कृष्णा जाखड़ राजस्थानी और हिंदी में निरंतर लिखती हैं. आप साहित्य अकादमी, नई दिल्ली के अनुवाद पुरस्कार (राजस्थानी) से भी समादृत हैं. आपकी आलोचनात्मक एवं अनुसूचित कृतियों में- 'प्रभा खेतान के साहित्य में नारी विमर्श', 'हक के लिए', 'नापीजतौ आभौ', 'गाथा विस्तार पार री', 'एक कीड़ी रौ महाभारत' आदि हैं. वर्ष 2020 में आपकी संपादित पुस्तक 'समय से संवाद' (डॉ. घासीराम वर्मा के कुछ पत्र) प्रकाशित हुई है.

समय से संवाद पुस्तक

Samay Se Samvad (समय से संवाद) (डॉ घासीराम वर्मा के कुछ पत्र),
संपादन डॉ. कृष्णा जाखड़, 2020,
एकता प्रकाशन चुरू
मूल्य: 250/-

समय से संवाद पुस्तक की समीक्षा द्वारा आनंद चौधरी

एक 'करोड़पति फकीर' का 'समय से संवाद': विश्व के महान गणितज्ञ और करोड़पति फकीर घासीराम वर्मा के कृतित्व और व्यक्तित्व पर डॉ. कृष्णा जाखड़ द्वारा संपादित पुस्तक 'समय से संवाद' मौजूदा वक्त का एक बेहद जरूरी आख्यान है। एकता प्रकाशन द्वारा प्रकाशित इस पुस्तक में डॉ घासीराम वर्मा के उन पत्रों का उल्लेख है जो उन्होंने अमेरिका से डॉ कृष्णा जाखड़ और साहित्यकार दुलाराम सहारण के नाम लिखे हैं।

पुस्तक के 13 अध्याय शिक्षा, धर्म, संस्कृति, कृषि, इतिहास, भूगोल, खगोल, राजनीति, अर्थनीति जैसे विषयों पर गहरी समझ बनाते हैं। इन पत्रों में अंधविश्वास और रुढ़िवादी परम्पराओं पर जमकर चोट की गई हैं। पुस्तक को पढ़ते हुए सच में यह लगता है कि हम समय के साथ संवाद कर रहे हैं।

यह पुस्तक मैकाले की शिक्षा पद्धति को समझने का भी नया नजरिया देती है। पुस्तक में तीन-चार अध्याय मैकाले की शिक्षा पद्धति पर ही केंद्रित हैं। अब तक हमें पढ़ाया गया कि मैकाले ने हमारे देश की शिक्षा प्रणाली का नाश कर दिया लेकिन यह पुस्तक बताती है कि मैकाले की अंग्रेजी शिक्षा पद्धति नहीं होती तो आज हमारे यहां शिक्षा पाने का अधिकार सिर्फ एक ही वर्ग को होता। दलित-पिछड़े हमेशा अनपढ़ ही रहते। वे आईएएस, आईपीएस और अन्य जगहों तक कभी नहीं पहुंच पाते।

डॉ घासीराम ने समाजसेवी रमा बाई पर भी बहुत विस्तार से लिखा है। उन्होंने रमा बाई को स्वामी विवेकानंद और दयानन्द सरस्वती से भी बढ़कर माना है। अपने पत्र में वे लिखते हैं कि- रमा बाई का अपराध यही था कि वह पुरुष ना होकर स्त्री थी। उन्होंने लिखा है कि वैसे तो सभी धर्मों में स्त्रियों के साथ अन्याय हुआ है लेकिन जो अन्याय, अत्याचार व शोषण हिन्दू धर्म में हुआ है वैसा अन्य किसी धर्म में नहीं हुआ।

रमा बाई पर आधारित एक अन्य अध्याय में वो हिन्दू धर्म की पौराणिक धारणाओं और Our Oriental Heritage किताब का जिक्र करते हए लिखते हैं - यदि कोई शुद्र किसी शुद्र की हत्या कर दे तो उसकी सजा थी कि वह ब्राह्मण को चार गाय दान दे दे। यदि वह किसी वैश्य की हत्या कर दे तो आठ गाय और किसी क्षत्रिय की हत्या पर सोलह गाय ब्राह्मण को दान देनी पड़ती। ब्राह्मण की हत्या पर तो मौत की सजा थी। ओर अगर ब्राह्मण किसी की हत्या कर दे तो उसे देश निकाला दिया जाता था। यानी, एक राजा के आश्रय से वह दूसरे देश के राजा के आश्रय में चला जाता था।

डॉ घासीराम लिखते हैं कि- तुलसीदास को रामचरितमानस लिखने की प्रेरणा उनकी पत्नी रत्नावली से मिली ऐसे में तुलसी को रत्नावली का अहसानमंद होते हुए कम से कम एक दो पुस्तक तो उन्हें समर्पित करनी चाहिए थी लेकिन उन्होंने पुस्तक समर्पित करना तो दूर पूरी स्त्री जाति को अपमानित करने में कसर नहीं छोड़ी।

तुलसी ने लिखा - नारी सुभाऊ सत्य सब कहहीं साहस अनृत चपलता माया, भय अबिबेक असौच अदाया। (स्त्री में साहस है, झूठी है, चंचल है, माया रूपी है, डरती है, अज्ञानी है, अपवित्र है और दयावान नहीं है।) यानी, तुलसी को सारे अवगुण स्त्रियों में ही दिखे, पुरुषों में एक भी नहीं।

पुस्तक में एक जगह अम्बेडकर और गांधी के बीच वार्तालाप का जिक्र करते हुए कहा गया है कि जब अम्बेडकर ने गांधी से दलितों के लिए सीट रिज़र्व करने की बात की तो गांधी ने कहा - मातृभूमि की भलाई के लिए इस मांग को भूल जाओ। तब अम्बेडकर ने कहा - कैसी मातृभूमि? मातृभूमि मानवों की होती है, पशुओं की नहीं। हमें तो यहां पशुओं से भी नीचा समझा जाता है। जिस तालाब से सवर्ण और उनके पशु पानी पीते हैं उसमें से अगर हम चुल्लू भर पानी पी लें तो हमारी पिटाई होती है।

धार्मिक अंधविश्वास को लेकर उन्होंने अपने पत्र में लिखा है - केरल के सबरीमाला मंदिर में 10 से 50 साल तक की महिलाओं को अपवित्र (मासिक धर्म) मानकर प्रवेश नहीं दिया जाता वहीं गोहाटी के कामाख्या मंदिर में देवी की माहवारी के तीन दिन तक मेला लगता है। तीन दिन मंदिर के द्वार बंद रहते हैं। चौथे दिन पुजारी मंदिर के द्वार खोलता है और देवी की माहवारी के रक्त से लाल हुए कपड़े के छोटे-छोटे टुकड़े कर भक्तों को बांट देते हैं। घासीराम सवाल करते हैं - कामाख्या मंदिर की देवी की माहवारी पवित्र कैसे हो गई और माहवारी में सबरीमाला का दर्शन करने वाली औरतें अपवित्र कैसे हो गई? यह आस्था है या स्त्री स्मिता पर आघात? पितृसत्ता ने जब चाहा स्त्री को मंदिर में देवी के रूप में स्थापित कर दिया और जब चाहा उसका मंदिर में प्रवेश वर्जित कर देवदासी बना दिया?

अंत मे दो बातें डॉ घासीराम के संदर्भ में : अमेरिका की रोडे आइलैंड यूनिवर्सिटी, किंग्स्टन में गणित के प्रोफेसर डॉ घासीराम वर्मा एक ऐसी शख्सियत हैं जो वहां पढ़ाकर जितना कमाते हैं वह सारा पैसा देश मे आकर महिला शिक्षा के क्षेत्र में संचालित संस्थाओं को सौंप देते हैं। अब तक करीब 10 करोड़ रुपये से ज्यादा वो इन संस्थाओं को दे चुके हैं। अमेरिका से वो हर साल झुंझुनूं आते हैं और सालभर में वहां से कमाया पूरा पैसा शैक्षणिक संस्थाओं को सौंपकर अपने किसी मित्र से टिकट के पैसे उधार लेकर वापस लौट जाते हैं। इसलिए उन्हें करोड़पति फकीर कहा गया है। राज्यसभा का ऑफर ठुकरा वाले, पद्मश्री के आवेदन को नकारने वाले डॉ घासीराम आर्थिक अभावों में पले, बढ़े और पढ़े औऱ अमेरिका में इतने ऊंचे मुकाम पर पहुंचकर भी कभी अपनी मातृभूमि और मिट्टी को नहीं भूले।

आनंद चौधरी, एकता प्रकाशन

समय से संवाद पुस्तक की समीक्षा द्वारा लक्ष्मण बुरड़क

समीक्षक: लक्ष्मण बुरड़क, IFS (R)

अपर प्रधान मुख्य वनसंरक्षक (सेवा निवृत) एवं जाटलैंड विकि मॉडरेटर

समय से संवाद शीर्षक से एकता प्रकाशन द्वारा प्रकाशित इस पुस्तक में डॉ. घासीराम वर्मा के उन पत्रों का संकलन है जो उन्होंने अमेरिका से डॉ. कृष्णा जाखड़ और उनके साहित्यकार पति दुलाराम सहारण के नाम लिखे हैं. डॉ. क़ृष्णा जाखड़ की शंकाओं का समाधान जब यहां भारत में चर्चाओं में नहीं होता तो अमेरिका लौट कर एक-एक बिंदु और उनकी जानकारी पत्रों के माध्यम से देते हैं. यही सभी बातें उनके पत्र व्यवहार में झलकती हैं. यह भी जानकर सुखद आश्चर्य हुआ कि डॉक्टर घासीराम वर्मा पत्र-व्यवहार में नए तकनीकी साधनों का प्रयोग नहीं करते हैं. हाथ से लिखा पत्र स्कैन कर ई-मेल करते हैं.

डॉ. घासीराम वर्मा किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं. घासीराम वर्मा का जन्म 1 अगस्त, 1927 ई. को नवलगढ़ (झुंझुनूं) के पास सीगड़ी गांव में चौधरी रामूराम के पुत्र लादूराम तेतरवाल की धर्मपत्नी श्रीमती जीवणीदेवी की कोख से हुआ. इंटर करते ही घरवालों ने आखातीज के अबूझ शुभ मुहुर्त में नयासर के गंगारामजी की सुपुत्री रूकमणी से आपका विवाह कर दिया. घर की खस्ता आर्थिक हालत होते हुये भी कठिन परिस्थितियों में शिक्षा प्राप्त की. जहाँ चाह होती है वहाँ राह स्वत: मिलती जाती है. जिंदगी के कठिन मोड़ों पर ऐसे देवदूत मिलते गए जिन्होंने आपको लक्ष्य की ओर बढ़ाया. संघर्ष के थपेड़े खाते-खाते दिसम्बर, 1957 ई. में आपकी पी-एच.डी पूरी हुई और आप आखिरकार डॉ. घासीराम बन गए. 1 सितम्बर 1958 ई. को दिल्ली से बम्बई होते हुए घासीराम ने अमेरिका के लिए प्रस्थान किया. 1964 में आप रोडे आयलैंड यूनिवर्सिटी, किंग्स्टन, अमेरिका में गणित के एमेरिटस प्रोफेसर बन गए. आज आपकी गिनती विश्व के प्रसिद्ध गणितज्ञों में होती है.

पुस्तक में डॉ. घासीराम वर्मा के पत्रों पर आधारित 13 अध्याय हैं. 10 पत्र कृष्णा जाखड़ के नाम से हैं और शेष तीन पत्र दुलाराम सारण के नाम हैं. ये पत्र संसाधनों के उपयोग, भूगोल और खगोलविज्ञान, भारत में प्रचलित भ्रष्टाचार, पूर्व तथा पश्चिम की संस्कृतियां , भारतीय और अमरीकन किसान, समाज में फैली भ्रांतियाँ, शिक्षा पद्धति, धर्म और पाखंड, इतिहास, राजनीति, स्त्री अस्मिता और समाज सुधार, अर्थनीति जैसे विषयों पर रोचक ढंग से सरल शब्दों में प्रकाश डाला गया है। अंधविश्वास और रुढ़िवादी परम्पराओं पर जमकर चोट की गई है. पुस्तक युवा पीढ़ी को आगे बढ़ने के लिए प्रेरणा देती है.

पुस्तक में प्रो. घासीराम वर्मा द्वारा पत्रों के माध्यम से दी गई रोचक एवं ज्ञानवर्धक जानकारी जब पढ़ना शुरू करते हैं तो लगता है शुरू से अंत तक लगातार पढ़ते ही जायें. डॉ. घासीराम वर्मा शब्दों का प्रयोग सोच-समझ कर करते हैं. इनके शब्दों में एक महान विचारक और समाज सुधारक जैसी विद्वता झलकती है. भारत के लोग अमेरिका में अनेक हैं परंतु इनके जैसा अपनी जन्म-भूमि से लगाव कहीं देखने को नहीं मिलता. अपना सब धन जन हितार्थ मातृभूमि को समर्पित कर देने वाले लोग कम ही होंगे. अपने क्षेत्र में लड़कियों की शिक्षा के लिए अलख जगाने वाला यह शख्स स्त्री मुक्ति का प्रेरणास्रोत बन गया है. यह पुस्तक डॉ वर्मा की वैज्ञानिक सौच और तर्कों से भारतीय समाज में प्रचलित अंधविश्वासों और पाखंडों की कलई खोलती है. समाज में हर परिवार और समाज सुधारकों के पास यह पुस्तक अवश्य होनी चाहिए.

डॉ. क़ृष्णा जाखड़ डॉ. घासीराम वर्मा से कॉलेज शिक्षा के समय से ही परिचित हैं और संयोग से डॉ. वर्मा द्वारा निर्मित हॉस्टल में रहते हुए ही अध्ययन भी किया है. ऐसे में डॉ. क़ृष्णा जाखड़ के द्वारा दी गई जानकारी से विश्वस्त अन्य कोई जानकारी नहीं हो सकती. जिन पाठकों के पास समय कम है, जो पूरी पुस्तक नहीं पढ़ सकते, उनके लिए नीचे प्रत्येक अध्याय के अंतर्गत महत्वपूर्ण बिंदुओं को रेखांकित किया गया है जिनसे मैं बहुत प्रभावित हुआ.

पत्रांक-1: संसाधन, उपयोग और वर्तमान - डॉ. घासीराम वर्मा संसाधनों के उपयोग और उनकी वर्तमान स्थिति पर बहुत बारीकी से प्रकाश डालते हैं. भविष्य के लिए हमें सचेत करते हैं कि किस तरह से उनका दोहन मित-व्ययिता से करना चाहिए. अपने संस्मरणों में डोल से पानी निकालने की प्रक्रिया बहुत विस्तार से समझाते हैं. उस समय संपूर्ण राजस्थान में जमीन में कुएं से पानी निकालने का यही सिस्टम था. हमें भी बचपन में डोल से पानी निकालना याद आता है. डॉ. वर्मा द्वारा बचपन में डोल पर लिखे हुए शब्द ESSO की जिज्ञासा के कारण अमेरिका में रॉकफेलर द्वारा केरोसिन तेल की खोज और दोहन की कहानी बताई है जो बहुत ज्ञानवर्धक है. यह भी बताती है कि बाल मन की जिज्ञासा किस तरह अमेरिका में जाकर शांत होती है.

मास्टर जी की सफेद पतलून और कमीज देखकर बच्चे के मन में उनकी तरह बढ़ने की प्रेरणा पैदा होती है. बचपन में पढ़ाई के पहाड़ों का क्या योगदान है यह भी स्पष्ट होता है. बचपन में पढ़े पहाड़ों से मिली प्रेरणा ने कैसे अमेरिका जैसे देश में एक महान गणितज्ञ पैदा किया, जो रोचक कहानी है.

जमीन के पानी की उपयोगिता और दोहन के प्रति उनकी जिज्ञासा और चिंता कितनी वाजिब है यह हमें सोचने पर मजबूर करती है. हमें सचेत करते हैं कि कुछ समय में जमीन का पानी खत्म हो जाएगा और शहरी लोगों के लिए भारी जल संकट पैदा हो जाएगा.

पत्रांक-2: समय और परिस्थिति सापेक्ष बात - विभिन्न देशों में दिन और रात में फर्क को बहुत सरल तरीके से समझाया गया है. जैसे-जैसे हम विषुवत रेखा से दूर जाते हैं यह अन्तर बढ़ता जाता है. उत्तर ध्रुव पर 6 महीने की रात होती है तो दक्षिण ध्रुव पर 6 महीने का दिन होता है. इसके मानव व्यवहार पर पड़ने वाले प्रभाव को भी समझाया गया है. यह नई बात लगी कि नॉर्वे और स्वीडन दोनों ही देशों में सगाई होने पर भी वे साथ साथ रह सकते हैं और यौन संबंध भी बना सकते हैं.

पत्रांक-3: हम में क्या कमी है? - डॉ. वर्मा ने भारत के विकास की तुलना अमेरिका, जर्मनी और यूरोप के देशों से की है. बहुत सरल शब्दों में समझाया है कि किस तरह से यहां भ्रष्टाचार काम करता है और क्यों अच्छे अधिकारी भी बेईमान बन जाते हैं. बेईमानी से की गई कमाई से केवल जमीन खरीदते हैं जो पैसे को सर्कुलेशन में नहीं आने देती. अर्थव्यवस्था में सुधार के लिए पैसे का सरकुलेशन होना चाहिए. समझाया है किस तरह से सरकुलेशन में पैसा देश के अर्थव्यवस्था में योगदान करता है. डॉ. वर्मा ने बताया है हमारा सिस्टम एक अच्छे व्यक्ति को बेईमान बना देता है. अमेरिका की राजनीतिक स्थिति को भी बहुत तरीके से समझाया है कि वहाँ रिपब्लिक और डेमोक्रेटिक पार्टियों में क्या फर्क है. भारत के धर्म ग्रंथों की कमियों को बहुत रचनात्मक ढंग से उजागर किया गया है. समझाया है कि किस तरह हमारे धर्मग्रंथों की शिक्षा हमें अकर्मण्यता की ओर लेजाती है. डॉ वर्मा ने पंडिता रमाबाई और स्वामी दयानंद सरस्वती द्वारा किए गए समाज सुधार के कार्यों को उजागर किया गया है परंतु हमारा सिस्टम इन को कभी भी आगे लाने के पक्ष में नहीं रहा. स्वामी विवेकानंद की फोटो सब जगह मिलती है जबकि रमाबाई और स्वामी दयानंद की फोटो नहीं मिलती हैं.

पत्रांक-4: मोनालिसा की कहानी यह कहानी आज के संदर्भ को समझने के लिए बताई है ताकि किसी लालच में हम ठगे न जावें. सलाह दी है कि जब कोई हमारा अपना ही आदमी यह कहे कि इस बात को किसी से न कहना तो उस बात की तह तक जाना चाहिए. सावधान किया है कि हमारी संस्कृति काल्पनिक स्वर्ग-नरक के भय से लोगों को बाहर नहीं आने देती. जो पैसा बच्चों की शिक्षा और स्वास्थ्य पर खर्च होना चाहिए वह धर्म के नाम पर बर्बाद होता है.

पत्रांक-5 : पूर्व तथा पश्चिम की संस्कृति - दुनिया के हर देश की जलवायु, रहन-सहन, कृषि और उद्योग संबंधी विशेषताएं और भिन्नताएं होती हैं जिनका प्रभाव व्यक्ति के निर्माण और जीवन शैली पर पड़ता है. खेती के कारण भारत में संयुक्त परिवार की परंपरा शुरू हुई. यूरोप और अमेरिका में भारत से कहीं पहले शिक्षा का दौर आ गया था. इसलिए वहां सामाजिक बदलाव हमसे बहुत पहले हो गए हैं. हमारे यहां गांव में खेती से जुड़े होने के कारण परिवार नहीं टूटते थे. गांव में लोगों को शिक्षा का अधिकार नहीं रहा. शिक्षा संस्कृत भाषा में होती थी और यह स्थापित परंपरा थी कि संस्कृत देवों की भाषा है उसे पढ़ने का अधिकार ब्राह्मण को छोड़कर और किसी को नहीं था.

मैकाले की शिक्षा पद्धति पर बताते हैं कि भारत में उसकी आलोचना की जाती है परंतु यह मैकाले ही थे जिन्होंने शिक्षा के दरवाजे सबके लिए खोल दिए थे. इसीलिए भारतीय संस्कृति की प्रशंसा करने वाले लोग मैकाले को गालियां देते हैं और बताते हैं कि अंग्रेजी शिक्षा शुरू करके मैकाले ने भारत की संस्कृति को बर्बाद कर दिया. जबकि हकीकत यह है कि मैकाले ने भारतीय संस्कृति को लोकतांत्रिक बना दिया है. यदि मैकाले न होता तो आज जो गरीब वर्ग के लोग अधिकारी और नेता बने हुए हैं वह कैसे बन सकते थे? इसलिए इन लोगों को तो शिक्षा पद्धति में मैकाले की बुराई नहीं करनी चाहिए. डॉ.वर्मा समझाते हैं कि हम भारत के लोग पश्चिम की बुराई जरूर करते हैं परंतु वहां खासकर अमेरिका में बूढ़े लोगों का बहुत ध्यान रखा जाता है. उनके घर खाना पहुंचाया जाता है. वहां सिर्फ अपने मां बाप के बारे में ही नहीं बल्कि एक पूरी पीढ़ी के बारे में सोचा जाता है. अमरीकन लोग अपने मां बाप का जैसा ख्याल रखते हैं वैसा तो आजकल भारत में भी देखने को नहीं मिलता है. हमें अपनी संस्कृति और देश पर गर्व होना चाहिए लेकिन कमियों की अनदेखी नहीं करनी चाहिए. इन विसंगतियों के रहते हमारा देश और संस्कृति महान नहीं बन सकती, इसे महान बनाने के लिए उदार और लोकतांत्रिक विचारों का होना जरूरी है.

पत्रांक-6: भारतीय किसान – संघर्ष और छवि के बीच अमरीकन किसान : डॉ. वर्मा ने एक अमेरिकन किसान परिवार का उदाहरण दिया है और बताया है कि किस तरह से किसान दुनिया के किसी भी कोने में रहे किसान ही रहता है. किसान की जिजीविषा और सर्वस्व समर्पण, अगली पीढ़ी को शिक्षा के मुकाम सौंपना एवं दूसरे का सम्मान करना देश-दुनिया की दूरी पाटता है. कृषि से लाभ के बारे में बताया गया है कि अमेरिकन किसान की यदि दूध की बोतल सौ सेंट में बिकती है तो किसान को सिर्फ 10 सेंट मिलते हैं. इनको गाय के दूध से जो आमदनी होती है उतनी लागत हो जाती है. भारत की तरह अमरीका में भी खेत में मेहनत के साथ-साथ पशु-पालन और नौकरी के समायोजन से ही किसान परिवार चलता है. इस तरह भारत हो या अमरीका किसान की स्थिति लगभग एक जैसी ही है.

पत्रांक-7: भ्रांतियाँ और हमारा सभ्य समाज - यूरोपीय संस्कृति और अमेरिकी संस्कृति के बारे में हमारे समाज में फैली भ्रांतियों की चर्चा की है. अमेरिका को लेकर भ्रांतियां हमारे यहां कैसे फैली इसके संबंध में ऐतिहासिक तथ्य देते हुए बताया है कि कन्हैया लाल गोबा नाम के पंजाबी अमीर आदमी का बेटा अमेरिका पढ़ने के लिए गया था. उसने वहां ‘मदर इंडिया’ नामक पुस्तक पढ़ी जो मिस कैथरीन मेयो ने लिखी थी जिस में हमारी संस्कृति की सारी परतें उघड़ती हुई नजर आती हैं. यह उसे अच्छा नहीं लगा उसने इसके जवाब में Uncle Sam नामक पुस्तक लिखी. इस पुस्तक में उसने अमेरिका की बुराई दिल खोल कर की. इस पुस्तक में अमेरिकी समाज और अमरीकन लड़कियों के बारे में बहुत भ्रांतियाँ फैलाई. 1940 के दशक में सभी विद्यार्थी इस पुस्तक को पढ़ना चाहते थे.

किसी देश और समाज को सही तरीके से समझने के लिए डॉ. वर्मा राहुल सांकृत्यायन का उदाहरण देते हैं. राहुल सांकृत्यायन ने एक पुस्तक लिखी है ‘वोल्गा से गंगा’. वोल्गा रूस की एक नदी है तथा गंगा भारत की. इस पुस्तक में कोई 8000 वर्ष पहले लोग कैसे रूस से चले और भारत पहुंचे इसका वर्णन किया है. राहुल सांकृत्यायन एक रूढ़िवादी ब्राह्मण परिवार में पैदा हुआ था. उसके घरवाले जजमानी का काम करते थे जो उसको अच्छा नहीं लगता था. वह घर छोड़कर साधु बन गया. उसने बौद्ध-धर्म के बारे में पढ़ा तो बहुत प्रभावित हुआ और वह बौद्ध बन गया. अपने मित्र भदंत आनंद कौशल्यायन के साथ घूमता-घूमता लंका पहुंच गया. वहां से वह बहुत सारे बौद्ध ग्रंथ लाया. तिब्बत से भी कुछ बौद्ध ग्रंथ लाया. राहुल सांकृत्यायन वह घुमक्कड़ व्यक्ति था जो अपनी कुंठाओं से मुक्त होकर दुनिया खोज रहा था. बहुत सारे यात्री इसी तरीके से दुनिया के हर कोने में जाते हैं और वहां की अच्छाइयां खोजते हैं. जब तक हम अपनी कुंठाओं से मुक्त होकर दुनिया की अच्छाइयां कबूल नहीं करते तब तक हम कहां अच्छे हो पाते हैं?

पत्रांक-8: भारत में शिक्षा पद्धति और शिक्षा का स्वरूप वाया मैकाले - डॉ. वर्मा ने बताया है कि भारत में आजादी के समय से यह चर्चा होती रही है कि शिक्षा पद्धति में आमूलचूल परिवर्तन होना चाहिए क्योंकि मैकाले की शिक्षा पद्धति ईस्ट इंडिया कंपनी के लिए क्लर्क तैयार करने के लिए प्रारंभ की थी. इस पद्धति में हमारी सभ्यता व संस्कृति के बारे में कुछ नहीं सिखाया जाता है. डॉक्टर वर्मा ने मैकाले के शिक्षा पद्धति के पंपलेट पर इंग्लैंड की पार्लियामेंट में चर्चा का हवाला दिया है. उससे स्पष्ट होता है कि मैकाले का विचार था कि हमारा साम्राज्य कभी न कभी तो समाप्त होना ही है परंतु हमारे विचारों का जो साम्राज्य है वह कभी समाप्त नहीं होगा. इस शिक्षा पद्धति के एहसान को भारत कभी भुला नहीं पाएगा. मैकाले को दोष तो दिया जाता है परंतु मैकाले से पहले किसी भी भारतीय शिक्षाविद ने ऐसी खुली सोच नहीं रखी थी. अंग्रेजों ने भारत में रेल, सड़कों और टेलीग्राफ आदि का जाल बिछाया जिसे हम आज भी लाभान्वित हो रहे हैं. मैकाले की शिक्षा पद्धति के कारण ही ज्योतिबा फुले और अंबेडकर जैसे लोग पढ़ पाए. भारत को आजाद हुए 70 साल हो गए परंतु इस समय तो शिक्षा की सबसे खराब स्थिति है. यह परिवर्तन तो अपेक्षित नहीं था. मैकाले की शिक्षा पद्धति ने हमें न केवल पढ़ने का अधिकार दिया बल्कि अपने अस्तित्व और अपनी अस्मिता के प्रति भी जागरूक किया. हमने उसी शिक्षा के माध्यम से अपने अधिकारों और स्वराज्य के महत्व को समझा. भारत की आजादी में उसी शिक्षा पद्धति से शिक्षित लोगों का बड़ा योगदान था.

पत्रांक-9: भूगोल खगोल और अंधविश्वास – भारत में पृथ्वी और ग्रहों के संबंध में बहुत सी गलतफहमियाँ आज भी प्रचलित हैं. डॉ वर्मा पृथ्वी के संबंध बचपन की उत्सुकताओं और जिज्ञासाओं पर चर्चा करते हुए बहुत ही सरल तरीके से पृथ्वी और सौरमंडल का भूगोल समझाया है. पंडित लोग हमारे भूमंडलीय खगोल शास्त्र विज्ञान को समझते हुए भी मंगल, शनि, बृहस्पति आदि के हमारे भाग्य निर्धारण पर प्रभाव बताकर भोले भाले लोगों को लूटते हैं. विज्ञान इसलिए नहीं समझाया जाता कि इससे इनकी रोजी रोटी प्रभावित होती है. हमें सोचना है कि जो ग्रह या तारे बेचारे अपने भाग्य या स्थिति का निर्णय नहीं कर सकते वह दूसरों के भाग्य का निर्णय कैसे करेंगे. हमारी स्थिति हमारे हाथ या हमारे कर्म के साथ है. जितना हो सके अध्ययन करो और अपने इर्द-गिर्द के लोगों को यथास्थिति समझाने की कोशिश करो.

पत्रांक-10: व्यक्ति चेतना और विज्ञान - भारत में अधिकांश समस्याएं धार्मिक आस्थाओं के कारण पैदा हुई होती हैं. आस्था और अंधविश्वास के नाम पर कितने ही परपंच हमारे धर्म में आज भी मौजूद हैं, जबकि हम 21वीं सदी का भारत होने का दंभ भरते हैं. हमारे धर्म में आदमी की गरीबी व उसके दुखों का कारण पूर्व जन्म के बुरे कर्मों को बताकर धोखे में रखा गया है. बहुत सारे अंधविश्वास ईजाद कर लिए गए और धर्म के मुखियाओं ने धन कमाया. हमारे यहां धर्म ने मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि आदि ग्रहों के प्रकोप से आम आदमी को हमेशा भयभीत बनाए रखा है. जबकि विज्ञान के दृष्टिकोण से देखें तो यह सभी ग्रह पृथ्वी की तरह ही सूरज के चारों तरफ चक्कर लगाते हैं. इन गृहों में किसी का भी भला बुरा करने का दिमाग या शक्ति नहीं है. सभी गृह गुरुत्वाकर्षण के नियमों के अंतर्गत सूर्य के चारों तरफ चक्कर लगाते हैं. पंडित लोग इस बात को समझते हैं फिर भी धर्म को उन्होंने व्यवसाय के रूप में अपना रखा है. अगर अपने विवेक से हम सही तथ्यों को ग्रहण करें और कर्म की तरफ अग्रसर हों तो भारत की गरीबी दूर की जा सकती है और सुंदर भारत का निर्माण किया जा सकता है.

पत्रांक-11: द्रोणाचार्य की अवधारणा - साहित्यकार दुलाराम सहारण को संबोधित पत्र में डॉ. वर्मा ने बताया है कि गर्मी की छुट्टियों में जब वे भारत की स्कूलों में जाते हैं तो वह अन्य अवार्ड तो बच्चों को दे देते हैं परंतु द्रोणाचार्य अवॉर्ड देने से मना कर देते हैं. डॉ. वर्मा का दृष्टिकोण बहुत ही अलग और हटकर है जिस पर आम लोग विचार नहीं करते. द्रोणाचार्य और एकलव्य की कहानी सबने पढ़ी होगी परंतु उसके पीछे छुपा हुआ रहस्य डॉ. वर्मा प्रकाश में लाते हैं. द्रोणाचार्य के गुरु बनने से मना करने पर एकलव्य ने उनकी मूर्ति को ही गुरु मानकर धनुष-विद्या में पारंगत हो गया. बाद में द्रोणाचार्य ने एकलव्य का अंगूठा ही गुरु-दक्षिणा के रूप में मांग लिया. यह कहानी सुनाकर डॉ वर्मा बच्चों से पूछते हैं – क्या द्रोण ने एकलव्य के साथ न्याय किया? यहां विचार करने की आवश्यकता है कि जब एकलव्य का अंगूठा मांग लिया तो संदेश स्पष्ट है कि एकलव्य धनुर्विद्या नहीं कर सकता. इसी विचारधारा के तहत हमारे समाज के उच्च वर्ग ने निम्न वर्ग को शिक्षा और उन्नति करने से रोका है.

पत्रांक-12: पंडिता रमाबाई - पंडिता रमाबाई के समाज सुधार संबंधि कार्यों पर विस्तार से प्रकाश डाला है. डॉ. वर्मा ने पंडिता रमाबाई पर पूर्वा भारद्वाज और दीप्ता भोग द्वारा संपादित ‘भय नाहीं खेद नाहीं : पंडिता रमाबाई’ पुस्तक पढ़कर रमाबाई के संबंध में बहुत तारीफ की है. पंडिता रमाबाई स्वामी दयानंद सरस्वतीस्वामी विवेकानंद के समकालीन थी. अब से कोई 150 वर्ष पहले स्त्रियों के अधिकार की बात करने वाली वह पहली महिला थी. डॉ. वर्मा उनको स्वामी दयानंद व स्वामी विवेकानंद से किसी भी तरह कम नहीं समझते हैं. उस समय उसकी किसी ने सराहना नहीं की बल्कि उसकी आलोचना हुई, वह भी इसलिए कि उसने हिंदू धर्म को छोड़ दिया था.

रमाबाई से बाल गंगाधर तिलक का कद बहुत ऊंचा था. वे सिर्फ बड़े विद्वान ही नहीं थे बल्कि बड़े संपादक भी थे. उन्होंने लगातार अपने समाचार पत्र में रमाबाई के विरुद्ध लिखा. उनको गलत साबित किया. इसी कारण उस समय कोई न तो रमाबाई के पक्ष में बोला और न ही लिखा. ज्योतिबा फुले एकमात्र ऐसे व्यक्ति थे जो रमाबाई के पक्ष में खुलकर बोल रहे थे. मगर उस समय ज्योतिबा फुले और रमाबाई समान स्थिति में थे. शायद यही कारण रहा होगा कि रमाबाई को प्रचार प्रसार तंत्र में वह मुकाम नहीं मिला जो अन्य महापुरुषों को मिला.

विधवा होने पर भारत में उस स्त्री को पति के संग जला देते थे. भारत में बड़े-बड़े राजा महाराजा थे परंतु किसी ने यह नहीं कहा कि यह प्रथा गलत है. भारत में सभी मूर्ख थे ऐसा भी नहीं.कुछ समझदार लोग भी होंगे. परंतु किसी ने भी यह नहीं कहा कि यह प्रथा गलत है और बंद होना चाहिए. अंग्रेज तो यहां व्यापार करने के लिए आए थे और फिर राज करने लगे. वह यहां समाज सुधार के लिए नहीं आए थे. पर उनको भी स्त्री को जिंदा जलाना अच्छा नहीं लगा. उन्होंने सती-प्रथा कानून बनाकर इसे बंद करवा दिया.

यदि अंग्रेज नहीं आते तो भारतवासी पढ़ नहीं सकते थे. सिर्फ ब्राह्मण ही पढ़ सकते थे. दूसरों के लिए पढ़ना मना था. अंग्रेज नहीं आते तो ज्योतिबा फुले और अंबेडकर जैसे लोग तक नहीं पढ़ सकते थे. स्वामी केशवानंद संस्कृत पढ़ना चाहते थे. उनसे पूछा गया कि क्या ब्राह्मण हो, तो कहा नहीं, तो फिर नहीं पढ़ सकते. उन्होंने कहा, कोई तरीका बताओ तो उनको बताया कि साधु बन जाओ और वह साधु बन गए. उन्होने जो समाज सुधार किए वह तो ज्ञात ही हैं. ख्यातनामा कवयित्री महादेवी वर्मा बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में संस्कृत पढ़कर वेद पढ़ना चाहती थी. उसे कहा गया कि पहले तो तुम कायस्थ हो, फिर स्त्री, तुम संस्कृत नहीं पढ़ सकती. यह 1930 के आसपास की बात है.

अंबेडकर कोलंबिया यूनिवर्सिटी न्यूयॉर्क से अर्थशास्त्र में पीएचडी कर के आया था. फिर भी उसको रहने के लिए कोई मकान किराए पर देने को तैयार नहीं था.

डॉ वर्मा नाथद्वारा के मंदिर का उदाहरण देकर पूछते हैं कि मंदिरों में मूर्ति को इतनी बार क्यों नहलाते हैं- यह मुझे आज तक समझ में नहीं आया.

हिंदू धर्म में समानता तो है ही नहीं पर अपंग, अपाहिज, लूले-लंगड़े व कोढ़ी के लिए भी कोई सहानुभूती नहीं है. पूर्व जन्म के बुरे कर्मों का फल भुगत रहा है- ऐसा कहा जाता रहा है. हिंदू धर्म में कोई न्याय भी नहीं है. एक ही अपराध की अलग-अलग वर्ण को अलग-अलग सजा मिलती है.

रमाबाई के पिता अनंत डोकरे को उनके गुरु ने बता रखा था कि स्त्री को संस्कृत नहीं पढ़ानी चाहिए व वेद न पढने देना चाहिए. जब अनंत डोगरे ने देखा कि उनके गुरु के घर एक स्त्री रघुवंश का सुंदर पाठ पढ़ रही है तो उनके गुरु ने बताया कि संस्कृत तो पढ़ाई जा सकती है पर वेद नहीं पढ़ने देना चाहिए. आगे चलकर रमाबाई ने यह सब सुना और उनको यह सब ढकोसला लगा. उसने देखा है कि ईसाई धर्म में किसी मनुष्य की योग्यता को देखा जाता है जबकि हिंदू धर्म में वह किस जाति और लिंग में पैदा हुआ है यह पहले देखा जाता है. उनको इस धर्म से चिढ़ हो गई और वे ईसाई बन गई. उनकी बहुत निंदा हुई पर वे एक क्रांतिकारी महिला थी, जिसने इस इस निंदा पर कोई ध्यान नहीं दिया.

भला हो अंग्रेजों का, जो यहां आए, सती प्रथा बंद की, ठगी प्रथा बंद की और हम सब को पढ़ने की आजादी दी और न्याय व्यवस्था दी. उनके सामने छोटे बड़े अमीर गरीब सब बराबर थे.

रमाबाई ने हिंदू विधवा महिलाओं के लिए बहुत बड़ा काम किया. गर्भवती स्त्रियां, जो व्यभिचार के बाद घर से निकाल बाहर कर दी जाती थी, उनको अपने आश्रम में लेकर जीवन सौंपने को भला कौन भूल सकता है? पंडिता रमाबाई ने पूरा जीवन स्त्रियों के कल्याण के लिए समर्पित किया.

पत्रांक-13: स्त्री अस्मिता और धार्मिक पाखंड – डॉ. वर्मा ने इस विषय को रेखांकित करने के लिए 2 मंदिरों के उदाहरण दिए हैं. पहला मंदिर है केरल का सबरीमाला मंदिर जो भगवान अयप्पा का है. इस मंदिर में 10 वर्ष से लेकर 50 वर्ष तक की आयु की रजस्वला स्त्रियों का प्रवेश वर्जित है. दूसरा मंदिर है गुवाहाटी का कामाख्या मंदिर जो ब्रह्मपुत्र नदी के पास है. यहां कामाख्या देवी के माहवारी आने के उत्सव पर मेला लगाया जाता है. यहाँ मंदिर के पास ब्रह्मपुत्र के एक नाले का पानी ठहरता है. कहते हैं देवी के माहवारी से नाले का पानी लाल हो जाता है. अब यह सोचने का विषय है कि पत्थर की योनि से माहवारी का रक्त कैसे आ गया. एक स्त्री के रक्त-स्राव से तालाब कैसे लाल हो गया? क्या यह बेवकूफ लोग कभी जान पाएंगे कि पानी को लाल करने के लिए पंडित नाले में रंग डालते हैं.

सबरीमाला में माहवारी वाली स्त्री का प्रवेश वर्जित है तो फिर कामाख्या में माहवारी पवित्र कैसे होगी? इन सवालों को यदि पंडे-पुजारियों से पूछा जाए तो वे आपको धर्म-द्रोही कहेंगे. धर्म, भय पैदा करता है और भय, व्यक्ति को कमजोर एवं अंधविश्वासी बनाता है. यह अंधविश्वास ही हमें उस अन्ध-आस्था की तरफ ले जाता है जहां हम सवाल करना बंद कर देते हैं. मंदिरों और पंडे पुजारियों के पाखंडों से जब देश मुक्त होगा तभी देश और जनता का समग्र विकास होगा. इसलिये शिक्षा एवं शिक्षा के प्रति जागरूकता लाना जरूरी है.

समय से संवाद पुस्तक की समीक्षा द्वारा हनुमानाराम ईसराण

समीक्षक: - प्रोफेसर हनुमानाराम ईसराण (पूर्व प्राचार्य, कॉलेज शिक्षा, राज.), चूरू-331001

पुस्तक-चर्चा : अतीत और वर्तमान के बीच संवाद करती अनुपम कॄति "समय से संवाद"


'समय से संवाद' पुस्तक कई मायनों में विशिष्ट है। यह पुस्तक पत्रों की शक्ल में है। रचनाधर्मिता के बल पर साहित्य के क्षेत्र में अपनी पैठ जमा चुकी डॉ. कृष्णा जाखड़ ने इसका सलीके से संपादन किया है। एकता प्रकाशन, चूरू ने इस पुस्तक को सुंदर कलेवर में प्रकाशित किया है।

पुस्तक में समाविष्ट पत्र राजस्थान के ज्योतिर्मय रतन, उदारता की प्रतिमूर्ति, अमेरिका प्रवासी विश्व के नामी गणितज्ञ डॉ. घासीराम वर्मा द्वारा सम्मानित साहित्यकार दंपति डॉ. कृष्णा जाखड़ और डॉ. दुलाराम सहारण को लिखे गए हैं।

यह पुस्तक हमें 'पिता के पत्र पुत्री के नाम' की याद दिलाती है। आधुनिक भारत के निर्माता, भारत के प्रथम प्रधानमंत्री और इंडो-एंग्लियन साहित्य के समादृत लेखक जवाहरलाल नेहरू ने देश की आजादी के संघर्ष के दौरान कई पत्र अपनी बिटिया इंदिरा प्रियदर्शनी को लिखे थे। इन पत्रों के जरिए पंडित नेहरू ने अपनी बेटी इंदु के कई सवालों के जवाब दिए। सवाल जो कि इंदु अपने पिता से अकसर किया करती थीं। सवाल जैसे कि यह संसार कैसे बना? तरह-तरह के जीव कैसे बने? मनुष्यों की सभ्यता कैसे विकसित हुई? अलग-अलग राष्ट्र, धर्म और जातियां कैसे बनीं? इन सवालों के जवाब पंडित नेहरू ने बड़े सधे हुए अंदाज़ में अपने पत्रों में दिए हैं।

'समय से संवाद' पुस्तक में राजस्थान की रेतीली धरती के ताप से तपे, आंधी और लू के थपेड़ों को सहन कर ग्रामीण परिवेश में अभावों का दंश झेलते हुए पले -बढ़े, गुदड़ी के लाल, ज़िंदगी की उबड़- खाबड़ राह के राही, कठिनाइयों की कसरतों से जीवन में निखार लाने वाले, धूल से फूल बनकर अपनी खुशबू हर ओर बिखेरने वाले, ज़हन को जीवनानुभव की दौलत से समृद्ध बनाने वाले, दुनिया को नजदीक से देख-परख चुके और अब जीवन की गोधूलि की वेला में भी पूरी जीवटता से रमते रहने वाले डॉ. घासीराम वर्मा अपना जीवनानुभव और जीवन-दर्शन डॉ कृष्णा जाखड़ से साझा करते हैं। श्रद्धेय वर्मा साहब गुरु की भूमिका में हैं और डॉ. कृष्णा हैं एक जिज्ञासु शिष्या। इसे हम एक चिंतनशील अभिभावक और कुतूहली प्रतिपाल्य ( ward ) के बीच का संवाद भी मान सकते हैं।

देखा जाए तो यह संवाद पुरानी और नई पीढ़ी के बीच है। यह संवाद अतीत और वर्तमान के बीच है। यह संवाद नई पीढ़ी को सही दिशा का बोध करवाने वाला है। अतीत और वर्तमान के बीच सेतु का काम करने वाला है। ये पत्र वस्तुतः समय के साथ संवाद करते हैं। समय का प्रतिबिंब प्रस्तुत करते हैं। 'तब' और 'अब' के बीच के फर्क को रेखंकित कर भविष्य के लिए सही राह को इंगित करने वाले हैं। कहने को ये पत्र हैं पर इन्हें पढ़ने से लगता है कि इनके जरिए एक सहृदय अभिभावक तरुणाई से तरंगित बच्चों को देश-दुनिया की रंगत को जानने और सार्थक जीवन जीने की टिप्स सौंप रहा है।

पत्र एक अभिभावक और मार्गदर्शक के रूप में दो पीढ़ियों के मध्य पत्र व्यवहार को प्रदर्शित करते हैं तथा पत्राचार के महत्व को भी दर्शाते हैं। ये पत्र पाठक को अपने आस- पास के परिवेश एवं जीवन के बारे में सोचने, विचारने और सही दिशा की पहचान करने में सहायक सिद्ध होने वाले हैं। भ्रांतियों को त्यागकर सच जानने की उत्सुकता पैदा करने वाले हैं।

पहले पत्र में में डॉ. वर्मा ग्रामीण जीवन की झांकी प्रस्तुत करते हुए अपने कष्टमय बाल्यजीवन की कहानी साझा करते हैं। बताते हैं कि कैसे गांव में कुएं से शारीरिक श्रम से पानी निकालना पड़ता था। उस श्रमसाध्य प्रक्रिया का समुचित वर्णन करते हैं। पत्र लेखक अपनी स्कूली पढ़ाई का शब्द- चित्र प्रस्तुत करते हुए बताते हैं कि कैसे शुरू से ही उनकी गणित में रुचि बढ़ती गई।

पत्र में कई रुचिकर विषयांतर हैं। वैज्ञानिक खोजों के बारे में सरस जानकारी साझा करते हैं। प्राकृतिक संसाधनों जैसे पानी, तेल आदि के उपभोग में किफायत बरतने की सीख देते हैं। कहते हैं कि वो समय दूर नहीं है जब प्राकृतिक संसाधनों की बरबादी होने से धरती की कोख उजड़ने वाली है। समय रहते चेतने और औरों को चेताने की सलाह देते हैं।

दूसरे पत्र में समय और परिस्थिति सापेक्ष जीवन जीने पर बल दिया गया है। बदलते वक्त और बदली हुई परिस्थितियों में समाज के बदलते मापदंडों का जिक्र किया गया है। पृथ्वी के गोलार्द्धों एवं विषुवत रेखा आदि के बारे में विज्ञान सम्मत जानकारी बेहद सरल भाषा में प्रदान की गई है।

हममें क्या कमी है? इस पत्र में भारत और अमेरिका के आधारभूत ढांचे की तुलना की गई है। भारत में अंग्रेजों ने सभी को न्याय का बराबर अधिकार व शिक्षा का समान अवसर प्रदान किया। इस क्रांतिकारी कदम की सराहना करते हैं। अंग्रेजों ने सभी को शिक्षा का समान अधिकार दिया। वर्ण-व्यवस्था के अंतर्गत वर्ण के हिसाब से एक जैसे अपराध के लिए अपराधियों को अलग-अलग सजा का प्रावधान कर रखा था। इसे ख़त्म कर भरतीय दंड संहिता के अंतर्गत अपराधियों के लिए, चाहे कोई किसी भी जाति/वर्ण का हो, एक समान सजा का प्रावधान अंग्रेजों ने किया।

आजादी के बाद देश का संविधान बनने पर सभी को सैद्धांतिक रूप से समानता का अधिकार मिला। वर्मा साहब जोर देकर कहते हैं कि 'संविधान देश को अच्छा कानून तो दे सकता है, मगर अच्छे नागरिक बनाना तो समाज का ही दायित्व होता है।' हमारे देश में बेईमानी, भ्र्ष्टाचार और भ्र्ष्ट ब्यूरोक्रेसी की बखिया उधेड़ते हुए वर्मा साहब हमारे देश में कई रूपों में दबे पड़े काले धन की बात करते हैं। अर्थशास्त्र के जटिल सिद्धांत को सरल भाषा में समझाते हुए कहते हैं कि देश की अर्थव्यवस्था की अच्छी सेहत के लिए पैसा एक आदमी के हाथ से दूसरे आदमी के हाथ में एवं दूसरे आदमी के हाथ से तीसरे आदमी के हाथ में और आगे इसी तरह चलते रहना देश की अर्थव्यवस्था की सेहत के लिए जरूरी होता है।

हमारे देश में क्या कमी है? इसके मूल कारण को इंगित करते हुए प्रोफेसर वर्मा साहब कहते हैं कि हमारी समाज व्यवस्था हमारे धर्म ग्रंथ ग्रंथों पर टिकी हुई है। ये सभी धर्म ग्रंथ एक ही वर्ग के लोगों द्वारा लिखे गए हैं। व्यक्ति को भाग्यवादी बनाते हैं। हमारे धर्म ग्रंथ हमें परिश्रम के महत्व की बात नहीं बताकर, भाग्य पर भरोसा रखने की बात करते हैं। 'होइहि सोई जो राम रचि राखा'-- तुलसीदास की यह पंक्ति व्यक्ति को अकर्मण्यता की ओर धकेलने वाली है। धार्मिक कट्टरता पर चोट करते हुए डॉ. वर्मा कहते हैं कि जो भी आदमी कट्टर होता है, चाहे वह किसी भी धर्म से संबंधित हो, वह समझता है कि उसका धर्म दुनिया में श्रेष्ठ है; बाकी सभी धर्म खामियों से भरे हुए हैं।

डॉ. वर्मा विस्तार से पितृसत्तात्मक समाज एवं सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ लड़ाई लड़कर स्त्री मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करने वाली पंडिता रमाबाई, सावित्री बाई फुले व ज्योतिबा फुले के योगदान को रेखांकित करते हैं। दमित वर्ग के प्रति शाब्दिक सहानुभूति की बजाय धरातल पर किए गए ठोस काम को श्रेयस्कर मानते हैं। इसी क्रम में स्वामी दयानंद सरस्वती के युगांतरकारी योगदान को स्वामी विवेकानंद की जबानी बातों से बेहतर मानते हैं।

डॉ. वर्मा अपने एक पत्र में पूर्व तथा पश्चिम की संस्कृतियों की अपनी- अपनी खूबियों और खामियों का बेबाक़ी से वर्णन करते हैं। दुनिया के हर देश की जलवायु में भिन्नता है। रहन-सहन, कृषि और उद्योग संबंधी विभिन्नताएं हैं। इन सभी का प्रभाव व्यक्तित्व के निर्माण व जीवन शैली पर पड़ता है।

हमारे देश में धार्मिक अनुष्ठानों के नाम पर गंगा नदी को प्रदूषित किया जाता रहा है। वर्मा साहब इस पर अपना क्षोभ प्रकट करते हैं। जाति के नाम पर समाज में फैलाए जा रहे ज़हर पर कटाक्ष करते हैं।

किसान परिवार से में पले-बढ़े, किसान परिवार के रात-दिन के संघर्ष तथा उसकी जीवटता से भलीभांति परिचित वर्मा साहब स्वीकारते हैं कि किसान परिवार का संघर्ष मेरे साथ हमेशा प्रोत्साहन के रूप में रहा है। भारत और अमेरिका के किसान वर्ग की समानताओं व भिन्नताओं पर भी अपने पत्र में रोशनी डालते हैं।

डॉ. वर्मा अपने सातवें पत्र में पश्चिमी संस्कृति के बारे में भारत में फैली भ्रांतियों पर विस्तार से चर्चा कर पाठक को सच्चाई से रूबरू करवाते हैं। वह जोर देकर कहते हैं कि हर संस्कृति की अपनी खूबियां और कमियां होती हैं। अच्छे और बुरे लोग सब जगह होते हैं। अगर कुछ लोग बुरे हों तो इसे वहां की संस्कृति का खराब होना नहीं माना जा सकता। वर्मा साहब के अनुसार व्यक्ति की आजादी को खत्म करने वाले बंधन ठीक नहीं माने जा सकते। वह जीवन को संयमित करने वाले बंधनो का समर्थन करते हैं। वैचारिक स्वतंत्रता वाले खुले समाज की हिमायत करते हैं। यह भी स्पष्ट करते हैं कि उनके इर्द-गिर्द रहने वाले अमेरिकी और यूरोपियन लोग संयम के साथ जीवन जीने की प्रवृत्ति रखते हैं।

आठवें पत्र में डॉ. वर्मा मैकाले की शिक्षा पद्धति के बारे में भारत में जानबूझकर फैलाई गई भ्रांतियों का निवारण करते हैं। भारत में अंग्रेजों द्वारा शुरू किए गए अच्छे कार्यों, यथा आधुनिक शिक्षा पद्धति लागू करने, रेल- डाक- तार आदि सुविधाओं की शुरुआत करने, सती प्रथा को प्रतिबंधित करने, ठगों व लुटेरों पर नकेल कसने आदि कदमों की ओर पाठकों का ध्यान आकृष्ट करते हैं। जोर देकर कहते हैं कि मैकाले की शिक्षा पद्धति को दोष देने के बजाय हमें अपने सिस्टम को दुरुस्त करना होगा। दोष इस शिक्षा पद्धति का नहीं बल्कि इसका क्रियान्वयन करने वाले सिस्टम का है। मैकाले की शिक्षा पद्धति ने हमें केवल पढ़ने का अधिकार ही नहीं दिया, हमें अपने अस्तित्व और अपनी अस्मिता के प्रति भी जागरूक किया।

डॉ. कृष्णा को लिखे अपने अंतिम दो पत्रों में डॉ. वर्मा भूगोल- खगोल और अंधविश्वासों पर खुलकर बात करते हैं। धरती, सूरज, चांद और ग्रहों के बारे में भारत में प्रचलित मिथ्या धारणाओं का खंडन कर इनसे संबंधित सवालों का विज्ञान सम्मत जवाब सरल भाषा में देते हैं। धर्म के नाम पर अब भी पल रहे अंधविश्वासों पर करारी चोट करते हैं और उनसे मुक्त होने की सलाह देते हैं।

पुस्तक में समाविष्ट अंतिम तीन पत्र डॉ दुलाराम सहारण को संबोधित करते हुए लिखे गए हैं। इनमें से पहले पत्र में वर्मा जी एकलव्य की पूरी कहानी लिखते हैं और इसके जरिए हिंदू धर्म में असमानता को प्रश्रय देने वाली वर्ण व्यवस्था पर प्रहार करते हैं। बताते हैं कि कैसे हिन्दू धर्म ग्रंथों में शूद्रों एवं स्त्रियों को तिरस्कार भरी दृष्टि से देखा गया है। भविष्य के भारत में सामाजिक समानता के नए आयाम स्थापित करने पर जोर देते हैं।

पंडिता रमाबाई के बारे में लिखे अपने पत्र में वर्मा साहब रमाबाई को स्त्रियों की शिक्षा के अधिकार की बात करने वाली भारत में पहली महिला मानते हैं। इस बात को रेखांकित करते हैं कि अशिक्षा भारत की स्त्रियों की सबसे बड़ी समस्या है। प्रयास संस्थान, चूरु को वर्मा साहब आर्थिक सहयोग प्रदान करने का प्रस्ताव देकर आग्रह करते हैं कि संस्थान की ओर से प्रतिवर्ष रमाबाई पर वाद प्रतियोगिता आयोजित की जावे। इतिहास में गुमनामी का दंश झेल रही पंडिता रमाबाई पर पूर्वा भारद्वाज और दीप्ता भोग द्वारा संपादित पुस्कत 'भय नाहीं खेद नाहीं: पंडिता रमाबाई' की प्रतियां अपने खर्चे पर खरीद कर कॉलेज में लड़कियों में बंटवाने का बीड़ा उठाने की बात कहते हैं। इन्हीं लेखिकाओं से पंडिता रमाबाई पर एक छोटी पुस्तक लिखवाने का आग्रह कर उसकी प्रतियां अपने खर्चे से प्रकाशित करवाने का संकल्प लेते हैं।

अंतिम पत्र में डॉ. वर्मा साहब पितृसत्तात्मक समाज की जड़ता को तोड़ने हेतु व्यग्र दिखाई देते हैं। 'धर्म भय पैदा करता है और भय व्यक्ति को कमजोर एवं अंधविश्वासी बनाता है...जहां हम सवाल करना बंद कर देते हैं और जहां सवाल बंद हो जाते हैं, वहां जड़ता का साम्राज्य होता है।' डॉ. घासीराम वर्मा इस जड़ता को तोड़ने और भ्रमित लोगों को हकीकत से रूबरू करवाने का आह्वान करते हैं और इसे देश सेवा मानते हैं।

पुस्तक में समाविष्ट पहला पत्र आत्मकथात्मक पुट से शुरू होता है। अंतिम पत्र वैज्ञानिक दृष्टिकोण को आत्मसात कर समाज की जड़ता को तोड़कर देश सेवा करने का संदेश देता है। किताब पाठक को पाखंड मुक्त जीवन जीने की प्रेरणा देती है। जीवन में वैज्ञानिक सोच को आत्मसात कर आगे बढ़ते रहने के लिए प्रेरित करती है। पूर्वाग्रहों का परित्याग कर स्वस्थ चिंतन के महत्व को रेखांकित करती है।

ये पत्र घासीराम जी की मानसिक परिपक्वता, विचारों की गहनता व व्यापकता, विषय का गहन ज्ञान, सहज अभिव्यक्ति की शक्ति और भाषा पर नियंत्रण को बखूबी प्रकट करते हैं। पत्र आत्मीयता और स्वाभाविकता से सराबोर हैं। ऐसा लगता है मानो कि वर्मा साहब पत्र प्राप्तकर्ता के सम्मुख बैठे हुए अपनी बात कह रहे हों। अपने दिल को उड़ेल रहे हों। कहीं पर भी कृत्रिमता का कोई पुट नहीं है। इसलिए ये बेहद प्रभावकारी हैं। डॉ. वर्मा ने अपने पत्रों में पंडित नेहरू द्वारा अपनी पुत्री को लिखे पत्रों जैसा ही अंदाज़ अख्तियार किया है।

डॉ. वर्मा हर बात को सरल एवं सहज अंदाज में मिसाल देखकर समझाते हैं। शैली अप्रतिम है। बात करने का अंदाज़ निराला है। विज्ञान की क्लिष्ट अवधारणाओं को सामान्य जन ( layman ) को बेहद सरल ढंग से समझाने में पारंगत हैं। इसका कारण सीधा- सा यह है कि डॉ. वर्मा कोई बात कहने से पहले उसके बारे में पढ़ते हैं, उस पर मनन करते हैं, उसे सही अर्थों में समझते हैं। तभी तो उन्हें इतनी सरल भाषा में समझा पाने में सक्षम हैं। कहा जाता है कि अगर आप किसी बात को छह साल के बच्चे को सही ढंग से समझा नहीं सकते तो इसका सीधा- सा मतलब है आप खुद उस बात को सही रूप में समझ नहीं सके है।

( 'If you can’t explain it to a 6-year-old, you don’t understand it yourself.')


पत्रों की भाषा सरल, स्पष्ट तथा स्वभाविक है। ये पत्र व्यर्थ के शब्द जाल से मुक्त हैं। शब्दों का चयन, वाक्य रचना की सरलता पत्र को प्रभावशाली बनाती है। हर पत्र का कथ्य अपने आप में पूर्ण तथा उद्देश्य की पूर्ति करने वाला है।

माना जाता है कि लेखक की शैली उसके व्यक्तित्व को प्रकट करती है। ( Style also reveals the man. ) पत्रलेखन एक किस्म की कलात्मक अभिव्यक्ति है। यह स्व प्रकटीकरण (self revelation ) की विधा है। लेखन में प्रयुक्त शैली लेखक के व्यक्तित्व को प्रकट करती है।

डॉ घासीराम वर्मा द्वारा लिखे गए पत्र उनकी शालीन, सौम्य शख्सियत को प्रकट करते हैं। ये पत्र घासीराम जी के सामाजिक- सांस्कृतिक-आर्थिक-धार्मिक चिंतन को उजागर करने वाले हैं। समग्र रूप में यह किताब वर्मा साहब के जीवन- दर्शन से पाठक को रूबरू करवाती है। उनके अंतर्मन के कोनों को रोशन करती है। किताब पढ़कर घासीराम जी की जो छवि मेरे मन में उभरती है उसको एक वाक्य में समेटते हुए कहूं तो यह कहूंगा कि डॉ घासीराम जी वो शख्सियत हैं जिनमें अच्छाई और प्रतिभा (Goodness and genius) का सुखद संयोजन है।

समय से संवाद (डाॅ. घासीराम वर्मा के कुछ पत्र)/ संपादन-डॉ. कृष्णा जाखड़/ प्रथम संस्करण- 2021/ पृष्ठ- 96/ मूल्य हार्ड बाउडिंग- ₹250/ प्रकाशक- एकता प्रकाशन, चूरू-331001 राजस्थान

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