Sasni
Sasani (सासनी) is a site of Jat Fort and tahsil in Hathras district in Uttar Pradesh.
Variants
Jat Gotras
सासनी (जिला अलीगढ़)
सासनी जिला अलीगढ़ में स्थित एक ऐतिहासिक स्थान है. अलीगढ़ से 14 मील दूर है. यहाँ एक पुराना मिट्टी का जाट राजा का किला है.
History
Puhap Singh - After Kushal Singh his son Puhap Singh became the ruler. Puhap Singh lost war with Bharatpur. He had to leave Mursan and went to Sasni and occupied it. He constructed a strong fort here. Sasni is known as a a fort of Jat pride.
14 sons of Nandram, two were more famous: Jalkaran Singh and Jai Singh. Jalkaran's grandson was Raja Bhagwant Singh, who was ruler of Sasni and Mursan. Jai Singh's grandson was Daya Ram, who became ruler of Hathras. Bhagwant Singh later helped Lord Lake and got Sonkh and Madan in Jagir. According to Mathura Memoirs, the rulers of Mursan and Hathras considered them selves Independent. In 1817 Mursan and hathras forts fell to British under General Marshal. Raja Daya Ram thought it appropriate to have a treaty with British rule. [1]
ठेनुआं राजवंश
ठाकुर देशराज[2] ने लिखा है....संयुक्त प्रांत के जाटों में इस समय यही राज-वंश अधिक वैभवशाली है। सोलहवीं शताब्दी के अन्त में अपने नेता श्रीयुत माखनसिंह जी की अध्यक्षता में राजपूताने से यह ब्रज में आये थे। जावरा के पास इन्होंने अपना कैम्प बनाया। उन दिनों जहांगीर मुगल-भारत का सम्राट था। इन लोगों ने जावरा के चारों ओर बहुत से गांवों को अपने अधिकार में कर लिया। इन लोगों की अधिकृत रियासत टपपा (Tappa) जावरा के नाम से प्रसिद्ध हुई। खोखर गोत्र के जाट जिनका कि अधिकार राया के आसपास की भूमि पर था माखनसिंह जी ने उनकी लड़की के साथ अपनी शादी की। आसपास के जाटों को संगठित करके राज्य बढ़ाना आरम्भ किया। फलतः अनेक स्थानों पर गढ़ों का निर्माण होना आरम्भ हो गया जिनमें से आज भी अनेक गढ़ों के चिन्ह वर्तमान हैं। गौसना, सिन्दूरा आदि में हमने ऐसे गढ़ों को स्वयं देखा है।
शाहजहां के अन्तिम काल में सादतउल्ला खां ने जाटों के नियंत्रण के लिये इनके मध्य में आकर छावनी बनाई, जो सादाबाद के नाम से मशहूर हुई। उसने 1652 ई. में जाटों का टपपा, जावरा, कुछ भाग जलेसर का, खंदोली के साथ गांव और महावन के 80 गांवों पर कब्जा करके सादाबाद के परगने में शामिल कर लिया। किन्तु जाट उसके अधीन होते हुए भी स्वतंत्र रहे। उन्होंने कभी सरकारी खजाने के लिये टैक्स नहीं दिया। रात-दिन युद्ध-आक्रमण और आघात-प्रत्याघात जारी रखे।
शाहजहां के बाद जिस समय उसके लालची लड़कों में राज्य-प्राप्ति के लिये गृह-युद्ध छिड़ा हुआ था माखनसिंहजी के प्रपौत्र श्री नन्दराम की भी शक्ति अपने साथ मिला ली। अपनी बहादुरी, साहसिकता और बुद्धिमानी से नंदरामजी ने अपनी रियासत को बहुत बढ़ा लिया। जिसे अपने भुजबल पर विश्वास होता है, शत्रु भी उससे झुक जाता है। औरंगजेब ने गद्दी पर बैठते ही नन्दराम की बढ़ती हुई शक्ति की ओर देखा, किन्तु वह उस समय जाटों से भिड़ना बुद्धिमानी नहीं समझता था।
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इसलिये उसने नन्दराम जी को फौजदार की उपाधि से विभूषित किया और तोछीगढ़ की तहसील उनके सुपुर्द कर दी। वास्तव में नन्दराम इस प्रांत के खुद-मुख्त्यार राजा हो चुके थे।
नन्दरामजी ने 40 वर्ष तक राज किया। इन्हीं 40 वर्षों में उनकी तलवार की चमक, हृदय की गंभीरता, भुजाओं की दृढ़ता काफी प्रसिद्धि प्राप्त कर चुकी थी। ऐसे योद्धा का सन् 1695 ई. में स्वर्गवास हो गया।
नंदरामजी के चौदह पुत्र थे, जिनमें जलकरनसिंहजी सबसे बड़े थे। दूसरे जयसिंहजी थे। सातवें योग्य पुत्र का नाम भोजसिंह था। आठवें चूरामन, नवें जसवन्तसिंह, दसवें अधिकरन, ग्यारहवें विजयसिंहजी थें। शेष पुत्रों के नाम हमें मालूम नहीं हो सके। चूरामन तोछीगढ़ के मालिक रहे। जसवन्तसिंह बहरामगढ़ी के अधिपति हुए। श्रीनगर और हरमपुर क्रमशः अधिकरन और विजयसिंहजी को मिले।
जलकरनसिंह अपने बाप के आगे ही स्वर्गवासी हो चुके थे। उनके सुयोग्य पुत्र खुशालसिंह अपने राज्य के मालिक हए। उनके चाचा भोजसिंहजी ने सादतउल्लाखां से दयालपुर, मुरसान, गोपी, पुतैनी, अहरी और बारामई का ताल्लुका भी प्राप्त कर लिया था। यह बड़े ही मिलनसार और समझदार रईस थे। मुरसान के प्रसिद्ध गढ़ का निर्माण इन्होंने बड़े हर्ष के साथ कराया था। इस समय इनके पास तोप और अच्छे-अच्छे घोढ़े अच्छी संख्या में थे। राज्य-विस्तार शनैःशनैः बढ़ रहा था। मथुरा, हाथरस और अलीगढ़ के बीच के प्रदेश पर इनका अधिकार प्रायः सर्वांश में हो चुका था।
इनके बाद इनके पुत्र पुहपसिंह राज्य के मालिक हए। उस समय के प्रसिद्ध लड़ाके योद्धाओं में आपकी गिनती होती है। ग्राम्य-गीतों में भरतपुर के साथ इनके युद्ध होने के शायद उनका मतलब प्राचीन से है। भरतपुर के साथ युद्ध में रणबांके सरदार पुहपसिंह हार गए, क्योंकि सूरजमल जैसे महारथी के सामने उनकी शक्ति इतनी न थी कि ठहर सकें। उन्हें मुरसान छोड़ना पड़ा। सासनी पर जाकर उन्होंने अधिकार जमा लिया। एक सुदृढ़ दुर्ग का निर्माण किया। सासनी का गढ़ आज भी जाटों के महान् अतीत की याद दिलाता है। 761 ई. में महाराजा जवाहरसिंहजी से अधीनता तथा मित्रता हो जाने के कारण पुहपसिंह फिर मुरसान के मालिक हो गए। देहली-युद्ध में पुहपसिंह जी ने महाराज जवाहरसिंह का साथ देकर अपने जातीय-धर्म का पालन किया था। यही कारण था कि सन् 1766 ई. में देहली के शासक नजीब खां ने अपनी सेना
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मुरसान पर कब्जा करने को भेजी। वीर जाट बड़ी बहादुरी के साथ लड़े, किन्तु उन्हें सफलता न मिली और मुरसान छोड़ना पड़ा।
हमें कहना पड़ता है कि राजपूतों में जो स्थान दृढ़ता और वीरता के लिहाज से दुर्गादास का है, वही स्थान जाटों में रणबांके राजा पुहपसिंह का है। उन्हें तनिक भी चैन न था। मुरसान को फिर से अपने हाथ में लेने की चेष्टा करते रहे, उत्तरोत्तर शक्ति-संचय करते रहे। वीर जाटों के दलों का संगठन किया। लगातार दस वर्ष तक तैयारी में लगे रहे और आखिर सन् 1785 ई. में मुरसान से शत्रुओं का मारकर भगा दिया।
मुरसान हाथ आ जाने से उनके हृदय को संतोष अवश्य हुआ, किन्तु महत्वाकांक्षी वीर पुहपसिंह बराबर राज्य बढ़ाते रहे। वृद्धावस्था में भी उन्हें रण प्रिय था। वे जीवन भर लड़ते रहने वाले योद्धाओं में से थे। मृत्यु-समय तक उन्होंने अपने राज्य का विस्तार किया। सन् 1789 ई. में इस असार संसार से आप प्रस्थान कर गये।
मरने से पहले ही आपने अपने राज्य की बागडोर अपने प्रिय पुत्र भगवन्तसिंह जी को सौंप दी थी। उस ठेनुआ राजवंश के अधीनस्थ पांच हजार सैनिक प्रतिक्षण तैयार रहते थे।
यह समय अंग्रेज और मराठा संघर्ष का था। अलीगढ़ उस समय कभी जाटों के हाथ में रहता था तो कभी मराठों के हाथ में। मराठों ने उस समय अलीगढ़ पर फ़्रांसिसी जनरल मि. पैरन को नियुक्त कर रखा था। अंग्रेज यह भी जानते थे कि जाट-मराठों में आपस में कभी-कभी छेड़-छाड़ भले ही हो जाती है किन्तु जाट मराठों को पिटता नहीं देख सकते, इसलिए अंग्रजों ने जाटों के बड़े घराने भरतपुर से सन्धि भी कर ली। फिर भी जाटों का अंग्रेजों को भय था। लार्ड लेक ने सासनी पर जो कि उस समय पहुपसिंहजी के अधिकार में थी, चढ़ाई कर दी। सासनी के आस-पास के ग्रामीण कहते हैं कि बराबर छः महीने तक लड़ाई होने पर सासनी अंग्रेजों के हाथ आया था। चाहे इस कथन में अतिरंजिता हो, किन्तु यह सही बात है कि सासनी सरलता से अंग्रेजों के हाथ नहीं आया था। इन्दौर से प्रकाशित होने वाली ’वीणा’ नामक मासिक पत्रिका के दूसरे वर्ष की सातवीं संख्या में मराठा लेखक श्रीयुत भास्कर रामचन्द्र भालेराव ने किसी केवलकिशन नाम के कवि का एक गीत दिया है। उस गीत से सासनी के बहादुर जाटों की वीरता पर अच्छा असर पड़ता है। उसका कुछ अंश हम भी यहां देते हैं -
- सुन्दर सभा ने गोद खिलाया है फिरंगी।
- गुलबदन के रंग से सवाया है फिरंगी।।
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- आदम से आदमी को बनाया है फिरंगी।
- लुकमान से किताब पढ़ाया है फिरंगी।।
- दोनों रुखों के बीच फिरंगी की बात है।
- सल्तनत हिन्दुस्तान की फिरंगी के हाथ है।।
- असबाब बादशाही का गोरों के साथ है।
- दूल्हा तो फिरंगी कुल आलम बरात है।।
- फिर आप जगन्नाथ को धाया है फिरंगी।
- चंचल चतुर परी ने वा जाया है फिरंगी।।1।।
- अव्वल तो किया जाके विजयगढ़ पै भी डेरा।
- फिर सासनी के नाई आधी रात को घेरा।।
- चकती तु लिखी लेक ने होते ही सवेरा।
- गढ़ खाली करो जल्दी कहा मान लो मेरा।।
- पत्री को देख बेटे पहुपसिंह के बोले।
- तैयार हों रनिवास के मुरसान को डोले।।
- नजर किये उनने वहां पांच भी गोले।
- गढ़ देवेंगे मगर जरा जंग तो होले।।
- क्या याद करेगा हमें धाया है फिरंगी।
- चंचल चतुर परी ने जाया है फिरंगी।।2।।
- बोले जो कंवर होवे जरा गढ़ की तैयारी।
- बुरजों पै तोप बढ़ने लगीं वे भी थीं भारी।।
- तोपों के फेर-फेर से गोले लगे झड़ने।
- और बाढ़ तिलंगों की लगी आगे को बढ़ने।।
- दिन रात की आठपहरियां नौबत लगी बजने।
- क्या खूब टकोरों से रिझाया है फिरंगी।
- चंचल चतुर परी ने जाया है फिरंगी।। 3।।
- गोले कई हजार वहां लेक ने मारे।
- और फंसि गए उस गढ़ के वे बुरजों से उसारे।।
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- आखिर को कुवर कम्पनी के दिल ही में हारे।
- गढ़ छोड़ सासनी का मुरसान को सिधारे।।
- कोयल औरे अलीगढ़ को धाया है फिरंगी।
- चंचल चतुर परी का जाया है फिरंगी।। 4 ।।
इस गीत काव्य से भी यही बात मालूम होती है कि सासनी घमासान युद्ध के बाद अंग्रेजों के हाथ लगा। पहुपसिंह के बेटों का स्वाभिमान भी देखिये - ‘गढ़ देवेंगे जरा जंग तो होले’ यह है क्षत्रियोचित उत्तर लार्ड लेक की चिट्ठी का। वे जानते थे कि असंख्य अंग्रेजी सेना उनके दुर्ग को तहस-नहस कर देगी, परन्तु बनियापन से तो गढ़ खाली न करना चाहिए। आखिर किया भी ऐसा ही।
यह पहले लिखा जा चुका है कि नन्दरामसिंहजी के 14 पुत्र थे जलकरनसिंह और जयसिंह उनमें अधिक प्रसिद्ध हुए हैं। भगवन्तसिंहजी, जलकरनसिंहजी के प्रपौत्र थे और सासनी तथा मुरसान के अधीश्वर थे । जयसिंहजी के प्रपौत्र राजा दयाराम जी थे जो कि हाथरस के मालिक थे। भगवन्तसिंह और दयाराम दोनों ही ने अपने राज्य का खूब विस्तार किया था। भगवन्तसिंह जी ने पीछे लार्ड लेक की मदद भी की थी, जिससे उन्हें सोंख और मदन का इलाका जागीर में मिला था।
मि. ग्राउस साहब की लिखी ‘मथुरा मेमायर्स’ को पढ़ने से पता चलता है - ‘मुरसान और हाथरस के राजा अपने को पूर्ण स्वतंत्रा समझते थे।’ इसलिए यह आवश्यक समझा गया कि इन लोंगों को इनके किलों से निकाल दिया जाए। लड़ने के लिए कुछ-न-कुछ बहाना मिल ही जाता है। ईस्ट इण्डिया कम्पनी के चार आदमियों पर हत्या का अभियोग था। वे चारों आदमी ठाकुर दयारामजी के राज्य में जा छिपे। अंग्रेजों ने दयाराम जी को लिखा कि उन्हें पकड़ कर हमारे सुपुर्द कर दो। स्वाभिमानी और शरणागतों की रक्षा करने वाले दयारामजी ने अंग्रेजों की इस मांग को अनुचित समझा। बस यही कारण था जिसके ऊपर कम्पनी के लोग उबल पड़े। जनरल मारशल के साथ एक बड़ी सेना मुरसान और हाथरस पर चढ़ाई करने के लिए भेजी। मुरसान के राजा साहब इस ओर से निश्चित थे। वहां लड़ाई की कोई तैयारी ही न थी। सिर पर जब शत्रु आ गया तब तलवार संभालनी ही पड़ी। यही कारण था कि तत्काल तैयारी न होने से मुरसान अंग्रेजों पर विजय न पा सका, और जनरल मारशल की विजय हुई।
मुरसान पर विजय प्राप्त करते ही अंग्रेजी सेना हाथरस पहुंची। इस बीच में हाथरस वाले संभल चुके थे। वैसे हाथरस का किला मुरसान के किले से अधिक मजबूत था। अलीगढ़ और मथुरा की ओर का हिस्सा तो और भी अधिक मजबूत था। हाथरस में रणचंडी का विकट तांडव हुआ। अंग्रेजी सेना के दांत खट्टे हो गए।
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यह युद्ध संवत 1874 विक्रम तदनुसार 1817 ई. में हुआ था। लड़ाई कई दिन तक होती रही। हाथरस के वीर जाटों ने दांत पीस-पीस कर अंग्रेजों पर हमले किए। प्राणों की बाजी लगा दी। किन्तु विजय-लक्ष्मी उनसे रूठ गई थी। दयारामजी ने अब अंग्रेजों से सन्धि करना ही उचित समझा। उन्होंने अंग्रेजी कैम्प में जाकर सन्धि की बात तय कर ली। किन्तु उनका पुत्र नेकरामसिंह, जो कि अहीर रानी के पेट से पैदा हुआ था, सन्धि करने पर राजी न हुआ। यहां तक कि वह अपने पिता दयाराम को सन्धि की चर्चा करने के कारण प्राण लेने पर उतारू हो गया। दयाराम ने भी जब नेकरामसिंह की ऐसी प्रबल सामरिक रुचि देखी तो पुनः युद्ध ठान लिया।
जब अंग्रेजों ने देखा अब सन्धि नहीं होगी तो पूर्ण बल के साथ हाथरस-दुर्ग के ऊपर हमला किया। जाट भी वन-केसरी की भांति छाती फुलाकर अड़ गये। श्री दयारामसिंहजी बड़ी संलग्नता से दुर्ग की देखभाल में व्यस्त थे। राजा से लेकर सैनिक तक सभी बड़े चाव से युद्ध कर रहे थे। वे आज अपना या शत्रु का फैसला कर लेना चाहते थे। वे थोड़े थे फिर भी बड़े उत्साह से लड़ रहे थे। किले पर से शत्रु के ऊपर वे अग्नि-वर्षा कर रहे थे। उन्हें पूरी आशा थी कि मैदान उनके हाथ रहेगा, किन्तु देव रूठ गया। बारूद की मैगजीन में अकस्मात् आग लग गई। बड़े जोर का घमाका हुआ, उनके असंख्य सैनिक भस्म हो गए। अब क्या था, शत्रु को पता लगने की देर थी, हाथरस स्वयं विजित हो गया। तड़के ही शत्रु उन्हें बन्दी बना लेगा। ऐसा सोचकर स्वाभिमानी दयाराम शिकारी टट्टू पर सवार होकर रातों रात किले से निकल भरतपुर पहुंचे। अब भरतपुर पहले का भरतपुर न था। जहां 12-13 वर्ष पहले उसने दूसरे लोगों को शरण दी थी, आज वह अपने ही भाई को शरण न दे सका। वहां से भी दयाराम जयपुर गए। किन्तु जब भरतपुर ही इस समय अंग्रेजों के दर्प को मान चुका था तो भला राजपूताने में और किसकी हिम्मत होती कि दयाराम को शरण देकर अंग्रेजों का कोप भाजन बनता? आगे-आगे दयाराम थे और पीछे-पीछे अंग्रेजी सेना। अन्त में दयाराम ने अंग्रजों से समझौता कर लिया। अंगेज सरकार ने उन्हें एक हजार मासिक पेन्शन देना स्वीकार कर लिया। कोई-कोई कहते हैं पेन्शन दो हजार मासिक थी। उन्होंने जीवन के शेष दिन अलीगढ़ में अपने नाम की छावनी बसा कर उसमें पूरे कर दिये। आज भी हाथरस के तथा आस-पास के लोग दयाराम का नाम बड़ी श्रद्धा और भक्ति के साथ याद करते हैं। वे बड़े उदार और दानी राजा थे। अभी तक उनकी दान की हुई जमीन कितने ही मनुष्य वंश परम्परागत से भोग रहे हैं। संवत् 1898 विक्रमी अर्थात् सन् 1841 ई. में उनका देहान्त हो गया। यही समय था जब पंजाब में महाराज रणजीतसिंह शासन कर रहे थे। यदि उस समय जाटों में कोई ऐसी शक्ति
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पैदा हो जाती जो पंजाब, भरतपुर और मुरसान के जाट नरेशों को संगठित कर देती तो आज भारत के बड़े भाग पर उनका अधिपत्य होता।
हाथरस युद्ध के पश्चात् भी इस ठेनुआं राज-वंश का शक्ति-वैभव बहुत कुछ शेष था। सन् 1875 ई. में अलीगढ़ के तत्कालीन कलक्टर ने अपनी रिपोर्ट में इनके सम्बन्ध में लिखा है -
- 'मुरसान के राजा का अधिपत्य समस्त सादाबाद और सोंख के ऊपर है । महावन, मांट, सनोई, राया, हसनगढ़, सहपऊ और खंदोली उनके भाई हाथरस वालों के हाथ में हैं।'
उक्त रिपोर्ट में आगे लिखा है कि लार्ड लेक की इन लोगों ने अच्छी सहायता की थी इसलिए अंग्रेजी सरकार ने इन्हें यह परगने दिये थे। यह भी हो सकता है कि इन जाट-केसरियों को तत्कालीन स्थिति के अनुसार प्रसन्न रखने में ही अंग्रेज सरकार की शान्ति के चिन्ह दिखाई पड़ते थे। इसमें सन्देह नहीं कोई जाट-खानदान बहादुर होने साथ सरल हृदय भी होता है। वे किसी से शत्रुता करते हों तो सच्चे दिल से और मित्रता करते हैं तो सच्चे दिल से। इसी स्वभाव के कारण उन्होंने जहां अंग्रेजों से डटकर युद्ध किया वहां समझौता होने पर सहायता भी की।
दयाराम जी के पश्चात् उनके बेटे गोबिन्दसिंहजी गद्दी पर बैठे। ये बड़े ही शान्ति-प्रिय थे। अंग्रेजों के साथ लड़कर अब शेष राज्य को नष्ट करने की भी इनकी इच्छा नहीं थी। अपने राज्य का बुद्धिमानी से प्रबन्ध करना ही उनका ध्येय था।
मुरसान के राजा भगवन्तसिंहजी का संबत् 1880 में स्वर्गवास हो गया। सरकार ने राज्य की बागडोर अपने हाथ में ले ली। इससे प्रजा में बड़ा अंसंतोष फैला। सभी तरफ से प्रजा ने अंग्रेज सरकार तक आवाज पहुचाई कि हमारे राजा से हमको अलग न किया जाए। इस आन्दोलन से प्रभावित होकर सरकार ने बहुत सा राज टीकमसिंहजी को जोकि भगवन्तसिंहजी के पुत्र थे, वापस लौटा दिया।1 बहुत से गांव सरकारी राज्य में मिला लिए गए। इस तरह मुरसान के पास पहले से तिहाई राज्य रह गया। राजा टीकमसिंहजी ने अपील भी की किन्तु फल कुछ नहीं निकला।
संवत् 1914 अर्थात् 1857 ई. में भारत में बगावत हुई। आरंभ में इसका रूप धार्मिक था किन्तु पीछे यह राजनैतिक रूप धारण कर गई। इस क्रान्ति में अंग्रेजी राज्य ही खतरे में नहीं आया किन्तु भारत में रहने वाले अंग्रेजों की जान भी खतरे में थी। ऐसे समय पर अंग्रजों से शत्रुता भी अनेक लोगों ने निकाली किन्तु हाथरस और मुरसान दोनों ही स्थानों के जाट रईसों ने दयापूर्वक अंग्रेजों की रक्षा की।
- 1. यू.पी. के जाट नामक पुस्तक से
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अलीगढ़ के तत्कालीन कलक्टर मि. ब्रामले ने स्पेशल कमिश्नर को 14 मई सन् 1858 ई. को लिखा था-
- ".....इन ठाकुर गोविन्दसिंह की राजभक्ति के कारण इनकी भारी आर्थिक हानि हुई है। 25वीं सितम्बर को इनकी तीस हजार रुपये से ऊपर की हानि हुई है। दिल्ली से लौटे हुए बागियों ने इनका वृन्दावन वाला मकान लूट लिया है। जिससे इनकी पैतृक संपत्ति की इतनी हानि हुई है जो पूरी नहीं की जा सकती।"
इसी तरह से मुरसान वालों की सहायता भी थी। अंग्रेज सरकार ने गोविन्दसिंह हाथरस वाले को पचास हजार नकद और मथुरा तथा बुलन्दशहर जिले में कुछ गांव उस सहायता के उपलक्ष में दिए और मुरसान के टीकमसिंहजी को गोंडा और सेमरा के दो बड़े मौजे दिये। दो पुस्त तक सात गांवों का खिराज कतई माफ कर दिया। साथ ही राजा बहादुर और सी.आइ. ई. का खिताब भी दिया। 25वीं जून सन् 1858 ई. में लार्ड कैनिंग ने इन लोगों को राज-भक्ति की एक सनद भी दी।
संवत् 1935 विक्रमी तदनुसार सन् 1878 ई. में राजा बहादुर टीकमसिंहजी का स्वर्गवास हो गया। उनके एक पुत्र कुंवर घनश्यामसिंहजी मुरसान की गद्दी पर बैठे। राजा घनश्यामसिंहजी बड़े दानी और भक्त थे। उन्होंने जमुनाजी के किनारे वृन्दावन में एक आलीशान भवन अपने रहने के लिए बनवाया। राज का प्रबन्ध भी बहुत अच्छी तरह से करते थे। सम्बत् 1959 अर्थात् सन 1902 ई. में राजा घनश्यामसिंहजी का स्वर्गवास हो गया। यह राजा साहब महाराज जसवन्तसिंहजी भरतपुर के समकालीन थे।
घनश्यामसिंहजी के पश्चात् उनके सुपुत्र राजा दत्तप्रसादसिंहजी मुरसान के राजा हुए। राजा साहब बड़े ही सीधे और मिलनसार थे। जाट महासभा के कार्यों में भी दिलचस्पी लेते थे। अनेक कारणों से आपके राज्य-कोष में बड़ी कमी आ गई थी। रियासत कोट ऑफ वार्डस के अधिकार में चली गई थी। इसमे कोई सन्देह नहीं कि राजा बहादुर सर्वप्रिय व्यक्ति थे। सम्वत् 1990 विक्रमी के पूर्व भाग में आपका स्वर्गवास हो गया।
इस पुस्तक के लेखन-काल में मुरसान की राजगद्दी पर स्वनाम धन्य राजा बहादुर श्रीकिशोर-रमनसिंहजी विराजमान थे। उस समय भी मुरसान के अधीश्वर के पास केवल अलीगढ़ जिले में ही 88 मौजे और मुहाल थीं। इनके सिवा अन्य जिलों में भी उनकी सम्पत्ति थी।
गोविन्दसिंहजी की शादी भरतपुर के प्रसिद्ध नरेश महाराज जसवन्तसिंहजी के मामा रतनसिंहजी की बहन से हुई थी। उनके एक बच्चा भी हुआ था जो मर गया। राजा गोविन्दसिंहजी का संबत् 1918 में स्वर्गवास हो गया। पीछे विधवा रानी साहिबा ने जतोई के ठाकुर रूपसिंहजी के पुत्र हरनारायणसिंहजी को गोद ले लिया।
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जतोई का घराना भी ठेनुआ जाट सरदारों का ही है, किन्तु दयारामजी की अहीर-स्त्री के पुत्र नेकरामसिंह के लड़के केसरीसिंहजी ने हरनारायणसिंहजी के गोद लिये जाने का विरोध किया और हाथरस की गद्दी का स्वयं को हकदार बताया। बहुत समय तक इस मामले में मुकद्दमेबाजी होती रही। अन्त में दीवानी अदालत और हाईकोर्ट से राजा हरनारायणसिंहजी ही बहाल रहे। राजा हरनारायणसिंहजी का जन्म संवत् 1920 विक्रमी में हुआ था। संवत् 1933 के देहली के दरबार में उनको राजा की उपाधि मिली थी। यह राजा साहब बड़े लोकप्रिय थे। संबत् 1952 में इनका स्वर्गवास हो गया। इनके कोई पुत्र न था, इसलिए मुरसान से कुवर महेन्द्रप्रतापजी को गोद लेकर इन्होंने उन्हें अपना उत्तराधिकारी बनाया। राजा महेन्द्रप्रताप जी इस समय विदेश में थे। उनके सुयोग्य पुत्र श्री प्रेमप्रताप हाथरस की रियासत के मालिक थे जो वृन्दावन के राजा भी कहलाते थे। कुंवर साहब अभी नाबालिग थे, इसलिए राज्य का कार्य कोर्ट ऑफ वार्डस के हाथ में रहा था।
जात इतिहास
सासनी उत्तरप्रदेश में हाथरस जिली की एक विधानसभा है। यह क्षेत्र ठेनुआ जाटों के अधीन था । राजा पहुप सिंह ने यहाँ एक किले का निर्माण करवाया था । ठेनुवा जाट राजाओं ने किले की सुरक्षा के लिए सिकंदर राव और सासनी के आसपास बहुत से छोटे किले गढ़ी बनवाई थी जिनमे गढ़ी बीरबल, गढ़ी कचौरा, गढ़ी बिजैगढ़ प्रसिद्ध थी ।
ब्रिटिश लेफ्टिनेट जॉन की डायरी के अनुसार राजा भगवंत सिंह ने शरण में आये क्रांतिकारियों को ब्रिटिश सरकार को देने से मना कर दिया था । जिसके बाद ब्रिटिश कर्नल ब्लेयर ब्रिटिश आर्मी की 4 बटालियन लेकर 2 दिसम्बर 1802 के दिन कासगंज पंहुचा था । यहाँ से 7 दिसम्बर 1802 को सिकंदर राव पंहुचा गया था। ब्रिटिश सेना 11 दिसम्बर 1802 को सासनी के किले के सामने पहुंच चुकी थी । जहाँ जाट सेना और ब्रिटिश आर्मी के मध्य में युद्ध हुआ था। जाट सैनिकों के हमले में ब्रिटिश लेफ्टिनेट जॉन घायल हो गए ब्रिटिश सेना जाट राजा के हाथों पराजित हो गई थी इसके बाद जनरल लेक खुद 28 जनवरी 1803 ईस्वी में सासनी पंहुचा ।
भागती हुई ब्रिटिश फ़ौज को पुनः एकजुट किया परन्तु ब्रिटिश फ़ौज जाट राजा से इस कदर भयभीत थी, कि जनरल लेक को ब्रिटिश आर्मी विश्व प्रसिद्ध 27 वि ड्रेगन रेजिमेंट को युद्ध के लिए बुलवाना पड़ा । इसके बाद ब्रिटिश आर्मी ने हमला शुरू किया जाट फौजे आसपास की गढ़ी से निकल कर ब्रिटिश आर्मी पर टूट पड़ी इस लड़ाई में जनरल लेक एक जाट सैनिक के वार से बाल बाल बचे, लेकिन जनरल लेक का घोडा इस लड़ाई में मारा गया था। इस 3 महीने के युद्ध में सासनी के किले में जाट राजा के पास हथियारों की कमी हो जाने के बाद ब्रिटिश आर्मी ने 7 फरबरी 1803 को किले पर कब्ज़ा कर लिया था ।
पर्यटन स्थल बनेगी सासनी की उदय सिंह कचहरी
सासनी क्षेत्र में पुरातत्व विभाग की ओर से संरक्षित उदय सिंह की कचहरी को पर्यटन स्थल के रूप में विकसित किया जाएगा। पर्यटन निदेशालय की ओर से इस स्थल पर पर्यटन विभाग की ओर से कार्य कराए जाने के लिए कार्ययोजना में शामिल कर लिया गया है। इसे लेकर पर्यटन विभाग, कार्यदायी संस्था व पुरातत्व विभाग के अधिकारियों ने स्थलीय निरीक्षण कर सीमांकन भी कर लिया है।
सासनी में राजा उदय सिंह की कचहरी के नाम से पौराणिक स्थल है। इस स्थल को राज्य पुरातत्व विभाग की ओर से संरक्षित स्थलों में शामिल कर रखा है। यह कचहरी अब खंडहर का रूप ले चुकी है। इस खण्हर के अब जल्द ही दिन बहुरेंगे। विधायक सदर अंजुला सिंह माहौर द्वारा इस स्थल को पौराणिक दृष्टि से विकसित कराने के लिए शासन को प्रस्ताव भेजा गया था। इस प्रस्ताव पर पर्यटन विभाग की ओर से कार्ययोजना में शामिल कर लिया गया है।
इसके तहत अब इस स्थल को पर्यटक स्थल के रुप में विकसित करने को लेकर विभाग की ओर से खाका खींचा जा रहा है। पर्यटन विभाग की ओर से कार्यदायी संस्था के माध्यम से स्थल का निरीक्षण कर सीमांकन की कार्रवाई भी पूरी कर ली गई है। धनराशि के स्वीकृत होते ही उक्त स्थल पर यात्री सुविधाओं के साथ ही स्थल के प्रचार प्रसार की व्यवस्था भी की जाएगी, जिससे पर्यटकों को बढ़ावा मिल सके।
विभाग की ओर से उदय सिंह की कचहरी को पर्यटन स्थल के रूप में विकसित करने के लिए कार्ययोजना में शामिल कर लिया गया है। इसके तहत इस पौराणिक स्थल पर विभिन्न कार्य कराए जाएंगे। सर्वे का कार्य हो चुका है। विशाल श्रीवास्तव, जिला पर्यटन सूचना अधिकारी
उदय सिंह की कचहरी का इतिहास: यह क्षेत्र पांडववंशी ठेनुआं जाटों के अधीन था। जाट राजा पहुप सिंह ने यहां एक किला बनवाया था। ठेनुआं जाट राजाओं ने किले की सुरक्षा के लिए सिकंदराराऊ व सासनी के आसपास छोटी-छोटी किले की गढ़ी बनवाई थी, जिसमें गढ़ी बीरबल, गढ़ी कचौरा, गढ़ी बिजैगढ़ प्रसिद्ध थी। इस किले का इतिहास करीब 300 साल से ज्यादा पुराना है। बताया जाता है कि राजा उदय सिंह यहां आकर कचहरी लगाकर आपसी विवाद के फैसलों की सुनवाई करते थे। यहां तक कि ज्यादातर मामलों में सुलह कराया जाता था। उदय सिंह की कचहरी को पुरातत्व विभाग की ओर से संरक्षित कर लिया गया है।
Source - Amar Ujala, Aligarh, 18.1.2023
Villages in Sasni tahsil
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References
- ↑ Thakur Deshraj: Jat Itihas, p. 567-68
- ↑ Jat History Thakur Deshraj/Chapter VIII ,pp.567-571
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