Jat History Thakur Deshraj/Chapter VIII

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जाट इतिहास
लेखक: ठाकुर देशराज
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अष्टम अध्याय : संयुक्त-प्रान्त के जाट-राज्य

प्राचीन जनपद तथा अर्वाचीन स्टेटें

जिस प्रान्त को आज संयुक्त-प्रान्त के नाम से बोलते हैं, प्राचीन-काल में वह अनेक छोटे-छोटे राज्यों में बटा हुआ था, जो कि सूरसैन, ब्रज, कान्यकुब्ज, काश्यकार, पशव आदि अनेक नामों से प्रसिद्ध थे। ऐसे छोटे-छोटे राज्य जनपद कहे जा सकते हैं। कभी इन प्रान्तों पर एक राजा का राज्य रहता था तो कभी जन-समूह का। आज यह पता लगाना कठिन है कि किस स्थान पर किन लोगों का राज्य था और आज उनके वंश के लोग कौन हैं। पिछले पांच हजार वर्ष की अनेक क्रान्तियों तथा हेरा-फेरों ने खोज के काम को और भी चक्कर में डाल दिया है। किन्तु यह तो सही है कि जिन लोगों के राज रहे होंगे उनकी प्रलय तो हो नहीं गई। यह हो सकता है और हुआ भी है कि उनके हाथ से राज निकल गये और राज निकल जाने के बाद आज वे ऐसी दशा में हो गये कि उनके सम्बन्ध में यह कल्पना भी नहीं हो सकती कि उनके पूर्वज राजाधिकारी रहें होंगे। हमें संयुक्त-प्रदेश में जिसका नाम अब सूब-ए-हिन्द भी रखा जा रहा है, कुछ ऐसे जाति-समूह मिलते हैं जो किसी समय गणतंतत्री अथवा एकतंत्री शासक रह चुके हैं। ऐसे शासक-समूहों में से जाटों में जिनका अस्तित्व पाया जाता है, उनका यहां वर्णन करते हैं चूंकि हमारे इतिहास का सम्बन्ध जाटों तक ही है।

नव

ये लोग वर्तमान नोह के आसपास के प्रदेश पर राज्य करते थे। महाभारत के पश्चात् यह भारत के उत्तर में आ पहुंचे थे, खोतान के पास नोह नामक झील के किनारे जाकर आवास किया था। सन् ईसवी के प्रारम्भिक काल में अपनी पितृ-भूमि वापस आ गये और जलेसर के पास बस्तियां आबाद कीं। वहां से उठकर वर्तमान नोह में एक झील खोदी और उसमें दुर्ग निर्माण किया।


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गदर सन् 1857 तक किसी न किसी रूप में ये वहां के शासक रहे हैं। ‘मथुरा मेमायर्स’ के हवाले से इनका कुछ हाल हम पीछे लिख चुके हैं। अब यह नोहबार (झील के नाम से) मशहूर हैं।

अन्धक

भगवान् कृष्ण ने पहले-पहल अन्धक और वृष्णि लोगों को सम्मिलित करके ही ज्ञाति राज्य की नींव डाली थी जिसका कि हम पीछे के पृष्ठों में वर्णन कर चुके हैं। अन्धक लोग मथुरा से उत्तर की ओर आजकल के आंजई नामक स्थान के आसपास गणतंत्र प्रणाली से शासन करते थे। साम्राज्यवादी जरासंध से तंग आकर ये वृष्णियों के साथ समुद्र-स्थित द्वारिका में जा बसे थे। राजपूताने से होकर ये किस समय संयुक्त-प्रदेश में वापस आए, यह कुछ पता नहीं चलता। किन्तु आजकल ये औंध, अन्तल और अनलक नामों से पुकारे जाते हैं। अन्धक शब्द का औंध, अन्तल और अनलक बन जाना भाषा-शास्त्र से बिल्कुल सम्भव है।

कोइल

प्राचीन समय में ये लोग कांपिल्य कहलाते थे। इसी नाम से इनका देश प्रसिद्ध था। कांपिल्य से उठकर इन्होंने कंपिलगढ़ बसाया। जो कि गंगा के दक्षिण-पूर्व में था। यह कंपिलगढ़ ही भविष्य में कोइल नाम से मशहूर हुआ जो कि अब अलीगढ़ कहलाता है। ‘बंगला विश्व कोष’ में नगेन्द्रनाथ बसु लिखते हैं - सन् 1757 ई. में जाट लोगों ने रामगड़ पर अधिकार कर लिया और उसका नाम कोइल रखा।1 इनके हाथ से कोइल मराठों ने ले लिया और पीरन नाम के फ्रांसीसी को वहां का हाकिम नियुक्त किया था। हमें काइल का इससे भी पहले का वर्णन एक प्रचलित राग ढोला में मिलता है। यहां अर्थात् कंपिलगढ़ में फूलसिंह पंजाबी (जाट) राज करता था। उसने कछवाहे राजा प्रथम की स्त्री को छीन लिया था और उसे अपनी रिवाज के अनुसार स्त्री बनाना चाहा था। कुछ समय तक महाराजा सूरजमल जी भरतपुर का भी कोइल पर अधिकार रहा था।

श्याम

ये लोग मथुरा से दक्षिण-पच्छिम गोवर्धन के आसपास राज करते थे। ये वसुदेव के भाई श्यामक की संतान में से हैं। महाराज अजमीढ़ के दो रानियां थीं - एक क्षत्रियाणी, दूसरी वैश्याणी। क्षत्रियाणी रानी से दस पुत्र हुए, उन्हीं में एक श्यामक थे। यथा-


1. बंगाल विश्वकोष। जिल्द 7, पृ. 7


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वसुदेवं देवभागं देवश्रवसमाऽनकम्।
सृंजयं श्यामकं कंकम् समीकम् वत्सकम्वृकम्॥1॥
अर्थात् (1) वसुदेव, (2) देवभाग, (3) देवश्रवा, (4) आनक, (5) सृंजय, (6) श्यामक, (7) कंक, (8) समीक, (9) वत्सक और (10) वृक

भगवान श्रीकृष्ण के पिता गोवर्धन में राज करते थे। निकट के सभी गणराज्यों में उन (वसुदेव) का प्रभाव था।

वसुदेव के समय में उनके समीपवर्ती अनेक राज्यों के नाम गर्ग-संहिता में आते हैं। उनमें कुछ एक के शासकों के नाम इस प्रकार हैं - वीरभान, चन्द्रभान, शचिभान, कीर्तिभान, वृषभान,नन्द, सुनन्द, सुप्रभानन्द, हरनन्द आदि-आदि। इनमें से कुछ एक के लिए तो आज भी लोग जानते हैं कि वे कहां के राजा थे और उनके समुदाय के लोग किस जाति में पाये जाते हैं। जैसे वृषभान - बृज का बच्चा-बच्चा जानता है कि वे गूजर थे। नन्द के लिये कुछ विदेशी विद्वानों ने जाट लिखा है। अलवरूनी ने भी श्रीकृष्ण व उनके पालक पिता को जाट लिखा है। अहीरों का दावा है कि नन्द अहीर थे। हमारा भी यही ख्याल है कि नन्द के समूह के लोग अहीरों में शामिल हैं, किन्तु अहीर और जाट में कोई अन्तर नहीं, जाटों में कुछ लोग अब तक अपना गोत अहेर वंशी बतलाते हैं। इसमें भी कोई सन्देह नहीं है कि अहीरों का कुछ समूह जाट और राजपूतों में परिणत हो गया है। अहीर राजपूतों में परिवर्तित हो गये, ऐसा मि. भट्टाचार्य ने भी अपनी पुस्तक में लिखा है। उनका कहना है कि-

It seems very probable that the Yaduvanshis Rajputs are derived from the Yadubansis-Ahirs. 2
अर्थात् - “यह संभव है कि यादव वंशीय राजपूतों का निकास (उत्पत्ति) यादववंशीय अहीरों से है।”

यादव अहीर, जाट और राजपूत तीनों ही जातियों में पाए जाते हैं। उनके इस प्रकार विभक्त होने के कारण राजनैतिक व साम्प्रदायिक अनैक्यता है। रक्त में कोई अन्तर नहीं। अस्तु ।

हमारा उद्देश्य इस स्थल पर यह नहीं कि हम जाट व अहीर यादवों की एकता सिद्ध करें। कहने का अभिप्राय यह है कि ऊपर लिखे राजाओं में कोई जाट थे। ये सारे ही राजा अथवा बहुत छोटे-छोटे जनपद थे। कोई उनमें से दो-चार गांवों के ही शासक थे।


2. यदुकुल सर्वस्व पृ. 9 ।
1. नन्द महोत्सव, पृ. 14 ।
2. इण्डियन कास्टस एण्ड ट्राइब्स। (मि. भट्टाचार्य लिखित)।


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शूर

खेमकरण सोगरिया शेर से लड़ते हुए

बटेश्वर के आसपास शूर लोगों का राज्य था। कुछ लोगों के मत से सिनसिनी के आसपास शूर लोग राज्य करते थे। एक समय उनका इतना प्रचंड प्रताप था कि सारे देश का नाम ही शौरसैन हो गया। समस्त यादव शौरसैनी कहलाने लगे। मध्यभारत की भाषा का नाम ही उनके नाम पर पड़ गया। आज वे संयुक्त प्रदेश और राजपूताने में सिहोरे (शूरे) सूकरे और सोगरवार कहे जाते हैं। शूरसैनी लोगों की एक शाख पहले सेवर (शिवर) भरतपुर के निकट आबाद थी। आसपास के अनेक गांवों पर उसका प्रभुत्व था। वंशावली रखने वाले भाटों ने सिनसिनवार और सौगरवारों को 10-12 पीढ़ी पर ही कर दिया है। यह गलत है। हां, वे दोनों ही यादव अथवा चन्द्रवंश संभूत हैं। सोगरवार लोगों में सुग्रीव नाम का एक बड़ा प्रसिद्ध योद्धा हुआ है। उसने वर्तमान सोगर को बसाया था। उस स्थान पर एक गढ़ बनाया थ, जो सुग्रीवगढ़ कहलाता था। सुग्रीव गढ़ ही आजकल सोगर कहलाता है जो क्रमशः सुग्रीव गढ़ से सुगढ़, सोगढ़ और सोगर हो गया है। यहां पर सुग्रीव का एक मठ है। सारे सोगरवार पहले उसके नाम पर फसल में से कुछ अन्न निकालते थे। अब भी ब्याह-शादियों में सुग्रीव के मठ पर एक रुपया अवश्य चढ़ाया जाता है। इसी वंश में खेमकरण नाम का एक प्रचंड वीर उत्पन्न हुआ था। वह महाराज सूरजमल से कुछ समय पहले उत्पन्न हुआ था। औरंगजेब की सेना के उसने रास्ते बन्द कर दिये थे। अपने मित्र रामकी चाहर के साथ मिलकर आगरा, धौलपुर और ग्वालियर तक उसने अपना आतंक जमा दिया था। मुगलों के सारे सरदार उसके भय से कांपते थे। कहा जाता है वर्तमान भरतपुर उसी के राज्य में शामिल था। दोपहर को धोंसा बजाकर भोजन करता था। आज्ञा थी कि धोंसे के बजने पर जो भी कोई भाई सहभोज में शामिल होना चाहे, हो जाये। वीर होने के सिवा खेमकरण दानी और उदार भी था। कहा जाता है कि उसके पास हथिनी बड़ी चतुर और स्वामिभक्त थी। यह प्रसिद्ध बात है कि अडींग के तत्कालीन खूटेल शासक ने उसे भोजन में विष दे दिया था। जिस समय खेमकरण भोजन पर बैठा था उसे मालूम हो गया था कि भोजन में विष है, किन्तु कांसे पर से उठना उसने पाप समझा। भोजन करते ही हथिनी पर सवार होकर अपने स्थान सुग्रीवगढ़ को चल दिया। कहा जाता है कि विष इतना तीक्षण था कि वह हथिनी पर ही टुकड़े-टुकड़े हो गया। उसके मरने पर उसकी हथिनी भी मर गई। वह बलवान इतना था कि कटार से ही एक साथ दो दिशाओं से छूटे शेरों को मार देता था। मुगल बादशाहों ने उसे फौजदार का खिताब दिया था। सोगर का ध्वंश गढ़ उसके अतीत की स्मृति दिलाता है। यह स्थान संयुक्त-प्रदेश की सीमा के निकट राजस्थान में है।


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गढ़वाल

आजकल यह राजपूताने में पहुंच गए हैं। गढ़वाल इनकी उपाधि है। अनंगपाल के समय में गढ़मुक्तेश्वर में इनका राज्य था। राजपाल के वंशजों में कोई जाट सरदार मुक्तसिंह थे, उन्होंने गढ़मुक्तेश्वर का निर्माण कराया था। जब पृथ्वीराज दिल्ली का शासक हुआ तो इन्हें उसके सरदारों ने छेड़ा। युद्ध हुआ। अमित पराक्रम के साथ चौहानों के दल को इन्होंने हटा दिया, किन्तु स्थिति ऐसी हो गई कि इन्हें गढ़मुक्तेश्वर छोड़ना पड़ा और यह राजपूताने की ओर चले गये।1 तलावड़ी के मैदान में जिस समय मुहम्मद गौरी और पृथ्वीराज में लड़ाई हुई तो जाटों ने मुसलमानों पर आक्रमण किया, उन्हें तंग किया, किन्तु पृथ्वीराज से उन्हें कोई सहानुभूति इसलिए नहीं थी कि उसने उनके एक अच्छे खानदान का राज हड़प लिया था। यही क्यों, पूरनसिंह नाम का एक जाट योद्धा मलखान की सेना का जनरल हो गया। उसने मलखान के साथ मिलकर अनेक युद्ध किये। वास्तव में मलखान की इनती प्रसिद्धि पूरनसिंह जाट सेनापति के कारण हुई थी।1 गढ़वालों का शेष वर्णन राजस्थानी जाटों के वर्णन में लिखा है।

जत्रि

इन लोगों को कहीं जतरान और कहीं जितरान बोलते हैं। अपने मघ्यकाल में ये लोग चित्तौड़ के आसपास थे। अलवरूनी ने चितौड़ का नाम जित्रौर लिखा है जो इन्हीं के कारण प्रसिद्ध रहा था। मेवाड़ का पहला नाम मेदपाट था। यहां शिव लोगों का जो कि अब जाटों में शिवि गोत्र के नाम से मशहूर हैं एक जनपद था। मद्र और मेद लोग भी जाटों में पाये जाते हैं, सम्भवतया जाट मेदों के कारण ही इस देश का नाम मेदपाट था।

जत्रि अथवा जतरान जाट चित्तौड़ से चलकर अनेक स्थानों में चले गये। कुछ बिजनौर, कुछ ग्वालियर और कुछ जलेसर की ओर फैल गए। जिला अलीगढ़ में जतरौली नामक स्थान पर उन्होंने अपना राज्य कायम किया। पीछे यह स्थान नोहवारों के हाथ आ गया। राव रतीराम नामक सरदार के समय में इब्राहीम लौदी ने नोहवारों को भी जतरौली से निकाल दिया। राव रतीराम नरबर की ओर चला गया और उसके पुत्रों ने नोह को अपने पुरोहित को दे दिया। अपने लिए वाजपा और भेनराय स्थानों पर गढ़ी बनाई।2 जतरौली से जत्रि लोग इधर-उधर पहले ही फेल चुके थे।


1. तहसीलदार कुरड़ारामजी, नवलगढ़ द्वारा प्राप्त
2. काशी नागरी-प्रचारिणी पत्रिका। भाग 12, अंक 3, पृ. 375

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हाला

आन्ध्र-वंश में महाराज हाल (सातवाहन हाल) एक प्रसिद्ध नरेश हो गये हैं। वे बड़े विद्या-प्रेमी थे। उनके समय में एक ग्रन्थ तैयार हुआ था जिसका नाम गाथा सप्तशती था। इसमें सात सौ कथाएं थीं। यह प्रतिष्ठानपुर में राज्य करते थे। प्रतिष्ठानपुर को कुछ लोग निजाम राज्य का पैठन और कुछ लोग इलाहाबाद के पास का बिठूर बतलाते हैं।2 इनके ग्रन्थ गाथा सप्तशती में राजा विक्रमादित्य की दानशीलता का इस प्रकार वर्णन है-

“संवाहन सुखरस तोषि तेन ददता तव करे लाक्षाम्।
चरणेन विक्रमादित्य चरित मनु शिक्षितं तस्याः।”

राजा हाल का समय ई. सन् 69 के इधर-उधर का है।3

कुछ क्षत्रिय-जातियों का पथ दक्षिण से उत्तर को है। हाल के वंशज तथा समुदाय के लोग भी इसी तरह दक्षिण-भारत से उत्तर भारत में आ गये और यू.पी. तथा राजस्थान में फेल गये। जाटों के दल में वे हाला के नाम से पुकारे जाते हैं।

कुन्तल

महाभारत में कुन्ति-भोज और कौन्तेय लोगों का वर्णन आता है। कुन्ति-भोज तो वे लोग थे जिनके कुन्ति गोद थी। कौन्तेय वे लोग थे, जो पांडु के यहां महारानी कुन्ती के पैदा हुए थे। महाराज पांडु के दो रानी थीं - कुन्ती और माद्री। कुन्ती के पुत्र कौन्तेय और माद्री के माद्रेय नाम से कभी-कभी पुकारे जाते थे। ये कौन्तेय ही कुन्तल और आगे चलकर खूटेल कहलाने लग गए। जिस भांति अपढ़ लोग युधिष्ठिर को जुधिस्ठल पुकारते हैं उसी भांति कुन्तल भी खूटेल पुकारा जाने लगा। बीच में उर्दू भाषा ने कुन्तल को खूटेल बनाने में और भी सुविधा पैदा कर दी। खूटेल अब तक बड़े अभिमान के साथ कहते हैं -

“हम महारानी कौन्ता (कुन्ती) की औलाद के पांडव वंशी क्षत्रिय हैं।”

भाट अथवा वंशावली वाले खूटेला नाम पड़ने का एक विचित्र कारण बताते हैं - “इनका कोई पूर्वज लुटेरे लोगों का संरक्षक व हिस्सेदार था, ऐसे आदमी के लिये खूटेल (केन्द्रीय) कहते हैं।” किन्तु बात गलत है। खूटेल जाट बड़े ही ईमानदार और शान्ति-प्रिय होते हैं।


2. ट्राइब्स एण्ड कास्टस् आफ दी नार्दन प्राविंसेस एण्ड अवध, लेखक डब्ल्यू. क्रुक।
3. सरस्वती। भाग 33, संख्या 3 ।


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वंशावली वाले इन्हें भी तोमरों से उसी भांति अलग हुआ मानते हैं कि राजपूत तोमर ने जाटनी से शादी कर ली, इस कारण यह राजपूत से जाट हो गए। हम कहते हैं कि तोमर राजपूत ही तोमर जाटों से निकले हुए हों तो क्या अचम्भा है?


‘मथुरा सेमायर्स’ पढ़ने से पता चलता है कि हाथीसिंह नामक जाट (खूटेल) ने सोंख पर अपना अधिपत्य जमाया था और फिर से सोंख के दुर्ग का निर्माण कराया था। हाथीसिंह महाराजा सूरजमल जी का समकालीन था। सोंख का किला बहुत पुराना है। राजा अनंगपाल के समय में इसे बसाया गया था। गुसाई लोग शंखासुर का बसाया हुआ मानते हैं। मि. ग्राउस लिखते हैं -

"जाट शासन-काल में (सोंख) स्थानीय विभाग का सर्वप्रधान नगर था।1 राजा हाथीसिंह के वंश में कई पीढ़ी पीछे प्रह्लाद नाम का व्यक्ति हुआ। उसके समय तक इन लोगों के हाथ से बहुत-सा प्रान्त निकल गया था। उसके पांच पुत्र थे - (1) आसा, (2) आजल, (3) पूरन, (4) तसिया, (5) सहजना। इन्होंने अपनी भूमि को जो दस-बारह मील के क्षेत्रफल से अधिक न रह गई थी आपस में बांट लिया और अपने-अपने नाम से अलग-अलग गांव बसाये। सहजना गांव में कई छतरियां बनी हुई हैं। तीन दीवालें अब तक खड़ी हैं ।

मि. ग्राउस आगे लिखते हैं -

"इससे सिद्ध होता है कि जाट पूर्ण वैभवशाली और धनसम्पन्न थे। जाट-शासन-काल में मथुरा पांच भागों में बटा हुआ था - अडींग, सोसा, सांख, फरह और गोवर्धन2

‘मथुरा मेमायर्स’ के पढ़ने से यह भी पता चलता है कि मथुरा जिले के अनेक स्थानों पर किरारों का अधिकार था। उनसे जाटों ने युद्ध द्वारा उन स्थानों को अधिकार में किया। खूंटेला जाटों में पुष्करसिंह अथवा पाखरिया नाम का एक बड़ा प्रसिद्ध शहीद हुआ है। कहते हैं, जिस समय महाराज जवाहरसिंह देहली पर चढ़कर गये थे अष्टधाती दरवाजे की पैनी सलाखों से वह इसलिये चिपट गया था कि हाथी धक्का देने से कांपते थे। पाखरिया का बलिदान और महाराज जवाहरसिंह की विजय का घनिष्ट सम्बन्ध है।

अडींग के किले पर महाराज सूरजमल से कुछ ही पहले फौंदासिंह नाम का कुन्तल सरदार राज करता था। उसने सिनसिनवारों की अधीनता स्वीकार कर ली थी। कहा जाता है कि खेमकरन सोगर नरेश को फौंदासिंह ने ही जहर दिया था।


1. मथुरा मेमायर्स, पृ. 379 । आजकल सोंख पांच पट्टियों में बंटा हुआ है - लोरिया, नेनूं, सींगा, एमल और सोंख। यह विभाजन गुलाबसिंह ने किया था।
2. मथुरा मेमायर्स, पृ. 376 ।


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पेंठा नामक स्थान में जो कि गोवर्धन के पास है, सीताराम (कुन्तल) ने गढ़ निर्माण कराया था। कुन्तलों का एक किला सोनोट में भी था।

कुन्तल (खूंटेल) सिनसिनवारसोगरवारों की भांति डूंग कहलाते हैं। लोग डूंक शब्द से बड़े भ्रम पड़ते हैं। स्वयं डूंग कहलाने वाले भी नहीं बता सकते कि हम डूंग क्यों कहलाते हैं? वास्तव में बात यह है कि डूंग का अर्थ पहाड़ होता है। पंजाब में ‘जदू का डूंग’ है। यह वही पहाड़ है जिसमें यादव लोग, कुछ पाण्डव लोगों के साथ, यादव-विध्वंश के बाद जाकर बसे थे। बादशाहों की ओर से खूंटेल सरदारों को भी फौजदार (हाकिम-परगना) का खिताब मिला था।

पचहरे

यह शब्द पांचाल का अपभ्रंश है। राजा जगदेव उनमें एक प्रसिद्ध राजा हो गये हैं, ऐसा इनका अनुमान है। यह पंजाब में मालवा होकर बृज में आए हैं। पहले इन्होंने पचपुरी नामक स्थान में, जो आजकल पीपरी कहलाता है, गढ़ निर्माण कराया था। सरदार अरिसिंह की अध्यक्षता में अरिखेड़ा अथवा आयरखेड़ा की नींव डाली। गदर के समय में रामसिंह नाम के एक सरदार ने विद्रोह में भाग लिया था। मथुरा जिले में इनकी भारी संख्या है।

जूरैल

यह शब्द युवराजिक से बना है। जैन-ग्रन्थों में हम जुवरायिणा लोगों का वर्णन पढ़ते हैं। जुवरायिणा वे लोग थे जिनके यहां शासन कार्य में राजा की अपेक्षा युवराज का हाथ अधिक रहता था। युवराजिक से जुवराजिक और फिर जुवरैल तथा जूरैल शब्द बन गया। इन लोंगों का अस्तित्व-जैन काल में मालवा और मगध के आस-पास पाया जाता है।

सिकरवार

आगरा जिले में सीकरी नामक स्थान को इन्हीं लोगों ने बसाया था और पहले चंबल के किनारे पर आबाद थे। बाबर के आने से पहले तक किसी न किसी रूप में सीकरी के निकट के स्थान पर इनका अधिपत्य था। राजपूतों में भी सिकरवार गोत के लोग पाये जाते हैं। ये लोग अपने को सूर्य वंशी क्षत्रिय कहते हैं।

सोलंकी

जैसा कि हम पहले कह चुके हैं, चौल से चालक्य और फिर सोलंकी शब्द बना है। आगरे सूबे में यह लोग सोहरौत भी कहे जाते हैं। सौर नाम के राजा के नाम पर सोलंकी से सोहरौत कहलाने लग गये। सौर का वर्णन कर्नल टाड ने भी किया है।


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दक्षिण भारत से उत्तर भारत में ये लोग ईसवी सन् 700 के इधर-उधर आए होंगे ऐसा अनुमान किया जाता है। सूरौठ में इनकी आरम्भिक गढ़ियां थीं। मेरठ जिले में साहरौत की अपेक्षा सोलंकी नाम से ही मशहूर हैं। मुसलमान हाकिमों से मेरठ के सोलंकियों को कई बाद युद्ध करना पड़ा था। भाट लोग कहते हैं कि गंगा किनारे का सोरों नामक स्थान सौर राजा का बसाया हुआ है।

राणा

आगरे के पास बमरौली-कटारा स्थान इन लोगों द्वारा कटारे ब्राह्मणों को दिया गया था। कहा तो ऐसा जाता है कि राणा वंश के एक पुरुष को यहां के ब्राह्मण ने अपना जामात्रा बनाकर रक्षा की। यह गोत्र उपाधि वाची है। यह लोग सूर्यवंशी जाट हैं। धौलपुर का प्रसिद्ध राजवंश राणा है।

माथुर

यह शब्द देशवाची है। माथुर का अपभ्रंश माहुर और माहुरे हो गया है। जिनका निकास मथुरा से है वह माहुरे कहलाते हैं। सूर्यवंशी क्षत्रियों का वह जत्था जिसने मधु-कैटभ से मथुरा छीनी थी पीछे से मथुरा से चन्द्रवंशियों द्वारा हटा दिया गया था, वही माथुर कहलाया। ब्राह्मण, वैश्य और जाट तीनों वर्णों में माथुर अथवा माहुरे मौजूद हैं। यह लोग शत्रुहन की संतान के हैं, ऐसा माना जाता है।

रोरा

आरम्भ में ये लोग पंजाब में आबाद थे और राठौर, राठी आदि की भांति अरट्टों के उत्तराधिकारी हैं। संयुक्त-प्रदेश में कागरौल नामक स्थान के पास इनका राज्य था, जो कि इनके काक नाम के राजा के नाम पर बसाया हुआ जान पड़ता है। कहा जाता है उसका किला एक मील के घेरे से भी अधिक था। जैगारे व कागरौल के बीच में उसके निशान अब तक बताये जाते हैं। रोर या रूर लोग अब से सात सौ वर्ष वैभवशाली थे। लाखा बंजारे की और सोरठ की गाथा का इन रोर लोगों से ही सम्बद्ध है, ऐसा भी अनुमान किया जाता है।

रावत

बड़ रावत, बड़ राइया, रावत एक ही हैं। मि. ग्राउस साहब तो इनका प्रसिद्ध स्थान पुरा को ही बतलाते हैं, जो कि बहुत ही छोटी हालत मे रहा होगा। यद्यपि इन्हें ‘मथुरा मेमायर्स’ में पूर्ण स्वतन्त्र बताया गया है, किन्तु इनका विशेष हाल नहीं मिलता। पुरा गांव, मथुरा-भरतपुर सड़क के बारहवें मील के पास है।


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज,पृष्ठान्त-562


उसके पास ही एक गढ़ के निशान हैं। वह गढ़ कुन्तलों का था या रावतों का यह नहीं कहा जा सकता।

मुगल-काल से पहले तक हमारे देश में बहुत से छोटे-छोटे राज्य होते थे। एक-एक राजा के पास केवल दस गांव ही होते थे। कोई-कोई राज्य कुल-राज्य कहलाते थे। अर्थात् जितने गांव एक कुल के होते थे उन पर उनका ही राजा राज करता था। ऐसे सभी छोटे-छोटे राज्यों के इतिहास के लिये काफी समय और पृष्ठ चाहियें, किन्तु समयाभाव के कारण हम अब यू. पी. के प्रसिद्ध राज-घरानों का वर्णन करते हैं।

ठेनुआं राजवंश

संयुक्त प्रांत के जाटों में इस समय यही राज-वंश अधिक वैभवशाली है। सोलहवीं शताब्दी के अन्त में अपने नेता श्रीयुत माखनसिंह जी की अध्यक्षता में राजपूताने से यह ब्रज में आये थे। जावरा के पास इन्होंने अपना कैम्प बनाया। उन दिनों जहांगीर मुगल-भारत का सम्राट था। इन लोगों ने जावरा के चारों ओर बहुत से गांवों को अपने अधिकार में कर लिया। इन लोगों की अधिकृत रियासत टपपा (Tappa) जावरा के नाम से प्रसिद्ध हुई। खोखर गोत्र के जाट जिनका कि अधिकार राया के आसपास की भूमि पर था माखनसिंह जी ने उनकी लड़की के साथ अपनी शादी की। आसपास के जाटों को संगठित करके राज्य बढ़ाना आरम्भ किया। फलतः अनेक स्थानों पर गढ़ों का निर्माण होना आरम्भ हो गया जिनमें से आज भी अनेक गढ़ों के चिन्ह वर्तमान हैं। गौसना, सिन्दूरा आदि में हमने ऐसे गढ़ों को स्वयं देखा है।

शाहजहां के अन्तिम काल में सादतउल्ला खां ने जाटों के नियंत्रण के लिये इनके मध्य में आकर छावनी बनाई, जो सादाबाद के नाम से मशहूर हुई। उसने 1652 ई. में जाटों का टपपा, जावरा, कुछ भाग जलेसर का, खंदोली के साथ गांव और महावन के 80 गांवों पर कब्जा करके सादाबाद के परगने में शामिल कर लिया। किन्तु जाट उसके अधीन होते हुए भी स्वतंत्र रहे। उन्होंने कभी सरकारी खजाने के लिये टैक्स नहीं दिया। रात-दिन युद्ध-आक्रमण और आघात-प्रत्याघात जारी रखे।

शाहजहां के बाद जिस समय उसके लालची लड़कों में राज्य-प्राप्ति के लिये गृह-युद्ध छिड़ा हुआ था माखनसिंहजी के प्रपौत्र श्री नन्दराम की भी शक्ति अपने साथ मिला ली। अपनी बहादुरी, साहसिकता और बुद्धिमानी से नंदरामजी ने अपनी रियासत को बहुत बढ़ा लिया। जिसे अपने भुजबल पर विश्वास होता है, शत्रु भी उससे झुक जाता है। औरंगजेब ने गद्दी पर बैठते ही नन्दराम की बढ़ती हुई शक्ति की ओर देखा, किन्तु वह उस समय जाटों से भिड़ना बुद्धिमानी नहीं समझता था।


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज,पृष्ठान्त-563


इसलिये उसने नन्दराम जी को फौजदार की उपाधि से विभूषित किया और तोछीगढ़ की तहसील उनके सुपुर्द कर दी। वास्तव में नन्दराम इस प्रांत के खुद-मुख्त्यार राजा हो चुके थे।

नन्दरामजी ने 40 वर्ष तक राज किया। इन्हीं 40 वर्षों में उनकी तलवार की चमक, हृदय की गंभीरता, भुजाओं की दृढ़ता काफी प्रसिद्धि प्राप्त कर चुकी थी। ऐसे योद्धा का सन् 1695 ई. में स्वर्गवास हो गया।

नंदरामजी के चौदह पुत्र थे, जिनमें जलकरनसिंहजी सबसे बड़े थे। दूसरे जयसिंहजी थे। सातवें योग्य पुत्र का नाम भोजसिंह था। आठवें चूरामन, नवें जसवन्तसिंह, दसवें अधिकरन, ग्यारहवें विजयसिंहजी थें। शेष पुत्रों के नाम हमें मालूम नहीं हो सके। चूरामन तोछीगढ़ के मालिक रहे। जसवन्तसिंह बहरामगढ़ी के अधिपति हुए। श्रीनगर और हरमपुर क्रमशः अधिकरन और विजयसिंहजी को मिले।

जलकरनसिंह अपने बाप के आगे ही स्वर्गवासी हो चुके थे। उनके सुयोग्य पुत्र खुशालसिंह अपने राज्य के मालिक हए। उनके चाचा भोजसिंहजी ने सादतउल्लाखां से दयालपुर, मुरसान, गोपी, पुतैनी, अहरी और बारामई का ताल्लुका भी प्राप्त कर लिया था। यह बड़े ही मिलनसार और समझदार रईस थे। मुरसान के प्रसिद्ध गढ़ का निर्माण इन्होंने बड़े हर्ष के साथ कराया था। इस समय इनके पास तोप और अच्छे-अच्छे घोढ़े अच्छी संख्या में थे। राज्य-विस्तार शनैःशनैः बढ़ रहा था। मथुरा, हाथरस और अलीगढ़ के बीच के प्रदेश पर इनका अधिकार प्रायः सर्वांश में हो चुका था।

इनके बाद इनके पुत्र पुहपसिंह राज्य के मालिक हए। उस समय के प्रसिद्ध लड़ाके योद्धाओं में आपकी गिनती होती है। ग्राम्य-गीतों में भरतपुर के साथ इनके युद्ध होने के शायद उनका मतलब प्राचीन से है। भरतपुर के साथ युद्ध में रणबांके सरदार पुहपसिंह हार गए, क्योंकि सूरजमल जैसे महारथी के सामने उनकी शक्ति इतनी न थी कि ठहर सकें। उन्हें मुरसान छोड़ना पड़ा। सासनी पर जाकर उन्होंने अधिकार जमा लिया। एक सुदृढ़ दुर्ग का निर्माण किया। सासनी का गढ़ आज भी जाटों के महान् अतीत की याद दिलाता है। 761 ई. में महाराजा जवाहरसिंहजी से अधीनता तथा मित्रता हो जाने के कारण पुहपसिंह फिर मुरसान के मालिक हो गए। देहली-युद्ध में पुहपसिंह जी ने महाराज जवाहरसिंह का साथ देकर अपने जातीय-धर्म का पालन किया था। यही कारण था कि सन् 1766 ई. में देहली के शासक नजीब खां ने अपनी सेना


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मुरसान पर कब्जा करने को भेजी। वीर जाट बड़ी बहादुरी के साथ लड़े, किन्तु उन्हें सफलता न मिली और मुरसान छोड़ना पड़ा।

हमें कहना पड़ता है कि राजपूतों में जो स्थान दृढ़ता और वीरता के लिहाज से दुर्गादास का है, वही स्थान जाटों में रणबांके राजा पुहपसिंह का है। उन्हें तनिक भी चैन न था। मुरसान को फिर से अपने हाथ में लेने की चेष्टा करते रहे, उत्तरोत्तर शक्ति-संचय करते रहे। वीर जाटों के दलों का संगठन किया। लगातार दस वर्ष तक तैयारी में लगे रहे और आखिर सन् 1785 ई. में मुरसान से शत्रुओं का मारकर भगा दिया।

मुरसान हाथ आ जाने से उनके हृदय को संतोष अवश्य हुआ, किन्तु महत्वाकांक्षी वीर पुहपसिंह बराबर राज्य बढ़ाते रहे। वृद्धावस्था में भी उन्हें रण प्रिय था। वे जीवन भर लड़ते रहने वाले योद्धाओं में से थे। मृत्यु-समय तक उन्होंने अपने राज्य का विस्तार किया। सन् 1789 ई. में इस असार संसार से आप प्रस्थान कर गये।

मरने से पहले ही आपने अपने राज्य की बागडोर अपने प्रिय पुत्र भगवन्तसिंह जी को सौंप दी थी। उस ठेनुआ राजवंश के अधीनस्थ पांच हजार सैनिक प्रतिक्षण तैयार रहते थे।

यह समय अंग्रेज और मराठा संघर्ष का था। अलीगढ़ उस समय कभी जाटों के हाथ में रहता था तो कभी मराठों के हाथ में। मराठों ने उस समय अलीगढ़ पर फ़्रांसिसी जनरल मि. पैरन को नियुक्त कर रखा था। अंग्रेज यह भी जानते थे कि जाट-मराठों में आपस में कभी-कभी छेड़-छाड़ भले ही हो जाती है किन्तु जाट मराठों को पिटता नहीं देख सकते, इसलिए अंग्रजों ने जाटों के बड़े घराने भरतपुर से सन्धि भी कर ली। फिर भी जाटों का अंग्रेजों को भय था। लार्ड लेक ने सासनी पर जो कि उस समय पहुपसिंहजी के अधिकार में थी, चढ़ाई कर दी। सासनी के आस-पास के ग्रामीण कहते हैं कि बराबर छः महीने तक लड़ाई होने पर सासनी अंग्रेजों के हाथ आया था। चाहे इस कथन में अतिरंजिता हो, किन्तु यह सही बात है कि सासनी सरलता से अंग्रेजों के हाथ नहीं आया था। इन्दौर से प्रकाशित होने वाली ’वीणा’ नामक मासिक पत्रिका के दूसरे वर्ष की सातवीं संख्या में मराठा लेखक श्रीयुत भास्कर रामचन्द्र भालेराव ने किसी केवलकिशन नाम के कवि का एक गीत दिया है। उस गीत से सासनी के बहादुर जाटों की वीरता पर अच्छा असर पड़ता है। उसका कुछ अंश हम भी यहां देते हैं -


सुन्दर सभा ने गोद खिलाया है फिरंगी।
गुलबदन के रंग से सवाया है फिरंगी।।

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आदम से आदमी को बनाया है फिरंगी।
लुकमान से किताब पढ़ाया है फिरंगी।।
दोनों रुखों के बीच फिरंगी की बात है।
सल्तनत हिन्दुस्तान की फिरंगी के हाथ है।।
असबाब बादशाही का गोरों के साथ है।
दूल्हा तो फिरंगी कुल आलम बरात है।।
फिर आप जगन्नाथ को धाया है फिरंगी।
चंचल चतुर परी ने वा जाया है फिरंगी।।1।।
अव्वल तो किया जाके विजयगढ़ पै भी डेरा।
फिर सासनी के नाई आधी रात को घेरा।।
चकती तु लिखी लेक ने होते ही सवेरा।
गढ़ खाली करो जल्दी कहा मान लो मेरा।।
पत्री को देख बेटे पहुपसिंह के बोले।
तैयार हों रनिवास के मुरसान को डोले।।
नजर किये उनने वहां पांच भी गोले।
गढ़ देवेंगे मगर जरा जंग तो होले।।
क्या याद करेगा हमें धाया है फिरंगी।
चंचल चतुर परी ने जाया है फिरंगी।।2।।
बोले जो कंवर होवे जरा गढ़ की तैयारी।
बुरजों पै तोप बढ़ने लगीं वे भी थीं भारी।।
तोपों के फेर-फेर से गोले लगे झड़ने।
और बाढ़ तिलंगों की लगी आगे को बढ़ने।।
दिन रात की आठपहरियां नौबत लगी बजने।
क्या खूब टकोरों से रिझाया है फिरंगी।
चंचल चतुर परी ने जाया है फिरंगी।। 3।।
गोले कई हजार वहां लेक ने मारे।
और फंसि गए उस गढ़ के वे बुरजों से उसारे।।

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आखिर को कुवर कम्पनी के दिल ही में हारे।
गढ़ छोड़ सासनी का मुरसान को सिधारे।।
कोयल औरे अलीगढ़ को धाया है फिरंगी।
चंचल चतुर परी का जाया है फिरंगी।। 4 ।।


इस गीत काव्य से भी यही बात मालूम होती है कि सासनी घमासान युद्ध के बाद अंग्रेजों के हाथ लगा। पहुपसिंह के बेटों का स्वाभिमान भी देखिये - ‘गढ़ देवेंगे जरा जंग तो होले’ यह है क्षत्रियोचित उत्तर लार्ड लेक की चिट्ठी का। वे जानते थे कि असंख्य अंग्रेजी सेना उनके दुर्ग को तहस-नहस कर देगी, परन्तु बनियापन से तो गढ़ खाली न करना चाहिए। आखिर किया भी ऐसा ही।


यह पहले लिखा जा चुका है कि नन्दरामसिंहजी के 14 पुत्र थे जलकरनसिंह और जयसिंह उनमें अधिक प्रसिद्ध हुए हैं। भगवन्तसिंहजी, जलकरनसिंहजी के प्रपौत्र थे और सासनी तथा मुरसान के अधीश्वर थे । जयसिंहजी के प्रपौत्र राजा दयाराम जी थे जो कि हाथरस के मालिक थे। भगवन्तसिंह और दयाराम दोनों ही ने अपने राज्य का खूब विस्तार किया था। भगवन्तसिंह जी ने पीछे लार्ड लेक की मदद भी की थी, जिससे उन्हें सोंख और मदन का इलाका जागीर में मिला था।

मि. ग्राउस साहब की लिखी ‘मथुरा मेमायर्स’ को पढ़ने से पता चलता है - ‘मुरसान और हाथरस के राजा अपने को पूर्ण स्वतंत्रा समझते थे।’ इसलिए यह आवश्यक समझा गया कि इन लोंगों को इनके किलों से निकाल दिया जाए। लड़ने के लिए कुछ-न-कुछ बहाना मिल ही जाता है। ईस्ट इण्डिया कम्पनी के चार आदमियों पर हत्या का अभियोग था। वे चारों आदमी ठाकुर दयारामजी के राज्य में जा छिपे। अंग्रेजों ने दयाराम जी को लिखा कि उन्हें पकड़ कर हमारे सुपुर्द कर दो। स्वाभिमानी और शरणागतों की रक्षा करने वाले दयारामजी ने अंग्रेजों की इस मांग को अनुचित समझा। बस यही कारण था जिसके ऊपर कम्पनी के लोग उबल पड़े। जनरल मारशल के साथ एक बड़ी सेना मुरसान और हाथरस पर चढ़ाई करने के लिए भेजी। मुरसान के राजा साहब इस ओर से निश्चित थे। वहां लड़ाई की कोई तैयारी ही न थी। सिर पर जब शत्रु आ गया तब तलवार संभालनी ही पड़ी। यही कारण था कि तत्काल तैयारी न होने से मुरसान अंग्रेजों पर विजय न पा सका, और जनरल मारशल की विजय हुई।

मुरसान पर विजय प्राप्त करते ही अंग्रेजी सेना हाथरस पहुंची। इस बीच में हाथरस वाले संभल चुके थे। वैसे हाथरस का किला मुरसान के किले से अधिक मजबूत था। अलीगढ़ और मथुरा की ओर का हिस्सा तो और भी अधिक मजबूत था। हाथरस में रणचंडी का विकट तांडव हुआ। अंग्रेजी सेना के दांत खट्टे हो गए।


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यह युद्ध संवत 1874 विक्रम तदनुसार 1817 ई. में हुआ था। लड़ाई कई दिन तक होती रही। हाथरस के वीर जाटों ने दांत पीस-पीस कर अंग्रेजों पर हमले किए। प्राणों की बाजी लगा दी। किन्तु विजय-लक्ष्मी उनसे रूठ गई थी। दयारामजी ने अब अंग्रेजों से सन्धि करना ही उचित समझा। उन्होंने अंग्रेजी कैम्प में जाकर सन्धि की बात तय कर ली। किन्तु उनका पुत्र नेकरामसिंह, जो कि अहीर रानी के पेट से पैदा हुआ था, सन्धि करने पर राजी न हुआ। यहां तक कि वह अपने पिता दयाराम को सन्धि की चर्चा करने के कारण प्राण लेने पर उतारू हो गया। दयाराम ने भी जब नेकरामसिंह की ऐसी प्रबल सामरिक रुचि देखी तो पुनः युद्ध ठान लिया।

जब अंग्रेजों ने देखा अब सन्धि नहीं होगी तो पूर्ण बल के साथ हाथरस-दुर्ग के ऊपर हमला किया। जाट भी वन-केसरी की भांति छाती फुलाकर अड़ गये। श्री दयारामसिंहजी बड़ी संलग्नता से दुर्ग की देखभाल में व्यस्त थे। राजा से लेकर सैनिक तक सभी बड़े चाव से युद्ध कर रहे थे। वे आज अपना या शत्रु का फैसला कर लेना चाहते थे। वे थोड़े थे फिर भी बड़े उत्साह से लड़ रहे थे। किले पर से शत्रु के ऊपर वे अग्नि-वर्षा कर रहे थे। उन्हें पूरी आशा थी कि मैदान उनके हाथ रहेगा, किन्तु देव रूठ गया। बारूद की मैगजीन में अकस्मात् आग लग गई। बड़े जोर का घमाका हुआ, उनके असंख्य सैनिक भस्म हो गए। अब क्या था, शत्रु को पता लगने की देर थी, हाथरस स्वयं विजित हो गया। तड़के ही शत्रु उन्हें बन्दी बना लेगा। ऐसा सोचकर स्वाभिमानी दयाराम शिकारी टट्टू पर सवार होकर रातों रात किले से निकल भरतपुर पहुंचे। अब भरतपुर पहले का भरतपुर न था। जहां 12-13 वर्ष पहले उसने दूसरे लोगों को शरण दी थी, आज वह अपने ही भाई को शरण न दे सका। वहां से भी दयाराम जयपुर गए। किन्तु जब भरतपुर ही इस समय अंग्रेजों के दर्प को मान चुका था तो भला राजपूताने में और किसकी हिम्मत होती कि दयाराम को शरण देकर अंग्रेजों का कोप भाजन बनता? आगे-आगे दयाराम थे और पीछे-पीछे अंग्रेजी सेना। अन्त में दयाराम ने अंग्रजों से समझौता कर लिया। अंगेज सरकार ने उन्हें एक हजार मासिक पेन्शन देना स्वीकार कर लिया। कोई-कोई कहते हैं पेन्शन दो हजार मासिक थी। उन्होंने जीवन के शेष दिन अलीगढ़ में अपने नाम की छावनी बसा कर उसमें पूरे कर दिये। आज भी हाथरस के तथा आस-पास के लोग दयाराम का नाम बड़ी श्रद्धा और भक्ति के साथ याद करते हैं। वे बड़े उदार और दानी राजा थे। अभी तक उनकी दान की हुई जमीन कितने ही मनुष्य वंश परम्परागत से भोग रहे हैं। संवत् 1898 विक्रमी अर्थात् सन् 1841 ई. में उनका देहान्त हो गया। यही समय था जब पंजाब में महाराज रणजीतसिंह शासन कर रहे थे। यदि उस समय जाटों में कोई ऐसी शक्ति


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पैदा हो जाती जो पंजाब, भरतपुर और मुरसान के जाट नरेशों को संगठित कर देती तो आज भारत के बड़े भाग पर उनका अधिपत्य होता।

हाथरस युद्ध के पश्चात् भी इस ठेनुआं राज-वंश का शक्ति-वैभव बहुत कुछ शेष था। सन् 1875 ई. में अलीगढ़ के तत्कालीन कलक्टर ने अपनी रिपोर्ट में इनके सम्बन्ध में लिखा है -

'मुरसान के राजा का अधिपत्य समस्त सादाबाद और सोंख के ऊपर है । महावन, मांट, सनोई, राया, हसनगढ़, सहपऊ और खंदोली उनके भाई हाथरस वालों के हाथ में हैं।'

उक्त रिपोर्ट में आगे लिखा है कि लार्ड लेक की इन लोगों ने अच्छी सहायता की थी इसलिए अंग्रेजी सरकार ने इन्हें यह परगने दिये थे। यह भी हो सकता है कि इन जाट-केसरियों को तत्कालीन स्थिति के अनुसार प्रसन्न रखने में ही अंग्रेज सरकार की शान्ति के चिन्ह दिखाई पड़ते थे। इसमें सन्देह नहीं कोई जाट-खानदान बहादुर होने साथ सरल हृदय भी होता है। वे किसी से शत्रुता करते हों तो सच्चे दिल से और मित्रता करते हैं तो सच्चे दिल से। इसी स्वभाव के कारण उन्होंने जहां अंग्रेजों से डटकर युद्ध किया वहां समझौता होने पर सहायता भी की।

दयाराम जी के पश्चात् उनके बेटे गोबिन्दसिंहजी गद्दी पर बैठे। ये बड़े ही शान्ति-प्रिय थे। अंग्रेजों के साथ लड़कर अब शेष राज्य को नष्ट करने की भी इनकी इच्छा नहीं थी। अपने राज्य का बुद्धिमानी से प्रबन्ध करना ही उनका ध्येय था।

मुरसान के राजा भगवन्तसिंहजी का संबत् 1880 में स्वर्गवास हो गया। सरकार ने राज्य की बागडोर अपने हाथ में ले ली। इससे प्रजा में बड़ा अंसंतोष फैला। सभी तरफ से प्रजा ने अंग्रेज सरकार तक आवाज पहुचाई कि हमारे राजा से हमको अलग न किया जाए। इस आन्दोलन से प्रभावित होकर सरकार ने बहुत सा राज टीकमसिंहजी को जोकि भगवन्तसिंहजी के पुत्र थे, वापस लौटा दिया।1 बहुत से गांव सरकारी राज्य में मिला लिए गए। इस तरह मुरसान के पास पहले से तिहाई राज्य रह गया। राजा टीकमसिंहजी ने अपील भी की किन्तु फल कुछ नहीं निकला।

संवत् 1914 अर्थात् 1857 ई. में भारत में बगावत हुई। आरंभ में इसका रूप धार्मिक था किन्तु पीछे यह राजनैतिक रूप धारण कर गई। इस क्रान्ति में अंग्रेजी राज्य ही खतरे में नहीं आया किन्तु भारत में रहने वाले अंग्रेजों की जान भी खतरे में थी। ऐसे समय पर अंग्रजों से शत्रुता भी अनेक लोगों ने निकाली किन्तु हाथरस और मुरसान दोनों ही स्थानों के जाट रईसों ने दयापूर्वक अंग्रेजों की रक्षा की।


1. यू.पी. के जाट नामक पुस्तक से


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अलीगढ़ के तत्कालीन कलक्टर मि. ब्रामले ने स्पेशल कमिश्नर को 14 मई सन् 1858 ई. को लिखा था-

".....इन ठाकुर गोविन्दसिंह की राजभक्ति के कारण इनकी भारी आर्थिक हानि हुई है। 25वीं सितम्बर को इनकी तीस हजार रुपये से ऊपर की हानि हुई है। दिल्ली से लौटे हुए बागियों ने इनका वृन्दावन वाला मकान लूट लिया है। जिससे इनकी पैतृक संपत्ति की इतनी हानि हुई है जो पूरी नहीं की जा सकती।"

इसी तरह से मुरसान वालों की सहायता भी थी। अंग्रेज सरकार ने गोविन्दसिंह हाथरस वाले को पचास हजार नकद और मथुरा तथा बुलन्दशहर जिले में कुछ गांव उस सहायता के उपलक्ष में दिए और मुरसान के टीकमसिंहजी को गोंडा और सेमरा के दो बड़े मौजे दिये। दो पुस्त तक सात गांवों का खिराज कतई माफ कर दिया। साथ ही राजा बहादुर और सी.आइ. ई. का खिताब भी दिया। 25वीं जून सन् 1858 ई. में लार्ड कैनिंग ने इन लोगों को राज-भक्ति की एक सनद भी दी।

संवत् 1935 विक्रमी तदनुसार सन् 1878 ई. में राजा बहादुर टीकमसिंहजी का स्वर्गवास हो गया। उनके एक पुत्र कुंवर घनश्यामसिंहजी मुरसान की गद्दी पर बैठे। राजा घनश्यामसिंहजी बड़े दानी और भक्त थे। उन्होंने जमुनाजी के किनारे वृन्दावन में एक आलीशान भवन अपने रहने के लिए बनवाया। राज का प्रबन्ध भी बहुत अच्छी तरह से करते थे। सम्बत् 1959 अर्थात् सन 1902 ई. में राजा घनश्यामसिंहजी का स्वर्गवास हो गया। यह राजा साहब महाराज जसवन्तसिंहजी भरतपुर के समकालीन थे।

घनश्यामसिंहजी के पश्चात् उनके सुपुत्र राजा दत्तप्रसादसिंहजी मुरसान के राजा हुए। राजा साहब बड़े ही सीधे और मिलनसार थे। जाट महासभा के कार्यों में भी दिलचस्पी लेते थे। अनेक कारणों से आपके राज्य-कोष में बड़ी कमी आ गई थी। रियासत कोट ऑफ वार्डस के अधिकार में चली गई थी। इसमे कोई सन्देह नहीं कि राजा बहादुर सर्वप्रिय व्यक्ति थे। सम्वत् 1990 विक्रमी के पूर्व भाग में आपका स्वर्गवास हो गया।

इस पुस्तक के लेखन-काल में मुरसान की राजगद्दी पर स्वनाम धन्य राजा बहादुर श्रीकिशोर-रमनसिंहजी विराजमान थे। उस समय भी मुरसान के अधीश्वर के पास केवल अलीगढ़ जिले में ही 88 मौजे और मुहाल थीं। इनके सिवा अन्य जिलों में भी उनकी सम्पत्ति थी।

गोविन्दसिंहजी की शादी भरतपुर के प्रसिद्ध नरेश महाराज जसवन्तसिंहजी के मामा रतनसिंहजी की बहन से हुई थी। उनके एक बच्चा भी हुआ था जो मर गया। राजा गोविन्दसिंहजी का संबत् 1918 में स्वर्गवास हो गया। पीछे विधवा रानी साहिबा ने जतोई के ठाकुर रूपसिंहजी के पुत्र हरनारायणसिंहजी को गोद ले लिया।


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जतोई का घराना भी ठेनुआ जाट सरदारों का ही है, किन्तु दयारामजी की अहीर-स्त्री के पुत्र नेकरामसिंह के लड़के केसरीसिंहजी ने हरनारायणसिंहजी के गोद लिये जाने का विरोध किया और हाथरस की गद्दी का स्वयं को हकदार बताया। बहुत समय तक इस मामले में मुकद्दमेबाजी होती रही। अन्त में दीवानी अदालत और हाईकोर्ट से राजा हरनारायणसिंहजी ही बहाल रहे। राजा हरनारायणसिंहजी का जन्म संवत् 1920 विक्रमी में हुआ था। संवत् 1933 के देहली के दरबार में उनको राजा की उपाधि मिली थी। यह राजा साहब बड़े लोकप्रिय थे। संबत् 1952 में इनका स्वर्गवास हो गया। इनके कोई पुत्र न था, इसलिए मुरसान से कुवर महेन्द्रप्रतापजी को गोद लेकर इन्होंने उन्हें अपना उत्तराधिकारी बनाया। राजा महेन्द्रप्रताप जी इस समय विदेश में थे। उनके सुयोग्य पुत्र श्री प्रेमप्रताप हाथरस की रियासत के मालिक थे जो वृन्दावन के राजा भी कहलाते थे। कुंवर साहब अभी नाबालिग थे, इसलिए राज्य का कार्य कोर्ट ऑफ वार्डस के हाथ में रहा था।

ठेनुआ राज-वंश का वंश-विस्तार

इस ठेनुआ राज-वंश के कोई छोटे-छोटे हिस्से हैं। मुरसान और हाथरस का तो ऊपर वर्णन हो चुका है। यहां अन्य भागों का भी थोड़ा-सा हाल लिखते हैं।

पीछे हम लिख चुके हैं कि नन्दरामजी के सातवें पुत्र भोजसिंह थे। उन्नति में दूसरे भाइयों से यह कम नहीं रहे। फर्रुखसियर बादशाह को दिल्ली का सिंहासन अब्दुल्ला और हुसैनअली दो सैयद भाइयों को बहादुरी से प्राप्त हुआ था। भोजसिंह ने सैयद अब्दुल्ला की मदद की थी, इसलिए उसने भोजसिंह को वही अधिकार दे दिये जो उनके पिता नन्दराम ने हासिल किये थे। भोजसिंह ने जावरा-टप्पा के दो भाग कर डाले - एक बड़े भाई जयसिंह को और दूसरा स्वयं ले लिया, सन् 1740 ई. में भोजसिंह मर गये। उनके तीन लड़के थे। जगतसिंह उनमें से बड़े थे। जगतसिंह से छोटे मोहनसिंह और उनसे छोटे कंचनसिंह थे। तीनों ने अपने बाप की जागीर को आपस में बांट लिया। बाड़ा और टुकसान ताल्लुका का जगतसिंह को, सिमधारी का ताल्लुका मोहनसिंह को और छोटुआ कोटापट्टा कंचनसिंह को मिला।

सन् 1768 में छोटुआ और कोटापट्टा हाथरस मुरसान के बीच बट गए। जगतसिंह के पश्चात् बड़ा और टुकसान क्रमशः उनके पुत्र प्रतापसिंह और मुक्तावलसिंह के बीच बंट गया। मोहनसिंह के भी दो पुत्र थे - सदनसिंह और सामन्तसिंह। सदनसिंह बड़े ही वीर और योग्य आदमी थे। उन्होंने 1752 ई. में हाथरस और उसके आस-पास के गांवों के आमिल से प्राप्त कर लिया। इलाकों पर पोरच राजपूत राज करते थे। सन् 1760 ई. में महाराज सूरजमल ने मेंडू के पोरच राजपूतों का ताल्लुका छीन लिया और उस ताल्लुके की तहसील का काम सदनसिंह को सौंपा।


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज,पृष्ठान्त-571


सन् 1768 ई. मे सदन सिंह का भी स्वर्गवास हो गया। उनके दो पुत्र थे। भूरी सिंह और शक्तिसिंह। भूरीसिंह अपने बाप से प्राप्त की हुई जागीर के मालिक हुए और शक्तिसिंह को टपपा जावरा मिला। शक्तिसिंह के मरने के बाद यह जायदाद उनके दोनों पुत्रों - दुर्गासिंह और उदयसिंह में बंट गई। भूरीसिंहजी के बेटे नवलसिंह के हिस्से में बेसवां और दयारामसिंह के हिस्से में हाथरस के आस-पास का इलाका आया। यह घटना सन् 1775 ई. की है। दयाराम की बहादुरी तो ... हाथरस का आगे का इतिहास पिछले पृष्ठों में दिया जा चुका है।

हाथरस पर अंग्रजों ने कब्जा करने के बाद राज्य के टुकड़े-टुकड़े कर दिये। हाथरस के परगने के 31 गांव ठाकुर जीवाराम को अंग्रेज सरकार ने दे दिए। जो रामजी बेसवां के रईस नवलसिंह के पुत्र थे अर्थात् राजा दयारामजी के भाई थे। 20 गांव ठाकुर जयकिशनजी को दे दिए गए, जोकि नवलसिंहजी के पहले (पौत्र) थे। स्वयं दयारामसिंहजी के लड़के गोविन्दसिंहजी के पास बहुत बड़ी रियासत रह गई थी। किन्तु गदर के बाद उन्हें कई गांव और कोइल की जमींदारी और मिल गई थी। मथुरा जिले में भी गोविन्दसिंह के पास काफी जायदाद थी।

इस समय इन विभिन्न भागों के निम्न अधिपति हैं - राजा बहादुर किशनसिंहजी मुरसान राज्य, कु. बलदेवसिंहजी साहब (मुरसान) नरेश के चाचा और बलदेवगढ़ छोटुवा, कुं. रोहनीरमन मनध्वजसिंह जी बेसवां और कु. प्रेमप्रकाश सिंहजी वृन्दावन एवं हाथरस और कुंवर नौनिहालसिंहजी बलदेवगढ़। काम और जेराई में शक्तिसिंहजी के वंशधर हैं, किन्तु उनका वैभव इतना ऊंचा नहीं था।

राजा महेन्द्रप्रताप

राजा महेन्द्रप्रताप

राजा महेन्द्रप्रताप उन देशभक्त तथा दानवीरों में से हैं जिनके ऊपर जाटजाति ही नहीं, किन्तु समस्त भारत को अभिमान है। राजा-रईसों में इतना महान् त्याग करने वालों में वह पहले व्यक्ति हैं। उनका जन्म मुरसान के लोकसेवी राजा घनश्यामसिंह के यहां हुआ था और राजा हरनारायणसिंह जी के दत्तक पुत्र थे। राजा घनश्यामसिंह जी सार्वजनिक कामों में खूब भाग लेते थे। पण्डित मदनमोहन मालवीय आदि देशसेवकों का एक डेपूटेशन प्रान्त के गवर्नर से इसलिए मिला था कि अदालतों की भाषा हिन्दी हो। राजा घनश्यामसिंह जी भी उस डेपूटेशन में शमिल थे। राजा महेन्द्रप्रतापसिंह जी के दो ज्येष्ठ भाई थे - राजा दत्तप्रसाद सिंह, कुंवर बलदेवसिंह। राजा साहब जब कि आठ बरस के ही थे तब राजा हरनारायणसिंहजी का स्वर्गवास हो गया, इसलिए आपके बालिग होने तक राज्य का प्रबन्ध कोर्ट‘आफ-वार्डस के हाथ में रहा। आपने अलीगढ़ में बी. ए. तक अंग्रेजी शिक्षा प्राप्त की थी।


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज,पृष्ठान्त-572


संवत् 1959 विक्रमी में 16 वर्ष की अवस्था में जींद की राजकुमारी के साथ आपका विवाह सम्बन्ध हुआ।

कालेज छोड़ने के बाद आपने अपनी रानी साहिबा सहित इंग्लैण्ड की यात्रा की। वहां की रस्म-रिवाजों को तो आपने देखा ही किन्तु शिल्प और औद्योगिक शिक्षण-संस्थाओं का आपके दिल पर बड़ा असर पड़ा। विलायत से लौटने पर आपने नैनीताल में एक छोटी कोठी खरीदी। नैनीताल में रहने पर गरीब-अमीर का भेद आपको खटका। साम्यवाद का अंकुर आपके हृदय में उत्पन्न हो गया।

24 मई 1909 को आपने अपने राजमहल में प्रेममहाविद्यालय नाम की संस्था स्थापित की। इस संस्था का ध्येय अक्षर-ज्ञान के साथ ही साथ, स्वदेशी शिल्प और उद्योग का ज्ञान वितरित कराना था। खर्च काट कर 33 हजार वार्षिक आमदनी का अपनी रियासत का आधा भाग भी राजा साहब ने सदैव के लिए प्रेममहाविद्यालय को दे दिया। भारतवर्ष में यह संस्था अपने ढंग की एक ही है। कुछ समय तक राजा साहब ने अपने तन और मन से भी इस संस्था की सेवा की। वे इसके मंत्री और मैनेजर भी रहे।

कुछ समय पश्चात् प्रेममहाविद्यालय के अधीनस्थ खेती करने वाले नवयुवकों को शिक्षा देने के लिए आपने जटवारी, मंझोई, उझियानी और हूसैनी मथुरा जिले के गांव तथा वराला और धमेड़ा बुलन्दशहर जिले के गांव में प्रेमप्रताप व प्रेम-पाठशालायें खुलवाई। महाविद्यालय के साथ एक प्रेस भी है, ‘प्रेम’ नाम का एक पत्र भी निकाला, जिसका सम्पादन स्वयं राजा साहब ने किया था।

संवत् 1967 विक्रमी में इलाहाबाद में प्रदर्शनी एवं कांग्रेस अधिवेशन के समय आपने शिक्षा-कान्फ्रेंस भी कराई थी। उसके सभापति झालरापाटन के महाराज भवानीसिंहजी बनाये गये थे।

आपने एक नाटक भी लिखा है, वह खेला भी गया था। समाज के उन्नत बनाने के लिए अच्छे नाटकों का अविष्कार भी आप आवश्यक समझते थे।

एक समय गोठ (पिकनिक) भी आपने कराई और वहां चील-झपट्टा नाम का खेल भी विद्यार्थी और अध्यापकों के साथ खेले।

संवत् 1968 विक्रमी में राजा साहब ने संयुक्त-प्रान्तीय आर्य-प्रतिनिधि-सभा के तत्कालीन प्रधान कुवर हुकमसिंहजी की इच्छा के अनुसार अपने बाग को वृन्दावन गुरुकुल के लिए दान कर दिया। इसके बाद आप दूसरी बार विलायत यात्रा के लिए चले गए। प्रेममहाविद्यालय का कार्य एक कमेटी के सुपुर्द कर दिया था। कुंवर हुकमसिंहजी रईस आंगई बहुत दिन तक प्रेममहाविद्यालय के मैनेजर रहे। विलायत से जब आप लौटे तो आपको मान-पत्र दिया गया।

सम्वत् 1970 विक्रमी के श्रावण महीने में आपकी जींद वाली रानी साहिबा से पुत्रा-रत्न हुआ जिनका शुभ नाम प्रेमप्रताप रखा।


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छूआछूत के प्रश्न को भी आप हल करने के लिए सबसे पहले अग्रसर हुए। जिन दिनों आप देहरादून में थे (शायद सम्वत् 1971 वि. में) आपने वहां अछूत टमटों के घर पर जाकर भोजन कर लिया। आगरे में एक मेहतर के साथ बैठकर राजासाहब ने भोजन कर लिया था इससे बड़ी खलबली मची थी। ये बातें उस समय कीं हैं जबकि अछूतोद्धार का नाम भी न था।

राजा साहब ने पर्दे के विरुद्ध और स्त्री समानता के पक्ष में तथा किसानों के हित के लिए ‘निर्बल सेवक’ द्वारा खूब प्रचार किया था। ‘निर्बल सेवक’ के निकलने के कुछ दिन पीछे यूरोप में महासंग्राम छिड़ गया। युद्ध को देखने के लिए संवत् 1971 वि. में स्वामी श्रद्धानन्दजी के पुत्र श्री हरिश्चन्द्रजी के साथ विलायत को रवाना हो गए। जेनेवा में वे पादरी चेपलेन के यहां जाकर ठहरे। फिर आपका पता लगाना मुश्किल हो गया। यहां से उनके नाम जो मनीआर्डर आदि भेजे गए वे वापस लौट आए। बहुत से पत्र उनकी तलाश के लिए भेजे गए। अन्त में लाचार होकर कुंवर हुकमसिंहजी ने यूरोप के एक अखबार में इस आश्य का विज्ञापन छपवाया कि -

“जो राजा साहब का पता बतायेगा उसे इनाम दिया जायेगा।”

उस समय इस बात का कोई पता नहीं चला कि वे कहां हैं।

बढ़ी कौंसिल के प्रश्नोत्तर से यह स्पष्ट हो गया कि सरकार ने उन्हें बागी मान लिया है। सरकार की ओर से कहा गया था कि मई सन् 1916 ई. में सरकार को उनकी बागियाना कार्यवाहियों का पता चल गया है, इसलिए उनकी रियासत कुर्क की जाती है। यदि वे भारत में आयेंगे तो न्यायालय में विचार किया जाएगा। उनकी रानी साहिबा के लिए 200/- महावार और कुवर साहब प्रेमप्रतापजी के लिए 400/- मय दाई के खर्च के लिए दिए जाएंगे।

‘इडिपेण्डेण्ट’ पत्र में राजा साहब ने जो पत्र छपवाया था उससे मालूम होता है कि युद्ध के दिनों में वे जर्मनी के चांसलर, टर्की के सुल्तान, काबुल के अमीर और चीन के दलाई लामा से भी मिले थे। किन्तु इस मिलन का वह धार्मिक उद्देश्य बतलाते थे।

उन्होंने प्रेम-धर्म नामक एक पुस्तक भी लिखी है। कुछ समय वे चीन में रहे। इसमें सन्देह नहीं वे जो कुछ कर रहे थे भारत के हित के लिए कर रहे थे। उनका रास्ता गलत था अथवा सही, यह समझ लेना आम बुद्धि से तो बाहर था। सन् 1930 ई. के जाट महासभा के वार्षिक अधिवेशन में उनके भारत आ जाने देने के विषय में सरकार से प्रार्थना सम्बन्धी एक प्रस्ताव भी पास हुआ था। समय-समय पर राजा साहब भारत के राष्ट्रीय पत्रों में अपने विचार भी प्रकट करते रहते थे। चीन से उन्होंने ‘गदर’ नाम का पत्र निकालने की भारतीय पत्रों में भी सूचना दी थी। यद्यपि वे राजनैतिक व्यक्ति भी थे किन्तु वास्तव में धार्मिक अधिक थे।


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उन्होंने अपना नाम पीटर पीर प्रताप रख लिया था। इसे मालूम होता है कि वह सभी धर्मों से प्रेम करते थे। हम उन्हें केवल इसलिए प्यार नहीं करते कि वे देश-भक्त हैं। हमें तो वह इसलिए भी प्रिय हैं कि वे हमारी जाट-जाति की गोद के एक उज्जवल लाल और अप्रतिम देशभक्त और महामानव हैं।

चाबुक

चाबुक शब्द किस शब्द का अपभ्रंश है, यह हमारी समझ में नहीं आता। मध्यकालीन राजवंशों में चापोत्कट वंश का नाम आता है। संभव है चाबुक गोत के जाट चापोत्कट ही हों। चापोत्कट राजपूत और गूजर दोनों में ही पाए जाते हैं। किन्तु वहां वे चावड़ा कहलाते हैं। इस गोत के जाटों का जहां तक प्रश्न है, ये चाबुक लोग एक समय पिसावा के मालिक थे। अलीगढ़ में मराठों की ओर से जिस समय जनरल पीरन हाकिम था, इस गोत्र के सरदार मुखरामजी ने पिसावा और दूसरे कई गांव परगना चंदौसी में पट्टे पर लिए थे। सन् 1809 ई. में मि. इलियट ने पिसावा के ताल्लुके को छोड़ कर सारे गांव इनसे वापस ले लिए। किन्तु सन् 1883 ई. में अलीगढ़ जिले के कलक्टर साहब स्टारलिंग ने मुखरामजी के सुपुत्र भरतसिंहजी को इस ताल्लुके का 20 साल के लिए बन्दोबस्त कर लिया। सन् 1857 ई. में विद्राहियों से भयभीत हुए अंग्रजों की भरतसिंहजी के वंशजों ने पूरी सहायता की थी। तब से पिसावा उन्हीं के वंशजों के हाथ में है। राव साहब शिवध्यानसिंह और कु. विक्रमसिंह एक समय पिसावा के नामी सरदार थे। किन्तु खेद है कि उसी साल कुं. विक्रमसिंह का देहान्त हो गया। आप राजा-प्रजा दोनो ही के प्रेम-भाजन थे। प्रान्तीय कौंसिल के मेम्बर भी थे। जातीय संस्थाओं से आपको खूब प्रेम था। शिवध्यानसिंहजी भी जाति-हितैषी थे। आप प्रान्तीय कौसिल के सदस्य और लोकप्रिय व्यक्ति थे। मिलनसारी आपका गुण था।

दलाल राज-वंश

इस राजवंश की वर्तमान राजधानी कुचेसर थी, जो जिला बुलन्दशहर में है। अब से लगभग 300 वर्ष पूर्व यहां आबाद था। भुआल, जगराम, जटमल और गुरवा नामक चार भाई थे। उन्हीं चारों ने इस राज्य की नींव डाली थी। इस गोत्र का नाम दलाल कैसे पड़ा, इस सम्बन्ध में मि. कुक अपनी ‘टाइव्स एण्ड कास्टस ऑफ दी नार्थ वेस्टर्न प्रॉविन्सेज एण्ड अवध’ नामक पुस्तक में लिखते हैं - देसवाल, दलाल और मान जाट निकट सम्बधित कहे जाते हैं, क्योंकि यह रोहतक के सीलौठी गांव के धन्नाराय के वंशज हैं और एक बड़गूजर राजपूत स्त्री के रज से उत्पन्न हैं जिसके दल्ले, देसवाल और मान नाम के तीन लड़के थे। उन्होंने दलाल, देसवाल और मान नाम के तीन गोत्र अपने नाम के कायम किये ।


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भुआल, जगराम और जटमल ने चितसौना और अलीपुर में प्रथम बस्ती आबाद की। चौथे भाई गुरवा ने परगना चंदौसी (जिला मुरादाबाद) पर अधिकार जमा लिया।

भुआल के पुत्र मौजीराम हुए। इनके रामसिंह और छतरसिंह नाम के दो लड़के थे। छतरसिंह बहादुरी में बढ़े-चढ़े थे। उन्होंने अपने लिए अपनी भुजाओं से बहुत-सा इलाका प्राप्त किया। इनके मगनीराम और रामधन नाम के दो सुपुत्र थे। जब महाराज जवाहरसिंह ने अपने पिता की मृत्यु का बदला लेने के लिए दिल्ली पर चढ़ाई की तो उस समय इन लोगों ने बड़ी मदद की। दिल्ली के नवाब नजीबुद्दौला ने उस समय एक चाल चली। छतरसिंहजी को अपने पक्ष में मिला लिया। उन्हें राव का खिताब दिया और साथ ही कुचेसर की जागीर और 9 परगने का ‘चोर मार’ का औहदा भी दिया। छतरसिंहजी ने अपने पुत्रों और सैनिकों को महाराज जवाहरसिंहजी की सहायता से अलग कर लिया।

दिल्ली की ओर से अलीगढ़ में उन दिनों असराफियाखां हाकिम था। शाह दिल्ली और महाराज जवाहरसिंह के युद्ध के बाद उसने कुचेसर पर चढ़ाई कर दी। चढ़ाई का कारण यह था कि मरकरी के सौदागरों ने उसके कान भर दिए थे। उसे डर दिलाया था कि कुचेसर के लोग बढ़े ही गए तो अलीगढ़ के हाकिम के लिए खतरनाक सिद्ध होंगे। एक चटपटी लड़ाई कुचेसर के गढ़ पर हुई, किन्तु दलाल जाट हार गए। राव मगनीराम और रामधनसिंह कैद कर लिए गए। कोइल के किले में उन्हें बन्द कर दिया गया, किन्तु समय पाकर वे दोनों भाई कैद से निकल गये। बड़ी खोज हुई, किन्तु वे हाथ आने वाले शख्स थोड़े ही थे। पहले ये लोग सिरसा पहुंचे और फिर वहां से मुरादाबाद पहुंच गए। अब यही उचित था कि वे मराठों से मिल जाते। मराठा हाकिम ने इन्हें आमिल का औहदा दिया।

सन् 1782 ई. में दोनों भाइयों ने सेना लेकर कुचेसर के मुसलमान हाकिम पद चढ़ाई कर दी। शत्रु का परास्त करके कुचेसर पर अधिकार कर लिया। जब भी अवसर हाथ आता अपना राज्य बढ़ा लेने में वे न चूकते थे। कुचेसर की विजय के बाद मगनीराम जी का स्वर्गवास हो गया। उनके दो स्त्री थीं। पहली से सुखसिंह, रतीदौलत और बिशनसिंह नामक तीन पुत्र थे। चार पुत्र दूसरी स्त्री से भी थे। मगनीराम ने अपनी रानी भावना को एक बीजक दिया था, जिसमें बहादुरनगर के खजाने का जिक्र था। जाट रिवाज के अनुसार रामधन ने उससे चादर डालकर शादी कर ली। इस तरह बहादुरनगर का खजाना रामधनसिंह को मिल गया। कहा जाता है कि इस शादी में भावना की भी मर्जी थी।1 धन के मिलने पर रामधनसिंह


1. यू.पी. के जाट नामक पुस्तक से


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ने अपने वचन-पालन में ढिलाई की। वह अपने बच्चों की अपेक्षा भतीजों के साथ अधिक सलूक न करते थे। 1790 ई. तक रामधनसिंह ने कुल राज्य पर अपना अधिकार जमा लिया। उस समय दिल्ली में शाहआलम बादशाहत करता था। उससे पूठ, सियाना, थाना फरीदा, दतियाने और सैदपुर के परगने का इस्तमुरारी पट्टा प्राप्त कर लिया। इस तरह से रामधनसिंह राज्य बढ़ाने और अधिकृत करने में सतर्कता से काम लेने लगे। शाहआलम से प्राप्त किए हुए इलाके की 4000 रुपया मालगुजारी उन्हें मुगल-सरकार को देनी पड़ती थी। शाहआलम के युवराज मिर्जा अकबरशाह ने भी सन् 1794 ई. में इस पट्टे पर अपनी स्वीकृति दे दी। राव रामधनसिंह का अपने भतीजों के प्रति व्यवहार अत्यन्त बुरा और अत्याचारपूर्ण बताया जाता है। उनमें से कुछ तो मर गए, कुछ भागकर मराठा हाकिम के पास मेरठ चले गए। मराठा हाकिम दयाजी ने उनको छज्जूपुर और कुछ दूसरे मौजे जिला मेरठ में इस्तमुरारी पट्टे पर दे दिए। इनके वंशज आगे के समय में मेरठ तथा जिले के अन्य स्थानों पर आबाद हो गए। मराठा हाकिम से मिलने के पूर्व राव रामधनसिंह के भतीजे ईदनगर में जाकर रहे थे। यहीं से उन्होंने मेरठ के मराठा हाकिम से मेल-जोल बढ़ाया था। लगातार प्रयत्न के बाद भी वह इतने सफल नहीं हुए कि राव रामधनसिंह से अपने हिस्से की रियासत प्राप्त कर लेते।

मुगल सलतनत के नष्ट होने पर जब ब्रिटिश गवर्नमेण्ट ने भारत के शासन की बागडोर अपने हाथ में ली तो उसने भी सन् 1803 में मुगलों द्वारा दिए हुए इलाके या निज के देश पर कुचेसर के अधीश्वर के वही हक मान लिए, जो मुगल-शासन में थे।

कुछ समय बाद राव रामधनसिंह ने उस मालगुजारी को देना भी बन्द कर दिया जो वह पहले से दिया करते थे। इसलिए सरकार ने उन्हें मेरठ में बन्द कर दिया। वहीं पर सन् 1816 ई. में उनका स्वर्गवास हो गया।

रामधनसिंह के मरने के बाद उनके लड़के फतहसिंह रियासत के मालिक हुए। फतहसिंह ने उदारतापूर्वक अपने चाचा के लड़कों का खान-पान मुकर्रर कर दिया। उन्हीं लड़कों में राव प्रतापसिंहजी भी थे। उन्होंने रियासत में भी कुछ हिस्सा हासिल कर लिया। राव फतहसिंह ने भी रियासत को बढ़ाया ही। सन् 1839 ई. में राव फतहसिंह का स्वर्गवास हो गया। उनके पश्चात् उनके पुत्र बहादुरसिंह राज के मालिक हुए। राव फतहसिंह ने जहां एक बड़ी रियासत छोड़ी, वहां उनके खजाने में भी लाखों रुपया एकत्रित था। राव बहादुरसिंह ने अपने पिता की भांति रियासत को बढ़ाना ही उचित समझा और 6 गांव खरीदकर रियासत में शामिल कर लिये। राव बहादुरसिंहजी ने एक राजपूत बाला से भी शादी की थी। जाट-विदुषी के पेट से उनके यहां लक्ष्मणसिंह और गुलाबसिंह नाम के दो पुत्र और राजपूत-


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बाला के पेट से बमरावसिंह पैदा हुए थे। लक्ष्मणसिंह का स्वर्गवास अपने पिता के ही आगे हो गया था। राव बहादुरसिंह के राज्य का अधिकारी कौन बने इस बात पर काफी झगड़ा चला। यह भी कहा जाता है कि बिरादरी के कुछ लोगों ने राजपूतानी के पेट से पैदा हुए बालक को दासी-पुत्र ठहरा दिया और राज्य अधिकारी गुलाबसिंह को ठहराया। इसका फल यही हो सकता था कि दोनों भाई आपस में झगड़ते-लड़ाई बखेड़ा करते।

एक दुर्घटना यह हुई कि राव बहादुरसिंह अपने महल के अन्दर सन् 1847 ई. में कत्ल कर दिए गए। इस सम्बन्ध में अनेक तरह के मत हैं। कत्ल करने वालों को सजा हुई।

उमरावसिंह ने रियासत में हिस्सा पाने के लिए ब्रिटिश अदालत में दावा किया, किन्तु सदर दीवानी अदालत ने सन् 1859 ई. मे उनके दावे को खारिज कर दिया। सन् 1857 ई. में अन्य राजा रईसों की भांति गुलाबसिंहजी ने भी अंग्रेज-सरकार की खूब सहायता की। जिसके बदले में ब्रिटिश-सरकार ने उन्हें कई गांव तथा राजा साहब का खिताब प्रदान किया। राजा गुलाबसिंहजी का सन् 1859 ई. में स्वर्गवास हो गया। राजा साहब के कोई पुत्र न था। एक पुत्री थी बीवी भूपकुमारी। मरते समय राजा साहब ने रानी सहिबा श्रीमती जसवन्तकुमारी को पुत्र गोद लेने की आज्ञा दे दी थी। किन्तु उन्होंने कोई पुत्र गोद नहीं लिया। रानी साहिबा के पश्चात् भूपकुमारी रियासत की अधिकारिणी बनीं। सन् 1861 ई. में वह भी निःसंतान मर गई। भूपकुमारी की शादी बल्लभगढ़ के राजा नाहरसिंह के भतीजे खुशालसिंह से हुई थी। अपनी स्त्री के मरने पर वही कुचेसर रियासत के मालिक हुए। उमरावसिंह ने फिर अपने हक का दावा किया, किन्तु फल कुछ न निकला। राव प्रतापसिंहजी ने भी अपने हक का दावा किया जो कि मगनीराम के पोते थे। सन् 1868 ई. में अदालती पंचायत से प्रतापसिंह जी को राज्य का पांच आना, उमरावसिंह को छः आना और शेष पांच आना खुशालसिंह को बांट दिया गया। राव फतहसिंह जी का संचय किया हुआ धन इस मुकदमेबाजी में स्वाहा हो गया।

रियासत का इस तरह बंटवारा होने पर कुछ शांति हुई। राव उमरावसिंह ने अपनी एक लड़की की शादी खुशालसिंह से कर दी। खुशालसिंह सन् 1879 ई. में इस संसार से चल बसे। उनके कोई पुत्र न था इसलिए दोनों हिस्सों का प्रबन्ध उनके ससुर उमरावसिंहजी के हाथ में आ गया। वे दोनों राज्यों का भली भांति प्रबन्ध करते रहे। सन् 1898 ई. में उमरावसिंह का भी स्वर्गवास हो गया। उनके तीन लड़के थे पहली पत्नी रानी से और एक लड़का दूसरी रानी से था। सबसे बड़े राव गिरिराजसिंह थे। उनके जाति खर्च के लिए अपने भाइयों से 1/16 अधिक भाग मिला था। मुकदमे-बाजी ने इस घराने को बरबाद कर रखा था।


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साहनपुर की रानी सहिबा श्रीमती रघुवरीकुवरि ने राव गिरिराजसिंह जी तथा उनके भाइयों पर तीन लाख मुनाफे का (अपना हक बताकर) दावा किया था। पिछले बन्दोबस्त में पूरे 60 गांव और 16 हिस्से इस रियासत के जिला बुलन्दशहर में थे। इसकी मालगुजारी सरकार को सन् 1903 से पहले 118292/- दी जाती थी। रियासत साहनपुर और कुचेसर का वर्णन प्रायः सम्मिलित है। श्रीमान् कुंवर ब्रजराजसिंह जी रियासत साहनपुर के मालिक थे। इन रियासतों का संयुक्त-प्रदेश के जाटों में अच्छा सम्मान था।

साहनपुर

बिजनौर जिले में चौधरी, पछांदे और देशवाली जाट अधिक प्रसिद्ध हैं। इनमें सबसे बड़ा साहनपुर का था। साहनपुर के जाट सरदार झींद की ओर से इधर आए थे। इस खानदान का जन्मदाता नाहरसिंह जी को माना जाता है। नाहरसिंह के पुत्रा बसरूसिंह जींद की ओर देहली के पास बहादुरगंज में आकर आबाद हुए थे। सन् 1600 ई. में यह घटना है। उस समय जहांगीर भारत का शासक था। उसकी सेना में रहकर इन लोगों ने बड़ा सम्मान प्राप्त किया था। बसरूसिंह के छोटे लड़के तेगसिंह जी ने बादशाह जहांगीर से जलालाबाद, कीरतपुर और मडावर के परगने में 660 मौजे प्राप्त किये थे। राय का खिताब भी इन्हें मिला था। यह खिताब आज तक इनके वंश में चला आता है। आरम्भ में बिजनौर जिले में नगल के मौजे में इन्होंने आबादी की। दो वर्ष पश्चात् साहनपुर में किले की बुनियाद डाली। राय तेगसिंहजी का 1631 ई. में स्वर्गवास हो गया। उनके 5 लड़के थे। राय भीमसिंह जी, जो कि दूसरे लड़के थे, रियासत के मालिक हुए। अपने समय में राय भीमसिंह ने यथाशक्ति रियासत की उन्नति में अपने को लगाया। वह झगड़ालू प्रकृति के मनुष्य न थे। भीमसिंह जी के कोई पुत्र न था, इसलिए उनके देहावसान के पश्चात् उनके छोटे भाई के पुत्र नत्थीसिंह जी राज के मालिक हुए। सबलसिंह राजसी ठाट-बाट और चमक-दमक को पसन्द करते थें। वह अपने नाम को भूलने की चीज नहीं रहने देना चाहते थे। उन्होंने अपने नाम से सबलगढ़ नाम का एक मजबूत किला बनवाया। सबलसिंह जी के तीन पुत्र थे, जिनमें से दो उनके आगे ही मर चुके थे। इसलिए रियासत के मालिक तृतीय पुत्र रामबलसिंह जी हुए। इनके दो पुत्र थे - 1. ताराचन्द और सब्बाचन्द। अपने पिता के बाद ताराचन्द ही अपनी पैतृक रियासत के स्वामी हुए। सन् 1752 ई. में ताराचन्द जी का देवलोक हो गया। सब्बाचन्द जी ने अपने भाई के बाद राज्य की बागडोर अपने हाथ में ले ली। सब्बाचन्द जी ने रियासत को खूब ही बढ़ाया। कहा जाता है कि उन्होंने गांवों की संख्या 1887 तक कर दी थी।


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राव सब्बाचन्दजी की सन् 1784 ई. में मृत्यु हो गई। उनके भतीजे राय जसवंतसिंह जी गद्दी के अधिकारी हुए। किन्तु जसवंतसिंह जी की गद्दी पर बैठने के एक वर्ष पश्चचात् उनकी मृत्यु हो गई। चूंकि राय जसवन्तसिंह जी के कोई सन्तान न थी, इसलिये उनके चाचा के पुत्र राव रामदासजी राज्य के स्वामी हुए। पठान लोग उस समय विशेष उपद्रव कर रहे थे। सहानपुर पर भी उनका दांत था। उनसे लड़ते हुए ही राव रामदास जी वीरगति को प्राप्त हुए।

रामदास जी के पश्चात् रियासत उनके भाई राव बसूचन्द जी के हाथ आई। ग्यारह वर्ष तक इन्होंने बड़ी योग्यता से रियासत का प्रबन्ध किया। सन् 1796 ई. में इनकी मृत्यु हो गई। इनके पुत्र खेमचन्दजी को 2 वर्ष के बाद मार डाला गया था, इसलिए छोटे लड़के तपराजसिंह गद्दी पर बैठे। सन् 1817 ई. तक इन्होंने राज किया। इनकी मृत्यु के पश्चात् राव जहानसिंह जी रियासत के कर्ताधर्ता बने, किन्तु वे सन् 1825 ई. में डाकुओं से सामना करते हुए मारे गए। अतः उनके छोटे भाई राव हिम्मतसिंह जी मालिक हुए। 45 वर्ष के लम्बे समय तक इन्होंने रियासत का प्रबन्ध किया। सन् 1873 ई. में इनके स्वर्गवास के पश्चात् इनके बड़े पुत्र राव उमरावसिंह जी साहनपुर के राव नियुक्त हुए। नौ वर्ष तक इन्होंने राज किया। सन् 1882 ई. में इनका देहान्त होने के समय इनके भाई डालचन्दजी नाबालिग थे, इससे रियासत कोर्ट ऑफ वार्डस के अधीन हो गई। डालचन्दजी का असमय ही सन् 1897 ई. में देहान्त हो गया, इसलिए रियासत राव प्रतापसिंह के कब्जे में आई। कोर्ट ऑफ वार्डस का प्रबन्ध हटा दिया गया। सन् 1902 ई. में राव प्रतापसिंह जी भी मर गए। उनके एक नाबालिग पुत्र दत्तप्रसादसिंह जी थे जिन्हें आफताब-जंग भी कहते थे। रियासत का इन्तजाम उनके चाचा कुवंर भारतसिंह जी के हाथ में आया। भारतसिंह जी बड़े ही उच्च विचार के और समाजसेवी व्यक्ति थे। शुद्धि-आन्दोलन से तो उनकी सहानुभूति थी ही, जाति-सेवक भी वे ऊंचे दर्जे के थे। राजा भारतसिंह जी सभी की प्रशंसा के पात्र रहे हैं। कुवर चरतसिंहजी भी योग्य व्यक्तियों में गिने जाते थे।

यह विशेष स्मरण रखने की बात है कि साहनपुर दो रियासतें थीं और दोनों ही जाटों की। एक बुलन्दशहर जिले में थी और दूसरी बिजनौर जिले में।

फफूंद

नवाबी शासन में इस जगह के मालिक राजा भागमल थे। फफूंद जिला इटावा (वर्तमान ओरैया) में पूर्व की ओर है। सन् 1774 से 1821 ई. तक यह जिला अवध के नवाबों की मातहती में रहा था। महाराजा सूरजमल जी ने एक समय इसे अपने अधिकार में कर लिया था। किन्तु उनके स्वर्गवास के पश्चात् यह अवध के नवाबों के हाथ में चला गया। नवाबों की ओर से इस जिले में तीन आमील थे - इटावा, कुदरकोट और फफूंद


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज,पृष्ठान्त-580


फफूंद में राजा भागमल जिनका कि दूसरा नाम बारामल्ल भी था, राज करते थे।1 उन्होंने फफूंद में एक किला बनवाया था, जिसके चिन्ह अब तक शेष हैं। राजा भागमल हिन्दू-मुसलमान सभी को प्यार करते थे। उन्होंने वहां के गरीब मुसलमानों के लिए एक मसजिद भी बनवा दी थी। आज तक उस मसजिद पर जाट-नरेश राजा भागमल जी का नाम खुदा हुआ है। फफूंद को हमने स्वयं देखा है। राजा भागमल के समय में यह श्रेष्ठ व्यापारिक मण्डी थी। पुराने समय के अनेक मकान अब तक अपनी शान बता रहे हैं। सन् 1801 ई. में यह स्थान नवाब सआदतअली ने अंग्रेज सरकार को दे दिया था। राजा भागमल शायद मीठे गोत के जाट थे। क्योंकि जसवन्त नगर के पास मौजा सिसहट में इसी गोत के जाट पाये जाते हैं।

मुरादाबाद

‘इतिहास’ लिखने के समय कुंवर सरदारसिंह जी रियासत के मालिक थे। वह एम. एल. सी. भी थे। जाट महासभा के कोषाघ्यक्ष भी थे। ‘यू. पी. के जाट’ नामक पुस्तक में इस रियासत का वर्णन इस प्रकार है - “अमरोहा के रहने वाले नैनसुख जाट थे। उनके लड़के नरपतसिंह ने मुरादाबाद के शहर में एक बाजार बसाया। यह भगवान् थे। इनके लड़के गुरुसहाय कलक्टरी के नाजिर थे। नवाब रामपुर की मातहती में यह मुरादाबाद के दक्खिनी हिस्से के नायब नाजिर थे। इनको सरकार से राजा का खिताब मिला और 18 गांव से कुछ ज्यादा जिला बुलन्दशहर में इनको सरकार ने प्रदान किये। सन् 1874 में यह मर गये। उनकी विधवा रानी किशोरी मालिक हुई। 60,000 रुपये मालगुजारी की रियासत का इन्तजाम इस बुद्धिमान स्त्री ने 1907 ई. तक बड़ी खूबी के साथ किया। इसी सन् में यह मर गई।

रानी किशोरी के मरने के बाद रियासत के दो भाग हो गये। बुलन्दशहर की जायदाद रानी साहिबा के नाती करनसिंह को मिली और बाकी कुवर ललितसिंह को। गुरुसहाय के भाई ठाकुर पूरनसिंह के यह पोते थे और समस्त रियासत के मालिक भी।

इस समय जैसा कि हम लिख चुके हैं, श्री सरदारसिंह जी रियासत के मालिक थे। रियासत की टुकड़े-बन्दी रानी किशोरी के बाद किस तरह से हुई इसका कुछ मौखिक वर्णन हमें प्राप्त हुआ है। किन्तु कुछ ऐसी भी बातें हैं जो कि राज्य के प्राप्त करने के लिए सर्वत्र हुआ करती हैं। इसलिए उनके लिखने की आवश्कता नहीं समझी।


1. यू.पी. के जाट नामक पुस्तक से

जाट इतिहास:ठाकुर देशराज,पृष्ठान्त-581


महाराजा श्री ब्रजेन्द्रसिंह जी भरतपुर-नरेश की ज्येष्ठ भगिनीजी का विवाह ठाकुर करनसिंह जी के पौत्र कुंवर सुरेन्द्रसिंह जी के साथ हुआ था।

जारखी

मुस्लिम काल में जारखी नाम से जाट ताल्लुका प्रसिद्ध था। यह स्थान टूंडला स्टेशन से 4 मील पूर्वोत्तर में है। जिस समय भरतपुर लार्ड लेक चढ़कर आया था अर्थात् सन् 1803 में जारखी के सुन्दरसिंह और दिलीपसिंह के पास 41 गांव थे। पहले इनका सम्बन्ध भरतपुर और मराठों से रहा था। मुगल हाकिमों से भी इनका ताल्लुक रहा होगा। सन् 1816 और 1820 के बीच डेहरीसिंह जो कि दलीपसिंह के पोते थे, इस रियासत के मालिक थे। उन्होंने सरकारी मालगुजारी बन्द कर दी। इसलिए रियासत हाथरस के राजा दयासिंह जी के पास चली गई। किन्तु जब अंग्रेजों और दयारामसिंह में खटकी तो सरकार ने यह रियासत डेहरीसिंह के पुत्र जुगलकिशोरसिंह को वापस कर दी। अब ठाकुर शिवकरनसिंह और भगवानसिंह जी इस खानदान के मालिक थे। कुंवर शिवपालसिंह जी ने अपना हिस्सा अलग करा लिया था। पंजाब की बेर रियासत के साथ, जो कि सिख-जाटों की जिला लुधियाना में छोटी-सी स्टेट थी, इनके सम्बन्ध थे।

अन्य रियासतें

इनके अलावा और कई छोटी-छोटी रियासत जाटों की संयुक्त-प्रदेश में थीं जैसे- मुसीउद्दीनपुर, सेहरा, सीही, सैदपुर और भटौना

  • मुसीउद्दीनपुर जिला मेरठ में है। कुंवर विश्वम्भरंसिंह यहां के प्रसिद्ध मालिक, बड़े सज्जन पुरुष थे। चौधरी मुख्तयारसिंहजी जिला बोर्ड के चेयरमैन और बड़ी कौंसिल के मेम्बर रह चुके हैं।
  • सेहरा, सैदपुर के जाटों की बुलन्दशहर में अच्छी इज्जत है। सरदार रतनसिंह, ठाकुर शादीराम और ठाकुर झण्डासिंह ने गदर में सरकार की बड़ी सहायता की थी।
  • भटौना के ठाकुर खुशीराम ने पूर्णतः राजभक्ति गदर के समय में प्रकट की थी। ये रियासतें राजभक्ति के पुरस्कार थीं।
  • संयुक्त-प्रान्त के जाटों का इतिहास इतना-सा हो, ऐसी बात नहीं है, किन्तु यह अवश्य है कि आज वह इतिहास अप्राप्त है। पांडवों और भगवान श्रीकृष्ण से लेकर अब तक उनका इतिहास प्राप्त हो सकेगा या नहीं, इस सम्बन्ध में निश्चयपूर्वक अभी कुछ नहीं कहा जा सकता। बहुत-सी ऐसी बातें हैं जिनका लिखित प्रमाण नहीं मिलता, इसलिए उनके सम्बन्घ में उल्लेख करने से रुकना पड़ता है। जैसे
  • बहराईच हमारे विचार से बहराईच गोत्र के जाटों की बस्ती व राजधानी थी और
  • उरई के संस्थापक उरिया गोत के जाट थे।
  • मैनपुरी को मैनी जाटों ने आबाद किया था। शायद अधिक खोज करने से इस बात के प्रमाण भी मिल सकें।
  • बटेश्वर में जाट-राज्य होने की इधर बहुत-सी दंतकथाएं हैं।

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राजा जगदेव मालवा से संयुक्त-प्रान्त में आये थे। वे कहां आबाद हुए, कहां तक उनका राज्य था, यह भी कुछ पता नहीं चलता है। अनेक जाट-गोत अपने को राजा जगदेव के वंशज मानते हैं1406 ई. के आस-पास विक्रमा ठाकुर अथवा ठकुरी ने संयुक्त प्रदेश में अपने साथियों सहित प्रवेश किया था और जंघारा राजपूतों को मार भगा कर हसनगढ़ परगने के आस-पास अधिकार किया था। इस बात का उल्लेख मि. क्रुक ने भी किया है, किन्तु इन लोगों ने कब तक स्वतन्त्र रूप से राज्य किया और कहां से आए थे यह वर्णन नहीं प्राप्त होता है। यदि ठकुरेले ठकुरी वंश के लोग हैं जो कि नेपाल के शासक थे तो कहना पड़ेगा कि मौखरी लोग भी जाट हैं, क्योंकि उनके आपस में सम्बन्ध होते थे और फिर इस तरह सम्राट हर्ष भी जो कि थानेश्वर के राजा थे, जाट मालूम देते हैं, क्योंकि ठकुरी, मौखरी और हर्ष के वंश वालों में वैवाहिक सम्बन्ध होते थे। जाटों में मौखरी गोत्र भी है।

डत्ल्यू क्रुक की ‘उत्तरी-पश्चिमी प्रान्तों और अवध की जातियां’ नामक पूस्तक में दशन्दसिंह जो कि बिजनौर का शासक था, उसके पूर्वजों के वर्णन में हम यह भी पढ़ते हैं कि मुहम्मद गौरी के चित्तौड़ जीत लेने पर राज घराने के दो व्यक्ति एक नेपाल और दूसरा बिजनौर की ओर चले गए थे। तब क्या यह अनुमान लगाना ठीक नहीं कि नेपाल में गए हुए ही ठकुरी हैं और उनके ही कुछ साथी जो कुछ कारणों से बिजनौर के पास बस गए थे, ठकुरेले हैं। उनके गोत्र का दूसरा ही नाम हो गया हो। मि. क्रुक ने महमूद गजनवी का समय बताया है। वह समय बहुत संभव है कि 1046 ई. रहा हो अथवा संवत् 1046 को ईसवी बता दिया गया हो। वह समय महमूद गजनवी के आक्रमणों का है। इस समय भी चित्तौड़ के आसपास जाटों के छोटे-छोटे राज्य थे। खोज करने से बहुत संभव है, दशन्दसिंह और उसके पूर्वजों तथा वंशजों का इतिहास मिल जाए। ऐसे ही इतिहास मिलने पर संयुक्त-प्रदेश की विशाल भूमि पर के कुल जाट-राज्यों का पता चल सकता है।

छोंकरे जाट जो स्वयं को लक्ष्मणजी का वंशज बतलाते हैं, अपने अनेक राजाओं तथा स्थानों के भी नाम लेते हैं। किन्तु आज न उन स्थानों का पता है और न मौजूदा इतिहासों में वे नाम आते हैं। जाटों में एक गोत्र घरूका है जो कि घटोत्कच (भीमसेन का पुत्र) के वंशज अपने को बतलाते हैं। घटोत्कच यमुना के किनारे जिस वन का राजा था, वह आजकल का फरह है। किन्तु उनके राज के निशान कैसे ढूंढे जाएं। पंजाब में जींद के पास फौगाट गोत्र का राजा झण्डूसिंह अथवा जुहाडूसिंह दादरी में राज करता था। उसके वंशज यु.पी. में आ गए। किस तरह और कहां-कहां वे बसे, उन्होंने यू.पी. में राज्य-स्थान की चेष्टा की या नहीं, यह कुछ पता नहीं चलता। बीकानेर के जाट फौगाट नरेश झण्डूसिंह के गीत गाया करते थे। एक गीत की कड़ी इस भांति है -


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फौगाट की दादरी झण्डूजी सरदार1

सन् 800 ई. और बारह सौ के बीच यू.पी. के अनेक स्थानों पर हमें किरार क्षत्रियों के राज्यों का वर्णन मिलता है। अनेक जिला गजेटियरों में किरारों से जाट क्षत्रियों के युद्धों का भी हाल मिलता है। उस समय किरारों को विजय करने के बाद जाटों के किन-किन सरदारों ने कहां-कहां कितने-कितने दिन राज किया, इसका वर्णन करने में गजेटियर भी चुप है। मथुरा के पास कामरि, कोटमनि, जाववठैन, होडल, गोसना, लोहवन और कारब में ऐसे चिन्ह मिलते हैं जो वहां अति प्राचीन बस्तियां तथा गढ़ों के होने के प्रमाण देते हैं। इन स्थानों के जाट भी यह दावा करते हैं कि उनके पूर्वज इन स्थानों के शासक थे।


इनके अलावा सैकड़ों स्थानों और सैकड़ों गोत्रों के जाट अपने पूर्वजों की गाथाएं जो उन्होंने परम्परागत याद रखी हैं, सुनाते समय अपने उन पूर्वजों का वर्णन करते हैं जो राजा कहलाते थे। यदि यह सब प्रकार की पूरी सामग्री एकत्रित कर ली जाए और एक लम्बे अर्से तक खोज की जाए तो इसमें कोई सन्देह नहीं कि यू.प. के जाटों के प्राचीन राज्यों का इतना इतिहास प्राप्त हो सकता है, जिसकी इस समय कल्पना भी नहीं की जा सकती।

यू.पी. की जाट जनसंख्या

संयुक्त-प्रान्त में जाट क्षत्रिय - संयुक्त-प्रान्त में इस समय कितने जाट क्षत्रिय हैं और किस जिले में उनकी कितनी संख्या है यह भी बताना आवश्यक समझ कर सन् 1931 ई. की मर्दम शुमारी की रिपोर्ट के आंकड़े यहां उद्धृत करते हैं-

कुल प्रान्त में 759830 जाट हैं जिनमें 331971 स्त्रियां हैं । चूंकि भारतवर्ष में इस समय वैदिक-धर्म का पुनरुद्धार हो रहा है, वेदों की मुख्य प्रचारक संस्था - आर्य समाज ने यह आन्दोलन किया कि आर्य लोगों की हिन्दुओं से अलग गणना की जाए। इस तरह की गणना में औसतन जाट अधिक हैं। स्त्री-पुरुषों की संख्या में 401725 पुरुष और 311078 स्त्री-जाटों ने अपने को हिन्दू और 26144 पुरुष ओर 20893 स्त्री-जाटों ने अपने लिए आर्य लिखाया है। यद्यपि हिन्दू लिखाने वाले जाट स्त्री-पुरुष सामाजिक नियमों में हिन्दू की अपेक्षा आर्य ही हैं, किन्तु मानसिक दासता और इतिहासज्ञान की कमी से वह अपने लिए आर्य की अपेक्षा हिन्दू कहलाने में गौरव समझते हैं।


1. हमने इस गीत को पूरा लिखा था किन्तु खेद है कि इस समय वह कागज का टुकड़ा हमारे पास से खो गया (लेखक)


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जिलेवार जाटों की संयुक्त-प्रान्त में जन-संख्या इस प्रकार है-

इन सबके अलावा लगभग बीस हजार इस प्रान्त में जाट-मुसलमान हैं।

संयुक्त-प्रान्त में जाटों के गोत

संयुक्त-प्रान्त में जाटों के अनेक गोत हैं। एक अंग्रेज ने लिखा है कि 213 गोत के जाट तो जिला मेरठ में ही रहते हैं। हमें जिन गोत्रों का पता चला है वे ये हैं-


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इनमें से अनेक गोत्र तो ऐसे हैं जो महाभारत और उससे पहले से उसी रूप में बराबर अब तक चले आते हैं और जिनका संयुक्त-प्रदेश की पवित्र भूमि पर एक अर्से तक राज्य रहा था। कुछ इनमें ऐसे गोत्र हैं जो किसी राजवंश में से हैं और अब उनका नाम किसी विशेष कारण से बदल गया है। इनमें अधिकांश ऐसे गोत्र हैं जिनका एक बड़ा भाग बौद्ध-काल के बाद नये रस्म-रिवाज से दीक्षित व संस्कृत हो गया है ओर अब राजपूत नाम से पुकारा जाता है। समय आएगा कि इन सभी गोत्रों और राजवंशों के ऊपर पूरा प्रकाश पड़ जाएगा।


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अष्टम अध्याय समाप्त

नोट - इस पुस्तक में दिए गए चित्र मूल पुस्तक के भाग नहीं हैं. ये चित्र विषय को रुचिकर बनाने के लिए जाटलैंड चित्र-वीथी से लिए गए हैं.


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