Jat History Thakur Deshraj/Chapter VII Part II (i)

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जाट इतिहास
लेखक: ठाकुर देशराज
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सप्तम अध्याय भाग-दो (i): पंजाब और जाट
पटियाला-राज्य और फरीदकोट राज्य
पटियाला राज्य का झंडा
पटियाला राज्य का चिन्ह

पटियाला-राज्य

पटियाला की रियासत पंजाब की एक प्रसिद्ध रियासत थी। यह उत्तर की ओर 29 अक्षांश 15 देशान्तर से 30 अक्षांश 45 देशान्तर तक लम्बा और पश्चिम की ओर 74 अक्षांश 45 देशान्तर से 76 अक्षांश 45 देशान्तर तक चौड़ाई में थी। इसका क्षेत्रफल 5932 वर्गमील और जनसंख्या 1499739 थी। सालाना


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-400


आमदनी 16300000) रु० बताई जाती थी। वह राज्य तीन भागों में विभक्त था जिनमें से सबसे बड़ा हिस्सा दक्षिणी किनारे पर, दूसरा शिमला के पर्वतीय प्रदेश में, तीसरा नारनौल का परगना था जो राजधानी से 180 मील दूर है। इस राज्य की स्थापना 18वीं शताब्दी में प्रसिद्ध जाट सरदार आलासिंह जी के द्वारा हुई थी।

जाटों की मनगढंत के अनुसार कुछेक देशी-विदेशी इतिहासकारों ने इस राज्य के मूल पुरुष की उत्पत्ति जैसलमेर के राज्य-वंश में बताई है। वास्तव में बात यह है कि जैसलमेर के राजपूत भट्टी और पटियाला जाट भट्टी दोनों ही यादव थे जो कि गजनी की तरफ से भटिण्ड भूमि में बसने के कारण भाटी कहलाये। एक समूह अपनी पुरानी रिवाजों को मानता रहा और दूसरा समूह मौजूदा कृत्रिम हिन्दू रिवाजों में दीक्षित हो गया। वैदिक कालीन विधवा-विवाह, समानता का व्यवहार और बौद्ध-कालीन मांस-भक्षण निषेध, स्त्री-स्वातन्त्र आदि रस्मों का पालन करने वाला समूह जाट-भट्टी, और दूसरा पौराणिक धर्म की विधवा विवाह निषेध, संकुचित भेदभाव, पर्दा प्रथा, पशु-बलिदान प्रणाली, स्त्री दासत्व आदि रस्मों का दासत्व ग्रहण कर लेने के कारण राजपूत-भट्टी कहलाया, जिन्हें कि आज वे अपनी कौम के लिए खतरनाक भी समझते हैं।

पटियाले का खानदान खिलकियां मलोई कहलाता है, क्योंकि इनके बुजुर्गों ने अपनी कठिनाई के दिन मालवा में गुजारे थे। 'सैरे पंजाब' का लेखक लिखता है कि - “मांझ के जाट इन लोगों को अपने से कुछ हेटा समझते थे। कुछ दिन तक तो वह इनकी लड़कियां ले लेते थे किन्तु देते नहीं थे। परन्तु जब से इन लोगों के हाथ राज-शक्ति आई है, मांझ के जाट अपनी बेटी का रिश्ता इन लोगों से करने लग गए।”1 परन्तु भाट तथा उनका अन्धानुसरण करने वाले लेखक कहते हैं कि रावखेवा ने नादूजी के जाट जमींदार की पुत्री से विवाह कर लिया और यहां तक लिखते हैं कि उस जमींदार ने बड़ी प्रसन्नता के साथ रावखेवा, जो कि बेघरबार मारा-मारा भटकता था, के साथ बड़ी खुशी से अपनी लड़की की शादी कर दी थी। यह कैसे सम्भव हो सकता है कि जाट राजपूत के साथ अपनी लड़की की शादी राजी से कर देता? जबकि हम इस बात का उदाहरण पाते हैं कि जाट होने की हालत में भी वह इनको अपने से निचले दर्जे का समझते थे - उनके ऐसा समझने का कारण यह था कि भट्टी जाट गजनी की तरफ रह चुके थे और मांझ के जाट सदैव से पंचनद-भूमि में निवास करते थे इसलिए उनके पास जमीन-जायदाद सब कुछ थी और ये लोग निवास करते थे गैर-उपजाऊ भूमि में। यही दो कारण थे कि वे इन्हें अपनी समानता का नहीं समझते थे।


1. किताब 'सैरे पंजाब'। दूसरा भाग। पे० 415


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भाटों की इस बेहूदी और निराधार गढ़ंत ने कई शताब्दियों के बाद सच्चाई का रूप ग्रहण कर लिया। लेकिन जिनके तनिक भी बुद्धि है वे सोच सकते हैं कि रावखेवा की सन्तान के अब तक कितने मनुष्य हो सकते थे? रावखेवा का समय सम्वत् 1422 माना जाता है। इन 500 वर्ष के अरसे में अर्थात् 30 पीढ़ी एक मनुष्य की औलाद के कितने मनुष्य हो सकते थे और यह जानना कोई कठिन बात भी नहीं। पटियाला, फरीदकोट अथवा नाभा वाले सिजरा देख करके ठीक गिनती भी जान सकते हैं। बमुश्किल दो हजार आदमियों की औसत पहुंचेगी। लेकिन कुल भट्टी जाटों की जनगणना की जाए तो लाखों की संख्या में मिलेंगे। भाटों का सारा ऐतिहासिक वर्णन ही बच्चों जैसी कहानियां हैं। हम कहते हैं सारे भाटी चाहे वे राजपूत हों, चाहे जाट - न तो अकेले भाटी राव की सन्तान हैं और न अकेले शालिवाहन की। वे गजनी से हजारों की संख्या में लौटे थे और गजनी भी भारत से हजारों की संख्या में गए थे।

रावखेवा आरम्भ से जाट थे और उस समय तक भटिंडा और हिसार के जाट जैसलमेर वाले राजपूतों को अपने से भिन्न इसलिए नहीं समझते थे कि शताब्दियों से वे एक ही नाम से पुकारे जाते रहे थे। भाट लोग इन बातों को तो जाट और राजपूत भट्टियों के हृदय से निकाल नहीं सकते थे कि वे एक हैं। दोनों को अलग करने के लिए भाटों ने उनको दो जातियों का बता दिया और जाति तथा राजपूत के विवाह की कहानी गढ़ डाली। इस सिद्धान्त की सर हेनरी एम० इलियट ने भी खूब दिल्लगी उड़ाई है। वास्तव में वह मजाक उड़ाने लायक बात भी है।

अब हम इस बात को यहीं समाप्त करते हुए पटियाला राज्य के मुख्य इतिहास पर आते हैं। इस राज्य-वंश में फूल एक प्रसिद्ध व्यक्ति थे। उन्हीं के नाम पर फुलकियां मिसल स्थापित हुई थी। नाभा, पटियाला आदि फूल के ही वंशज हैं। उनका बेटा रामू और रामू के सुपुत्र राजा आलासिंह थे और ये ही पटियाला राज्य के संस्थापक माने जाते हैं। उनका वर्णन इस प्रकार है ।

सरदार आलासिंह

पटियाला जैसी प्रसिद्ध और सुविस्तृत रियासत के संस्थापक और फुलकियां खानदान को विश्व विदित होने योग्य बनाने वाले सरदार आलासिंह ही थे। आपका जन्म सन् 1695 ई० में सरदार रामा के घर मौजा फूल में हुआ था। आपके नामी पिता की जिस समय शत्रुओं के हाथों से मृत्यु हुई, उस समय आप 23 वर्ष के थे। दो वर्ष बाद ही आपने अपने पिता की मृत्यु का बदला शत्रुओं से ले लिया। इस युद्ध में जहां आपके शत्रुओं में से कमला और वीरसिंह मारे गये, वहां आपके चेहरे पर भी बर्छे का हल्का सा घाव आया। 1722 ई० में अनहदगढ़ जो कि पहले बरनाला कहा जाता था, को आबाद किया। लोगों की आपके साथ


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में कितनी सहानुभूति थी, इसका इस बात से पता चल जाता है कि मौजा सिंहगढ़ के जमींदारों ने अपने हाकिम के विरुद्ध भी आपका थाना अपने गांव में बिठा लिया था। कुछ दिन के बाद कुल्हा रईस कोट और दिलेरखां हलवारावाला, कुतुबुद्दीनखां मलसीहान वाला, सोदेखां और जमालखां रईस मालेर कोटला, अनहदगढ़ पर सैयद असद अलीखां, फौजदार दुआबा जालन्धर को अपने साथ लेकर के युद्ध के लिए चढ़ आए। इस चढ़ाई का कारण यह था कि सरदार अलासिंह के पुत्र कुं० शार्दूलसिंह ने सोनेखां के स्थान नीमा को अपने कब्जे में करके उसे बेदखल कर दिया था। दूसरे कुल्हा भी सरदार आलासिंह से इस कारण नाराज था कि उन्होंने उसकी रियासत के मौजे सिंहगढ़ को अपने राज्य में मिला लिया था। ये ही कारण थे जिससे कि इतने रईस सम्मिलित हो करके सरदार आलासिंह के ऊपर चढ़ आये। लेकिन इस लड़ाई में विजय-श्री सरदार आलासिंह को ही प्राप्त हुई। फौजदार शाही मारा गया। दुश्मनों का बहुत सा लड़ाई का सामान भी इनके हाथ आया। इस लड़ाई से दूर-दूर तक इनका रौब बैठ गया। इधर-उधर के बहुत से देहातों पर भी कब्जा कर लिया।

इनकी इन विजयों और बहादुरियों का जिक्र दिल्ली के तत्कालीन बादशाह मुहम्मदशाह तक पहुंच गया। बादशाह में यह शक्ति तो थी ही नहीं कि वह उनके बढ़ते हुए प्रभाव को रोक सकता। उसने सरदार आलासिंह से बनाए रखना ही उचित समझा। इसलिए नवाब मीरमन्नूखां और समीयारखां के हाथ उनके पास यह पैगाम भेजा कि आप सरहिन्द में जाकर के प्रबन्ध करें। अच्छे प्रबन्ध होने की सूचना मिलने पर हमारी ओर से आपको राजा की उपाधि दी जायेगी। इस शाही फरमान के आने के बाद सरदार आलासिंह जी ने अलादादखां बूहा वाला, इनायतखां, विलायतखां, बूलाड़ा वाले और वाकिरखां हरियाऊ वालों पर जो कि मुहम्मद अमीनखां रईस भटनेर के भाई-बन्द थे - चढ़ाइयां कीं जो कि सन् 1741 तक बराबर जारी रहीं।

सन् 1741 ई० के अन्त में नवाब अलीमुहम्मदखां सरहिन्द का चकलेदार नियुक्त हो करके बादशाह देहली की ओर से आया। कुछ दिनों तक सरदार आलासिंह और उसका मेल-जोल रहा। कोट और जगराय की लड़ाइयों में दोनों साथ-साथ ही रहे। लेकिन सरदार साहब चकलेदार के अधीन रहना पसन्द नहीं करते थे। वह उसके दरबार की हाजिरी से मुक्त होना चाहते थे। नवाब को जब उनकी इस मनोवृत्ति का पता चला तो उसने धोखे से कैद कर लिया। लेकिन करमा नाम के एक व्यक्ति की चालाकी से जो कि सरदार साहब का नौकर था, वह नवाब की कैद से निकल गए और उससे बदला लेने के लिए प्रबन्ध करने लगे। लेकिन इन्हीं दिनों काम की खराबी के कारण नवाब अलीमुहम्मद की बदली हो गई। इससे बदला न लिया जा सका और वह अपनी शक्ति का प्रयोग राज्य को


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बढ़ाने तथा भटिंडा के सरदार जोधासिंह को सहायता देने में करने लगे। सन् 1747 ई० में उन्होंने मौजा ढहुडान में एक किला बनाने की तैयारी की। ढहुडान के करीब मौजा काकड़े में फरीदखां नामी एक नौमुस्लिम राजपूत थोड़े से इलाके को अपने कब्जे में दबाए बैठा था। उसने इस इच्छा से कि सरदार आलासिंह को यहां से उखाड़ दिया जाए - समाना के बादशाही हाकिम से मदद मांगी। लेकिन शाही मदद के मिलने से पहले ही आलासिंह जी के अफसर अमरसिंह ने फरीदखां और उसके साथियों को मारकर उसके कुल इलाके पर कब्जा कर लिया। सरदार आलासिंह के बढ़ते हुए ऐश्वर्य और प्रताप को देखकर परगना सनौर के जमींदार जिनके पास 48 गांव थे, उनकी शरण में आ गए और उन्हें अपना सरदार मान लिया। इस परगने के इन्तजाम के लिए सरदार आलासिंह ने अपने साले गुरुबख्शसिंह को नियुक्त किया और उस स्थान पर एक मजबूत किला बनाया। वही किला आज पटियाले के नाम से मशहूर है। 'सैरे पंजाब' का लेखक लिखता है कि पहले इस किले का नाम पट-आला था। सर्वसाधारण की बोलचाल से अब वह पटियाला कहलाता है।

जिस जोधासिंह रईस भटिंडा की सरदार आलासिंह ने मदद की थी, उसी के खिलाफ उन्हें लड़ना भी पड़ा - कारण यह कि उसने गुरुबख्शसिंह की मंगनी की हुई गैंडा चाहिल की लड़की के साथ में अपनी शादी कर ली थी। सिखों की सहायता से उसके कुल राज्य को इन्होंने अपने राज्य में मिला लिया। भटिण्डा के इलाकों को अपने राज्य में मिला लेने के बाद उन्होंने 'भोलाड़ा' और 'बूहा' के नव मुस्लिम राजपूतों की तरफ मुंह फेरा। थोड़ी सी लड़ाई के बाद ये उन पर विजयी हुए और उनके इलाके में से भोलेड़ा भाई गुरुबख्शसिंह को देकर बाकी पर अपना कब्जा किया। 1707 ई० तक उन्होंने अपने पुत्र कुंवर लालसिंह और अपने भुजाओं के बल पर मूनक, टोहाना, जमालपुर, धारसूल और सिकरपुरा को अपने कब्जे में कर लिया जो कि नौमुस्लिम भट्टी राजपूतों के अधिकार में थे। मालेर कोटला के पठानों से भी मुठभेड़ हुई और उनके इलाके में से 'शेरपुरा' और 'पहोड़' को छीनकर अपने कब्जे में कर लिया। आपके पोते कुंवर हिम्मतसिंह ने मालेर कोटला के नवाब जमालखां के बेटे भीखम से इसी लड़ाई में एक बहुत बढ़िया विलायती तलवार छीनी थी, जो पटियाला में सुरक्षित रखी गई।

यह वह जमाना था जब भारत पर अहमदशाह दुर्रानी के आक्रमण हो रहे थे और जगह-जगह उसकी ओर से सूबेदार नियुक्त किए जा रहे थे। पानीपत की लड़ाई से लौटते हुए उसने सरदार आलासिंह के स्थान बरनाला पर भी चढ़ाई कर दी। क्योंकि मालेर कोटला के पठानों ने उसे बताया था कि सरदार आलासिंह मरहठों से सम्बन्ध रखते हैं। उस समय किले में सिर्फ रानी साहिबा ही मौजूद थीं जिनका नाम 'फतेहकुंवरि' (फत्तो) कहा जाता है। रानी साहिबा ने अपने चार


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सरदारों को दुर्रानी के कैम्प में इसलिए भेज दिया कि वह उससे सुलह की बातचीत करें और अपने पोते अमरसिंह के साथ मूनक की तरफ निकल गईं। सरदार आलासिंह और उसके साथियों ने परिस्थितिवश कुछ दे-लेकर सन्धि कर ली। अहमदशाह सरदार साहब से बहुत प्रसन्न हुआ और उनके अधिकृत समस्त इलाके को जो कि उन्होंने बाहुबल से अर्जित किया था, का मालिक उन्हें स्वीकार कर लिया और साथ ही अपने वजीर नवाब शाहबलीखां की मुहर और दस्तखत से सूबेदार सरहिन्द के नाम इस आशय का आज्ञापत्र जारी कर दिया कि -

“वह सरदार आलासिंह के अधिकृत प्रदेश को अपनी हुकूमत से अलग समझे।”

'तारीख पटियाला' के लेखक सय्यद मुहम्मदहुसैन ने लिखा है कि उस समय 726 कस्बे व गांव सरदार आलासिंह के अधिकार में थे। सरदार आलासिंह के अहमदशाह दुर्रानी के साथ मिलने पर सतलज पार के सिख सरदार बहुत नाराज हुए। उनका कहना था कि इसने विधर्मी से मिलकर सिख-धर्म पर बट्टा लगाया है, लेकिन जब सरदार आलासिंह ने अपनी स्थिति उनके सामने रखकर इस बात को सिद्ध कर दिया कि दुर्रानी के साथ सन्धि करना केवल राजनैतिक चाल है, तब कहीं जाकर आपसी झगड़ा मिटा। साथ ही उन्हें दिसम्बर सन् 1762 ई० में दल के सिख सरदारों के साथ मिलकर के सरहिन्द पर चढ़ाई करनी पड़ी। अहमदशाह का सूबेदार 'जीनखां' मारा गया। सिखों ने सरहिन्द की ईंट से ईंट बजा दी और सरहिन्द के इलाके को आपस में बांट लिया। सरहिन्द और उसके करीब का इलाका, शाही तोपखाना सरदार आलासिंह के हाथ लगा। इसी इलाके के महसूल और राहदारी की आमदनी से पटियाले के किले को पक्का कराने और शहर आबाद करने का काम आरम्भ किया। थोड़े ही दिनों में पटियाला शहर की आबादी और रौनक पहले से कई गुना बढ़ गई। सरहिन्द के सिखों के द्वारा लूटे जाने और जीनखां के मारे जाने का समाचार जब अहमदशाह के पास पहुंचा, वह अपनी भारी फौज के साथ फिर हिन्दुस्तान की तरफ आया। छोटे-छोटे सिख सरदार जिन्होंने यह समझा कि सामने जाकर इससे लड़ाई नहीं लड़ सकते, पहाड़ और झाड़ियों में चले गए, लेकिन सरदार आलासिंह अहमदशाह के पास उपस्थित हुए और इस बात को उसके दिमाग में बैठा दिया कि सिखों की इस बढ़ती के जमाने में कोई भी विदेशी एवं विधर्मी सूबेदार सरहिन्द में नहीं निभ सकता है और उसकी भी सिखों के हाथों से वही गति होगी जो जीनखां की हुई है। आखिरकार अमहदशाह ने साढ़े तीन लाख सालाना के खिराज पर सरहिन्द का सारा मुल्क सरदार आलासिंह के नाम लिख दिया और साथ ही उन्हें राजा की उपाधि भी दी।

आपके (महाराज आलासिंहजी के) तीन पुत्र थे - 1. कुं० शार्दूलसिंह,


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2. कुं भूमियानसिंह1, 3. कुं० लालसिंह और एक लड़की थी, जिसका नाम बहन प्रधान था।

तीनों राजकुमार बड़े बहादुर और होनहार थे। अपने पिता के साथ लड़ाई में शामिल होने की उत्कट लालसा उन्हें बचपन से ही थी। इसमें कोई सन्देह नहीं कि यदि वे जीवित रहते तो पटियाले का राज्य बहुत अधिक विस्तृत हो गया होता। लेकिन दुर्दैव से उनकी मृत्यु पिता से भी पहले हो गई। इनमें से कुं० शार्दूलसिंह ने दो और पुत्र अमरसिंह और हिम्मतसिंह अपने पीछे छोड़े। शार्दूलसिंह जी के दो रानियां थीं -

1. हुक्मा रानी जो विवाहिता थी,
2. रेसां जो उनके चचेरे भाई जोधसिंह की बेवा थी और नाते द्वारा इन्होंने उसके साथ पुनर्विवाह कर लिया था।

महाराज आलासिंह जी का ताप की बीमारी में जब कि उनकी अवस्था 70 बरस की हो चुकी थी, 22 अगस्त सन् 1765 ई० को स्वर्गवास हो गया।

महाराज आलासिंह ईश्वर-भक्त और धर्मप्रिय व्यक्ति थे। उन्होंने एक बार भाई कपूरसिंह जी को मय जमात अपने यहां ले जा करके सिख-धर्म की दीक्षा ली थी। 'इतिहास गुरु खालसा' के लेखक ने उनका दीक्षा-गुरु भाई कपूरसिंह लिखा है। लेकिन 'सैरे पंजाब' का लेखक उनके गुरु का नाम दयालदास बतलाता है। वे आचरण के भी बड़े शुद्ध-पवित्र थे। बहुत सी रानियां तथा दासी रखना उन्हें पसन्द न था। एक जवान लड़की को भूल से नंगी नहाते हुए देखने के बाद उन्होंने भारी प्रायश्चित किया था। उन्होंने साधु-सन्तों के लिए लंगर (रसोबड़ा) खोल रखा था। इनको जनता की तरफ से 'बन्दी छोड़' की उपाधि मिली हुई थी क्योंकि जो बहुत से आदमी अहमदशाह के यहां कैद थे, इन्होंने उन्हें छोड़ दिया था। इनकी रानी साहिबा फत्तो भी बड़ी योग्य और बुद्धिमान थीं।

महाराज अमरसिंह

महाराज आलासिंह के बाद उनके पौत्र अमरसिंह पटियाला की गद्दी पर बैठे। आप में योग्य शासक और वीर सिपाही के गुण विद्यमान थे। सर लेपिल ग्रेफिन ने लिखा है कि गद्दी पाने का अधिकारी हिम्मतसिंह था चूंकि वह अमरसिंह से बड़ा था। परन्तु तवारीख पटियाला का लेखक अमरसिंह को ही बड़ा बतलाता है। दोनों भाइयों में राज्य के लिए जो झगड़े-फसाद हुए, आगे के पृष्ठों में अंकित हैं।

अमरसिंह ने गद्दी पर बैठते ही सबसे पहले यह काम किया कि अपने सरदारों को देश की रक्षा के लिए सीमाओं पर नियुक्त किया, जिससे कि सिक्खों के अन्य लुटेरे दलों की लूट-पाट से देश सुरक्षित रहे। दूसरे साल मालेर कोटला के पठानों से 'पायल' को छीन लिया। कुछ ही दिनों बाद अपने पितामह के दोस्त सरदार


1. 'सैरे पंजाब' के लेखक ने भूमियानसिंह के बजाय इसका नाम सुभानसिंह लिखा है।


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-406


जस्सासिंह अहलूवालिया व सिख दल की सहायता से कस्बा ईसरडू को भी मालेर कोटला के पठानों से छीनकर अपने कब्जे में कर लिया और उसकी आमदनी का चौथा हिस्सा सिखों में बांट दिया। 1767 ई० के शुरू में अहमदशाह ने भारत की ओर फिर कदम बढ़ाया तो महाराज ने कड़ा व बाना के मुकाम पर उसका स्वागत किया। अहमदशाह ने खुश होकर के आपको 'राजा राजगान' का खिताब और नक्कारा और निशान प्रदान किए। अपने नाम का सिक्का जारी करने की इजाजत भी दी। अहमदशाह के हिन्दुस्तान से वापस होते ही महाराज ने मालेर कोटला के पठानों पर फिर चढ़ाई की। लेकिन वहां के तत्कालीन शासक अताउल्लाखां ने महाराज की अधीनता स्वीकार कर ली। लखनाबख्शी के द्वारा गरीबदास के इलाके जब पटियाला की हुकूमत में मिला लिए गए, तो सिरमौर के रईस कीर्तिप्रकाश ने महाराज अमरसिंह से आकर पगड़ी-पलट दोस्ती कर ली। क्योंकि गरीबदास जो कि मनीमजुरूए का रईस और पंजोर के परगने का अधिकारी था, कीर्तिप्रकाश को हमेशा तंग किया करता था।

इन बाहरी लड़ाई-झगड़ों से निवृत होने पर महाराज अमरसिंह ने कुं० हिम्मतसिंह पर जो किला ढूंढान में रहते थे, चढ़ाई करके उनके तमाम अधिकृत इलाकों पर अपना कब्जा कर लिया। कारण कि वह महाराज के खिलाफ बगावत कर रहा था। 'सैरे पंजाब' में लिखा हुआ है कि हिम्मतसिंह के पास डहोढ़ा समेत 200 गांव थे। रानी फत्तो साहिबा ने गृह-कलह को बढ़ने देना उचित न समझकर दोनों भाइयों में सुलह करवा दी और हिम्मतसिंह के गांव वापस करा दिए। 'आइना विराड़ वंश' में लिखा है कि कोटकपूरा के रईस सरदार जोधसिंह ने गर्व में मत्त होकर अपने घोड़ा और घोड़ी का नाम आला और फत्तो रख छोड़ा था। महाराज अमरसिंह के कानों तक यह बात पहुंची तो उन्होंने जोधसिंह को सबक देने के लिए अपने सरदार झंडूसिंह को मय फौज के कोटकपूरा भेजा। दुर्भाग्य से जोधसिंह शिकार खेल रहा था कि झंडूसिंह के साथियों ने घेर लिया और मय उसके बेटे जीतसिंह को मार डाला। इसके बाद महाराज ने भट्टियों पर चढ़ाई की। 'अहरवां और सिंहा' नाम के दो गांवों को अपने अधिकार में कर लिया। भट्टी यह देखकर बहुत क्रोधित हुए। रात के समय दस हजार आदमियों ने छापा मारकर महाराज की सेना को बहुत नुकसान पहुंचाया। विजय तो महाराज की ही रही। यहां से महाराज पटियाला को रोड़ी होकर लौट पड़े। किन्तु जब महाराज रोड़ी में थे, गूजरसिंह और जैतसिंह ने आकर प्रार्थना की कि भटिण्डा को विजय करने में हमारी मदद की जाए। क्योंकि भटिण्डा के रईस सुखचैनसिंह (साबू गोत के जाट) ने हमारी औरत गोरी का सिर कटवा लिया है। महाराज ने उनकी प्रार्थना पर कुछ सेना तो उसी समय भटिण्डा की ओर भेज दी और फिर स्वयं सेना लेकर भटिण्डा पर जा चढ़े। एक साल तक


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-407


बराबर लड़ाई जारी ही रही किन्तु किला महाराज के हाथ न आया। सुखचैनसिंह किले में घिरा हुआ था इसलिए रसद आदि के बीतने पर उसने अमरसिंहजी को यह कहला भेजा कि - यदि आप पटियाला को वापस लौट जाएं तो मैं किला खाली कर दूं। अमानत में महाराज उसके लड़के कपूरसिंह को साथ लेकर पटियाला को लौट गए। चार महीने बाद सुखचैनसिंह पटियाला पहुंचा। यहां महाराज ने उसे कैद कर लिया और उसके लड़के को भटिण्डे इस वास्ते भेजा कि वह किले की चाबी हमारे सरदारों के सुपुर्द कर दे। पहले तो कपूरसिंह ने प्रतिज्ञा भंग की लेकिन आखिर में अपने पिता को कैद से छुड़ाने के लिए उसने किला खाली कर दिया। महाराज ने भटिण्डा के इलाके को अपने राज्य में मिला लिया और सुखचैनसिंह की औलाद को केवल 12 गांव गुजारे के लिए दिए। भटिण्डा-युद्ध की घटना सन् 1771 ई० की है।

भटिण्डा की विजय के बाद महाराज ने अपनी दादी फत्तोरानी का निज का खजाना उनसे अलग करके इस किले में भेज दिया। महाराज तो कहते थे कि यह रुपया वहां सुरक्षित रहेगा, लेकिन फत्तोरानी को यह बात बुरी लगी। इससे महाराज से वह रुष्ट रहने लगी। इन्हीं दिनों महाराज के किसी व्यवहार से एक सेनानायक सुखदाससिंह भी उनसे नाराज हो गया। जबकि महाराज भटिण्डा में प्रवेश-मुहूर्त की बाट में पहुंचे हुए थे। इधर पटियाला में सुखदाससिंह ने रानी फत्तो को अपनी ओर मिलाकर, कुंवर हिम्मतसिंह को ढूड़ान से बुलाकर, पटियाला का मालिक बना दिया। भटिण्डा में जब महाराज के पास यह खबर पहुंची तो वह पटियाला आए और घेरा डाल दिया। नाभा-झींद और सिरमौर के राजाओं से भी मदद ली। कुंवर हिम्मतसिंह की मदद को मांझ के सिख आ गए थे जो राज्य में लूट-पाट करने लगे। महाराज अमरसिंह और उनके सरदारों ने मांझ के सिखों से लड़ाइयां भी कीं, किन्तु उन्हें दबा न सके। आखिर हिम्मतसिंह के वायदे की रकम से भी अधिक देकर उन्हें विदा किया। मांझ के सिखों के चले जाने के चार मास बाद, निरन्तर लड़ाइयों से कुंवर हिम्मतसिंह हिम्मत हार गए। महाराज ने उन्हें समाना का किला और परगना डहरवा के 25 गांव देकर किले से बाहर कर दिया। इस तरह गृह-युद्ध समाप्त हुआ। किन्तु इस घटना के दो वर्ष बाद कुंवर हिम्मतसिंहजी का देहान्त हो गया। उनके देहान्त के बाद महाराज ने उनका इलाका खालसा में मिला लिया और उनकी स्त्री से चादर डालकर जाति के नियम के अनुसार करेवा कर लिया।

इस घटना के कुछ ही दिन बाद आपने अपने सरदार मुखदाससिंह को जिससे कि अब मेल हो गया था, झींद नरेश गजपतिसिंहजी की सहायता के लिए भेजा, चूंकि गजपतिसिंह पर समरू नाम के फ्रांसीसी सेनापति ने चढ़ाई की थी। समरू को पानीपत के मैदान में दोनों राज्यों की सेनाओं से मुकाबला करना पड़ा और


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-408


फिर वहीं से दिल्ली की ओर लौट गया। इस तरह झींद द्वारा मिली सहायता का बदला महाराज ने कुछ ही दिन में चुका दिया। दूसरे वर्ष साहिबा का भी स्वर्गवास हो गया। महाराज के घर पुत्र पैदा हुआ। इनका नाम साहबसिंह रखा गया। पटियाला के पास ही सैफाबाद नाम का कस्बा था जो कि उस समय गुलबेग के अधिकार में था। राजा कीरतप्रकाश से महाराज ने उसे भी विजय करा के अपने राज्य में मिला लिया।

सन् 1776 ई० में महाराज ने बड़ी धूमधाम के साथ भटियाने की विजय के इरादे से कूच किया। वास्तव में यही मुस्लिम राजपूत उद्दण्ड और लूट-मार करने वाले लोगों में से था। वे बड़ी तैयारी के साथ भगीड़ान नामक स्थान पर महाराज की सेना से भिड़ गए। कई दिन के घमासान युद्ध के बाद इनकी विजय हुई। इस लड़ाई में भट्टियों के 1400 आदमी मारे गये। इधर भी 4-5 सौ आदमियों की हानि हुई। इस विजय के बाद सरसा, भतेहाबाद भी इनके अधिकार में आ गए। विजित स्थानों का प्रबन्ध करने के बाद में 'रानिया' पर मोर्चा लगाया, जहां भट्टियों का सरदार नवाब मुहम्मद अमीन खां भागकर जा छिपा था। बीकानेर के राजा गजसिंह ने जब यह समाचार पाया कि पटियाला का जाट नरेश अमरसिंह उनके राज्य की ओर बढ़ रहा है तो गजसिंह ने रानिया पहुंचकर अमरसिंह से पगड़ी-पलट दोस्ती कर ली। रानिया अभी विजय नहीं हो पाया था कि झींद के राजा साहब गजपतिसिंह का, जिनके कि देश पर हांसी के हाकिम मुल्ला रहीमदाद खां ने चढ़ाई कर रखी थी, सहायता के लिए अमरसिंहजी पास पहुंचा। महाराज अमरसिंह ने रानिया के युद्ध का भार सुखदाससिंह के ऊपर छोड़ा और, स्वयं फतेहाबाद पहुंचकर अपने दीवान नानूमल को 5000 सेना के साथ, राजा साहब झींद की सहायता के लिए रवाना किया। झींद और पटियाला की दोनों सम्मिलित फौजों के मुकाबले में रहीमदाद खां की सेना न ठहर सकी और रहीमदाद लड़ाई में खेत रहा। उसका बहुत सा सामान, हाथी-घोड़े आदि दीवान के हाथ आए। दीवान ने महाराजा झींद की रजामन्दी से रहीमदाद खां के अधिकृत प्रदेश हांसी, हिसार, रोहतक, तोसाम और महिम पर अधिकार कर लिया। गोहाना और रोहतक का कुछ हिस्सा राजा साहब झींद के हिस्से में आया। यह घटना 1778 ई० की है। इससे चार महीने बाद ही रानिया का किला भी विजय हो गया। भट्टी लोग रानिया को छोड़ कर सन्धि के अनुसार, किला भटनेर में जाकर रहने लगे और सरसा का कुल इलाका महाराज अमरसिंह के अधिकार में आ गया।

रहीमदाद खां के मारे जाने और उसके इलाके को पटियाला राज्य में मिला लेने की खबर देहली में जब वजीर नजफखां के पास पहुंची तो उसने अपने विश्वासपात्र कलीखां को एक बड़ी सेना दे करके रहीमदादखां का बदला लेने


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तथा नानूमल द्वारा जीते हुए मुल्क को वापस लेने के लिए भेजा। दीवान नानूमल ने इस समाचार को पाकर नवाब जाब्ताखां से जो कलीखां का दुश्मन था, सहायता लेना मुनासिब समझा। परन्तु संयोगवश लड़ाई न होकर संधि हो गई। नवाब कलीखां, नवाब जाब्ताखां, राजा भगवन्तसिंह, राजा गजपतसिंह और महाराज अमरसिंह ने सम्मिलित होकर यह फैसला किया कि भट्टियों का तमाम मुल्क और कसूहन, बांगर, परगना बरवाला, परगना बालसमद पटियाला के कब्जे में रहें, गुहाना वगैरह सात गांवों पर राजा जींद का अधिकार रहे और हांसी, हिसार, रोहतक तथा महिम बादशाह देहली को लौटा दिए जाएं। इस मौके से कलीखां और जाब्ताखां का भी मनोमालिन्य दूर हो गया।

कुछ समय तक शान्त रहने और घरेलू धन्धे से निबट जाने के पश्चात् महाराज ने गरीबदास और हरीसिंह को जिन्होंने कि तंजोर का इलाका अपने कब्जे में कर लिया था, सजा देने के लिए महासिंह और पाखरसिंह की अध्यक्षता में सेना भेजी। गरीबदास तो थोड़ी सी लड़ाई के बाद ही महाराज की शरण में आ गया, पर हरीसिंह ने मांझ के सिख सरदार जस्सासिंह रामगढ़िया, करमसिंह सहजादपुरिया, गुरुबख्शसिंह अम्बाला वाला आदि सरदारों की सहायता लेकर पटियाला की फौज का मुकाबला इस वीरता के साथ किया कि पटियाला के 3000 सैनिकों के अतिरिक्त बख्शी लखना आदि अफसर मारे गए। दीवान नानूमल जख्मी हुआ, झण्डूसिंह और महासिंह पकड़े गए। महाराज अमरसिंह अपनी सेना की इस भांति हानि का समाचार पा अत्यन्त चिन्तित हुए और अपने गए हुए प्रभाव को पुनः प्राप्त करने के लिए धीरे-धीरे युद्ध की सामग्री जुटाने लगे। राजा गजपतसिंह जींद, चौ० हमीरसिंह नाभा, भाई धन्नासिंह कैथल, सरदार चौरहटसिंह भदौड़, सरदार दलेलसिंह भलोह, मियां किशनसिंह नाहन, सरदार तारासिंह राहून, बहन राजेन्द्र कौर फगवाड़ा (यह राजा अमरसिंह की बहन थी जो 3000 फौज के साथ सहायता को आई थी) आदि अनेक सरदार महाराज अमरसिंह की सहायता को इकट्ठे हो गए। इन सबकी सम्मिलित सेना करीब चालीस हजार के थी। मांझ के सिख सरदारों से छोटी-छोटी कई लड़ाइयां हुईं। महाराज अमरसिंह के साथियों ने कुछ समय के बाद मांझ के सिखों को कुछ ले देकर हटा दिया। हरीसिंह यह देख करके हक्का-बक्का रह गया और लाचार होकर के अमरसिंह की शरण में भेंट का घोड़ा लेकर उपस्थित हुआ। महाराज ने उस समय तो उसे क्षमा कर दिया, परन्तु अन्त में उसके कुल इलाके को अपने राज्य में मिला लिया, क्योंकि इस बखेड़े में उनके दस लाख रुपये खरच हो चुके थे।

महाराज ने जहां अपनी वीरता और राजनैतिक कौशल से राज्य की वृद्धि की, वहां कोष को भी मजबूत कर लिया। उनके खजाने में अटूट धन-राशि थी। पंजाब


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की रीति के अनुसार उन्होंने अपने सरदारों से दंड एवं भेंट में भी बहुत सा रुपया लिया था। इनकी अपार धन-राशि का पता इस बात से चल जाता है कि बहन चन्द्रकौर, साहबकौर की शादियों में 12 लाख रुपये व्यय किए थे। इसके अलावा मांझ के लुटेरे सिक्खों को सन्तुष्ट करने में भी कई लाख रुपये दिए थे। आप में एक अवगुण था कि आप मद्य-पान करते थे। अन्तिम दिनों में तो इतनी अधिकता से पीने लगे थे कि जिसके दुष्परिणाम से केवल 34 बरस की अवस्था में परलोक पधार गए।

महाराज साहबसिंह

पटियाला राज्य की डाक टिकटें
पटियाला राज्य की डाक टिकटें
पटियाला राज्य की राजस्व टिकट

महाराज अमरसिंह के बाद आपके बालक पुत्र साहबसिंह पटियाला राज्य के उत्तराधिकारी हुए। उनकी उम्र उस समय केवल सात बरस की थी। राज्यारोहण के समय अनेक राजा, जिलेदार और सरदारों ने नजरें भेंट कीं और देहली के बादशाह शाह आलम की ओर से सरोपाव एवं महेन्द्र की उपाधि प्राप्त हुई। दीवान नन्नूमल की देख-रेख में राज्य-कार्य चलने लगा। महाराज की नाबालिगी से लाभ उठाने के लिए सरदार महासिंह ने विद्रोह खड़ा कर दिया और मौजा ढूढ़ान पर अपना कब्जा कर लिया। सरदार तारासिंह रईस राहूं भी तारासिंह का छिपे तौर से साथी हो गया। दीवान नन्नूमल ने अपनी बुद्धिमानी से 3 महीने के युद्ध के बाद महासिंह को दबाने में सफलता प्राप्त की। यह विद्रोह दबा ही था कि भटिंडा के पुराने वारिसों में से बक्सूसिंह की रानी राजू ने विद्रोह करके कोट समेर पर अपना अधिकार कर लिया। दो महीने तक दीवान नन्नूमल उनसे लड़ते रहे और आखिर उस पर दृष्टि रखने के लिए कोट समेर के पास एक कच्ची गढ़ी बना कर अपनी फौज रख दी। दीवान नानूमल को खास महाराज के पारिवारिक लोगों के साथ भी सख्त होना पड़ा। क्योंकि रानी खेमकुंवरि साहिबा के भाइयों ने भी विद्रोह खड़ा कर दिया था और इस विद्रोह में स्वयं रानी खेमकुंवरि का हाथ था। उन्होंने अपने पास का रुपया-जेवर जो लगभग दस लाख के करीब था, अपनी निजी जागीर मूलेपुर के कार्यकर्त्ता शार्दूलसिंह के पास गुप्त रूप से इसलिए भेज दिया था, क्योंकि वह चाहती थी कि उनका निज का रुपया दीवान नानूमल सरकार में व्यय न करे। इस रुपये को पाकर शार्दूलसिंह की नियत बिगड़ गई और वह बेईमानी कर बैठा। दीवान नानूमल ने बेईमानी का मजा चखाने के लिए शार्दूलसिंह पर चढ़ाई कर दी। लेकिन शार्दूलसिंह की चालाकी और षड्यन्त्र से दीवान नानूमल को जख्मी होना पड़ा और वह उसी दशा में पटियाला लाए गए तो रानी खेमकुंवरि साहिबा ने उनका इलाज कराने के बजाए उसे कैदखाने में पटक दिया और लाला कूमा को उनके स्थान पर दीवान बनाया, किन्तु राज्य में बढ़ती हुई बगावत को दबाने में दीवान कूमा असफल रहा। राजेन्द्र साहिबा ने


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फगवाड़ा से आकर राज्य की बागडोर फिर से नानूमल के हथ में दे दी। दीवान नानूमल ने विद्रोहियों को दबा कर राज्य में शान्ति स्थापित करने की भरपूर चेष्टा की और इसमें वह बहुत कुछ सफल भी हुआ। 1787 ई० में अमृतसर के सरदार गुलाबसिंह की लड़की के साथ महाराज साहबसिंह का विवाह बड़ी धूम-धाम के साथ हुआ।

नानूमल दीवान बुद्धिमान, वीर और परिश्रमी व्यक्ति था। पटियाला की हालत को उसने उन दिनों में संभाले रक्खा था जब कि “घर को घर के चिराग से आग लगने वाली थी।” युद्धों में उसके बेटे और अन्य रिश्तेदारों से भी उसे बड़ी मदद मिलती थी। वह दरबार में भी हुक्का पीता रहता था और सिख सरदारों के प्रणामों का उत्तर हुक्के की नय से देता था। इस कारण से अथवा उसके बढ़े हुए प्रताप से दरबार के सिख सरदार उससे द्वेष रखते थे। द्वेष की मात्रा शनैः-शनैः यहां तक बढ़ गई कि उन लोगों ने महाराज से उसकी झूठी शिकायतें करना आरम्भ किया। महाराज को अभी अल्प वय के कारण संसार का अनुभव ही कितना था। वह सरदार लोगों की बातों में आ गए। एक दो घटना भी नानूमल के पुत्रों की ओर से ऐसी हो गई जो महाराज को भड़काने के लिए पर्याप्त सिद्ध हुई। नानूमल के लड़के ने कोई घोड़ा खरीदा था। महाराज को भी वह घोड़ा पसन्द आ गया। महाराज उसे अपने लिए चाहते थे, लेकिन उस लड़के ने घोड़ा देने से साफ इन्कार कर दिया। घटना बिल्कुल मामूली थी, किन्तु यह भी महाराज के क्रोध का कारण हो गई। कुछ ही दिन के बाद मरहठे सरदारों का एक दल रानी रवां की मातहती में पंजाब में आ गया। नानूमल ने बीबी साहब राजेन्द्र से जो कि उन दिनों पटियाला में ही ठहरी हुई थीं, कहा कि आप भटिंडा चली जायें, वरना मरहठों को नजराना देने की फिकर करनी पड़ेगी। राजेन्द्र बीबी इस बात से नानूमल से नाराज हो गई। मरहठों के पटियाला की सीमा में आने पर जब नानूमल उनके पास गया, तो इधर राजेन्द्र बीबी ने उनके बेटे दत्तामल को इसलिए गिरफ्तार कर लिया कि कहीं नन्नूमल मरहठों के साथ मिल कर कोई दगा न कर बैठे। इससे तनातनी और भी बढ़ गई। नानूमल मरहठों को पटियाला ले ही आया और निकट के गांव में डेरे डाल दिए। मरहठों के कहने से राजेन्द्र बीबी ने दत्तामल को तो छोड़ दिया, किन्तु नजराना देने पर काफी चखचख होती रही। कई महीने बीत गए आखिर में यह लक्षण दिखाई दिए कि युद्ध की नौबत आयेगी। किन्तु किसी कारणवश मरहठा-दल मथुरा की ओर चल दिया। नानूमल को भी जमानत के तौर पर अपने बेटे दत्तामल को मरहठों के साथ भेजना पड़ा। राजेन्द्र बीबी भी कुछ आदमियों के साथ मरहठों के साथ मथुरा को गई।

मरहठों के देश से वापस जाते ही महाराज ने दीवान नानूमल का कुल माल-असबाब,


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ऊंट, घोड़े जब्त कर लिए और उसके बड़े लड़के नन्दराय को जो जिला बरनाला का तहसीलदार था, कैद कर लिया और उसकी लाखों की सम्पत्ति जब्त कर ली। इसके बाद महाराज ने नानूमल के रिश्तेदारों और मिलने वालों सभी के साथ यही सलूक किया। जब मरहठों के पास से नानूमल पटियाला को लौट रहा था तो उसे ये कुसमाचार प्राप्त हुए। आखिर वह विवश होकर महाराज के विरुद्ध अन्य जागीरदारों और सिख सरदारों के पास घूम-घूम कर तैयारी करने लगा। कुछ ही दिनों के बाद बीबी राजेन्द्र भी मथुरा से लौट आई। रास्ते में ही नानूमल ने उनसे मिलकर पटियाला की स्थिति और सरदारों की चुगलखोरी का हाल सुनाया। साथ ही उसने बीबी साहिबा की इतनी खुशामद की कि वह उसके पक्ष में हो गई। इधर महाराज के भी चापलूस सरदारों ने कान भर दिए। उन्होंने महाराज को बतलाया कि बीबी राजेन्द्र भी अपना दखल बनाए रखना चाहती हैं। इसलिए वह फिर से नानूमल को दीवान बनाने पर राजी हो गई हैं। महाराज चुगलों की बातों में ऐसे आए कि वह बीबी राजेन्द्र से उनके हजार कोशिश और इच्छा करने पर भी न मिले। बीबी राजेन्द्र अपने भतीजे की इस कठोरता पर इतनी रंजीदा हुई कि कुछ ही दिनों में इस संसार से चल बसीं। वास्तव में राजेन्द्र बीबी बहादुर, बुद्धिमान और एक आदर्श महिला थीं। उस समय में पंजाब की राजकुमारियों में उनका पहला स्थान था।

नानूमल ने थोड़े दिनों के बाद मालेर कोटला के रईस अताउल्ला को उभाड़ कर उसे पटियाला के विरुद्ध लड़ाई के लिए तैयार किया। कई छोटी-छोटी लड़ाइयां हुईं पर अताउल्लाखां को हर बार परास्त होना पड़ा। इसलिए लाचार होकर उसने मैदान छोड़ दिया। नानूमल कुछ दिन के बाद मानसिक कष्ट के कारण इस दुनिया से चल बसा और महाराज के खुशामदी सरदारों के घर घी के चिराग जलने का अवसर दे गया। उसके देहान्त के बात महाराज ने दीवान का पद लाला केसरमल को और मीर-मुन्शी का ओहदा मुन्शी किशनचन्द को दिया। महाराज के सारे दरबारियों में सैयद इलाहीबख्श उनका सबसे बड़ा प्रेम-पात्र था। सिख दरबारियों को यह बात खटकती थी। इसलिए जबकि महाराज पटियाले के बाहर थे, सूखासिंह और दयालसिंह नाम के सिखों ने सरे दरबार में इलाहीबख्श को कत्ल कर डाला। इस फिसाद में मुन्शी किशनचन्द भी जख्मी हुए। इस घटना के बाद महाराज स्वयं भयभीत रहने लगे और अपना अधिक समय सैर सपाटे और शिकार में व्यय करने लगे।

कहा जाता है कि उनकी छोटी बहन साहबकुंवरि बड़ी बुद्धिमती और दूरदर्शी थीं। इसलिए महाराज ने उनको ससुराल से पटियाला बुला लिया कि समय-समय पर वे उन्हें मदद और सलाह देती रहें। बीबी साहिबा जब पटियाला आ गई तो महाराज ने उन्हें रियासत का मुख्तारे आम बना दिया। दीवान नानूमल के भतीजे दीवानसिंह को दीवान नियुक्त किया।


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बीबी साहिबा को पटियाला में आए कुछ रोज हुए थे कि उनकी ससुराल से समाचार मिला कि उनके पति सरदार जयमलसिंह को उनके चचेरे भाई सरदार फतेहसिंह ने कैद कर लिया है। थोड़ी सी फौज लेकर के बीबी साहिबा अपनी ससुराल गई और अपने पति को जेल से मुक्त कराके तथा वहां का सुप्रबन्ध कराके वापस पटियाला आ गई। 1794 ई० के आरम्भ में मरहठों की एक बड़ी भारी सेना लछमनराव और अन्टाराव के साथ पंजाब की तरफ लूटमार करने के लिए आ पहुंची। जींद और कैथल आदि के रईसों ने भेंट देकर मरहठों की अधीनता स्वीकार कर ली, लेकिन बीबी साहबकुंवरि को यह बात अपनी मान-मर्यादा के विरुद्ध जान पड़ी और उन्होंने मरहठों से युद्ध की तैयारी कर दी। राजगढ़ के मैदान में युद्ध हुआ। मरहठों की सेना अधिक थी, इसलिए पटियाले की सेना के पांव न जम सके। बीबी साहिबा यह देख रथ से नीचे आ गई और फौज के सामंतों को सम्बोधन कर कहा -

“यदि आप लोग कायर हैं अथवा आपको प्राण प्यारे हैं और मान-मर्यादा का कुछ भी ख्याल नहीं तो आप भाग जा सकते हैं। पर मैं प्राण रहते समरक्षेत्र से हटने वाली नहीं। वीर क्षत्राणियों ने इसी दिन के लिए आपको जना था। आप चाहें तो उनके दूध को लज्जित कर सकते हैं। अपमान की हजार वर्ष की जिन्दगी से मान की एक दिन की जिन्दगी कहीं अधिक अच्छी है। एक स्त्री को जो कि राजघराने, साथ ही आपके परिवार की भी है, मैदान में अकेली छोड़कर संसार के सामने मुंह दिखाने की हिम्मत कर सकते हैं तो आप लोग अविलम्ब मैदान छोड़कर भाग जायें!”

बीबी साहिबा के उपर्युक्त ओजस्वी भाषण ने सेना में और सेनापतियों में मर मिटने की लगन पैदा कर दी - “न दैन्यं न पलायनम्” के सिद्धान्त के अनुसार उन्होंने मरहठों की सेना पर धावा कर दिया। “हिम्मते मर्दा मददे खुदा” कहावत के अनुसार बीबी साहिबा की विजय हुई और मरहठे मैदान छोड़कर भाग खड़े हुए!

बीबी साहिबा जहां बुद्धिमान थीं, वहां बहादुर भी खूब थीं, साथ ही राज्य प्रबन्ध की योग्यता भी रखती थीं। नाहन के राजा धर्मप्रकाश के करने पर उसका छोटा भाई करम-प्रकाश जब राज्य का अधिकारी हुआ तो उसके दरबारियों और कुछ प्रजा के लोगों ने उसके विरुद्ध बगावत खड़ी कर दी। लेकिन बीबी साहिबा ने थोड़ी सी फौज के साथ नाहन पहुंचकर सारे विद्रोहियों को दबा दिया और राज्य का नये सिरे से ऐसा उत्तम प्रबन्ध कर दिया जिससे प्रसन्न होकर राजा करमप्रकाश ने बीबी साहिबा को बहुत से उपहार भेंट किए। इसके कुछ ही दिन बाद बीबी साहिबा को जार्ज टाम्स से लड़ना पड़ा। जार्ज-टाम्स का वृत्तान्त इस तरह बताया जाता है कि - जाति का यह अंग्रेज था और किसी यूरोपियन जहाज पर सन् 1781 में खल्लासी होकर हिन्दुस्तान में आया था। 1787 ई० में यह समरू की


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बेगम का नौकर हो गया। 1794 ई० में बेगम ने जब इसे किसी कारण से निकाल दिया तो वह खांडेराव मरहठे जो कि माधोजी सेंधिया की तरफ से झझ्झर, दादरी मानोड़ और नारनोल के हाकिम थे, के पास आकर नौकर हो गया। इनकी नौकरियों से खांडेराव इतना प्रसन्न हुआ कि झझ्झर का उसे जागीरदार बना दिया। उसने झझ्झर के पास अपने नाम पर जार्जगढ़ किला बनाया जो आजकल जहाजगढ़ कहलाता है। खांडेराव के मरने के बाद, इसने स्वतन्त्र होकर हांसी और हिसार पर अधिकार कर लिया। इसके पास करीब आठ हजार सैनिक और 50 तोपें थीं। मरहठे और सिखों की आपसी लड़ाई से फायदा उठाने के लिए इसने सिखों को अपने साथ मिलाना चाहा। सिख भी महत्त्वाकांक्षी थे। उन दिनों प्रत्येक सिख के हृदय में यह लगन थी कि कुल भारतवर्ष की राज्य-शक्ति उनके हाथों में हो। इस सबब से जार्ज की चालबाजियों में वह न आए। इस चाल में विफल होने पर इस चालाक अंग्रेज ने जींद पर चढ़ाई की। इसका ख्याल था कि शायद अन्य सिख-रियासतें जींद की सहायता न करेंगी परन्तु इसका ख्याल गलत निकला और नाभा, पटियाला, कैथल सभी रियासतों ने इसकी फौजों को घेर लिया। पटियाला की ओर से बीबी साहबकुंवरि मैदान में पधारी थीं और बड़ी बहादुरी और योग्यता के साथ इन्होंने सेना-संचालन किया।

बीबी-साहिबा के सुप्रबन्ध एवं युद्ध-कुशलता से बाहरी झगड़े शांत हो गए थे और राज्य में भी पूर्णतः अमन-चैन था। अवसर पा करके खुशामदी मुसाहिबों ने बीबी-साहिबा के खिलाफ भी महाराज को उसी तरह उभाड़ना शुरू किया, जिस तरह दीवान नानूमल और बीबी राजेन्द्रकुंवरि के विरुद्ध किया था। मुसाहिब लोग चाहते थे कि बीबी साहबकुंवरि का प्रजा तथा दरबारियों पर जो रौब-दौब है वह हट जाना, ताकि उन्हें मनमानी करने का अवसर मिले। महाराज साहब की महारानी साहिबा भी अपने को अब कुछ समझने लगी थीं, क्योंकि उनके पुत्र-रत्न हो चुका था और अब युवराज की मां कहलाती थीं। वह अपने से बढ़ करके बीबी साहिबा के आदर-मान को सहन नहीं कर सकती थीं। महाराज साहबसिंह के चारों तरफ से कान भरे जाने लगे। लोगों ने उनसे यह भी कहा कि राजा साहब नाहन ने जो हथिनी दी थी, बीबी साहिबा ने उसे निज की सम्पत्ति बना लिया है। वास्तव में उस पर अधिकार आपका है। सन् 1795 ई० में बीबी साहिबा ने अपनी जागीर के एक गांव बहरयान में कच्चा किला बनाकर उसका नाम 'ऊभा बाल' रख दिया था। इस काम को उनका अनौचित्य तथा अनधिकार चेष्टा कहकर मुसाहिबों ने महाराज को भड़काया। बीबी साहिबा उन दिनों जींद में ठहरी हुई थीं। उनको जब यह पता चला कि उनका भाई साहबसिंह उनकी की हुई सेवाओं तथा बलिदानों की परवाह न करके दुष्ट लोगों की चालों में आ गया है तो उनके हृदय को बहुत कष्ट हुआ और वे भाई से अप्रसन्न होकर सीधी अपनी जागीर को


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चली गईं। लोगों ने इस बात से भी लाभ उठाया और बतलाया कि बीबी साहिबा आपकी कुछ भी इज्जत और परवाह नहीं करती हैं। बात यहां तक बढ़ी कि महाराज ने उनको लिख भेजा कि - किला खाली करके अपनी ससुराल को चली जाओ। बीबी साहिबा अपनी जिद पर अड़ गईं और किला खाली करने से इनकार कर दिया। 'तारीख पटियाला' का लेखक तो यहां तक लिखता है कि दोनों बहन-भाइयों में युद्ध भी हुआ और महाराज ने उन्हें धोखे से पटियाला लाकर नजरबन्द भी कर दिया। लेकिन यह विश्वास योग्य नहीं है क्योंकि यदि ऐसी बात होती तो बीमारी के दिनों में वे भरियान से जहां कि वह बिलकुल आजाद थीं, पटियाला न आतीं और इस लेखक ने यह भी लिखा है कि महाराज को बीबी साहिबा की मृत्यु से अत्यन्त दुख हुआ। यह बात भी हमारे पक्ष का समर्थन करती है।

जार्ज टामस ने पंजाबी रियासतों में पुनः लूट-मार आरम्भ कर दी। नाभा, जींद, कैथल के साथ मिलकर महाराज ने उसको कई स्थानों पर परास्त किया। लेकिन जार्ज जमकर युद्ध नहीं करता था, वह तो सिर्फ लूट करना चाहता था। वह ऐसी चालाकी और सावधानी से लड़ता रहा कि इनको मराठी सेना के जनरल पीरू से सहायता लेनी पड़ी। लड़ाई का कुछ खर्च लेकर चन्द शर्तों के साथ पीरू ने जार्ज टामस के साथ युद्ध छेड़ दिया और कुछ दिन ही की लड़ाई के बाद, उसके तमाम इलाके पर अधिकार कर लिया। जार्ज टामस ने लड़-भिड़कर जो इलाके पंजाबी रियासतों के अपने कब्जे में कर लिए थे, सेनापति पीरू ने उन स्थानों को उनके असली हकदारों को वापस कर दिया।

कुछ दिन बात महाराज साहबसिंह और रानी आसकुंवरि में पारस्परिक कलह हो गया। इस झगड़े को मिटाने के लिए पंजाब-केसरी महाराज रणजीतसिंह को पटियाला आना पड़ा। महाराज रणजीतसिंह के पटियाला आने में साहबसिंह को भारी घाटा रहा। एक तोप और एक कंठा उन्हें महाराज साहब की भेंट करना पड़ा, साथ ही रामपुर गूजरवाल के देहात भी दिये। पटियाले के सिवाय नाभा, झींद और कैथल के रईसों को भी नुकसान उठाना पड़ा। क्योंकि महाराज ने आते हुए उनसे भी काफी नजराने वसूल किए थे। उनकी इस चाल-ढ़ाल से पंजाब के सभी रईसों के दिल में यह बात बैठ गई कि रणजीतसिंह का ऐसा ही एक और दौरा हुआ तो शायद ही हमारा अस्तित्व बच सके। इसलिए राजा जसवन्तसिंह, राजा भागसिंह, भाई लालसिंह, समाना के स्थान पर महाराज साहबसिंह से मिले और इस बात का विचार-विनिमय किया कि महाराज रणजीतसिंह से किस भांति हमारे राज्यों की रक्षा हो सकती है? इन सब की दृष्टि अंग्रेज सरकार की ओर गई। यह खूब जानते थे कि रणजीतसिंह की ही भांति अंग्रेज भी अपना राज्य लेने में लगे हुए हैं। लेकिन एक अन्तर जो उनकी समझ में आया वह यह था कि रणजीतसिंह हैजा (कॉलरा) हैं और वे अंग्रेजों को तपेदिक (थाइसिस) समझते थे।


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-416


साथ ही उन्होंने यह भी सोचा था कि शायद रणजीतसिंह के तूफान से इस समय हमारे राज्य बच जाएं तो भविष्य में अंग्रेजों के साथ परिस्थिति के अनुसार निपट लिया जाएगा। अंग्रेजों की ओर से उस समय देहली में मिस्टर इस्टीम साहब रेजीडेण्ट थे। सन् 1808 ई० में इनके प्रतिनिधि-मण्डल ने देहली जाकर रणजीतसिंह के विरुद्ध अंग्रेजों के साथ सम्बन्ध स्थापित कर लिया। अंग्रेज सरकार की तरफ से इनकी हिफाजत के लिए कोई खास वचन नहीं मिला था। इसलिए ये लोग महाराज रणजीतसिंह की सेवा में खुशामद और चापलूसी के लिए अपने प्रतिनिधि भेजते रहे। हमारी निज की राय में इन राजा लोगों ने रणजीतसिंह के विरुद्ध, अंग्रेजों की शरण जाकर अपने आदर्श को ही नहीं गिराया बल्कि एक अक्षम्य अपराध किया था। वीरता इस बात का तकाजा करती है कि यदि वास्तव में रणजीतसिंह से ये छुटकारा पाना चाहते थे, तो सम्मिलित शक्ति द्वारा वीरोचित ढ़ंग से उससे मुक्त होते और स्वयं बलिदानी वीर का यश अर्जित करते। दूसरे यह भी हो सकता था कि महाराज रणजीतसिंह के साथ में कुछ नफा-नुकसान उठाकर संधि कर लेते। इन लोगों ने राजपूताने के उन राजाओं से कम पतित-कार्य नहीं किया, जिन्होंने मुगल-शहंशाहों से सम्बन्ध स्थापित कर महाराणा प्रताप, शिवाजी और सूरजमल के साथ मुगलों के हित में लड़ाइयां लड़ी थीं।

जिस भांति पंजाब के ये राजा, रईस महाराज रणजीतसिंह से भयभीत हो रहे थे और किसी दूसरे का सहारा टटोलते फिरते थे, उसी भांति उस समय अंग्रेज सरकार भी नेपोलियन बोनापार्ट और रूस के भय से बेचैन थी और वह चाहती थी कि हिन्दुस्तान में बने रहने के लिए महाराज रणजीतसिंह उसके मित्र बन जाएं। उस समय संसार में तीन ऐसे महापुरुष थे कि जिनके भय से चारों तरफ हलचल मची हुई थी -

(1) नेपोलियन बोनापार्ट
(2) महाराज रणजीतसिंह और
(3) जसवन्त राव होल्कर।

होल्कर का सितारा ढ़ल चुका था। शेष दो में से एक की सहायता से दूसरे से चतुर अंग्रेज निश्चिन्त होना चाहते थे, इसीलिए अंग्रेजों ने महाराज रणजीतसिंह के पास मिस्टर मेटकाफ को मित्रता कायम करने के इरादे से भेजा। महाराज रणजीतसिंह ने स्वाभिमानी की भांति मेटकाफ के सामने मित्रता के लिए 3 शर्तें पेश कीं - (1) काबुल और लाहौर में यदि कोई तनाजा हो तो अंग्रेज उसमें हस्तक्षेप न करें, (2) अंग्रेज सरकार और लाहौर सरकार की दोस्ती सदैव एकसी बनी रहे और (3) सिक्खों के कुल मुल्क के वही बादशाह गिने जाएं।

जब इन पंजाबी राजाओं ने देखा कि अंग्रेज सरकार स्वयं महाराज रणजीतसिंह से मित्रता करने को उत्सुक है, तब इन लोगों की आंखें खुलीं और महाराज रणजीतसिंह के साथ आखिरकार वही किया जो उन्हें पहले ही कर लेना चाहिए था। महाराज पटियाला ने जो सन्धि लाहौर दरबार से की, वह बिल्कुल


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सम्मानपूर्ण थी और यदि यही सन्धि कुछ पहले कर ली गई होती तो उसका आज अधिक महत्त्व होता।

अब रियासत पटियाला को किसी प्रकार के बाहरी झगड़ों का डर न रहा था, परन्तु गृह-कलह बराबर चला आ रहा था। यद्यपि रानी आसकौर साहिबा को मय उनके सुपुत्र युवराज करमसिंह के जागीर देकर अलग कर दिया था, मगर उनको (रानी साहिबा को) यही खयाल था कि किसी प्रकार राज्य-कार्य में उनका हाथ रहे। एक घटना और भी हुई कि फूलासिंह नाम के अकाली ने कप्तान वायट पर हमला कर दिया, जो कि अंग्रेज-सरकार की ओर से सरहद की पैमायश के वास्ते नियत हुआ था। जनता ने फूलासिंह के इस कार्य को वीरता का काम समझा। इसलिए उसकी मदद के लिए 1000 आदमी इकट्ठे हो गए। उन्होंने वायट साहब के 6 आदमियों को जान से मार दिया और 19 को घायल कर दिया। महाराज साहबसिंह ने जब यह समाचार सुना तो अपनी सेना भेजकर फूलासिंह को पकड़ लाने का हुक्म दिया। लेकिन फूलासिंह अपने साथियों को लेकर पटियाला की सरहद से बाहर हो गया और अमृतसर की ओर चला गया। महाराज की इस कारगुजारी से अंग्रेज सरकार बहुत खुश हुई और उनकी उपाधि में 'अधिराज राजेश्वर' का पद और बढ़ा दिया।

महाराज साहबसिंह में उन गुणों की कमी थी, जो किसी योग्य शासक में होने चाहिएं। उनको हर कोई भुलावे में डाल सकता था - यही कारण था कि उन्होंने राज्य का अधिकांश भाग खुशामदी लोगों को जागीर में दे डाला। खजाना भी खाली हो चुका था। आमदनी के जरिये नष्ट हो चुके थे। दिनों-दिन हालत बिगड़ती जा रही थी। राज्य की भलाई की दृष्टि से महाराज नाभा और जींद ने एजेण्ट अक्टरलोनी साहब से रियासत के कारबार को रानी आसकुंवरि के सुपुर्द करने की सलाह दी। शर्तों के अनुसार अंग्रेज सरकार पटियाला के भीतरी मामलों में हस्तक्षेप न कर सकती थी। इसलिए अक्टरलोनी ने सिर्फ सलाह के तौर पर महाराज साहबसिंह से रानी आसकुंवरि को राज्य-प्रबन्ध सौंप देने की सम्मति प्रकट की और साथ ही यह भी कह दिया कि यह आपकी मर्जी पर निर्भर है। गवर्नमेण्ट किसी तरह का हस्तक्षेप नहीं कर सकती। महाराज की आन्तरिक अभिलाषा तो यह थी कि उनकी सौतेली मां खेमकुंवरि साहिबा राज्य का प्रबन्ध करें, परन्तु उन्होंने सोच समझकर एजेण्ट महोदय की राय को स्वीकार किया। नये प्रबन्ध के अनुसार मिश्र नोधाराय, दीवान गुरदयाल, सरदार अलबेल महारानी के सलाहकार और सहकारी नियुक्त हुए। एक वर्ष तक तो कार्य ऐसे ही चलता रहा, लेकिन एजेण्ट को यह पता लग चुका था कि महाराज भीतरी ढ़ंग से महारानी के प्रबन्ध में बाधा पहुंचाते हैं। इसलिए 6 अप्रैल 1812 ई० को उन्होंने पटियाला जाकर महारानी को कानूनन राज्य का मालिक बना दिया। चूंकि गवर्नमेण्ट ने पटियाले


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की परिस्थिति देखकर ऐसा हुक्म दे दिया था, महारानी ने इस खूबी के साथ शासनभार को संभाला कि एक ही वर्ष के अन्दर खजाने में 1 लाख रुपया इकट्ठा हो गया और 3 हजार के करीब सेना पटियाले में रहने लगी। महारानी के सुप्रबन्ध और शासन-योग्यता से स्वार्थी दरबारी मन ही मन कुढ़ने लगे। अलबेलसिंह खुद भी उनसे इसलिए नाराज हो गया कि महारानी ने उसकी जागीर पर 7000 रुपये साल की रकम बांध दी थी। अब महाराज को इन लोगों ने यह कहकर भड़काया कि अब कुछ दिनों में महारानी आपको नजरबन्द कर लेंगी। महाराज ने इन लोगों की बातों में आकर महारानी, युवराज और नोदाराय मिश्र को नजरबन्द कर लिया। लेकिन कुछ ही दिन के बाद, उनको विवश होकर राज्य-प्रबन्ध में असफल होने के कारण, रानी साहिबा को मुक्त करना पड़ा। कुछ दिनों में नौबत यहां तक पहुंची कि अंग्रेज सरकार को भीतरी मामलों में हस्तक्षेप करना पड़ा और महाराज के लिए एक लाख रुपये की जागीर देकर राज्य से अलग कर दिया और महारानी को परामर्श दिया गया कि खास जरूरत के समय में राज्य की चौथाई आमदनी महाराज के खर्च के लिए दे दी जाए। महाराज को शराब पीने की आदत भी थी। फिजूलखर्ची तो पहले ही से थी। इन कारणों से महाराज बीमार पड़ गए और मार्च सन् 1813 ई० में इस संसार से विदा हो गए!

महाराज साहबसिंह की कमजोरियों से पटियाला की उन्नति तो रुक ही गई, साथ ही राज्य की जड़ भी हिल गई। अगर रानी साहिबा ने कुशलतापूर्वक राज्य-कार्य न संभाला होता तो इसमें सन्देह नहीं कि पटियाला स्टेट एक छोटी सी जागीर के रूप में होती। स्वार्थी लोग रियासतों को किस प्रकार बना देते हैं, यह इससे जाना जा सकता है जिन्होंने जिस राज्य से अपने को बनाया, उन्हीं ने फिर राज्य के लिए कलह की आग तैयार की। फलस्वरूप महाराज को राज्य छोड़ एक जागीर का अधिपति होना पड़ा। नशेबाजी का परिणाम भी कैसा होता है, महाराज के जीवन से जाना जा सकता है कि जिसके कारण उनकी स्मरण शक्ति इतनी कमजोर हो गई थी कि रानी साहिबा को पृथक् तक कर दिया और जिधर मतलबी लोग कहते, चलने लगते। विश्वसनीय व्यक्तियों द्वारा रानी साहिबा के पुनः नियुक्त होने पर भी नजरकैद कर लिया। नशेबाजी उनकी मृत्यु का भी एक प्रधान कारण थी।

महाराज करमसिंह

सन् 1813, 30 जून को 15 वर्ष की अवस्था में महाराज करमसिंह बड़ी धूमधाम से गद्दी पर बैठे। सरदार लोगों ने भेंट वगैरह की रस्म अदा की। ऐसा मालूम होता था कि पहले अधिकारियों का और रानी आसकौर का अख्तियार न रहेगा जिससे रियासत में गड़बड़ मच जाएगी। अंग्रेज सरकार ने भी अपना सम्बन्ध त्याग दिया था, परन्तु किसी प्रकार राज्य में बखेड़ा न हुआ और राज-कार्य पूर्ववत्


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होता रहा। गोरखों से अंग्रेजों की लड़ाई होने पर राज्य से भी सहायता दी गई। कुछ समय तक रियासत का काम महारानी आसकौर और मिश्र नोदाराय करते रहे और इस बीच में चड़तसिंह जागीरदार के आन्दोलनकारी होने से परगना खामानून का भाग भी अंग्रेजी सरकार ने जब्त करके रियासत में मिला दिया। यह घटना सन् 1915 ई० 16 मई की है। क्योंकि महाराज करमसिंह बालिग हो गए थे, इसलिए वे रानी आसकौर और मिश्र नोदाराय से अधिकार छीनने की कौशिश करने लगे। मिश्र नोदाराय के साथ ऐसा बर्ताव किया गया कि जिससे उन्हें ऐसा मालूम हो गया कि अब रियासत में रहना असम्भव है। मिश्र नोदाराय ज्वालामुखी का दर्शन करके लौट रहे थे कि रास्ते में ही वह मार डाले गए। मिश्र नोदाराय बड़े राज्य-भक्त थे और उनके रहते राज्य की बड़ी उन्नति हुई थी।


अब करमसिंह महारानी आसकौर का भी रियासत से हस्तक्षेप हटाना चाहते थे। अतः उन्होंने कप्तान जार्ज ब्रज असिस्टेण्ट एजेंट को पटियाला बुलाकर यह ऐलान करा दिया कि रियासत का कुल अधिकार महाराज को है, इसलिए प्रजा को महाराज की आज्ञा शिरोधार्य करनी चाहिए और इसके विरुद्ध कोई कार्यवाही होगी तो महाराज उसको कड़ा दण्ड देंगे। महारानी आसकौर को भी आज्ञा हुई कि वह अपनी जागीर कस्बा सनोर में रहें। पर करमसिंह तो कुछ मुसाहिबों द्वारा भरा हुआ था, तब तो अपनी माता आसकौर से बड़ी सख्ती से पेश आ ही रहा था। चूंकि रानी साहिबा कप्तान जार्ज व्रज की राय से रत्नागार को, जिसकी कि कीमत पचास लाख बताई जाती है, सुरक्षित रखने के लिए अपने साथ जागीर में ले गई थीं। इसी से महाराज करमसिंह की ओर से फिर झगड़ा उठाया गया और रानी आसकौर की जागीर घटाने तथा रत्नागार लौटने का सवाल उठाया गया। इसकी ब्रिटिश गवर्नमेंट तक सिफारिश की गई और सरकार की ओर से कप्तान मरे इसके फैसले के लिए नियुक्त किए गए। कप्तान मरे ने पहुंचकर रानी साहिबा को समझाया कि आप पटियाला चलकर रहें और वहां 50000) रुपया सालाना खरच करने के लिए ले लिया करें। परन्तु महारानी ने इसका जवाब दिया कि अगर इस तौर जागीर छोड़ने का सवाल उठाया गया तो मैं गंगाजी के किनारे जा बैठूंगी। इसके लिए मैं अपने पुत्र करमसिंह से कुछ नहीं चाहूंगी। महारानी को बहुत समझाया गया, पर उन्होंने एक न मानी। लाचार रानी आसकौर को सनोर की 5000) की जागीर पर ही राजी कर लिया गया और वह वहीं रहने लगी। पर महाराज करमसिंह के जब महाराज नरेन्द्रसिंह पैदा हुए तब से वह पटियाला आकर ही रहने लगीं।

महाराज करमसिंह के भाई अजीतसिंह को भी कुछ लोगों ने भड़काया और उनको रियासत का आधा भाग दिलाने की लालसा दिलाकर दावा करा दिया। बहुत दिनों तक यह रगड़ा चलता रहा, पर यह अनहोनी बात रियासत के कानून


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के मुताबिक कैसे हो सकती थी कि अजीतसिंह को रियासत का आधा भाग मिल जाता। क्योंकि इस तरह राज्य के टुकड़े-टुकड़े कुछ ही समय में हो जाते हैं। अतः अजीतसिंह जब कुछ समझने भी लग गया और उभाड़ने वालों का असर भी जाता रहा तथा कई दिनों तक देहली पड़े रहने पर भी कुछ न हुआ तो अपने भाई से सन्धि कर ली और वे पटियाला आकर ही रहने लगे। अजीतसिंह के लिए 15000) की जागीर और 3 हजार रुपये हाथ खर्च प्रतिवर्ष का प्रबन्ध किया गया और महाराज करमसिंह ने ही बड़ी धूमधाम से विवाह किया।

इन झगड़ों से निपटकर महाराज करमसिंह ने राज्य-प्रबन्ध की ओर ध्यान दिया, क्योंकि पुराने प्रबन्ध में बहुत खराबियां आ गईं थीं। हालांकि जिस समय यह प्रबन्ध कायम हुआ था, आवश्यक समझकर ही किया गया था। क्योंकि उस समय राज्य के चारों ओर उपद्रव हुआ करते थे, इसलिए तहसीलदारों तक को फौजदारी और दीवानी दोनों मामलों के निपटारे का पूरा अधिकार था। कोई बिरला ही मुकद्दमा दीवान तक पहुंचा था। इसी तरह छोटे-छोटे थानेदारों को भी बहुत से अधिकार थे जिसके कारण प्रजा में खलबली मच गई थी। रियासत के आमद-खरच, लगान के प्रबन्ध का भी ऐसा ही हाल था। नौकरों को वेतन के बदले जागीर देने का अधिक रिवाज था। सेना की कवाइद, हथियार-तोप आदि भी पुराने जमाने के ही आधार पर थीं। मुकद्दमों के फैसले प्रान्तीय हाकिम जुबानी ही करते थे जिससे घूंस का बाजार भी अधिक गर्म था। प्रान्तीय हाकिम सिपाही बहुत कम रखते थे, परन्तु पूरे सैनिकों का वेतन हड़प जाते थे। जब कोई बड़ा अफसर उनके यहां पहुंच जाता तो सिपाहियों के काम पर जाने का बहाना बनकर टरका देते थे। इन तमाम कमियों को महाराज करमसिंह ने समझ लिया और उन्होंने इसका प्रबन्ध करने में पूरी चेष्टा की।

नये प्रबन्ध के मुताबिक चार पदाधिकारी अलग-अलग कामों की देखभाल एवं फैसले के लिए नियुक्त हुए। इन्हें हुक्म था कि तमाम बड़े-बड़े मुकदमे महाराज के परामर्श से तय किए जाएं। नौकरों को जागीर के बजाए वेतन दिया जाए। खास-खास सरदारों की जागीर कायम रहीं। फौजों और सिपाहियों का भी नये ढ़ंग से इन्तजाम हुआ। एक-एक हजार सैनिकों की कई टुकड़ियां बनाई गईं और तत्कालीन प्रचलित फ्रान्सीसी कवाइद आरम्भ की गई। रुपया बाकायदा सीधा खजाने में आने और खर्च की रसीदें कटकर जाने का इन्तजाम किया। इस तरह महाराज करमसिंह ने कई नवीन इन्तजाम करके शान्ति स्थापित की।

प्रजा से कर और लगाम लेने में भी नया इन्तजाम हुआ। अच्छी-बुरी जमीन के मुआफिक लगान कायम किया गया जिससे तमाम जमीन में खेती की जाने लगी। महाराज करमसिंह ने पुराने किलों, मकानों की भी मरम्मत करवाई। पटियाला का किला और अन्य कई नई-नई इमारतें बनवाईं गईं। भरतपुर के दूसरे


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युद्ध के समय, रियासत से 20 लाख रुपया अंग्रेज सरकार को दिया गया, जिसका ब्याज देने के अतिरिक्त सरकार ने मित्रता का भाव भी प्रकट किया।

रियासत कैथल, नाभा, झींद आदि के पास आपसी झगड़े चलते रहते थे, जिसके कारण कभी-कभी युद्ध के ठनने की भी नौबत आ जाती थी। महाराज करमसिंह के राज्य-काल में इन चारों स्थानों के शासकों ने विक्रम सम्वत् 1890 ज्येष्ठ सुदी 13 को सन्धि कर ली। यह सन्धि ढूढान नामक स्थान पर हुई। इस सन्धि के मुआफिक सन् 1808 से जिस रियासत की जहां तक सरहद थी, वहीं तक कायम हुई और किसी रियासत का कर्जदार, बाकीदार अगर दूसरी रियासत में पहुंचे तो उसे फौरन उस रियासत को सौंप दिया जाए, या उससे नियमानुसार बाकी और कर्ज की रकम दिला दी जाए और किसी रियासत का आदमी दूसरी रियासत से चोरी का माल ले आये तो उचित सजा दी जाये और सीमाओं पर फिजूल झगड़े न खड़े जाएं। अगर किसी कर्मचारी द्वारा ऐसा हो तो उसे पूरी सजा दी जाय। उसी तरह की और भी कई एक आवश्यक शर्तो पर नाभा, कैथल, जींद और पटियाला के शासकों ने हस्ताक्षर कर दिये परन्तु इन शर्तों के मानने में कुछ ढिलाई से काम लिया गया। फलस्वरूप कैथल और पटियाले के बीच लड़ाई भी हो गई और एजेण्ट गवर्नर-जनरल अम्बाला ने बीच-बचाव करके शान्त करवाया।

महाराज करमसिंह अच्छी बातों से घृणा नहीं करते थे। उस समय फारसी पढ़ाना बुरा समझा जाता था, परन्तु लिखा-पढ़ी का सभी काम उस समय फारसी में होता था, इसलिए महाराज ने अपने पुत्र नरेन्द्रसिंह को फारसी पढ़ाने का प्रबन्ध किया। चूंकि इनकी माता के रहते पटियाले में ही फारसी पढ़ाना मुश्किल था, क्योंकि पुराने विचारों के कारण वह इसका विरोध करतीं। इसलिए नरेन्द्रसिंह के पढ़ने का इन्तजाम बहादुरगढ़ में किया और जब रानी आसकुंवरि का फागुन बदी एकम विक्रम सम्वत् 1891 में स्वर्गवास हो गया तब, प्रकाश्यरूप से पटियाले में पढ़वाने लगे।

अंग्रेजी सरकार ने जब रियासत जींद के शासक के मर जाने पर देखा कि उनकी कई रानियां और कई रिश्तेदार-कुटुम्बी राज्य के पाने का दावा करते हैं और असली हकदार का पता ही नहीं चलता, इसलिए उसने सन् 1837 ई० दस जनवरी को यह कानून इश्तिहार किया कि “नाभा, पटियाला, जींद और कैथल के वास्ते धर्म-शास्त्र की रू से जो कुटुम्बी समीप हो वह कुल जायदाद का मालिक हुआ करेगा और स्त्रियों को कोई हक न दिया जाएगा।”

महाराज ब्रिटिश सरकार के प्रति अपनी भक्ति समय-समय पर प्रकट करते रहे। रियासत से अफगानिस्तान के युद्ध में 2500000) करजे के बतौर दिए गए। पंजाब की अंग्रेज सरकार से हुई प्रथम सिखों की लड़ाई में महाराज ने दो हजार


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सवार, दो हजार पैदल और बहुत से लड़ाई के सामान रसद के साथ 6 बड़ी तोपें भी दी थीं। महाराज स्वयं युद्ध में सम्मिलित होते परन्तु बीमार होने के कारण न जा सके। पंजाब-युद्ध के समाप्त होने पर सरकार ने इन्हें शिमले के आस-पास के सोलह परगने दिये।

तेईसवीं दिसम्बर सन् 1845 को महाराज रोग-ग्रसित हो परलोक सिधारे।

महाराज नरेन्द्रसिंह

सन् 1846 ई० 18 जनवरी को 21 वर्ष की अवस्था में महाराज नरेन्द्रसिंह अपने पिता की गद्दी के अधिकारी हुए। उक्त अवसर पर जिस तरह की रिवाज होती हैं, सभी हुईं। रियासत के ओहदे के अनुसार 101 अशर्फी जो गवर्नर-जनरल को महाराज की ओर से दी जाती थीं, महाराज नरेन्द्रसिंह के लिए गवर्नर-जनरल की ओर से जमा कर दी गईं।

उस समय पंजाब में अंग्रेजों के प्रति अत्यन्त असन्तोष फैला हुआ था। पर सिख-सरदार सभी अंग्रेज सरकार की ओर थे। सरदार लोगों का भी अपनी पलटनों पर विश्वास न था। पर महाराज करमसिंह बड़े दूरदर्शी थे। उन्होंने ऐसे अधिकारियों को भरती किया था कि जिससे नरेन्द्रसिंह को अधिक कष्ट न उठाना पड़ा। फिर भी कुछ सैनिकों ने बगावत करने वालों का कुछ साथ दिया, पर वे बड़ी होशियारी से दबा दिए गए। उस समय रियासत से पूरी सहायता की गई थी। अंग्रेज सरकार को सन्देह हुआ कि अवश्य ही इस विद्रोह में सरदारों का भी कुछ हाथ अवश्य है। इसलिए नाभा, पटियाला, जींद, फरीदकोट, कलसिया, रायकोट, दयालगढ़ और ममदूट रियासतों को छोड़ सब सरदारों से फौजदारी और पुलिस के हथियार छीन लिए और राहदारी का महसूल उठवा दिया गया और नाभा को छोड़कर इन रियासतों के लिए भी यही तय हुआ कि महसूल राहदारी छोड़ दिया जाए। उसके लिए उन्हें कुछ मिलेगा अवश्य और नाभा शहर के सिवाय, नाभा स्टेट में भी महसूल राहदारी हटा दिया जाय।

जब पटियाला के शासक महाराज नरेन्द्रसिंह को पता लगा कि अंग्रेज सरकार का यह निश्चय हुआ है तो उन्हें यह रकम जो कि 9000) प्रति वर्ष आय की थी, एकदम छोड़ दी और गवर्नर-जनरल को लिखा - क्योंकि गवर्नमेण्ट की यह इच्छा है कि देश में आमतौर पर महसूल न रहे और यह इच्छा प्रजा के फायदे में है, इसलिए हम कुछ भी न लेकर यह महसूल माफ करते हैं। यह जानकर गवर्नर जनरल को अत्यन्त प्रसन्नता हुई और बतौर मुआवजे के दस हजार रुपए का इलाका अनुरोधपूर्वक दिया। तोपों की सलामी निश्चित करार दी। इस समय सरकार हर एक सरदार के अधिकार संकुचित कर देना चाहती थी क्योंकि भय था कि कहीं


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विद्रोहियों में सम्मिलित न हों। इसलिए महाराज को भी एक सूचना दी गई जिसके अनुसार उनकी स्वतन्त्रता और अधिकारों में कमी आ गई।

इस नवीन सन्धि अथवा परामर्श से नरेन्द्रसिंह सहमत हो गए, क्योंकि उन्हें भय था कि कहीं मुझ पर प्रकोप न हो जाय। क्योंकि उस समय कई सरदारों के उदाहरण उनके सामने थे। सन् 1847 ई० में जब पंजाब में फिर झगड़ा हुआ और सिखों के दल के दल इकट्ठे होकर अंग्रेजों से लड़ने के लिए तैयारी करने लगे, उस समय इसी रियासत से तीन लाख रुपया दिया गया था। इस प्रकार अंग्रेजी सरकार से दोस्ती जाहिर की, जिससे अंग्रेजों को विश्वास हो गया कि यह रियासत सरकार की खैरख्वाह है।

सन् 1850 ई० में राजा ज्वालामुखी के दर्शन करने गए और वहां पचास लाख के करीब चढ़ावा चढ़ाया। इससे जाना जाता है कि नरेन्द्रकुमारसिंह कितना मातृभक्त था। क्योंकि हिन्दू पुराणों की आज्ञानुसार ज्वालामुखी शक्ति है, देवि है और इस बात का पता भी चलता है कि वह कितने धर्मानुयायी थे कि शक्तिपूजा करने गए।

जब पंजाब के छोटे-छोटे सरदारों को सरकार ने अधिकारच्युत कर दिया, उनके अधिकार छीन लिये तब रियासत के चहारमी लोगों ने आन्दोलन शुरू कर दिया। उनको इसके लिए सरकार अंग्रेजी की ओर से सहारा मिला। चतुर्थांश के भागी तो रियासत की ओर से इन लोगों को समझा जाता था और बाकी तीन भाग रियासत के माने जाते थे। पर इनकी तरफ से इसका अर्थ यों था कि चतुर्थांश तो रियासत का और तीन हिस्से हमारे रहें। इन लोगों ने रियासत के मातहत रहने से इन्कार कर दिया। अंग्रेज सरकार तो उस समय अपनी सीमा के बढ़ाने की ओर प्रयत्नशील थी। चट से कर्नल मेकन एजेण्ट गवर्नर जनरल और कमिश्नर अम्बाला ने गवर्नमेण्ट को रिपूर्ट कर दी कि इनका रियासत पटियाला से कुछ सम्बन्ध नहीं। अगर यह सम्बन्ध-विच्छेद चाहें तो इन्हें रियासत से अलग कर दिया जाए। फलस्वरूप कई कारणों को दिखाते हुए इनको सरकार अंग्रेजी ने अधीनस्थ कर लिया। और इनकी ओर से भी किसी प्रकार अड़चन न डाली गई और इन्होंने रियासत से सम्बन्ध-विच्छेद कर लिया।

अप्रैल सन् 1852 में महाराज ने बाई बसन्तकौर का विवाह राजा धौलपुर के कुंवरसाहब के साथ बड़ी धूमधाम से किया, जिसमें लाखों रुपये व्यथ किये गए। अंग्रेज सरकार की ओर से भी इसमें 5000) रुपया दहेज में दिया गया था। 11 मई 1852 में विवाह करने के बाद महाराज गंगा-स्नान को गये। हरद्वार से गंगा-स्नान के पश्चात् ऋषिकेश और बद्रीनारायण के दर्शन को प्रस्थान किया। इस यात्रा में 64000) रुपया दान वगैरह में व्यय हुआ और बद्रीनारायण पर एक हजार रुपया सदाबरत का निश्चय किया। इसी वर्ष सितम्बर की 16 तारीख को


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-424


कुंवर महेन्द्रसिंह का जन्म हुआ। महाराज के सन्तान पैदा होकर जिन्दा न रहती थी, इसलिए इस खुशी के समाचार को गुप्त रखा गया। पर आखिर कितने समय तक छुपा रह सकता। 14 जनवरी सन् 1853 में राजकुमार के पैदा होने का समाचार सुनाया गया, जिससे रियासत भर में खुशी के जलसे मनाए गए।

जींद रियासत के पैमायश पर सन् 1854 के आरम्भ में एक गांव पलट गया। कुंवरसेन तहसीलदार को मार कर गांव के लोगों ने कागजात नष्ट कर दिए और गिरोह बना कर रियासत से बगावत करने को तुल गए। जींद के शासक द्वारा, सहायता के मांगने पर महाराज ने दो पलटन, दो हजार सवार और चार भारी तोपों के साथ चौधरी इमामबख्श को सहायता के लिए भेजा, परन्तु अंग्रेज सरकार की ओर से आज्ञा हुई कि हद से बाहर न जायें। पर बारनश कमिश्नर की स्कीम फैल हुई और चीफ कमिश्नर पंजाब सर जान लारैंस की ओर से महाराज को दंगा शांत करने की तजबीज करने को लिखा गया। रियासत की फौज ने गांव में पहुंच कुछ लड़ाई के पश्चात् शान्ति स्थापित की। बागी गांव छोड़कर भाग गए और 17 मरे तथा 80 घायल हुए।

विलायत की राजनैतिक समृद्धि को देखने के लिए महाराज ने लन्दन यात्रा का विचार किया और 28 अगस्त 1854 ईस्वी को प्रस्थान किया। रास्ते में काशी-दर्शन की इच्छा से बनारस में उतर पड़े। राजा ईश्वरीप्रशाद नारायणसिंह काशी-नरेश के यहां ठहरे। स्थानीय अंग्रेज हाकिमों ने भी काफी स्वागत किया। विश्वेश्वरनाथ की पूजा तथा अन्य धार्मिक स्थानों को देखने के बाद, गुरुद्वारा आदि में धार्मिक कृत्य किए। अपनी तरफ से गुरुद्वारे में सदाबरत जारी कर दिया और भी हजारों रुपए का दान किया गया। यहां 'सैसर फेडरिक केरी' नामक एक छोटे जहाज द्वारा जल के रास्ते से पटना तथा गया को देखते हुए कलकत्ते पहुंचे। कलकत्ते में आपका अंग्रेज सरकार की ओर से काफी स्वागत हुआ। 13000) रु० नकद और बहुत सी मेवा-मिठाई महाराज की मेहमानदारी के लिए आई। 21 तारीख को गवर्नर-जनरल डलहौजी ने गवर्नमेंट हाऊस में दरबार में महाराज का स्वागत किया। फॉरेन सेक्रेटरी और गवर्नर-जनरल ने आगे बढ़ करके महाराज के प्रति सम्मान प्रकट किया। जितने समय तक दरबार हुआ, अंग्रेजी बाजा बजता रहा और जाते-आते वक्त 17 तोपों से सलामी दी गई और गवर्नर-जनरल ने महाराज के लिए बहुत से तोहफे प्रदान किए। नियमानुसार महाराज ने भी अपने यहां बुला करके स्वागत तथा भेंट की। इस समय 19, 19 तोपों की सलामी हुई। विलायत जाने के लिए निश्चय हुआ कि कांगड़ा के असिस्टेंट कमिश्नर मि० फोर महाराज के साथ विलायत जायें। विलायत जाने की बिल्कुल तैयारी थी किन्तु कुछ कारण ऐसे पैदा हो गये कि विलायत-यात्रा स्थगित कर दी गई और पटियाला लौट आये।


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-425


सन् 1857 के विद्रोह में पलटनों के बागी होने का एक-दम से दौर-दौरा हो गया था। डिप्टी-कमिश्नर अम्बाला ने जब रियासत के वकील के जरिये सूचना दी कि अम्बाला की पलटन भी बागी होने वाली है, इसलिए सहायता के लिए आइए। इस खबर को पाकर महाराज नरेन्द्रसिंह ने बहुत से उंट-हाथियों को भेजा कि पहाड़ी छावनियों से आने वाले सिपाही सुविधापूर्वक आ सकें और अपनी कुल फौज लेकर गवर्नमेंट की मदद के लिए अम्बाला पहुंच गए। पटियाला के महाराज के आने का समाचार सुनकर जो सैनिक विद्रोह में शामिल होने का इरादा रखते थे, शांत हो गए। महाराज फौज को वहीं छोड़कर डिप्टी-कमिश्नर की सलाह से थाने पर गए, क्योंकि वह जेल का सदर मुकाम था और देहली1 के पास होने से ही विद्रोहियों का घर था। वहां जाकर कप्तान विलियम मेकनेल के परामर्श से प्रबन्ध किया। फौजों को विद्रोह-स्थानों में भेजकर वापस पटियाला लौट आए। विद्रोह में 2156 सवार, 2849 पैदल, 156 अधिकारी, आठ तोपें, देहली, पानीपत, थानेसर, करनाल, अम्बाला, जगाधरी, सहारनपुर, फीरोजपुर, सिरसा, हिसार, रोहतक बंगाल स्थानों में सहायता पहुंचाते थे। जब देहली में लड़ाई छिड़ रही थी, तब रास्ते में रसद का इन्तजाम पटियाला के सैनिकों ने ही किया था।

गदर में पटियाला रियासत से सिर्फ फौजी सहायता ही नहीं दी गई। जब सरकार अंग्रेज ने पांच लाख रुपया ऋण मांगा तो उसी समय भेज दिया और कहा गया - आवश्यकता हो तो दस लाख लीजिये। और भी रसद वगैरह की समय-समय पर जैसी सहायता मांगी गई, तत्काल दी। सिरसा, रोहतक एवं हिसार से अंग्रेज और मेंमें-बच्चे जब पटियाला रक्षा की पुकार करते हुए पहुंचे तो उन्हें बड़ी खातिर से रक्खा गया और उन्हें यथा-समय सुरक्षित स्थानों पर भेज दिया और समय-समय पर फौजें इकट्ठी करके भेजी गईं।

गदर में की गई सहायता और सरकार भक्ति के पुरुस्कार में ब्रिटिश गवर्नमेंट ने नारनौल का इलाका जो झझ्झर का था और सरकार द्वारा जब्त कर लिया गया था, इनको दे दिया। भदोड़ का इलाका तथा जनतमहल आदि कई स्थान भी दिये गये। इस समय पर महाराज के अधिकारों में वृद्धि की गई और 'महाराजाधिराज' की उपाधि प्रदान की गई।

इस तरह चर्बी लगे हुए कारतूसों के कारण उठे हुए झगड़े और विद्रोहियों की ओर लगाई गई स्वाधीनता की आग को दबा कर महाराज ने अपना रुतवा और रियासत बढाई। इसका नाम भारतीयों की दृष्टि से देशद्रोह है एवं अंग्रेज-सरकार की नजर में राज-भक्ति है।


1. क्योंकि उस समय देहली में विद्रोहियों ने पूरी तरह सफलता प्राप्त कर ली थी।


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-426


कुछ समय के बाद अम्बाला में एक दरबार हुआ, जिसमें गवर्नर जनरल ने महाराज के गले में माला डालते हुए, उनकी तरफ से गदर में की गई सहायता का वर्णन किया और महाराज की बुद्धिमानी, बहादुरी और राजभक्ति की तारीफ की। इसके साथ ही यह इनायत भी की कि पटियाला स्टेट के कुटुम्ब में संतान न होने पर गोद लिया हुआ व्यक्ति भी उत्तराधिकारी समझा जायेगा जो कि अब तक किसी अन्य स्टेट में न था और इसके कारण कई स्टेट अंग्रेजी इलाके में मिला ली गई थीं।

जब इलाका नारनोल रियासत पटियाला को दिया गया था, उस समय की आय 2 लाख 10 हजार बताई गई थी, परन्तु जब देखा गया कि इसकी कुल आमद एक लाख सत्तर हजार से कुछ भी अधिक नहीं होती है, तो सरकार से लिखा-पढ़ी की गई। मि० वार्नस ने इसकी जांच की तो उन्हें भी कमी पाई गई और उन्होंने इस पूर्ति की ओर ध्यान दिलाते हुए परगना कानोड़ जिसकी कि आमदनी करीब एक लाख थी, पटियाला स्टेट को इस शर्त पर देने के लिए लिखा कि इसकी बीस बरस की आमदनी नजराना के बतौर ले ली जाए और वह रकम गदर में दिये ऋण में से काट ली जाए। सरकार की ओर से यह मंजूर हो गया और कानौड़ का परगना जिसमें कि 1110 गांव थे, मय शहर और किला कानौड़ के पटियाला के अधिकार में आ गए और जो अख्तियार स्टेट में हैं, उन्हीं अधिकारों के साथ इस इलाके को भी करार पाया।

कुछ काल बाद इलाका खमानोन भी बाकी ऋण की पूर्ति के लिए स्टेट को दे दिया गया तथा बचे हुए और रुपये नकद दे दिये गये। परन्तु यह नया मिला इलाका एक सनद के अनुसार अधिकार में तो पटियाले के ही रहा, परन्तु देखभाल अंग्रेजी सरकार करे और इसके लिए दो आना फी रुपया सरकार ले, यह निश्चय हुआ।

महाराज साहब ने नाभा और जींद से सलाह कर अपने राज्य की सनद ब्रिटिश गवर्नमेंट की मुहर से प्राप्त कर लेने का इरादा किया और एक प्रार्थनापत्र भी भेजा गया कि इंगलैंड की मुहर से हमारे राज्य के लिए पट्टे लिख दिये जायें, परन्तु गवर्नर जनरल ने सूचित किया कि इस तरह सभी रईस पट्टों के लिए इंगलैंड की मुहर सहित लेने का उद्योग करेंगे, जब कि वाइसराय का हिन्द पर पूरा अधिकार है। उनके हस्ताक्षर से सनद दी जा सकती है, इसलिए महाराज नरेन्द्र सिंह ने स्वयं शिमला जाकर वाइसराय के हस्ताक्षरों से राज्य के पीढ़ी दर पीढ़ी अधिकार रहने की सनद प्राप्त की, जिसमें मौटे तौर से निम्न बातें थीं - जो प्रदेश ब्रिटिश सरकार द्वारा दिया गया है अथवा महाराज साहब तथा उनके बुजुर्गों ने स्वयं प्राप्त किया है, उस सारे प्रदेश को गवर्नमेंट महाराज साहब तथा उनकी पीढ़ी दर पीढ़ी मौरूसी हक स्वीकार करती है और वह अपने राज्य के खुदमुख्तार


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मालिक होंगे और जो उपाधियां महाराज को इस समय हैं, ये भी पीढ़ी दर पीढ़ी कायम रहेंगी। सरकार की मंजूरी और फूल खानदान से गोद लेने की शर्तों के साथ सरकार गोद लेने के अधिकार को स्वीकार करती है और महाराज अपनी रियासत से सती की प्रथा, कन्या-वध आदि की बुरी रिवाजें हटा देंगे और महाराज साहब और सरकार आवश्यकता के समय एक दूसरे की मदद करेंगे और रियासत के भीतरी मामलों में सरकार किसी प्रकार का हस्तक्षेप न करेगी आदि-आदि।

इलाका झझ्झर से जो परगने रियासत को मिले थे, उनमें मुआफीदार भी थे और नवाबी के जमाने में सरकार की तरफ से यह अधिकार नहीं था कि मुआफियां जब्त कर सके, या इन मुआफीदारों के मामले में हस्तक्षेप कर सके, परन्तु यह शर्त नवाब से थी। पटियाला रियासत को दिये जाने के समय किसी तरह की कोई शर्त नहीं हुई। रियासत के आधीन हो जाने पर माफीदारों द्वारा इस बात का आन्दोलन हुआ कि हम पूरी तरह स्वाधीन रहें, जिस तरह की पटियाला रियासत है और रियासत हमारे अधिकार में किसी तरह का हस्तक्षेप न करे। पर राजा नरेन्द्रसिंह इस तरह के शासक होना कैसे स्वीकार कर सकते थे। मुआफीदारों की ओर से बड़े-बड़े अफसरों द्वारा सिफारिश करवाई गई पर फल कुछ न हुआ और आखिर पटियाला स्टेट को इसके अधिकार सौंप दिये गये।

सन् 1858 के नवम्बर मास में जब भारतवर्ष में अंग्रेज सरकार की ओर से उपाधियों का पहले-पहल जन्म हुआ, तब महाराज पटियाला को भी सितारे-हिन्द की उपाधि मिली और जब हिन्दुस्तान का प्रबन्ध एक कौंसिल बनाकर वाइसराय की अध्यक्षता में करने का निश्चय हुआ, तब उस कौंसिल के एक मेम्बर महाराज नरेन्द्रसिंह पटियाला भी नियत हुए। महाराज पटियाला की कुर्सी बंगाल गवर्नर की तरह थी और जैसा कि उनके साथ एक अहलकार आता था, उसी तरह महाराज के साथ भी एक अहलकार के आने का प्रबन्ध हुआ था। इस तरह महाराज के मान का पूरा ख्याल रखा गया। सन् 1862 ई० 18 जनवरी को महाराज पहले-पहल कौंसिल में गये और कौंसिल की कार्यवाही में भाग लिया। कौंसिल में सम्मिलित होते रहने से महाराज को बहुत लाभ हुआ और वह अपनी रियासत के सुधार की ओर भी ध्यान देने लगे। भारतवर्ष में अंग्रेजों द्वारा राज्य करने के लिए यह पहली संस्था कायम हुई थी, इसलिये इसके प्रारम्भ के अधिवेशन बड़े महत्त्व के थे। उस समय हर एक डिपार्टमेंट नये बनाने पड़ते थे और रियासतों अथवा अन्य देशों और हर एक प्रबन्ध की नई नीम डाली जाती थी।

लार्ड कैनिंग महाशय के सामने ही महाराज नरेन्द्रसिंह ने पटियाला आने की मंजूरी प्राप्त कर ली थी। पर कैनिंग विलायत जा रहे थे और उनके स्थान पर लार्ड एलगिन वाइसराय नियुक्त होकर आ रहे थे, इसलिये महाराज कुछ दिन


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कलकत्ते और ठहर गये और मार्च में पटियाला आ गये। यहां आने पर महेन्द्रसिंह की शादी की तैयारी में लग गये। महाराज की इच्छा थी कि महेन्द्रसिंह की शादी खूब धूमधाम से की जाये। परन्तु होना कुछ और ही था और बीमार होकर 13वीं नवम्बर 1858 ई० को स्वर्ग सिधार गए।

महाराज नरेन्द्रसिंह के शासन-काल में, रियासत की उन्नति हुई और वृद्धि भी। हालांकि इनके समय में ऐसा भी वक्त था कि कई एक जागीरें सदा के लिये नष्ट हो गई थी, और तो और पंजाब के महाराज रणजीतसिंह का भी विशाल राज्य अंग्रेजों के हाथ में चला गया था, परन्तु महाराज नरेन्द्रसिंह पूरे राज्य-भक्त थे और लोगों की कितनी ही आलोचनायें होते हुये भी वह अपने कार्य में संलग्न रहे। कहते हैं वे हिन्दू-मुसलमान के लिए एक भाव रखते थे। एक बार दौरा करते हुये अम्बाला के कमिश्नर उधर आ गये और महाराज के हाथी पर घूमने निकले तब कमिश्नर ने कहा कि औरंगजेब ने तो कितने ही मंदिर तुड़वाये थे पर आपके तो महल के पास ही मस्जिद बनी हुई है? इस पर महाराज ने कहा कि - मैं औरंगजेब की तरह अपना नाम नहीं चाहता।

राज्य बढ़ाने के साथ ही इन्होंने प्रबन्ध भी भली प्रकार किया। डाक में बहुत से सुधार किये गये। पहाड़ी परगनों में कई बार दौरा करके फैले हुये असन्तोष एवं अधिकारियों की उदासीनता को देखकर उसका इन्तजाम किया। इसी तरह कारखानों, अधिकारियों की नियुक्ति और वेतन देने के तरीकों में कई तरह की तबदीली हुई। भूमि-कर में बहुधा अन्न का हिस्सा दिया जाता था। परन्तु इन्होंने रुपये का चलन जारी किया और जहां-तहां अनाज का रिवाज भी जारी रहा। अनाज खराब हो जाने पर निरख के मुताबिक जमींदारों को दिया जाता। रियासत के कानूनों में भी परिवर्द्धन और संशोधन हुये। हफ्ते में एक बार अर्जी पेश करने की रिवाज थी। पहले महाराज 2 अगस्त सन् 1846 को अपने किये गये नये प्रबन्ध के मुताबिक अदालत में आए जिसमें 83 अर्जियां पेश हुईं। पहले स्टेट में फैसले के बाद अपील का कायदा न था। परन्तु महाराज ने अपील करने का कानून बना दिया। इसी तरह सजा देने में भी परिवर्तन हुये। महाराज के शासन में घूस व चोरी बहुत कम होती थी। महाराज नरेन्द्रसिंह मिलनसार भी खूब थे, इस कारण उनकी काशी नरेश, प्रान्तीय हाकिमों वगैरह से खूब बनी रहती थी। यात्रा का शौक भी उन्हें काफी था।

महाराज महेन्द्रसिंह

सन् 1863 ई० 29 जनवरी को महाराज महेन्द्रसिंह 10 वर्ष चार महीने बारह दिन की अवस्था में गद्दी पर बैठे। गद्दी पर बैठने की रस्म अत्यन्त धूमधाम से मनाई गई जैसी कि पहले कभी न हुई थी। इस उत्सव पर बड़े-बड़े ओहदेदार


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-429


अंग्रेजों में से तथा कई एक अंग्रेज और कपूरथला, अलवर, जींद, नाभा, बनारस, बर्द्धवान आदि कई रियासतों के अधिकारी तथा कई जागीरों के जागीरदार पधारे थे, चूंकि महाराज की नाबालिगी में शासन-प्रबन्ध का विषय चिन्त्य एवं विचारणीय था। सन् 1859 ई० में गवर्नर से हुई संधि के (सनद के) अनुसार तो सतलज के प्रदेश के लैफ्टीनेण्ट, महाराज जींद, महाराज पटियाला इन तीनों के परस्पर परामर्श से तीन आफिसर मुकर्रर होकर रियासत का इन्तजाम करते थे। परन्तु सन् 1860 की सनद के अनुसार जो गवर्नमेण्ट की ओर से ही प्राप्त हुई है रियासत के इन्तजाम में किसी तरह की सरकार की ओर से बाधा न दी जाएगी और महाराज नरेन्द्रसिंह बहादुर ने मरते समय तक, फरमाया है कि - जिस तरह हम ब्रिटिश गवर्नमेंट के खैरख्वाह रहे हैं, उसी तरह आयन्दा भी हमारी रियासत की सरकार के प्रति प्रगाढ़ भक्ति एवं मित्रता का बर्ताव रहे और हमारे उत्तराधिकारी को इसकी शिक्षा दी जाए और जिस तरह से रियासत का इस समय प्रबन्ध है, उसी तरह कायम रहे। इसलिए दरबार अपना अधिकार समझता है कि इस इन्तजाम में हस्तक्षेप न किया जाए और तीन अधिकारियों की नियुक्ति करा नया इन्तजाम न करके जैसा इस समय प्रबन्ध हो रहा है, उसी प्रकार रहने दिया जाए। इस पर एजेंट महोदय ने नाभा और जींद के शासकों की उपर्युक्त बातों के लिए राय ली और उन्होंने इसका समर्थन किया कि इस तरह शासन होने में हमें कोई एतराज नहीं। पर गवर्नमेण्ट की ओर से एतराज किया गया कि सन् 1859 में हुई सनद सन् 1860 में हुई सनद के हो जाने से इस नियम को भंग नहीं करती है। इस पर दरबार की ओर से पुनः कहा गया कि इस समय राज्य के मुख्य प्रबन्धक 5 हैं, इसलिए उन तीन की संख्या भी इसमें आ जाती है। परन्तु गवर्नमेण्ट ने इससे इन्कार कर दिया और तीन नये अधिकारी बनाये जाकर ही शासन-प्रबन्ध होने की हिदायत की। इस पर महाराज जींद, नाभा और गवर्नमेण्ट की सलाह एवं मंजूरी से सरदार जगदीशसिंह नाजिम नारनौल, सरदार रहीमबख्श नाजिम जिला करमगढ़, सरदार उदैसिंह नियुक्त हुए जो कि पूर्ण विश्वासी थे।

इस समय रियासत का कार्य पूर्णतः शान्ति के साथ चल रहा था। न कहीं लड़ाई-झगड़े की आशंका थी और न असन्तोष। परन्तु शासन-सूत्र चलाने के लिए कौंसिल से पारित कराके एक तजवीज सरकार को भेजी गई।

जिस समय 1864 ई० में लार्ड लारेन्स लाहौर आए और उस दरबार में पंजाब के सब महाराजे बुलाये गए तो उसमें महाराज शेरसिंह काशमीर नरेश भी आये थे। तब महाराज भूपेन्द्रसिंह की भी उनसे भेंट हुई। महाराज काशमीर के तंबू से महाराज के तंबू तक पूरा प्रबन्ध किया था और दो विश्वासी अधिकारियों


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को काशमीर नरेश ने महाराज को लिवाने भेजा था। महाराज ने स्वयं दरवाजे के पास ही पहुंचकर स्वागत किया और साथ-साथ आकर अपने पास दाहिनी ओर बिठाया और ग्यारह सौ रुपया उन्होंने, सात सौ युवराज ने और ढाई सौ रुपया महाराज के भाई ने न्यौछावर किए और सब अहलकारों एवं सरकारों ने नजरें भेट की। बिदाई के समय 51 किशियां और दो घोड़े तोहफे दिए गए। साथ के अधिकारियों का भी यथोचित सत्कार किया गया। आते-जाते समय फौज ने सलामी दी। इसी प्रकार महाराज साहब जब भेंट करने के लिए निमंत्रित किए गए तब ये ही सब रस्में हुईं।

इस वक्त नाभा की गद्दी पर राजा भरपूरसिंह की मृत्यु के बाद राजा भगवानसिंह नियुक्त हुए थे, क्योंकि नाभा के राजा साहब के कोई सन्तान न थी। इसलिए सन् 1860 ई० में हुई सनद के मुआफिक राजा भगवानसिंह गद्दी-नशीन हुए थे। परन्तु गद्दी पर बैठते ही इन्हें एक आपत्ति का सामना करना पड़ा। वह यह थी कि किसी ने यह हल्ला कर दिया कि भगवानसिंह ने राजा भरपूरसिंह को जहर देकर अपनी एक सम्बन्धित के जरिए उनको मरवा डाला है, इसीलिए महाराज लाहौर के दरबार में शामिल न हुए। अंग्रेज सरकार की ओर से इसकी जांच के लिए जांच कमीशन बैठा, जिसमें मेजर केरीक्राफ, डिप्टी कमिश्नर रावलपिंडी, महाराज पटियाला और महाराज जींद नियुक्त हुए। पूरी तरह जांच की गई और कमीशन की रिपोर्ट से राजा भगवानसिंह पूर्ण निर्दोष साबित ही नहीं हुए, बल्कि महाराज भरपूरसिंह को जहर देकर मारने की बात भी मिथ्या प्रमाणित हुई। इस कमीशन में सम्मिलित होने से महाराज का छोटी उम्र में भी अनुभवशील होना साबित होता है।

राजा महेन्द्रसिंह की शादी महाराज की मृत्यु के कारण रुक गई थी। दरबार ने अब इसकी तैयारी शुरू की और बड़ी धूम-धाम के साथ 1858 ई० की मार्च मास की 5वीं तारीख को शादी की। महाराज की शादी की सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह थी कि बखेर की रिवाज बिलकुल बन्द कर दी। चूंकि उस समय आम जनता में ही उसका काफी प्रचार था और राजाओं में तो उस समय फिजूलखर्ची में लाखों रुपया व्यय होता था। परन्तु महाराज की ओर से इस प्रथा को कतई बन्द कर दिया गया।

जब सन् 1870 में राजकुमार अल्फ्रेड अलबर्ट भारतवर्ष आये और लाहौर में दरबार हुआ, तब महाराज साहब भी लाहौर गए और राजकुमार के स्वागत करने में सम्मिलित रहे। आपने राजकुमार की भारत-यात्रा की यादगार में बीस हजार रुपया पंजाब यूनिवर्सिटी लाहौर को इसलिए प्रदान किया कि राजकुमार के नाम से एक वजीफा दिया जाया करे। नवाब साहब भावलपुर भी वहां आए थे। अतः इस अवसर पर नवाब साहब से भी भेंट की। महाराज साहब लाहौर में ही थे कि उनकी बहन की मृत्यु का समाचार पहुंचा। यह महाराज से बड़ी थीं और भरतपुर


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से कई दिनों से पूर्व पटियाला ही आई हुई थीं।

कुछ दिन बाद रियासत के अधिकारियों में वैमनस्य पैदा हो गया और महाराज के कान भरकर एक ऐसा अधिकारी निकलवा दिया गया जो कि कानून और कार्य को देखते हुए रहना चाहिए था। इससे दो पार्टियां बन इसलिए गईं कि कुछ लोगों को यह भय हो गया कि हम भी इसी तरह निकाल दिए जाएंगे। महाराज इस समय 12 वर्ष की उम्र में थे। अतः स्वार्थी लोगों ने एजेण्ट के जरिए यह चाहा कि महाराज को शीघ्र अधिकार मिल जाए, जिससे वे लोग रियासत में मनमानी कर सकें। परन्तु एजेण्ट के सिफारिश करने पर भी सरकार की ओर से महाराज के नाबालिग होने के कारण यह स्वीकार न किया गया और जो कौंसिल के 3 मेम्बरों में से दो मेम्बर मर गए थे उनके स्थान पर दूसरे कायम कर दिए गए और कौंसिल से पूर्ववत् रियासत का शासन होने लगा। फिर भी रियासत में बहुत सी साजिशें चल रही थीं जो कि महाराज को खतरे में डालने वाली थीं। कुछ लोग महाराज को गलत रास्ते पर ले जाते थे तो कुछ लोग महाराज के खिलाफ थे। इन हालातों को देखकर नये एजेण्ट भी महाराज की तरफ से कुछ उदासीन से हो गए। आखिरकार साजिशों सम्बन्धी एक मुकद्दमा भी चला जिसे नाभा-पटियाला केस कह सकते हैं। चूंकि महाराज तरुण हो चुके थे, इसलिए 1870 ई० में कौंसिल को तोड़कर महाराज को राज्याधिकार दे दिया गया।

महाराज ने अधिकार प्राप्त होते ही वेतन की कमी से फौज में फैले हुए असन्तोष को दूर किया और जांच के बाद यथोचित वेतन बढ़ा दिया। उसी समय लाहौर कॉलेज को उन बीस हजार के अतिरिक्त जो कि राजकुमार इंगलैंड के आने पर स्कॉलरशिप के लिए दिया था, 56 हजार रुपये और प्रदान किए और इस समय ही सरकार अंग्रेज की ओर से महाराज को 'सितारे हिन्द' की उपाधि मिली और वे कृतज्ञता प्रकट करने के लिए शिमला गए। शिमले से लौटते ही महाराज के बहनोई की मृत्यु का समाचार धौलपुर से मिला और महाराज धौलपुर गए। लौटते वक्त लेफ्टीनेण्ट गवर्नर पंजाब जो विलायत जा रहे थे, उनसे भेंट की और उनकी याददाश्त के लिए उनके नाम से पंजाब यूनिवर्सिटी में 15000) रुपये देकर स्कॉलरशिप देने का आयोजन किया।

चूंकि दरिया सतलज का पुल बनकर तैयार हो गया था, इसलिए उसके उदघाटन के लिए वायसराय महोदय से प्रार्थना की गई थी, परन्तु वे कार्यवशात् न आ सकते थे और न गरमी के मौसम की वजह से पंजाब गवर्नर ही पहुंच सकते थे, इसलिए इस कार्य के लिए महाराज नरेन्द्रसिंह को लिखा गया और महाराज साहब ने लुधियाना पहुंच कर रेलवे पुल का उदघाटन किया। उक्त अवसर पर रेलवे एजेण्ट ने महाराज को मान-पत्र दिया।

जब कि महाराज को राज्य-अधिकार मिला, उस समय उनकी उम्र बालिग


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होने में सात महीने कम थी, इसलिए सरकार की ओर से आदेश था कि सात महीने बाद ही खुशी वगैरह के जल्से किए जाएं। चूंकि सरकार को भय था कि कहीं रियासत में किसी तरह का झगड़ा-बखेड़ा न खड़ा हो जाए, क्योंकि महाराज ने अधिकार प्राप्त होने पर भली प्रकार काम संभाल लिया था और जो कुछ भी बखेड़े थे, वे उस समय दूर कर दिए थे और सात महीने भी पूरे हो गए थे। गवर्नमेण्ट की ओर से आज्ञा भी मिल गई, इसलिए महाराज के अधिकार प्राप्त होने की प्रसन्नता में दरबार किया गया, जिसमें बड़े-बड़े अफसर और राज्य के अधिकारी मौजूद थे। इस समय कई अधिकारियों को इनाम तथा जागीरें भी दी गईं।

नवम्बर सन् 1880 ई० के अन्त में महाराज ने नारनोल, कानौड़ आदि के परगनों में दौरा किया, क्योंकि उस समय वहां अकाल पड़ा हुआ था। महाराज रियासत के हालात यात्रा में जानते जा रहे थे। नाजिम की रिपोर्ट से 60000) रु० तकावी देना मंजूर किया और लगान के एक लाख साढ़े इकसठ हजार रुपया जो जमींदारों पर बकाया था, मुल्तवी कर दिया, जब तक कि उनकी हालत ठीक न हो जाए। नारनौल पहुंचकर और भी पन्द्रह-सोलह हजार रुपये महाराज ने जो रियासत को कष्ट पहुंचाने वाले थे, माफ कर दिए और इस तरह प्रजा की हालत का निरीक्षण कर वह एक महीने के करीब की यात्रा कर पटियाला वापस पहुंचे। पटियाला पहुंच कर आपने राज्य-प्रबन्ध में सुधार किए। लगान और परगनों के प्रबन्ध के लिए कई रद्दोबदल और सुधार किए।

क्योंकि कलकत्ते में उपाधि वितरणोत्सव होने वाला था और महाराज सैर को भी जाने वाले थे, इसलिए 20 जनवरी सन् 1871 ई० को कलकत्ता के लिए रवाना हुए। रास्ते में कानपुर में कपड़े के कारखाने देखे और पटना में गुरुद्वारा की पूजा में शामिल होते हुए कलकत्ते पहुंचे। कारणवश दरबार होना कुछ दिन के लिए स्थगित हो गया था, इसलिए महाराज बीच में गया का तीर्थ भी करने गए और फिर कलकत्ता पहुंच कर 27 फरवरी के दरबार में शामिल हो गए। दरबार में महाराज को स्टार-ऑफ-इण्डिया का तमगा प्रदान किया गया। महाराज कितने ही दिनों तक कलकत्ते में अंग्रेजों की दावतों में शामिल होते रहे और शिकार वगैरह में भी सम्मिलित हुए और लौटते वक्त इलाहाबाद आदि स्थानों पर ठहरते हुए 18 तारीख को पटियाला पहुंच गए।

सितम्बर सन् 1871 ई० में महाराज गवर्नर-जनरल से मिलने शिमले गए और वहां पर एक क्रिश्चियन अनाथालय को 1200) रुपया प्रति वर्ष देने की स्वीकृति दी और भी कई मुफ्त औषधालयों तथा स्कूलों को करीब सवा पांच हजार रुपये दान किए।

महाराज ने महेन्द्र-कालेज पटियाला की अंग्रेजी ढ़ंग से उन्नति करने के लिए सम्वत् 1828 के आषाढ़ महीने में एक दरबार किया और इसके लिए 27000)


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-433


रुपया व्यय के लिए मंजूर किए। शिक्षा-विभाग पटियाला में पहले जहां 27 हजार खर्च का बजट मंजूर होता था, अब 60 हजार का बजट मंजूर होने की आज्ञा दी, जिसमें 15 हजार रुपये सरकारी खजाने से तथा 15 हजार लगान में जमींदारों द्वारा वसूल करने की तजवीज की। जब कॉलेज को डेढ़ बरस हो गया और वार्षिक परीक्षा समाप्त हुई तो तारीख 20 अक्टूबर 1871 को महाराज ने एक दरबार किया, जिसमें शिक्षा-विभाग के सभी अधिकारी सम्मिलित थे। महाराज ने स्वयं इस समय इनाम बांटे और अध्यापकों एवं प्रोफेसर आदि के कार्य की सराहना की। इनके जमाने में ही 'पटियाला गजट' का जन्म हुआ। कॉलेज के निमित्त हुए दरबार का कुछ समाचार पटियाला के अखबार में प्रकाशित हुआ।

सन् 1871 ई० को शहर पटियाला में नये इन्तजाम किए गए। दीवानी मुकद्दमों के वास्ते एक जज मुकर्रर हुआ। पुलिस के लिए वरदियां नये ढ़ंग की बनाई गईं और जिस तरह अंग्रेजी शहरों में दिन में भी चौराहों पर सिपाही खड़े रहते हैं, शहर में भी इसी तरह के इन्तजाम का निश्चय हुआ। परगना नारनौल और कानोड़ में महसूल राहदारी के कारण व्यापार में एक बड़ी बाधा थी, उसे हटा दिया गया और उसके बदले सिर्फ बकरियों पर कर लगाया गया। इस मद में 2000) कानोड़ में महसूल राहदारी के कारण व्यापार में बड़ी रुकावट थी, उसे हटा रुपया प्रति वर्ष आमद थी। उस समय फौज में भरती होने वाले की उम्र का कुछ नियम न था, इससे छोटी-छोटी उम्र के लड़के भी उसमें शामिल कर लिए जाते थे, इसलिए फौज में भर्ती होने की वयस 16 साल मुकर्रर हुई।

पंजाब में जब सिखों का विद्रोह हुआ तो महाराज से भी सहायता मांगी गई थी। हर तरह सिख-युद्ध के समय रियासत की ओर से अंग्रेज सरकार को खूब सहायता दी गई थी - रसद, सिपाही, घोड़ा, हाथी, ऊंट जैसी भी जिस रूप में सहायता की आवश्यकता हुई, रियासत की ओर से पूरी की गई। जब लार्ड मेयो एक कैदी द्वारा अंडमान में मार दिए गए थे और वहां से जब लार्ड मेयो के देहान्त का समाचार महाराज तक पहुंचा तो सारे शहर में मातम मनाया गया और लार्ड महोदय की स्मृति के लिए पंजाब यूनिवर्सिटी के लिए 'स्कॉलर्शिप' या फेलोशिप अथवा 'पटियाला-मेयो-स्कॉलरशिप' के नाम से दिए जाना स्वीकार किया। यह स्कॉलरशिप अंग्रेजी, संस्कृत एवं अंग्रेजी-अरबी में योग्यता प्राप्त करने वाले छात्र के लिए थी।

पटियाला में तारबर्की का प्रबन्ध इनके शासनकाल में ही कायम हुआ। पहले-पहल सन् 1872 शुरू मार्च में दफ्तर खोला गया। महाराज ने सबसे बड़ा काम सर-हिन्दू की नहर निकालने का किया, जिसमें एक करोड़ तेईस लाख रुपये व्यय किए। बंगाल में जब अकाल पड़ा तो आपने अकाल पीड़ितों की सहायता के लिए दस लाख रुपये दिए। 1873 में महाराज ने एक सर्वप्रथम पहला सफाखाना भी


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-434


स्थापित किया, जिसमें एक अनुभवी अंग्रेज डॉक्टर रखा गया। महाराज सन् 1874 ई० में दिवाली के अवसर पर अमृतसर स्नान करने गए और 18 हजार रुपया चढ़ावे का चढ़ाया तथा 51 हजार रुपया इसलिए दरबार साहब की भेंट किया गया कि इससे एक सर्व-साधारण भोजन-भंडार स्थापित किया जाए। इस दौरे में ही महाराज ने मुल्तान की भी सैर की।

सन् 1875 ई० को जब सप्तम् एडवर्ड विलायत से भारतवर्ष सैर के लिए आए, तब महाराज कलकत्ते गए और उनकी वहां पर भी भेंट हुईं। फिर जब राजपुरा में महाराज के अतिथि हुए, इस स्मृति को स्थायी बनाने के लिए महाराज ने अलबर्ट-महेन्द्र गंज बसाया।

वैसे तो महाराज तीन साल से ही कुछ बीमार चले आते थे, परन्तु अब आकर वे कुछ शराब का ज्यादा व्यवहार करने लग गए थे, जिससे स्वास्थ्य और भी गिरता ही चला गया। डॉक्टर, वैद्य, हकीम सबकी दवा करवाई गई, पर कोई फायदा न हुआ। आखिरकार 25 बरस की ही कम अवस्था में महाराज का देहान्त हो गया।

महाराज राजेन्द्रसिंह

महाराज महेन्द्रसिंह की मृत्यु के बाद उनके पुत्र राजेन्द्रसिंह (25 May 1872-8 November 1900) की उम्र केवल करीब चार बरस की थी, इसलिए सन् 1859 की सनद के मुताबिक कौंसिल मुकर्रिर होकर राज्य-प्रबन्ध करना जाइज था। कुछ दिन पंजाब सरकार के सैक्रेटरी ने एक तजवीज कर दी थी, उसके अनुसार रियासत का काम होता रहा और फिर मि० ग्रेफन सैक्रेटरी गवर्नर-जनरल पटियाला तशरीफ लाए और महाराज जींद, नाभा के परामर्श से एक कौंसिल रियासत के इन्तजाम के लिए बनाई और उनके लिए रियासत के प्रबन्ध को भली प्रकार करने की ताकीद की और एक रिपोर्टर इस के लिए पटियाले में छोड़ दिया कि वह कौंसिल की कार्रवाही और अन्य राज्य-सम्बन्धी हालात गवर्नमेण्ट को दिया करे।

सन् 1877 ई० में गवर्नर स्वयं पटियाला आए और खास दरबार हुआ जिसमें नाभा, फरीदकोट, जींद आदि के शासक भी मौजूद थे। महाराज राजेन्द्रसिंह को गद्दी-नशीन किया, परन्तु कुल अधिकार आपको 1890 ई० में प्राप्त हुए।

पटियाला राज्य में निज की टकसाल भी थी। उसमें जो सिक्के ढ़ाले जाते थे, उनकी कीमत सन् 1825 के लगभग गवर्नमेंट ने पन्द्रह आने रखी थी और अब भारतवर्ष के चारों तरफ गिनती के लिए पौंड, शिलिंग और पेन्स आदि के ब्रिटिश सिक्कों का चलन हो चुका था। इसलिए अन्य स्थानों की तरह पटियाला से भी उनका चलन बन्द होने लग गया।

पहले की अपेक्षा इन महाराज के आगे खेती का प्रबन्ध कुछ सुव्यवस्थित


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रूप में आ गया था। अंग्रेजी ढ़ंग पर बन्दोबस्त हो जाने के कारण लगान उगाही बटाई की अपेक्षा नकद रुपयों में लिया जाने लगा था। पहले लोग नकद रुपया देने में दिक्कतें समझते थे। लेकिन इनके समय में नकद रुपया देने में सुविधा समझने लगे।

1887 ई० में पटियाला की सेना ने उत्तरी-पश्चिमी युद्ध में शामिल होकर अंग्रेजों की मदद की थी। चीन के युद्ध में भी महाराज ने अपनी सेना में जाकर अंग्रेज सरकार से मित्रता का सम्बन्ध निभाया। जिस समय अंग्रेजों का दक्षिण अफ्रीका में युद्ध हुआ, महाराज ने भी कुछ घोड़े सहायता को भेजे। भटिण्डा, राजापुरा के बीच इनके समय में ही 100 मील लम्बी लाइन तैयार हुई। सार्वजनिक संस्थाओं को दान देने में आप बड़े उदार थे। आपने पंजाब विश्विद्यालय को 55000 रुपये, अमृत खालसा कॉलेज को 162000 रुपये, इम्पीरियल इन्स्टीट्यूट लन्दन को 30000 रुपये प्रदान किए थे।

1907 ई० में जब तक आपके पुत्र भूपेन्द्रसिंह बिलकुल नाबालिग थे, इस संसार से कूच कर गए। इनके बाद महाराज भूपेन्द्रसिंह जी गद्दी पर बैठे। इनका जन्म 1891 ई० में हुआ है। नाबालिगी के समय राज-कार्य एजेंसी-कौंसिल द्वारा होता रहा।

महाराज भूपेन्द्रसिंह

महाराज भूपेन्द्रसिंह (12 October, 1891 –23 March 1938) ने एटकिंसन चीफ कॉलेज लाहौर में शिक्षा पाई थी। सन् 1903 में जब कि कारोनेशन दरबार हुआ था, ग्रेण्डरिव्यू दिखलाने के लिए आप स्वयं अपनी फौज को अपने संचालन में ले गए थे। तत्कालीन वायसराय कर्जन के साथ आपकी मुलाकात भी उसी समय हुई थी। सम्राट जार्जपंचम से जबकि वह लाहौर पधारे थे, आपने भेंट की। यह घटना सन् 1905 की है। इसी समय आपने अमृतसर खालसा कॉलिज को एक लाख रुपये का दान इसलिए दिया कि उक्त कॉलिज के विद्यार्थी इस रकम से विदेशों में शिक्षा प्राप्त करें। सन् 1908 ई० में जींद के सेनापति की सुपुत्री के साथ आपका विवाह हुआ और 30 सितम्बर 1909 को जबकि आपकी अवस्था 18 वर्ष की थी, सरकार ने आपको शासनाधिकार प्रदान किए। आप क्रिकेट के खेल के बड़े प्रेमी थे। सन् 1911 ई० में भारतीय क्रिकेट टीम के आप कैप्टन बनकर लन्दन गये थे। पहलवानों की कुश्तियां देखने में आप अच्छी दिलचस्पी रखते थे। प्रसिद्ध पहलवानों को समय-समय पर आपने प्रोत्साहन दिया। जिस समय सम्राट पंचमजार्ज का अभिषेक हुआ तो उसमें आप भी पधारे। देहली के दरबार में भी सम्मिलित हुए। सम्राट् की ओर से इसी दरबार में आपको जी० सी० एस० आई० की उपाधि मिली। इसी दरबार में आपकी परम विदुषी महारानी-साहिबा ने सम्राज्ञी मेरी को अभिनन्दन-पत्र दिया। जिस समय जर्मनी युद्ध छिड़ा तो आप इम्पीरियल युद्ध-कान्फ्रेंस में भारत की ओर से प्रतिनिधि मनोनीत किए गए। इस युद्ध में सारी सेना आपने सरकार के सुपुर्द कर दी। युद्ध के दिनों में आपने पुर्तगाल, इटली, फ्रांस जहां-जहां युद्ध-क्षेत्र थे


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भ्रमण किया तथा वहां की सरकारों से सम्मानित हुए। आपकी इन महान् सेनाओं के उपहार में सम्राट् की सरकार ने आपको सी० ओ० बी० ई० की उच्च पदवी से विभूषित किया। पहले आपके बुजुर्गों को शाही दरबार में नजर देनी पड़ती थे, किन्तु इन सेवाओं के कारण नजर लेना सदैव के लिए सरकार ने बन्द कर दिया। मेजर जनरल की रेंक का सम्मान भी आपको प्राप्त हुआ। पहले आपके पूर्वजों के लिए 17 तोपों की सलामी थी। आपको 19 तोपों की कर दी गई। गत अफगान-युद्ध में भी आपने ब्रिटिश-सरकार की पूरी सहायता की। पटियाला नगर में आपने गर्ल-स्कूल, लेडी हार्डिंग गर्ल पाठशाला और विक्टोरिया मेमोरियल पूअर-हाउस आदि संस्थाएं स्थापित की थीं। विक्टोरिया मेमोरियल पूअर-हाउस में 8000 रुपये व्यय किए। शहर की सफाई के लिए भी महकमा-सफाई स्थापित कर दिया।

राज्य में 5 निजामतें थीं - करमगढ़, अमरगढ़, अनहदगढ़, महेन्द्रगढ़ और मिजोर। राज-संचालन के लिए चार विभाग थे - अर्थ-विभाग, वैदेशिक विभाग, न्याय विभाग और सेना-विभाग। राज्य की आमदनी मालगुजारी के सिवाय रेलवे, स्टाम्प, एक्साइज-ड्यूटी, इर्रीगेशन वर्क्स आदि से होती थी। पटियाला के प्रधान न्यायालय का नाम सदर कोर्ट था। फांसी के सिवाय दीवानी, फौजदारी के उसे कुल अधिकार प्राप्त थे, फांसी का हुक्म महाराज देते थे। पटियाला में बहुत से जमींदार थे जो भादोड़ कहलाते थे। इन जमींदारों की वार्षिक आय लगभग 70 हजार थी। सामान्य गांवों के जमींदारों को भी राज्य से 90,000 रुपये प्रतिवर्ष दिए जाते थे।

महाराज ने अब तक निम्न भांति संस्थाओं को दान दिया था -

  • मिंटो मेमोरियल फंड 5000 रुपये,
  • विक्टोरिया मेमोरियल हॉल 10,000 रुपये,
  • कांगड़ा रिलीफ फंड 10,000 रुपये,
  • किंग एडवर्ड मेमोरियल 20,000 रुपये,
  • खालसा कालेज अमृतसर एण्डोमेण्ट फंड 60,000 रुपये,
  • लेडी हार्डिंग मेमोरियल 125000 रुपये,
  • लेडी हार्डिंग मेडिकल कालेज 200,000 रुपये,
  • सिख कन्या महाविद्यालय फिरोजपुर 10,000 रुपये,
  • सिख धर्मशाला लन्दन 120,000 रुपये,
  • तिबिया कालेज देहली 25000 रुपये,
  • हिन्दू यूनिवर्सिटी बनारस 500,000 रुपया एकमुश्त और 20,000 रुपया प्रतिवर्ष,
  • युद्ध-सम्बन्धी सहायता 1,50,00000 रुपये और
  • प्रजा से संग्रह करके युद्ध-ऋण में 3,50,000 रुपये।

महाराज का उपाधि सहित नाम इस तरह था - मेजर जनरल सर भूपेन्द्रसिंह महेन्द्र बहादुर G.C.I.E. G.C.S.I. G.C.B.O. महाराजाधिराज। आप कई वर्षों नरेन्द्र-मंडल के चांसलर रहे। पिछली गोलमेज कान्फ्रेंस में भी आप पधारे थे। संघ-शासन में राजाओं के अधिकार दिलाने के लिए आपने कई स्कीमें पेश कीं। इससे चार-पांच वर्ष पहले भी बटलर-कमीशन


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बिठवाने में आपने पूरी कौशिश की थी। भारत के राजनीतिज्ञों में आपका बहुत ऊंचा स्थान था।

सन् 1927 ई० में कुछ कुचक्री लोगों के परामर्श से आपने जाट से राजपूत होने का नाटक भी किया था। किसी हाथीभाई नामक पंडित ने आपका संस्कार किया। इतने चतुर महाराज ने इस अपमान को न मालूम किस कारण से सम्मान समझा कि उनका एक तरह का शुद्धि-संस्कार अथवा प्रायश्चित कराया गया। कुछ लोग इस जाति-परिवर्तन को रहस्य और कुछ लोग महाराज की भावुकता के नाम से याद करते थे। बहुत संभव है महाराज राजपूत बनके यह समझते होंगे कि मैं जाटों से अलग हो गया, किन्तु जाटों में ऐसा कोई भी आदमी नहीं है जो उन्हें अलग समझता हो और समझें भी कैसे जब कि उन्होंने पटियाला राज्य-स्थापना के लिए तथा महाराज के बुजुर्गों की मान-रक्षा के लिए अपने रक्त की नदियां बहाई थीं। जिन भट्टी राजपूतों से वे मिले थे, उनसे फरीदकोट और पटियाला की रक्षा के लिए न मालूम कितनी बार युद्ध करना पड़ा था। यह तो सिर्फ उनका भ्रम था कि भट्टी जाट, भट्टी राजपूतों में से निकले हैं। इसका विवेचन हम पीछे कर चुके हैं।

फरीदकोट राज्य

फरीदकोट राज्य का झंडा
Faridkot State Stamp 1879

इसका विस्तार 643 वर्ग मील और जनसंख्या 150661 थी और वार्षिक आमदनी 18 लाख से ऊपर। अकबर के समय में जाटों ने इसकी स्थापना की थी। उस समय यह एक बड़ा राज्य बन गया था, किन्तु बाद में पड़ौसी राज्यों से छेड़छाड़ होते रहने के कारण इसका विस्तार घट गया।

फरीदकोट के राजा वराड़ वंशी जाट सिख थे। पटियाला और नाभा की तरह से इसका भी आदि पुरुष रावखेवा है। 'आईना' वराड़ वंश के मुसलमान लेखक ने भाटों की कथित बेसिर-पैर की बातों के आधार पर ही यहां का इतिहास लिखा है। रावखेवा के सम्बन्ध में जैसी बात कही जाती है, उसका स्पष्टीकरण हमने पटियाला के इतिहास में कर दिया है। अतः उस पर अब यहां प्रकाश डालने की आवश्यकता नहीं। हां, इतना बता देने में कोई पुनरुक्ति नहीं कि जिन जैसलमेर के भट्टी राजपूतों में भट्टी जाट अपना निकास बतलाते हैं, एक समय वे जैसलमेर के भट्टी भी उन्हीं रिवाजों के पाबन्द थे जिनके कि जाट हैं। यह संभव हो सकता है कि जाट से कोई भी समूह राजपूत हो गया हो, लेकिन यह बिलकुल असंभव है कि राजपूतों में से जाटों का कोई समूह हुआ हो क्योंकि कोई भी वस्तु उसमें से ही हुआ करती है जो पहले विद्यमान होती है। जाटों का अस्तित्व राजपूतों से लगभग 1500 वर्ष पहले पाया जाता है।

इस राज्य को सुव्यवस्थित रूप में लाने वाले सरदार कपूरसिंह जी थे और


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इनकी पूर्व राजधानी कोट कपूरा थी। इसमें सन्देह नहीं कि भट्टी राजपूतों ने इस राज्य को बड़ी मुश्किलों से पनपने दिया था। उनसे भी भयंकर भट्टी मुसलमान इसका अस्तित्व मिटाने वाले साबित हुए। यदि गृह-कलह से भी यह राज्य बचा रहता तो भी पंजाब में पहले नम्बर पर नहीं तो दूसरे पर अवश्य यह रियासत होती। सामाजिक मान इस राज्य का बहुत ऊंचा था। प्रजा-रंजन आरम्भ से लेकर अंत तक यहां के नरेशों का कर्त्तव्य रहा।


पंजाब के जाट सिखों, इस सर्वप्रिय राज्य के संस्थापकों और महावीरों का इतिहास, रावसिद्धजी से आरम्भ करके, वर्तमान महाराज फरजन्दई - सजालाकिशांई-जरात-ई - कैमरे हिन्द बराड़ वंशी राजा सर इन्द्रसिंह बहादुर तक का संक्षिप्त रूप से आगे के पृष्ठों में वर्णन किया जाएगा।

राव सिद्ध

रावसिद्ध ईश्वर भक्त आदमी थे और तत्कालीन सल्तनत के साथ वफादारी का व्यवहार करते थे। उस समय मध्यभारत में बहमनी वंश का शमसुद्दीन बादशाह राज करता था। उसने फीरोजशाह और अहमदखान को दुश्मनों से बचाने की गरज से जब सागर भेजा था तो वहां उस समय सिद्ध-शासक था, जिसने कि इन दोनों शहजादों को शरण दी थी, जैसा कि शमसुद्दीन बहमनी के किस्सों में लिखा है -

चनी गुफ्त सिद्ध वह फीदोजखां। नदांरम दरेग अजतूमाले व जान।
वकूशम कि औरंग के खुशखी। वह फर्र कलाह तू गिरद वकबी॥

मालूम ऐसा होता है कि आपत्ति के दिनों में सिद्ध और उसके खानदान के लोग मध्य-भारत में चले गये। कहा जाता है कि सिद्ध के छः लड़के थे -

1. भूरा - जिसने अपने बाप की जगह प्राप्त की,
2. डाहड़ - जिसकी औलाद महरवी जमींदार कहलाती है,
3. सूरा - जिसकी औलाद में से कुछ मुसलमान हो गए जो भटिण्डा और फीरोजपुर के गिर्द मौजूद हैं,

सिद्ध के नाम पर पंजाब के जाटों में एक बड़ा गोत है। आखिरी उम्र में सब सिद्ध तत्कालीन वीर-पुरुषों के समान लूट-पाट, डकैती करने लग गए थे। शेष तीन लड़के रूपाज, महां, वप्या थे।

राव भूर

अपने बाप सिद्धू के बाद ये भी वही धन्धा करते रहे। लेकिन इन्हें भट्टियों से सामना करने में अधिक समय बरबाद करना पड़ा। इनके लड़के का नाम भय्यासिंह अथवा वीरसिंह था। भय्यासिंह बहुत दिन तक जिन्दा रहा लेकिन थोड़े ही अरसे में वीर का लकव हासिल कर लिया। इसके दो लड़के थे

(1) तिलकराव और

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(2) सतराज या सतीरसिंह।

तिलकराव ने दुनिया से विरक्तता धारण कर ली और वैरागी हो गया। सतराज ने बाप की जगह सम्भाली और जंगली कौमों को इकट्ठा करके भट्टी राजपूतों के ऊपर चढ़ाइयां कीं। एक लड़ाई में भट्टियों के द्वारा मारे गए। सतराज के मारे जाने के बाद भट्टी राजपूतों ने सिद्धू जाटों को बहुत तंग किया। यहां तक कि जो तिलकराज जंगल में पूजा करता था, उसको भी कत्ल कर डाला। कहते हैं कि तिलकराज का धड़, हाथ में तलवार लेकर दुश्मनों को बहुत देर तक काटता रहा। फरीदकोट राज्य में महमां-राज के गांवों में तिलकराज की समाधि बनी है, जिस पर सालाना मेला लगता है। सतराज के बड़े लड़के का नाम गोलसिंह अथवा चड़हटाता था। भट्टी राजपूतों से भी इनकी लड़ाइयां जारी रहीं, कभी चैन से बैठना न हुआ। गोलसिंह के लड़के का नाम महाचे या माह था। माह के अनेक लड़कों में से बड़ा लड़का हमीरसिंह था। हमीरसिंह के लड़के का ही नाम बड़ार था।

राव वराड़

राव वराड़ - खानदान फरीदकोट राव वराड़-वंशी कहलाता है। राव वराड़ को अनेक लड़ाइयां लड़नी पड़ीं। फक्करसर, थहड़ी, कोट लद्धू आदि स्थानों की लड़ाइयों में आखिरी लड़ाई कोट लद्धू की थी। इन लड़ाइयों से वराड़ की नामवरी बहुत दूर-दूर तक फैल गई। इनके पैतृक शत्रु भट्टी राजपूत ही माने गये थे। लेखकों ने राव वराड़ के दो लड़के बताए हैं -

(1) राव दुल - संस्थापक खानदान फरीदकोट और
(2) राव पौड़ - संस्थापक पटियाला, नाभा, जींद

राव दुलसिंह

आपने अपने बाप की रियासत पर कब्जा किया। राव पौड़ जिसे कि गलती से सर लेपिल ग्रिफिन ने राव दुल से बड़ा माना है, ने अपने भाई से बगावत कर दी, लेकिन सफल न हुआ। दक्षिण-पश्चिम की ओर चला गया। उसकी औलाद में पुश्तों तक तंगी रही, मगर सोलहवीं सदी में चौधरी संघहर और उसके लड़के डेरम ने मुसलमान सल्तनत की खिदमत करके अपनी हालत यहां तक सम्भाल ली थी कि आज उसकी सन्तान के हाथ में पटियाला, नाभा, जींद जैसी रियासतें आ गईं।

राव दुलसिंह अगरचः भाई की बगावत और गृह-युद्ध से कमजोर हो गए थे, मगर फिर भी उन्होंने भट्टी राजपूतों के साथ युद्ध करने से मुंह न मोड़ा और कई मैदान जीते। इनके चार लड़के थे -

(1) विनयपाल, (2) सहनपाल, (3) खनपाल (4) रतनपाल

यह रियासत 'विनयपाल' को मिली। विनयपाल ने भटिण्डा पर कब्जा किया, लेकिन यह कब्जा स्थायी नहीं रहा। इनके बाद इनके इकलौते लड़के अजीतसिंह को अपनी तमाम जिन्दगी बगावतों के दमन करने में बितानी पड़ी। अजीतसिंह के चार लड़के थे -

(1) मानकसिंह जो बलीअहद बने,

जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-440


(2) दूधा, (3) कूंलों, (4) हिन्दू।

मानिकसिंह के समय में इनकी रियासत घाघर नदी से सतलज के बीच के इलाकों पर अवस्थित थी, लेकिन उसका पूरा इन्तजाम नहीं हो सका। इनके सात लड़के थे -

(1) टेंडासिंह युवराज,
(2) फूखर - इनकी औलाद वाले खूखर कहलाते हैं,
(3) खंखी - इसकी औलाद कसवा बरनाला इलाका पटियाला में है,
(4) पक्खू - इसकी औलाद मौजा पक्खू इलाका भटिण्डा में है,
(5) सल्लू - इसकी औलाद का कुछ पता नहीं है,
(6) बाहिना - इसकी औलाद पूरब में गंगा किनारे आबाद था,
(7) कन्हैया - इसकी औलाद इलाका माझ में रहती है।

मानिकसिंह के स्वर्गवास होने के बाद टेंडासिंह गद्दीनसीन हुआ। इनके पांच लड़के हुए -

(1) आसीसिंह युवराज
(2) बासीसिंह, इसकी औलाद जमुना किनारे चली गई,
(3) हिन्द
(4) मुद, कहा जाता है कि कसबा मुदकी इसी के नाम पर आबाद हुआ था।
(5) कृपाला, इसकी औलाद धौलपुर की तरफ रहती थी।

टेंडासिंह के मरने के बाद उनके बड़े लड़के आसीसिंह ने अपने मौरूसी मुल्क पर कब्जा किया। इनके जमाने में भी लड़ाई-झगड़े होते रहे और उन्हें टिक कर बैठने तक मौका नहीं मिला। इनके स्वर्गवास होने पर इनका लड़का धीरसिंह गद्दीनसीन हुआ। बाहर से आने वाले लोगों की भी तरफदारी की। इनके तीन लड़के हुए -

(1) फत्तू, (2) काला, (3) मुल्क।

फत्तू ने जब अपने बाप का राज्य पाया तो हमेशा पठानों का साथ देता रहा। इस तरह से अपने राज्य की रक्षा भट्टी आदि लोगों से करता रहा। इनके चार बेटे हुए -

(1) संगर, (2) लंगर, (3) सहनू, (4) लहबू।

संगरसिंह जिस समय गद्दी पर बैठे थे, उस वक्त बादशाह बाबर (1483 – 1530) का जमाना था। संगरसिंह का कायम मुकाम चक्कर या चक्कर के कोट कपूरा में था। संगरसिंह बहुत से मवेशी रखते थे, जिनकी तादाद कई हजार थी और इस मवेशी के कई गिरोह थे।

बादशाह बाबर से मुलाकात - बादशाह बाबर (1483 – 1530) भी एक बार इस चक्कर के जंगल में शिकार खेलने आया। संगरसिंह के गौकरों ने बादशाह का, जब कि वह धूप से बहुत प्यासा था, सत्कार किया। बस इसी कारण संगर और बादशाह में मुलाकात हो गई। इस शाही मुलाकात से संगरसिंह और उसकी औलाद ने काफी लाभ उठाया। जब हुमायूं और शेरशाह सूरी में लड़ाई हुई उस समय संगरसिंह ने हुमायूं की सहायता की। इनके जमाने में जितनी भी जमीन उनके कब्जे में थी, उस पर बहुत ही कम महसूल लिया जाता था जो कि नहीं के बराबर था। सारी प्रजा के लोग लड़ाई के वक्त में सेना में भर्ती हो जाते थे। जंगली कौमों का गिरोह जो इनकी हिमायत में आता, वह हर तरह तसल्ली पाता था। संगरसिंह के दो रानियां थीं - एक विवाहिता, दूसरी करेवा की हुई। विवाहिता रानी के आठ बेटे थे -

(1) भुल्लन, (2) लालसिंह, (3) जोधासिंह, (4) चौधासिंह, (5) घूरीसिंह, (6) औगरसिंह, (7) ज्ञानसिंह, (8) दैवसिंह।

दूसरी रानी जो कि इनके छोटे भाई की विधवा थी


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-441


और इन्होंने भाई के लड़ाई में मारे जाने के बाद उसके साथ विवाह कर लिया था। उसके छः लड़के हुए -

(1) सूरतसिंह, (2) रजादसिंह, (3) यक्कू, (4) पीरू, (5) रावल, (6) नन्द।

भुल्लनसिंह

इसमें से अधिकांश हुमायूं के साथ लड़ाई में मारे गये। संगर के बाद इनके लड़के भुल्लनसिंह राज्य के मालिक हुए। उस समय अकबर (1542 – 1605) का जमाना था।

भट्टियों और वराड़ों की लड़ाई - भट्टी लोग धीरे-धीरे इनके राज्य को दबा रहे थे। एक भट्टी राजपूत ने अपनी लड़की अकबर को ब्याह दी थी और यह मुसलमानी हो चुकी थी। इस भट्टी सरदार का नाम मंसूरखां था। यह जब लड़ाई में भुल्लन से फतहयाब न हुए, तो इसने आगरे जाकर बादशाह अकबर से सहायता चाही। इस खबर को सुनकर भी कुछ थोड़ी सी फौज लेकर आगरे पहूंचे। दोनों ने अपने राज्य के सरहदबंदी के दावे अकबर के सामने पेश किये। लेकिन अकबर ने कोई फैसला न करके विश्वास दिलाया कि तुम्हारे राज्यों की फिर सरहद बांध दी जायेंगी। अकबर ने दोनों को खिलअत और खस्ताने अता किये। इस समय मंसूरखां ने भुल्लन को नीचा दिखाने की गरज से, खिलत में पगड़ी उठाकर अपने सिर पर बांधनी शुरू कर दिया। अकबर ने कहा - बस, तुम्हारा राज्य सम्बन्धी फैसला हो गया। तुम दोनों अपने राज्य को उसी तरह बांट लो कि जिस तरह तुम्हारे सिर पर पगड़ी मौजूद है। कहा जाता है कि पगड़ी दोनों के सिर पर बराबर निकली। इस फैसले के बाद दोनों सरदार अपने-अपने देश चले आए। आगे से समय-समय पर शाही सेवाएं करते रहे।

भट्टियों और वराड़ों की लड़ाइयों का कारण यह था कि देहली से चलकर घंघर नदी व बीच का प्रदेश भट्टियों ने दबा रखा था। वराड़ उसे अपनी पैतृक सम्पत्ति समझते थे, यही संघर्ष का कारण था। राजपूत भट्टियों का एक बड़ा हिस्सा मुसलमान हो चुका था, जिनका नायक मंसूर भट्टी जोरों पर था। उसने जाटों के इलाकों पर भी हाथ मारना शुरू कर दिया था। इस पर वराड़ जाटों ने पूरी ताकत के साथ मंसूरखां पर हमला किया। मौजा बलूआना (स्टेट पटियाला), मौजा दयून (स्टेट फरीदकोट) पर लड़ाइयां हुईं। यह लड़ाई बहुत दिन तक हुई। मंसूरखां के लड़के फतहखां, आलमखां इन लड़ाइयों में काम आए। वराड़ों के दो सरदार हेवतसिंह, जल्ला लड़ाई में मारे गये। दोनों ओर से हजारों आदमियों का नुकसान हुआ। विजय वराड़ जाटों के हाथ रही। वराड़ों ने भट्टियों की बस्तियों को उजाड़ डाला और मंसूरखां भाग कर रानिया को चला गया।

मंसूरखां के साले का नाम वाजा था। इसके पास लाखों ऊंट और मवेशी थीं। तीन चीजें और मशहूर थीं - (1) बेम्ब या टमक, (2) नकरा रंग की घोड़ी और (3) सहीनी सांग। एक समय जब कि वाजा नमाज पढ़ रहा था तो वराड़ जाटों ने उसके गांव पर हमला करके इन तीनों चीजों को छीन लिया। मंसूरखां भी चुप


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-442


नहीं बैठा, वह जब मौका पाता वराड़ों के इलाकों पर हमला कर देता और चट भाग जाता। एक समय वह मौजा मदरसे से जो कि फीरोजपुर में है, रानिया जा रहा था तो खतराना के मुकाम पर वराड़ों ने उसे घेर लिया। दोनों ओर से लड़ाई हुई। मंसूरखां मारा गया। मंसूरखां के मारे जाने की खबर अकबर के यहां पहुंची तो उसने कोई ध्यान नहीं दिया, क्योंकि ज्यादती मंसूरखां की ओर से थी। दूसरे, वराड़ लोग अकबरी सेना की सहायता किया करते थे।

राठौर राजपूतों से लड़ाई - लूटमार करने और राज्य बढ़ाने में वराड़ खूब जोरों पर थे। कहा जाता है कि एक बार उनका एक दल जिसमें नौ सौ सिपाही थे, मुहीम से लौटता हुआ मौजा धनौर पहुंचा जो इस वक्त मौजा बीकानेर में है। वहां इस दल को मालूम हुआ कि मौजा पूगल के रकबा से एक खेत के दरम्यान, राठौर राजपूतों की नौजवान लड़की हजारों रुपये का जेवर पहने हुई तन तनहा एक टाण्ड बनाए दिन रात बैठी रहती है। राठौर इनके शत्रु थे, ख्याल हुआ कि रास्ते में इस औरत को लूटते जायें। सब के सब इस खेत की तरफ हुए। जब औरत के पास पहुंचे तो कहा - “तुम लोग तो बहादुर और जवान मर्द कहलाते हो। घोड़े, मवेशी लूटते हो न कि आदमी। मैं औरत जात हूं। बेवजह मुझ पर हमला करना मर्दानिगी नहीं है। तुम मेरे साथ दो बातें कर लो, फिर चाहो जो करना।” सारे बहादुर उसकी तरफ ध्यान देकर सुनने लगे तो उसने कहा कि - तुम नौ सौ बहादुर हो और मेरे गोपिये के ग्यारह सौ गुलीले इस समय मौजूद हैं। मेरी निशानाबाजी की आजमाइश कर लें। यदि इसमें तुम्हें मेरा कमाल दिखाई दे तो मुझे अपनी शरण में ले लो। दल के लोगों ने उसकी बात की जांच के लिए नौ सरदारों को चुनकर उसके सामने खड़ा किया और कहा कि - इनके नेत्रों से ठीक बीच में निशाना लगाओ और उसने निशाने ठीक लगाये। वराड़ सरदारों ने उसके कमाल को मान लिया और उसे शरण में ले लिया। उससे पूछा कि तुम नौजवान सुन्दरी हो फिर इस तरह जंगल में क्यों बैठी रहती हो? उस सुन्दरी ने कहा कि मैं विवाह होते ही विधवा हो गई हूं, जिन्दगी का लुत्फ तनिक भी नहीं मिला। मेरे ससुराल और मायके वाले कौमी रस्म के लिहाज से करेवा नहीं करते और मेरी इच्छा करेवा (पुनर्विवाह) करने की है क्योंकि छिपकर पाप करना मैं बुरा समझती हूं। मैं इस जगह अपने पल्ले का मर्द ढ़ूंढने की इच्छा से बैठी रहती हूं। सरदारों ने उससे कहा कि - हम में से तुझे जो भी मंजूर हो, उसी के साथ करेवा कर ले। सुन्दरी ने स्वीकार करते हुए कहा कि - आप लोग एक-एक करके मेरे आगे से निकलिये, जिसे मैं पसन्द करूंगी अपना पति बना लूंगी। सरदार एक-एक करके उसके आगे से गुजरे। उसने उनमें से रावदल के लड़के रतनपाल को पसन्द किया। साथ ही उससे वचन लिया कि सरदार जी! यदि मेरे वारिश तुम्हारा पीछा करें और तुम कदाचित उन्हें जीत न सको तो मुझे मार डालना, क्योंकि मैं उनका मुंह नहीं देखना


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चाहती हूं। सरदार रतनपाल ने स्वीकार करके उसको अपने पीछे घोड़े पर बिठा लिया। राठौरों को खबर लगी तो मुकाबले को आये किन्तु वराड़-वंशी जाट वीरों ने उन्हें मार कर भगा दिया। मौजा अबलू में पहुंचने पर समय पाकर इस सरदारिनी के एक लड़का पैदा हुआ जिसका नाम हरीसिंह रक्खा गया। फिर सरदारिनी मय-बच्चा के पंजगराई में आ रही। हरीसिंह सदैव अपनी कौम के - जाट सरदारों - के साथ युद्ध में शत्रुओं से लड़ने के लिए जाया करता था।1

भुल्लनसिंह की सरदारी के दिनों में इतनी जमीन आ गई थी, जो आज इलाका कोटकपुरा, इलाका फरीदकोट, इलाका माड़ी, इलाका मुदकी और इलाका मुक्तेश्वर के नाम से मशहूर है। इतने बड़े खुदमुख्त्यार सरदार तत्कालीन बादशाह को भेंट स्वरूप कुछ रुपया दिया करते थे। लकब चौधरी के नाम से प्रायः ऐसे सरदार पुकारे जाते थे। सरदार भुल्लन ने अकबर से लेकर शाहजहां के समय तक के जमाने को देखा था। वे शाही इमदाद में अपने सैनिकों समेत जाते थे। आखिर शाहजहां की सहायता में जब कि बुन्देलखण्ड में युद्ध हुआ, अपने भाई लालसिंह समेत मारे गये भुल्लन के कोई संतान न थी।

कपूरसिंह

भुल्लनसिंह के छोटे भाई के एक लड़का था, जिसकी उम्र उस समय केवल 6 या 7 वर्ष की थी, नाम उसका कपूरसिंह था। यह छोटा रईस अपने बाप-दादों की जागीर की क्या रक्षा कर सकता था? पारिवारिक जनों ने भी इस बात के साथ कोई सहानुभूति का व्यवहार न किया। जिसके मन में जहां आया इलाके में लूटमार करके गुजारा करने लगा। शाही टैक्स का जो देना होता था, वह भी शेष रहने लगा। पटियाला वाले भी इलाके में हाथ मारने लगे। इस बच्चे का कोई अपना न था, किन्तु उसकी ताई और मां उसका बड़ी सावधानी से लालन-पालन कर रही थीं। मवेशी और नौकर काफी रख छोड़े थे, इनके सहारे खान-पान चलता था। जब बच्चा नौजवान हुआ तो जंगल में शिकार खेलने लगा। सैनिक बनने के सारे साधन उसे प्राप्त थे। साधु-सन्तों की भी खूब सेवा करते थे। एक समय गुरु हरराय पंजगराई में पधारे। अन्य लोगों ने भी उनका सत्कार करना चाहा, पर वह सरदार कपूरसिंह के घर पर ही ठहरे और कपूरसिंह की महमानदारी से बहुत खुश हुए तथा दुआ भी दी।

कई वर्षों का जब शाही टैक्स न चुका, तो सूबेदारों ने उन लोगों पर तकाजे किये। जगह-जगह सरदार बनने की कौशिश कर रहे थे तो उन्हें होश हुआ और उन्होंने यही उचित समझा कि “हमारा सरदार तो कपूर है, वही सरदारी कर को चुकायेगा, वही किसानों से वसूल करेगा।” पहली बार जब कपूरसिंह के पास शाही टैक्स के चुकाने का आया तो उन्होंने नाबालिगी के कारण बताकर मुहलत ले ली। दूसरी बार तकाजा आने पर शाही मदद से उन्होंने चौधरायत संभाल


1. 'आइना वराड़-वंश'। जिल्द 3, पेज 96, 97, 98


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ली। शाही टैक्स चुकाने के बाद, जहां-तहां रहने को गढ़ियां बनवाईं।1 कुछ दिनों के बाद कोट ईसांखां के हाकिमों की तथा सूबेदार की सिफारिशों के होने के कारण बादशाह ने इनको कुछ इलाके की चौधरायत की सनद दे दी और खिलअत भी दे दी।

इस वक्त की सल्तनत ने जो चौधरायत का मंसब मुकर्रर कर रक्खा था, वह अपने शाही टैक्स वसूल करने में आसानी का एक जरिया था। वरना अपने इलाकों में शाही अख्त्यार वाले हाकिम थे, उनकी हुकूमत के अन्दरूनी मामलातों में दखल नहीं देते थे। सल्तनत उनके अधिकार में जो इलाके स्वीकार करती थी, उनकी बाबत कोई टैक्स मुकर्रर कर दिया जाता था, जिसका नियत समय में सरकारी खजाने में दाखिल होना जरूरी था। ये हिस्सेदारी शाहजहां के अहद से हुई थी। इसके पहले की सल्तनत लड़ाई के समय में मदद लेती थीं।

जब कपूरसिंह को इधर-उधर के झंझटों से फुरसत हुई तो उन्होंने अपनी राजधानी बनाने की फिक्र की। भाई भगत की सलाह से कोट कपूरा को आबाद किया और आसपास के मुकामातों से लोगों को बुला करके बसाया। धर्मकोट, कसूर, पटियाला, लाहौर, जगराम से हर एक पेशे के कारीगरों को वहां बुलाकर आबाद किया। कोट कपूरा में बहुत जल्द रौनिक बढ़ गई। इर्द-गिर्द जो कौमें थीं, कपूरसिंह ने उनसे मेल-जोल बढ़ाया और अपनी रिआया के साथ में नेकी का वर्ताव करने लगे। इन दिनों में वहां गुरु गोविन्दसिंह पधारे। सरदार कपूरसिंह ने उनकी खूब खातिर की। गुरु गोविन्दसिंह उन दिनों औरंगजेब के साथ छेड़-छाड़ में लगे थे। उन्होंने कोटकपूरा को अपने सिक्खों की रक्षा के लिए मांगा। कपूरसिंह ने यह कह कर मना कर दिया कि मेरा अहद सल्तनत के साथ हो चुका है, इसलिए मैं आपको नहीं दे सकता हूं। इस पर गुरु साहब ने कपूरसिंह को समझाया कि जिन लोगों की मदद करते हो, उन्हीं के हाथों से मारे जाओगे।

कपूरसिंह की ईसाखां द्वारा धोखे से हत्या - कपूरसिंह को घोड़े लड़ाने का बड़ा शौक था। घड़ियाला के स्थान पर उन्होंने घोड़ों की छावनी बनाई थी। ईसाखां का हाकिम घोड़ों की बढ़ती को देखकर कपूरसिंह से भीतर ही भीतर जलने लगा। फिर वह जलन यहां तक बढ़ती गई कि जिस समय मुगल सल्तनत की अवनति के दिन आये - औरंगजेब इस मुल्क से चल बसा - उस समय ईसाखां और कपूरसिंह के सम्बन्ध कतई टूट गए। आखिरकार कपूरसिंह के मारने के लिए ईसाखां ने एक जाल रचा। यह समझता था कि कपूरसिंह साधुओं पर अन्ध-भक्ति


1. घघर नाम की कौम के सरदारों ने अत्याचारी भट्टियों के मुकाबले पर मिटने से पहले अपनी समस्त सम्पत्ति कपूरसिंह के यहां अमानत में रख दी थी, जो कि घघरों के भट्टियों द्वारा नाश होने पर कपूरसिंह के जन-हितकारी कामों में खर्च आई। “आइना वराड़ वंश”, पे० 117-118-119-120।


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रखता है, इसलिए उसने कुरहान नाम के फकीर को दावत देने के लिए भेजा। फकीर ने विश्वास दिलाया कि आपके साथ किसी प्रकार का छल-कपट न होगा। कपूरसिंह फकीर के दम-दिलासों में आकर कोट ईसाखां में आ गया। वहां उनकी बड़ी आवभगत की गई। कई दिन की मेहमानदारी के बाद ईसाखां ने इन्द्रिया नामक मौजे में मुलाकात के बहाने बुलवा कर जब कि वह और डूड दो ही जीव थे, पकड़वा कर बबूल के पेड़ पर लटकवा दिये और दूसरे दिन फांसी से उतरवा कर संस्कार कर दिया।

यह दुःखदाई समाचार जब कोटकपुर में पहुंचा तो सरदार के खानदान में भारी अशान्ति छा गई। इनके तीन लड़के -

(1) शेखासिंह (2) मेखासिंह और (3) सेनासिंह बदला लेने पर उतारू हो गए।

शेखासिंह

इनमें सेनासिंह ज्यादा दिलावर था। ये आए दिन फौज इकट्ठी करते और ईसाखां पर हमला बोलते। बदला लेने की इन्हें ऐसी धुन सवार हुई कि रियासत के इन्तजाम की भी सुध भूल गए। यहां तक कि बाप की जगह जांनसीनी और राजतिलक की रस्म की भी सुध न रही। दिन-रात उसी धुन में रहते कि ईसाखां की कमर तोड़ कर, उसका चुल्लू भर खून पीकर, उसके दिल के अरमान निकालें। बारह-तेरह वर्ष तक बराबर लड़ाई होती रही। इस लम्बे अरसे में शेखासिंह ने हिसार के सूबेदार से दोस्ती पैदा कर ली और उसको ईसाखां के खिलाफ भड़का कर अपने पक्ष में कर लिया। हिसार के सरदार ने जिसका नाम सहदादखां था, दिल्ली के बादशाह से इस बात का अहद प्राप्त कर लिया कि ईसाखां को दण्ड दिया जाए। लाहौर के सूबेदार ने भी अपनी फौज सहदादखां के पास सहायता के लिए भेज दी। सहदादखां ने सेनासिंह की मारफत ईसाखां को ललकारा। ईसाखां के पास लड़ाई के लिए काफी फौज थी। सहदादखां और इसाखां की फौजें प्रदाद में पहुंच गईं। खडियाल को जीतने के बाद कोट ईसाखां पर हमला किया गया। दोनों तरफ बराबर फौजें थीं। दोनों ओर से घमासान लड़ाई हुई। कहते हैं कि जोधा की औलाद के कुछ लोग मैदान छोड़कर घरों को भाग गए, लेकिन उनकी औरतों ने उनको बड़ा शर्मिन्दा किया और धिक्कारा। कहते हैं कि एक नौजवान सरदार अपना मुकलावा करके लाया। उसकी मां को उदास देखकर पूछा। मां ने कुल हाल अपनी उदासी का कहा कि ऐसे मर्दों से तो औरत अच्छी हैं। इस नौजवान का नाम पदारथसिंह था। मां की ऐसी बातें सुनकर उसका खून खौल उठा। वह मुकलावा की सारी खुशी भूल गया। हथियार बांध, घोड़े पर सवार हो सीधा युद्ध-क्षेत्र की ओर चल दिया। वहां जाकर बड़ी भारी बहादुरी दिखलाई। यह लड़ाई तीन दिन तक होती रही। हजारों आदमियों की लौथों से जमीन पट गई। ईसाखां हाथी पर सवार होकर सेनासिंह के सामने हाथी की तरफ बढ़ा। सेनासिंह की बगल में सहदादखां था और ईसाखां का मददगार था। जुमलेखां को सहदादखां ने बढ़कर मार डाला। सरदार सेनासिंह ने हाथी को बढ़ा कर आगे


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किया और खुद फुरती से कूदकर ईसाखां के ओहदे में जा पहुंचा। तलवार के एक हाथ में ईसाखां का सिर काट दिया। दाहिने हाथ से चुल्लू भर लोहू पीने लगा लेकिन साथियों ने कहके बन्द कर दिया। ईसाखां की फौज भाग निकली। किले शहर पर वराड़ का कब्जा हो गया। कुछ इतिहासकारों ने ईसाखां की यह लड़ाई सन् 1715 ई० बअहद फर्रुखशियार बादशाह के लिखी है।

शेखासिंह को राजगद्दी - इन तमाम लड़ाई-झगड़ों के बाद शेखासिंह को राजगद्दी हुई। जिन दिनों शेखासिंह ने अपनी हुकूमत संभाली, उन दिनों दिल्ली के तख्त पर मुहम्मदशाह रंगीला (1702-1748) बादशाह था। सरदार शेखासिंह ने सबसे पहला काम यह किया कि जो इलाके उनके दुर्भाग्य के दिनों में दुर्बल हो गये थे, उनको ठिकाने पर लाए। इसके बाद उन्होंने आबादियां बसानी आरम्भ कीं। एक गांव का नाम अपने ही नाम पर कोटसिखा रक्खा।

जोधासिंह, हमीरसिंह

शेखासिंह के दो रानियां बताई जाती हैं। बड़ी से जोधासिंह जी और छोटी से हमीरसिंहवीरसिंह जी का जन्म हुआ। नियम के अनुसार कोट कपूरा स्टेट की राजगद्दी जोधासिंह जी को मिली। जोधासिंह जी भाइयों के साथ प्रेम का व्यवहार करते थे, किन्तु दरबारी लोगों ने भाइयों में फूट का बीज बो दिया। इस फूट की बेल को सींचने का दरबारियों को एक और भी मौका मिल गया। ईसाखां के शाही कार्यकर्त्ताओं ने सरदार जोधासिंह जी को बुलावा भेजा था। उन्होंने वीरसिंह जी को ईसाखां के पास भेज दिया। वीरसिंह सैलानी-मिजाज के आदमी थे। शाही कर्मचारियों से मुलाकात करके इधर-उधर घूमते रहे। उन्होंने एक दिन नदी में जर्द रंग का मेंढक देखा। उसकी विचित्रता पर मुग्ध होकर वीरसिंह ने उसे हंडिया में बंद कर लिया और जब राजधानी में वापस आये तो ईसाखां के समाचार सुनाने के बाद जोधासिंह जी से कहा कि मैं आपके लिए एक बढ़िया सौगात लाया हूं। हंडिया खोल कर रखी गई। उसमें से मेंढक निकला। सरदार जौधासिंह ने वीरसिंह को फटकारा - पागल! यह क्या सौगात है? बस, दरबारियों को वीरसिंह के लिए भड़काने का साधन मिल गया। वीरसिंह नालायक दरबारियों की बहक में इतना आया कि खुल्लम-खुल्ला जोधासिंह को मारने की धमकियां देने लगा। इस पर जोधासिंह ने भाई वीरसिंह को कैद में डाल दिया और दरबारियों की राय से हमीरसिंह को आज्ञा दी कि वह दिन भर दरबार में रहा करें और रात को मौजा हरी में चले जाया करें। भाइयों को इस तरह दमन करने के बाद जौधासिंह निश्चिन्त अवश्य हो गये, किन्तु उन्हें अभिमान ने आ घेरा। वह अभिमान इस अनुचित तरीके तक बढ़ा कि पटियाला के राजा आलासिंह को भी वह हेय समझने लगे। अपने घोड़े का नाम आलासिंह और घोड़ी का नाम फत्तो (धर्मपत्नी आलासिंह) रख लिया। आलासिंह इस अनुचित अपमान का शीघ्र ही बदला लेने की चेष्टा करते, किन्तु उनके यहां भी बाप-बेटों में चल रही थी।


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सरदार जोधसिंह यहां तक राजधर्म से च्युत हुए कि उनकी जनता भी उनसे बिगड़ गई। उनके मुंह जोधसिंह नाम का सरदार लगा हुआ था। वह सर्वेसर्वा था। अन्य लोगों की बढ़ती को देखना यह कभी पसन्द नहीं करता था, न यह चाहता था कि सरदार के पास अन्य किसी की पहुंच हो। सैनिक विभाग में मुहरा नाम का सरदार भी अपनी पहुंच मालिक तक रखता था। नियम उन दिनों ऐसा था कि राजा को सरदार लोग किसी खास अवसर पर भेंट में घोड़ा दिया करते थे। मुहरा ने एक बछेड़ा भेंट के लिए पाल-पोस कर तैयार किया, किन्तु जोन्दा ने मुहरा की अनुपस्थिति में बछेड़े को जोधासिंहजी के वास्ते मंगा लिया। दरबार में जब मुहरा ने इस तरह घोड़ा मंगाने की शिकायत की तो जोन्दा ने मुहरा का और भी अपमान किया। करमां नाम का जाट सरदार भी मुहरा का साथी बन गया। प्रजाजन तंग आकर कोट-कपूरा को छोड़कर भागने लगे। निदान करमां की सलाह से, जोधासिंह को नेस्तनाबूद करने का षड्यन्त्र रचा गया। निर्णय यह हुआ कि हमीरसिंह को साथ मिलाया जाए, और उन्हें ही राज का मालिक बनाया जाए। हमीरसिंह भी इन लोगों के साथ विचार-विमर्श के बाद शामिल हो गये। निश्चय हुआ कि फरीदकोट के किले पर कब्जा कर लिया जाए। कब्जा किस प्रकार हो इसके साधनों को खोज निकालने का काम मुहरा के जिम्मे छोड़ा गया। फरीदकोट में उस समय एक थानेदार और कुछ सिपाही रहते थे। वहां प्रत्येक बृहस्पति को मेला लगता था। थानेदार मेले में आकर किले से बाहर चौसर खेला करता है। इस तरह उस दिन किला खाली रह जाता है। यह बात मुहरा को बैला फकीर से मालूम हो गई। इतनी बातें मालूम करने के बाद मुहरा ने Hamir Singh of Faridkot|हमीरसिंहजी]] को सलाह दी कि आप शिकार की तैयारी करके फरीदकोट पहुंचें और हमारे साथी सवार होकर किले के आस-पास जा पहुंचें। निदान ऐसा ही हुआ। मेले में थानेदार को किला दिखाने पर राजी करके हमीरसिंह मय साथियों के किले में घुस गए और अधिकार जमा लिया। लाचार थानेदार ने कोट-कपूरा खबर पहुंचाई कि हमीरसिंह ने धोखा देकर किले पर कब्जा कर लिया है। पहले तो जोधासिंह ने कुछ सेना किला खाली कराने को भेजी, किन्तु यह सेना कामयाब न हुई तो यह कहकर सन्तोष कर लिया - हमीरसिंह भाई है, वह ऐंठ बैठा है तो ऐसा ही करने दो। आखिर एक दिन खर्च-पानी से तंग आकर ठीक हो जायेगा। इधर हमीरसिंह निश्चिन्त होकर अपनी शक्ति बढ़ाने में लगे रहे। साथ ही अलग रियासत बनाने की सनद भी सूबा सरहिन्द से प्राप्त कर ली। इस तरह हमीरसिंह ने फरीदकोट1 की रियासत जोधासिंह से अलग कायम कर ली। कुछ दिन बाद जोधासिंह को पता


1. कहते हैं कि इस किले को राजा मोकलहर ने बनवाया था। फरीद नाम के फकीर के नाम से इसका नाम फरीदकोट रखा था।


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-448


चला कि हमीरसिंह बिना झगड़े-रट्टे के काबू में न आयेगा इसलिये खुद सेना लेकर फरीदकोट पर चढ़ाई की। कई महीने तक लड़ाई होती रही। इधर पटियाला वाले राज्य पर छापा मार के लूट-मार कर रहे थे, इसलिए जोधासिंह को वापस लौटना पड़ा। किन्तु लौटते ही उन लोगों के स्त्री-बच्चों को कैद कर दिया जो कि हमीरसिंह के साथ फरीदकोट चले गये थे और उसके साथी बन गए थे।

इस खबर को सुनकर हमीरसिंह और उसके साथी बड़े चिन्तित हुए। सलाह-मशविरा हुआ तो तय पाया कि जेल के अफसर मिट्ठा चूहड़ा से मिल-मिलाकर, कैदियों को छुड़ाया जाये क्योंकि दिल से मिट्ठा जोधासिंहजी का साथी नहीं है। कुछ आदमी मिट्ठासिंह के पास पहुंचे और उसे एक अंधेरी रात में हमीरसिंह के पास ले आए। हमीरसिंह ने प्रलोभन देकर मिट्ठा को इस बात पर राजी कर लिया कि वह अमुक दिन, रात के समय, कैदी स्त्री-बच्चों को बाहर निकाल देगा। उसने किया भी यही, जेल के पीछे की दीवार के सहारे सीढ़ी लगाकर उन कैदी स्त्री-बच्चों को बाहर निकाल दिया, जिनकी हमीरसिंह को जरूरत थी। किन्तु कुछ अभाग्यवश भूल से निकालने से रह भी गए। उनमें से कुछ को फांसी पर लटकाकर, कुछ को भूखा-प्यासा रखकर जोधासिंह ने मरवा डाला। इधर हमीरसिंह भी चुप नहीं बैठे थे। इधर-उधर पेंठ-गोठ मिलाने में कोई कसर बाकी न रख रहे थे। उन दिनों उनके नजदीक में निशानवालिया मिसल का जोर था। उसका एक सरदार मुकाम जीरा में रहता था। हमीरसिंह ने एक लाख रुपया देने का पैगाम सरदार मुहरसिंह जीरा के पास इस आशय से भेजा कि मिसल के लोग उसकी सहायता जोधासिंह के विरुद्ध करें। मुहरसिंह ने हमीरसिंह के साथियों को कन्हैया, भंगी और फैजुल्ला-पुरिया मिसल के सरदारों से मिलाया और उनका उद्देश्य भी बता दिया। मिसल वालों ने सहायता देना स्वीकार कर लिया। बहुत से सवार, पैदल तथा तोपखाना मुहरसिंह की कमान में देकर फरीदकोट को रवाना कर दिया। इस जबरदस्त सहायता को पाकर हमीरसिंह ने सरदार जोधासिंह पर चढ़ाई कर दी। उधर जोधासिंह भी अपनी सेना लेकर किले कोटकपूरा से बाहर निकल आया। दोनों भाइयों की फौजों में घमासान लड़ाई हुई। दिन भर हथियार खटकते रहे, दोनों ओर से हजारों आदमी मारे गए। यह युद्ध मौजा सिन्धुवां में हुआ। शाम के समय जोधासिंह की फौज पीछे को हट गई और किले में घुस गई। हमीरसिंह के साथियों ने मौजा सिन्धुवां को जी भर कर लूटा तथा बरबाद किया।

सरदार वीरसिंह भाई की जेल से रिहाई पाकर मुक्राम माड़ी को चला गया। जोधासिंह बड़ी घबराहट में था, कारण कि वह जानता था कि हमीरसिंह के सहायक मिसल वाले लोग बड़े कट्टर व बहादुर हैं। उनसे विजय पाना कठिन है। इसलिए जोधसिंह फिर किले से लड़ने को न निकला। इधर हमीरसिंह भी फरीदकोट को वापस लौट आये और मिसल वालों को काफी धन देकर विदा


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किया और अपने राज्य के बढ़ाने तथा शक्ति-संपन्न करने में जुट पड़े। वीरसिंह के साथियों ने उधर उसे समझाया कि माड़ी के इलाके को वह अपना मुल्क समझे और भाई उसके साथ छेड़-छाड़ करें तो मिसल वालों से मदद ली जाये। इस तरह से सरदार जोधसिंह तीन ओर से आफतों में फंस गये। पटियाला से शत्रुता, इधर दोनों भाई हमीरसिंह और वीरसिंह का घरेलू युद्ध। लेकिन यह अपनी गलती पर पछताने के बजाय हिम्मत के साथ आपत्तियों का मुकाबला करता रहा। हर ओर कसम-कश थी। हमीरसिंह अधिक उन्नति पर थे। उन्होंने अपने किलों की मरम्मत कराई। जगह-जगह की पुरानी खतरनाक गढ़ियों को मिसमार कराया। कोट करोड़ को कब्जे में करके उसके गढ़ को तुड़वा-फुड़वा डाला। कहा जाता है कि उसमें 35 तोपें और बहुत सा खजाना मिला, जो फरीदकोट लाये गये। बहुत से इलाके झोक, भक, धर्मकोट आदि अपने राज्य में मिला लिये। आबादी बढ़ाने की भी कोशिश की।

कुछ ही दिनों में सरदार जोधसिंह की शक्ति बहुत कम हो गई। उसके पास कोटकपूरा के अलावा केवल पांच ही गांव रह गये और राज्य तीन हिस्सों में बंट गया जिसमें से अधिकांश हमीरसिंह यानि फरीदकोट के पास रहा। सर लेपिल ग्रिफिन इसका कारण इस तरह से लिखते हैं कि - मिसल के जाट सिखों ने आकर हमीरसिंह और वीरसिंह का पक्ष लिया और रियासत को वे तीन हिस्सों में बांट गये, मांडी के आस-पास के गांवों का सरदार वीरसिंह को बना दिया। तीनों भाइयों को सिख-धर्म की दीक्षा (पोहिल) देकर मिसल वाले चले गये। “आइना वराड़ वंश” का लेखक लिखता है कि - हमीरसिंह ने खुद अपने बाहुबल से फरीदकोट के राज्य को बढ़ाया, जाट सिखों (मिसलों) के बल पर नहीं बढ़ा। बात इतनी अवश्य सही है कि हमीरसिंह को मिसल वालों से सहायता अवश्य लेनी पड़ी।

इतने पर भी लड़ाई-झगड़े मिटे नहीं थे। मौजा कोट सेखा पर दोनों भाइयों में फिर लड़ाई हुई किन्तु जोधासिंह को हार कर लौटना पड़ा। इन्हीं दिनों उसको सरदार जोन्दासिंह फरीदकोट वालों ने मार डाला और उसका सिर फरीदकोट में घुमाया गया। कुछ ही दिनों बाद अमरसिंह रईस पटियाला ने हमीरसिंह और वीरसिंह को अपने साथ मिलाकर कोट-कपूरा पर चढ़ाई की। दुर्भाग्य से उस समय जोधासिंह अपने पुत्र रणजीतसिंह या चेतसिंह1 के साथ हवाखोरी के लिए निकला हुआ था। दुश्मनों ने मौका पाकर उन्हें घेर लिया। सरदार जोधासिंह ने बड़ा डटकर मुकाबला किया, बहुतों को खत्म किया। अन्त में अपने लड़के समेत


1. 'वराड़ वंश' का लेखक इस लड़के को मुसलमान औरत के उदर से उत्पन्न लिखता है।


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-450


युद्धभूमि में सदैव के लिए सो गया। अमरसिंह इस जीत के बाद पटियाला को लौट गया। सरदार जोधासिंह का कोट-कपूरा में संस्कार हुआ, समाधि बनाई गई जो अब तक जोधा बाबा की समाधि के नाम से मशहूर है।

टेकसिंह

सरदार जोधासिंह के और भी दो पुत्र थे - (1) टेकसिंह और (2) अमरीक सिंह। बाप के मारे जाने पर टेकसिंह कोट-कपूरा का मालिक हुआ। टेकसिंह ने अपने बाप का बदला लेने के लिए जरूरी यही समझा कि अपने चाचा हमीरसिंह से तो मेल रखा जाय और पटियाले के नौकर मुस्लिम राजपूतों को दण्ड दिया जाय जिन्होंने कि उनके पिता को घेरकर मार डाला था। वे लोग जलालकियां के मौजों में रहते थे। दो चाचा-भतीजों ने उनके गांवों पर हमला करके उन्हें बहुत नुकसान पहुंचाया। इसके बाद चचा-भतीजे बड़े प्रेम से रहने लगे। टेकसिंह हफ्तों फरीदकोट में रहता और अपने चचा के साथ पासा खेला करता। मालूम यह होता था मानों इनके दिलों में पिछली बातों का कोई रंज नहीं है। किन्तु हमीरसिंह के दरबारियों को यह मेल-मुहब्बत खटका और उन्होंने हमीरसिंह को सुझाया कि - आपने जिसके बाप के साथ दुश्मनी की, उसी से मेल बढ़ाते हो। याद रखिये आपको टेकसिंह कभी भारी नुकसान पहुंचायेगा। चाहिए तो यह कि उसे कमजोर कर दिया जाय। हमीरसिंह को ये बातें पसन्द आईं। दूसरे दिन उसने पाशा खेलते समय भतीजे को गिरफ्तार करा लिया। जब यह खबर कोट-कपूरा पहुंची तो भाई की गिरफ्तारी से अमरीकसिंह बड़ा नाराज हुआ। उसने किले की मरम्मत कराई और लड़ाई की भी तैयारी करने लगा। इधर हमीरसिंह ने मौके से पहले ही कोट-कपूरा पर चढ़ाई कर दी किन्तु सफलता न मिली और उसे वापस लौटना पड़ा। कुछ दिनों के बाद फुलकियां सरदारों के कहने-सुनने से हमीरसिंह ने टेकसिंह को छोड़ दिया। इन झगड़ों से प्रजा में बेचैनी और बदअमनी भी फैली। टेकसिंह बेचारे के भाग्य में सुख कुछ भी न बदा था। उसके इलाके में दुश्मन आकर लूटमार करते थे, प्रजा लगान देने से इनकार करती थी और सबसे बड़ी घटना जो हुई वह यह थी कि टेकसिंह को उसी के लड़के जगतसिंह ने उसके रहने के मकान में आग लगवा कर जिन्दा जला दिया। यह घटना सन् 1806 ई० की है।

इस तरह पितृहंता जगतसिंह कोट-कपूरा की रियासत पर काबिज हुआ। जगतसिंह के और भी तीन भाई थे। इसका हकीकी भाई कर्मसिंह इस घृणित कृत्य से बड़ा नाराज हुआ। उसने थोड़े ही दिन के बाद महाराज रणजीतसिंह से लाहौर के पास जाकर सहायता की याचना की। महाराज रणजीतसिंह ने दीवान मुहकमचन्द को कोट-कपूरा के फैसले के लिए करमसिंह के साथ भेजा। बड़ी लड़ाई के बाद विजय महाराज रणजीतसिंहजी की हुई। कोट-कपूरा खास अपने राज्य में मिला लिया। जलालकियां के मौजे रईस नाभा के सुपुर्द कर दिए। सरदार जगतसिंह ने एक बार जोर लगा कर अपने इलाके से महाराज रणजीतसिंह के


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आदमियों को निकाल दिया, किन्तु संभालना कठिन हुआ और सुलह करनी पड़ी। जगतसिंह ने अपनी लड़की की शादी महाराज रणजीतसिंह के लड़के शेरसिंह के साथ कर दी। इस शादी के बाद जगतसिंह अधिक दिन न जिए। सन् 1825 ई० में उसकी मृत्यु हो गई। निःसन्तान मरने के कारण जोधासिंह खानदान की हुकूमत का अन्त हुआ।

वीरसिंह की हुकूमत माड़ी भी जोधासिंह के इलाके की भांति जाट सरदारों के हाथ से निकल गई। जोधासिंह की हुकूमत फिर भी अपने घर में ही थी यानी महाराज रणजीतसिंह के राज्य में मिल गई, लेकिन वीरसिंह की हुकूमत उसके निःसन्तान मरने पर अंग्रेजी राज्य में शामिल कर ली गई, जो कि इलाका फीरोजपुर में थी।

हमीरसिंह ने जहां अपने राज्य को बढ़ाया, वहां प्रजा को भी अमन से रक्खा किन्तु गृह-युद्ध में फंसे रहने के कारण वह राज्य की वृद्धि इतनी न कर सके, जितनी कि उस समय के इतने बड़े रईस को मुगलों के बिगड़े दिनों में कर लेनी कुछ मुश्किल बात न थी।

हमीरसिंह के दो लड़के थे - (1) मुहरसिंह और (2) दिलसिंह। दिलसिंह कुछ चपल स्वभाव के थे। वैसे थे बड़े वीर और निशानेबाज। एक समय उन्होंने निशाने का कमाल दिखाने के लिए बाप की चारपाई के पाये को गोली से बींध दिया था। मुहरसिंह ने निशाना लगाने से यह कहकर इनकार कर दिया कि निशाना दुश्मन पर लगाया जाता है, अपने पोषक और श्रद्धेय पारिवारिकों पर नहीं। हमीरसिंह इस बात से मुहरसिंह से बहुत खुश हुए। उन्होंने दिलसिंह को आज्ञा दी कि वह मौजा ढोढ़ी में निवास रक्खे। मुहरसिंह युवराज बना दिए गए। मुहरसिंह ने आज्ञा-पूर्वक युवराज-पद के कार्यों को किया। पिता की सेवा-सुश्रूषा भी खूब की। संवत् 1839 विक्रमी में हमीरसिंह का देहान्त हो गया और मुहर राजा हुए।

मुहरसिंह

मुहरसिंह फरीदकोट के राजा तो हुए, किन्तु दिलसिंह उनसे खूब जलता था। वह पिता के आगे से ही अपने भाई से ईर्षा-द्वेष रखता था। उसने अपने बाप के मरने पर कई बार फरीदकोट पर चढ़ाई करने की तैयारी की, किन्तु विफल रहा। मुहरसिंह खूब चाहते थे कि भाई पर कब्जा करके उसे वश में रक्खें। आखिरकार उन्हें मौजा ढोढ़ी पर चढ़ाई करनी पड़ी। खूब लड़ाई हुई किन्तु मुहरसिंहजी को विजय प्राप्त न हुई। इसका कारण यह था कि दिलसिंह ने पहले से ही मिसल वालों की सेना सहायता के लिए बुला रक्खी थी। इससे सरदार मुहरसिंहजी को ढोढ़ी को बिना ही परास्त किए फरीदकोट लौटना पड़ा। इन्होंने अपनी शादी मांसाहिया सरदारों के घर में की थी। रानी से जो कुंवर पैदा हुआ था, उसका नाम चड़हतसिंह रक्खा गया था। चड़हतसिंह की मां उसके बचपन में ही स्वर्ग


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सिधार गईं। इसलिए मुहरसिंहजी ने दूसरी शादी कर ली और यह शादी जानी गोत के जाट घराने में हुई, किन्तु इससे कोई औलाद नहीं हुई।

तवारीख लेखक कहते हैं कि मुहरसिंह आराम-पसन्द तथा ऐश-पसन्द आदमी था। उन्होंने प्रजा की देखभाल भी छोड़ दी थी। राज बढ़ाना तो एक ओर रहा। उनकी लापरवाही से राज के अवोहर, कडमे, भक और वोद इलाके हाथ से निकल गए। कहा जाता है कि रावल राजपूतों की पंजी नाम की औरत को सरदार मुहरसिंहजी ने उसके पति से अलग करके अपने महल में रख लिया था। इस औरत ने महाराज को उसी भांति अपने वश में कर लिया, जैसे संयुक्ता ने पृथ्वीराज को कर लिया था। एक बढ़कर बात इसमें यह भी थी कि राज-काज में भी हाथ रखती थी। इसके उदर से एक लड़का हुआ था जिसका नाम भूपसिंह रक्खा गया था। बड़ा होने पर भूपसिंह भी राजकाज में दस्तन्दाजी करने लगा था और राज का मालिक युवराज चड़हतसिंह बेचारा इधर-उधर मारा-मारा फिरता था। पंजी कचहरी में बैठती, मुकद्दमे करती, राज्य के सब काम को हाथ में लिए हुए थी। उसने अपने भाई-बन्धुओं को भी राज के अच्छे-अच्छे पदों पर नौकर रख लिया था। दरबार में उसका ऐसा रौब था कि दरबारी उसके सामने दिल खोलकर बातें नहीं कर सकते थे। सरदार मुहरसिंह ने भूपसिंह की शादी जाटों में ही करा दी थी - वह एक जगह नहीं, तीन जगह। इस कारण से युवराज चड़हतसिंह को बहम हो गया था कि कहीं भूपसिंह ही राज का मालिक न बना दिया जाए। कुछ घटनाएं भी ऐसी घट चुकी थीं, जिससे चड़हतसिंह का सन्देह पक्का होता था। वह अपनी ननिहाल चला गया। राज्य के कुछ कार्यकर्ता मंत्री से बड़े तंग व नाराज थे। वह युवराज चड़हतसिंह को उभाड़ते भी थे। लेकिन चड़हतसिंह मौके की तलाश में थे। जबकि चड़हतसिंह अपनी ननिहाल में थे, मंत्री को भ्रम हुआ कि कहीं चड़हतसिंह अपने चचा दिलसिंह की मदद से किले पर चढ़ाई न कर दे। इसलिए दिलसिंह को या तो कैद कर लेना चाहिए या रियासत से भगा देना चाहिए। इस इरादे से ढोढ़ी पर उसने चढ़ाई कर दी। किन्तु दिलसिंह की सहायता के लिए मिसलों की सेना आ गई, इससे मन्त्री को लाचार फरीदकोट लौटना पड़ा।

पंजी का सलूक प्रजाजनों के साथ भी अच्छा न था। जिन कबीलों पर वह जरा भी सन्देह करती, उन पर सैनिक लेकर जा टूटती और उन्हें तंग करती। इस तरह प्रजा-जनों के हृदय में उसने थोड़े ही समय में विद्वेष के भाव पैदा कर दिये। इससे हुकूमत भी कमजोर होने लगी। नौबत यहां तक आ गई कि पंजी चाहती थी कि अगर चड़हतसिंह फरीदकोट रहे, तो उसे कोई इल्जाम लगाकर राजा से तंग कराया जाए या उसको मरवा डाला जाए और दरबारी लोग चाहते थे कि सरदार मुहरसिंह किसी काम के लिए दो-चार दिन को भी बाहर चले जाएं तो पंजी का काम तमाम कर दिया जाए और राजगद्दी पर चड़हतसिंह को बिठाकर सरदारों को


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भी छुट्टी दे दी जाए। दोनों दल अपनी-अपनी घात में थे। दैवयोग से सर्दी के दिनों में सरदार मुहरसिंह माहिला व मलोर गांव के झगड़े निपटाने को वहां चले गए। दरबारियों ने चड़हतसिंह को ननिहाल से बुलाकर अपना उद्देश्य पूरा करने की ठानी। कुछ दरबारी लोगों (दीवानसिंह, शोभासिंह व दाऊसिंह आदि) के साथ चड़हतसिंह महल में घुस गए। साथियों ने पंजी को मार डाला। उसके भाई व बेटे वहां से भाग खड़े हुए। राजगद्दी पर चड़हासिंह ने कब्जा कर लिया। उधर मुहरसिंह के पास जब यह खबर पहुंची तो बड़े घबराए। फौज इकट्ठी करके कुछ ही दिनों बाद किले पर चढ़ाई कर दी। इधर चड़हतसिंह ने भी काफी तैयारी कर ली थी। बाप-बेटों में युद्ध छिड़ गया। सरदार मुहरसिंह को पहली बार में सफलता न मिली तो फिर चढ़ाई की। इसी तरह कई दफा चढ़ाई करते रहे।

जब बाप बेटे पर विजयी न हुआ तो अन्य अनुचित तरीकों से राज्य प्राप्त करने की सूझी। कुछ भेदियों को लोभ देकर पता लगाया कि मोरी दरवाजा खुला रहता है। एक दिन कुछ आदमी लेकर उसी दरवाजे से किले में घुस गए। खूब खून खराबी हुई, लाचार वापस लौटना पड़ा। पक्का नाम के मौजे में जाकर आबाद हो गये और वहीं से बैठे-बैठे तैयारियां करने लगे। चड़हतसिंह ने लाचार होकर दिल भर कर लड़ाई करने की तैयारी की। इधर-उधर से फौज इकट्ठी की। नाभा से बहुत कुछ रकम देनी करके सैनिक सहायता मंगाई और बेमुरम्बत होकर बाप के आदमियों के ऊपर हमला बोल दिया। मुहरसिंह हार कर पक्का से बाहर निकल आये और रियासत भी छोड़नी पड़ी। उन्हें मुदकी की ओर जाना पड़ा।

बाप की लड़ाई-झगड़ों से फुरसत पाने पर चड़हतसिंह ने साजिश में शामिल लोगों को सजा दी। कहा जाता है कि पंजाब में सिख-धर्म के बढ़ते हुए प्रवाह को देखकर सरदार चड़हतसिंह भी पायिल (दीक्षा) लेकर सिख-धर्म के अनुयायी हो गये और सिख होने की खुशी में गुरु के आदेश से राज-बन्दियों को भी मुक्त कर दिया। मुहरसिंह ने मुदकी के सरदार की सहायता से फिर एक बार फरीदकोट पर हमला किया, किन्तु विफल रहा। आखिर दिनों में सरदार चड़हतसिंह ने उसे अपने ससुर की देख-रेख में मौजा शेरसिंहवाल में नजरबन्द कर दिया और सन् 1798 में वहां उसका देहान्त हो गया। सरदार मुहरसिंह के देहान्त के बाद भी चड़हतसिंह को युद्ध करने पड़े। पंजी का लड़का भूपसिंह मुदकी के सरदार महासिंह से मिल गया। अन्य राजबंदी जो फरीदकोट से निकाले गये थे, महासिंह के यहां जा बसे। इन्हीं लोगों की प्रेरणा से महासिंह ने फरीदकोट पर चढ़ाई करने की तैयारी कर दी। इधर चड़हतसिंह भी फौज लेकर मुदकी की ओर बढ़ा। मौजा चक्रबाजा में दोनों दलों की मुठभेड़ हो गई। दिन भर की लड़ाई और खून-खराबी के बाद दोनों दलों के दिल टूट गए। दोनों दल अपने-अपने स्थान को वापस लौट गये। भूपा इतने पर निराश न हुआ। कोट-कपूरा के सरदार से सहायता लेकर फरीदकोट पर


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चढ़ आया। जिस समय घमासान लड़ाई हो रही थी और भूपा घोड़े पर बैठकर सेना-संचालन कर रहा था, उस समय फरीदकोट के प्रसिद्ध निशानेबाज सैनिक करमसिंह ने गोली से भूपसिंह को घोड़े की पीठ से गिरा दिया। भूपसिंह मारा गया। इस तरह चड़हतसिंह का खास घरेलू दुश्मनों से पीछा छूटा। बाहर चले गये लोगों को बुलाकर बस्तियां आबाद कराईं तथा प्रजारंजन के अन्य कामों में दिलचस्पी ली। यद्यपि प्रजा में धन-जन की वृद्धि हो रही थी, किन्तु कुछ महाजन अब भी षड्यन्त्र रचने में लगे हुए थे। पहले तो उन्होंने कुछ जाट परिवारों की निन्दा की। इसमें भी जब वे सफल न हुए तो उन्होंने दिलसिंह को उकसाया। दिलसिंह ने अपने पिछले समय में काफी झगड़े-फसाद किये थे। इस समय वह शान्ति के साथ जीवन-यापन कर रहा था। किन्तु कान भरने वालों ने एक बार फिर खूंरेजी करने पर उसे तैयार किया। उन लोगों ने जो मंत्रणा बताई उसका मौका आया और वह मंत्रणा सफल हुई। उचित अवसर पाकर जबकि चड़हतसिंह की तीन रानियां और उनके बच्चे फरीदकोट में न थे और सरदार अपनी चौथी रानी के साथ महलों में अकेले थे दिलसिंह ने षड्यन्त्र के अनुसार, किले में और फिर महलों में घुस कर बर्छे से अपने भतीजे चड़हतसिंह का काम तमाम कर दिया। भेदियों तथा नीच षड्यन्त्रकारियों को सफलता मिली। बेचारे चड़हतसिंह मारे गये। दिलसिंह फरीदकोट के मालिक तो हो गये, किन्तु चड़हतसिंह की मेहरबानियां लोगों के दिलों में घर किए बैठी थीं। इसलिए वह दरबारियों के हृदय पर कब्जा न कर सके। दरबारी लोग हृदय में इस धोखे-धड़ाके के कत्ल और परिवर्तन से दुःखी थे। किन्तु प्रकट में उन्होंने कोई विरोध नहीं किया और मौके की तलाश में लगे रहे। वह दिलसिंह को इस धोखे की सजा देने के लिए भीतर ही भीतर उधेड़-बुन में लगे रहते थे। उन्हें भी मौका मिला। दिलसिंह ने प्रतिज्ञा की थी कि अगर फरीदकोट लेने में सफल हुआ तो डोरली के गुरुद्वारे में खुद जाकर चढ़ाऊंगा। चूंकि सफलता उसे मिल चुकी थी, इसलिए उसने वैशाखी के मेले में डोरली जाने का इरादा किया। हालांकि फरीदकोट पर काबिज हुए उसे अभी दो ही हफ्ते हुए थे, फरवरी 1804 ई० मुताबिक फागुन संवत् 1861 में चड़हतसिंह का वध हुआ था। किन्तु उसे विश्वास यह हो गया था कि फरीदकोट के दरबारियों में उसका विरोधी कोई नहीं है। यह उसकी प्रत्यक्ष भूल थी। जब उसके विपक्षियों को इस इरादे का पता लगा तो उन्होंने चड़हतसिंह जी की बड़ी रानी के पास जो कि अपने बच्चों समेत मौजा शेरसिंहवाला (अपने मायके) में थी, खबर भेजी कि आप युवराज समेत वैशाखी से एक दिन पहले चुपके से इधर आ जायें। हम


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दिलसिंह से इस समय राज्य छीनकर असली मालिक को दे देंगे।1

चैत का महीना था। दिलसिंह के कुल साथी वैसाखी के लिए भंग पी-पीकर दरोली को चल दिये। दिलसिंह भी तैयारी में था। महल खास में पगड़ी बांध रहा था कि विपक्षियों के निर्वाचित दरबारी मुहरसिंह ने जाकर दिलसिंह को मारने की चेष्टा की और आखिर मुहरसिंह और योगासिंह ने दिलसिंह को कत्ल कर दिया और गुलाबसिंह के नाम का नक्कारा बजा दिया। दिलसिंह के हामी महाजन घरों में जा छिपे। सर लेपिल ग्रिफिन दिलसिंह के कत्ल की घटना यों लिखते हैं कि - फौजूसिंह दरबारी ने एक जत्थे के साथ सोते हुए को कत्ल किया था। बात कुछ भी हो, दिलसिंह दरबारियों के हाथ से कत्ल हुआ। इन घटनाओं से इस बात पर स्पष्ट प्रकाश पड़ता है कि फरीदकोट के मालिकों की रक्षा व मृत्यु दरबारियों के हाथ थी। दिलसिंह के मारे जाने के पश्चात् युवराज गुलाबसिंह को, जो कि मौजा कमियाना में एक दिन पहले अपनी मां और भाइयों समेत आ चुके थे, सवार भेजकर बुलाया गया और उन्हें राज्य का मालिक बना दिया गया। दिलसिंह की हुकूमत केवल 29 दिन रही। उसके परिवार के लोग जो कि मौजा डरोली के गुरुद्वारे में दिलसिंह के आने की बाट देख रहे थे, यह सुनकर बड़े भयभीत हुए कि दिलसिंह का कत्ल हो गया। उसकी स्त्रियां मौजा ढूढी में पहुंचाई गई। वहीं दिल की लाश आ गई जिसका परिवार वालों ने संस्कार किया।

गुलाबसिंह

गुलाबसिंह जिस समय सन् 1804 में राज के शासक हुए, उस समय उनकी उम्र केवल सात वर्ष की थी। इसलिए राज की तथा राज-परिवार की देखभाल और संभाल का काम उनके मामा फौजूसिंह के हाथ में रहा। फौजूसिंह योग्य था, इसलिए प्रजा और दरबारी उनसे प्रसन्न थे और गुलाबसिंह जी का सगा मामा था, इसलिए रानी भी इस भय से निश्चिन्त थी कि कहीं बालक राजा के साथ कोई दगा न हो जाये। यह समय ऐसा था कि पढ़ने-लिखने का रिवाज बहुत कम था। गुरु साहिबान के प्रचार से लोग गुरुमुखी भाषा पढ़ने के शौकीन हो रहे थे। गुलाबसिंह जी भी गुरुमुखी पढ़ने लगे। पढ़ने के साथ ही बालक सरदार गुलाबसिंह


1. कहा जाता है कि चड़हतसिंह के चार रानियां थीं। पहली सिन्धू जाटों की मौजा शेरसिंहवाला की जिनसे (1) गुलाबसिंह, (2) पहाड़सिंह, (3) साहबसिंह - तीन पुत्र हुए। दूसरी मौजे गोले वाला के मांसाहिया जाट सरदारों की लड़की थी। इनसे महताबसिंह सिर्फ एक ही लड़का हुआ। तीसरी मौजा कोट-करोड़ के खूमा जाट सरदारों की लड़की थी। चौथी पक्का-पथराला मौजा की थी। तीसरी-चौथी रानी के कोई औलाद न थी।


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घोड़े पर चढ़ने, तलवार, बर्छी, तेगा चलाने का भी अभ्यास करते थे। थोड़े दिन में वे इस विद्या में निपुण भी हो गए।

यह समय इन्कलाब का था, बड़े-बड़े हेर-फेर हो रहे थे। मुगल-शासन उखड़ चुका था, मरहठों का भी दम फूल रहा था और एक नई विदेशी व्यापारी जाति यौवन पर थी। वह दक्षिण से उत्तर को बढ़ रही थी। जब देश में इस प्रकार का परिवर्तन हो रहा था, उस समय पंजाब में भी रणजीतसिंह जैसे महापुरुष जाट अथवा सिख साम्राज्य-स्थापन के लिए खूब प्रयत्न कर रहे थे। पंजाब इस समय बहुत ही छोटे सरदारों, नवाबों और राजाओं में बंटा हुआ था। इस समय चार-चार गांव के मालिक भी राजा बने बैठे थे। जहां जिसके दिल में आता, अपनी सरदारी कायम कर लेता। साम्राज्यवादिता और अराजकता दोनों की घुड़-दौड़ हो रही थीं। ये छोटे-छोटे सरदार आपस में खूब झगड़ते थे। कभी-कभी कोई किसी के गांवों पर अधिकार कर लेता, कभी कोई। किसकी जागीर अथवा राज्य की सीमा कहां तक है, यह बहुत कम निश्चय हुआ था। फरीदकोट की भी यही दशा थी। उसके राज्य की भी अब तक कोई निश्चित सीमा नहीं थी। फौजूसिंह ने सीमा बांधने का प्रयत्न करना आरम्भ किया। सीमा के गांवों में गढ़ियां बना कर थाने निश्चित करने का उस समय रिवाज था, यही फौजूसिंह ने किया। इस सीमा-बन्दी में लड़ाई-झगड़े भी खूब होते थे। इस समय फीरोजपुर के किले पर सरदारनी लक्ष्मनकुंवरि का कब्जा था। इलाका सुल्तानखान वाला फरीदकोट के अधिकार में था, इसलिए सुल्तानखान वाला में फरीदकोट का थाना था और पास ही कुल-गढ़ी में रानी साहिबा का। इससे दक्षिण-पूर्व की ओर मलवाल पठानों के इलाके थे, पच्छिम की ओर खुड़ियां वाले पठान थे। किन्तु कायदे की कोई हदबन्दी न थी। एक दूसरा दूसरे की जमींन दबाने के लिए तैयार बैठा रहता था। एक बार कुलगढ़ी के जमींदारों ने सुल्तानखान वाला मौजे की कुछ बीघे जमीन दबा ली। रानी साहिबा के पास शिकायत इसलिए गई कि वह अपने जमींदारों को समझा कर जमीन वापस दिला दें। रानी साहिबा भी तैयार हुईं। तनिक से मामले पर खून-खराबी हो गई। इसी तरह खुड़ियां वाले पठानों ने मौजा नथलवाला दबा लिया। उन्हें ठिकाने पर लाने के लिए भी फरीदकोट को फौज-कशी करनी पड़ी। फौजूसिंह बड़ी योग्यता से काम चला रहा था, किन्तु परिस्थितियों का सामना करना उसके लिए भी कठिन था। इस समय सुकरचकिया मिसल उन्नति पर थी। सारे मिसलें उसके प्रभाव में आ गईं थीं। कुछेक तो उसी के राज्य में अपनी जमीन को मिला चुकी थीं। इस मिसल के सरदार का खिताब अब महाराजा था और वह महाराज था शेरे-पंजाब रणजीतसिंह

महाराजा रणजीतसिंह जी के दीवान मुहकमचन्द ने जीरा, बूड़ा, मुदकी,


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-457


कोट-कपूरा, मुकतेसर और माड़ी को लगातार हमलों के बाद जीत कर उनके राज्य में मिला दिया। सन् 1807 में उसने फरीदकोट को भी घेर लिया, किन्तु पानी की कठिनाई के कारण उसने घेरा उठा लिया। फरीदकोट से एक घोड़ा मुलाकात में फौजूसिंह व पहाड़सिंह ने मुहकमचन्द को भेंट किया। सर लेपिल ग्रिफिन का कहना है कि - खिराज में सात हजार रुपये भी मुहकमचन्द ने वसूल किए। बराड़वंश का लेखक लिखता है कि - जिस समय मुहकमचन्द ने घेरा डाला तो बाहर के जोहड़ और तालाबों में जहरीली बेल व पत्तियां फरीदकोट वालों ने लगा दीं, इससे उसकी फौज को बहुत कष्ट हुआ और इस कारण उसने सन्धि की चर्चा की। किन्तु यह बात सही नहीं जान पड़ती। हां, यह हो सकता है कि पर्याप्त तादाद में उसकी फौज को पानी व रसद न मिल सकी हो। मुहकमचन्द वापस लाहौर लौट गया, किन्तु महाराज रणजीतसिंह का इरादा न बदला। वह सतलज पार के इलाके को अपने राज्य में मिला लेना चाहते थे। यूरोप में जिस भांति नैपोलियन बोनापार्ट की बहादुरी प्रसिद्ध थी, उसी भांति भारत में महाराज रणजीतसिंह का नाम था। भारत के भीतर अंग्रेजी राज भी जोर पकड़ रहा था। इन्हीं दिनों अंग्रेजी राजदूत सर चार्लस मेटकाफ महाराज के पास अंग्रेजी मित्रता का सन्देश लेकर पहुंचा। वे अंग्रेजों से मित्रता करने के पहले अपने राज को अधिक से अधिक बढ़ा लेना चाहते थे। इसलिए वे तथा अन्य सरदार अंग्रेज अतिथि को अमृतसर में छोड़कर विजय के लिए निकल पड़े। फरीदकोट को जीतने के लिए उन्होंने कर्मसिंह की अध्यक्षता में सेना भेजी। फौजूसिंह तथा अन्य दरबादियों ने इस आशा पर किला कर्मसिंह के हवाले कर दिया कि शायद बालक रईस पर कृपा करके महाराज रणजीतसिंह किला वापस कर दें। कर्मसिंह ने महाराज रणजीतसिंह के पास फीरोजपुर में खबर भेज दी कि फरीदकोट उसके हाथ आ गया है। महाराज रणजीतसिंह ने फरीदकोट पहुंच कर खजाने पर कब्जा किया और अपने सरदार दीवानचन्द तथा मुहकमचन्द को फरीदकोट का हाकिम बनाया। फरीदकोट के रईस के गुजारे के लिए कुछ गांव नियत कर दिए। फरीदकोट से चलकर मालेर कोटला के नवाब से सत्ताईस हजार नजराना लिया। पटियाला के भटिण्डा आदि इलाकों को विजय किया तथा लूटा। जींद से भी नजराना वसूल किया। अनेक स्थानों को विजय करने के बाद महाराज रणजीतसिंह लाहौर पहुंच गए। उनके वापस लौटते ही पटियाला, फरीदकोट, नाभा, जींद आदि इलाकों के सभी राजा-रईसों ने देहली में जाकर अंग्रेजी रेजीडेण्ट से अपनी रक्षा की प्रार्थना की। अंग्रेज ऐसे मौकों की तलाश में रहने वाले सदा से थे। उन्होंने इस मौके से लाभ उठाया। दूसरे, नैपोलियन का खटका भी दूर हो चुका था। इसलिए इन रईसों से संधि और इकरारनामे करके अपनी फौज का एक बड़ा दल लुधियाना भेज दिया। साथ ही गवर्नर-जनरल ने अपने दूत सर चार्ल्स को लिखा कि महाराज


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-458


रणजीतसिंह से कह दिया जाए कि सतलज पार के तमाम रईस ब्रिटिश सरकार की शरण में आ गए हैं। इसलिए अब मित्र के नाते न तो महाराज उन पर चढ़ाई करें और न उनसे खिराज मांगें और अब पिछले दिनों फरीदकोट, नारायणगढ़ आदि जो विजय कर लिए हैं, उन्हें उनके असली मालिकों को लौटा दें। महाराज रणजीतसिंह उस समय अंग्रेजों से छेड़-छाड़ न करना चाहते थे। वह किसी अवसर की तलाश में थे। दूसरे, उन्हें पेशावर और काबुल की ओर के इलाकों की रक्षा में भारी शक्ति खर्च करनी थी। इसलिए दूरंदेशी से उन्होंने अंग्रेजों की बात को मान लिया और सतलज को अपनी हद मानकर सतलज पार के इलाकों से अपनी फौज वापस बुला ली। फरीदकोट के सम्बन्ध में महाराज ने अधिक सोच-विचार किया। अंग्रेजों की उस समय की महाराज की इज्जत तथा कदर ने महाराज के हृदय में यह भाव पैदा कर दिए थे कि योग्य-मित्र को, थोड़ी-सी बात पर दुश्मन बनाना ठीक नहीं। साथ ही वे अपने देशवासियों की कुवृत्तियों को भी देख रहे थे कि विदेशी लोगों को अपना मालिक बनाने को तैयार थे, किन्तु अपने ही भाई के खिलाफ साजिश रचने में बहादुरी समझते थे। 3 अप्रैल सन् 1809 ई० को उन्होंने फरीदकोट भी वापस कर दिया।

महाराज रणजीतसिंह से रियासत फरीदकोट के वापस आने पर प्रबन्ध पूर्ववत् फौजूसिंह के हाथ ही रहा। अंग्रेजों की ओर से अम्बाले में पोलीटिकल एजेण्ट नियुक्त किया गया। सभी रियासतों की ओर से वहां वकील रखे गए। फौजूसिंह ने भी फरीदकोट की ओर से हाकिमसिंह को राज का वकील बनाकर अम्बाले में पोलीटिकल एजेण्ट के पास भेज दिया। अब रियासत अंग्रेजों की सुरक्षा में आ चुकी थी। इसलिए दुश्मनों की आशंका तो बहुत कुछ मिट ही चुकी थी। अतः फौजूसिंह ने रियासत की हदबन्दी करना शुरू किया। जहां दिक्कत आई, पोलीटिकल एजेण्ट ने उसको सुलझा दिया। कुल-गढ़ी, मुदकी मलवाल की ओर हदबन्दी करते समय कुछ कठिनाइयां पेश आईं जिसका निर्णय अंग्रेज एजेण्ट ने बीच में पड़कर कर दिया। हदबन्दी के काम से फुर्सत पाने पर फौजूसिंह ने राज्यकोष को बढ़ाने की चेष्टा की। किन्तु राज्य में न तो भारी संख्या में कुएं थे, न नहर-नाले। भूमि सारी बीरानी थी। इसलिए लगान से बहुत कम आमदनी होती थी। कुछ कस्टम की भी आमदनी हो जाती थी। इस थोड़ी-सी आमदनी से भी फौजूसिंह ने राज्य का अच्छा काम चलाया। प्रजा के साथ अच्छा बर्ताव करने की फौजूसिंह की आदत थी।

एक अर्से से हुकूमत उसके हाथ में रही थी, इसलिए उससे उसे खास मोह हो गया था। जब सरदार गुलाबसिंह जवान हुए और राजकाज में हस्तक्षेप करने लगे तथा उनके निर्णयों में त्रुटियां निकालने लगे, तो उसे असह्य हो गया। वह नहीं चाहता था कि अधिकार उसके हाथ से निकल जाएं। उसको बनाये रखने के लिए उसने


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भाइयों में खटपट मचाने की नौबत डाली। कहा जाता है सरदार गुलाबसिंहजी को घोड़ी और भैंसों से बड़ी मुहब्बत थी। वे इनकी नसल सुधारने की भी चेष्टा करते थे। एक समय एक जमींदार उनके छोटे भाई साहबसिंह को एक प्रसिद्ध भैंस भेंट में दे गया। गुलाबसिंह ने फौजूसिंह की मार्फत साहबसिंह से यह भैंस मांग ली। किन्तु फौजूसिंह ने साहबसिंह को इसी बात का रंग देकर भाई के विरुद्ध कर दिया। दोनों भाइयों के हृदय में अन्तर पैदा कर दिया। सरदार गुलाबसिंह के दो रानियां थीं। बड़ी के एक पुत्र भी पैदा हो गया था।

गृह-कलह बड़ा बुरा होता है। उसका फल, बीज से कई गुना भयंकर होता है। इसी गृह-कलह के कारण, नवम्बर सन् 1826 ई० में, सैर करके वापस लौट रहे सरदार गुलाबसिंह को अकेले पाकर किसी ने कत्ल कर डाला। चाहे साहबसिंह और पहाड़सिंह जो कि उनके भाई थे इस साजिश में शामिल न रहे हों, किन्तु यह कदापि नहीं माना जा सकता कि फौजूसिंह की राय से यह काम नहीं हुआ। अम्बाले में इस समय पोलीटिकल एजेण्ट मरी थे। उनको सूचना दी गई। वे तीन साल पहले इधर का दौरा कर चुके थे। वह फरीदकोट के पास घरेलू झगड़ों की तवारीख से भली-भांति परिचित हो चुके थे कि इस खानदान में भाई ने भाई को, बाप ने बेटे को, चचा ने भतीजे को कत्ल करके अपने हाथ खून से रंगे हैं। इस समाचार के सुनते ही एजेण्ट साहब फरीदकोट पहुंचे और वहां जाकर खून की जांच की। गुलाबसिंह की रानी के तथा अन्य लोगों के बयानों से साहबसिंह और फौजूसिंह अपराधी प्रमाणित सिद्ध हुए। किन्तु फौजूसिंह बड़ा चालाक आदमी था। उसने अपनी पुरानी सेवाएं जो कि गुलाबसिंह की नाबालिगी में की थीं, याद दिला कर सफाई कर ली। एजेण्ट को भी यकीन हो गया। एजेण्ट को भी पता चल गया कि सिंह और बहादुर नाम के आदमियों द्वारा गुलाबसिंह का कत्ल कराया गया है। फरीदकोट से चलते समय एजेण्ट ने साहबसिंह को साथ लिया और अम्बाला पहुंच कर दोनों कातिलों के वारन्ट काट दिए। किन्तु कातिलों का कहीं पता न चला। इधर पहाड़सिंह तथा फौजूसिंह ने एजेण्ट साहब को यकीन दिलाया कि हम साहबसिंह को आप जब भी चाहेंगे, तभी हाजिर कर देंगे। उन्हें नजरबन्दी से फरीदकोट भेज दीजिए। एजेण्ट साहब ने सबूत की कमी देखकर साहबसिंह को फरीदकोट वापस भेज दिया।

अतरसिंह, पहाड़सिंह

गुलाबसिंहजी के बाद फरीदकोट की गद्दीनशीनी का सवाल उठा। साहबसिंह और पहाड़सिंह चाहते थे कि वे राज के मालिक बनें। फौजूसिंह चाहता था कि उसका अधिकार व रौव-दौव पूर्ववत् बना रहे। प्रकट में वह दोनों को दिलासा देता रहा कि वह उनके ही लिए कोशिश करेगा, किन्तु छिपे-छिपे वकील के द्वारा एजेण्ट


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साहब से यह हुक्म मंगवा लिया कि गद्दी के मालिक स्वर्गवासी सरदार गुलाबसिंह के नाबालिग पुत्र अतरसिंह हैं। साहबसिंह और पहाड़सिंह चाहें तो अपने गुजारे के लिए अलग जागीर ले सकते हैं और चाहें तो नाबालिग रईस के भरोसे रह सकते हैं। ऐलान के दिन तक दोनों राजकुमार धोखे में थे। अतरसिंह रईस फरीदकोट बना दिए गए और फौजूसिंह मुख्तार-आम। वह नाबालिग रईस को दरबार में बिठा लेता था और कुल कामकाज खुद करता था। दोनों भाई कुढ़ते थे। लेकिन ब्रिटिश सरकार के फैसले के विरुद्ध कर क्या सकते थे? फौजूसिंह अपनी सफलता पर फूला न समाता था, लेकिन दैवयोग से उसकी खुशी रंज में परिणत हो गई। राजकुमार अतरसिंह का माह अगस्त सन् 1827 में अचानक देहान्त हो गया। एक साल भी न हुआ था कि गुलाबसिंह का पौधा विनष्ट हो गया। फौजूसिंह की सारी उमंगें खाक में मिल गईं। उसने एजेण्ट साहब को कहला भेजा कि अतरसिंह की अचानक मृत्यु में उसके दोनों चाचाओं का हाथ है। उन्होंने कोई जादू-टोना कराया है। साहबसिंह ने वकील बूटासिंह के द्वारा एजेण्ट के पास खबर भेजी कि फौजूसिंह ने बेकसूर कन्हैयासिंह को काठ में देकर कोठे में बन्द कर दिया। फौजूसिंह अधिक आपत्ति आती देखकर फरीदकोट को छोड़कर दूसरी जगह चला गया। फिक्र इस बात की हुई कि राज किसके हाथ पड़े। रानी साहिबा चाहती थीं कि वह राज की मालिक बनें और दोनों कुंवर अपनी फिक्र में थे। कुछ ही दिनों में एजेण्ट का बुलावा भी उन्हें अम्बाला आने के लिए मिला। वे पहले से ही तैयार थे। रानी साहिबा भी पधारीं। महताबसिंह ने भी साहब के पास उजरदारी की कि मैं भी साहबसिंह और पहाड़सिंह की तरह राज पाने का अधिकारी हूं। फर्क इतना है कि मैं दूसरी रानी की औलाद हूं। एजेण्ट ने सब लोगों की अलग बातें सुनीं और सारे हालात तथा अपनी राय रेजीडेण्ट साहब देहली को लिख भेजीं। वैसे एजेण्ट साहब ने पहाड़सिंह को यकीन भी दिलाया था कि उनके ही ऊपर ईश्वर की कृपा होगी। फौजूसिंह मय अपने साथियों के वापस लौट आया। पहाड़सिंह इस बीच तीर्थयात्रा के लिए चले गए। जब यात्रा से लौटे तब तक रेजीडेण्ट का हुक्म भी आ चुका था। एजेण्ट ने कुंवर पहाड़सिंह को फरीदकोट का उत्तराधिकारी मान लिया।

पहाड़सिंह

पहाड़सिंह सन् 1827 में फरीदकोट की गद्दी पर बैठे। उन्होंने अपनी विधवा भाभी तथा भाई साहबसिंह और महताबसिंह के गुजारे के लिए प्रबन्ध कर दिया था। लेकिन फौजूसिंह प्रजा तथा भाइयों में अशांति के बीज बोने लगा। सरदार पहाड़सिंह ने फौजूसिंह को हुक्म दे रक्खा था कि दिन को वह फरीदकोट रहे और रात को मौजा-नूआं किला अपने घर चला जाया करे। हां, उसे कतई अलग न


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किया था। लेकिन फौजूसिंह राज-काज में दखल चाहता था। पहाड़सिंह उसकी चालाकियों को तो समझ रहे थे लेकिन वह चाहते थे कि पहले रियासत का प्रबन्ध ठीक कर लें, तब इसे और इसके साथियों को बाहर निकालने की चेष्टा करेंगे। फौजूसिंह बड़ा घाघ था। उसने साहबसिंह को भड़का दिया और साहबसिंह यहां तक बहके कि एक दिन पहाड़सिंह के सामने रियासत को आधी बांट देने का दावा पेश कर दिया। पहाड़सिंह ने समझाया भी कि आजकल रियासतें बंटती नहीं हैं, जमाना अंग्रेजी इकबाल का है। लेकिन साहबसिंह किसी भी भांति न समझे। लाचार पहाड़सिंह ने अपने वकील बूटासिंह के द्वारा, सारे समाचार पोलीटिकल एजेण्ट मि० मरे के पास भेजे। मि० मरे ने साहबसिंह को अम्बाला बुलाकर उसकी सारी शिकायतें सुनीं। साथ ही समझाया कि रियासत का बंटवारा न हो सकेगा। तुम फरीदकोट जाकर अपने भाई के साथ मेल से रहो। भाई की बगावत को दबाने के लिए पहाड़सिंह ने एजेण्ट साहब से सैनिक सहायता मांगी। किन्तु एजेण्ट ने 'मौका नहीं है' कहकर सहायता देने से विवशता प्रकट की, किन्तु जीन्द से सहायता मिल जाने पर साहबसिंह की बगावत दबा दी गई। इतने पर साहबसिंह निराश न हुआ। अम्बाले में एजेण्ट के पास जाकर अपना दावा फिर पेश किया और कहा कि पंचायत द्वारा मेरा फैसला होना चाहिए। एजेण्ट ने पंचायत बिठाने से तो मना कर दिया, किन्तु एक पत्र पहाड़सिंह को लिखा कि किस भांति साहबसिंह से तुम्हारा सलूक हो सकता है। इसी बीच साहबसिंह अचानक बीमार हो गया। उसके बचने की कोई आशा न रही। एजेण्ट ने उसे फरीदकोट को वापस किया। जब कि वह राह में पटियाले के राज्य को पार कर रहा था, बीमारी की भयंकरता से मर गया। उसकी लाश फरीदकोट लाई गई और वाकायदा संस्कार हुआ। राजा, प्रजा सभी ने साहबसिंह की मृत्यु पर शोक प्रकट किया, किन्तु साहबसिंह के मरने से फरीदकोट के निजी झगड़े भी मिट गए।

लार्ड एमहर्स्ट ने एक घोषणा-पत्र निकालकर अपने अधीनस्थ तथा मित्र राजा रईसों को चेतावनी दे दी थी कि वे आपस में झगड़ा-फिसाद न करें और न एक-दूसरे पर कब्जा करें। इसी घोषणा-पत्र के अनुसार अम्बाला स्थित एजेण्ट ने पंजाब के राजा और जागीरदारों की रियासतों की सीमा नियत कराने में रईसों को सहयोग दिया था। सरदार पहाड़सिंह जी ने भी एजेण्ट साहब के परामर्श से सीमा बन्दी का पक्का कार्य कर लिया। फौजूसिंह जो कि लम्बे अरसे से राज्य का काम सम्भाल रहा था, अब उसकी हरकतें यहां तक पहुंच गईं थीं कि सरदार पहाड़सिंह को यह चिन्ता हुई कि इसे किसी भांति निकाल देना चाहिए। उसका निकालना कोई बड़ी बात न थी। हिसाब के मामले में उसकी भारी गड़बड़ी थी। उसने काफी गबन किया था। इसलिए उसकी इस धोखेबाजी के लिए जांच आरम्भ हुई।


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पर उस समय राज्यों के बाकायदा हिसाब नहीं रखे जाते थे, हिसाबों के कागजात भी न रक्खे जाते थे, तलाशी में उसके घर कुछ निकला नहीं। आखिर सरदार पहाड़सिंह ने पोलीटिकल एजेण्ट से सलाह ली। उस समय एजेण्ट मि० रसल क्लार्क थे। एजेण्ट साहब के आदेशानुसार सन् 1836 ई० में उसे राजकाज से अलग कर दिया गया, किन्तु कष्ट इसलिए नहीं दिया गया कि गबन का कोई प्रमाण प्राप्त नहीं हुआ।

इनके सरदारों व दरबारियों में सरदार महासिंह, सैयद अली, अकबरशाह, सरदार कूमांसिह आदि बड़े योग्य और नेक आदमी थे। राज्य के बड़े-बड़े काम इन्हीं के सुपुर्द थे। एजेण्ट साहब के पास राज्य की ओर से भी खास मौकों पर यही सरदार भेजे जाते थे। इनकी संतान के कुछ लोग तो फरीदकोट सरकार के मुलाजिम थे। उन दिनों माल का महकमा दीवान के मातहत रहता था। वास्तव में दीवान ही महकमा था और उसका घर ही माल का दफतर। वसूली का जो रुपया आता, वह नगर के प्रसिद्ध महाजन के यहां जमा होता था। जमींदार को दीवान के दस्तखत का पर्चा मिलता था। वह उसी पर्चे के आधार पर महाजन के यहां जमा कर देते थे। महाजन अपनी बहियों में जमा कर लेता था। जब खर्च की जरूरत होती, राजा के हुक्म से दीवान महाजन के यहां से मंगाकर खर्च करता था। उस समय न तो बजट बनाये जाते थे और न सिलसिलेवार और सही हिसाब रक्खा जाता था। यह फरीदकोट ही नहीं, सारे भारत के रजवाड़ों का हाल था। हां! महाराज रणजीतसिंह के यहां अवश्य कुछ नियम इस सम्बन्ध में थे। मालगुजारी अधिकांश में बंटाई के नियम पर उगाही जाती थी। उगाही में जो अनाज आता, वह कोठे और खत्तियों में जमा किया जाता था। ऐसे कोठे और खत्ती राजधानी और देहात दोनों में ही होते थे। इसी गल्ले से राज-परिवार और फौज का खर्च चलता था और आवश्यकता पड़ने पर बेच भी दिया जाता था। अधिकांश भाग अनाज के लिए सुरक्षित रक्खा जाता था। अकाल के समय में इसी में से प्रजा को भी सहायता दी जाती थी।

फौजदारी के मामलात में जो जुर्माने होते, वे वर्षों तक उधार भी चले जाते थे। माफ भी हो जाते थे। न्याय के लिए अदालतें तो थीं, किन्तु दीवानी, फौजदारी के सारे मामलों के फैसले जबानी होते थे। फायल न रक्खी जाती थी। कोर्टफीस लेने का भी कायदा न था। अपील होती थी और अन्तिम निर्णय महाजन के हाथ रहता था। न्याय के समय पक्षपात करना पाप समझा जाता था। कैदखाने भी थे, किन्तु खास कैदियों को उसमें रक्खा जाता था। न्याय जुर्म की तौल पर न्याय के अनुपात में ही होता था। कानून के अनुसार उस समय न्याय न था। कानून और न्याय का घनिष्ठ सम्बन्ध वास्तव में है भी नहीं। मनुस्मृति और पुरानी स्मृतियों के आधार पर दण्ड देने की प्रथा थी जो कि अंग्रेजी शासन में बहुत हल्की की जा रही थी।


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सारांश यह है कि सरदार पहाड़सिंह जी के राज्य में वे ही नियम-विधान पाए जाते थे, जो अन्य हिन्दू राज्यों में थे।

18 अक्टूबर सन् 1838 ई० में जब आकलैण्ड गवर्नर ने अफगानिस्तान पर चढ़ाई की तो फरीदकोट की ओर से भरसक सहायता अंग्रेज सरकार को दी गई। ऊंट, छकड़े, खलासी, गल्ला, बैल-गाड़ियां जो भी कुछ एजेण्ट ने मांगा, पहाड़सिंह जी ने दिया। यही क्यों, जब आजादी के मतवाले खालसा वीरों की सन् 1845 ई० में अंग्रेजों से लड़ाई हुई और खालसा सेना ने लिटलर को फीरोजपुर के किले में घेर लिया, तो अपनी अक्ल पहाड़सिंह ने अंग्रेजों के पक्ष में खर्च की। अपने दो सरकारी एजेण्ट मि० बराडफुल की सेवा में इसलिए दे दिए कि जब राज्य से किसी भांति की सहायता की जरूरत पड़े तो एजेण्ट साहब इनके द्वारा फरमाइश करें। सुल्तानवाला स्थान पर अंग्रेजी फौज के लिए काफी सामान रसद का जमा कर लिया था और भी जो बन पड़ा, अंग्रेजी सहायता की। अपने बड़े लड़के वजीरसिंह की मातहती में फौज का दस्ता भी अंग्रेजी सहायता के लिए भेजा था। इन्हीं जबरदस्त सेवाओं से खुश होकर मुदकी के मुकाम पर गवर्नर-जनरल ने सरदार पहाड़सिंह को राजा का खिताब देने की घोषणा की और साथ ही यह भी कहा कि जो इलाके कोट-कपूरा आदि पहले फरीदकोट के हाथ से निकल गए हैं और अब सरकार अंग्रेज के कब्जे में आ गये हैं, बाद लड़ाई के उन्हें फरीदकोट को वापिस करने का विचार किया जायेगा। मि० बराडफुट ने उन तमाम सेवाओं को नोट किया था जो कि फरीदकोट की ओर से लड़ाई में की गई थीं। किन्तु वे लड़ाई में मारे गये। फिर लड़ाई के बाद अंग्रेज सरकार ने राजगी की सनद और खिलअत अपने वायदे के अनुसार फरीदकोट के रईस को दिए जिसकी नकल नीचे दी जाती है -

नकल

सनद राजगी मुहरी व दस्तखती जनाब नवाब मुअले अल्काव लार्ड सर हेनेरी हार्डिंग साहब बहादुर गवर्नर जनरल मुमालिक हिन्दुस्तान मुवर्रिंख 24 मार्च सन् 1846 ई०।
रफअत पनाह, सदाकत दस्तगाह, राजा पहाड़सिंह बालिये फरीदकोट की खालिश अकीदत व फर्मावर्दारी सच्ची इरादत और वफाशआरी अम्दः खैरख्वाही और अच्छी खिदमतगुजारी सरकार दौलतमन्द कम्पनी अंग्रेज बहादुर की निस्वत पाना सबूत को पहुंच चुकी है। इसलिए उनके इकबाल के चमनिस्तान की तरफ महरवानियों की नीम इस अच्छे वक्त में पहुंची है और निहायत महरवानी से राजगी का खिताब मय आखिरा खिलअत के इस सनद के साथ अता होता है। मुनासिब है कि इस अताये शाही के मुकाबले में आइन्दः दौलत ख्वाही और

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खैरन्देशी में जियादः मुस्तैदी और सरगर्मी दिखाकर अपना फखर व अगरज और हमसरों में इज्जत व इम्तयाज बढ़ायेंगे।

यह सनद आदि फरीदकोट के रईस को दी गई और वह राजा कहलाने लगे। इनके चार रानियां थीं, संतान केवल दो से हुई। एक से वजीरसिंह पैदा हुए और दूसरी से दीपसिंह तथा अनौखसिंह। पहाड़सिंह ने राज्य की खूब उन्नति की थी, अंग्रेजों ने भी कुछ खिराज का इलाक दे दिया था। सती-प्रथा बन्द करने, कन्या-वध रोकने और अनुर्वर भूमि को उर्वर बनाने में राजा साहब ने बड़ी रुचि ली। खालसा के विरुद्ध अंग्रेजों की मदद करने से राजा साहब को अंग्रेजों की सहायता मिली और फरीदकोट की खूब उन्नति हुई। माह अप्रैल 1849 में महाराज पहाड़सिंह का स्वर्गवास हो गया।

महाराज वजीरसिंह

योग्य पिता के बाद वजीरसिंह फरीदकोट की गद्दी पर बैठे। शुरू में राज्य की उन्नति तथा खेती के विकास में आपने रुचि ली। पिता के समान अंग्रेजों से मित्रता बनाये रखी। दूसरे सिख-युद्ध के समय आपने अंग्रेजों की मदद की। पच्चीस हजार रुपये नकद सहायता में दिए। इनका एक आदमी घमड़सिंह जो मि० बराड़फुट की सेवा में पहाड़सिंह ने नियुक्त किया था, अंग्रेजों की कृपा से फरीदकोट का बख्शी बन गया था। एक ओर उसको घमण्ड हो गया था और दूसरी ओर उसके आसपास डाकुओं का जमघट लग गया। अंग्रेजी इलाके से शिकायत मिली कि घमड़सिंह के आदमी इधर लूटमार करते हैं। वजीरसिंह ने जांच कराई तो आरोप सही निकला। अतः उसको कैद कर लिया गया, पर थोड़े दिन बाद मुक्त कर दिया गया। जिस तरह इसने तरक्की पाई थी, उसी तरह इसका नाश भी हुआ। मौजा चाहिल में इसे रहने का हुक्म मिला किन्तु वहां से कुछ दिन बाद भाग गया। वास्तव में महाराज और उनके राजकुमार की भी यही इच्छा थी कि इसके बख्शीपने से पीछा छूटे। उनके इरादे में ईश्वर सहायक हुआ।

सिख-युद्ध के बाद महाराज अपने राजकाज के सुधार में चिपट गये। वे चाहते थे कि रियासत की आबादी खूब बढ़े ताकि खजाने में रुपया अधिक आये। किसी भी राज्य अथवा संस्था को चलाने के लिए रुपए की जरूरत हुआ करती है। किन्तु रुपया सदा नेक-नीयत से इकट्ठा करना चाहिए। राज चलाने के लिए जो राजा प्रजा को लूट-खसोट करके धन इकट्ठा करते हैं, वास्तव में वह प्रजा को विद्रोही बनाने के सामान पैदा करते हैं। महाराज वजीरसिंह प्रजा को खुश रखकर राज चलाना चाहते थे। इसीलिए वह आबादी बढ़ाने और खेती के कामों में तरक्की देने की कौशिशों में संलग्न हुए। किन्तु सिख-युद्ध के छः सात ही साल बाद देश में गदर खड़ा हो गया। यह गदर सेना की ओर से विदेशी शासक अंग्रेजों के


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विरुद्ध था। गदर के कारण और घटनाओं से भारत का बच्चा-बच्चा जानकार है, इसलिए उस पर विशेष प्रकाश डालने की आवश्यकता नहीं। पंजाब की ओर इसकी लपट पहुंचते ही डिप्टी-कमिश्नर तथा कमिश्नर ने महाराज वजीरसिंह को खबरदार रहने तथा अंग्रेज सरकार की सहायता करने को प्रार्थना-पत्र भेजे। महाराज ने सेनापति सहित खुद जाकर अंग्रेजों की विद्रोहियों से रक्षा की तथा विद्रोह को दबाया। नाभा के प्रसिद्ध विद्रोही सामदास का दमन करके पंजाब के अंग्रेजों को सुरक्षित किया। रियासत से गल्ला-दाना देकर अंग्रेजी सैनिकों के प्राण बचाये। इस तरह लगातार एक साल तक, जब तक कि गदर शान्त हुआ, महाराज अंग्रेजों की मदद करते रहे।

गदर के शान्त हो जाने पर जब अंग्रेजों की जान में जान आई तो उन्होंने कृतज्ञता प्रकट करने का अवसर पाया। इस अवसर पर महाराज फरीदकोट को भी याद किया गया। उनके जिम्मे की दस सवारों की सेना माफ की गई। खिलअत (चिट्ठी नं० 2094) तारीख 12 जुलाई, सन् 1858 ई० को दिए गए थे। इसके दो वर्ष बाद गवर्नर जनरल के हुक्म से सेक्रेटरी गवर्नमेंट पंजाब ने 11 मई, सन् 1860 ई० को ग्यारह तोप की सलामी का अधिकार महाराज फरीदकोट और उनकी सन्तान को दिया। सब प्रकार के झंझटों से मुक्त होने पर सरकार ने पंजाब के राजा रईसों को सलाह दी कि लगान बटाई के बजाय नकदी में लिया जाए और भूमि की माप कर ली जाये। चोरी-डकैतियों के बन्द करने के लिए महकमा पुलिस स्थापित किया जाये। इन सलाहों के अनुसार महाराज फरीदकोट ने अपने यहां सन् 1861 ई० में बन्दोबस्त कराकर नकदी में लगान बांध दिया। लेकिन जमीन का मालिक किसान ही रहा। किसान अपनी जमीन को दूसरे के हाथ बेच सकता है। राज के नियत किए हुए लगान से अधिक पर उठा सकता है। गिरवी रख सकता है। अपनी जमीन में से चाहे जितनी को बोये-जोते, चाहे जितनी पड़ी रहने दे। चाहे जहां कुआं, धर्मशाला, मकान बनवा सकते हैं। राज को उनकी जमीन को न छीनने का अधिकार है, न जब्त करने का। वह अपनी नियत की हुई मालगुजारी पाने का अधिकारी है। हां, मालगुजारी न मिलने पर जाब्ते की कार्यवाही की जाती है। किसानों के लिए ये सहूलियतें फरीदकोट के नरेशों की ओर से दी हुई थीं। यह उनकी उदारता का परिचय था। समस्त जाट राज्यों में जमीन के प्रायः ऐसे ही नियम थे।

जमींदारी का सबसे बुरा सिस्टम राजपूताने की राजपूत रियासतों में था। ब्रिटिश भारत की जागीरदारी में किसानों के लिए जो तकलीफें हैं, वही राजपूताने में हैं। फरीदकोट, नाभा आदि जाट-राज्यों में जमीन का बन्दोबस्त होने पर भी


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-466


प्रजा की रक्षा की गई थी और अब तक है। बन्दोबस्त के हो जाने पर राज्य ने धीरे-धीरे अंग्रेजी शासन के ढ़ंगों को अपनाया। सन् 1859 ई० में कोर्ट-फीस और दस्तावेज का रिवाज जारी कर दिया। सन् 1859 में पुलिस भी अंग्रेजी ढ़ंग पर रखी जा चुकी थी। मालगुजारी वसूल करने के लिए तहसीलें कायम हुईं। पहले रियासत में कस्टम का रिवाज था, किन्तु व्यापार को तरक्की देने के लिए कस्टम का रिवाज भी उठा दिया।

चूंकि पंजाब में कई छोटी-छोटी जागीरें व रियासतें लावलदी में अंग्रेज सरकार ने जब्त कर ली थीं, इसलिए शेष रियासतों ने लावलदी के भय से सरकार के पास गोदनशीनी के अधिकार प्राप्त करने की प्रार्थना की, सरकार ने पंजाब के सभी रईसों को जातीय रिवाज के अनुसार सन् 1862 में गोद लेने का अधिकार दे दिया। महाराज वजीरसिंहजी भी इस अधिकार को पाकर बड़े प्रसन्न हुए। महाराज ने यह भी उचित समझा कि सरकार से अब तक मिली हुई अतायतों की सनद हासिल हो जानी चाहिए। उनके वकील ने इस बात को सरकार के सामने रक्खा। अतः सरकार की ओर से निम्न सनद मिली -

तर्जुमा सनद तमलीक मुल्क अज पेशगाह नवाब मुस्तताव मुअल्ले अलकाव वायसराय व गवर्नर-जनरल बहादुर किशोर हिन्द मुखर्रिख 21 अप्रैल सन् 1863 ई०।

जब से सरकार अंग्रेजी का अधिकार भारत में हुआ, राजा वजीरसिंह सा० बहादुर और उनके पूर्वजों की तरफ से सरकार मम्दूह की खैरख्वाही जाहिर होती रही और उसके औज में उनकी इज्जत और मरतिव और मुमलिकत नये सिरे से स्वीकार की जाती रही। अभी-अभी सन् 1857 व 1858 के गदर में रईसहाल ने सरकारी अमूर में दिलचस्पी जाहिर करके अपनी अकीदतमन्दी पाया सबूत को पहुंचाई और इसलिए सरकार अंग्रेजी ने निहायत महरबानी और शाहनशाही इनायत से जो खिदमत दस सवारों की अब तक चली आती थी, रियासत को माफ फर्मादी। रईस के अलकाब खिलअत में तरक्की की और अलावा इसके ग्यारह तोप की सलामी की खसूसियत बख्शी और उनकी इच्छा पर इन कृपाओं की मुस्तमिल सनद जिससे इनके कदीमी मौरूमी मुल्क का दख्ल भी जाहिर हो और यह भी साबित हो कि सिवाय इसके और मुल्क उन्होंने हासिल किया और सरकार अंग्रेजी ने अजरुये अतिया-शाही या तबादिला इनको बख्श देनी मंजूर हुई। बाये तफसील कि रईस हाल और उनके वारिसों का मिल्क और दखल हमेशा के लिए जायज व कबूल है। शरायत यह हैं -

दफा (1) रईस हाल और उनकी भावी संतान को जो मनकूहा रानी के पेट से हो हमेशा के लिए यह तमाम अधिकार और स्वत्व दीवानी-फौजदारी और माल के जो कि इनको हासिल हैं, इनके मौरूमी अधिकृत देश पर और निज उस मुल्क पर

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जो प्रदान किए अथवा परिवर्तन हुए हैं और जिसकी फहरिस्त सनद हाजा के साथ शामिल है, बराबर बहाल और मकबूल रहेंगे।
दफा (2) वास्तशनायेजा अराजी माफी मुफस्सिला जल इलाका कोटकपूरा के जो अब वसूल नहीं हुआ। सरकार अंग्रेज रईस मौसूफ से और उनके किसी जांनशीन से और उनके मातहत जमींदार और जिलेदारों से और उनके खवीसों से करीबों या मुतवसीलों से कोई खिराज या बाज किसी तरह की खिदमत की बाबत हर्गिज वसूल नहीं करेगी। अराजियात लाखिराज इलाका कोट कपूरा की बाबत जो कि सरकार अंग्रेजी के कब्जे में आ गई हैं या आइन्दः वाज गश्त करें मुबलिग चार हजार दो सौ अड़तीस रुपया मुकर्रिर हैं इनमें खिसारह का मुआविजा जो बवजह माफ करने महसूल शायर के सरकार रियासत को मुजरा दिया गया है। दो हजार रुपया सालाना बाकी या फितनी सरकार अज जुमला चार हजार दो सौ अड़तीस रुपया, दो हजार दो सौ अड़तीस रुपया है।
दफा (3) राजा साहब मौसूफ ने जर तबादिला सिखिसारा सरकार अंग्रेजी से मिल जाने के सबब अपनी तरफ से और अपने जांनशीनों की तरफ से हक तहसील एक्साइज (खाने-पीने की वस्तु का महसूल) का कस्टम हमेशा के लिए छोड़ दिया है।
दफा (4) जबकि सरकार अंग्रेजी की मंशा है कि राजा साहब फरीदकोट का खानदान हमेशा कायम व बरकरार रहे इसलिए साहब मौसूफ और उनके जांनशीनों को औलाद जेना मनकूहा औरत के पेट से न होने की सूरत में उनके खानदान के दस्तूर के मुताबिक अपना जांनशीन मुकर्रर कर देने का हमेशा के लिए दिया गया है।
दफा (5) सरकार अंग्रेजी की रिआया जो राजा साहब के मुल्क में इरतकाब जुर्म करके माखूम हो, उस पर अख्तियारात शुन्दर्जे चिट्ठी साहिवानजीशान कोर्ट आफ डाइरेक्टरस् इस्मी गवर्नमेंट मद्रास नम्बर 13 मुवर्रिखा यकम जून सन् 1836 ई० राजा साहब मौसूफ और उनके जांनशीनों को हासिल होंगे। राजा साहब मौसूफ और उनके जांनशीन अपनी रियासत के इंसाफ देने और आराम बहबूदी बढ़ाने में साथी रहेंगे और पहले इकरारनामे की शर्तों के मुताबिक सती होने, बुर्दा फरोशी, दुख्तरकुशी की रस्मों को अपने मुल्क में से बिलकुल मौकूफ और बन्द करेंगे और जो लोग कि इन जुर्मों में से किसी अपराध के अपराधी होंगे उनको दूसरों की भलाई के लिए कठिन दण्ड देंगे।
दफा (6) राजा साहब बहादुर मौसूफ और उनके जांनशीन अंग्रेज सरकार की खैरख्वाही फर्माबरदारी और अकीदतमन्दी से मुनहरफ नहीं होंगे।
दफा (7) अगर कभी सरकार अंग्रेजी के दुश्मनों की फौज उधर सर उठावें तो राजा साहब मौसूफ सरकार अंग्रेजी की रफाकत में उस दुश्मन का मुकाबला

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करेंगे। और अपने मकदूर भर गडों और रसद का सामान बहम पहुंचाने में अफसरान सरकारी की ख्वाहिश पर कौशिश करेंगे।
दफा (8) राजा साहब मौसूफ अपने मुलाजिमों की मारफत रेल की सड़कों, फरुद गाहों, शाही सड़कों और पुलों की तामीर के मौके पर हस्व दस्तूर जरूरी चीजें वकीमत मरूजा बहम पहुंचावेंगे और रेल की सड़कों और शाही सड़कों के जेर आमद जमीन विला किसी कीमत और मुआविजा के छोड़ देंगे।
दफा (9) राजा साहब मौसूफ और उनके जांनशीन हमेशा सरकार अंग्रेजी की वफादारी और इरादतमन्दी पर साबित कदम रहेंगे। और सरकार मन्दूह भी हमेशा राजा साहब मौसूफ और उनके खानदान की इज्जत और मर्तवा कायम रखने की ताक मुतवजह रहेगी।

फहरिस्त मुमालिक ममलूका राजा साहब फरीदकोट

मुल्क मौरूसी - परगना फरीदकोट, देहात परगना, परगना दीपसिंहवाला, कोटकपूरा व औज मौजा महमूआना सुलतानखानवाला अनाम-उ हुये।

मुल्क हासिक किरदः राजा सा० बहादुर - देहात परगना कोटकपूरा भगत अतिया सरकार अंग्रेजी सिवाये मौजा सविमाना जो वमूजिब तहरीर साहब चीफ कमिश्नर बहादुर पंजाब 4 मई 1858 ई० अंग्रेजी कलमरू में शामिल हुआ।

खजाने का पहला ढंग भी महाराज ने बदल दिया, किले में ही रुपया रखने का प्रबन्ध किया गया। पहले महाजनों के यहां रुपया जमा हुआ करता था। अब किले में सरकारी आदमियों की देख-रेख में रुपया रखने का प्रबन्ध हुआ, हिसाब के कागजात रखने का हुक्म दिया गया। खजाने का अध्यक्ष महाजनों की राय से चुना जाने लगा। कहा जाता है कि यह महाराज बड़े प्रजा-प्रिय थे। प्रजा के लोग दुःख और बीमारी के समय भी इनके नाम को याद करते थे। पिछले समय में जब आप थानेश्वर की तीर्थ-यात्रा से लौटे तो सन् 1874 ई० के अप्रैल महीने में आपका स्वर्गवास हो गया।

विक्रमसिंह

राजा विक्रमसिंह

पिता के स्वर्गवास के बाद अपने राज के मालिक हुए। गद्दी नशीनी के समय बड़ी धूमधाम रही। सरकार के मिलिट्री व सिविल विभाग के बड़े-बड़े अफसरों के अलावा पटियाला के महाराज बहादुर श्री महेन्द्रसिंह जी भी फरीदकोट पधारे। अंग्रेज अतिथियों में कर्नल आरनेग पोलिटिकल एजेण्ट, कप्तान गिरे के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। गद्दी नशीनी के समय महाराज विक्रमसिंह की अवस्था 20 वर्ष की थी। आपको फारसी-उर्दू की शिक्षा मिली हुई थी। उन दिनों अंग्रेजी भाषा का


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शनैः-शनैः प्रचार हो रहा था, इसलिए महाराज ने अंग्रेजी भाषा का भी ज्ञान प्राप्त कर लिया था। राज का कार्य संभालते ही आपने सबसे पहले खजाने के हिसाबात की पड़ताल करनी चाही। क्योंकि बख्शी वीरसिंह जिसके कि चार्ज में खजाना था, महाराज को उस पर विश्वास कम था। खजाने और तोसाखाने की जांच के बाद बन्दोबस्त जमीन को दुरुस्त किया। अंग्रेजी ढंग पर मालगुजारी वसूल करने के कायदे बनाए। ऐसे लोगों को नौकर किया जो इलाका अंग्रेजी में काम कर चुके थे। अदालतों का ढ़ांचा भी अंग्रेजी ढंग पर बनाने की कोशिश की। दीवानी-फौजदारी की अदालतें बनाईं और अपील के नियम निर्धारित किए। अपराधों की जांच और अपराधियों की गिरफ्तारी के लिए पुलिस-विभाग के लिए नियम बनाये। सैनिक विभाग भी नये ढंग का बनाया। शासन-संचालन के मामले में महाराज इतने चतुर थे मि पंजाब के लेफ्टीनेण्ट मि० सर हेनरी डेविस भी इनसे मदद लेते रहते थे।

जिस समय पंजाब को सरकार ने मद्रास की भांति अहाता बनाने की तैयारी की, उस समय रुपये की आवश्यकता पड़ने पर महाराज फरीदकोट ने सभी रियासतों से ज्यादा कर्जा अंग्रेज सरकार को बिना ब्याज के दिया। अर्थात् जहां कश्मीर ने सरकार को तीन लाख कर्ज दिया था, महाराज फरीदकोट ने छः लाख दिया था। अफगानिस्तान पर सन् 1878 ई० में जब अंग्रेज सरकार ने चढ़ाई की तो फौज, रिसाले और तोपों से महाराज ने सहायता दी। इन बातों से पता चलता है कि महाराज ने थोड़े ही समय में राज्य की आर्थिक व सैनिक दोनों शक्तियां ठीक कर ली थीं।

अंग्रेजी सरकार ने इस सहायता से प्रसन्न होकर पहली जनवरी सन् 1879 ई० को गवर्नर-जनरल की ओर से महाराज फरीदकोट और उनके जां-नशीनों को “फरजन्द सआदत निशान हजरत कैसरे हिन्द” का अलकाव प्रदान किया, जिसे महाराज ने एक बड़े दरबार में स्वीकार किया। महाराज की जो फौज अफगानिस्तान गई थी उसकी सच्चाई, नेकचलनी, बहादुरी और सैनिकता की सभी अंग्रेज अफसरों ने महाराज को चिट्ठियां लिख कर खुशी जाहिर की थी। महाराज अंग्रेजों की सहायता करने से कभी नहीं चूके। काहिरा की लड़ाई के समय तथा चीन के झगड़े के समय उन्होंने सरकार को सब तरह की मदद देने की इच्छा प्रकट की थी। अफगानिस्तान में मारे गए सैनिकों के परिवार की सहायता के लिए जब सरकार ने फण्ड खोला तो महाराज ने दिल खोलकर रुपये से सहायता की। इन सहायताओं से अंग्रेज सरकार महाराज फरीदकोट की काहिल हो चुकी थी। यहां तक कि सन् 1878 ई० में प्रिन्स ऑफ वेल्स सप्तम एडवर्ड पंजाब में पधारे और पंजाबी राजाओं से मुलाकात की तो फरीदकोट के टीका साहब कुंवर बलवीरसिंह को अपनी गोद में बिठा लिया और बड़ा प्रेम प्रकट किया। साथ ही यह भी इच्छा


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प्रकट की कि हम युवराज फरीदकोट की सवारी देखना चाहते हैं। लेकिन महारानी साहिबा के बीमार हो जाने के कारण महाराज व युवराज फरीदकोट लौट आए और प्रिन्स ऑफ वेल्स के साथ अधिक दिन रहने का संयोग प्राप्त न रहा।

महाराज ने मुल्की व राजनैतिक उन्नतियों के सिवा धार्मिक तथा कौमी कामों में भी खूब दिलचस्पी ली थी। सिख-धर्म के मुख्य ग्रंथ - ग्रन्थ-साहब की सरल और संक्षिप्त टीका कराई, और टीका कराने में जो खर्च हुआ, कुल अपनी ओर से किया। टीका कराने में 20 वर्ष तक ज्ञानी लोग काम करते रहे थे और एक लाख रुपया खर्च हुआ था। फिर टीका के छपाने का कार्य आरम्भ किया, जो महाराज बलवीरसिंह के समय में जाकर खतम हुआ। दूसरे, महाराज ने अमृतसर के गुरुद्वारे के ऊपर बिजली का प्रबन्ध कराया था, उस समय इस काम में अब से कई गुना खर्च होता था। प्रजा के अन्य मजहबी लोगों के अमन-अमान का भी महाराज खूब ध्यान रखते थे। एक समय मुसलमानों के दो सम्प्रदायों में मजहबी झगड़ा चला। महाराज ने दोनों फिरकों के विद्वानों को बुलाकर सत्य बात जानने के लिए मुवाहिसा कराया। लेकिन मुवाहिसे से कोई बात तय नहीं हुई, इसलिए फिर अपने ही विचारों के माफिक उनके झगड़ों का निबटारा कर दिया।

देश में सब तरह का अमन था। अंग्रेजों के कानूनी राज्य ने जहां विद्रोही लोगों को दबाया था, वहां रईसों के घरेलू झगड़ों को भी अपने रौब से सदा के लिए मिटा दिया था। जहां आए दिन भगवती लपलपाया करती थी, वहां अब बिल्कुल सन्नाटा था। इस समय को शान्ति का समय कहा जाता है। शान्ति के समय लोग अपनी माली हालत सुधारने, व्यापार बढ़ाने की धुनि में लगते हैं। राजा-रईस भी यही करते हैं। खजाने में रुपया तो था ही, महाराज ने भी फरीदकोट शहर को नए सिरे से बसाने की नींव डाली। पहले महाजन लोग गढ़ के भीतर रहते थे, अब गढ़ केवल राजमहल बनाने के लिए सुरक्षित रखा गया। गढ़ के बाहर शहर आबाद किया गया। नए ढ़ंग के बाजार, हाट, गली, कूचे और मकान बने। इस तरह फरीदकोट पहले से अधिक रौनक का शहर हो गया। बाग-बगीचे और कोठियों ने जहां उसकी शोभा को बढ़ाया, मन्दिर, स्कूल और शफाखानों ने उसे ख्याति दी। महाराज ने मुसाफिरों के आराम के लिए शहर में धर्मशाला और सराय भी बनाईं। नए ढ़ंग के शहर में मंडी के बनवाने से व्यापारिक उन्नति हुई। शहर के चारों ओर सड़कें बनवाईं। इनके अलावा जो सड़क फिरोजपुर राज्य की सीमा तक आती थी, उसे कोटकपूरा तक महाराज ने पूरा कर दिया, जिससे यात्रियों को बड़ी सुविधा हो गई।

इन्हीं महाराज के समय में राज्य में होकर रेल निकली जो सरकार अंग्रेजी की है। वह कोट कपूरा, भटिंडा, सिरसा और हिसार से होती हुई रेवाड़ी जंक्शन


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से देहली और बम्बई को चली गई है। रेलवे के सिवा राज्य में नहर का प्रबन्ध महाराज के आगे हो गया जिससे बहुत से भू-भाग की सिंचाई हो जाती थी।

महाराज के तीन औलाद हुईं - दो पुत्र और एक पुत्री। संवत् 1926 में भादों बदी अष्टमी को राजकुमार बलवीरसिंहजी का जन्म हुआ और संवत् 1942 फागुन में रियासत मनी (अम्बाला जिले में है) के राजा भगवानसिंहजी की की सुपुत्री के साथ राजकुमार साहब की शादी हुई।

पौष संवत् 1933 ई० में राजकुमारी पैदा हुई जिनकी शादी 1955 विक्रमी में मुरसान (अलीगढ) के राजकुमार के साथ हुई। सावन सं० 1936 विक्रमी में कुंवर गजेन्द्रसिंहजी पैदा हुए जिनकी शादी संवत् 1951 में बूडिया (अम्बाला) में हुई। ये शादियां महाराज ने बड़ी धूमधाम के साथ कीं, बड़ा ही धन खर्च किया। राजा प्रजा दोनों ने इन शादियों में भारी खुशियां मनाईं। महाराज ने सदावर्त भी कायम किये। थानेसर में तथा फरीदकोट में गरीब और अभ्यागत लोगों को बना हुआ भोजन देने का प्रबन्ध हुआ जो बहुत दिन तक बराबर चला जा रहा।

महाराज के समय में सभी बातें अच्छी हुईं, प्रजा और सरदार सभी महाराज से खुश रहे। किन्त खेद इतना है कि युवराज साहब और महाराज में किन्हीं कारणों से अनबन हो गई। वह अनबन यहां तक बढ़ी कि अंग्रेजी पोलीटिकल डिपार्टमेंट तक यह बात पहुंच गई और महाराज के अन्तिम काल तक अनबन न मिटी। ऐसे योग्य महाराज का सन् 1898 ई० के अगस्त महीने में स्वर्गवास हो गया। उस समय युवराज साहब पहाड़ पर थे, तार देकर उनको राजधानी में बुलाया गया। स्वर्गवासी महाराज का शोक राज्य और राज्य के बाहर सब जगह मनाया गया।

महाराज बलवीरसिंह

महाराज बलवीरसिंह - मि० सिलकाक कमिश्नर जालन्धर ने फरीदकोट आकर बलवीरसिंह जी को राज्याधिकार देने की रस्म अदा की। राजतिलक की रस्म पहले ही अदा हो चुकी थी। अच्छे मुहूर्त के समय में संवत् 1955 (1898 ई.) के पूष में राजगद्दी पर बैठने के कुल रस्म अदा हुए। राजगद्दी के बाद महाराज ने खुशी में देशी-विदेशी मेहमानों को भोज दिया जिसमें मि० इण्डरसन कमिश्नर जालंधर, मि० सी० एम० किंग डिप्टी फीरोजपुर अंग्रेज सरकार की ओर से पधारे और सर राजेन्द्रसिंह महाराज पटियाला, लोकेन्द्र महाराज राणा निहालसिंह धौलपुर जातीय नरेशों में से शामिल हुए। इन बड़े-बड़े मेहमानों के आने से फरीदकोट में बड़ी खुशी और चहल-पहल रही। कमिश्नर ने महाराज साहब की कमर में अपने हाथ से किरच बांधी और एक घड़ी भी दी। महाराज धौलपुर और पटियाला की ओर से तोहफे दिए गए। अन्य रियासतों से भी तोहफे भेजे हुए आये थे।


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युवावस्था में आपने शिक्षा-क्षेत्र में प्रवेश किया। गुरुमुखी तो पहले से ही जानते थे, फारसी, अंग्रेजी की शिक्षा पं० स्वरूप नारायण जी से पाई। फिर चार साल मेयो कॉलेज अजमेर में रहकर योग्यता प्राप्त की। इन दिनों बाबू अमरनाथजी बी०ए० भी आपके साथ रहे। जिस समय आप पढ़ रहे थे, उसी समय आपकी शादी हुई। आपने अपने छोटे भाई गजेन्द्रसिंह की शिक्षा का प्रबन्ध एक प्राइवेट अंग्रेज मास्टर रखकर किया, जिसे सालाना छः हजार रुपया और सवारी आदि मुफ्त दी जाती थी। भाई के गुजारे के लिए अलग जायदाद और रहने के लिए उम्दा कोठियां भी बनवाईं थीं। किन्तु शोक के साथ कहना पड़ता है कि 21 साल की उम्र में भरी जवानी में देहान्त हो गया। उस तरह दो भाइयों में से सिर्फ अकेले महाराज ही रह पाए। कुछ ही दिन बाद बीबी जी साहिबा का भी जो कि मुड़सान ब्याही थी, स्वर्गवास हो गया। वह फरीदकोट में बुलाई गई थी। यहीं उनके पुत्र-रत्न हुआ। इसी समय बीमारी ने धर दबाया और मासूम बच्चे को छोड़कर चल बसीं।

इस आघात और शोक-रंज से जब दिल बेचैनी से सुलझा तो राज्य की भलाई के लिए उन लोगों को नियुक्त किया जो पहले से राज-भक्त साबित हुए थे, अथवा जिन्होंने नए जमाने के माफिक योग्यता प्राप्त कर ली थी। किन्हीं कारणों वश राज के बिछुड़े हुए लोगों को भी इकट्ठा किया। उन्हें नौकरियां और भूमि देकर राज्य में आबाद किया। बिरादरी के सम्बन्ध जो कि कुछ कबीलों में अविच्छिन्न हो गए थे, स्थिर किये।

आपके शासन-काल में सन् 1899 में अंग्रेजों और दक्षिणी अफ्रीका के लोगों में युद्ध छिड़ा। इस समय अंग्रेज सरकार की प्रार्थना पर आपने घोड़े भेजकर सहायता की, जिसके लिए युद्ध की समाप्ति पर सरकार ने महाराज को धन्यवाद दिया। प्रजा के फायदे के लिए तालाब, बावड़ी बनवाये। कहत के समय जो कि लगातार पांच वर्ष तक रहा, महाराज ने जहां लगान में माफी दी, वहीं अपने खत्तों में से गल्ला देकर भी प्रजा के गरीब लोगों की मदद की। बिना ब्याज और म्याद के कर्जा बांटा गया। जो बिल्कुल तंग हाल थे, उन्हें अनाज मुफ्त दिया गया। 30 अक्टूबर सन् 1900 ई० में आपने प्रजा का एक दरबार भी किया जिसमें सभी श्रेणी के प्रजा-जनों ने शामिल होकर महाराज को आशीर्वाद दिया। इस दरबार में निम्न घोषणा की -

  • (1) स्कूल मिडिल से बढ़ाकर एन्ट्रेंस तक कर दिया जायेगा।
  • (2) मेला व मवेशी फरीदकोट की भांति कोटकपूरा में भी हुआ करेगा।
  • (3) अदालतों के जाब्ते और कायदों में सुधार किये जायेंगे तथा महकमों के लिए मकानात भी बनाये जायेंगे।

जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-473


  • (4) मुसाफिरों के लाभ के लिए रेलवे के सामने एक वेटिंग रूम बनाया जायेगा।

इस दरबार में प्रजा के लोगों ने महाराज से रियासत का दौरा करने की प्रार्थना की। उसे स्वीकार करके कुल राज्य में दौरा किया और प्रजा की हालत को देखा। साथ ही अनुभव किया कि प्रजा को किन सुविधाओं की आवश्यकता है।

महाराज चित्रकारी के कार्य में भी निपुण थे। वह मकानात के चित्र स्वयम् तैयार करके कारीगरों को देकर इमारत बनवाते थे। फरीदकोट में उनके समय में उनके ही बनाये मकानों के आधार पर कई इमारतें हैं।

महाराज व्रजेन्द्रसिंह

महाराज बलवीरसिंह जी की मृत्यु के बाद राजसिंहासन पर उनके भाई गजेन्द्रसिंह जी के सुपुत्र श्री व्रजेन्द्रसिंह जी बैठे। क्योंकि व्रजेन्द्रसिंह जी बालिग नहीं थे, इसलिए राज्य-प्रबन्ध कौंसिल के हाथ रहा। महाराज को चीफस् कालेज में शिक्षा दी जाने लगी। जब वह युवा हो गये तो सरकार अंग्रेज ने 24 नवम्बर 1916 ई० को उन्हें राज्याधिकार दे दिए। उस समय महाराज की अवस्था 20 साल की थी। उन दिनों अंग्रेजी और जर्मनी में घोर युद्ध हो रहा था। महाराज ने अंग्रेज सरकार को सब प्रकार से सहायता दी। इसलिए बदले में सरकार ने आपको 'मेजर' की उपाधि से विभूषित किया। महाराज की इच्छा थी कि राज्य में नवीन सुधार हों, इसलिए आपने 'व्रजेन्द्र हाईस्कूल', जनाना अस्पताल, कृषि-विभाग, सदर अस्पताल, वाटर-वर्क्स, टेलीफून और बिजली के प्रकाश से शहर को व राज को उन्नत बनाने का आयोजन किया। प्रजा की भलाई के लिए और भी सुधार करना चाहते थे। उनकी बहुत कुछ इच्छा थी, परन्तु दो ही वर्ष के भीतर उनका स्वर्गवास हो गया। 23 दिसम्बर 1918 को 22 वर्ष की अवस्था में प्रजा से वे सदा के लिए पृथक हो गये।

महाराज हीरेन्द्रसिंह

महाराज व्रजेन्द्रसिंह जी के स्वर्गवास के पश्चात् उनके पुत्र श्री हीरेन्द्रसिंह जी गद्दी पर बिठाये गये। उस समय आपकी अवस्था केवल तीन बरस की थी। आपका जन्म 28 जनवरी सन् 1915 ई० को हुआ था। राज्य का प्रबन्ध कौंसिल-आफ एडमिनिस्ट्रेशन के सुपुर्द था। दस वर्ष की अवस्था में अपने छोटे भाई कुंवर मनजीतइन्द्रसिंह के समेत चीफ कालेज में भर्ती हो गए। सन् 1932 ई० में महाराजा साहब ने डिप्लोमा की परीक्षा बड़ी सफलता से उत्तीर्ण कर ली। अंग्रेजी मजमून में सर्वश्रेष्ठ रहने के कारण आपको गाडले मैडिल मिला। इतिहास और


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-474


भूगोल के निबन्ध में आप प्रथम रहे। आप नरेन्द्र-मण्डल के मेम्बर भी थे। भरतपुर की स्वर्गीय माजी साहिबा राजेन्द्र कुमारी के आप भतीजे थे।


सप्तम् अध्याय जारी → पृष्ठ 474 से आगे जायें

नोट - इस पुस्तक में दिए गए चित्र मूल पुस्तक के भाग नहीं हैं. ये चित्र विषय को रुचिकर बनाने के लिए जाटलैंड चित्र-वीथी से लिए गए हैं.


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