Kanpur

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Kanpur Dehat District Map
Bithur on Kanpur Nagar District Map

Kanpur (कानपुर) is a city and district in Uttar Pradesh. Author visited Rampur on 30.9.1980 and provided tour-note here. Author visited Rampur on 25.9.1980 and provided tour-note here

Location

Kanpur is situated on the bank of the Ganges River.

Origin of name

The name is said to be derived from Karnapura (meaning "town of Karna", one of the heroes of the Mahabharata).

Administrative division

Kanpur District was divided into two districts, namely Kanpur Nagar and Kanpur Dehat in year 1977. The administrative headquarters of the Kanpur District district are at Mati-Akbarpur.

Kanpur Nagar district

It is a part of Kanpur division and its district headquarters is Kanpur. It includes:

Rank Metropolitan Area Area (km sq.) 2011/2001 (Provisional figures)
1 Kanpur 450 2,920,067
2 Kanpur Cantonment 50 108,035
3 Armapur Estate 20 20,797
4 Northern Railway Colony 15 29,708
5 Ghatampur 12 35,496
6 Bilhaur 10 18,056
7 Chakeri 5 9,868
8 Bithoor 5 9,647
9 Choubepur Kalan 5 8,352
10 Shivrajpur 3 7548

History

Parihar rulers also ruled more than 200 years in Kanpur, as Kannauj was the capital of Parihar rulers & Kannauj is very near by located to Kanpur. Some historical accounts suggest Pratihara emperor, Mihir Bhoja, has ruled in Kanpur since nearby Kannuaj was the capital of Parihar.[1]

Raja Kanh Deo of Kanhpuria clan established the village Kanhpur, which later came to be known as Kanpur.[2][3]

Kanpur continued its association with Kannauj during the reigns of Harsha Vardhan, Mihir Bhoja, Jai Chand and early Muslim rulers through the Sur Dynasty. The first mention of Kanpur was made in 1579 during Sher Shah's regime.

Up to the first half of the 18th century, Kanpur was an insignificant village.

Historical places in Kanpur district

  • Bithoor is located about 20 km upstream from the city. According to Hindu mythology, just after creating the universe, Lord Brahma performed the Ashvamedha at Bithoor and established a lingam there. Another legendary site at Bithoor is the Valmiki Ashram, where the famous sage Valmiki is supposed to have written the Sanskrit epic, the Ramayana. According to this epic, Queen Sita, on being exiled by King Ramachandra of Ayodhya, spent her days in seclusion at the ashram bringing up her twin sons, Lava and Kusha.
  • Jajmau is about 8 km east of the city. At Jajmau, there are remains of an ancient fort, now surviving as a huge mound. Recent excavations on this mound indicate that the site is very old, perhaps dating back to the Vedic age. Popular legends state that the fort belonged to Yayati, a king of the ancient Chandravanshi race.
  • Shivrajpur, 20 km from Kanpur, there is an ancient temple built by Chandel Raja Sati Prasad in memory of his queen. This temple is supposed to have been built in a night and is situated on the banks of the Ganges. This temple is famous for its architectural work and carving designs.

कानपुर का इतिहास

कानपुर भारत के उत्तर प्रदेश राज्य के कानपुर नगर ज़िले में स्थित एक औद्योगिक महानगर है। यह नगर गंगा नदी के दक्षिण तट पर बसा हुआ है। प्रदेश की राजधानी लखनऊ से 80 किलोमीटर पश्चिम स्थित यह नगर प्रदेश की औद्योगिक राजधानी के नाम से भी जाना जाता है। इसका प्राचीन नाम कर्णपुर था जो महाभारतकाल में कर्ण द्वारा बसाया माना जाता है। ऐतिहासिक और पौराणिक मान्यताओं के लिए चर्चित ब्रह्मावर्त (बिठूर) के उत्तर मध्य में स्थित ध्रुवटीला त्याग और तपस्या का सन्देश देता है।

1801 में जब अंग्रेज़ों ने इस पर और इसके आसपास के क्षेत्र पर क़ब्ज़ा किया, तब कानपुर सिर्फ़ एक गांव था। अंग्रेज़ों ने इसे अपना सीमांत मोर्चा बनाया। 1857 के भारतीय विद्रोह के दौरान इस शहर में भारतीय सेनाओं ने ब्रिटिश टुकड़ियों का क़त्लेआम किया था। कहा जाता है कि इससे बचे हुए लोगों को एक कुएं में फेंक दिया गया था। जहाँ अंग्रेज़ों ने एक स्मारक का निर्माण करवाया था।

कानपुर 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के प्रमुख स्थलों में से एक है। कानपुर में स्थित एक इमारत बीबीगढ़ में 1857 ई. के सिपाही विद्रोह के दौरान 211 अंग्रेज़ स्त्री-पुरुषों और बच्चों को, जिन्होंने 26 जून को आत्मसमर्पण किया था, 15 जुलाई को नाना साहब और तात्या टोपे के आदेशानुसार मार डाला गया और उनके शवों को क़रीब के कुएँ में फेंक दिया गया।

ब्रिटिश शासन के प्रारम्भिक दिनों से ही यह नगर भारत का प्रमुख सैनिक-केन्द्र रहा है। 1857 ई. के स्वतंत्नता-संग्राम (जिसे अंग्रेज़ों ने ‘सिपाही-विद्रोह’ या ‘गदर’ कहकर पुकारा) में इसने प्रमुख भूमिका अदा की। जिस समय स्वधीनता-संग्राम छिड़ा, कानपुर के निकट बिठूर में भूतपूर्व पेशवा बाजीराव के पुत्र नाना सहाब रहते थे। उन्होंने अपने को ‘पेशवा’ घोषित किया और कानपुर स्थित विद्रोही सिपाहियों का नेतृत्व अपने हाथ में ले लिया। 8 जून 1857 ई. को ब्रिटिश फ़ौज़ी अड्डे को घेर लिया गया और 27 जून को ब्रिटीश नागरिकों ने इस आश्वासन पर आत्मसमर्पण कर दिया कि उन्हें इलाहाबाद तक सुरक्षित जाने दिया जायगा। किन्तु ब्रिटिश सेना जिस समय नौकाओं के ज़रिये इस स्थान से रवाना होने की तैयारी कर रही थी, उसपर प्राणघाती गोलाबारी शुरू कर दी गयी। चार को छोड़कर सारे ब्रिटिश सैनिक मारे गये। इस कत्ले-आम ने अंग्रेज़ों के दिमाग में बदले की जबर्दस्त भावना पैदा कर दी। नील और हैबलक के नेतृत्व में अंग्रेज़ी सेना ने कानपुर शहर पर फिर क़ब्ज़ा कर लिया और देशवासियों पर भारी अत्याचार किये। नवम्बर के अन्त में नगर पर विद्रोही ग्वालियर टुकड़ी का क़ब्ज़ा था, लेकिन दिसम्बर 1857 ई. के शुरू में उसपर सर कोलिन कैम्पवेलने अधिकास कर लिया। आजकल कानपुर प्रमुख औद्योगिक केन्द्र है। 1931 ई. में यहाँ भयानक साम्प्रदायिक दंगा हुआ, जिसमें विख्यात कांग्रेस-नेता श्री गणेश शंकर विद्यार्थी शहीद हो गये। कानपुर उत्तरी भारत का सबसे बड़ा औद्योगिक केन्द्र है। यहाँ पर सूती व ऊनी कपड़ों की मिलें बहुसंख्या में हैं और चमढ़े का काम विशाल पैमाने पर होता है।

ऊत्तर प्रदेश और भारत के सबसे बड़े शहरों में से एक कानपुर का उत्तर भारत में औद्योगिक नगर के रूप में प्रादुर्भाव अमेरिकी गृहयुद्ध (1861-1865) के दौरान हुआ। जब मैनचेस्टर की मिलों में कपास की आपूर्ति ठप्प हो गई। तत्कालीन ज़िला मजिस्ट्रेट डब्ल्यू.एस. हेल्से ने ज़िले में कपास की खेती की शुरुआत करवाई। लड़ाई के जारी रहने पर कपास की क़ीमतें आसमान को छूने लगीं कानपुर एक समृद्ध ज़िला व कानपुर नगर एक वस्त्र उद्योग केंद्र बन गया, लेकिन कानपुर की समृद्ध पिछले पचास वर्षों में धुंधली पड़ गयी है। औद्योगिक पतन का असर पूरे शहर में देखा जा सकता है।

संदर्भ- भारतकोश-कानपुर

ययातिपुर

विजयेन्द्र कुमार माथुर[4] ने लेख किया है ...ययातिपुर (AS, p.770) कानपुर, उत्तर प्रदेश से 3 मील की दूरी पर है। राजा ययाति के क़िले के अवशेष जाजमऊ की प्राचीनता के द्योतक हैं। किंतु श्री नं० ला० डे के अनुसार यह क़िला राजा जीजत का बनवाया हुआ है। जीजत चंदेलों का पूर्वज था। कानपुर की प्रसिद्धि के पूर्व जाजमऊ इस क्षेत्र का महत्वपूर्ण नगर था।

श्योराजपुर

विजयेन्द्र कुमार माथुर[5] ने लेख किया है .....श्योराजपुर (AS, p.914) जिला कानपुर, उ.प्र. से हाल ही में उत्तर प्रदेश की सर्वप्राचीन मूर्तिकला के उदाहरण मिले हैं। ये ताम्र निर्मित मानवकृतियां हैं जो ताम्रपाषाणयुगीन (लगभग 3000 वर्ष प्राचीन) हैं। ताम्रपाषाणयुगीन सिंधु घाटी सभ्यता का समकालीन माना जाता है। नई खोजों से सिद्ध होता है कि सिंधु घाटी सभ्यता केवल सिंध पंजाब तक ही सीमित नहीं थी, किंतु उसका प्रसार समस्त उत्तर भारत, राजस्थान और गुजरात तक था। उत्तर प्रदेश में इसके अवशेष बहादराबाद (हरिद्वार के निकट) में भी मिले हैं।

जाटों का शासन

दलीप सिंह अहलावत[6] ने लिखा है.... ययाति जम्बूद्वीप के सम्राट् थे। जम्बूद्वीप आज का एशिया समझो। यह मंगोलिया से सीरिया तक और साइबेरिया से भारतवर्ष शामिल करके था। इसके बीच के सब देश शामिल करके जम्बूद्वीप कहलाता था। कानपुर से तीन मील पर जाजपुर स्थान के किले का ध्वंसावशेष आज भी ‘ययाति के कोट’ नाम पर प्रसिद्ध है। राजस्थान में सांभर झील के पास एक ‘देवयानी’ नामक कुंवा है जिसमें शर्मिष्ठा ने वैरवश देवयानी को धकेल दिया था, जिसको ययाति ने बाहर निकाल लिया था[7]। इस प्रकार ययाति राज्य के चिह्न आज भी विद्यमान हैं।

महाराजा ययाति का पुत्र पुरु अपने पिता का सेवक व आज्ञाकारी था, इसी कारण ययाति ने पुरु को राज्य भार दिया। परन्तु शेष पुत्रों को भी राज्य से वंचित न रखा। वह बंटवारा इस प्रकार था -

1. यदु को दक्षिण का भाग (जिसमें हिमाचल प्रदेश, पंजाब, हरयाणा, राजस्थान, दिल्ली तथा इन प्रान्तों से लगा उत्तर प्रदेश, गुजरात एवं कच्छ हैं)।

2. तुर्वसु को पश्चिम का भाग (जिसमें आज पाकिस्तान, अफगानिस्तान, ईरान, इराक, सऊदी अरब,यमन, इथियोपिया, केन्या, सूडान, मिश्र, लिबिया, अल्जीरिया, तुर्की, यूनान हैं)।

3. द्रुहयु को दक्षिण पूर्व का भाग दिया।

4. अनु को उत्तर का भाग (इसमें उत्तरदिग्वाची[8] सभी देश हैं) दिया। आज के हिमालय पर्वत से लेकर उत्तर में चीन, मंगोलिया, रूस, साइबेरिया, उत्तरी ध्रुव आदि सभी इस में हैं।

5. पुरु को सम्राट् पद पर अभिषेक कर, बड़े भाइयों को उसके अधीन रखकर ययाति वन में चला गया[9]। यदु से यादव क्षत्रिय उत्पन्न हुए। तुर्वसु की सन्तान यवन कहलाई। द्रुहयु के पुत्र भोज नाम से प्रसिद्ध हुए। अनु से म्लेच्छ जातियां उत्पन्न हुईं। पुरु से पौरव वंश चला[10]

जब हम जाटों की प्राचीन निवास भूमि का वर्णन पढते हैं तो कुभा (काबुल) और कृमि (कुर्रम) नदी उसकी पच्छिमी सीमायें, तिब्बत की पर्वतमाला पूर्वी सीमा, जगजार्टिस और अक्सस नदी


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-185


उत्तरी सीमा और नर्मदा नदी दक्षिणी सीमा बनाती है। वास्तव में यह देश उन आर्यों का है जो चन्द्रवंशी अथवा यदु, द्रुहयु, तुर्वसु, कुरु और पुरु कहलाते थे। भगवान् श्रीकृष्ण के सिद्धान्तों को इनमें से प्रायः सभी ने अपना लिया था। अतः समय अनुसार वे सब जाट कहलाने लग गये। इन सभी खानदानों की पुराणों ने स्पष्ट और अस्पष्ट निन्दा ही की है। या तो इन्होंने आरम्भ से ही ब्राह्मणों के बड़प्पन को स्वीकार नहीं किया था या बौद्ध-काल में ये प्रायः सभी बौद्ध हो गये थे। वाह्लीक,तक्षक, कुशान, शिव, मल्ल, क्षुद्रक (शुद्रक), नव आदि सभी खानदान जिनका महाभारत और बौद्धकाल में नाम आता है वे इन्हीं यदु, द्रुहयु, कुरु और पुरुओं के उत्तराधिकारी (शाखायें) हैं[11]

सम्राट् ययातिपुत्र यदु और यादवों के वंशज जाटों का इस भूमि पर लगभग एक अरब चौरानवें करोड़ वर्ष से शासन है। यदु के वंशज कुछ समय तो यदु के नाम से प्रसिद्ध रहे थे, किन्तु भाषा में ‘य’ को ‘ज’ बोले जाने के कारण जदु-जद्दू-जट्टू-जाट कहलाये। कुछ लोगों ने अपने को ‘यायात’ (ययातेः पुत्राः यायाताः) कहना आरम्भ किया जो ‘जाजात’ दो समानाक्षरों का पास ही में सन्निवेश हो तो एक नष्ट हो जाता है। अतः जात और फिर जाट हुआ। तीसरी शताब्दी में इन यायातों का जापान पर अधिकार था (विश्वकोश नागरी प्र० खं० पृ० 467)। ये ययाति के वंशधर भारत में आदि क्षत्रिय हैं जो आज जाट कहे जाते हैं। भारतीय व्याकरण के अभाव में शुद्धाशुद्ध पर विचार न था। अतः यदोः को यदो ही उच्चारण सुनकर संस्कृत में स्त्रीलिंग के कारण उसे यहुदी कहना आरम्भ किया, जो फिर बदलकर लोकमानस में यहूदी हो गया। यहूदी जन्म से होता है, कर्म से नहीं। यह सिद्धान्त भी भारतीय धारा का है। ईसा स्वयं यहूदी था। वर्त्तमान ईसाई मत यहूदी धर्म का नवीन संस्करण मात्र है। बाइबिल अध्ययन से यह स्पष्ट है कि वह भारतीय संसकारों का अधूरा अनुवाद मात्र है।

अब यह सिद्ध हो गया कि जर्मनी, इंग्लैंण्ड, स्काटलैण्ड, नार्वे, स्वीडन, रूस, चेकोस्लोवाकिया आदि अर्थात् पूरा यूरोप और एशिया के मनुष्य ययाति के पौत्रों का परिवार है। जम्बूद्वीप, जो आज एशिया कहा जाता है, इसके शासक जाट थे[12]

लखनऊ-कानपुर भ्रमण

लखनऊ-कानपुर भ्रमण: लेखक द्वारा 'भारतीय वन अनुसंधान संस्थान एवं कालेज देहरादून' में प्रशिक्षण के दौरान किए गए ईस्ट इण्डिया टूर – भाग एक (25.9.1980-15.10.1980) का ही एक अंश है। भ्रमण के दौरान ब्लेक एंड व्हाइट छाया चित्र साथी अधिकारियों या आईएफ़सी के फोटोग्राफर श्री अरोड़ा द्वारा प्राय: लिए जाते थे वही यहाँ दिये गए हैं। इन स्थानों की यात्रा बाद में करने का अवसर नहीं मिला इसलिये केवल कुछ स्थानों के रंगीन छाया-चित्र पूरक रूप में यथा स्थान दिये गए हैं।

28.9.1980: बरेली (8 बजे) - सीतापुर (13 बजे) - लखनऊ (17 बजे), दूरी = 255 किमी

बरेली से सुबह 8 बजे बस से रवाना हुए। पैक लंच साथ ले लिया था। रास्ते में एक शहर पड़ा जलालाबाद। यह शाहजहाँपुर‎ जिले में स्थित है। शाहजहाँपुर‎ जिले को पार कर सीतापुर में प्रवेश करते हैं। सीतापुर आते-आते एक बज गया इसलिए लंच सीतापुर में किया। सीतापुर से आगे बाढ़ के कारण सड़क खराब थी। ट्रकों की बहुत बड़ी कतार लगी थी परन्तु जैसे-तैसे करके बड़ी मुश्किल से वहाँ से निकले। शाम को पांच बजे लखनऊ पहुंचे। रास्ते में पड़ने वाले स्थानों का संक्षिप्त विवरण नीचे दिया गया है।

शाहजहांपुर, उ.प्र., (AS, p.897): शाहजहाँपुर उत्तर प्रदेश राज्य में बरेली से 85 किमी दक्षिण-पूर्व में और लखनऊ से लगभग 160 किलोमीटर पश्चिमोत्तर में बेतवा नदी के किनारे स्थित है। इस नगर को शाहजहाँ के राज्यकाल में बहादुर खाँ और दिलेर खाँ ने 1647 ई. में बसाया था.

सीतापुर: सीतापुर नगर उत्तर प्रदेश राज्य में लखनऊ एवं शाहजहाँपुर मार्ग के मध्य में सरायान नदी के किनारे पर स्थित है। यह बरेली से 185 किमी दक्षिण-पूर्व में है। यह ज़िले का प्रशासनिक केंद्र है। स्थानीय किंवदंती के अनुसार इस शहर का नाम राम की पत्नि सीता के नाम पर पड़ा है। सीतापुर नगर में भारत का प्रसिद्ध नेत्र अस्पताल है। नगर में प्लाइवुड निर्माण का एक कारख़ाना भी है।

कुषाण काल की संध्या में प्राय: संपूर्ण ज़िला भारशिव काल की इमारतों और गुप्त तथा गुप्त प्रभावित मूर्तियों तथा इमारतों से भरा हुआ था। मनवाँ, हरगाँव, बड़ा गाँव, नसीराबाद आदि पुरातात्विक महत्व के स्थान हैं। नैमिष और मिसरिख पवित्र तीर्थ स्थल हैं। राजधानी के करीब सीतापुर जिले में ऐतिहासिक पवित्र तीर्थ स्थल नैमिषारण्य दुनिया भर में प्रसिद्ध है। इसे नीमसार के नाम से जाना जाता है। नीमसार सीतापुर जिले के एक गांव में है। मान्यता यह है कि पुराणों की रचना महर्षि व्यास ने इसी स्थान पर की थी।

नैमिषारण्य (AS, p.509) (=नीमसार) उत्तर प्रदेश के सीतापुर ज़िले का एक स्थान है। गोमती नदी के तट पर सीतापुर से 20 मील की दूरी पर यह प्राचीन तीर्थ स्थान है। विष्णु पुराण के अनुसार यह बड़ा पवित्र स्थान है। पुराणों तथा महाभारत में वर्णित नैमिषारण्य वह पुण्य स्थान है, जहाँ 88 सहस्र ऋषीश्वरों को वेदव्यास के शिष्य सूत ने महाभारत तथा पुराणों की कथाएँ सुनाई थीं- 'लोमहर्षणपुत्र उपश्रवा: सौति: पौराणिको नैमिषारण्ये शौनकस्य कुलपतेद्वदिशवार्षिके सत्रे, सुखासीनानभ्यगच्छम् ब्रह्मर्षीन् संशितव्रतान् विनयावनतो भूत्वा कदाचित् सूतनंदन:। तमाश्रममनुप्राप्तं नैमिषारण्यवासिनाम्, चित्रा: श्रोतुत कथास्तत्र परिवव्रस्तुपस्विन:'महाभारत, आदिपर्व 1, 1-23.

नैमिष नाम की व्युत्पत्ति के विषय में वराह पुराण में यह निर्देश हैं- 'एवंकृत्वा ततो देवो मुनिं गोरमुखं तदा, उवाच निमिषेणोदं निहतं दानवं बलम्। अरण्येऽस्मिं स्ततस्त्वेतन्नैमिषारण्य संज्ञितम्'-- अर्थात् ऐसा करके उस समय भगवान ने गौरमुख मुनि से कहा कि मैंने एक निमिष में ही इस दानव सेना का संहार किया है, इसीलिए (भविष्य में) इस अरण्य को लोग नैमिषारण्य कहेंगे।

वाल्मीकि रामायण उत्तरकांड 19, 15 से ज्ञात होता है कि यह पवित्र स्थली गोमती नदी के तट पर स्थित थी, जैसा कि आज भी हैं- 'यज्ञवाटश्च सुमहानगोमत्यानैमिषैवने'। 'ततो भ्यगच्छत् काकुत्स्थ: सह सैन्येन नैमिषम्' (उत्तरकांड 92, 2) में श्रीराम का अश्वमेध यज्ञ के लिए नैमिषारण्य जाने का उल्लेख है। रघुवंश 19,1 में भी नैमिष का वर्णन है- 'शिश्रिये श्रुतवतामपश्चिम् पश्चिमे वयसिनैमिष वशी'- जिससे अयोध्या के नरेशों का वृद्धावस्था में नैमिषारण्य जाकर वानप्रस्थाश्रम में प्रविष्ट होने की परम्परा का पता चलता है।

मिसरिख (AS, p.747): जिला सीतापुर, उ.प्र. में वर्तमान नीमसार से 6 मील दूर प्राचीन तीर्थ नैमिषारण्य है जिसे पौराणिक किवदंती में महर्षि दधीचि की बलिदान स्थली माना जाता है| महाभारत वनपर्व 83,91 में इसका उल्लेख है--'ततॊ गच्छेत राजेन्द्र मिश्रकं तीर्थम उत्तमम, तत्र तीर्थानि राजेन्द्र मिश्रितानि महात्मना'| इसके नामकरण का कारण (इस श्लोक के अनुसार) यहां सभी तीर्थों का एकत्र सम्मिश्रण है| मिसरिख वास्तव में नैमिषारण्य क्षेत्र ही का एक भाग है जहां सूतजी ने शौनक आदि ऋषिश्वरों को महाभारत तथा पुराणों की कथा सुनाई थी|

सीतापुर का इतिहास: प्रारंभिक मुस्लिम काल के लक्षण केवल भग्न हिन्दू मंदिरों और मूर्तियों के रूप में ही उपलब्ध हैं। इस युग के ऐतिहासिक प्रमाण शेरशाह द्वारा निर्मित कुओं और सड़कों के रूप में दिखाई देते हैं।

उस युग की मुख्य घटनाओं में से एक तो खैराबाद के निकट हुमायूँ और शेरशाह के बीच युद्ध और दूसरी सुहेलदेव और सैयद सालार के बीच बिसवाँ और तंबौर के युद्ध हैं। सीतापुर के निकट स्थित खैराबाद मूलत: प्राचीन हिन्दू तीर्थ मानसछत्र था। मुस्लिम काल में खैराबाद बाड़ी, बिसवाँ इत्यादि इस ज़िले के प्रमुख नगर थे। ब्रिटिश काल (1856) में खैराबाद को छोड़कर ज़िले का केंद्र सीतापुर नगर में बनाया गया। सीतापुर का तरीनपुर मोहल्ला प्राचीन स्थान है। यह नरोत्तमदास की जन्म स्थली के रूप में प्रसिद्ध है। सीतापुर का प्रथम उल्लेख राजा टोडरमल के बंदोबस्त में छितियापुर के नाम से आता है। बहुत दिन तक इसे छीतापुर कहा जाता रहा, जो गाँवों में अब भी प्रचलित हैं। 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में सीतापुर का प्रमुख हाथ था। बाड़ी के निकट सर हीपग्रांट तथा फैजाबाद के मौलवी के बीच निर्णंयात्मक युद्ध हुआ था।

29.9.1980: लखनऊ भ्रमण

बड़ा इमामबाड़ा लखनऊ में आईएफ़एस 80 बैच
बड़ा इमामबाड़ा लखनऊ में आईएफ़एस 80 बैच

सुबह 8.30 बजे लखनऊ में स्थित कुकरैल क्रोकोडाइल फार्म देखने के लिए रवाना हुए। यहाँ पर मगर के अंडे लाकर उनका सेवन किया जाता है और उसमें से जब बच्चा निकलता है तो उसका पालन पोषण किया जाता है। जब बच्चा काफी बड़ा हो जाता है, इतना बड़ा कि उसको कोई खा न सके, तब उनको अपने प्राकृतिक वातावरण में छोड़ दिया जाता है। यह जगह एक अच्छा पिकनिक स्पॉट है और इसका रख-रखाव भी अच्छा है। यहाँ पर बना वनविश्राम गृह बहुत ही सुन्दर है और मुख्यमंत्री आमतौर पर यहाँ आकर रुकते हैं।

कुकरैल से लौटकर लखनऊ आये। कहते हैं लखनऊ का नाम राम के भाई लक्ष्मण के नाम पर पड़ा है। यह शहर लक्ष्मण ने बसाया था इसलिए पहले लक्ष्मणपुर कहलाता था जो बिगड़ कर लखनपुर या लखनऊ हो गया। यहाँ पर नेशनल बॉटनिकल रिसर्च इंस्टीट्यूट (National Botanical Research Institute) देखा। राष्ट्रीय वनस्पति अनुसंधान संस्थान लखनऊ में स्थित है। यह सीएसआईआर के अंतर्गत है| शाम को तीन बजे मुख्य वनसंरक्षक श्री डीएन तिवारी से मिले। उन्होंने मुख्य रूप से सामजिक वानिकी के बारे में बताया जो वन विभाग का एक नया आयाम है।

चार बजे यहाँ से फ्री होकर लखनऊ के दर्शनीय स्थान देखने गए। यहाँ के दर्शनीय स्थानों में मुख्य हैं - बड़ा इमामबाड़ा, छोटा इमामबाड़ा, शहीद स्मारक, लखनऊ रेजिडेन्सी, रूमी दरवाजा, कैसरबाग आदि। बड़ा इमामबाड़ा लखनऊ की एक ऐतिहासिक धरोहर है। बड़ा इमाम बाड़ा को भूलभुलैया भी कहा जाता है क्योंकि यहाँ बड़े-बड़े हाल हैं और कुछ ढूंढना कठिन दिखता है। यहाँ का ध्वनि प्रबंध देखने लायक है। यहाँ के भवन मुग़ल स्थापत्य कला के सुन्दर उदहारण हैं। लखनऊ के दर्शनीय स्थानों का विस्तृत विवरण आगे दिया गया है।

लखनऊ का इतिहास

लखनऊ, उ.प्र., (AS, p.810):गोमती नदी के दक्षिण तट पर बसा हुआ रमणीक नगर है. स्थानीय जनश्रुति के अनुसार इस नगर का प्राचीन नाम लक्ष्मणपुर या लक्ष्मणवती था और इसकी स्थापना श्रीरामचंद्र जी के अनुज लक्ष्मण ने की थी। श्रीराम की राजधानी अयोध्या लखनऊ के निकट ही स्थित है। नगर के पुराने भाग में एक ऊंचा ढूह है, जिसे आज भी लक्ष्मणटीला कहा जाता है। हाल में ही लक्ष्मणटीले की खुदाई से वैदिक कालीन अवशेष प्राप्त हुए हैं। यही टीला जिस पर अब मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब के समय में बनी मसजिद है, यहां का प्राचीनतम स्थल है। इस स्थान पर लक्ष्मण जी का प्राचीन मंदिर था, जिसे इस धर्मान्ध बादशाह ने काशी, मथुरा आदि के प्राचीन ऐतिहासिक मंदिरों के समान ही तुड़वा डाला था।

लखनऊ का प्राचीन इतिहास अप्राप्य है। इसकी विशेष उन्नति का इतिहास मध्य काल के पश्चात् ही प्रारम्भ हुआ जान पड़ता है, क्योंकि हिन्दू काल में, अयोध्या की विशेष महत्ता के कारण लखनऊ प्राय: अज्ञात ही रहा। सर्वप्रथम, मुग़ल बादशाह अकबर के समय में चौक में स्थित 'अकबरी दरवाज़े' का निर्माण हुआ था। जहाँगीर और शाहजहाँ के जमाने में भी इमारतें बनीं, किंतु लखनऊ की वास्तविक उन्नति तो नवाबी काल में हुई।

मुहम्मदशाह के समय में दिल्ली का मुग़ल साम्राज्य छिन्न-भिन्न होने लगा था। 1720 ई. में अवध के सूबेदार सआदत ख़ाँ ने लखनऊ में स्वतन्त्र सल्तनत कायम कर ली और लखनऊ के शिया संप्रदाय के नवाबों की प्रख्यात परंपरा का आरंभ किया। उसके पश्चात् लखनऊ में सफ़दरजंग, शुजाउद्दौला, ग़ाज़ीउद्दीन हैदर, नसीरुद्दीन हैदर, मुहम्मद अली शाह और अंत में लोकप्रिय नवाब वाजिद अली शाह ने क्रमशः शासन किया। नवाब आसफ़ुद्दौला (1795-1797 ई.) के समय में राजधानी फैसलाबाद से लखनऊ लाई गई। आसफ़ुद्दौला ने लखनऊ में बड़ा इमामबाड़ा, विशाल रूमी दरवाज़ा और आसफ़ी मसजिद नामक इमारतें बनवाईं। इनमें से अधिकांश इमारतें अकाल पीड़ितों को मज़दूरी देने के लिए बनवाई गई थीं। आसफ़ुद्दौला को लखनऊ निवासी "जिसे न दे मौला, उसे दे आसफ़ुद्दौला" कहकर याद करते हैं। आसफ़ुद्दौला के जमाने में ही अन्य कई प्रसिद्ध भवन, बाज़ार तथा दरवाज़े बने थे, जिनमें प्रमुख हैं- 'दौलतखाना', 'रेंजीडैंसी', 'बिबियापुर कोठी', 'चौक बाज़ार' आदि।

आसफ़ुद्दौला के उत्तराधिकारी सआदत अली ख़ाँ (1798-1814 ई.) के शासन काल में 'दिलकुशमहल', 'बेली गारद दरवाज़ा' और 'लाल बारादरी' का निर्माण हुआ। ग़ाज़ीउद्दीन हैदर (1814-1827 ई.) ने 'मोतीमहल', 'मुबारक मंजिल [p.811]:सआदतअली' और 'खुर्शीदज़ादी' के मक़बरे आदि बनवाए। नसीरुद्दीन हैदर के जमाने में प्रसिद्ध 'छतर मंजिल' और 'शाहनजफ़' आदि बने। मुहम्मद अलीशाह (1837-1842 ई.) ने 'हुसैनाबाद का इमामबाड़ा', 'बड़ी जामा मस्जिद' और 'हुसैनाबाद की बारादरी' बनवायी। वाजिद अली शाह (1822-1887 ई.) ने लखनऊ के विशाल एवं भव्य 'कैसर बाग़' का निर्माण करवाया। यह कलाप्रिय एवं विलासी नवाब यहाँ कई-कई दिन चलने वाले अपने संगीत, नाटकों का, जिनमें 'इंद्रसभा नाटक' प्रमुख था, अभिनय करवाया करता था।

1856 ई. में अंग्रेज़ों ने वाजिद अली शाह को गद्दी से उतार कर अवध की रियासत की समाप्ति कर दी और उसे ब्रिटिश भारत में सम्मिलित कर लिया। 1857 ई. के भारत के प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम में लखनऊ की जनता ने रेजीडेंसी तथा अन्य इमारतों पर अधिकार कर लिया था, किन्तु शीघ्र ही पुनः राज्य सत्ता अंग्रेज़ों के हाथ में चली गई और स्वतन्त्रता युद्ध के सैनिकों को कठोर दंड दिया गया।

लखनऊ के दर्शनीय स्थान
बड़ा इमामबाड़ा, लखनऊ

बड़ा इमामबाड़ा (Bara Imambara, Lucknow): लखनऊ की एक ऐतिहासिक धरोहर है इसे भूल भुलैया भी कहते हैं इसको अवध के नवाब अशिफुद्दौला ने (1784 -94) के मध्य बनवाया गया था| इस इमामबाड़े का निर्माण आसफ़उद्दौला ने 1784 में अकाल राहत परियोजना के अन्तर्गत करवाया था। यह विशाल गुम्बदनुमा हॉल 50 मीटर लंबा और 15 मीटर ऊंचा है। अनुमानतः इसे बनाने में उस ज़माने में पाँच से दस लाख रुपए की लागत आई थी। यही नहीं, इस इमारत के पूरा होने के बाद भी नवाब इसकी साज सज्जा पर ही चार से पाँच लाख रुपए सालाना खर्च करते थे। ईरानी निर्माण शैली की यह विशाल गुंबदनुमा इमारत देखने और महसूस करने लायक है। इसे मरहूम हुसैन अली की शहादत की याद में बनाया गया है। इमारत की छत तक जाने के लिए 84 सीढ़ियां हैं जो ऐसे रास्ते से जाती हैं जो किसी अन्जान व्यक्ति को भ्रम में डाल दें ताकि आवांछित व्यक्ति इसमें भटक जाए और बाहर न निकल सके| इसीलिए इसे भूलभुलैया कहा जाता है। इस इमारत की कल्पना और कारीगरी कमाल की है। ऐसे झरोखे बनाए गये हैं जहाँ वे मुख्य द्वारों से प्रविष्ट होने वाले हर व्यक्ति पर नज़र रखी जा सकती है जबकि झरोखे में बैठे व्यक्ति को वह नहीं देख सकता। ऊपर जाने के तंग रास्तों में ऐसी व्यवस्था की गयी है ताकि हवा और दिन का प्रकाश आता रहे| दीवारों को इस तकनीक से बनाया गया है ताकि यदि कोई फुसफुसाकर भी बात करे तो दूर तक भी वह आवाज साफ़ सुनाई पड़ती है। छत पर खड़े होकर लखनऊ का नज़ारा बेहद खूबसूरत लगता है।

छोटा इमामबाड़ा, लखनऊ

छोटा इमामबाड़ा (Chota Imambara, Lucknow): लखनऊ में स्थित यह इमामबाड़ा मोहम्मद अली शाह की रचना है जिसका निर्माण 1837 ई. में किया गया था। इसे हुसैनाबाद इमामबाड़ा भी कहा जाता है। माना जाता है कि मोहम्मद अली शाह को यहीं दफनाया गया था। इस इमामबाड़े में मोहम्मद अली शाह की बेटी और उसके पति का मकबरा भी बना हुआ है। मुख्य इमामबाड़े की चोटी पर सुनहरा गुम्बद है जिसे अली शाह और उसकी मां का मकबरा समझा जाता है। मकबरे के विपरीत दिशा में सतखंड नामक अधूरा घंटाघर है। 1840 ई० में अली शाह की मृत्यु के बाद इसका निर्माण रोक दिया गया था। उस समय 67 मीटर ऊँचे इस घंटाघर की चार मंजिल ही बनी थी। मोहर्रम के अवसर पर इस इमामबाड़े की आकर्षक सजावट की जाती है।

लखनऊ रेजिडेन्सी

लखनऊ रेजिडेन्सी: लखनऊ रेजिडेन्सी के अवशेष ब्रिटिश शासन की स्पष्ट तस्वीर पेश करते हैं। सिपाही विद्रोह के समय यह रेजिडेन्सी ईस्ट इंडिया कम्पनी के एजेन्ट का भवन था। यह ऐतिहासिक इमारत शहर के केन्द्र में स्थित हजरतगंज क्षेत्र के समीप है। यह रेजिडेन्सी अवध के नवाब सआदत अली खां द्वारा 1800 ई. में बनवाई गई थी। रेसिडेंसी वर्तमान में एक राष्ट्रीय संरक्षित स्मारक है और लखनऊ वालों के लिये सुबह की सैर का स्थान। रेसिडेंसी का निर्माण लखनऊ के समकालीन नवाब आसफ़ुद्दौला ने सन 1780 में प्रारम्भ करवाया था जिसे बाद में नवाब सआदत अली द्वारा सन 1800 में पूरा करावाया। रेसिडेंसी अवध प्रांत की राजधानी लखनऊ में रह रहे, ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंम्पनी के अधिकारियों का निवास स्थान हुआ करता थी। सम्पूर्ण परिसर मे प्रमुखतया पाँच-छह भवन थे, जिनमें मुख्य भवन, बेंक्वेट हाल, डाक्टर फेयरर का घर, बेगम कोठी, बेगम कोठी के पास एक मस्जिद, ट्रेज़री आदि प्रमुख थे।

रूमी दरवाजा, लखनऊ

रूमी दरवाजा (Roomi Darwaza, Lucknow): लखनऊ में बड़ा इमामबाड़ा की तर्ज पर ही रूमी दरवाजे का निर्माण भी अकाल राहत प्रोजेक्ट के अन्तर्गत किया गया है। नवाब आसफउद्दौला ने यह दरवाजा 1783 ई. में अकाल के दौरान बनवाया था ताकि लोगों को रोजगार मिल सके। अवध वास्तुकला के प्रतीक इस दरवाजे को तुर्किश गेटवे कहा जाता है। रूमी दरवाजा कांस्टेनटिनोपल के दरवाजों के समान दिखाई देता है। यह इमारत 60 फीट ऊंची है।

कैसरबाग (Qaisar Bagh, Lucknow): कैसरबाग अर्थात बागों का सम्राट, उत्तर प्रदेश राज्य की राजधानी लखनऊ में स्थित अवध क्षेत्र का एक मोहल्ला है। यह अवध के अंतिम नवाब वाजिद अली शाह (1847-1856), के द्वारा बनाया गया था।

शहीद स्‍मारक लखनऊ

शहीद स्‍मारक लखनऊ: लखनऊ के शहीद स्‍मारक को लखनऊ विकास प्राधिकरण द्वारा उन अज्ञात और गुमनाम सेनानियों के लिए बनवाया गया है जिन्‍होने 1857 में आजादी के पहले युद्ध में अपनी जान गंवा दी। यह अच्‍छी तरह जाना जाता है कि लखनऊ में आजादी की पहली लड़ाई में लखनऊ के कई निवासी, शासकों और नवाब वाजिद अली शाह व उनकी बेगम हजरत महल ने बढ़चढ़ कर इस आन्‍दोलन में हिस्‍सा लिया था। यह स्‍मारक दिल्‍ली के अमर जवान ज्‍योति की तर्ज पर बनाया गया है, जहां देश के लिए बलिदान देने वालों को श्रद्धांजलि देने के लिए स्‍मारक बनाया गया था। इस स्‍मारक को 1857 के सिपाही विद्रोह की पहली शताब्‍दी के उपलक्ष्‍य में बनाया गया था। इस स्‍मारक को मशहूर वास्‍तुकार प्रसन्‍ना कोठी द्वारा डिजायन किया गया था। यह एक खूबसूरत और आकर्षित संगमरमर का ऑवर है जो बड़े कलात्‍मक ढंग से गोमती नदी के किनारे शहर के केंद्र में स्थित है। यहां एक बड़ा सा सभागार है और एक लाइब्रेरी भी है जो बुरहा तालाब के पास स्थित है और यहां पास में स्थित दूधधारी मंदिर लगभग 500 साल पुराना है।

कुकरैल में घड़ियाल

कुकरैल संरक्षित वन (Kukrail Reserve Forest): उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में स्थित एक मगरमच्छ, घड़ियाल और कछुयों का अभयारण्य है। यह इंदिरा नगर, लखनऊ के, रिंग रोड पर स्थित है। कुकरैल संरक्षित वन की स्थापना 1978 में उत्तर प्रदेश वन विभाग और भारत सरकार के पर्यावरण एवं वन मंत्रालय के सहयोग से की गई थी। इस केंद्र की स्थापना के विचार 1975 में संयुक्त राष्ट्र संघ के संस्थान प्रकृति और प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण हेतु अंतर्राष्ट्रीय संघ की उस रिपोर्ट के बाद आया, जिसमें कहा गया था कि उत्तर प्रदेश की नदियों में मात्र 300 मगरमच्छ ही जीवित बचे हैं। मगरमच्छों के संरक्षण के लिए कुकरैल संरक्षित वन को विकसित किया गया है। आजकल यह एक पिकनिक स्थल के रूप में लोकप्रिय हो रहा है।

नेशनल बॉटनिकल रिसर्च इंस्टीट्यूट,लखनऊ

नेशनल बॉटनिकल रिसर्च इंस्टीट्यूट (National Botanical Research Institute): राष्ट्रीय वनस्पति अनुसंधान संस्थान लखनऊ में स्थित है। यह सीएसआईआर के अंतर्गत है। यह आधुनिक जीवविज्ञान एवं टैक्सोनॉमी के क्षेत्रों से जुड़ा संस्थान है। यह संस्थान भारत की अग्रणी राष्ट्रीय प्रयोगशालाओं में से एक है जो कि वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान परिषद, नई दिल्ली, के अन्तर्गत लखनऊ में कार्यरत है। यह संस्थान राष्ट्रीय वनस्पति उद्यान के रूप में उत्तर प्रदेश सरकार के अंतर्गत कार्यरत था, जिसे 13 अप्रैल, 1953 को वैज्ञानिक तथा औद्योगिक अनुसंधान परिषद् ने अधिग्रहीत कर लिया। उस समय से यह संस्थान वनस्पति विज्ञान के क्षेत्र में परम्परागत अनुसंधान करता आ रहा है। समय के साथ इसमें नये-नये विषयों पर अनुसंधान कार्य किये गये, जिनमें पर्यावरण संबंधित व आनुवांशिक अध्ययन प्रमुख थे। अनुसंधान के बढ़ते महत्व व बदलते स्वरूप को ध्यान में रखकर 25 अक्टूबर, 1978 को इसका नाम बदलकर राष्ट्रीय वनस्पति अनुसंधान संस्थान किया गया। वर्तमान में संस्थान के पास लगभग 63 एकड़ भूमि पर वनस्पति उद्यान है जिसमें संस्थान की प्रयोगशालायें स्थापित हैं। इसके अतिरिक्त बंथरा में लगभग 260 एकड़ भूमि अनुसंधान हेतु उपलब्ध है जहाँ पर अनेक प्रयोग किये जा रहे हैं। संस्थान की छवि वर्तमान में एक अंतर्राष्ट्रीय स्तर के संस्थान के रूप में है जिसके द्वारा प्रतिवर्ष अनेक उत्पाद विकसित किये जा रहे हैं तथा इनको विभिन्न उद्योग घरानों द्वारा व्यावसायिक स्तर पर बनाया जा रहा है।

30.9.1980: लखनऊ (8 बजे) – उन्नाव - कानपुर (14 बजे) - लखनऊ (20 बजे) दूरी 220 किमी

सुबह 8 बजे लखनऊ से कानपुर के लिए रवाना हुए। जी. टी. (NH-25) रोड के सहारे प्लांटेशन देखा। काफी अच्छा प्लांटेशन किया हुआ है। लखनऊ-कानपुर सड़क पर ही मुर्तजानगर (Murtazanagar) ब्लाक में ऊसर-भूमि पर रिसर्च कर पौधे तैयार करने की तकनीक का अध्ययन किया। इस भूमि पर कोई भी पौधा प्राकृतिक रूप से नहीं उगता है। कंकरों को फोड़कर भूमि का रिक्लेमेशन किया जाता है। तत्पश्चात उस पर पौधे लगाए जाते हैं। ये सभी पेड़ ईंधन और चारे के लिए हैं। ऊसर भूमि पर लगाने के लिए उपयुक्त प्रजातियाँ हैं- 1. Terminalia arjuna (अर्जुन वृक्ष), 2. Pongamia pinnata (करंज वृक्ष), 3. Albizzia labback (काला सिरस), 4. Prosopis juliflora (बिलायती बबूल). 11 बजे वन विश्राम गृह पहुंचे। वहाँ कुछ देर विश्राम किया। कंजरवेटर और स्थानीय डी.एफ.ओ. भी हमारे साथ थे। उनके द्वारा मिठाई और चाय-पान का आयोजन किया गया था। आराम करके कानपपुर के लिए रवाना हुए।

नवाबगंज बर्ड सैंक्चुरी, उन्नाव

नवाबगंज बर्ड सैंक्चुरी: विश्रामगृह के पास ही नवाबगंज पक्षी विहार (Nawabganj Bird Sanctuary) है उसका निरिक्षण किया। यह उन्नाव जिले में लखनऊ-कानपुर सड़क पर स्थित है। इसमें एक झील है। हमने झील के चारों तरफ एक चक्कर लगाया। ट्यूरिज्म डिपार्टमेंट द्वारा बनाया गया भवन भी देखा जो बहुत ही सुन्दर बना है। इसमें प्रकाश की बहुत ही सुन्दर और आकर्षक व्यवस्था है। भवन के ऊपर एक तरफ विशेषतौर से बनाई गयी खुली छत है जहाँ से पूरी लेक को देखा जा सकता है। लेक के बीच-बीच में टापू हैं। इन टापुओं पर काफी संख्या में पक्षी देखे जा सकते हैं। बताया गया कि पक्षी-विहार अभी नया ही है इसलिए ज्यादा पक्षी नहीं हैं जितने घाना पक्षी विहार में हैं।

30.9.1980: कानपुर भ्रमण

दोपहर 2 बजे कानपुर पहुंचे। लंच लेकर 3 बजे फिर रवाना हुए। कानपुर जूलोजिकल पार्क पहुंचे। यहाँ जीव-जंतुओं को देखा। यहाँ आकर्षण का केंद्र एक विशालकाय डायनोसॉर की बनी संरचना है और भूमि को ज्यों का त्यों रखा गया है। जीवों के लिए प्राकृतिक वातावरण जैसी स्थिति पैदा की गयी है। शेर, दरयाई घोड़ा, चिम्पैंजी, वन-मानुष एवं कुछ पक्षी देखे। उसके बाद डायरेक्टर द्वारा आयोजित चाय-पान में सामिल हुये। वहाँ से रवाना होकर सिंघानिया समर-रिजॉर्ट पहुंचे। इसका रख-रखाव बहुत ही अच्छा है। इसमें एक स्विमिंग पूल है जिसमें इलेक्ट्रिक मशीन द्वारा तरंगें पैदा की जाती हैं और पानी में बिलकुल वैसी ही हलचल हो जाती है जैसी समुद्र में।

इसके ठीक सामने बने भवन की बालकनी से यह दृश्य देखना बहुत ही भाता है। दूसरा आकर्षण का केंद्र इसी में बना एक प्राकृतिक पहाड़ है। एक पम्पिंग मशीन चालू की जाती है तो पानी चोटी से निकल कर पहाड़ी पर बनी दरारों में गिरता है और बिलकुल बाँध की तरह लगता है। फिर नालों में पानी बहता है तो नदी का दृश्य उपस्थित करता है। इसको पहाड़ी के ऊपर से देखने में बहुत आकर्षक लगता है।

कानपुर में उपर्युक्त स्थल देखकर वापस लखनऊ के लिए रवाना हो गए लगभग 6 बजे । रास्ते में आते समय ही बस से ही एग्रीकल्चरल कालेज और एग्रीकल्चरल यूनिवर्सिटी को देखा। काफी थक गए थे और अँधेरा भी हो गया था सो शेष रास्ते में नींद आ गयी।

कानपुर का इतिहास

कानपुर भारत के उत्तर प्रदेश राज्य के कानपुर नगर ज़िले में स्थित एक औद्योगिक महानगर है। यह नगर गंगा नदी के दक्षिण तट पर बसा हुआ है। प्रदेश की राजधानी लखनऊ से 80 किलोमीटर पश्चिम स्थित यह नगर प्रदेश की औद्योगिक राजधानी के नाम से भी जाना जाता है। इसका प्राचीन नाम कर्णपुर था जो महाभारतकाल के पात्र कर्ण के नाम पर बसाया माना जाता है। ऐतिहासिक और पौराणिक मान्यताओं के लिए चर्चित ब्रह्मावर्त (बिठूर) के उत्तर मध्य में स्थित ध्रुवटीला त्याग और तपस्या का सन्देश देता है।

ध्रुवटीला कानपुर: मान्यता है इसी स्थान पर ध्रुव ने जन्म लेकर परमात्मा की प्राप्ति के लिए बाल्यकाल में कठोर तप किया और ध्रुवतारा बनकर अमरत्व की प्राप्ति की। रखरखाव के अभाव में टीले का काफी हिस्सा गंगा में समाहित हो चुका है लेकिन टीले पर बने दत्त मन्दिर में रखी तपस्या में लीन ध्रुव की प्रतिमा अस्तित्व खो चुके प्राचीन मंदिर की याद दिलाती रहती है। बताते हैं गंगा तट पर स्थित ध्रुवटीला किसी समय लगभग 19 बीघा क्षेत्रफल में फैलाव लिये था। इसी टीले से टकरा कर गंगा का प्रवाह थोड़ा रुख बदलता है। पानी लगातार टकराने से टीले का लगभग 12 बीघा हिस्सा कट कर गंगा में समाहित हो गया। टीले के बीच में बना ध्रुव मंदिर भी कटान के साथ गंगा की भेंट चढ़ गया। बुजुर्ग बताते हैं मन्दिर की प्रतिमा को टीले के किनारे बने दत्त मन्दिर में स्थापित कर दिया गया। पेशवा काल में इसकी देखरेख की जिम्मेदारी राजाराम पन्त मोघे को सौंपी गई। तब से यही परिवार दत्त मंदिर में पूजा अर्चना का काम कर रहा है। मान्यता है ध्रुव के दर्शन पूजन करने से त्याग की भावना बलवती होती है और जीवन में लाख कठिनाइयों के बावजूद काम को अंजाम देने की प्रेरणा प्राप्त होती है।

1801 में जब अंग्रेज़ों ने इस पर और इसके आसपास के क्षेत्र पर क़ब्ज़ा किया, तब कानपुर सिर्फ़ एक गांव था। अंग्रेज़ों ने इसे अपना सीमांत मोर्चा बनाया। 1857 के भारतीय विद्रोह के दौरान इस शहर में भारतीय सेनाओं ने ब्रिटिश टुकड़ियों का क़त्लेआम किया था। कहा जाता है कि इससे बचे हुए लोगों को एक कुएं में फेंक दिया गया था। जहाँ अंग्रेज़ों ने एक स्मारक का निर्माण करवाया था।

कानपुर 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के प्रमुख स्थलों में से एक है। कानपुर में स्थित एक इमारत बीबीगढ़ में 1857 ई. के सिपाही विद्रोह के दौरान 211 अंग्रेज़ स्त्री-पुरुषों और बच्चों को, जिन्होंने 26 जून को आत्मसमर्पण किया था, 15 जुलाई को नाना साहब और तात्या टोपे के आदेशानुसार मार डाला गया और उनके शवों को क़रीब के कुएँ में फेंक दिया गया।

ब्रिटिश शासन के प्रारम्भिक दिनों से ही यह नगर भारत का प्रमुख सैनिक-केन्द्र रहा है। 1857 ई. के स्वतंत्नता-संग्राम (जिसे अंग्रेज़ों ने ‘सिपाही-विद्रोह’ या ‘गदर’ कहकर पुकारा) में इसने प्रमुख भूमिका अदा की। जिस समय स्वधीनता-संग्राम छिड़ा, कानपुर के निकट बिठूर में भूतपूर्व पेशवा बाजीराव के पुत्र नाना सहाब रहते थे। उन्होंने अपने को ‘पेशवा’ घोषित किया और कानपुर स्थित विद्रोही सिपाहियों का नेतृत्व अपने हाथ में ले लिया। 8 जून 1857 ई. को ब्रिटिश फ़ौज़ी अड्डे को घेर लिया गया और 27 जून को ब्रिटीश नागरिकों ने इस आश्वासन पर आत्मसमर्पण कर दिया कि उन्हें इलाहाबाद तक सुरक्षित जाने दिया जायगा। किन्तु ब्रिटिश सेना जिस समय नौकाओं के ज़रिये इस स्थान से रवाना होने की तैयारी कर रही थी, उसपर प्राणघाती गोलाबारी शुरू कर दी गयी। चार को छोड़कर सारे ब्रिटिश सैनिक मारे गये। इस कत्ले-आम ने अंग्रेज़ों के दिमाग में बदले की जबर्दस्त भावना पैदा कर दी। नील और हैबलक के नेतृत्व में अंग्रेज़ी सेना ने कानपुर शहर पर फिर क़ब्ज़ा कर लिया और देशवासियों पर भारी अत्याचार किये। नवम्बर के अन्त में नगर पर विद्रोही ग्वालियर टुकड़ी का क़ब्ज़ा था, लेकिन दिसम्बर 1857 ई. के शुरू में उसपर सर कोलिन कैम्पवेलने अधिकास कर लिया। आजकल कानपुर प्रमुख औद्योगिक केन्द्र है। 1931 ई. में यहाँ भयानक साम्प्रदायिक दंगा हुआ, जिसमें विख्यात कांग्रेस-नेता श्री गणेश शंकर विद्यार्थी शहीद हो गये।

कानपुर उत्तरी भारत का सबसे बड़ा औद्योगिक केन्द्र है। यहाँ पर सूती व ऊनी कपड़ों की मिलें बहुसंख्या में हैं और चमढ़े का काम विशाल पैमाने पर होता है। ऊत्तर प्रदेश और भारत के सबसे बड़े शहरों में से एक कानपुर का उत्तर भारत में औद्योगिक नगर के रूप में प्रादुर्भाव अमेरिकी गृहयुद्ध (1861-1865) के दौरान हुआ। जब मैनचेस्टर की मिलों में कपास की आपूर्ति ठप्प हो गई। तत्कालीन ज़िला मजिस्ट्रेट डब्ल्यू.एस. हेल्से ने ज़िले में कपास की खेती की शुरुआत करवाई। लड़ाई के जारी रहने पर कपास की क़ीमतें आसमान को छूने लगीं कानपुर एक समृद्ध ज़िला व कानपुर नगर एक वस्त्र उद्योग केंद्र बन गया, लेकिन कानपुर की समृद्ध पिछले पचास वर्षों में धुंधली पड़ गयी है। औद्योगिक पतन का असर पूरे शहर में देखा जा सकता है।

जाट हवेली बिठूर

जाट रियासत बिठूर: कानपुर और आस-पास के क्षेत्रों पर गौरवंशी जाट रियासत ने शासन किया है जिसके बारे में दलीप सिंह अहलावत (जाट वीरों का इतिहास, पृष्ठ.234) लिखते हैं: गौर जाट क्षत्रियों की बहुत बड़ी संख्या पंजाब में है। जिला जालन्धर में गुड़ा गांव के गौरवंशी जाट राजा बुधसिंह के पुत्र राजा भागमल मुगल साम्राज्य की ओर से इटावा, फरूखाबाद, इलाहाबाद का सूबेदार बना और फफूंद में रहते हुए बड़ी प्रतिष्ठा प्राप्त की। आपने फफूंद में एक किला बनवाया और लखनऊ नवाब की ओर से 27 गांव कानपुर, इटावा में प्राप्त किए। इन गांवों में ही एक गांव बिठूर गंगा किनारे पर है। यही ब्रह्मावर्त के तीर्थ के नाम से प्रसिद्ध है। यहां निवास करते हुए आप ने फफूँद में एक मकबरा बनवाया। उस किले पर लिखा है कि “1288 हिज़री (सन् 1870) में इल्मास अली खां के कहने से राजा भागमल गौर जाट ने यह मकबरा बनवाया।” यहां हिन्दू-मुसलमान समान रूप से चादर चढ़ाते हैं। राजा गौर भागमल ने प्रजा के लिए सैंकड़ों कुएं, औरैय्या में एक विशाल मन्दिर, मकनपुर एवं बिठूर में भी दरगाहें बनवाईं। सन् 1857 ई० के स्वतन्त्रता संग्राम के संचालक नेता नाना साहब पेशवा ने महाराष्ट्र से आकर राजा भागमल के अतिथि रूप में बिठूर में निवास किया था। इस दृष्टिकोण से बिठूर को और भी विशेष महत्त्व प्राप्त हो गया।

कानपुर के दर्शनीय स्थान

बिठूर (AS, p.629) प्रसिद्ध हिन्दू धार्मिक स्थल है जो कानपुर 12 से मील उत्तर की ओर उत्तर प्रदेश में स्थित है। इसका मूलनाम ब्रह्मावर्त कहा जाता है। किवदन्ती है कि ब्रह्मा ने सृष्टि की रचना के उपलक्ष्य में यहाँ अश्वमेघयज्ञ किया था। बिठूर को बालक ध्रुव के पिता उत्तानपाद की राजधानी माना जाता है। ध्रुव के नाम से एक टीला भी यहाँ विख्यात है। कहा जाता है कि महर्षि वाल्मीकि का आश्रम जहाँ सीता निर्वासन काल में रही थी, यहीं था। अंतिम पेशवा बाजीराव जिन्हें अंग्रेज़ों ने मराठों की अंतिम लड़ाई के बाद महाराष्ट्र से निर्वासित कर दिया था, बिठूर आकर रहे थे। इनके दत्तक पुत्र नाना साहब पेशवा ने अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ 1857 के स्वतंत्रतायुद्ध में प्रमुख भाग लिया था। पेशवाओं ने यहाँ कई सुंदर इमारतें बनवाई थी किन्तु अंग्रेजों ने इन्हें 1857 के पश्चात अपनी विजय के मद में नष्ट कर दिया। बिठूर में प्रागैतिहासिक काल के ताम्र उपकरण तथा बाणफ़लक मिले हैं जिससे इस स्थान की प्राचीनता सिद्ध होती है।

उत्पलावन या उत्पलारण्य (जिला कानपुर) (AS, p.93): बिठूर का प्राचीन नाम है। वन पर्व महाभारत 87,15 में उत्पलावन का उल्लेख इस प्रकार है- 'पंचालेषु च कौरव्य कथयन्त्युत्पलावनम् विश्वामित्रोऽयजद् यत्र पुत्रेण सह कौशिक:'।

ययातिपुर (AS, p.770): ययातिपुर या जाजमऊ कानपुर, उत्तर प्रदेश से 3 मील की दूरी पर गंगा नदी के किनारे स्थित है। राजा ययाति के क़िले के अवशेष जाजमऊ की प्राचीनता के द्योतक हैं। किंतु श्री नं० ला० डे के अनुसार यह क़िला राजा जीजत का बनवाया हुआ है। जीजत चंदेलों का पूर्वज था। कानपुर की प्रसिद्धि के पूर्व जाजमऊ इस क्षेत्र का महत्वपूर्ण नगर था।

जाजमऊ: जाजमऊ को प्राचीन काल में सिद्धपुरी नाम से जाना जाता था। यह स्थान पौराणिक काल के राजा ययाति के अधीन था। वर्तमान में यहां सिद्धनाथ और सिद्ध देवी का मंदिर है। साथ ही जाजमऊ लोकप्रिय सूफी संत मखदूम शाह अलाउल हक के मकबरे के लिए भी प्रसिद्ध है। इस मकबरे को 1358 ई. में फिरोज शाह तुगलक ने बनवाया था। 1679 में कुलीच खान की द्वारा बनवाई गई मस्जिद भी यहां का मुख्य आकर्षण है। 1957 से 58 के बीच यहां खुदाई की गई थी जिसमें अनेक प्राचीन वस्तुएं प्राप्त हुई थी।

श्योराजपुर (AS, p.914) जिला कानपुर, उ.प्र. से हाल ही में उत्तर प्रदेश की सर्वप्राचीन मूर्तिकला के उदाहरण मिले हैं। ये ताम्र निर्मित मानवकृतियां हैं जो ताम्रपाषाणयुगीन (लगभग 3000 वर्ष प्राचीन) हैं। ताम्रपाषाणयुगीन सिंधु घाटी सभ्यता का समकालीन माना जाता है। नई खोजों से सिद्ध होता है कि सिंधु घाटी सभ्यता केवल सिंध पंजाब तक ही सीमित नहीं थी, किंतु उसका प्रसार समस्त उत्तर भारत, राजस्थान और गुजरात तक था। उत्तर प्रदेश में इसके अवशेष बहादराबाद (हरिद्वार के निकट) में भी मिले हैं।

कमला रिट्रीट कानपुर
कमला रिट्रीट कानपुर

कमला रिट्रीट कानपुर एग्रीकल्चर कॉलेज के पश्चिम में स्थित है। इस खूबसूरत संपदा पर सिंहानिया परिवार का अधिकार है। यहां एक स्वीमिंग पूल बना हुआ है, जहां कृत्रिम लहरें उत्पन्न की जाती है। कमला रिट्रीट कानपुर का एक लोकप्रिय पर्यटन रिसॉर्ट है जिसका निर्माण भारत के प्रमुख उद्योगपति श्री पदम पत सिंघानिया ने 1960 में किया था। यह रिट्रीट कमला नेहरु रोड पर स्थित है। यह पार्क वास्तव में एक निजी संपत्ति है जिसका स्वामित्व सिंघानिया परिवार के पास है। इसमें पर्यटन के कई आकर्षण है जिसमें एक संग्रहालय है जहाँ अनेक ऐतिहासिक और पुरातात्विक स्मारक और प्राचीन काल की कलाकृतियाँ रखी हुई हैं। इस रिट्रीट में कई पार्क, लॉन और नहरें हैं जहाँ बोटिंग की सुविधा उपलब्ध है। यहाँ अत्याधुनिक उपकरणों से सुसज्जित स्वीमिंग पूल भी है जिसमें कृत्रिम लहरें उत्पन्न की जाती हैं। इस पूल को साईक्लेडिक रोशनी से प्रकाशित किया जाता है जो रात में एक भव्य नज़ारा प्रस्तुत करती है। हरे भरे क्षेत्र में एक चिड़ियाघर भी है जहाँ विभिन्न प्रजातियों के पक्षी, सरीसृप और पशु आज़ादी से घुमते हैं। यहाँ कई महान हस्तियाँ आ चुकी हैं जिनमें पंडित जवाहर लाल नेहरु और 1962 में भारत चीन युद्ध के पहले चीन के पहले प्रधानमंत्री शामिल हैं। इस पार्क की सैर के लिए पहले अनुमति लेना आवश्यक है।

डायनासोर की वास्तविक आकार की मूर्ति, कानपुर प्राणी उद्यान

कानपुर प्राणी उद्यान (Kanpur Zoological Park): 1971 में खुला यह चिड़ियाघर भारत के सर्वोत्तम चिड़ियाघरों में एक है। क्षेत्रफल की दृष्टि से यह भारत का तीसरा सबसे बड़ा चिड़ियाघर है। यह कानपुर शहर में स्थित है। यहाँ पर लगभग 1250 जीव-जंतु है। कुछ समय पिकनिक के तौर पर बिताने और जीव-जंतुओं को देखने के लिए यह चिड़ियाघर एक बेहतरीन जगह है। ब्रिटिश इंडियन सिविल सर्विस के सदस्य सर एलेन (Sir Allen) यहाँ पर फैले प्राकृतिक जंगलों में यह चिड़ियाघर खोलना चाहते थे पर ब्रिटिश काल में उनकी यह योजना जमीन पर नहीं उतर सकी। जब यह चिड़ियाघर भारत सरकार द्वारा 1971 में खोला गया तो इसका नाम उन्हीं के नाम पर एलेन फोरस्ट जू (Allen Forest Zoo) रखा गया। इसके निर्माण कार्य में 2 वर्ष लगे और यह आम लोगों के लिए 4 फ़रवरी 1974 को खोला गया। यहाँ का पहला जानवर उद्बीलाव था जो की चम्बल घाटी से आया था। कानपुर में स्थित मंधना (ब्लू वर्ल्ड) से पास में है। यहां रजत बुक स्टाल के पास से भी जाया जा सकता है। यहाँ आकर्षण का केंद्र एक विशालकाय डायनोसॉर की बनी संरचना है और भूमि को ज्यों का त्यों रखा गया है। जीवों के लिए प्राकृतिक वातावरण जैसी स्थिति पैदा की गयी है। यहाँ पर बाघ, शेर, तेंदुआ, विभिन्न प्रकार के भालू, लकड़बग्घा, गैंडा, लंगूर, वनमानुष, चिम्पान्ज़ी, हिरण समेत कई जानवर है। यहाँ पर अति दुर्लभ घड़ियाल भी है। हाल ही में यहाँ पर हिरण सफारी भी खोली गयी है। इनके आलवा विभिन्न देशी-विदेशी पक्षी भी यहाँ की शोभा बढ़ाते है। अफ्रीका का शुतुरमुर्ग और न्यूजीलैंड का ऐमू, तोता,सारस समेत कई भारतीय और विदेशी पक्षी हैं।

Author: Laxman Burdak, IFS (R), Jaipur

Source - 1. User:Lrburdak/My Tours/Tour of East India I

2. Facebook Post of Laxman Burdak, 12.8.2021

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References

  1. Kulke, Hermann; Rothermund, Dietmar. A history of India (4, illustrated ed.). Routledge, 2004. pp. 432 pages. ISBN 0-415-32920-5, ISBN 978-0-415-32920-0.
  2. http://www.journeymart.com/de/india/uttar-pradesh/kanpur-history.aspx
  3. http://dspace.wbpublibnet.gov.in:8080/jspui/bitstream/10689/26681/8/Chapter%207_479-525p.pdf
  4. Aitihasik Sthanavali by Vijayendra Kumar Mathur, p.770
  5. Aitihasik Sthanavali by Vijayendra Kumar Mathur, p.914
  6. Jat History Dalip Singh Ahlawat/Chapter III, p.185-186
  7. महाभारत आदिपर्व 78वां अध्याय, श्लोक 1-24.
  8. ये वे देश हैं जो पाण्डव दिग्विजय में अर्जुन ने उत्तर दिशा के सभी देशों को जीत लिया था। इनका पूर्ण वर्णन महाभारत सभापर्व अध्याय 26-28 में देखो।
  9. जाट इतिहास पृ० 14-15 लेखक श्रीनिवासाचार्य महाराज ।
  10. हाभारत आदिपर्व 85वां अध्याय श्लोक 34-35, इन पांच भाइयों की सन्तान शुद्ध क्षत्रिय आर्य थी जिनसे अनेक जाट गोत्र प्रचलित हुए । (लेखक)
  11. जाट इतिहास (उत्पत्ति और गौरव खण्ड) पृ० 146-47 ले० ठा० देशराज।
  12. जाट इतिहास पृ० 14-18 लेखक श्रीनिवासाचार्य महाराज ।