User:Lrburdak/My Tours/Tour of East India I

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Author:Laxman Burdak, IFS (R), Jaipur

Part Map of Uttar Pradesh
ईस्ट इण्डिया टूर – भाग एक (25.9.1980-15.10.1980)

लेखक द्वारा 'भारतीय वन अनुसंधान संस्थान एवं कालेज देहरादून' में प्रशिक्षण के दौरान वर्ष 1980 में की गई थी। यात्रा विवरण चार दशक पुराना है परंतु कुछ प्रकाश डालेगा कि किस तरह भारतीय वन सेवा अधिकारियों का 'भारतीय वन अनुसंधान संस्थान एवं कालेज देहरादून' में दो वर्ष का प्रशिक्षण दिया जाता है। दो वर्ष की प्रशिक्षण अवधि में लगभग 6 महीने का भारत भ्रमण रहता है जिससे देश के भूगोल, इतिहास, वानिकी, जनजीवन और विविधताओं को समझने का अवसर मिलता है। भ्रमण के दौरान ब्लेक एंड व्हाइट छाया चित्र साथी अधिकारियों या आईएफ़सी के फोटोग्राफर श्री अरोड़ा द्वारा प्राय: लिए जाते थे वही यहाँ दिये गए है। इन स्थानों की यात्रा बाद में करने का अवसर नहीं मिला इसलिये केवल कुछ स्थानों के रंगीन छाया चित्र पूरक रूप में यथा स्थान दिये गए हैं। कुछ वन-आधारित उद्योगों के नाम विवरण में आए हैं उनमें से कुछ वर्तमान में कच्चे माल की उपलब्धता के अभाव में या तो बंद हो चुके हैं या संबंधित कंपनी ने अपना कार्यक्षेत्र बदल लिया है।

ईस्ट इण्डिया टूर – भाग एक

ईस्ट इण्डिया टूर – भाग एक (25.9.1980-15.10.1980) भ्रमण कार्यक्रम

देहरादून (25.9.1980) → बरेली (25-28.9.1980) → लखनऊ (28-30.9.1980) → कानपुर (30.9.1980) → फैजाबाद (1.10.1980) → अयोध्या (1.10.1980) → गोरखपुर (1-4.10.1980) → कुशीनगर (2.10.1980) → लखनऊ (5.10.1980) → बरेली (6.10.1980) → हल्दवानी (6-10.10.1980) → नैनीताल (8.10.1980) → पंतनगर (9.10.1980) → हल्दवानी (11.10.1980) → कांसरो (11-14.10.1980) → देहरादून (15.10.1980)

मुरादाबाद - रामपुर - बरेली भ्रमण: पूर्वीभारत यात्रा भाग-1a

मुरादाबाद - रामपुर - बरेली भ्रमण लेखक द्वारा 'भारतीय वन अनुसंधान संस्थान एवं कालेज देहरादून' में प्रशिक्षण के दौरान किए गए ईस्ट इण्डिया टूर – भाग एक (25.9.1980-15.10.1980) का ही एक अंश है।

25.9.1980: देहरादून (8 बजे) – नजीबाबाद (13 बजे) - मुरादाबाद (15 बजे) - रामपुर (16 बजे) - बरेली (18 बजे) दूरी = 310 किमी

डीलक्स बसों द्वारा हम सुबह 8 बजे देहरादून से रवाना हुए। रास्ते में डोईवाला, हरिद्वार, नजीबाबाद (बिजनोर), नूरपुर (बिजनोर), मुरादाबाद शहर पड़ते हैं। दोपहर 1 बजे नजीबाबाद पहुंचे। यहाँ सबने लंच किया। पैक लंच हम देहरादून से ही साथ लाये थे। एक घंटा आराम कर आगे की यात्रा पर रवाना हो गए। रास्ते में गर्मी कुछ ज्यादा ही थी। रास्ते में पड़ने वाले महत्वपूर्ण शहरों का विवरण आगे दिया गया है।

बिजनौर जिले का मानचित्र

नजीबाबाद (AS, p.477) उत्तर प्रदेश के बिजनौर ज़िले में स्थित एक नगर है। नज़ीबाबाद मालन नदी (प्राचीन मालिनी) से कुछ दूर पर गढ़वाल की तराई में स्थित है। नज़ीबाबाद को मुग़ल सम्राट-अहमदशाह के समकालीन नवाब नज़ीबुद्दौला ने 1750 ई. में बसाया था। नज़ीबुद्दौला एक सफल कूटनीतिज्ञ था और मुग़ल साम्राज्य की तत्कालीन राजनीति में इसका काफ़ी दख़ल था। इसका मक़बरा नज़ीबाबाद में स्थित है। कहते हैं कि नज़ीबुद्दौला ने मराठों को नीचा दिखाने के लिए अहमदशाह आबदली को भारत पर आक्रमण करने के लिए निमंत्रण दिया था. 1857 के विद्रोह में नज़ीबुद्दौला के उत्तराधिकारी नवाब दुंदू खाँ ने अंग्रेजों के विरुद्ध बग़ावत की थी, जिसके कारण उसकी रियासत ज़ब्त कर ली गई और उसका एक भाग रामपुर रियासत को दे दिया गया। रामपुर और नज़ीबाबाद के नवाबी घरानों में विवाह -संबंध थे.

नूरपुर: उत्तर प्रदेश के बिजनौर ज़िले में स्थित एक नगर है। यह स्थान भारत के पूर्व प्रधान मंत्री चौधरी चरण सिंह की जन्म भूमि है। चौधरी चरणसिंह के दादाजी बदामसिंह तेवतिया जाट राज्य घराने के थे जो भटौना गांव में बसे थे। इनका परिवार भटौना में कई वर्ष तक रहा। चौ० बदामसिंह के पांच पुत्र थे जिनके नाम - लखपतिसिंह सब से बड़ा, बूटासिंह, गोपालसिंह, रघुवीरसिंह और मीरसिंह सबसे छोटा था। चौ० मीरसिंह अपने परिवार वालों के साथ भटौना से नूरपुर गांव जिला मेरठ (वर्तमान बिजनौर) में जाकर आबाद हो गया। उस समय उनकी आयु 18 वर्ष की थी। इसी गांव नूरपुर में 23 दिसम्बर 1902 को चौ० मीरसिंह के यहां चरणसिंह का जन्म हुआ।

मुरादाबाद
मुरादाबाद जिले का मानचित्र

मुरादाबाद: मुरादाबाद में अभी कुछ ही दिन पहले हिन्दू-मुस्लिम दंगा हुआ था। उस दंगे में काफी लोगों की जान भी गयी थी। अभी भी वहाँ पूर्ण रूप से शांति स्थापित नहीं हुई थी। मुरादाबाद का इतिहास जानना रुचिकर होगा।

मुरादाबाद परिचय: मुरादाबाद उत्तर प्रदेश राज्य के मुरादाबाद ज़िले में स्थित एक नगर है। यह ज़िले का मुख्यालय भी है। मुरादाबाद पीतल हस्तशिल्प के निर्यात के लिए प्रसिद्ध है। रामगंगा नदी के तट पर स्थित मुरादाबाद पीतल पर की गई हस्तशिल्प के लिए पूरे विश्व में प्रसिद्ध है। इसका निर्यात केवल भारत में ही नहीं अपितु अमेरिका, ब्रिटेन, कनाडा, जर्मनी और मध्य पूर्व एशिया आदि देशों में भी किया जाता है। मुरादाबाद से पीतल के बर्तन दुनिया भर में निर्यात किए जाते हैं जिस कारण यह पीतल नगरी नाम से प्रसिद्ध है। अमरोहा, गजरौला और तिगरी आदि यहाँ के प्रमुख पयर्टन स्थलों में से हैं। रामगंगा और गंगा यहाँ की दो प्रमुख नदियाँ हैं।

मुरादाबाद

मुरादाबाद (AS, p.752): उत्तर प्रदेश में स्थित है। इसका पुराना नाम चौपाला है। पुरानी बस्ती चार भागों में बंटी हुई थी जिसके कारण इसे चौपाला कहते थे-1. भादुरिया, 2. दीनदारपुर, 3. मानपुर, 4. डिहरी. मुगल सूबेदार रुस्तम खां ने मुगल बादशाह शाहजहां के पुत्र मुरादबख्श के नाम पर चौपाला का नाम बदल कर मुरादाबाद कर दिया था। यहाँ की जामा मस्जिद इसी समय (1631 ई.) में बनी थी।

मुरादाबाद पूनिया गोत्रीय जाटों की रियासत थी। ठाकुर देशराज (जाट इतिहास:ठाकुर देशराज,पृष्ठ.581) लिखते हैं कि ‘इतिहास’ लिखने के समय (1934) कुंवर सरदारसिंह जी रियासत के मालिक थे। वह एम. एल. सी. भी थे। जाट महासभा के कोषाघ्यक्ष भी थे। ‘यू. पी. के जाट’ नामक पुस्तक में इस रियासत का वर्णन इस प्रकार है - “अमरोहा के रहने वाले नैनसुख जाट थे। उनके लड़के नरपतसिंह ने मुरादाबाद के शहर में एक बाजार बसाया। यह भगवान् थे। इनके लड़के गुरुसहाय कलक्टरी के नाजिर थे। नवाब रामपुर की मातहती में यह मुरादाबाद के दक्खिनी हिस्से के नायब नाजिर थे। इनको सरकार से राजा का खिताब मिला और 18 गांव से कुछ ज्यादा जिला बुलन्दशहर में इनको सरकार ने प्रदान किये। सन् 1874 में यह मर गये। उनकी विधवा रानी किशोरी मालिक हुई। 60,000 रुपये मालगुजारी की रियासत का इन्तजाम इस बुद्धिमान स्त्री ने 1907 ई. तक बड़ी खूबी के साथ किया। इसी सन् में यह मर गई। रानी किशोरी के मरने के बाद रियासत के दो भाग हो गये। बुलन्दशहर की जायदाद रानी साहिबा के नाती करनसिंह को मिली और बाकी कुवर ललितसिंह को। गुरुसहाय के भाई ठाकुर पूरनसिंह के यह पोते थे और समस्त रियासत के मालिक भी। इस समय जैसा कि हम लिख चुके हैं, श्री सरदारसिंह जी रियासत के मालिक थे। रियासत की टुकड़े-बन्दी रानी किशोरी के बाद किस तरह से हुई इसका कुछ मौखिक वर्णन हमें प्राप्त हुआ है। किन्तु कुछ ऐसी भी बातें हैं जो कि राज्य के प्राप्त करने के लिए सर्वत्र हुआ करती हैं। इसलिए उनके लिखने की आवश्कता नहीं समझी। महाराजा श्री ब्रजेन्द्रसिंह जी भरतपुर-नरेश की ज्येष्ठ भगिनीजी का विवाह ठाकुर करनसिंह जी के पौत्र कुंवर सुरेन्द्रसिंह जी के साथ हुआ था।

रामपुर
रामपुर जिले का मानचित्र

रामपुर: शाम के चार बजे रामपुर पहुंचे जहाँ चाय पी। हम रामपुर में चाय पी रहे थे कि एक गरीब हालत में व्यक्ति आया और कहा मेरे पास पैसे नहीं हैं आप मेरे खाने की व्यवस्था करदो । हमने पूछा कहाँ से आये हो? उसने बताया कि मैं दिल्ली से आया हूँ और पेंटिंग का काम करता था पर आज मेरे पास कोई काम भी नहीं है। हमें उस पर कुछ संदेह हुआ कि हो सकता है यह कोई जासूस हो सो उसे डांट कर भगा दिया। रास्ते में और कोई घटना नहीं घटी। रामपुर मुरादाबाद एवं बरेली के बीच में पड़ता है। रामपुर नगर उपर्युक्त ज़िले का प्रशासनिक केंद्र है तथा कोसी के बाएँ किनारे पर स्थित है। रामपुर नगर में उत्तरी रेलवे का स्टेशन भी है। रामपुर का चाकू उद्योग प्रसिद्ध है। चीनी, वस्त्र तथा चीनी मिट्टी के बरतन के उद्योग भी नगर में हैं। रामपुर नगर में अरबी भाषा का एक महाविद्यालय है। जामा मस्जिद (Jama Masjid), रामपुर क़िला (Rampur Fort), रामपुर रज़ा पुस्तकालय (Raza Library) और कोठी ख़ास बाग़ (Kothi Khas Bagh), गांधी समाधि (Gandhi Samadhi) आदि रामपुर के प्रमुख पर्यटन स्थलों में से हैं।

Imambara, Fort of Rampur, Uttar Pradesh, c.1911

रामपुर (AS, p.791): 1. रामपुर - उत्तर प्रदेश राज्य का एक ज़िला है। रामपुर नगर उपर्युक्त ज़िले का प्रशासनिक केंद्र है तथा कोसी के बाएँ किनारे पर स्थित है। यह प्रसिद्ध ऐतिहासिक स्थान भी है, जिसका महात्मा बुद्ध से निकट सम्बन्ध रहा है। भगवान बुद्ध के परिनिर्वाण के पश्चात् उनके अस्थि अवशेषों के आठ भागों में से एक पर एक स्तूप बनाया गया था, जिसे रामभार स्तूप कहा जाता था। संभवतः इसी स्तूप के खंडहर इस स्थान पर मिले हैं। किंवदंती है कि इसी स्तूप से नागाओं ने बुद्ध का दांत चुरा लिया था, जो लंका में 'कांडी के मंदिर' में सुरक्षित है।

कुछ विद्वान् रामपुर को 'रामगाम' मानते हैं। रामपुर का उल्लेख 'बुद्धचरित' (28, 66) में है, जहाँ रामपुर के स्तूप का विश्वस्त नागों द्वारा रक्षित होना कहा गया है। कहा जाता है कि इसी कारण अशोक ने बुद्ध के शरीर की धातु अन्य सात स्तूपों की भांति, इस स्तूप से प्राप्त नहीं की थी।

2. भूतपूर्व रियासत, उत्तर प्रदेश, लगभग 200 वर्ष पुरानी, रुहेलखंड की एक रियासत का नाम भी रामपुर था, जो उत्तर प्रदेश में विलीन हो गयी थी। इसके संस्थापक रुहेले थे।

प्रसिद्ध चीनी यात्री युवानच्वांग ने रामपुर के क्षेत्र का नाम गोविषाण लिखा है।

रामग्राम अथवा 'रामगाम' (AS, p.787): महात्मा बुद्ध से सम्बन्धित एक ऐतिहासिक स्थान है। बौद्ध साहित्य के अनुसार बुद्ध के परिनिर्वाण के पश्चात् अनेक शरीर की भस्म के एक भाग के ऊपर एक महास्तूप 'रामगाम' या 'रामपुर' ('बुद्धचरित', 28, 66) नामक स्थान पर बनवाया गया था। 'बुद्धचरित' के उल्लेख से ज्ञात होता है कि रामपुर में स्थित आठवां मूल स्तूप उस समय विश्वस्त नागों द्वारा [p.788]: रक्षित था। इसीलिए अशोक ने उस स्तूप की धातुएं अन्य सात स्तूपों की भांति ग्रहण नहीं की थीं।

रामग्राम कोलिय क्षत्रियों का प्रमुख नगर था। यह कपिलवस्तु से पूर्व की ओर स्थित था। कुणाल जातक के भूमिका-भाग से सूचित होता है कि 'रोहिणी' या राप्ती नदी कपिलवस्तु और रामग्राम जनपदों के बीच की सीमा रेखा बनाती थी। इस नदी पर एक ही बांध द्वारा दानों जनपदों को सिंचाई के लिए जल प्राप्त होता था। रामग्राम की ठीक-ठीक स्थिति का सूचक कोई स्थान शायद इस समय नहीं है, किंतु यह निश्चित है कि कपिलवस्तु (नेपाल की तराई, ज़िला बस्ती की उत्तरी सीमा के निकट) के पूर्व की और यह स्थान रहा होगा।

चीनी यात्री युवानच्वांग, जिसने भारत का पर्यटन 630-645 ई. में किया था, अपने यात्रा क्रम में रामगाम कभी आया था।

रामपुर से रवाना होकर शाम को 6 बजे बरेली पहुँच गए। यहाँ होटल बरेली में हमारी व्यवस्था थी।

बरेली

26.9.1980: बरेली

बरेली जिले का मानचित्र

बरेली उत्तरी भारत में मध्य उत्तर प्रदेश राज्य में रामगंगा नदी तट पर स्थित है। यह नगर रुहेलों के अतीत गौरव का स्मारक है। 1537 में स्थापित इस शहर का निर्माण मुख्यत: मुग़ल प्रशासक 'मकरंद राय' ने करवाया था। बरेली मुग़ल सम्राटों के समय में एक प्रसिद्ध फ़ौजी नगर हुआ करता था। अब यहाँ पर एक फ़ौजी छावनी है। यह 1857 में ब्रिटिश शासन के ख़िलाफ़ हुए भारतीय विद्रोह का प्रमुख केंद्र भी था। बरेली को 'बाँसबरेली' भी कहा जाता है, क्योंकि यहाँ लकड़ी, बाँस आदि का कारोबार काफ़ी लम्बे समय से हो रहा है।

ईस्ट इण्डिया टूर पर बरेली में-IFS 1980 Batch

इंडियन टरपेंटाइन एंड रोजीन फ़ैक्ट्री (Indian Turpentine and Rosin Factory): बरेली में हमने तारपीन बनाने की फैक्ट्री देखी। इसके लिए 10 बजे निकले। वहाँ पर चीड़ की लकड़ी से तारपीन बनाने का तरीका समझाया गया। यह फैक्ट्री वर्ष 1923-24 में स्थापित की गई थी। यह अपने आप में सबसे बड़ी फैक्ट्री है। इसका वार्षिक टर्नओवर ₹5 करोड़ है। इसमें टरपेंटाइन और रोजिन उत्पाद बनाए जाते हैं। जिसके लिए कच्चे माल के रूप में रेजिन की आवश्यकता होती है और वह उत्तर प्रदेश वन विभाग द्वारा प्रदान किया जाता है। इसके लिए कच्चा माल रेजिन चीड़ वृक्ष की लकड़ी से मिलता है। इसके लिए प्रतिवर्ष 22,000 टन लकड़ी की आवश्यकता होती है परंतु केवल 10,000 टन रेजिन ही उपलब्ध हो पाता है। इसलिए फैक्ट्री शॉर्ट सप्लाई में है। रेजिन 5 डिपोज से संग्रहित किया जाता है जो ऋषिकेश, काठगोदाम, जनकपुर, रामपुर और कोटद्वार में स्थित हैं। डिपो से फैक्ट्री को ट्रकों द्वारा रेजिन भेजा जाता है। कच्चा माल रेजिन रुपए 480 प्रति क्विंटल की दर से प्राप्त किया जाता है। टरपेंटाइन और रोजिन को डिस्टिलेशन पद्धति से अलग किया जाता है। टरपेंटाइन वाष्पित होता है और उसे ठंडा कर एकत्रित कर लिया जाता है। रोजिन पीछे बचे उत्पाद के रूप में मिल जाता है।

यहाँ पर एक विशेष बात देखने को मिली कि जो मजदूर यहाँ काम कर रहे हैं उनका स्वास्थ्य बड़ा ख़राब था। एक तो यहाँ इतनी गर्मी और ऊपर से रेजिन की गंध नाकसे शरीर में जाती रहती है। सम्भवतः इसी कारण इन मजदूरों का स्वास्थ्य ख़राब है। यहाँ पर रेजिन से विभिन्न पदार्थ निकाले जाते हैं। यहाँ का अनुसन्धान और विकास विभाग भी हमने देखा। यहाँ के प्रबंध संचालक श्री बी. पी. सिंह आई. एफ. एस. हैं। उनके द्वारा हमारे लिए चाय का आयोजन किया गया था। उस समय तक एक बज गए सो हम लंच के लिए आ गए।

अप्रैल 1998 में इंडियन टरपेंटाइन & रोजिन फैक्ट्री (आइटीआर) बंद हो गई।

वेस्टर्न इन्डियन मैच कंपनी (Western India Match Compony): शाम को हमने विमको (WIMCO) (वेस्टर्न इन्डियन मैच कंपनी) देखा। इसका कार्य हमें बहुत पसंद आया। यहाँ सेमल की लकड़ी से माचिस बनता है। स्वचालित मशीनों से लकड़ी कटती है। फिर माचिस की डिबिया बनती हैं। माचिस की तीलियां अलग मशीन द्वारा काटी जाती हैं। फिर उनमें रोगन लगता है। तिल्ली डिबिया में भरी जाती हैं और शील लगाई जाती है। यह सब काम आटोमेटिक मशीनों द्वारा होता है।

इस फर्म की स्थापना 1923-24 में मुंबई मुख्यालय में हुई थी। इससे पहले माचिस की तिलियां स्वीडन और जापान से आयात की जाती थी। 1924 से 1930 के बीच में 5 फैक्ट्रियां स्थापित की गई जो बरेली, कोलकाता, मद्रास, अंबरनाथ (मुंबई) और धुबरी (असम) में थी। वर्तमान में भारत माचिस के उत्पादन में आत्मनिर्भर है। भारत में माचिस के उत्पादन के लिए 30,000 क्यूबिक मीटर सॉफ्टवुड की प्रतिवर्ष आवश्यकता होती है। इस काम के लिए जो प्रजातियां काम आती हैं उसमें यह हैं- 1. Bombax cieba (सेमल), 2. Trivia nudiflora (तुमड़ी), 3. Ailanthus excelsa (महारूख/अरडू ), 4. Pinus roxburgui (चीड़), 5. Poplar (पॉप्लर), 6. Mangifera indica (आम) (in south). लकड़ी की कमी के कारण सेमल का आयात नेपाल से किया जाता है। लकड़ी की पर्याप्त पूर्ति के लिए उत्तर प्रदेश और अन्य कई प्रांतों में वृहद स्तर पर प्लांटेशन का काम लिया जा रहा है। उत्तर प्रदेश में इस कार्य के लिए पॉपलर का प्लांटेशन प्रति वर्ष 250 एकड़ में किया जा रहा है। विमको द्वारा लकड़ी की पूर्ति के लिए किसानों के साथ मिलकर कार्य किया जा रहा है। किसानों को पॉप्लर के पौधे उपलब्ध कराये जा रहे हैं जो वे अपने खेतों में लगाते हैं। शर्दी के मौसम में पॉप्लर की पत्तियां गिर जाती हैं इसलिये किसान 3-4 वर्ष तक शर्दी में गेहूँ की फसल ले सकते हैं। इस फैक्ट्री में 1,50,000 माचिस-केस प्रतिवर्ष तैयार होते हैं। प्रत्येक केस में 7200 मैच बॉक्स आते हैं। एक क्यूबिक मीटर लकड़ी से लगभग 5 केस तैयार हो सकते हैं।

ईस्ट इण्डिया टूर पर बरेली में-लक्ष्मण बुरड़क, बिधान चन्द्र और बिस्वास

कैम्फर एंड अलाइड प्रोडक्ट्स फैक्टरी (Camphor and Allied Products): उसके बाद हमने कैम्फर एंड अलाइड प्रोडक्ट्स फैक्टरी देखी। यहाँ पर टर्पेन्टाइन से कपूर तैयार किया जाता है। इसको केशव लाल बोदानी ने 1955 में स्थापित किया था। वर्तमान में यह ओरियंटल अरोमैटिक्स (Oriental Aromatics) नाम से जानी जाती है।

शाम को एक घंटे बरेली के बाजार में घूमने गए जो भारतीय फिल्मों में झुमका गिरने के लिए प्रसिद्ध है। बाजार बड़ा सकडा है और बड़ी भीड़ रहती है जिसमें से गुजरना आसान नहीं है। इस भीड़ में झुमका यदि गिर जाये तो मिलना मुश्किल ही है। शाम को यहाँ के डी. एफ. ओ. श्री के. पी. श्रीवास्तव से मुलाकात की।

27.9.1980: बरेली

रेलवे स्लीपर उपचार केंद्र (Railway Sleeper Creosating Plant): सुबह जल्दी ही रेलवे स्लीपर उपचार केंद्र (Railway Sleeper Creosating Plant) का निरिक्षण किया। यह रेलवे की फैक्ट्री है जो खासतौर पर चीड़ की लकड़ी से उपचारित स्लीपर बनाती है। स्लीपर मीटर गेज और ब्रॉड गेज दोनों के लिए बनाते हैं। लकड़ी के स्लीपर का प्रयोग रेलवे पटरी के नीचे किया जाता है जिससे जमीन समतल हो जाती है और रेल के तेज आवाज को ये स्लीपर शोख कर कम कर देते हैं। स्लीपर मुख्यत: चीड़ की लकड़ी से बनाए जाते हैं परंतु देवदार, साल, फर और स्प्रूस की लकड़ी से भी स्लीपर बनाए जा सकते हैं। स्लीपर यदि उपचारित नहीं हो तो केवल तीन चार-साल चलते हैं जबकि उपचारित स्लिपर कोई 18 से 20 साल तक चल सकते हैं।

इसके बाद यहाँ की नर्सरी देखने गए जहाँ पर एनर्जी प्लांटेशन का विशेषतौर से अध्ययन किया। तत्पश्चात कत्था फैक्ट्री-इंडियन वुड प्रोडक्ट्स (Indian Wood Products) का निरिक्षण किया।

इंडियन वुड प्रोडक्ट्स (Indian Wood Products): यह कत्था फैक्ट्री वर्ष 1919 में इजतनगर, बरेली में स्थापित की गई थी। इस कत्था फैक्ट्री में खैर के वृक्षों की लकड़ी से कत्था बनाया जाता है। खैर के वृक्षों की ऊपर की नरम लकड़ी और छाल को अलग कर दिया जाता है और हार्टवुड को छोटे-छोटे टुकड़ों में काट दिया जाता है। इन छोटे टुकड़ों (chips) को पानी के साथ 100 डिग्री पर उबाला जाता है। पानी में घुले हुए कत्थे को अलग फ़िल्टर कर किया जाता है। बचे हुए लकड़ी के टुकड़ों को स्टीम इंजन में काम लिया जाता है जो फैक्ट्री की ऊर्जा की जरूरतों को पूरा करता है। कंसंट्रेटेड एक्सट्रैक्ट को कोल्ड चैंबर्स में भेजकर इसका क्रिस्टलाइजेशन किया जाता है। इससे ठोस कच्छ जो प्राप्त होता है उसको चमड़े के टैनिंग के लिए प्रयोग किया जाता है। कथा जो अलग किया जाता है उसको बाजार में पान बनाने के लिए और आयुर्वेदिक दवाओं के लिए बेच दिया जाता है। खैर की लकड़ी से 10 से 13% कछ प्राप्त होता है तथा 4% कत्था निकलता है। कत्था रुपए 70 प्रति किलो बेचा जाता है। फैक्ट्री में लगभग 6000 टन वार्षिक खैर की लकड़ी की खपत होती है जिससे 240 से 250 टन फिनिश्ड प्रोडक्ट प्राप्त होता है। कत्था फैक्ट्री की क्षमता 12000 टन है परंतु केवल 8000 टन ही काम लिया जाता है जिससे 325 टन का उत्पादन होता है। एक कत्था बनाने की प्रक्रिया में एक तीसरा उत्पाद भी इसमें मिलता है जिसको खैर-सार बोलते हैं।

शाम को कोई सरकारी प्रोग्राम नहीं था इसलिए 'सावन को आने दो' पिक्चर देखी।

झुमका चौक बरेली

बरेली परिचय: बरेली उत्तरी भारत में मध्य उत्तर प्रदेश राज्य में रामगंगा नदी तट पर स्थित है। यह नगर रुहेलों के अतीत गौरव का स्मारक है। 1537 में स्थापित इस शहर का निर्माण मुख्यत: मुग़ल प्रशासक 'मकरंद राय' ने करवाया था। 1774 में अवध के शासक ने अंग्रेज़ों की मदद से इस क्षेत्र को जीत लिया और 1801 में बरेली की ब्रिटिश क्षेत्रों में शामिल कर लिया गया। बरेली मुग़ल सम्राटों के समय में एक प्रसिद्ध फ़ौजी नगर हुआ करता था। अब यहाँ पर एक फ़ौजी छावनी है। यह 1857 में ब्रिटिश शासन के ख़िलाफ़ हुए भारतीय विद्रोह का प्रमुख केंद्र भी था।

बरेली को 'बाँसबरेली' भी कहा जाता है, क्योंकि यहाँ लकड़ी, बाँस आदि का कारोबार काफ़ी लम्बे समय से हो रहा है। एक कहावत 'उल्टे बाँस बरेली' भी इस स्थान पर बाँसों की प्रचुरता को सिद्ध करती है। लकड़ी के विभिन्न प्रकार के सामान और फर्नीचर आदि के लिए भी बरेली प्रसिद्ध है। यह शहर कृषि उत्पादों का व्यापारिक केंद्र है और यहाँ कई उद्योग, चीनी प्रसंस्करण, कपास ओटने और गांठ बनाने आदि भी हैं। लकड़ी का फ़र्नीचर बनाने के लिए यह नगर काफ़ी प्रसिद्ध है। इसके निकट दियासलाई, लकड़ी से तारपीन का तेल निकालने के कारख़ाने हैं। यहाँ पर सूती कपड़े की मिलें तथा गन्धा बिरोजा तैयार करने के कारख़ाने भी है।

बरेली का इतिहास: बरेली (उ.प्र.) (AS, p.611): पुरानी जनश्रुति के अनुसार बरेली को 'बरेल' क्षत्रियों ने बसाया था। प्राचीन काल में बरेली का क्षेत्र पंचाल जनपद का एक भाग था। महाभारत काल में पंचाल की राजधानी अहिच्छत्र थी, जो ज़िला बरेली की तहसील आंवला के निकट स्थित थी।

बरेली तथा वर्तमान रुहेलखंड का अधिकांश प्रदेश 18वीं शती में रुहेलों के अधीन था। 1772 ई. में रुहेलों तथा अवध के नवाब के बीच जो युद्ध हुआ, उसमें रुहेलों की पराजय हुई और उनकी सत्ता भी नष्ट हो गई। इस युद्ध से पहले रुहेलों का शासक हाफ़िज रहमत ख़ाँ था जो बड़ा न्यायप्रिय और दयालु था। रहमत ख़ाँ का मक़बरा बरेली में आज भी रुहेलों के अतीत गौरव का स्मारक है। बरेली को 'बाँसबरेली' भी कहते हैं, क्योंकि पहाड़ों की तराई के निकटवर्ती प्रदेश में इसकी स्थिति होने के कारण यहाँ लकड़ी, बाँस आदि का करोबार काफ़ी पुराना है। 'उल्टे बाँस बरेली' की कहावत भी, इस स्थान पर बाँसों की प्रचुर मात्रा होने के कारण बनी है। (दे. बाँसबरेली)

बांस बरेली (AS, p.617): उत्तर प्रदेश के बरेली का एक विशेषार्थक नाम है, जो यहाँ के तराई के जंगलों में बाँस के वृक्षों के बहुतायत से होने के कारण हुआ है। यह संभव है कि इस नगर को उत्तर प्रदेश के अन्य नगर रायबरेली (संक्षिप्त रूप बरेली) से भिन्न करने के लिए ही 'बाँस बरेली' कहा जाता है।

अहिच्छत्र का प्राचीन किला मंदिर, बरेली

प्राचीन इतिहास: वर्तमान बरेली क्षेत्र प्राचीन काल में पांचाल राज्य का हिस्सा था। महाभारत के अनुसार तत्कालीन राजा द्रुपद तथा द्रोणाचार्य के बीच हुए एक युद्ध में द्रुपद की हार हुयी, और फलस्वरूप पांचाल राज्य का दोनों के बीच विभाजन हुआ। इसके बाद यह क्षेत्र उत्तर पांचाल के अंतर्गत आया, जहाँ के राजा द्रोणाचार्य के पुत्र अश्वत्थामा मनोनीत हुये। अश्वत्थामा ने संभवतः हस्तिनापुर के शासकों के अधीनस्थ राज्य पर शासन किया। उत्तर पांचाल की तत्कालीन राजधानी, अहिच्छत्र के अवशेष बरेली जिले की आंवला तहसील में स्थित रामनगर के समीप पाए गए हैं। यह जगह बरेली शहर से लगभग 40 किमी है। यहीं पर एक बहुत पुराना किला भी है। स्थानीय लोककथाओं के अनुसार गौतम बुद्ध ने एक बार अहिच्छत्र का दौरा किया था। यह भी कहा जाता है कि जैन तीर्थंकर पार्श्वनाथ को अहिच्छत्र में कैवल्य प्राप्त हुआ था।

छठी शताब्दी ईसा पूर्व में, बरेली अब भी पांचाल क्षेत्र का ही हिस्सा था, जो कि भारत के सोलह महाजनपदों में से एक था।[1] चौथी शताब्दी के मध्य में महापद्म नन्द के शासनकाल के दौरान पांचाल मगध साम्राज्य के अंतर्गत आया, तथा इस क्षेत्र पर नन्द तथा मौर्य राजवंश के राजाओं ने शासन किया।[2] क्षेत्र में मिले सिक्कों से मौर्यकाल के बाद के समय में यहाँ कुछ स्वतंत्र शासकों के अस्तित्व का भी पता चलता है।[3] क्षेत्र का अंतिम स्वतंत्र शासक शायद अच्युत था, जिसे समुद्रगुप्त ने पराजित किया था, जिसके बाद पांचाल को गुप्त साम्राज्य में शामिल कर लिया गया था।[4] छठी शताब्दी के उत्तरार्ध में गुप्त राजवंश के पतन के बाद इस क्षेत्र पर मौखरियों का प्रभुत्व रहा।

सम्राट हर्ष (606-647 ई.) के शासनकाल के समय यह क्षेत्र अहिच्छत्र भुक्ति का हिस्सा था। चीनी तीर्थयात्री ह्वेन त्सांग ने भी लगभग 635 ई. में अहिच्छत्र का दौरा किया था। हर्ष की मृत्यु के बाद इस क्षेत्र में लम्बे समय तक अराजकता और भ्रम की स्थिति रही। आठवीं शताब्दी की दूसरी तिमाही में यह क्षेत्र कन्नौज के राजा यशोवर्मन (725- 752 ई.) के शासनाधीन आया, और फिर उसके बाद कई दशकों तक कन्नौज पर राज करने वाले अयोध राजाओं के अंतर्गत रहा। नौवीं शताब्दी में गुर्जर प्रतिहारों की शक्ति बढ़ने के साथ, बरेली भी उनके अधीन आ गया, और दसवीं शताब्दी के अंत तक उनके शासनाधीन रहा। गुर्जर प्रतिहारों के पतन के बाद क्षेत्र के प्रमुख शहर, अहिच्छत्र का एक समृद्ध सांस्कृतिक केंद्र के रूप में प्रभुत्व समाप्प्त होने लगा। राष्ट्रकूट प्रमुख लखनपाल के शिलालेख से पता चलता है कि इस समय तक क्षेत्र की राजधानी को भी वोदामयूता) (वर्तमान बदायूं) में स्थानांतरित कर दिया गया था।

स्थापना तथा मुगल काल: लगभग 1500 ईस्वी में क्षेत्र के स्थानीय शासक राजा जगत सिंह कठेरिया ने जगतपुर नामक ग्राम को बसाया था,[5] जहाँ से वे शासन करते थे - यह क्षेत्र अब भी वर्तमान बरेली नगर में स्थित एक आवासीय क्षेत्र है। 1537 में उनके पुत्रों, बांस देव तथा बरल देव ने जगतपुर के समीप एक दुर्ग का निर्माण करवाया, जिसका नाम उन दोनों के नाम पर बांस-बरेली पड़ गया। इस दुर्ग के चारों ओर धीरे धीरे एक छोटे से शहर ने आकार लेना शुरू किया। 1569 में बरेली मुगल साम्राज्य के अधीन आया,[6] और अकबर के शासनकाल के दौरान यहाँ मिर्जई मस्जिद तथा मिर्जई बाग़ का निर्माण हुआ। इस समय यह दिल्ली सूबे के अंतर्गत बदायूँ सरकार का हिस्सा था। 1596 में बरेली को स्थानीय परगने का मुख्यालय बनाया गया था।[7] इसके बाद विद्रोही कठेरिया क्षत्रियों को नियंत्रित करने के लिए मुगलों ने बरेली क्षेत्र में वफादार अफगानों की बस्तियों को बसाना शुरू किया।

शाहजहां के शासनकाल के दौरान बरेली के तत्कालीन प्रशासक, राजा मकरंद राय खत्री ने 1657 में पुराने दुर्ग के पश्चिम में लगभग दो किलोमीटर की दूरी पर एक नए शहर की स्थापना की।[8] इस शहर में उन्होंने एक नए किले का निर्माण करवाया, और साथ ही शाहदाना के मकबरे, और शहर के उत्तर में जामा मस्जिद का भी निर्माण करवाया।[9] मकरंदपुर, आलमगिरिगंज, मलूकपुर, कुंवरपुर तथा बिहारीपुर क्षेत्रों की स्थापना का श्रेय भी उन्हें, या उनके भाइयों को दिया जाता है। 1658 में बरेली को बदायूँ प्रांत की राजधानी बनाया गया। औरंगजेब के शासनकाल के दौरान और उसकी मृत्यु के बाद भी क्षेत्र में अफगान बस्तियों को प्रोत्साहित किया जाता रहा। इन अफ़गानों को रुहेला अफ़गानों के नाम से जाना जाता था, और इस कारण क्षेत्र को रुहेलखण्ड नाम मिला।

बरेली का जाट म्यूजियम: बरेली के जाट म्यूजियम में रखी एक-एक धरोहर गौरवमयी इतिहास समेटे है, जिन्हें देखकर सिर गर्व से तन जाता है और सीना चौड़ा। यहां रेजीमेंट की स्थापना से लेकर अब तक की अनेक बेशकीमती धरोहर सहेज कर रखी गई हैं, जिनमें दुश्मनों के छक्के छुड़ा कर छीनी चीजें भी शामिल हैं। जापानियों से छीनी तोप, बीएमडब्ल्यू मशीन गन, तलवारें और राइफलें भी यहां जाट वीरों का गौरव बढ़ा रही हैं। तो पाकिस्तानी बंदूके शौर्य गाथा बयान कर रही हैं। दुश्मनों से छीने गए झंडे भी यहां पर सुरक्षित हैं। 1803 से लेकर के 1955 के बीच बदले गए रेजिमेंटल बैज और समय के साथ बदली गई यूनिफार्म भी अपने इतिहास से लोगों को जोड़ती है। साथ ही अशोक और महावीर चक्र के साथ तमाम मेडल रेजीमेंट के जवानों की शौर्य गाथाओं के गवाही देते हैं।

क्रमश: अगले भाग में पढ़िए ....लखनऊ – कानपुर (उत्तर प्रदेश) यात्रा विवरण

Author:Laxman Burdak, IFS (R), Jaipur

सोर्स - Facebook Post of Laxman Burdak, 1.8.2021

लखनऊ-कानपुर भ्रमण: पूर्वीभारत यात्रा भाग-1b

लखनऊ-कानपुर भ्रमण लेखक द्वारा 'भारतीय वन अनुसंधान संस्थान एवं कालेज देहरादून' में प्रशिक्षण के दौरान किए गए ईस्ट इण्डिया टूर – भाग एक (25.9.1980-15.10.1980) का ही एक अंश है। भ्रमण के दौरान ब्लेक एंड व्हाइट छाया चित्र साथी अधिकारियों या आईएफ़सी के फोटोग्राफर श्री अरोड़ा द्वारा प्राय: लिए जाते थे वही यहाँ दिये गए हैं। इन स्थानों की यात्रा बाद में करने का अवसर नहीं मिला इसलिये केवल कुछ स्थानों के रंगीन छाया-चित्र पूरक रूप में यथा स्थान दिये गए हैं।

28.9.1980: बरेली (8 बजे) - सीतापुर (13 बजे) - लखनऊ (17 बजे), दूरी = 255 किमी

बरेली से सुबह 8 बजे बस से रवाना हुए। पैक लंच साथ ले लिया था। रास्ते में एक शहर पड़ा जलालाबाद। यह शाहजहाँपुर‎ जिले में स्थित है। शाहजहाँपुर‎ जिले को पार कर सीतापुर में प्रवेश करते हैं। सीतापुर आते-आते एक बज गया इसलिए लंच सीतापुर में किया। सीतापुर से आगे बाढ़ के कारण सड़क खराब थी। ट्रकों की बहुत बड़ी कतार लगी थी परन्तु जैसे-तैसे करके बड़ी मुश्किल से वहाँ से निकले। शाम को पांच बजे लखनऊ पहुंचे। रास्ते में पड़ने वाले स्थानों का संक्षिप्त विवरण नीचे दिया गया है।

शाहजहांपुर, उ.प्र., (AS, p.897): शाहजहाँपुर उत्तर प्रदेश राज्य में बरेली से 85 किमी दक्षिण-पूर्व में और लखनऊ से लगभग 160 किलोमीटर पश्चिमोत्तर में बेतवा नदी के किनारे स्थित है। इस नगर को शाहजहाँ के राज्यकाल में बहादुर खाँ और दिलेर खाँ ने 1647 ई. में बसाया था.

सीतापुर जिले का मानचित्र

सीतापुर: सीतापुर नगर उत्तर प्रदेश राज्य में लखनऊ एवं शाहजहाँपुर मार्ग के मध्य में सरायान नदी के किनारे पर स्थित है। यह बरेली से 185 किमी दक्षिण-पूर्व में है। यह ज़िले का प्रशासनिक केंद्र है। स्थानीय किंवदंती के अनुसार इस शहर का नाम राम की पत्नि सीता के नाम पर पड़ा है। सीतापुर नगर में भारत का प्रसिद्ध नेत्र अस्पताल है। नगर में प्लाइवुड निर्माण का एक कारख़ाना भी है।

कुषाण काल की संध्या में प्राय: संपूर्ण ज़िला भारशिव काल की इमारतों और गुप्त तथा गुप्त प्रभावित मूर्तियों तथा इमारतों से भरा हुआ था। मनवाँ, हरगाँव, बड़ा गाँव, नसीराबाद आदि पुरातात्विक महत्व के स्थान हैं। नैमिष और मिसरिख पवित्र तीर्थ स्थल हैं। राजधानी के करीब सीतापुर जिले में ऐतिहासिक पवित्र तीर्थ स्थल नैमिषारण्य दुनिया भर में प्रसिद्ध है। इसे नीमसार के नाम से जाना जाता है। नीमसार सीतापुर जिले के एक गांव में है। मान्यता यह है कि पुराणों की रचना महर्षि व्यास ने इसी स्थान पर की थी।

नैमिषारण्य (AS, p.509) (=नीमसार) उत्तर प्रदेश के सीतापुर ज़िले का एक स्थान है। गोमती नदी के तट पर सीतापुर से 20 मील की दूरी पर यह प्राचीन तीर्थ स्थान है। विष्णु पुराण के अनुसार यह बड़ा पवित्र स्थान है। पुराणों तथा महाभारत में वर्णित नैमिषारण्य वह पुण्य स्थान है, जहाँ 88 सहस्र ऋषीश्वरों को वेदव्यास के शिष्य सूत ने महाभारत तथा पुराणों की कथाएँ सुनाई थीं- 'लोमहर्षणपुत्र उपश्रवा: सौति: पौराणिको नैमिषारण्ये शौनकस्य कुलपतेद्वदिशवार्षिके सत्रे, सुखासीनानभ्यगच्छम् ब्रह्मर्षीन् संशितव्रतान् विनयावनतो भूत्वा कदाचित् सूतनंदन:। तमाश्रममनुप्राप्तं नैमिषारण्यवासिनाम्, चित्रा: श्रोतुत कथास्तत्र परिवव्रस्तुपस्विन:'महाभारत, आदिपर्व 1, 1-23.

नैमिष नाम की व्युत्पत्ति के विषय में वराह पुराण में यह निर्देश हैं- 'एवंकृत्वा ततो देवो मुनिं गोरमुखं तदा, उवाच निमिषेणोदं निहतं दानवं बलम्। अरण्येऽस्मिं स्ततस्त्वेतन्नैमिषारण्य संज्ञितम्'-- अर्थात् ऐसा करके उस समय भगवान ने गौरमुख मुनि से कहा कि मैंने एक निमिष में ही इस दानव सेना का संहार किया है, इसीलिए (भविष्य में) इस अरण्य को लोग नैमिषारण्य कहेंगे।

वाल्मीकि रामायण उत्तरकांड 19, 15 से ज्ञात होता है कि यह पवित्र स्थली गोमती नदी के तट पर स्थित थी, जैसा कि आज भी हैं- 'यज्ञवाटश्च सुमहानगोमत्यानैमिषैवने'। 'ततो भ्यगच्छत् काकुत्स्थ: सह सैन्येन नैमिषम्' (उत्तरकांड 92, 2) में श्रीराम का अश्वमेध यज्ञ के लिए नैमिषारण्य जाने का उल्लेख है। रघुवंश 19,1 में भी नैमिष का वर्णन है- 'शिश्रिये श्रुतवतामपश्चिम् पश्चिमे वयसिनैमिष वशी'- जिससे अयोध्या के नरेशों का वृद्धावस्था में नैमिषारण्य जाकर वानप्रस्थाश्रम में प्रविष्ट होने की परम्परा का पता चलता है।

मिसरिख (AS, p.747): जिला सीतापुर, उ.प्र. में वर्तमान नीमसार से 6 मील दूर प्राचीन तीर्थ नैमिषारण्य है जिसे पौराणिक किवदंती में महर्षि दधीचि की बलिदान स्थली माना जाता है| महाभारत वनपर्व 83,91 में इसका उल्लेख है--'ततॊ गच्छेत राजेन्द्र मिश्रकं तीर्थम उत्तमम, तत्र तीर्थानि राजेन्द्र मिश्रितानि महात्मना'| इसके नामकरण का कारण (इस श्लोक के अनुसार) यहां सभी तीर्थों का एकत्र सम्मिश्रण है| मिसरिख वास्तव में नैमिषारण्य क्षेत्र ही का एक भाग है जहां सूतजी ने शौनक आदि ऋषिश्वरों को महाभारत तथा पुराणों की कथा सुनाई थी|

सीतापुर का इतिहास: प्रारंभिक मुस्लिम काल के लक्षण केवल भग्न हिन्दू मंदिरों और मूर्तियों के रूप में ही उपलब्ध हैं। इस युग के ऐतिहासिक प्रमाण शेरशाह द्वारा निर्मित कुओं और सड़कों के रूप में दिखाई देते हैं।

उस युग की मुख्य घटनाओं में से एक तो खैराबाद के निकट हुमायूँ और शेरशाह के बीच युद्ध और दूसरी सुहेलदेव और सैयद सालार के बीच बिसवाँ और तंबौर के युद्ध हैं। सीतापुर के निकट स्थित खैराबाद मूलत: प्राचीन हिन्दू तीर्थ मानसछत्र था। मुस्लिम काल में खैराबाद बाड़ी, बिसवाँ इत्यादि इस ज़िले के प्रमुख नगर थे। ब्रिटिश काल (1856) में खैराबाद को छोड़कर ज़िले का केंद्र सीतापुर नगर में बनाया गया। सीतापुर का तरीनपुर मोहल्ला प्राचीन स्थान है। यह नरोत्तमदास की जन्म स्थली के रूप में प्रसिद्ध है। सीतापुर का प्रथम उल्लेख राजा टोडरमल के बंदोबस्त में छितियापुर के नाम से आता है। बहुत दिन तक इसे छीतापुर कहा जाता रहा, जो गाँवों में अब भी प्रचलित हैं। 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में सीतापुर का प्रमुख हाथ था। बाड़ी के निकट सर हीपग्रांट तथा फैजाबाद के मौलवी के बीच निर्णंयात्मक युद्ध हुआ था।

29.9.1980: लखनऊ भ्रमण

लखनऊ जिले का मानचित्र
बड़ा इमामबाड़ा लखनऊ में आईएफ़एस 80 बैच
बड़ा इमामबाड़ा लखनऊ में आईएफ़एस 80 बैच

सुबह 8.30 बजे लखनऊ में स्थित कुकरैल क्रोकोडाइल फार्म देखने के लिए रवाना हुए। यहाँ पर मगर के अंडे लाकर उनका सेवन किया जाता है और उसमें से जब बच्चा निकलता है तो उसका पालन पोषण किया जाता है। जब बच्चा काफी बड़ा हो जाता है, इतना बड़ा कि उसको कोई खा न सके, तब उनको अपने प्राकृतिक वातावरण में छोड़ दिया जाता है। यह जगह एक अच्छा पिकनिक स्पॉट है और इसका रख-रखाव भी अच्छा है। यहाँ पर बना वनविश्राम गृह बहुत ही सुन्दर है और मुख्यमंत्री आमतौर पर यहाँ आकर रुकते हैं।

कुकरैल से लौटकर लखनऊ आये। कहते हैं लखनऊ का नाम राम के भाई लक्ष्मण के नाम पर पड़ा है। यह शहर लक्ष्मण ने बसाया था इसलिए पहले लक्ष्मणपुर कहलाता था जो बिगड़ कर लखनपुर या लखनऊ हो गया। यहाँ पर नेशनल बॉटनिकल रिसर्च इंस्टीट्यूट (National Botanical Research Institute) देखा। राष्ट्रीय वनस्पति अनुसंधान संस्थान लखनऊ में स्थित है। यह सीएसआईआर के अंतर्गत है| शाम को तीन बजे मुख्य वनसंरक्षक श्री डीएन तिवारी से मिले। उन्होंने मुख्य रूप से सामजिक वानिकी के बारे में बताया जो वन विभाग का एक नया आयाम है।

चार बजे यहाँ से फ्री होकर लखनऊ के दर्शनीय स्थान देखने गए। यहाँ के दर्शनीय स्थानों में मुख्य हैं - बड़ा इमामबाड़ा, छोटा इमामबाड़ा, शहीद स्मारक, लखनऊ रेजिडेन्सी, रूमी दरवाजा, कैसरबाग आदि। बड़ा इमामबाड़ा लखनऊ की एक ऐतिहासिक धरोहर है। बड़ा इमाम बाड़ा को भूलभुलैया भी कहा जाता है क्योंकि यहाँ बड़े-बड़े हाल हैं और कुछ ढूंढना कठिन दिखता है। यहाँ का ध्वनि प्रबंध देखने लायक है। यहाँ के भवन मुग़ल स्थापत्य कला के सुन्दर उदहारण हैं। लखनऊ के दर्शनीय स्थानों का विस्तृत विवरण आगे दिया गया है।

लखनऊ का इतिहास

लखनऊ, उ.प्र., (AS, p.810):गोमती नदी के दक्षिण तट पर बसा हुआ रमणीक नगर है. स्थानीय जनश्रुति के अनुसार इस नगर का प्राचीन नाम लक्ष्मणपुर या लक्ष्मणवती था और इसकी स्थापना श्रीरामचंद्र जी के अनुज लक्ष्मण ने की थी। श्रीराम की राजधानी अयोध्या लखनऊ के निकट ही स्थित है। नगर के पुराने भाग में एक ऊंचा ढूह है, जिसे आज भी लक्ष्मणटीला कहा जाता है। हाल में ही लक्ष्मणटीले की खुदाई से वैदिक कालीन अवशेष प्राप्त हुए हैं। यही टीला जिस पर अब मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब के समय में बनी मसजिद है, यहां का प्राचीनतम स्थल है। इस स्थान पर लक्ष्मण जी का प्राचीन मंदिर था, जिसे इस धर्मान्ध बादशाह ने काशी, मथुरा आदि के प्राचीन ऐतिहासिक मंदिरों के समान ही तुड़वा डाला था।

लखनऊ का प्राचीन इतिहास अप्राप्य है। इसकी विशेष उन्नति का इतिहास मध्य काल के पश्चात् ही प्रारम्भ हुआ जान पड़ता है, क्योंकि हिन्दू काल में, अयोध्या की विशेष महत्ता के कारण लखनऊ प्राय: अज्ञात ही रहा। सर्वप्रथम, मुग़ल बादशाह अकबर के समय में चौक में स्थित 'अकबरी दरवाज़े' का निर्माण हुआ था। जहाँगीर और शाहजहाँ के जमाने में भी इमारतें बनीं, किंतु लखनऊ की वास्तविक उन्नति तो नवाबी काल में हुई।

मुहम्मदशाह के समय में दिल्ली का मुग़ल साम्राज्य छिन्न-भिन्न होने लगा था। 1720 ई. में अवध के सूबेदार सआदत ख़ाँ ने लखनऊ में स्वतन्त्र सल्तनत कायम कर ली और लखनऊ के शिया संप्रदाय के नवाबों की प्रख्यात परंपरा का आरंभ किया। उसके पश्चात् लखनऊ में सफ़दरजंग, शुजाउद्दौला, ग़ाज़ीउद्दीन हैदर, नसीरुद्दीन हैदर, मुहम्मद अली शाह और अंत में लोकप्रिय नवाब वाजिद अली शाह ने क्रमशः शासन किया। नवाब आसफ़ुद्दौला (1795-1797 ई.) के समय में राजधानी फैसलाबाद से लखनऊ लाई गई। आसफ़ुद्दौला ने लखनऊ में बड़ा इमामबाड़ा, विशाल रूमी दरवाज़ा और आसफ़ी मसजिद नामक इमारतें बनवाईं। इनमें से अधिकांश इमारतें अकाल पीड़ितों को मज़दूरी देने के लिए बनवाई गई थीं। आसफ़ुद्दौला को लखनऊ निवासी "जिसे न दे मौला, उसे दे आसफ़ुद्दौला" कहकर याद करते हैं। आसफ़ुद्दौला के जमाने में ही अन्य कई प्रसिद्ध भवन, बाज़ार तथा दरवाज़े बने थे, जिनमें प्रमुख हैं- 'दौलतखाना', 'रेंजीडैंसी', 'बिबियापुर कोठी', 'चौक बाज़ार' आदि।

आसफ़ुद्दौला के उत्तराधिकारी सआदत अली ख़ाँ (1798-1814 ई.) के शासन काल में 'दिलकुशमहल', 'बेली गारद दरवाज़ा' और 'लाल बारादरी' का निर्माण हुआ। ग़ाज़ीउद्दीन हैदर (1814-1827 ई.) ने 'मोतीमहल', 'मुबारक मंजिल [p.811]:सआदतअली' और 'खुर्शीदज़ादी' के मक़बरे आदि बनवाए। नसीरुद्दीन हैदर के जमाने में प्रसिद्ध 'छतर मंजिल' और 'शाहनजफ़' आदि बने। मुहम्मद अलीशाह (1837-1842 ई.) ने 'हुसैनाबाद का इमामबाड़ा', 'बड़ी जामा मस्जिद' और 'हुसैनाबाद की बारादरी' बनवायी। वाजिद अली शाह (1822-1887 ई.) ने लखनऊ के विशाल एवं भव्य 'कैसर बाग़' का निर्माण करवाया। यह कलाप्रिय एवं विलासी नवाब यहाँ कई-कई दिन चलने वाले अपने संगीत, नाटकों का, जिनमें 'इंद्रसभा नाटक' प्रमुख था, अभिनय करवाया करता था।

1856 ई. में अंग्रेज़ों ने वाजिद अली शाह को गद्दी से उतार कर अवध की रियासत की समाप्ति कर दी और उसे ब्रिटिश भारत में सम्मिलित कर लिया। 1857 ई. के भारत के प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम में लखनऊ की जनता ने रेजीडेंसी तथा अन्य इमारतों पर अधिकार कर लिया था, किन्तु शीघ्र ही पुनः राज्य सत्ता अंग्रेज़ों के हाथ में चली गई और स्वतन्त्रता युद्ध के सैनिकों को कठोर दंड दिया गया।

लखनऊ के दर्शनीय स्थान
बड़ा इमामबाड़ा, लखनऊ

बड़ा इमामबाड़ा (Bara Imambara, Lucknow): लखनऊ की एक ऐतिहासिक धरोहर है इसे भूल भुलैया भी कहते हैं इसको अवध के नवाब अशिफुद्दौला ने (1784 -94) के मध्य बनवाया गया था| इस इमामबाड़े का निर्माण आसफ़उद्दौला ने 1784 में अकाल राहत परियोजना के अन्तर्गत करवाया था। यह विशाल गुम्बदनुमा हॉल 50 मीटर लंबा और 15 मीटर ऊंचा है। अनुमानतः इसे बनाने में उस ज़माने में पाँच से दस लाख रुपए की लागत आई थी। यही नहीं, इस इमारत के पूरा होने के बाद भी नवाब इसकी साज सज्जा पर ही चार से पाँच लाख रुपए सालाना खर्च करते थे। ईरानी निर्माण शैली की यह विशाल गुंबदनुमा इमारत देखने और महसूस करने लायक है। इसे मरहूम हुसैन अली की शहादत की याद में बनाया गया है। इमारत की छत तक जाने के लिए 84 सीढ़ियां हैं जो ऐसे रास्ते से जाती हैं जो किसी अन्जान व्यक्ति को भ्रम में डाल दें ताकि आवांछित व्यक्ति इसमें भटक जाए और बाहर न निकल सके| इसीलिए इसे भूलभुलैया कहा जाता है। इस इमारत की कल्पना और कारीगरी कमाल की है। ऐसे झरोखे बनाए गये हैं जहाँ वे मुख्य द्वारों से प्रविष्ट होने वाले हर व्यक्ति पर नज़र रखी जा सकती है जबकि झरोखे में बैठे व्यक्ति को वह नहीं देख सकता। ऊपर जाने के तंग रास्तों में ऐसी व्यवस्था की गयी है ताकि हवा और दिन का प्रकाश आता रहे| दीवारों को इस तकनीक से बनाया गया है ताकि यदि कोई फुसफुसाकर भी बात करे तो दूर तक भी वह आवाज साफ़ सुनाई पड़ती है। छत पर खड़े होकर लखनऊ का नज़ारा बेहद खूबसूरत लगता है।

छोटा इमामबाड़ा, लखनऊ

छोटा इमामबाड़ा (Chota Imambara, Lucknow): लखनऊ में स्थित यह इमामबाड़ा मोहम्मद अली शाह की रचना है जिसका निर्माण 1837 ई. में किया गया था। इसे हुसैनाबाद इमामबाड़ा भी कहा जाता है। माना जाता है कि मोहम्मद अली शाह को यहीं दफनाया गया था। इस इमामबाड़े में मोहम्मद अली शाह की बेटी और उसके पति का मकबरा भी बना हुआ है। मुख्य इमामबाड़े की चोटी पर सुनहरा गुम्बद है जिसे अली शाह और उसकी मां का मकबरा समझा जाता है। मकबरे के विपरीत दिशा में सतखंड नामक अधूरा घंटाघर है। 1840 ई० में अली शाह की मृत्यु के बाद इसका निर्माण रोक दिया गया था। उस समय 67 मीटर ऊँचे इस घंटाघर की चार मंजिल ही बनी थी। मोहर्रम के अवसर पर इस इमामबाड़े की आकर्षक सजावट की जाती है।

लखनऊ रेजिडेन्सी

लखनऊ रेजिडेन्सी: लखनऊ रेजिडेन्सी के अवशेष ब्रिटिश शासन की स्पष्ट तस्वीर पेश करते हैं। सिपाही विद्रोह के समय यह रेजिडेन्सी ईस्ट इंडिया कम्पनी के एजेन्ट का भवन था। यह ऐतिहासिक इमारत शहर के केन्द्र में स्थित हजरतगंज क्षेत्र के समीप है। यह रेजिडेन्सी अवध के नवाब सआदत अली खां द्वारा 1800 ई. में बनवाई गई थी। रेसिडेंसी वर्तमान में एक राष्ट्रीय संरक्षित स्मारक है और लखनऊ वालों के लिये सुबह की सैर का स्थान। रेसिडेंसी का निर्माण लखनऊ के समकालीन नवाब आसफ़ुद्दौला ने सन 1780 में प्रारम्भ करवाया था जिसे बाद में नवाब सआदत अली द्वारा सन 1800 में पूरा करावाया। रेसिडेंसी अवध प्रांत की राजधानी लखनऊ में रह रहे, ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंम्पनी के अधिकारियों का निवास स्थान हुआ करता थी। सम्पूर्ण परिसर मे प्रमुखतया पाँच-छह भवन थे, जिनमें मुख्य भवन, बेंक्वेट हाल, डाक्टर फेयरर का घर, बेगम कोठी, बेगम कोठी के पास एक मस्जिद, ट्रेज़री आदि प्रमुख थे।

रूमी दरवाजा, लखनऊ

रूमी दरवाजा (Roomi Darwaza, Lucknow): लखनऊ में बड़ा इमामबाड़ा की तर्ज पर ही रूमी दरवाजे का निर्माण भी अकाल राहत प्रोजेक्ट के अन्तर्गत किया गया है। नवाब आसफउद्दौला ने यह दरवाजा 1783 ई. में अकाल के दौरान बनवाया था ताकि लोगों को रोजगार मिल सके। अवध वास्तुकला के प्रतीक इस दरवाजे को तुर्किश गेटवे कहा जाता है। रूमी दरवाजा कांस्टेनटिनोपल के दरवाजों के समान दिखाई देता है। यह इमारत 60 फीट ऊंची है।

कैसरबाग (Qaisar Bagh, Lucknow): कैसरबाग अर्थात बागों का सम्राट, उत्तर प्रदेश राज्य की राजधानी लखनऊ में स्थित अवध क्षेत्र का एक मोहल्ला है। यह अवध के अंतिम नवाब वाजिद अली शाह (1847-1856), के द्वारा बनाया गया था।

शहीद स्‍मारक लखनऊ

शहीद स्‍मारक लखनऊ: लखनऊ के शहीद स्‍मारक को लखनऊ विकास प्राधिकरण द्वारा उन अज्ञात और गुमनाम सेनानियों के लिए बनवाया गया है जिन्‍होने 1857 में आजादी के पहले युद्ध में अपनी जान गंवा दी। यह अच्‍छी तरह जाना जाता है कि लखनऊ में आजादी की पहली लड़ाई में लखनऊ के कई निवासी, शासकों और नवाब वाजिद अली शाह व उनकी बेगम हजरत महल ने बढ़चढ़ कर इस आन्‍दोलन में हिस्‍सा लिया था। यह स्‍मारक दिल्‍ली के अमर जवान ज्‍योति की तर्ज पर बनाया गया है, जहां देश के लिए बलिदान देने वालों को श्रद्धांजलि देने के लिए स्‍मारक बनाया गया था। इस स्‍मारक को 1857 के सिपाही विद्रोह की पहली शताब्‍दी के उपलक्ष्‍य में बनाया गया था। इस स्‍मारक को मशहूर वास्‍तुकार प्रसन्‍ना कोठी द्वारा डिजायन किया गया था। यह एक खूबसूरत और आकर्षित संगमरमर का ऑवर है जो बड़े कलात्‍मक ढंग से गोमती नदी के किनारे शहर के केंद्र में स्थित है। यहां एक बड़ा सा सभागार है और एक लाइब्रेरी भी है जो बुरहा तालाब के पास स्थित है और यहां पास में स्थित दूधधारी मंदिर लगभग 500 साल पुराना है।

कुकरैल में घड़ियाल

कुकरैल संरक्षित वन (Kukrail Reserve Forest): उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में स्थित एक मगरमच्छ, घड़ियाल और कछुयों का अभयारण्य है। यह इंदिरा नगर, लखनऊ के, रिंग रोड पर स्थित है। कुकरैल संरक्षित वन की स्थापना 1978 में उत्तर प्रदेश वन विभाग और भारत सरकार के पर्यावरण एवं वन मंत्रालय के सहयोग से की गई थी। इस केंद्र की स्थापना के विचार 1975 में संयुक्त राष्ट्र संघ के संस्थान प्रकृति और प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण हेतु अंतर्राष्ट्रीय संघ की उस रिपोर्ट के बाद आया, जिसमें कहा गया था कि उत्तर प्रदेश की नदियों में मात्र 300 मगरमच्छ ही जीवित बचे हैं। मगरमच्छों के संरक्षण के लिए कुकरैल संरक्षित वन को विकसित किया गया है। आजकल यह एक पिकनिक स्थल के रूप में लोकप्रिय हो रहा है।

नेशनल बॉटनिकल रिसर्च इंस्टीट्यूट,लखनऊ

नेशनल बॉटनिकल रिसर्च इंस्टीट्यूट (National Botanical Research Institute): राष्ट्रीय वनस्पति अनुसंधान संस्थान लखनऊ में स्थित है। यह सीएसआईआर के अंतर्गत है। यह आधुनिक जीवविज्ञान एवं टैक्सोनॉमी के क्षेत्रों से जुड़ा संस्थान है। यह संस्थान भारत की अग्रणी राष्ट्रीय प्रयोगशालाओं में से एक है जो कि वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान परिषद, नई दिल्ली, के अन्तर्गत लखनऊ में कार्यरत है। यह संस्थान राष्ट्रीय वनस्पति उद्यान के रूप में उत्तर प्रदेश सरकार के अंतर्गत कार्यरत था, जिसे 13 अप्रैल, 1953 को वैज्ञानिक तथा औद्योगिक अनुसंधान परिषद् ने अधिग्रहीत कर लिया। उस समय से यह संस्थान वनस्पति विज्ञान के क्षेत्र में परम्परागत अनुसंधान करता आ रहा है। समय के साथ इसमें नये-नये विषयों पर अनुसंधान कार्य किये गये, जिनमें पर्यावरण संबंधित व आनुवांशिक अध्ययन प्रमुख थे। अनुसंधान के बढ़ते महत्व व बदलते स्वरूप को ध्यान में रखकर 25 अक्टूबर, 1978 को इसका नाम बदलकर राष्ट्रीय वनस्पति अनुसंधान संस्थान किया गया। वर्तमान में संस्थान के पास लगभग 63 एकड़ भूमि पर वनस्पति उद्यान है जिसमें संस्थान की प्रयोगशालायें स्थापित हैं। इसके अतिरिक्त बंथरा में लगभग 260 एकड़ भूमि अनुसंधान हेतु उपलब्ध है जहाँ पर अनेक प्रयोग किये जा रहे हैं। संस्थान की छवि वर्तमान में एक अंतर्राष्ट्रीय स्तर के संस्थान के रूप में है जिसके द्वारा प्रतिवर्ष अनेक उत्पाद विकसित किये जा रहे हैं तथा इनको विभिन्न उद्योग घरानों द्वारा व्यावसायिक स्तर पर बनाया जा रहा है।

30.9.1980: लखनऊ (8 बजे) – उन्नाव - कानपुर (14 बजे) - लखनऊ (20 बजे) दूरी 220 किमी

सुबह 8 बजे लखनऊ से कानपुर के लिए रवाना हुए। जी. टी. (NH-25) रोड के सहारे प्लांटेशन देखा। पाँच पंक्तियों में यह वृक्षारोपण 1977 में NH-25 पर विश्व बैंक की सहायता से करवाया गया था। काफी अच्छा प्लांटेशन किया हुआ है। इसमें यूकेलिप्टस, बबूल, जामुन, सहजन, आम, शीशम आदि कुल 13 प्रजातियाँ रोपित की गई हैं।

लखनऊ-कानपुर सड़क पर ही मुर्तजानगर (Murtazanagar) ब्लाक में ऊसर-भूमि पर रिसर्च कर पौधे तैयार करने की तकनीक का अध्ययन किया। इस भूमि पर कोई भी पौधा प्राकृतिक रूप से नहीं उगता है। कंकरों को फोड़कर भूमि का रिक्लेमेशन किया जाता है। तत्पश्चात उस पर पौधे लगाए जाते हैं। ये सभी पेड़ ईंधन और चारे के लिए हैं। ऊसर भूमि पर लगाने के लिए उपयुक्त प्रजातियाँ हैं- 1. Terminalia arjuna (अर्जुन वृक्ष), 2. Pongamia pinnata (करंज वृक्ष), 3. Albizzia labback (काला सिरस), 4. Prosopis juliflora (बिलायती बबूल). 11 बजे वन विश्राम गृह पहुंचे। वहाँ कुछ देर विश्राम किया। कंजरवेटर और स्थानीय डी.एफ.ओ. भी हमारे साथ थे। उनके द्वारा मिठाई और चाय-पान का आयोजन किया गया था। आराम करके कानपपुर के लिए रवाना हुए। रास्ते में उन्नाव जिला पड़ता है।

उन्नाव जिले का मानचित्र
नवाबगंज बर्ड सैंक्चुरी, उन्नाव

नवाबगंज बर्ड सैंक्चुरी, उन्नाव: विश्रामगृह के पास ही नवाबगंज पक्षी विहार (Nawabganj Bird Sanctuary) है उसका निरिक्षण किया। यह उन्नाव जिले में लखनऊ-कानपुर सड़क पर स्थित है। इसमें एक झील हैजो नवाबगंज झील (Nawabganj Lake) कहलाती है। हमने झील के चारों तरफ एक चक्कर लगाया। झील का एरिया 48 हे. है। कलेक्टर द्वारा 1974 में कुल 220 हेक्टर अधिग्रहण किया था। यह परियोजना वन विभाग, लोक निर्माण विभाग और सिंचाई विभाग द्वारा संयुक्त रूप से संचालित की जा रही है। वन विभाग द्वारा झील के चारों तरफ वृक्षारोपण किया गया है। ट्यूरिज्म डिपार्टमेंट द्वारा बनाया गया भवन भी देखा जो बहुत ही सुन्दर बना है। इसमें प्रकाश की बहुत ही सुन्दर और आकर्षक व्यवस्था है। भवन के ऊपर एक तरफ विशेषतौर से बनाई गयी खुली छत है जहाँ से पूरी लेक को देखा जा सकता है। लेक के बीच-बीच में टापू हैं। इन टापुओं पर काफी संख्या में पक्षी देखे जा सकते हैं। बताया गया कि पक्षी-विहार अभी नया ही है इसलिए ज्यादा पक्षी नहीं हैं जितने घाना पक्षी विहार में हैं।

30.9.1980: कानपुर भ्रमण

दोपहर 2 बजे कानपुर पहुंचे। लंच लेकर 3 बजे फिर रवाना हुए। कानपुर जूलोजिकल पार्क पहुंचे। यहाँ जीव-जंतुओं को देखा। यहाँ आकर्षण का केंद्र एक विशालकाय डायनोसॉर की बनी संरचना है और भूमि को ज्यों का त्यों रखा गया है। जीवों के लिए प्राकृतिक वातावरण जैसी स्थिति पैदा की गयी है। शेर, दरयाई घोड़ा, चिम्पैंजी, वन-मानुष एवं कुछ पक्षी देखे। उसके बाद डायरेक्टर द्वारा आयोजित चाय-पान में सामिल हुये। वहाँ से रवाना होकर सिंघानिया समर-रिजॉर्ट पहुंचे। इसका रख-रखाव बहुत ही अच्छा है। इसमें एक स्विमिंग पूल है जिसमें इलेक्ट्रिक मशीन द्वारा तरंगें पैदा की जाती हैं और पानी में बिलकुल वैसी ही हलचल हो जाती है जैसी समुद्र में।

इसके ठीक सामने बने भवन की बालकनी से यह दृश्य देखना बहुत ही भाता है। दूसरा आकर्षण का केंद्र इसी में बना एक प्राकृतिक पहाड़ है। एक पम्पिंग मशीन चालू की जाती है तो पानी चोटी से निकल कर पहाड़ी पर बनी दरारों में गिरता है और बिलकुल बाँध की तरह लगता है। फिर नालों में पानी बहता है तो नदी का दृश्य उपस्थित करता है। इसको पहाड़ी के ऊपर से देखने में बहुत आकर्षक लगता है।

कानपुर में उपर्युक्त स्थल देखकर वापस लखनऊ के लिए रवाना हो गए लगभग 6 बजे । रास्ते में आते समय ही बस से ही एग्रीकल्चरल कालेज और एग्रीकल्चरल यूनिवर्सिटी को देखा। काफी थक गए थे और अँधेरा भी हो गया था सो शेष रास्ते में नींद आ गयी।

कानपुर का इतिहास
कानपुर नगर ज़िले का मानचित्र

कानपुर भारत के उत्तर प्रदेश राज्य के कानपुर नगर ज़िले में स्थित एक औद्योगिक महानगर है। यह नगर गंगा नदी के दक्षिण तट पर बसा हुआ है। प्रदेश की राजधानी लखनऊ से 80 किलोमीटर पश्चिम स्थित यह नगर प्रदेश की औद्योगिक राजधानी के नाम से भी जाना जाता है। इसका प्राचीन नाम कर्णपुर था जो महाभारतकाल के पात्र कर्ण के नाम पर बसाया माना जाता है। ऐतिहासिक और पौराणिक मान्यताओं के लिए चर्चित ब्रह्मावर्त (बिठूर) के उत्तर मध्य में स्थित ध्रुवटीला त्याग और तपस्या का सन्देश देता है।

ध्रुवटीला कानपुर: मान्यता है इसी स्थान पर ध्रुव ने जन्म लेकर परमात्मा की प्राप्ति के लिए बाल्यकाल में कठोर तप किया और ध्रुवतारा बनकर अमरत्व की प्राप्ति की। रखरखाव के अभाव में टीले का काफी हिस्सा गंगा में समाहित हो चुका है लेकिन टीले पर बने दत्त मन्दिर में रखी तपस्या में लीन ध्रुव की प्रतिमा अस्तित्व खो चुके प्राचीन मंदिर की याद दिलाती रहती है। बताते हैं गंगा तट पर स्थित ध्रुवटीला किसी समय लगभग 19 बीघा क्षेत्रफल में फैलाव लिये था। इसी टीले से टकरा कर गंगा का प्रवाह थोड़ा रुख बदलता है। पानी लगातार टकराने से टीले का लगभग 12 बीघा हिस्सा कट कर गंगा में समाहित हो गया। टीले के बीच में बना ध्रुव मंदिर भी कटान के साथ गंगा की भेंट चढ़ गया। बुजुर्ग बताते हैं मन्दिर की प्रतिमा को टीले के किनारे बने दत्त मन्दिर में स्थापित कर दिया गया। पेशवा काल में इसकी देखरेख की जिम्मेदारी राजाराम पन्त मोघे को सौंपी गई। तब से यही परिवार दत्त मंदिर में पूजा अर्चना का काम कर रहा है। मान्यता है ध्रुव के दर्शन पूजन करने से त्याग की भावना बलवती होती है और जीवन में लाख कठिनाइयों के बावजूद काम को अंजाम देने की प्रेरणा प्राप्त होती है।

1801 में जब अंग्रेज़ों ने इस पर और इसके आसपास के क्षेत्र पर क़ब्ज़ा किया, तब कानपुर सिर्फ़ एक गांव था। अंग्रेज़ों ने इसे अपना सीमांत मोर्चा बनाया। 1857 के भारतीय विद्रोह के दौरान इस शहर में भारतीय सेनाओं ने ब्रिटिश टुकड़ियों का क़त्लेआम किया था। कहा जाता है कि इससे बचे हुए लोगों को एक कुएं में फेंक दिया गया था। जहाँ अंग्रेज़ों ने एक स्मारक का निर्माण करवाया था।

कानपुर 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के प्रमुख स्थलों में से एक है। कानपुर में स्थित एक इमारत बीबीगढ़ में 1857 ई. के सिपाही विद्रोह के दौरान 211 अंग्रेज़ स्त्री-पुरुषों और बच्चों को, जिन्होंने 26 जून को आत्मसमर्पण किया था, 15 जुलाई को नाना साहब और तात्या टोपे के आदेशानुसार मार डाला गया और उनके शवों को क़रीब के कुएँ में फेंक दिया गया।

ब्रिटिश शासन के प्रारम्भिक दिनों से ही यह नगर भारत का प्रमुख सैनिक-केन्द्र रहा है। 1857 ई. के स्वतंत्नता-संग्राम (जिसे अंग्रेज़ों ने ‘सिपाही-विद्रोह’ या ‘गदर’ कहकर पुकारा) में इसने प्रमुख भूमिका अदा की। जिस समय स्वधीनता-संग्राम छिड़ा, कानपुर के निकट बिठूर में भूतपूर्व पेशवा बाजीराव के पुत्र नाना सहाब रहते थे। उन्होंने अपने को ‘पेशवा’ घोषित किया और कानपुर स्थित विद्रोही सिपाहियों का नेतृत्व अपने हाथ में ले लिया। 8 जून 1857 ई. को ब्रिटिश फ़ौज़ी अड्डे को घेर लिया गया और 27 जून को ब्रिटीश नागरिकों ने इस आश्वासन पर आत्मसमर्पण कर दिया कि उन्हें इलाहाबाद तक सुरक्षित जाने दिया जायगा। किन्तु ब्रिटिश सेना जिस समय नौकाओं के ज़रिये इस स्थान से रवाना होने की तैयारी कर रही थी, उसपर प्राणघाती गोलाबारी शुरू कर दी गयी। चार को छोड़कर सारे ब्रिटिश सैनिक मारे गये। इस कत्ले-आम ने अंग्रेज़ों के दिमाग में बदले की जबर्दस्त भावना पैदा कर दी। नील और हैबलक के नेतृत्व में अंग्रेज़ी सेना ने कानपुर शहर पर फिर क़ब्ज़ा कर लिया और देशवासियों पर भारी अत्याचार किये। नवम्बर के अन्त में नगर पर विद्रोही ग्वालियर टुकड़ी का क़ब्ज़ा था, लेकिन दिसम्बर 1857 ई. के शुरू में उसपर सर कोलिन कैम्पवेलने अधिकास कर लिया। आजकल कानपुर प्रमुख औद्योगिक केन्द्र है। 1931 ई. में यहाँ भयानक साम्प्रदायिक दंगा हुआ, जिसमें विख्यात कांग्रेस-नेता श्री गणेश शंकर विद्यार्थी शहीद हो गये।

कानपुर उत्तरी भारत का सबसे बड़ा औद्योगिक केन्द्र है। यहाँ पर सूती व ऊनी कपड़ों की मिलें बहुसंख्या में हैं और चमढ़े का काम विशाल पैमाने पर होता है। ऊत्तर प्रदेश और भारत के सबसे बड़े शहरों में से एक कानपुर का उत्तर भारत में औद्योगिक नगर के रूप में प्रादुर्भाव अमेरिकी गृहयुद्ध (1861-1865) के दौरान हुआ। जब मैनचेस्टर की मिलों में कपास की आपूर्ति ठप्प हो गई। तत्कालीन ज़िला मजिस्ट्रेट डब्ल्यू.एस. हेल्से ने ज़िले में कपास की खेती की शुरुआत करवाई। लड़ाई के जारी रहने पर कपास की क़ीमतें आसमान को छूने लगीं कानपुर एक समृद्ध ज़िला व कानपुर नगर एक वस्त्र उद्योग केंद्र बन गया, लेकिन कानपुर की समृद्ध पिछले पचास वर्षों में धुंधली पड़ गयी है। औद्योगिक पतन का असर पूरे शहर में देखा जा सकता है।

जाट हवेली बिठूर

जाट रियासत बिठूर: कानपुर और आस-पास के क्षेत्रों पर गौरवंशी जाट रियासत ने शासन किया है जिसके बारे में दलीप सिंह अहलावत (जाट वीरों का इतिहास, पृष्ठ.234) लिखते हैं: गौर जाट क्षत्रियों की बहुत बड़ी संख्या पंजाब में है। जिला जालन्धर में गुड़ा गांव के गौरवंशी जाट राजा बुधसिंह के पुत्र राजा भागमल मुगल साम्राज्य की ओर से इटावा, फरूखाबाद, इलाहाबाद का सूबेदार बना और फफूंद में रहते हुए बड़ी प्रतिष्ठा प्राप्त की। आपने फफूंद में एक किला बनवाया और लखनऊ नवाब की ओर से 27 गांव कानपुर, इटावा में प्राप्त किए। इन गांवों में ही एक गांव बिठूर गंगा किनारे पर है। यही ब्रह्मावर्त के तीर्थ के नाम से प्रसिद्ध है। यहां निवास करते हुए आप ने फफूँद में एक मकबरा बनवाया। उस किले पर लिखा है कि “1288 हिज़री (सन् 1870) में इल्मास अली खां के कहने से राजा भागमल गौर जाट ने यह मकबरा बनवाया।” यहां हिन्दू-मुसलमान समान रूप से चादर चढ़ाते हैं। राजा गौर भागमल ने प्रजा के लिए सैंकड़ों कुएं, औरैय्या में एक विशाल मन्दिर, मकनपुर एवं बिठूर में भी दरगाहें बनवाईं। सन् 1857 ई० के स्वतन्त्रता संग्राम के संचालक नेता नाना साहब पेशवा ने महाराष्ट्र से आकर राजा भागमल के अतिथि रूप में बिठूर में निवास किया था। इस दृष्टिकोण से बिठूर को और भी विशेष महत्त्व प्राप्त हो गया।

कानपुर के दर्शनीय स्थान

बिठूर (AS, p.629) प्रसिद्ध हिन्दू धार्मिक स्थल है जो कानपुर 12 से मील उत्तर की ओर उत्तर प्रदेश में स्थित है। इसका मूलनाम ब्रह्मावर्त कहा जाता है। किवदन्ती है कि ब्रह्मा ने सृष्टि की रचना के उपलक्ष्य में यहाँ अश्वमेघयज्ञ किया था। बिठूर को बालक ध्रुव के पिता उत्तानपाद की राजधानी माना जाता है। ध्रुव के नाम से एक टीला भी यहाँ विख्यात है। कहा जाता है कि महर्षि वाल्मीकि का आश्रम जहाँ सीता निर्वासन काल में रही थी, यहीं था। अंतिम पेशवा बाजीराव जिन्हें अंग्रेज़ों ने मराठों की अंतिम लड़ाई के बाद महाराष्ट्र से निर्वासित कर दिया था, बिठूर आकर रहे थे। इनके दत्तक पुत्र नाना साहब पेशवा ने अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ 1857 के स्वतंत्रतायुद्ध में प्रमुख भाग लिया था। पेशवाओं ने यहाँ कई सुंदर इमारतें बनवाई थी किन्तु अंग्रेजों ने इन्हें 1857 के पश्चात अपनी विजय के मद में नष्ट कर दिया। बिठूर में प्रागैतिहासिक काल के ताम्र उपकरण तथा बाणफ़लक मिले हैं जिससे इस स्थान की प्राचीनता सिद्ध होती है।

उत्पलावन या उत्पलारण्य (जिला कानपुर) (AS, p.93): बिठूर का प्राचीन नाम है। वन पर्व महाभारत 87,15 में उत्पलावन का उल्लेख इस प्रकार है- 'पंचालेषु च कौरव्य कथयन्त्युत्पलावनम् विश्वामित्रोऽयजद् यत्र पुत्रेण सह कौशिक:'।

ययातिपुर (AS, p.770): ययातिपुर या जाजमऊ कानपुर, उत्तर प्रदेश से 3 मील की दूरी पर गंगा नदी के किनारे स्थित है। राजा ययाति के क़िले के अवशेष जाजमऊ की प्राचीनता के द्योतक हैं। किंतु श्री नं० ला० डे के अनुसार यह क़िला राजा जीजत का बनवाया हुआ है। जीजत चंदेलों का पूर्वज था। कानपुर की प्रसिद्धि के पूर्व जाजमऊ इस क्षेत्र का महत्वपूर्ण नगर था।

जाजमऊ: जाजमऊ को प्राचीन काल में सिद्धपुरी नाम से जाना जाता था। यह स्थान पौराणिक काल के राजा ययाति के अधीन था। वर्तमान में यहां सिद्धनाथ और सिद्ध देवी का मंदिर है। साथ ही जाजमऊ लोकप्रिय सूफी संत मखदूम शाह अलाउल हक के मकबरे के लिए भी प्रसिद्ध है। इस मकबरे को 1358 ई. में फिरोज शाह तुगलक ने बनवाया था। 1679 में कुलीच खान की द्वारा बनवाई गई मस्जिद भी यहां का मुख्य आकर्षण है। 1957 से 58 के बीच यहां खुदाई की गई थी जिसमें अनेक प्राचीन वस्तुएं प्राप्त हुई थी।

श्योराजपुर (AS, p.914) जिला कानपुर, उ.प्र. से हाल ही में उत्तर प्रदेश की सर्वप्राचीन मूर्तिकला के उदाहरण मिले हैं। ये ताम्र निर्मित मानवकृतियां हैं जो ताम्रपाषाणयुगीन (लगभग 3000 वर्ष प्राचीन) हैं। ताम्रपाषाणयुगीन सिंधु घाटी सभ्यता का समकालीन माना जाता है। नई खोजों से सिद्ध होता है कि सिंधु घाटी सभ्यता केवल सिंध पंजाब तक ही सीमित नहीं थी, किंतु उसका प्रसार समस्त उत्तर भारत, राजस्थान और गुजरात तक था। उत्तर प्रदेश में इसके अवशेष बहादराबाद (हरिद्वार के निकट) में भी मिले हैं।

कमला रिट्रीट कानपुर
कमला रिट्रीट कानपुर

कमला रिट्रीट कानपुर एग्रीकल्चर कॉलेज के पश्चिम में स्थित है। इस खूबसूरत संपदा पर सिंहानिया परिवार का अधिकार है। यहां एक स्वीमिंग पूल बना हुआ है, जहां कृत्रिम लहरें उत्पन्न की जाती है। कमला रिट्रीट कानपुर का एक लोकप्रिय पर्यटन रिसॉर्ट है जिसका निर्माण भारत के प्रमुख उद्योगपति श्री पदम पत सिंघानिया ने 1960 में किया था। यह रिट्रीट कमला नेहरु रोड पर स्थित है। यह पार्क वास्तव में एक निजी संपत्ति है जिसका स्वामित्व सिंघानिया परिवार के पास है। इसमें पर्यटन के कई आकर्षण है जिसमें एक संग्रहालय है जहाँ अनेक ऐतिहासिक और पुरातात्विक स्मारक और प्राचीन काल की कलाकृतियाँ रखी हुई हैं। इस रिट्रीट में कई पार्क, लॉन और नहरें हैं जहाँ बोटिंग की सुविधा उपलब्ध है। यहाँ अत्याधुनिक उपकरणों से सुसज्जित स्वीमिंग पूल भी है जिसमें कृत्रिम लहरें उत्पन्न की जाती हैं। इस पूल को साईक्लेडिक रोशनी से प्रकाशित किया जाता है जो रात में एक भव्य नज़ारा प्रस्तुत करती है। हरे भरे क्षेत्र में एक चिड़ियाघर भी है जहाँ विभिन्न प्रजातियों के पक्षी, सरीसृप और पशु आज़ादी से घुमते हैं। यहाँ कई महान हस्तियाँ आ चुकी हैं जिनमें पंडित जवाहर लाल नेहरु और 1962 में भारत चीन युद्ध के पहले चीन के पहले प्रधानमंत्री शामिल हैं। इस पार्क की सैर के लिए पहले अनुमति लेना आवश्यक है।

डायनासोर की वास्तविक आकार की मूर्ति, कानपुर प्राणी उद्यान

कानपुर प्राणी उद्यान (Kanpur Zoological Park): 1971 में खुला यह चिड़ियाघर भारत के सर्वोत्तम चिड़ियाघरों में एक है। क्षेत्रफल की दृष्टि से यह भारत का तीसरा सबसे बड़ा चिड़ियाघर है। यह कानपुर शहर में स्थित है। यहाँ पर लगभग 1250 जीव-जंतु है। कुछ समय पिकनिक के तौर पर बिताने और जीव-जंतुओं को देखने के लिए यह चिड़ियाघर एक बेहतरीन जगह है। ब्रिटिश इंडियन सिविल सर्विस के सदस्य सर एलेन (Sir Allen) यहाँ पर फैले प्राकृतिक जंगलों में यह चिड़ियाघर खोलना चाहते थे पर ब्रिटिश काल में उनकी यह योजना जमीन पर नहीं उतर सकी। जब यह चिड़ियाघर भारत सरकार द्वारा 1971 में खोला गया तो इसका नाम उन्हीं के नाम पर एलेन फोरस्ट जू (Allen Forest Zoo) रखा गया। इसके निर्माण कार्य में 2 वर्ष लगे और यह आम लोगों के लिए 4 फ़रवरी 1974 को खोला गया। यहाँ का पहला जानवर उद्बीलाव था जो की चम्बल घाटी से आया था। कानपुर में स्थित मंधना (ब्लू वर्ल्ड) से पास में है। यहां रजत बुक स्टाल के पास से भी जाया जा सकता है। यहाँ आकर्षण का केंद्र एक विशालकाय डायनोसॉर की बनी संरचना है और भूमि को ज्यों का त्यों रखा गया है। जीवों के लिए प्राकृतिक वातावरण जैसी स्थिति पैदा की गयी है। यहाँ पर बाघ, शेर, तेंदुआ, विभिन्न प्रकार के भालू, लकड़बग्घा, गैंडा, लंगूर, वनमानुष, चिम्पान्ज़ी, हिरण समेत कई जानवर है। यहाँ पर अति दुर्लभ घड़ियाल भी है। हाल ही में यहाँ पर हिरण सफारी भी खोली गयी है। इनके आलवा विभिन्न देशी-विदेशी पक्षी भी यहाँ की शोभा बढ़ाते है। अफ्रीका का शुतुरमुर्ग और न्यूजीलैंड का ऐमू, तोता,सारस समेत कई भारतीय और विदेशी पक्षी हैं।

क्रमश: अगले भाग में पढ़िए फैजाबाद - अयोध्या - गोरखपुर के बारे में ....

Author: Laxman Burdak, IFS (R), Jaipur

Source - 1. User:Lrburdak/My Tours/Tour of East India I

2. Facebook Post of Laxman Burdak, 12.8.2021

फैजाबाद, अयोध्या, गोरखपुर, कुशीनगर भ्रमण: पूर्वीभारत यात्रा भाग-1c

फैजाबाद, अयोध्या, गोरखपुर, कुशीनगर भ्रमण लेखक द्वारा 'भारतीय वन अनुसंधान संस्थान एवं कालेज देहरादून' में प्रशिक्षण के दौरान किए गए ईस्ट इण्डिया टूर – भाग एक (25.9.1980-15.10.1980) का ही एक अंश है। भ्रमण के दौरान ब्लेक एंड व्हाइट छाया चित्र साथी अधिकारियों या आईएफ़सी के फोटोग्राफर श्री अरोड़ा द्वारा प्राय: लिए जाते थे वही यहाँ दिये गए हैं। इन स्थानों की यात्रा बाद में करने का अवसर नहीं मिला इसलिये केवल कुछ स्थानों के रंगीन छाया-चित्र पूरक रूप में यथा स्थान दिये गए हैं।

1.10.1980: लखनऊ (9 बजे) – बाराबंकी - फैजाबाद (13 बजे) - अयोध्या (16 बजे) - बस्ती - गोरखपुर (20 बजे) दूरी = 345 किमी

सुबह 9 बजे लखनऊ से गोरखपुर के लिए रवाना हुए। एक नौकर बीमार हो गया था सो उसको वापस देहरादून भेजना था इसके लिए स्टेशन गए। स्टेशन पर उसको छोड़कर रवाना हुए और शहर से बाहर निकलते-निकलते 10 बज गए। ठीक 10 बजे हम आई.टी. गर्लस कालेज के सामने थे। वहाँ पर कुछ देर पिछली बस का इंतजार किया। यह कालेज बहुत प्रसिद्ध है। अभी कल ही तो 'सावन भादो' पिक्चर देख रहे थे जिसमें यह कालेज दिखाया गया था।

लखनऊ से रवाना होकर बाराबंकी जिले को पार किया। एक बजे फैजाबाद पहुंचे। वहाँ पहुँच कर लंच के लिए होटल की तलास की। आभा होटल यहाँ का प्रसिद्ध है जहाँ जाकर लंच लिया । फ़ैजाबाद डिस्ट्रिक्ट हैडक्वाटर है और तुलनात्मक ढंग से ठीक है। लंच लेकर रवाना हुए और 4 बजे अयोध्या पहुँचे। अयोध्या राम की जन्म-भूमि है। यहाँ पर बहुत संख्या में मंदिर हैं। समय की कमी के कारण एक ही मंदिर देख पाये। बाल्मीकि मंदिर देखा जो अभी बन रहा है। यहाँ पूरी रामायण शिलाओं पर लिखी है। यह कोई दो करोड़ की लागत से बनाया गया है। यहाँ पर ज्यादातर पण्डे लोग ही हैं जो मंदिर में ही रहते हैं। वहीँ उनको खाना मिल जाता है और कोई काम नहीं करते हैं। देखने में मुझे लगा कि सभी लोग बहुत गंदे थे और पढ़े लिखे भी नहीं हैं। न वहाँ पर पूरी सफाई का ही ध्यान रखा जाता है। सब देख कर लगा कि भृष्टाचार भी यहाँ कम नहीं होना चाहिए। जल्दी ही वहाँ से रवाना हो गए।

शाम के 8 बजे गोरखपुर पहुंचे। गोरखपुर में गोलघर क्षेत्र में स्थित अम्बर होटल में रुके।


लखनऊ से गोरखपुर के बीच पड़नेवाले शहरों का संक्षिप्त विवरण निम्न प्रकार से है:

बाराबंकी जिले का मानचित्र
बाराबंकी घंटाघर

बाराबंकी (AS, p.622) उत्तर प्रदेश राज्य में स्थित प्रमुख शहर है। सिद्धौर तथा कुंतेश्वर के प्राचीन मंदिरों के लिए बाराबंकी ज़िला उल्लेखनीय है। इस स्थान का प्राचीन नाम जसनौल कहा जाता है। इसे 10वीं शती में 'जस' नामक भर राजा ने बसाया था।

भर या भारशिव लोगों के इतिहास की खोज करने का प्रयास किया तो पता चलता है कि ये प्राचीन नागवंशी मूल के राजा थे जो वर्तमान में जाटों के एक गोत्र के रूप में राजस्थान, हरयाणा, पंजाब और उत्तर प्रदेश में मिलते हैं। यह गोत्र अफ़ग़ानिस्तान और मुल्तान (पाकिस्तान) में भी मिलते हैं। इनके प्राचीन इतिहास पर अनुसंधान की आवश्यकता है। दलीप सिंह अहलावत (जाट वीरों का इतिहास, पृष्ठ.241-242) ने इनके इतिहास पर थोड़ासा प्रकाश निम्नानुसार डाला है- कुषाणशक्ति के अस्त और गुप्तों के उदय से पूर्व नागशक्ति शैव धर्मानुयायी रूप से पुनः उदित हुई। इस समय ये लोग शिवजी का अलंकार नाग (सांप) अपने गले में लिपटाकर रखने लगे थे। इन नवोदित नागवंशियों ने शिवलिंग को स्कन्ध पर धारण कर शिवपूजा की एक नई परम्परा स्थापित की थी। अतः इनका नाम भारशिव प्रसिद्ध हो गया। इस नाम को स्पष्ट करनेवाला एक लेख बालाघाट में मिला है। इसका उल्लेख ‘एपिग्राफिका इण्डिया’ भाग 1 पृष्ठ 269 तथा ‘फ्लीट गुप्त इन्स्क्रिप्शन्स’ 245 में इस प्रकार किया है - “शिवलिंग का भार ढोने से जिन्होंने शिव को भलीभांति सन्तुष्ट कर लिया था, जिन्होंने अपने पराक्रम से प्राप्त की हुई भागीरथी गंगा के पवित्र जल से राज्याभिषेक कराया और जिन्होंने दश अश्वमेध यज्ञ करके अवभृथ स्नान किया था, इस प्रकार उन भारशिव महाराजाओं का राजवंश प्रारम्भ हुआ।”

भर या भारशिव लोगों के इतिहास की अधिक जानकारी के लिए मध्य प्रदेश के सतना जिले में स्थित में प्राचीन बौद्ध स्तूप के लिए विख्यात भरहुत नामक स्थान से प्राप्त अभिलेखों का गहन परीक्षण किया जाना चाहिए। भरहुत, सतना जिला,(AS, p.666): मध्य प्रदेश के बुन्देलखण्ड के भूतपूर्व नागोद रियासत में स्थित एक ऐतिहासिक स्थान है। भरहुत द्वितीय- प्रथम शताब्दी ईसा पूर्व में निर्मित बौद्ध स्तूप तथा तोरणों के लिए साँची के समान ही प्रसिद्ध है। स्तूप के पूर्व में स्थित तोरण के स्तंभ पर उत्कीर्ण लेख से ज्ञात होता है कि इसका निर्माण 'बाछीपुत धनभूति' ने करवाया था जो गोतीपुत अगरजु का पुत्र और राजा गागीपुत विसदेव का प्रपौत्र था. इस अभिलेख की लिपि से यह विदित होता है कि यह स्तूप शुंगकालीन (प्रथम-द्वितीय शती पूर्व) है और अब इसके केवल अवशेष ही विद्यमान हैं। यह 68 फुट व्यास का बना था। इसके चारों ओर सात फुट ऊँची परिवेष्टनी (चहार दीवारी) का निर्माण किया गया था, जिसमें चार तोरण-द्वार थे। परिवेष्टनी तथा तोरण-द्वारों पर यक्ष-यक्षिणी तथा अन्यान्य अर्द्ध देवी-देवताओं की मूर्तियाँ तथा जातक कथाएँ तक्षित हैं। जातक कथाएँ इतने विस्तार से अंकित हैं कि उनके वर्ण्य-विषय को समझने में कोई कठिनाई नहीं होती। भरहुत और साँची के तोरणों की मूर्तिकारी तथा कला में बहुत साम्यता है। इसका कारण इनका निर्माण काल और विषयों का एक होना है। इसके तोरणों के केवल कुछ ही कलापट्ट कलकता के संग्रहालय में सुरक्षित हैं किन्तु ये भरहुत की कला के सरल सौंदर्य के परिचय के लिए पर्याप्त हैं।


फैजाबाद जिले का मानचित्र

बाराबंकी को नवाबी काल में नवाबगंज के नाम से भी जाना जाने लगा। लखनऊ के पूर्व में 29 किलोमीटर की दूरी पर स्थित बाराबंकी उत्तर प्रदेश राज्य का एक ज़िला है। यह ज़िला उत्तर मे घाघरा नदी, पूर्व में फैजाबाद ज़िला, दक्षिण में सुल्तानपुर, रायबरेली और लखनऊ से घिरा हुआ है। ऐतिहासिक दृष्टि से भी यह काफ़ी महत्त्वपूर्ण स्थल है। इस जगह पर कई राजाओं ने लम्बे समय तक शासन किया था। बाराबंकी जहाँ एक ओर पारिजात के वृक्षों के लिए विश्व में प्रसिद्ध है, वहीं दूसरी ओर यह महादेव मन्दिर, देवा शरीफ़ की मस्जिद, सिद्धेश्‍वर मंदिर, त्रिलोकपुर तीर्थ, कोटव धाम मंदिर और सतरिख के लिए भी विशेष रूप से जाना जाता है।

गुलाब बाड़ी, नवाब शुजाउद्दौला का मकबरा,फैजाबाद

फैजाबाद (AS, p.599): लखनऊ को राजधानी बनाने से पूर्व अवध के नवाबों ने फैजाबाद में ही अपने रहने के लिए महल बनवाए थे। नवाब शुजाउदौला और परवर्ती नवाबों के समय में यहां अनेक सुंदर प्रासाद, मकबरे और उद्यान बने जिनमें से खुर्द महल, बहूबेगम का मकबरा, गुलाब बाड़ी तथा दिलकुशा आज भी वर्तमान हैं. कहा जाता है कि अयोध्या के अनेक प्राचीन भवनों तथा मंदिरों के मसाले से ही फैजाबाद की बहुत सी इमारतें बनी थी।....उत्तरी भारत के पूर्वी उत्तर प्रदेश राज्य में स्थित एक नगर है। फ़ैज़ाबाद लखनऊ के पूर्व में घाघरा नदी के तट पर स्थित है।....फ़ैज़ाबाद की स्थापना अवध के पहले नबाव सादत अली ख़ाँ ने 1730 में की थी और उन्होंने इसे अपनी राजधानी बनाया, लेकिन वह यहाँ बहुत कम समय व्यतीत कर पाए। तीसरे नवाब शुजाउद्दौला यहाँ रहते थे और उन्होंने नदी के तट 1764 में एक दुर्ग का निर्माण करवाया था; उनका और उनकी बेगम का मक़बरा इसी शहर में स्थित है। 1775 में अवध की राजधानी को लखनऊ ले जाया गया। 19वीं शताब्दी में फ़ैज़ाबाद का पतन हो गया। ऐतिहासिक और धार्मिक दृष्टि से यह स्थान काफ़ी महत्त्वपूर्ण माना जाता है। कलकत्ता क़िला, नागेश्‍वर मंदिर, राम जन्मभूमि, सीता की रसोई, अयोध्या तीर्थ, गुरुद्वारा ब्रह्मकुण्ड और गुप्‍तसर घाट यहां के प्रमुख एवं प्रसिद्ध पर्यटन स्थलों में से हैं।

कनक भवन - हनुमान गढ़ी के निकट स्थित कनक भवन अयोध्या का एक महत्वपूर्ण मंदिर है। यह मंदिर सीता और राम के स्वर्णमुकुट पहने प्रतिमाओं के लिए लोकप्रिय है। यह मंदिर टीकमगढ़ की रानी ने 1891 में बनवाया था।

अयोध्या (AS, p.34-37): अयोध्या पुण्यनगरी श्रीरामचन्द्रजी की जन्मभूमि होने के नाते भारत के प्राचीन साहित्य व इतिहास में सदा से प्रसिद्ध रही है। अयोध्या की गणना भारत की [p.35]:प्राचीन सप्तपुरियों में प्रथम स्थान पर की गई है--'अयोध्या मथुरा माया काशी कांचिरवन्तिका, पुरी द्वारावती चैव सप्तैते मोक्षदायिका':

अयोध्या की महत्ता के बारे में पूर्वी उत्तर प्रदेश के जनसाधारण में निम्न कहावतें प्रचलित हैं- गंगा बड़ी गोदावरी, तीरथ बड़ो प्रयाग, सबसे बड़ी अयोध्यानगरी, जहँ राम लियो अवतार।

रामायण में अयोध्या का उल्लेख कोशल जनपद की राजधानी के रूप में किया गया है।(एस. सी. डे, हिस्टारिसिटी ऑफ़ रामायण एंड द इंडो आर्यन सोसाइटी इन इंडिया एंड सीलोन (दिल्ली, अजंता पब्लिकेशंस, पुनमुर्दित, 1976), पृष्ठ 80-81)

रामायण के अनुसार यह नगर सरयू नदी के तट पर बसा हुआ था तथा कोशल राज्य का सर्वप्रमुख नगर था-- 'कोसलो नाम मुद्रित: स्फीतो जनपदो महान्, निविष्ट: सरयूतीरे प्रभूत धनधान्यवान;। अयोध्यानाम नगरी तत्रासील्लोकविश्रुता। मनुना मानवेर्द्रण या पुरी निर्मिता स्वयम्य।

रामायण, बालकाण्ड, सर्ग 5, पंक्ति 5-6 के अनुसार अयोध्या नगर 12 योजन लम्बाई में और 3 योजन चौड़ाई में फैला हुआ था,--'आयता दश च द्वे योजनानि महापुरी, श्रीमती त्रणि विस्तीर्ण सुविभक्तमहापथा'। रामायण, बालकाण्ड, सर्ग 5, पंक्ति 7. वह अनेक राजमार्गों से सुशोभित थी. उसकी प्रधान सड़कों पर जो बड़ी सुंदर वी चौड़ी थी प्रतिदिन फूल बिखेरे जाते थे. और उनका जल से सिंचन होता था--'राजमार्गेण महता सुविभक्तेन शोभित, मुक्तपुष्पावकीर्णेन जलसिक्तेन नित्यश:' बाल.5,8. सूत और मागध उस नगरी में बहुत थे। अयोध्या बहुत ही सुन्दर नगरी थी। अयोध्या में ऊँची अटारियों पर ध्वजाएँ शोभायमान थीं और सैकड़ों शतघ्नियाँ उसकी रक्षा के लिए लगी हुई थीं।--'सूतमागधसंबाधां श्रीमतीमतुलप्रभाम्, उच्चाट्टालध्वजवतीं शतघ्नीशतसंकुलाम्' बालका 5, 11.

अयोध्या रघुवंशी राजाओं की बहुत पुरानी राजधानी थी। बालकाण्ड 5, 6 के अनुसार स्वयं मनु ने अयोध्या का निर्माण किया था। वाल्मीकि रामायण उत्तर काण्ड 108, 4 से विदित होता है कि स्वर्गारोहण से पूर्व रामचंद्र जी ने कुश को कुशावती नामक नगरी का राजा बनाया था। श्रीराम के पश्चात् अयोध्या उजाड़ हो गई थी, क्योंकि उनके उत्तराधिकारी कुश ने अपनी राजधानी कुशावती में बना ली थी। रघु वंश सर्ग 16 से विदित होता है कि अयोध्या की दीन-हीन दशा देखकर कुश ने अपनी राजधानी पुन: अयोध्या में बनाई थी।

महाभारत में अयोध्या के दीर्घयज्ञ नामक राजा का उल्लेख है जिसे भीमसेन ने पूर्वदेश की दिग्विजय में जीता था--अयोध्यां तु धर्मज्ञं दीर्घयज्ञं महाबलम्, अजयत् पांडवश्रेष्ठो नातितीव्रेणकर्मणा- सभापर्व 30-2. घटजातक में अयोध्या अयोज्झा के कालसेन नामक राजा का उल्लेख है। [जातक संख्या 454] गौतमबुद्ध के समय कोसल के दो भाग हो गए थे- उत्तर कोसल और दक्षिण कोसल जिनके बीच में सरयू नदी बहती थी। अयोध्या या साकेत उत्तरी भाग की और श्रावस्ती दक्षिणी भाग की राजधानी थी। इस समय श्रावस्ती का महत्त्व अधिक बढ़ा हुआ था। [p.36]: बौद्ध काल में ही अयोध्या के निकट एक नई बस्ती बन गई थी जिसका नाम साकेत था। बौद्ध साहित्य में साकेत और अयोध्या दोनों का नाम साथ-साथ भी मिलता है (देखिए रायसडेवीज बुद्धिस्ट इंडिया, पृष्ठ 39) जिससे दोनों के भिन्न अस्तित्व की सूचना मिलती है।

शुंग वंश के प्रथम शासक पुष्यमित्र [द्वितीय शती ई. पू.] का एक शिलालेख अयोध्या से प्राप्त हुआ था जिसमें उसे सेनापति कहा गया है तथा उसके द्वारा दो अश्वमेध यज्ञों के लिए जाने का वर्णन है। अनेक अभिलेखों से ज्ञात होता है कि गुप्तवंशीय चंद्रगुप्त द्वितीय के समय (चतुर्थ शती ई. का मध्यकाल) और तत्पश्चात् काफ़ी समय तक अयोध्या गुप्त साम्राज्य की राजधानी थी। गुप्तकालीन महाकवि कालिदास ने अयोध्या का रघु वंश में कई बार उल्लेख किया है--'जलानि या तीरनिखातयूपा वहत्ययोध्यामनुराजधानीम्' रघु वंश 13, 61; 'आलोकयिष्यन्मुदितामयोध्यां प्रासादमभ्रंलिहमारुरोह'- रघु वंश 14, 29 कालिदास ने उत्तरकौशल की राजधानी साकेत [रघु वंश 5,31; 13,62] और अयोध्या दोनों ही का नामोल्लेख किया है, इससे जान पड़ता है कि कालिदास के समय में दोनों ही नाम प्रचलित रहे होंगे। मध्यकाल में अयोध्या का नाम अधिक सुनने में नहीं आता था। युवानच्वांग के वर्णनों से ज्ञात होता है कि उत्तर बुद्धकाल में अयोध्या का महत्त्व घट चुका था।

जैन ग्रंथ विविधतीर्थकल्प में अयोध्या को ऋषभ, अजित, अभिनंदन, सुमति, अनंत, और अचलभानु-- इन जैन मुनियों का जन्म स्थान माना गया है. नगरी का विस्तार लंबाई में 12 योजन और चौड़ाई में 9 योजन कहा गया है. इस ग्रंथ में वर्णित है कि चक्रेश्वरी और गोमुख यक्ष अयोध्या के निवासी थे. घर्घर-दाह और सरयू का अयोध्या के पास संगम बताया है और संयुक्त नदी को वर्गद्वारा नाम से अभिहित किया गया है. नगर से 12 योजन पर अष्टावट या अष्टापद पहाड़ पर आदि गुरु का कैवल्यस्थान माना गया है. इस ग्रंथ में यह भी वर्णित है कि अयोध्या के चारों द्वारों पर 24 जैन तीर्थंकर की मूर्तियां प्रतिस्थापित थी. एक मूर्ति की चालुक्य नरेश कुमारपाल ने प्रतिष्ठापना की थी. इस ग्रंथ में अयोध्या को दशरथ, राम और भरत की राजधानी बताया गया है. जैन ग्रंथों में अयोध्या को विनीता भी कहा गया है.

मध्यकाल में मुसलमानों के उत्कर्ष के समय, अयोध्या बेचारी उपेक्षिता ही बनी रही, यहाँ तक कि मुग़ल साम्राज्य के संस्थापक बाबर के एक सेनापति ने बिहार अभियान के समय अयोध्या में श्रीराम के जन्मस्थान पर स्थित प्राचीन मंदिर को तोड़कर एक मस्जिद बनवाई थी। मस्जिद में लगे हुए अनेक स्तंभ और शिलापट्ट उसी प्राचीन मंदिर के हैं। अयोध्या के वर्तमान मंदिर कनकभवन आदि अधिक प्राचीन नहीं हैं, और वहाँ यह कहावत प्रचलित है कि सरयू को छोड़कर रामचंद्रजी के समय की कोई निशानी नहीं है। कहते हैं कि अवध के नवाबों ने जब फ़ैज़ाबाद में राजधानी बनाई थी तो वहाँ के अनेक महलों में अयोध्या के पुराने मंदिरों की सामग्री उपयोग में लाई गई थी।

अयोध्या के मुख्य आकर्षण

श्रीरामजन्मभूमि, कनक भवन, हनुमानगढ़ी, दशरथमहल, श्रीलक्ष्मणकिला, कालेराम मन्दिर, मणिपर्वत, श्रीराम की पैड़ी, नागेश्वरनाथ, क्षीरेश्वरनाथ श्री अनादि पञ्चमुखी महादेव मन्दिर, गुप्तार घाट समेत अनेक मन्दिर यहाँ प्रमुख दर्शनीय स्थल के रूप में प्रसिद्ध हैं। बिरला मन्दिर, श्रीमणिरामदास जी की छावनी, श्रीरामवल्लभाकुञ्ज, श्रीलक्ष्मणकिला, श्रीसियारामकिला, उदासीन आश्रम रानोपाली, देवकाली तथा हनुमान बाग जैसे अनेक आश्रम आगन्तुकों का केन्द्र हैं।


2.10.1980: गोरखपुर

गोरखपुर का मानचित्र

शाम के 8 बजे गोरखपुर पहुंचे। गोरखपुर में अम्बर होटल (गोलघर) में रुके। यह यहाँ का प्रसिद्ध होटल है और मुख्य बाजार में स्थित है। सभी सिनेमा हाल भी यहीं आसपास ही हैं। लोग बड़े घबरा रहे थे कि गोरखपुर में बाढ़ अभी आई थी और संक्रामक बीमारी भी फ़ैल रही है। एन्सेफलाइटिस का भी बहुत जोर है जो आज भी पेपर में था। कुछ लोगों ने तो यह भी सुझाव दिया कि गोरखपुर का टूर ही काट दिया जाय और सीधे हल्द्वानी ही चला जाय।

गोरखपुर में खाने की व्यवस्था होनी थी परन्तु क्योंकि कल रात लेट पहुंचे इसलिए रात को बाहर ही खाना खाने जाना पड़ा। तलास की तो पास ही एक मारवाड़ी होटल था। वहाँ खाना भी अच्छा था और रेट भी उचित था। खाना खाने के बाद मैंने होटल वाले से पूछा तो पता लगा कि वह राजस्थान में झुंझनु जिले के बड़ागांव नामक स्थान का रहने वाला है।

2.10.1980: गोरखपुर - कुशीनगर - गोरखपुर

सुबह 8 बजे ही तैयार होकर शहर से 12 कि.मी. दूर रामगढ़ वनविश्राम गृह आये यहीं मेस स्थापित किया गया था। रामगढ उर्फ़ राजहि (Ramgarh Urf Rajahi) गोरखपुर के पूर्व दिशा में स्थित है। नाश्ता करने के बाद यहाँ के स्थानीय डी.एफ.ओ. श्री मिश्रा ने गोरखपुर वर्किंग प्लान के बारे में बताया और समझाया कि किस तरह यहाँ पर साल और टीक का टोंगिया प्लांटेशन किया जाता है। यहाँ टोंगिया प्लांटेशन बहुत सफल है जो सन 1920 से प्रेक्टिस में है। यह तकनीक कभी फ़ैल नहीं होती।

टोंगिया प्लांटेशन (Taungya Plantation): साल के वन लगाने का तरीका है जिसमें स्थानीय लोगों को वनभूमि वितरित कर दी जाती है। वे लोग खेती के साथ-साथ साल भी लगाते हैं। पांच साल में जब पौधे बड़े हो जाते हैं तो उन लोगों को दूसरी भूमि दे दी जाती है। इस तरह क्रम चलता रहता है। हमने एक साल से लेकर पांच साल के पौधे देखे। उन लोगों के घर भी ढाणी की तरह जगह-जगह अपनी ही भूमि में बने हुए थे। पांच साल बाद उन झोंपड़ियों को भी वे छोड़कर चले जाते हैं।

साल वृक्ष लगाने के लिए टोंगिया प्लांटेशन पद्धति सर्वप्रथम वर्ष 1920 में शुरू की गई थी। इसका उद्देश्य साल लकड़ी का अधिक उत्पादन करना था, जो रेलवे स्लीपर बनाने के लिए रेल्वे को दी जानी थी। उस समय भारत में रेल्वे का नेटवर्क बहुत तेजी से विकसित किया जा रहा था। टोंगिया प्लांटेशन पद्धति के अंतर्गत एक वर्ष पहले, जिस क्षेत्र में यह प्लांटेशन किया जाना होता है, वह भूमि हितग्राहियों को वनविभाग द्वारा आवंटित कर दी जाती है। इस पद्धति में कृषक को छोटी इमारती लकड़ी, जलाऊ लकड़ी और छप्पर आदि बनाने के लिए घास-फूस मुफ्त में दिया जाता है। पानी की सप्लाई वन विभाग द्वारा की जाती है। बच्चों को शिक्षा की व्यवस्था भी वन विभाग द्वारा की जाती है। बच्चों की पढ़ाई पूरी होने पर नौकरी की व्यवस्था भी वन विभाग द्वारा की जाती है। इस पद्धति का अप्रत्यक्ष व्यय बहुत ज्यादा होता है। प्रत्येक परिवार को प्रतिवर्ष आमदनी लगभग रु. 250-300/- तक हो जाती है। इस पद्धति का नुकसान यह है कि इसमें राजनीतिक हस्तक्षेप बहुत ज्यादा है। समय-समय पर स्थानीय नेताओं द्वारा यह प्लांटेशन करने वालों को वन भूमि पर स्थायी अधिकार देने की मांग उठती रहती है। वन विभाग को वन-भूमि स्थाई रूप से खोने का खतरा हमेशा बना रहता है।

12 बजे रामगढ़ वन विश्राम गृह के पास ही स्थित दक्षिण गोरखपुर वन मंडल के All India Teak Seed Origin ऑर्किड का निरीक्षण किया। संपूर्ण भारत से टीक प्रजाति के बीजों का संग्रहण कर इस ऑर्किड में बोये जाते हैं। टीक की वृद्धि पर यहाँ के लोकलिटी के प्रभाव का अध्ययन किया जाता है और सर्वोत्तम गुणवत्ता के बीजों का चयन किया जाता है। यहाँ पर सगोन वृक्षों की औसत ऊँचाई 27 मीटर और औसत व्यास 25-30 सेमी है।

परिनिर्वाण मंदिर कुशीनगर, 2.10.1980

लंच के बाद हम रामगढ़ विश्रामगृह से ही कुशीनगर गए। कुशीनगर गोरखपुर से 51 किमी दूर है। सबसे पहले हमने वहाँ का बौद्ध मंदिर देखा जिसका नाम 'इंटरनेशनल मेडिटेशन सेंटर' है। यह मंदिर एक चीनी भिक्षुक 'कुओ लिआन' ने बनाया था। इसके अंदर भगवान बुद्ध की जीवनी चित्रित की गयी है जो चीनी भाषा में ही लिखी है। बाद में उसमें नीचे हिंदी में भी लिखा गया है। मंदिर देखने के बाद वहाँ से थोड़ी दूर करीब एक-डेढ़ किमी स्थित रामभार स्तूप देखने गए। कहा जाता है कि यहाँ भगवान बुद्ध का निर्वाण हुआ था। उनकी पुण्यस्मृति में यह स्तूप बनाया गया है। यद्यपि पुराततव विभाग को इसके उत्खनन में कोई अवशेष नहीं मिले हैं। स्तूप के ऊपर भी हम चढ़े। स्तूप के ठीक पास ही दक्षिण में कुछ अवशेष हैं जो निर्वाण भवन बताया गया है। वहाँ से चलकर हम परिनिर्वाण मंदिर आये। यह बहुत ही शानदार बना हुआ मंदिर है। इसका पुनर्निर्माण सन 1956 में किया गया था। इसके अंदर भगवान बुद्ध की एक विशाल मूर्ति लेटी हुई अवस्था में रखी हुई है। यह मूर्ति प्राचीन मंदिर की खुदाई में सन 1876 में मिली थी। वहाँ पर उपस्थित पुजारी ने बताया कि भगवान बुद्ध का अंतिम संस्कार रामाभार स्तूप की जगह हुआ था। बुद्ध की अस्थियां वहाँ से लाकर यहाँ रखी गयी थी और उनको आठ भागों में बाँट कर अलग-अलग आठ जगह भेजी गयी थी। पुराततव विभाग द्वारा इसको ‘प्रोटेक्टेड मोनुमेंट' घोषित किया गया है। मूर्ति के ऊपर छतरियां लगी हैं जो थाईलैंड , श्रीलंका आदि देशों द्वारा भेंट की गयी हैं।

कुशीनगर से चलकर 6.30 बजे शाम रामगढ़-वनविश्राम गृह पहुंचे। कुशीनगर का विस्तृत विवरण और इतिहास आगे दिया गया है।


3.10.1980: गोरखपुर

ट्राम-वे लक्ष्मीपुर: पूर्व-निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार हमें लॉगिंग प्रशिक्षण के लिए ट्राम-वे रेल देखने लक्ष्मीपुर जाना था जो गोरखपुर से 100 कि.मी. दूर है। महराजगंज के लक्ष्मीपुर रेंज में ब्रिटिश हुकूमत की 22 किमी ट्राम-वे रेल परियोजना सोहगीबरवा (Sohagi Barwa) वन्य जीव प्रभाग की बहुमूल्य वनसंपदा को दुर्गम वन क्षेत्र से मुख्य रेल लाइन तक लाने के लिए ब्रिटिश हुकूमत के दौरान वर्ष 1924 में लक्ष्मीपुर रेलवे स्टेशन के निकट भारत की पहली ट्राम-वे रेल परियोजना स्थापित की गई थी। लक्ष्मीपुर रेंज और उत्तरी चौक रेंज के जंगल में चौराहा (Chauraha) नामक स्थान तक 22 किमी दूरी तक रेल लाइन बिछाईं गई थी। ट्राम-वे रेल निर्माण की केपिटल कोस्ट रु. 3,51,243/- थी। औसत 20000 क्यूबिक मीटर प्रतिवर्ष चिरान की हुई अथवा गोला के रूप में इमारती लकड़ी चौराहा और अन्य डिपो से एकमा डिपो तक परिवहन की जाती थी। एकमा डिपो में ठेकेदारों को भंडारण हेतु प्लॉट आवंटित थे। ट्राम-वे रेल योजना के संपूर्ण कार्यपर नियंत्रण हेतु एक वन परिक्षेत्र अधिकारी नियुक्त किया गया है।

टीप: आगे बताये कारण से ट्राम-वे रेल लक्ष्मीपुर हम नहीं पहुँच सके परंतु जानकारी प्राप्त हुई है कि निरंतर 55 वर्षो की सेवा करके 8 लाख घाटे के बाद 1982 में भारत की पहली ट्राम-वे रेल परियोजना को बंद करना पड़ा। इसमें शामिल प्रत्येक 40 अश्व शक्ति के 4 इंजन, 26 बोगियां व सैलून, 2 निरीक्षण ट्राली सहित तमाम उपकरणों को लक्ष्मीपुर एकमा डिपो में रखा गया था। वर्ष 2009 में सरकार के निर्देश पर एक इंजन, एक सैलून एवं एक बोगी को लखनऊ चिड़ियाघर में रखवा दिया गया है।

हमारी बस के ड्रायवर ने बताया कि डीजल नहीं है तो डीजल के लिए प्रयत्न किया गया। कोई टैंकर आया नहीं था इसलिए ड्रायवर डीजल लेने बस्ती चले गए जो यहाँ से 70 कि.मी. दूर है। दो बजे वे बसें लेकर गए थे और हमने देखा कि 6 बजे से पहले लौटने की सम्भावना नहीं है इसलिए हमने डी.ओ. (हम लोगों में से ही व्यवस्था बनाये रखने के लिए नियुक्त एक ड्यूटी ओफिसर) को पूछा और पिक्चर चले गए। शाम को पता लगा कि हमारे इंस्ट्रक्टर पीएम संगल साहब ने दूसरी बस यहाँ से कर ली थी। वह साढ़े तीन बजे आये थे और जो लोग बचे उनको ही लेकर लक्ष्मीपुर चले गए। कुल 37 अधिकारियों में से केवल 18 ही जा पाये थे। जो नहीं गए उनके लिए बताया गया कि वे कल जायें अपने आप। इस तरह आजका दिन यों ही चला गया कुछ भी नहीं हुआ।

4.10.1980: गोरखपुर

आज सुबह बहुत जल्दी ही यानि साढ़े 6 बजे ही हम लोग तैयार हो गए। रामगढ़ वन विश्रामगृह में नाश्ता लेकर कंजरवेटर फोरेस्ट के यहाँ गए। कंजरवेटर फोरेस्ट और और डी.एफ.ओ. तैयार थे। वे भी हमारे साथ गए। रास्ते में 9 बजे गोरखपुर-लक्ष्मीपुर रोड़ पर रोड़-साइड प्लांटेशन दिखाया गया। यहाँ से कैम्पीयर-गंज (Campierganj) ले गए। जगह का नाम कैम्पीयर-गंज यहाँ के रेल्वे स्टेशन के अंग्रेज स्टेशन मास्टर Campier के नाम पर रखा गया है। इसे चौमुखा (Chaumukha) भी बोलते हैं। यह गोरखपुर से 34 किमी उत्तर में स्थित है। कैम्पीयर-गंज में Bhari Bhasi रिसर्च नर्सरी दिखाई और एक टांगिया पाठशाला का निरिक्षण भी करने गए। पाठशाला में दो मास्टर थे और दोनों ही फोरेस्ट डिपार्टमेंट के थे। वनविभाग ही इन बच्चों की पढ़ाई-लिखाई का प्रबंध करता है। बच्चे बहुत गंदे थे और इसी तरह से मास्टर भी उतने ही गंदे थे। हाँ एक मास्टर थोड़ासा ठीक साफ सुथरा था। स्कूल देखकर कैम्पीयर-गंज (Campierganj) टिम्बर डिपो देखने गए। वहाँ पर रेलवे के लिए स्लीपर बनाये जाते हैं। दो बजे वनविश्राम गृह पहुंचे। आज स्पेशल लंच आयोजित किया गया था जिसमें कंजरवेटर, दोनों डी.एफ.ओ. और डी.एम. को भी बुलाया गया था। डी. एम. बाढ़ प्रभावित लोगों को कपड़ा बांटने में ज्यादा ही व्यस्त थे सो नहीं आ सके। लंच के बाद प्रभारी अधिकारी श्री संगल साहब ने कहा कि जो लोग कल लक्ष्मीपुर नहीं गए थे वे आज जावें। हम सब लोगों का आज जाने का बिलकुल मूड नहीं था। इसलिए सबने इसका विरोध किया। संगल साहब ने भी बहुत जोर दिया जाने के लिए पर आखिर में वे मान गए।

रामगढ़ वनविश्राम गृह से अम्बर होटल गोरखपुर आये। गोरखपुर बाजार घूमने निकले। गीता प्रेस देखने का मूड था। इसलिए वहाँ भी गए। बाजार में घूम-घाम कर वापस आ गए। यहाँ के बाजार में कोई खासियत अलग से नहीं दिखी। शहर भी कोई ख़ास अच्छा नहीं है। सिर्फ गोलघर एरिया, जहाँ हमारा होटल स्थित था, वही कुछ अच्छा था।

गोरखपुर भ्रमण का हमारा कार्य पूरा हो गया। गोरखपुर का विस्तृत विवरण आगे दिया गया है।

5.10.1980: गोरखपुर (9.30 बजे) – लखनऊ (17.30 बजे) दूरी = 345 किमी

कुशीनगर परिचय
कुशीनगर का मानचित्र

कुशीनगर उत्तर प्रदेश राज्य का एक प्रसिद्ध ज़िला तथा छोटा क़स्बा है। भगवान बुद्ध से सम्बंधित कई ऐतिहासिक स्थानों के लिए कुशीनगर संसार भर में प्रसिद्ध है। ज़िले का मुख्यालय कुशीनगर से लगभग 15 कि.मी. दूर पडरौना में स्थित है। कुशीनगर राष्ट्रीय राजमार्ग संख्या 28 पर गोरखपुर से 51 कि.मी. की दूरी पर पूरब में स्थित है। महात्मा बुद्ध का निर्वाण यहीं हुआ था। यहाँ मुख्यत: विश्वभर के बौद्ध तीर्थयात्री भ्रमण के लिये आते हैं। कुशीनगर से पूरब की ओर बढ़ने पर लगभग 20 कि.मी. के बाद बिहार राज्य आरम्भ हो जाता है।

कुशीनगर के प्रसिद्ध दर्शनीय स्थल

गौतम बुद्ध का समाधि स्तूप

निर्वाण स्तूप: ईंट और रोड़ी से बने इस विशाल स्तूप को 1876 में कार्लाइल द्वारा खोजा गया था। इस स्तूप की ऊंचाई 2.74 मीटर है। इस स्थान की खुदाई से एक तांबे की नाव मिली है। इस नाव में खुदे अभिलेखों से पता चलता है कि इसमें महात्मा बुद्ध की चिता की राख रखी गई थी।

परिनिर्वाण मन्दिर कुशीनगर

परिनिर्वाण मन्दिर: परिनिर्वाण मन्दिर कुशीनगर का प्रसिद्ध बौद्ध धार्मिक स्थल है। सर्वप्रथम कार्लाइल ने 1876 ई. में इस मन्दिर और परिनिर्वाण प्रतिमा को खोज निकाला था। कार्लाइल को ऊँची दीवारें तो मिली थीं, परंतु छत के अवशेष नहीं मिले थे। इसमें केवल गर्भगृह और उसके आगे एक प्रवेश कक्ष था। इस टीले के गर्भगृह में खुदाई करते समय कार्लाइल को एक ऊँचे सिंहासन पर तथागत की 20 फुट (लगभग 6.1 मीटर) लंबी परिनिर्वाण मुद्रा की प्रतिमा मिली थी। यह प्रतिमा चित्तीदार बलुआ पत्थर की है। इसमें बुद्ध को पश्चिम की तरफ मुख करके लेटे हुए दिखाया गया है। इसका सिर उत्तराभिमुख है, दाहिना हाथ सिर के नीचे और बायाँ हाथ जंघे पर स्थित है। पैर एक-दूसरे के ऊपर हैं। प्रतिमा के नीचे खुदे अभिलेख के पता चलता है कि इस प्रतिमा का संबंध पांचवीं शताब्दी से है। कहा जाता है कि हरीबाला नामक बौद्ध भिक्षु गुप्त काल के दौरान यह प्रतिमा मथुरा से कुशीनगर लाया था।

माथाकुंवर मंदिर: यह मंदिर निर्वाण स्तूप से लगभग 400 गज की दूरी पर है। भूमि स्पर्श मुद्रा में महात्मा बुद्ध की प्रतिमा यहां से प्राप्त हुई है। यह प्रतिमा बोधिवृक्ष के नीचे मिली है। इसके तल में खुदे अभिलेख से पता चलता है कि इस मूर्ति का संबंध 10-11वीं शताब्दी से है। इस मंदिर के साथ ही खुदाई से एक मठ के अवशेष भी मिले हैं।

रामाभर स्तूप: रामाभार टीला या स्तूप कुशीनगर-देवरिया मार्ग पर 'माथा कुँवर मंदिर' से 1.61 कि.मी. की दूरी पर स्थित है। इस स्थान पर मल्लों की अभिषेकशाला थी और वहीं पर बुद्ध का 'अंतिम संस्कार' किया गया था। इसे उस समय ‘मुकुट बंधन चैत्य’ के नाम से जाना जाता था। प्रथम बार इसकी खुदाई एक राजकीय कर्मचारी ने कराई थी। उत्खनन का द्वितीय चरण 1910 ई. में हीरानंद शास्त्री की अध्यक्षता में प्रारंभ हुआ, जिससे इसके वास्तविक स्वरूप का पता चला। 115 फुट व्यास में इसकी नींव थी और ऊपर 112 फुट व्यास का स्तूप बना था।

आधुनिक स्तूप: कुशीनगर में अनेक बौद्ध देशों ने आधुनिक स्तूपों और मठों का निर्माण करवाया है। चीन द्वारा बनवाए गए चीन मंदिर में महात्मा बुद्ध की सुंदर प्रतिमा स्थापित है। इसके अलावा जापानी मंदिर में अष्ट धातु से बनी महात्मा बुद्ध की आकर्षक प्रतिमा देखी जा सकती है। इस प्रतिमा को जापान से लाया गया था।

बौद्ध संग्रहालय: कुशीनगर में खुदाई से प्राप्त अनेक अनमोल वस्तुओं को बौद्ध संग्रहालय में संरक्षित किया गया है। यह संग्रहालय इंडो-जापान-श्रीलंकन बौद्ध केन्द्र के निकट स्थित है। आसपास की खुदाई से प्राप्त अनेक सुंदर मूर्तियों को इस संग्रहालय में देखा जा सकता है। यह संग्रहालय सोमवार के अलावा प्रतिदिन सुबह 10 से शाम 5 बजे तक खुला रहता है।

इन दर्शनीय स्थलों के अलावा क्रिएन मंदिर, शिव मंदिर, राम-जानकी मंदिर, मेडिटेशन पार्क, बर्मी मंदिर आदि भी कुशीनगर में देखे जा सकते हैं|

आवागमन: हवाईअड्डा - वाराणसी (बनारस) यहाँ का निकटतम प्रमुख हवाईअड्डा है। दिल्ली, लखनऊ, कोलकाता और पटना आदि शहरों से यहाँ के लिए नियमित उड़ानें हैं। इसके अतिरिक्त लखनऊ और गोरखपुर भी वायुयान से आकर यहाँ आया जा सकता है।

रेल मार्ग - देवरिया कुशीनगर का निकटतम रेलवे स्टेशन है, जो यहाँ से 35 कि.मी. की दूरी पर है। कुशीनगर से 51 कि.मी. दूर स्थित गोरखपुर यहाँ का प्रमुख रेलवे स्टेशन है, जो देश के अनेक प्रमुख शहरों से जुड़ा हुआ है।

कुशीनगर का इतिहास

कुशीनगर = कसिया (जिला गोरखपुर, उ.प्र.) (AS, p.214-217): कुशीनगर अथवा कुशीनारा बुद्ध के महापरिनिर्वाण का स्थान है। किंवदंती के अनुसार यह माना जाता है कि कुशीनगर अयोध्या के राजा दशरथ के पुत्र रामचन्द्र के ज्येष्ठ पुत्र कुश द्वारा बसाया गया था। बौद्ध ग्रंथ महावंश-2,6 में कुशीनगर का नाम इसी कारण कुशावती भी कहा गया है। बौद्ध काल में यही नाम कुशीनगर या पाली में कुसीनारा हो गया।

एक अन्य बौद्ध किंवदंती के अनुसार तक्षशिला के इक्ष्वाकु वंशी राजा तालेश्वर का पुत्र तक्षशिला से अपनी राजधानी हटाकर कुशीनगर ले आया था। उसकी वंश परम्परा में बारहवें राजा सुदिन्न के समय तक यहाँ राजधानी रही। इनके बीच में कुश और महादर्शन नामक दो प्रतापी राजा हुए, जिनका उल्लेख गौतम बुद्ध ने (महादर्शनसुत्त के अनुसार) किया था।

'महादर्शनसुत्त' में कुसीनारा (कुशीनगर) के वैभव का वर्णन है-'राजा महासुदर्शन के समय में कुशावती पूर्व से पश्चिम तक बारह योजन और उत्तर से दक्षिण तक सात योजन थी। कुशावती राजधानी समृद्ध और सब प्रकार से सुख-शान्ति से भरपूर थी। जैसे देवताओं की अलकनन्दा नामक राजधानी समृद्ध है, वैसे ही कुशावती थी। यहाँ दिन रात हाथी, घोड़े, रथ, भेरी, मृदंग, गीत, झांझ, ताल, शंख और खाओ-पिओ-के दस शब्द गूंजते रहते थे। नगरी सात परकोटों से घिरी थी। इनमें चार रंगों के बड़े-बड़े द्वार थे। चारों ओर ताल वृक्षों की सात पक्तियाँ नगरी को घेरे हुई थीं। इस पूर्व बुद्धकालीन वैभव की झलक हमें कसिया में खोदे गये कुओं के अन्दर से प्राय: बीस फुट की गहराई पर प्राप्त होने वाली भित्तियों के अवशेषों से मिलती है। [p.215]: 'महापरिनिर्वाणसुत्त' से ज्ञात होता है कि कुशीनगर बहुत समय तक समस्त जंबुद्वीप की राजधानी भी रही थी। बुद्ध के समय (छठी शती ई. पू.) में कुशीनगर मल्ल महाजनपद की राजधानी थी। नगर के उत्तरी द्वार से साल वन तक एक राजमार्ग जाता था, जिसके दोनों ओर साल वृक्षों की पंक्तियाँ थीं। साल वन से नगर में प्रवेश करने के लिए पूर्व की ओर जाकर दक्षिण की ओर मुड़ना पड़ता था। साल वन से नगर के दक्षिण द्वार तक बिना नगर में प्रवेश किए ही एक सीधे मार्ग से पहुँचा जा सकता था। पूर्व की ओर हिरण्यवती नदी (राप्ती) बहती थी, जिसके तट पर मल्लों की अभिषेकशाला थी। इसे 'मुकुटबंधन चैत्य' कहते थे। नगर के दक्षिण की ओर भी एक नदी थी, जहाँ कुशीनगर का श्मशान था। बुद्ध ने कुशीनगर आते समय इरावती (अचिरवती, अजिरावती या राप्ती नदी) पार की थी। (बुद्ध चरित 25, 53)

नगर में अनेक सुन्दर सड़कें थीं। चारों दिशाओं के मुख्य द्वारों से आने वाले राजपथ नगर के मध्य में मिलते थे। इस चौराहे पर मल्ल गणराज्य का प्रसिद्ध संथागार था, जिसकी विशालता इसी से जानी जा सकती है कि इसमें गणराज्य के सभी सदस्य एक साथ बैठ सकते थे। संथागार के सभी सदस्य राजा कहलाते थे और बारी-बारी से शासन करते थे। शेष व्यापार आदि कार्यों में व्यस्त रहते थे। कुशीनगर में मल्लों की एक सुसज्जित सेना रहती थी। इस सेना पर मल्लों को गर्व था। इसी के बल पर वे युद्ध के अस्थि-अवशेषों को लेने के लिए अन्य लोगों से लड़ने के लिए तैयार हो गए थे। भगवान बुद्ध अपने जीवनकाल में कई बार कुशीनगर आए थे। वे साल वन बिहार में ही प्राय: ठहरते थे। उनके समय में ही यहाँ के निवासी बौद्ध हो गए थे। इनमें से अनेक भिक्षु भी बन गए थे। दब्बमल्ल स्थविर, आयुष्मान सिंह, यशदत्त स्थविर इनमें प्रसिद्ध थे। कोसलराज प्रसेनजित का सेनापति बंधुलमल्ल, दीर्घनारायण, राजमल्ल, वज्रपाणिमल्ल और वीरांगना मल्लिका यहीं के निवासी थे।

भगवान बुद्ध की मृत्यु 483 ई. में कुसीनारा में हुई थी। (बुद्ध चरित 25, 52) अपनी शिष्य मंडली के साथ चुंद के यहाँ भोजन करने के पश्चात् उसे उपदेश देकर वे कुशीनगर आए थे। उन्होंने साल वन के उपवन में युग्मशाल वृक्षों के नीचे चिर समाधि ली थी। (बुद्ध चरित 25, 55) निर्वाण के पूर्व कुशीनगर पहुँचने पर तथागत कुशीनगर में कमलों से सुशोभित एक तड़ाग के पास उपवन में ठहरे थे। (बुद्ध चरित 25, 53) अंतिम समय में बुद्ध ने कुसीनारा को बौद्धों का महातीर्थ बताया था। [p.216]: उन्होंने यह भी कहा था कि "पिछले जन्मों में छ: बार वे चक्रवर्ती राजा होकर कुशीनगर में रहे थे।" बुद्ध के शरीर का दाहकर्म मुकुटबंधन चैत्य, वर्तमान रामाधार में किया गया था और उनकी अस्थियाँ नगर के संथागार में रक्खी गई थीं (मुकुटबंधन चैत्य में मल्लराजाओं का राज्याभिषेक होता था। बुद्ध चरित 27, 70 के अनुसार बुद्ध की मृत्यु के पश्चात् 'नागद्वार के बाहर आकर मल्लों ने तथागत के शरीर को लिए हुए हिरण्यवती नदी पार की और मुकुट चैत्य के नीचे चिता बनाई')। बाद में उत्तर भारत के आठ राजाओं ने इन्हें आपस में बाँट लिया था। मल्लों ने मुकुटबंधन चैत्य के स्थान पर एक महान् स्तूप बनवाया था। बुद्ध के पश्चात् कुशीनगर को मगध-नरेश अजातशत्रु ने जीतकर मगध में सम्मिलित कर लिया और वहाँ का गणराज्य सदा के लिए समाप्त हो गया किंतु बहुत दिनों तक यहाँ अनेक स्तूप और विहार आदि बने रहे और दूर-दूर से बौद्ध यात्रियों को आकर्षित करते रहे।

बौद्ध अनुश्रुति के अनुसार मौर्य सम्राट अशोक (मृत्यु 232 ई. पू.) ने कुशीनगर की यात्रा की थी और एक लाख मुद्रा व्यय करके यहाँ के चैत्य का पुनर्निर्माण करवाया था। युवानच्वांग के अनुसार अशोक ने यहाँ तीन स्तूप और दो स्तंभ बनवाए थे। तत्पश्चात् कनिष्क (120 ई.) ने कुशीनगर में कई विहारों का निर्माण करवाया। गुप्त काल में यहाँ अनेक बौद्ध विहारों का निर्माण हुआ तथा पुराने भवनों का जीर्णोद्धार भी किया गया। गुप्त-राजाओं की धार्मिक उदारता के कारण बौद्ध संघ को कोई कष्ट न हुआ। कुमार गुप्त (5वीं शती ई. का प्रारम्भ काल) के समय में हरिबल नामक एक श्रेष्ठी ने परिनिर्वाण मन्दिर में बुद्ध की बीस फुट ऊँची प्रतिमा की प्रतिष्ठापना की। छठी व सातवीं ई. से कुशीनगर उजाड़ होना प्रारम्भ हो गया। हर्ष (606-647 ई.) के शासनकाल में कुशीनगर नष्ट प्रायः हो गया था यद्यपि यहाँ भिक्षओं की संख्या पर्याप्त थी। युवानच्वांग के यात्रा-वृत्त से सूचित होता है कि कुशीनारा, सारनाथ से उत्तर-पूर्व 116 मील दूर था। युवान के परवर्ती दूसरे चीनी यात्री इत्सिंग के वर्णन से ज्ञात होता है कि उसके समय में कुशीनगर में सर्वास्तिवादी भिक्षुओं का आधिपत्य था। हैहयवंशीय राजाओं के समय उनका स्थान महायान के अनुयायी भिक्षुओं ने ले लिया जो तांत्रिक थे। 16 वीं शती में मुसलमानों के आक्रमण के साथ ही कुशीनगर का इतिहास अंधकार के गर्त में लुप्त सा हो जाता है। संभवत: 13 वीं शती में मुसलमानों ने यहाँ के सभी विहारों तथा अन्यान्य भवनों को तोड़-फोड़ डाला था। 1876 ई. की खुदाई में यहाँ प्राचीन काल में होने वाले एक भयानक अग्निकाडं के चिह्न मिले हैं, जिससे स्पष्ट है [p.217]: कि मुसलमानों के आक्रमण के समय यहाँ के सब विहारों आदि को भस्म कर दिया गया था। 'तिब्बत का इतिहास' लेखक तारानाथ लिखते हैं कि इस आक्रमण के समय मारे जाने से बचे हुए भिक्षु भाग कर नेपाल, तिब्बत तथा अन्य देशों में चले गए थे। परिवर्ती काल में कुशीनगर के अस्तित्व तक का पता नहीं मिलता।

कुशीनगर से खुदाई में प्राप्त स्तूपों के भग्नावशेष

उत्खनन कार्य: सन 1861 ई. में जब जनरल कनिंघम ने खोज द्वारा इस नगर का पता लगाया तो यहाँ जंगल ही जंगल थे। उस समय इस स्थान का नाम 'माथा कुंवर का कोट' था। कनिंघम ने इसी स्थान को परिनिर्वाण-भूमिसिद्ध किया। उन्होंने 'आनुरुधवा' ग्राम को प्राचीन कुसीनारा और 'रामाधार' को मुकुटबंधन चैत्य बताया।

वर्ष 1876 ई. में ही इस स्थान को स्वच्छ किया गया। पुराने टीलों की खुदाई में महापरिनिर्वाण स्तूप के अवशेष भी प्राप्त हुए। तत्पश्चात् कई गुप्तकालीन विहार तथा मन्दिर भी प्रकाश में लाए गए। कलचुरि नरेशों के समय 12वीं शती का एक विहार भी यहाँ से प्राप्त हुआ था। कुशीनगर का सबसे अधिक प्रसिद्ध स्मारक बुद्ध की विशाल प्रतिमा है, जो शयनावस्था में प्रदर्शित है। (बुद्ध का निर्वाण दाहिनी करवट पर लेटे हुए हुआ था।) इसके ऊपर धातु की चादर जड़ी है। यहीं बुद्ध की साढ़े दस फुट ऊँची दूसरी मूर्ति है, जिसे माथाकुंवर कहते हैं। इसकी चौकी पर एक ब्राह्मी लेख अंकित है। महापरिनिर्वाण स्तूप में से एक ताम्रपट्ट निकला था, जिस पर ब्राह्मी लेख अंकित है- '(परिनि) वार्ण चैत्य पाम्रपट्ट इति'। इस लेख से तथा हरिबल द्वारा प्रतिष्ठापित मूर्ति पर के अभिलेख ('देयधर्मोयं महाविहारे स्नामिनो हरिबलस्य प्रतिमा चेयं घटिता दीनेन माथुरेण) से कसिया का कुशीनगर से अभिज्ञान प्रमाणित होता है।

पहले विंसेंट स्मिथ का मत था कि कुशीनगर नेपाल में अचिरवती (राप्ती) और हिरण्यवती (गंडक ?) के तट पर बसा हुआ था। मजूमदार-शास्त्री कसिया को बेठदीप मानते हैं, जिसका वर्णन बौद्ध साहित्य में है, (दे. एंशेंट ज्याग्रेफ़ी आव इंडिया, पृ. 714) किन्तु अब कसिया का कुशीनगर से अभिज्ञान पूर्णरूपेण सिद्ध हो चुका है।

गोरखपुर परिचय

गोरखपुर भारत में उत्तर प्रदेश प्रान्त के पूर्वी नेपाल के सीमा के पास एक नगर है। गोरखपुर, पूर्वोत्तर रेलवे का मुख्यालय भी है। यहाँ एक दीनदयाल विश्वविद्यालय, अनेक महाविद्यालय, मदन मोहन मालवीय इंजीनियरिंग कॉलेज, बाबा राघव दास मेडिकल कॉलेज तथा सैकड़ों अन्य विद्यालय हैं। गोरखपुर से सटे पूरब में एक बहुत ही सुन्दर वन है जिसका नाम कुसुमी जंगल है। गोरखपुर में भारतीय वायुसेना की छावनी भी है। स्वतन्त्रता के समय यह जनपद बहुत बड़ा था, जिसमें आज के देवरिया, कुशीनगर, महराजगंज आदि भी सम्मिलित थे। ऐतिहासिक रूप से गोरखपुर बहुत प्रसिद्ध है। 20 वीं सदी में, गोरखपुर भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में एक केंद्र बिन्दु था। राम प्रसाद बिस्मिल, बन्धु सिंह व चौरीचौरा आन्दोलन के शहीदों की शहादत स्थली चौरी चौरा नामक ऐतिहासिक स्थल गोरखपुर जनपद में ही है। राप्ती नदी गोरखपुर से होकर बहती है। उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल में गोरखपुर, बाबा गोरखनाथ के नाम से सुविख्यात अनेक पुरातात्विक, अध्यात्मिक, सांस्कृतिक एवं प्राकृतिक धरोहरों को समेटे हुए है। महावीर, करुणावतार गौतम बुद्ध, संत कवि कबीरदास एवं गुरु गोरक्षनाथ ने जनपद के गौरव को राष्ट्रीय व अन्तराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिस्थापित किया। हस्तकला ‘टेराकोटा’ के लिए प्रसिद्ध व आधुनिक गोरखपुर का वर्तमान स्वरूप, मूलभूत सुविधा सम्पन्न, पर्यटकों को आकर्षित करता है।

गोरखपुर का इतिहास: गोरखपुर का नाम एक प्रसिद्ध तपस्वी तप संत गोरक्षनाथ के नाम पर था, प्राचीन समय में गोरखपुर के भौगोलिक क्षेत्र में बस्ती, देवरिया, कुशीनगर, आज़मगढ़ के आधुनिक ज़िले शामिल थे। गोरखपुर, उत्तर प्रदेश राज्य की राप्ती नदी के बाँए किनारे पर बसा हुआ है। हिमालय की तराई में समुद्र की सतह से 150 मीटर की ऊँचाई पर, राप्ती, रोहिणी नदियों के संगम पर स्थित गोरखपुर 'महायोगी गोरक्षनाथ' की पावन कर्मभूमि रही है। भगवान बुद्ध जिनका जन्म लुम्बिनी में व निर्वाण कुशीनगर में हुआ, का यह कर्मक्षेत्र व पथक्षेत्र रहा है। यह वह क्षेत्र है जिसमें संत कबीर, मुंशी प्रेमचन्द्र, फ़िराक़ गोरखपुरी जैसे विश्व प्रसिद्ध संत, लेखक व शायर हुए हैं। सम्पूर्ण विश्व को धार्मिक साहित्य श्रीमद्भागवत गीता का प्रचार प्रसार करने वाली, भारतीय संस्कृति, धर्म, कला एवं दर्शन की गरिमा को सन्निहित करने के प्रयास में कार्यरत, स्व. जय दयाल जी गोयंका के स्वप्न को मूर्त रूप देने हेतु परम पूज्य स्व. हनुमान प्रसाद पोद्दार जी के अथक प्रयास से स्थापित 'गीता प्रेस' भी इसी महानगर की पहचान है। वर्तमान में नगर के पूरब में कुसुम्ही जंगल, पश्चिम में अजवनिया नाला, दक्षिण में राप्ती नदी व रामगढ़ ताल तथा उईन्नार में रोहिणी नदी से निर्मित महेसरा - चिलुआताल चिह्नांकित करता है।

क्रमश: अगले भाग में पढ़िए हल्दवानी, नैनीताल, पंतनगर, कांसरो भ्रमण का विवरण

Author: Laxman Burdak, IFS (R)

Source: Facebook Post of Laxman Burdak, 22.8.2021

हल्दवानी, नैनीताल, पंतनगर, कांसरो भ्रमण: पूर्वीभारत यात्रा भाग-1d

हल्दवानी, नैनीताल, पंतनगर, कांसरो भ्रमण: लेखक द्वारा 'भारतीय वन अनुसंधान संस्थान एवं कालेज देहरादून' में प्रशिक्षण के दौरान किए गए ईस्ट इण्डिया टूर – भाग एक (25.9.1980-15.10.1980) का ही एक अंश है। भ्रमण के दौरान ब्लेक एंड व्हाइट छाया चित्र साथी अधिकारियों या आईएफ़सी के फोटोग्राफर श्री अरोड़ा द्वारा प्राय: लिए जाते थे वही यहाँ दिये गए हैं। इन स्थानों की यात्रा बाद में करने का अवसर नहीं मिला इसलिये केवल कुछ स्थानों के रंगीन छाया-चित्र पूरक रूप में यथा स्थान दिये गए हैं।

5.10.1980: गोरखपुर (9.30 बजे) – लखनऊ (17.30 बजे) दूरी = 345 किमी

सुबह 9.30 बजे नाश्ता करके लखनऊ के लिए रवाना हुए। शाम 5.30 बजे लखनऊ पहुंचे। लखनऊ सेन्ट्रल होटल में रुकने की व्यवस्था थी। परन्तु हमारा ए-सेक्शन पहले से ही वहाँ रुका था इसलिए कुछ लोगों ने गुलमार्ग होटल में प्रबंध किया। आज का पूरा दिन यात्रा में ही बीत गया।

6.10.1980: लखनऊ (6.30 बजे) – संडीला - हरदोई - बरेली (14 बजे) - हल्दवानी (20 बजे), दूरी = 350 किमी

लखनऊ से बहुत जल्दी ही 6.30 बजे हल्दवानी के लिए रवाना हुए क्योंकि आज 350 कि.मी. की दूरी तय करनी थी। बीच में 8 बजे एक छोटे शहर सण्डीला में नाश्ता किया। 2 बजे बरेली पहुंचे। लखनऊ से बरेली के रास्ते में संडीला, हरदोई, शाहजहाँपुर पड़ते हैं। बरेली में एक मारवाड़ी होटल में खाना खाया और फिर डीजल का प्रबंध किया गया जिसमे शाम के 5 बज गए। उल्लेखनीय है कि उस समय विभिन्न स्थानों में डीजल की पर्याप्त पूर्ति नहीं हो रही थी। बरेली से रवाना होकर हल्दवानी हम रात के 8 बजे पहुंचे। बरेली-हल्दवानी की दूरी करीब 100 किमी है। बीच में उधमसिंह नगर जिले का रुद्रपुर शहर पड़ता है जो जिले का मुख्यालय है। लालकुआँ नामक स्थान से थोड़ा पहले हम नैनीताल जिले में प्रवेश करते हैं। हल्दवानी में फोरेस्ट ट्रेनिंग स्कूल में रहने की व्यवस्था थी। यहाँ रुकने का काफी अच्छा प्रबंध था और शहर की गन्दगी से भी यहाँ राहत मिली। आज सुबह से मैं जुकाम से पीड़ित हो गया था सो काफी परेशानी हुई। लखनऊ-हल्द्वानी के रास्ते में पड़ने वाले शहरों संडीला, हरदोई, शाहजहाँपुर, किच्छा, रुद्रपुर, लालकुआँ शहरों का तथा आस-पास के महत्वपूर्ण ऐतिहासिक स्थानों का संक्षिप्त विवरण नीचे दिया गया है।

हरदोई जिले का मानचित्र

सण्डीला (Sandila): उत्तर प्रदेश राज्य के हरदोई ज़िले में स्थित एक नगर है। यह प्रदेश की राजधानी लखनऊ से पश्चिम 50 किमी0 दूर लखनऊ और हरदोई के मध्य में स्थित है। सण्डीला का लड्डू बहुत प्रसिद्ध है। यह बीड़ी उत्पादन और जरदोज़ी के काम के लिए जाना जाता है। यह भूभाग प्राचीन काल में नैमिषारण्य का हिस्सा था और यहीं पर शाण्डिल्य ऋषि ने तपस्या की थी जिनके नाम पर यह सण्डीला कहलाता है। सण्डीला कस्बे के पश्चिम सिरे पर एक विशाल सरोवर के किनारे लगभग 1000 वर्ष पुराना मां शीतला देवी का भव्य मन्दिर है। सण्डीला का प्राचीन इतिहास उपलब्ध नहीं हो पाया है। स्थानीय परंपरा के अनुसार सण्डीला को अरख लोगों ने बसाया था और इसका नाम सीतल पुरवा था। अरख लोगों को 14वीं सदी के उत्तरार्ध में सैयद मखदुम अला-उद-दिन की मुस्लिम सेना ने खदेड़ कर भगा दिया था। कस्बे का नाम खुद के नाम पर मखदुमपुरा कर दिया। अरख लोग कहाँ गए यह स्पष्ट नहीं हो पाया परंतु खोज करने पर अरक, अरख या अर्ख नाम से पंजाब और हरयाणा के जाटों में एक गोत्र मिलता है। H.A. Rose ने इनको मुहम्मदन जाट लिखा है और जींद में पाया जाना बताया है।(ट्राइब्स एड कास्ट्स, II, p.16 ) संभवत: ये पाणिनि द्वारा अष्टाध्यायी (4.2.90) में उल्लेखित अर्क लोग ही थे जो ईरान के Markazi प्रांत के रहने वाले थे क्योंकि इस प्रांत की राजधानी का नाम अरक था।

हरदोई (Hardoi): उत्तर प्रदेश के हरदोई जिले का मुख्यलाय है। हरदोई शहर लखनऊ (उत्तर प्रदेश की राजधानी) से उत्तर-पश्चिम में 110 किमी किमी दूरी पर स्थित है। हरदोई जिले की पूर्वी सीमा गोमती नदी बनाती है। उत्तर-पश्चिम में शाहजहाँपुर से रामगंगा मे मिलने वाली एक छोटी नदी अलग करती है इसके बाद रामगंगा इसकी दक्षिणी सीमा बनाते हुए संग्रामपुर के पास गंगा मे मिल जाती है और इस प्रकार गंगा इसकी पश्चिमी सीमा बनाती है इसके उत्तर में खीरी लखीमपुर है,दक्षिण में लखनऊउन्नाव जिले हैं। हरदोई नामकरण के बारे में दो किंवदंतियाँ प्रचलित हैं: 1. पहली धारणा यह है कि हरदोई नाम पडा है हरि-द्रोही से पडा है - अर्थात जो भगवान से द्रोह करता हो। कहते हैं कि हिरण्यकश्यप की भगवान में आस्था नहीं थी इसलिये उसने अपने नगर का नाम हरि-द्रोही रखवा दिया था। उसके पुत्र ने विद्रोह किया। पुत्र को दण्ड देने के लिये बहिन होलिका अपने भतीजे को ले कर अग्नि में प्रवेश कर गयी। अपवाद घटा। प्रह्लाद का बाल भी बाँका ना हुआ और होलिका जल मरी। कहा जाता है कि जिस कुण्ड में होलिका जली थी, वो आज भी श्रवणदेवी नामक स्थल पर हरदोई में स्थित है। 2. हरदोई नामकरण की दूसरी धारणा है कि हरदोई की उत्पत्ति हरिद्वय से हुई है। जिसका अर्थ दो भगवान होता है। यह दो भगवान वामन भगवान और नरसिम्हा भगवान है जिन्हें हरिद्वय कहा जाता है। जिसके पश्चात् इस जगह का नाम हरदोई पड़ा। हरदोई हरिद्वेई या हरिद्रोही यूं तो हरदोई को हरिद्वेई भी कहा जाता है क्योंकि भगवान ने यहां दो बार अवतार लिया एक बार हिरण्याकश्यप वध करने के लिये नरसिंह भगवान रूप में तथा दूसरी बार भगवान बावन रूप रखकर। परन्तु सबसे अधिक विस्मयकारी तथ्य यह है कि विजयादशमी पर्व पर सम्पूर्ण हरदोई नगर में कहीं भी रावण दहन का कोई कार्यक्रम नहीं होता|

हरदोई का इतिहास: सैय्यद सालार मसूद ने पहला आक्रमण ईस्वी सन 1028 ईस्वी में बावन पर किया था जो हरदोई से 10 किमी पश्चिम में स्थित है। परन्तु इम्पीरियल गजेटियर का मानना है कि 1217 से पहले स्थाई मुस्लिम कब्जा इस क्षेत्र पर नहीं हो पाया था। अवध के गजेटियर के पेज 55 पर बताया गया है कि 1028 ईस्वी में सैयद सालार ने बावन पर कब्जा कर लिया। इसी के आस पास गोपामऊ को भी जीत लिया गया। शेखों के मुताबिक़ 1013 ईस्वी में बिलग्राम को जीत लिया। इसके बावजूद 1217 ईसवी तक नियमित रूप से मुस्लिम नियन्त्रण न हो सका। सैय्य्द शाकिर ने सबसे पहली जीत गोपामऊ पर हासिल की। हुसैनी सैय्य्दों के पूर्वज इराक के वसित शहर से 13 वीं सदी में सुलतान इल्तुतमिश के काल में भारत आए थे। 1217-18 में सैय्यद परिवार ने यहाँ के भर शासकों को हराकर बिलग्राम पर कब्जा किया और यहाँ बस गए। भर शासकों के मूल का विवरण बाराबंकी के विवरण में दिया गया है। 1540 ई. में बिलग्राम युद्ध शेरशाह ने हुमायूँ को बिलग्राम और सांडी के बीच हराया था और वह एक बिस्ती की सहायता से गंगा पार करके बचपाया था.

बड़ा इमामबाड़ा बिलग्राम

बिलग्राम (Bilgram): बिलग्राम (AS, p.630) हरदोई ज़िला, उत्तर प्रदेश का एक क़स्बा है। यह क़स्बा प्राचीन श्रीनगर या भिल्लग्राम नाम के नगर के खंडहरों पर बसा हुआ है। दिल्ली सल्तनत के सुल्तान इल्तुतमिश के समय में बिलग्राम पर मुस्लिमों का अधिकार हो गया था। बिलग्राम में विद्वान् मुस्लिमों की पुरानी पंरपरा रही है। इनमें से कई विद्वानों ने हिन्दी में कविताएँ भी लिखी हैं। पश्चमध्ययुगीन काल में ऐसे ही कवि मीर जलील हुए, जिन्होंने एक बरवैछंद में अपना परिचय लिखते हुए कहा है- 'बिलग्राम कौ वासी मीर जलील, तुम्हरि सरन गहि गाहै हे निधिशील।'... बिलग्राम कस्बा हरदोई से 10 किमी दक्षिण-पश्चिम में स्थित है। बड़ा इमामबाड़ा बिलग्राम और दरगाह अब्बास 300 वर्ष पुराने शिया मुसलमानों के पवित्र दर्शनीय धरोहर हैं। बाबा मनसानाथ मंदिर यहाँ का सबसे पुराना शिव मंदिर है।

गोपामऊ (Gopamau): गोपामऊ (AS, p.300) हरदोई ज़िला, उत्तर प्रदेश में स्थित एक नगर है। इस नगर को 10वीं शती के अंत में राजा गोप ने बसाया था। यहाँ निर्मित गोपीनाथ का वर्तमान मंदिर नौनिधराय ने 1699 ई. में बनवाया था।...गोपामऊ कस्बा हरदोई से 30 किमी उत्तर-पूर्व में सीतापुर के बॉर्डर पर स्थित है।

शाहजहांपुर: शाहजहांपुर, उ.प्र., (AS, p.897): शाहजहाँपुर उत्तर प्रदेश राज्य में लखनऊ से लगभग 160 किलोमीटर पश्चिमोत्तर में बेतवा नदी के किनारे बरेली से दक्षिण-पूर्व में स्थित है। इस नगर को शाहजहाँ के राज्यकाल में बहादुर खाँ और दिलेर खाँ ने 1647 ई. में बसाया था।

उधमसिंहनगर जिले का मानचित्र

किच्छा (Kichha) - किच्छा उत्तराखण्ड राज्य के उधमसिंहनगर जिले में स्थित है। किच्छा उत्तराखण्ड की एक पुरानी तहसील है, जिसकी स्थापना अंग्रेजी शासन काल में हुई थी। सिडकुल की स्थापना के पश्चात इस नगर में विकास बहुत तेजी से हुआ है। उन्नीसवीं सदी के अन्त तक किच्छा से लेकर बनबसा तक थारुओं की बस्ती थीं और इस क्षेत्र को बिलारी कहा जाता था। थारू समुदाय के लोग भगवान शिव को महादेव के रूप में पूजते हैं| थारुओं के कुछ वंशगत उपाधियाँ (सरनेम) हैं: राणा, कथरिया, चौधरी। थारुओं के शारीरिक लक्षण प्रजातीय मिश्रण के द्योतक हैं। इनमें मंगोलीय तत्वों की प्रधानता होते हुए भी अन्य भारतीयों से साम्य के लक्षण पाए जाते हैं। वे तराई के घने जंगल के बीच में रह रहे हैं।कुछ इतिहासकार थारुओं को बुद्ध के वंशज मानते हैं। अंग्रेजों के आगमन के उपरान्त बरेली-काठगोदाम रेल-लाइन और बरेली-नैनीताल सड़क मार्ग के निर्माण के कारण किच्छा एक प्रमुख व्यापारिक स्थान के रुप में उभरने लगा। चीनी मिल व धान मिलें भी इस शहर के आस-पास स्थापित हुई। किच्छा से चारों दिशाओं की ओर राजमार्गों का जाल बिछा है। बरेली-हल्द्वानी रेलमार्ग पर किच्छा महत्वपूर्ण रेल स्टेशन है।

रुद्रपुर : उत्तराखण्ड राज्य में उधम सिंह नगर जनपद का एक नगर है। यह दिल्ली, तथा देहरादून से 250 एवं हल्द्वानी से 29 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। रुद्रपुर उत्तराखण्ड का एक प्रमुख औद्योगिक और शैक्षणिक केंद्र होने के साथ साथ उधम सिंह नगर जनपद का मुख्यालय भी है। रुद्रपुर नगर की स्थापना कुमाऊँ के राजा रुद्र चन्द ने सोलहवीं शताब्दी में की थी, और तब यह तराई क्षेत्र के लाट (अधिकारी) का निवास स्थल हुआ करता था। दक्षिण के मुस्लिम राजाओं द्वारा तराई क्षेत्र में लगातार हो रहे आक्रमणों से निजात पाने के लिए उन्होंने रूद्रपुर में एक सैन्य शिविर की स्थापना की। बाज बहादुर चन्द के राज के समय से तराई क्षेत्र के लाट (अधिकारी) का निवास भी यहाँ ही हो गया। 1744 में चन्दों तथा रुहेलाओं के बीच लड़ी गयी रुद्रपुर की लड़ाई में शिव देव जोशी की अगुवाई में कुमाउँनी सेना को गंभीर हार का सामना करना पड़ा था। इसके कुछ वर्षों बाद राजा दीप चन्द ने रुहेलाओं की गतिविधियों पर नज़र रखने के लिए रुद्रपुर में एक किले का निर्माण किया। अठारहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में, काशीपुर के लाट नंद राम ने रुद्रपुर के अधिकारी मनोरथ जोशी की हत्या कर दी, और काशीपुर में अपनी राजधानी स्थापित कर स्वयं को निचले तराई क्षेत्रों का शासक घोषित कर दिया। 1790 में अल्मोड़ा के पतन के बाद, उसने रुद्रपुर और उसके पूर्व की ओर स्थित क्षेत्रों को अवध के नवाब को सौंप दिया गया, जिनका अधिपत्य इन क्षेत्रों पर 1801 में अंग्रेजों के कब्जे तक रहा।

नैनीताल जिले का मानचित्र

लालकुआँ (Lalkuan) - लालकुआँ भारत के उत्तराखण्ड राज्य के नैनीताल ज़िले में हल्द्वानी महानगर से सटा दक्षिण में स्थित एक नगर है। यह राष्ट्रीय राजमार्ग 109 पर हल्द्वानी से 16 किलोमीटर तथा बरेली से 80 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यह कुमाऊँ मण्डल के अंतर्गत आता है। लालकुआँ बिड़ला समूह की एक बड़ी पेपर मिल (सेंचुरी पल्प एंड पेपर) के लिए प्रसिद्ध है। जहां अब लालकुआँ नगर है, वह क्षेत्र पहले घना जंगल था। वर्ष 1927 में जंगल को काटकर लोगों ने बसना शुरू किया।

7.10.1980: हल्दवानी

उत्तराखंड फोरेस्ट्री ट्रेनिंग अकादमी, हल्दवानी

हल्दवानी हम 6.10.1980 को रात के 8 बजे पहुंच गए थे। यहाँ शीशम बाग क्षेत्र में स्थित फोरेस्ट ट्रेनिंग स्कूल हल्दवानी में रहने की व्यवस्था थी। वर्तमान में यह संस्था उत्तराखंड फोरेस्ट्री ट्रेनिंग अकादमी (Uttarakhand Forestry Training Academy) नाम से जानी जाती है। इस प्रशिक्षण संस्था में वर्ष 1978 से वन विभाग के रेंज अफसर, वनपाल और वन रक्षक स्तर के फील्ड स्टाफ की ट्रैनिंग दी जाती है। यहाँ रुकने का काफी अच्छा प्रबंध था। शहर की गन्दगी और भीड़भाड़ से दूर राहतभरा विश्राम था। यद्यपि कल सुबह से जुकाम से पीड़ित होने से काफी परेशानी हो रही थी।

सुबह 9 बजे वनमंडल अधिकारी हल्दवानी से मिलने गए। उन्होने हल्द्वानी वन मंडल और तराई सेंट्रल फोरेस्ट डिवीजन की कार्य आयोजनाओं के बारे में समझाया। वनमंडल अधिकारी हल्दवानी का व्यक्तित्व काफी प्रभावशाली था और स्मृद्धि उनके व्यक्तित्व में झलकती थी। कुछ हमारे साथी चर्चा कर रहे थे कि वनमंडल अधिकारी हल्दवानी उत्तर प्रदेश के सबसे प्रभावशाली अधिकारियों में से हैं। वनमंडल अधिकारी हल्दवानी से मिलने के बाद हमने लखनमण्डी के लिए प्रस्थान किया।

लखनमण्डी (Lakhanmandi): लखनमण्डी में पौधशाला देखने गए। इसमें अनेक वृक्ष प्रजातियों के बीज बोये गए हैं परंतु मुख्य प्रजाति सागौन (Teak) है। उसके बाद सुमन थापला साल रीजनरेशन देखा। 1960 के प्लाट में रीजनरेशन नहीं हुआ था। बाकी में रीजनरेशन ठीक था। इस फोरेस्ट में हाथी और शेर भी पाये जाते हैं। हाथी फोरेस्ट को बहुत नुकशान पहुंचाते हैं। लखनमण्डी में ही भोला का टाोंगिया प्लांटेशन देखा जो 1936 में लगाया गया था। कुल 75 एकड़ साल वनों में क्लियर फेलिंग की गई। इस क्षेत्र में से 15 एकड़ पर प्राकृतिक पुनरुत्पादन किया गया। 9 एकड़ पर बस्तीवालों से टाोंगिया प्लांटेशन कराया गया और शेष पर वन विभाग द्वारा टाोंगिया प्लांटेशन किया गया। बस्ती के लोगों ने साल की पंक्तियों के बीच उड़द और चावल बोया जबकि वन विभाग द्वारा साल वृक्षों की पंक्तियों के बीच हल्दी बोयी गई। साल की पंक्तियों के बीच की दूरी 15 फीट रखी गई थी। यह वृक्षारोपण काफी सफल था। 1938 के बाद वहाँ पर टांगिया प्लांटेशन बंद कर दिया गया था क्योंकि उस समय यहाँ बाढ़ आने से एक संक्रामक बीमारी फ़ैल गयी थी जिसके कारण सभी लोग यहाँ से चले गए थे और यह प्रेक्टिस बंद हो गयी।

दोपहर बाद हल्द्वानी वन मंडल की कार्य आयोजना का अध्ययन किया।

नैनीताल भ्रमण

8.10.1980: हल्दवानी (8 बजे) – नैनीताल (15 बजे) – हल्दवानी (21.15 बजे)

हल्दवानी से सुबह 8 बजे ही रवाना होकर नैनीताल के लिए जाना था। हल्दवानी से नैनीताल की सीधी दूरी तो लगभग 45 किमी है परंतु रास्ते में कई जगह देखने के प्रोग्राम थे। पहला प्रोग्राम था काठगोदाम के सुल्तानपुर रेजिन डिपो का निरीक्षण।

काठगोदाम के प्रभारी रेंज अफसर ने बताया कि फोरेस्ट से रेजिन डिब्बों में भरकर यहाँ आता है और यहाँ से इंडियन टरपेंटाइन एंड रोजीन फ़ैक्ट्री बरेली (Indian Turpentine and Rosin Factory) को भेजा जाता है। स्थानीय भाषा में रेजिन को लीसा बोला जाता है। यह डिपो मुख्य रूप से चीड़वृक्षों से रेजिन उत्पादन के लिए है जो कुमायूं वन वृत्त से प्राप्त होता है। रेजिन का संग्रह पूर्वी और पश्चिमी अल्मोड़ा वन मंडल, नैनीताल वन मंडल और बद्रीनाथ-केदारनाथ के वनों से से किया जाता है। यहां से रेजिन इंडियन टरपेंटाइन एंड रोजीन फ़ैक्ट्री बरेली को भेजा जाता है। इस फैक्ट्री के प्रबंध संचालक श्री बी.पी. सिंह आई.एफ.एस. हैं। वर्ष 1979 में रेजिन डिपो में 375000 टिन रेजिन प्राप्त हुआ था जिसका वजन लगभग 75000 क्विंटल होता है। इसमें से 62000 क्विंटल आईटीआर बरेली को भेजा गया था और शेष का नीलाम किया गया।

चित्रशिला घाट रानीबाग

रानीबाग (Ranibagh) : काठगोदाम देखने के बाद नैनीताल की तरफ रवाना हुए और थोड़ी दूर चलने पर रानीबाग नर्सरी देखी। रानीबाग हल्द्वानी नगर का एक आवासीय क्षेत्र और वार्ड है, जो नगर के केंद्र से 8 किमी उत्तर में राष्ट्रीय राजमार्ग 109 पर स्थित है। यह क्षेत्र हल्द्वानी नगर निगम की उत्तरी सीमा बनाता है। कहते हैं यहाँ पर पुष्पभद्रा नदी के घाट पर मार्कण्डेय ॠषि ने तपस्या की थी। पुष्पभद्रा का उल्लेख हिन्दू पौराणिक ग्रंथ भागवत में हुआ है। इसे पुष्पवहा भी कहते हैं। रानीबाग के समीप ही पुष्पभद्रा का एक अन्य छोटी नदी के साथ संगम होता है। इस संगम के बाद ही यह नदी गौला नदी के नाम से जानी जाती है। गौला नदी के दाहिने तट पर चित्रेश्वर महादेव का मन्दिर है। रानीबाग से पहले इस स्थान का नाम चित्रशिला था।

खैरागढ़ के कत्यूरी राजा पृथ्वीपाल (1380-1400) की पत्नी का नाम रानी जिया था। पृथ्वीपाल को पिथौरा शाही या प्रीतम देव भी लिखा गया है। पृथ्वीपाल की महारानी जिया का नाम प्यौला या पिंगला भी बताया जाता है। कथनानुसार वह धामदेव ब्रह्मदेव (1400-1424) की माँ थी और प्रख्यात लोककथा नायक मालूशाही (1424-1440) की दादी। कहते हैं जिया मालव देश के राजा की पुत्री थी।

सन 1418 में दिल्ली के सैयद (सुल्तान) की सेना कटेहर के हरी सिंह का पीछा करते हुए तराई-भाबर तक आ पहुंची थी। जिया रानी ने हरि सिंह को अपने राज्य में शरण दी थी और सारी सेना को तराई से मार भगा कर कटेहर पर पुनः अधिकार करने में उसकी सहायता की थी। यह युद्ध भाबर में हल्द्वानी-काठगोदाम क्षेत्र में लड़ा गया था। भीषण युद्ध के बीच सेना जिया रानी को रानी बाग (काठगोदाम) से पकड़ कर ले गई। हंसा कुँवर ने रानी को कैद से छुड़ाया। वह कुछ दिन गुप्त स्थान में छुपी रही। बाद में उसकी मृत्यु हो गई। इस वीरांगना की स्मृति में चित्रशिला घाट रानीबाग में उस युग की बनी रानी की समाधि आज भी कत्यूरी युग की याद ताजा कराती है। चित्रशिला घाट रानीबाग का एक पवित्र धार्मिक स्थल है।

कत्यूर कौन थे: इतिहासकार मानते हैं कि 7वीं सदी के उत्तरार्ध में उत्तराखंड में कत्यूरी राज स्थापित हुआ। कहा जाता है कि कत्यूर काबुल के कछोर वंशी थे। अंग्रेज पावेल प्राइस कत्यूरों को कुविंद मानता है। कार्तिकेय पर राजधानी होने के कारण वे कत्यूर कहलाए। कुछ इतिहासकार कत्यूरों व शकों को कुषाणों के वंशज मानते हैं। बागेश्वर बैजनाथ की घाटी को भी वे कत्यूर-घाटी मानते हैं। कुछ इतिहासकार कत्युरों की उत्पत्ति कुणिन्द से मानते हैं क्योंकि कुणिन्द शासकों के सिक्के इस क्षेत्र में मिले हैं। राहुल सांकृत्यायन के अनुसार ये शकों के वंशज हैं, जो ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी में भारत में थे। इन शकों को वह खश के रूप में पहचानते हैं।

रानीबाग से दो किलोमीटर जाने पर एक दोराहा है। दायीं ओर मुड़ने वाली सड़क भीमताल को जाती है। जब तक मोटर - मार्ग नहीं बना था, रानीबाग से भीमताल होकर अल्मोड़ा के लिए यही पैदल रास्ता था। वायीं ओर का राश्ता ज्योलीकोट की ओर मुड़ जाता है। ये दोनों रास्ते भुवाली (Bhowali) में जाकर मिल जाते हैं। रानीबाग से सात किलोमीटर की दूरी पर 'दोगाँव' नामक एक ऐसा स्थान है जहाँ पर सैलानी ठण्डा पानी पसन्द करते हैं। यहाँ पर पहाड़ी फलों का ढेर लगा रहता है। पर्वतीय अंचल की पहली बयार का आनन्द यहीं से मिलना शुरु हो जाता है।

रानीबाग से आगे कुछ ही दूर पर वनमंडल अधिकारी भू-संरक्षण श्री रावत भी पीछे से जीप लेकर आ गए। थोड़ा और आगे चलने पर कंजरवेटर श्री जोशी भी पहुँच गए। उन्होंने समझाया कि यहाँ किस तरह से भू-क्षरण को रोका जाता है। इन उपायों के साथ-साथ पेड़ भी लगाये जा रहे हैं। लैंटाना कैमरा की झाड़ियों को पट्टियों में काटकर उसकी जगह पेड़ लगाये जा रहे हैं। थोड़ा आगे भवाली का पॉप्लर प्लांटेशन (Bhowali Poplar Plantation) देखा। यह तराई सेंट्रल डिवीजन में है। बताया गया कि प्रतिवर्ष 300 हेक्टर में पॉप्लर के पेड़ लगाये जा रहे हैं। भीमताल में पॉप्लर नर्सरी का निरीक्षण किया। चंदादेवी (Chandadevi) में सागौन का वृक्षारोपण देखा। बताया गया कि कुछ क्षेत्रों में यूकेलिप्टस में क्लोरोसिस की बीमारी लग रही है। ऐसे क्षेत्रों में यूकेलिप्टस की जगह सागौन का वृक्षारोपण किया जा रहा है। करीब दो बजे हम भवाली फोरेस्ट रेस्ट हाउस पहुंचे। वहाँ चाय-पार्टी का आयोजन किया गया था। कुछ ही देर में वहाँ रेजिन टेपिंग की विधि देखने के बाद रवाना होकर 3 बजे नैनीताल पहुंचे।

नैनीताल झील, 8.10.1980

नैनीताल: नैनीताल हिल स्टेशन है। यहाँ हमें काफी शर्दी लगने लग गयी थी। इसलिए स्वेटर पहनना पड़ा। यहाँ की ऊंचाई समुद्र तल से 1750 मीटर है। नैनीताल चारों तरफ पहाड़ियों की ढलान पर बसा हुआ है। झील में बोटिंग की सुविधा है परन्तु हमने बोटिंग में समय खोने की बजाय घूमना ही उचित समझा। झील के चारों तरफ बनी सड़क पर एक चक्कर लगाया और वहाँ का नजारा देखा। यहाँ की माल-रोड यही जानी जाती है। बाजार भी देखे जो इतने आकर्षक नहीं थे। झील की वजह से ही इसका आकर्षण बहुत बढ़ जाता है। जब अँधेरा हो गया तो बिजली की परावर्ती रोशनी सुंदरता में चार चाँद लगा रही थी। सभी कुछ देखने में कोई ज्यादा समय नहीं लगा। हम सबके वापस लौटने का समय शाम 7 बजे फिक्स किया गया था। हमारे आफिसर इंचार्ज श्री संगल बैच की लेडी अधिकारियों के साथ किसी से मिलने गए थे सम्भवतः कंजरवेटर से परन्तु वे लेट हो गए और 7.30 पर वापस आये। इसके पहले श्री संगल लेडी अधिकारियों के साथ काफी समय से बोटिंग कर रहे थे जिनको सभी प्रोबेशनर देख रहे थे और सभी को कुछ-कुछ अच्छा नहीं लग रहा था। इसलिए सभी आक्रोशित हो गए और एक बार तो करीब 7.10 पर यह निश्चय किया गया था कि उनको छोड़कर सभी लोग चलें। जब वे साढ़े सात बजे आये तो उनके साथ वनमंडल अधिकारी श्री रावत भी थे। उन्हीं के सामने लोगों ने कहा कि आप समय की पाबन्दी पर हमें तो बहुत भाषण देते हैं पर आप हमेशा लेट आते हैं। इस घटना के पहले भी वे कई बार लंच के लिए टाइम देकर खुद ही लेट आये थे। हमारे यह कहने पर वह बहुत गुस्सा कर गए। हम तो सब वहीँ उपस्थित थे परन्तु यों ही बोल दिया था कि कुछ लोग वापस चले गए हैं जो थोड़े समय में लौटकर आयेंगे। इस तरह से हमने आधा घंटा और लेट कर दिया। 8 बजे नैनीताल से रवाना होकर 9.15 पर हल्दवानी पहुंचे। नैनीताल का विस्तृत विवरण और इतिहास आगे दिया गया है।

नैनीताल परिचय
नैनी झील नैनीताल का दृश्य

नैनीताल भारत के उत्तरी राज्य उत्तराखंड का एक प्रमुख पर्यटन नगर है। झीलों का शहर नैनीताल उत्तराखंड का प्रसिद्ध पर्यटन स्‍थल है। बर्फ़ से ढके पहाड़ों के बीच बसा यह स्‍थान झीलों से घिरा हुआ है। इनमें से सबसे प्रमुख झील नैनी झील है जिसके नाम पर इस जगह का नाम नैनीताल पड़ा। इसलिए इसे 'झीलों का शहर' भी कहा जाता है। यह नगर एक सुंदर झील के आस-पास बसा हुआ है और इसके चारों ओर वनाच्छादित पहाड़ हैं। नैनीताल के उत्तर में अल्मोड़ा, पूर्व में चम्पावत, दक्षिण में ऊधमसिंह नगर और पश्चिम में पौड़ी एवं उत्तर प्रदेश की सीमाएँ मिलती हैं। जनपद के उत्तरी भाग में हिमालय क्षेत्र तथा दक्षिण में मैदानी भाग हैं जहाँ साल भर आनंददायक मौसम रहता है।

नैनीताल को पी. बेरून (P. Barron) नामक यूरोपियन व्‍यक्ति, जो शाहजहाँपुर का शक्कर-व्यापारी था, द्वारा वर्ष 1841 में स्थापित किया गया था। नैनीताल अंग्रेज़ों का ग्रीष्‍मकालीन मुख्‍यालय था। 1847 में नैनीताल मशहूर हिल स्टेशन बना, अंग्रेज़ इसे 'समर कैपिटल' भी कहते थे। तब से लेकर आज तक यह अपना आकर्षण बरकरार रखे हुए है। औपनिवेशिक काल में नैनीताल शिक्षा का भी बड़ा केंद्र बनकर उभरा। अपने बच्चों को बेहतर माहौल में पढ़ाने के लिए अंग्रेज़ों को यह जगह काफ़ी पसंद आई थी। उन्होंने अपने मनोरंजन के लिए भी व्यापक इंतज़ाम किए थे। पहाड़ियों से घिरी नैनी झील और इसके आस-पास की तमाम झीलें आकर्षण का केन्द्र बन गयी थीं और प्रत्येक यूरोपियन नागरिक यहाँ बसने की लालसा लेकर आने लगे। बाद में ब्रिटिश-भारतीय सरकार ने नैनीताल को यूनाइटेड प्रोविन्सेज की गर्मियों की राजधानी घोषित कर दिया और इसी दौरान यहाँ तमाम यूरोपीय शैली की इमारतों का निर्माण हुआ। गवर्नर हाऊस और सेन्ट जॉन चर्च इस निर्माण कला के अद्भुत उदाहरण है।

नैनीताल के दर्शनीय स्थल
नैना देवी मंदिर नैनीताल

नैना देवी मंदिर नैनीताल: नैना देवी मंदिर नैनीताल का महत्वपूर्ण धार्मिक स्थल है। इसकी स्थापना के पीछे एक पौराणिक कथा प्रचलित है जिसके अनुसार दक्ष प्रजापति की पुत्री उमा का विवाह शिव से हुआ था। एक बार दक्ष प्रजापति ने सभी देवताओं को अपने यहाँ यज्ञ में बुलाया, परन्तु अपने दामाद शिव और बेटी उमा को निमन्त्रण तक नहीं दिया। उमा हठ कर इस यज्ञ में पहुँची। जब उसने हरिद्वार स्थित कनखल में अपने पिता के यज्ञ में सभी देवताओं का सम्मान और अपने पति और अपना निरादर होते हुए देखा तो वह अत्यन्त दु:खी हो गयी। यज्ञ के हवनकुण्ड में यह कहते हुए कूद पड़ी कि 'मैं अगले जन्म में भी शिव को ही अपना पति बनाऊँगी। आपने मेरा और मेरे पति का जो निरादर किया इसके प्रतिफल-स्वरूप यज्ञ के हवनकुण्ड में स्वयं जलकर आपके यज्ञ को असफल करती हूँ।' जब शिव को यह ज्ञात हुआ कि उमा सती हो गयी, तो उन्हें बहुत क्रोध आया। उन्होंने अपने गण वीरभद्र के द्वारा दक्ष प्रजापति के यज्ञ को नष्ट-भ्रष्ट कर डाला। सभी देवी-देवता शिव के इस रौद्र-रूप को देखकर सोच में पड़ गए कि शिव प्रलय न कर डालें। इसलिए ब्रह्मा और विष्णु ने महादेव शिव से प्रार्थना की और उनके क्रोध को शान्त किया। दक्ष प्रजापति ने भी क्षमा माँगी। शिव ने उनको भी आशीर्वाद दिया। परन्तु, सती के जले हुए शरीर को देखकर उनका वैराग्य उमड़ पड़ा। उन्होंने सती के जले हुए शरीर को कन्धे पर डालकर आकाश भ्रमण करना शुरू कर दिया। ऐसी स्थिति में जहाँ-जहाँ पर शरीर के अंग गिरे, वहाँ-वहाँ पर शक्तिपीठ हो गए। जहाँ पर सती के नयन गिरे थे; वहीं पर नैनादेवी के रूप में उमा अर्थात् नन्दा देवी का भव्य स्थान हो गया। आज का नैनीताल वही स्थान है, जहाँ पर उस देवी के नैन गिरे थे। तबसे निरन्तर यहाँ पर शिव पत्नी नन्दा (पार्वती) की पूजा नैनादेवी के रूप में होती है।

नैनीताल के पौराणिक संदर्भ: पौराणिक इतिहासकारों के अनुसार मानसखंड के अध्याय 40 से 51 तक नैनीताल क्षेत्र के पुण्य स्थलों, नदी, नालों और पर्वत श्रृंखलाओं का 219 श्लोकों में वर्णन मिलता है। मानसखंड में नैनीताल और कोटाबाग़ के बीच के पर्वत को शेषगिरि पर्वत कहा गया है, जिसके एक छोर पर सीतावनी स्थित है। कहा जाता है कि सीतावनी में भगवान राम व सीता ने कुछ समय बिताया है। जनश्रुति है कि सीता सीतावनी में ही अपने पुत्रों लव व कुश के साथ राम द्वारा वनवास दिये जाने के दिनों में रही थीं। सीतावनी के आगे देवकी नदी बताई गई है, जिसे वर्तमान में दाबका नदी कहा जाता है। महाभारत वन पर्व में इसे आपगा नदी कहा गया है। आगे बताया गया है कि गर्गांचल (वर्तमान गागर) पर्वतमाला के आसपास 66 ताल थे। इन्हीं में से एक त्रिऋषि सरोवर (वर्तमान नैनीताल) कहा जाता था, जिसे भद्रवट (चित्रशिला घाट-रानीबाग़) से कैलाश मानसरोवर की ओर जाते समय चढ़ाई चढ़ने में थके अत्रि, पुलह व पुलस्त्य नाम के तीन ऋषियों ने मानसरोवर का ध्यान कर उत्पन्न किया था। इस सरोवर में महेंद्र परमेश्वरी (नैना देवी) का वास था। सरोवर के बगल में सुभद्रा नाला (बलिया नाला) बताया गया है। इसी तरह भीमताल के पास के नाले को पुष्पभद्रा नाला कहा गया है, दोनों नाले भद्रवट यानी रानीबाग़ में मिलते थे। कहा गया है कि सुतपा ऋषि के अनुग्रह पर त्रिदेव यानी ब्रह्मा, विष्णु व महेश चित्रशिला पर आकर बैठ गये और प्रसन्नतापूर्वक ऋषि को विमान में बैठाकर स्वर्ग ले गये। गौला को गार्गी नदी कहा गया है। भीम सरोवर (भीमताल) महाबली भीम के गदा के प्रहार तथा उनके द्वारा अंजलि से भरे गंगा जल से उत्पन्न हुआ था। पास की कोसी नदी को कौशिकी, नौकुचिया ताल को नवकोण सरोवर, गरुड़ताल को सिद्ध सरोवर व नल सरोवर आदि का भी उल्लेख है। क्षेत्र का छखाता या शष्ठिखाता भी कहा जाता था, जिसका अर्थ है, यहां 60 ताल थे।

तल्ली एवं मल्ली ताल: नैनीताल के ताल के दोनों ओर सड़के हैं। ताल का मल्ला भाग मल्लीताल और नीचला भाग तल्लीताल कहलाता है। मल्लीताल में फ्लैट का खुला मैदान है। मल्लीताल के फ्लैट पर शाम होते ही मैदानी क्षेत्रों से आए हुए सैलानी एकत्र हो जाते हैं। यहाँ नित नये खेल-तमाशे होते रहते हैं। संध्या के समय जब सारी नैनीताल नगरीय बिजली के प्रकाश में जगमगाने लगती है तो नैनीताल के ताल के देखने में ऐसा लगता है कि मानो सारी नगरी इसी ताल में डूब सी गयी है। संध्या समय तल्लीताल से मल्लीताल को आने वाले सैलानियों का तांता सा लग जाता है। इसी तरह मल्लीताल से तल्लीताल (माल रोड) जाने वाले प्रकृतिप्रेमियों का काफिला देखने योग्य होता है।

त्रिॠषि सरोवर: त्रिऋषि सरोवर (AS, p.413) का उल्लेख स्कन्द पुराण में हुआ है। आधुनिक नैनीताल की नैनी झील को ही ऋषि अत्रि, पुलह और पुलस्त्य के नाम पर ही 'त्रिऋषि सरोवर' कहा गया है। पौराणिक किंवदंती के अनुसार इन ऋषियों ने इस झील के तट पर प्राचीन काल में तप किया था।

भीमेश्वर महादेव मन्दिर, भीमताल

भीमताल: भीमताल भारत के उत्तराखण्ड राज्य के नैनीताल ज़िले में स्थित एक नगर है। नगर का नाम भीमताल झील के ऊपर पड़ा है, जो नगर के मध्य में स्थित है। 'भीमाकार' होने के कारण शायद इस ताल को भीमताल कहते हैं। परन्तु कुछ विद्वान इस ताल का सम्बन्ध पाण्डु-पुत्र भीम से जोड़ते हैं। काठगोदाम से 10 किमी उत्तर और नैनीताल से 22 किमी पूर्व नैनीताल जिले में स्थित यह झील कुमाऊं क्षेत्र का सबसे बड़ा झील है। त्रिभुज के आकार का यह ताल तीन तरफ से पर्वतों से घिरा है। इसमें पर्यटकों हेतु नौकाविहर की सुविधा है। इसमें जल का रंग गहरा नीला है। यह कमल और कमल कड़ी के लिए प्रसिद्ध है। इस झील के बीच में टापू है, जिस पर रेस्टोरेंट है। इस झील से सिंचाई हेतु छोटी-छोटी नहरें निकाली गई है। भीमताल नैनीताल और हल्द्वानी से भी पुराना है। ऐसा माना जाता है कि यह स्थान प्राचीन सिल्क मार्ग पर पड़ता था जो नेपाल और तिब्बत को जोड़ता था।

भीमेश्वर महादेव मन्दिर: भीमेश्वर महादेव मंदिर नैनीताल से 22 किमी की दूरी पर भीमताल झील के तट पर बसा हुआ एक प्राचीन मंदिर है| माना जाता है कि अज्ञातवास के समय पांडव इस क्षेत्र में आये थे, तथा भीमताल के किनारे भीम ने भगवान शिव की तपस्या की थी। तेरहवीं शताब्दी में यह क्षेत्र कुमाऊँ राज्य के अंतर्गत आया, और सत्रहवीं शताब्दी में यहां अल्मोड़ा के राजा बाज़ बहादुर चन्द ने भीमेश्वर महादेव मन्दिर की स्थापना की थी। चन्द काल में यह छखाता परगना का मुख्यालय हुआ करता था।

कर्कोटक नाग के नाम से नैनीताल जिले के भीमताल में एक पहाड़ी है जिस पर एक नाग मंदिर बना हुआ है। कर्कोटक शिव के एक गण और नागों के राजा थे। हजारों लोग ऋषि पंचमी के दिन यहाँ पूजा करने के लिए आते हैं। यह उत्तराखंड का प्रसिद्ध नाग मंदिर हैं। कर्कोटक (AS, p.142) का उल्लेख कर्ण पर्व महाभारत (44, 43) में किया गया है- 'कारस्करान् माहिष्कान् कुरंडान् केरलांस्तथा कर्कोटकान् वीरकांश्च दुर्धर्मांश्च विवर्यजेत्।' कारस्कर, माहिषक, कुरंड, केरल, कर्कोटक और वीरक ये ब्राह्मण धर्म को मानने वाले नहीं हैं। कर्कोटक नामक नाग जाति का उल्लेख महाभारत की नल दमयंती की कथा में है। कश्मीर में कर्कोटक वंश के राज्य के विषय में हमें कल्हण की 'राजतरंगिणी' से जानकारी मिलती है। 7वीं शताब्दी में दुर्लभ वर्धन ने कश्मीर में कोर्कोटक वंश की स्थापना की। ह्वेनसांग के विवरण के आधार पर कहा जाता है कि उसके राज्य की सीमा के अन्तर्गत तक्षशिला, सिंहपुर, उरशा, पुंछ एवं राजस्थान शामिल थे। कोर्कोटक वंश के वंशज वर्तमान में कहाँ हैं इसका कोई उल्लेख विस्तार से नहीं मिलता परंतु ठाकुर देशराज (p.614) कुछ प्रकाश डाला है कि यह यादव-वंशी समुदाय अब राजस्थान और दिल्ली में कटेवा नाम से मशहूर है।

जिम कॉर्बेट राष्ट्रीय उद्यान : कुमाऊँ के नैनीताल जनपद में यह गौरवशाली राष्ट्रीय उद्यान विस्तार लिए हुए है। यह रामगंगा की पातलीदून घाटी में 525.8 वर्ग किलोमीटर में बसा हुआ है। दिल्ली से मुरादाबाद - काशीपुर - रामनगर होते हुए कार्बेट नेशनल पार्क की दूरी 290 किमी है। कार्बेट नेशनल पार्क में पर्यटकों के भ्रमण का समय नवंबर से मई तक होता है। इस मौसम में कई ट्रैवल एजेन्सियाँ कार्बेट नेशनल पार्क में पर्यटकों को घुमाने का प्रबन्ध करती हैं। कुमाऊँ विकास निगम भी प्रति शुक्रवार को दिल्ली से कार्बेट राष्ट्रीय उद्यान तक पर्यटकों को ले जाने के लिए संचालित भ्रमणों (कंडकटेड टूर्स) का आयोजन करता है। कुमाऊँ विकास निगम की बसों में अनुभवी मार्गदर्शक होते हैं जो पशुओं की जानकारी, उनकी आदतों को बताते हुए बातें करते रहते हैं। यहाँ पर शेर, हाथी, भालू, बाघ, सुअर, हिरण, चीतल, साँभर, पाण्डा, काकड़, नीलगाय, घुरल और चीता आदि 'वन्य प्राणी' अधिक संख्या में मिलते हैं। इसी प्रकार इस वन में अजगर तथा कई प्रकार के साँप भी निवास करते हैं।

नैनीताल का इतिहास

नैनीताल (AS, p.508-9): स्कंद पुराण में नैनीताल का नाम त्रिऋषिसरोवर मिलता है जिसका अत्रि, पुलह और पुलस्त्य ऋषियों से संबंध बताया गया है. इस पौराणिक किंवदंती के अनुसार इन ऋषियों ने यहां सरोवर के तट पर तप किया था. नैनीताल का नाम इसी सरोवर या नैनी झील के तट पर स्थित नैना देवी के प्राचीन मंदिर के कारण हुआ है. 1841 ई. में दो अंग्रेज शिकारियों ने इस स्थान की खोज की थी. प्रकृति की यह मनोरम स्थली गागर की पहाड़ियों से घिरी है जो पूर्व से पश्चिम की ओर फैली हुई हैं. उत्तर की ओर चीना-शिखर (ऊंचाई समुद्र तल से 8568 फुट), पूर्व की ओर आलमा तथा शेर का दंदा नामक शिखर, पश्चिम में एक ढलवां 8000 फुट ऊंची पहाड़ी और दक्षिण में आयारपथ नामक 7800 फुट ऊंचा गिरीशृंग--ये पहाड़ियां नैनीताल की चतुर्दिक सीमा की प्रहरी हैं. स्कंद पुराण की उपर्युक्त कथा के अनुसार तीनों देवऋषि घूमते हुए यहां पहुंचे थे किंतु उन्हें इस स्थान पर बसने में, पानी न होने के कारण कठिनाई जान पड़ी. अतः उन्होंने वहां एक बड़ा सरोवर खुदवाया जो फौरन ही जल पूर्ण हो गया. इस कथा से यह सूचित होता है कि संभवत: नैनीताल की झील कृत्रिम रूप से बनाई गई थी. इस कथा से [p.509] यह भी ज्ञात होता है कि नैनीताल के स्थान का प्राचीन काल से ही भारतीयों को पता था. सरोवर के किनारे ही नैना देवी का प्राचीन मंदिर था, जो संभवत: इस क्षेत्र के पहाड़ी जाति के लोगों की अधिष्ठात्री देवी थी. उत्तरी भारत के मूल निवासियों की तरह नैनीताल के मूलनिवासी भी देवी के पुजारी थे. नैना देवी कल्याण रूपा देवी मानी जाती है इसके विपरीत यहां के लोक-विश्वास के अनुसार नैनीताल की दूसरी देवी चंडी अथवा पाषाण देवी का रूप अमांगलिक समझा जाता है. नैनीताल की झील में प्रतिवर्ष होने वाली घटनाओं का कारण इस देवी का प्रकोप माना जाता है

पंतनगर भ्रमण

9.10.1980: हल्दवानीपंतनगर

उधम सिंह नगर जिले का मानचित्र

सुबह जल्दी ही यहाँ के ए.सी.एफ. श्री श्रीवास्तव हमारे साथ हो लिए थे। नैनीताल शहर को जलाऊ लकड़ी की पूर्ति किस तरह की जाती है इसका आध्ययन किया।

नैनीताल के रास्ते पर पड़ने वाली रेलवे क्रॉसिंग टांडा नर्सरी देखी। इसमें पॉप्लर के चार क्लोन लगाये गए थे। ये सभी 9 महीने के थे और इनकी औसत ऊंचाई करीब 4 मीटर थी। यहाँ से लेजाकर ये पौधे फील्ड में लगाये जाते हैं। अंतराल रखा जाता है 5 मी x 5 मी। मुंशीलैंड फील्ड में ये लगाये गए थे। इनके बीच में खेती भी की जा सकती है। प्रति हेक्टर 400 पौधे लगाये जाते हैं जिसमें फोरमेशन खर्च रु. 2000 प्रति हेक्टर और स्थापना खर्च रु. 400 प्रति हेक्टर है। यह देखने के बाद डॉ चंद्रा से मिले जो आए.एफ.एस. से इस्तीफा देकर अब कृषि भूमि में पॉप्लर विस्तार कार्य में लगे हुए हैं। यहीं एक पाताळ तोड़ कुंआ भी हमने देखा।


लाल कुआं - लाल कुआं में सेन्ट्रल तराई फोरेस्ट डिवीजन के अंतर्गत सेंट्रल ट्रेक्टर वर्कशॉप देखी जहाँ ट्रेक्टर की समय-समय पर ओवर हालिंग तथा मरम्मत भी की जाती है। यह कुमायूं क्षेत्र के सभी वन मंडलों के लिए है। ट्रेक्टर के अलावा विभागीय जीप और ट्रक भी यहीं मरम्मत किए जाते हैं। सभी तरह की जीप, ट्रेक्टर और ट्रक के स्पेयर पार्ट भी यहीं से उपलब्ध कराये जाते हैं। सेंट्रल ट्रेक्टर वर्कशॉप का संचालन खर्च प्रतिवर्ष रु. 25 लाख है।

डॉ चंद्रा को लेकर हम पंतनगर विश्वविद्यालय गए और जल्दी-जल्दी में देखा कि वहाँ क्या-क्या हो रहा है। पंतनगर विश्वविद्यालय 16 हजार एकड़ में बसा हुआ है जिसमें 13 हजार एकड़ पर कृषि अनुसन्धान का कार्य हो रहा है।

लंच के बाद सिर्फ एक ही प्रोग्राम था और वह था हल्दवानी चीड़ डिपो जहाँ पर फोरेस्ट से स्लीपर आते हैं। यह फोरेस्ट कारपरेशन का है।

पंतनगर का परिचय

पंतनगर भारत के उत्तराखण्ड राज्य के उधम सिंह नगर जनपद में स्थित एक नगर है। गोविन्द बल्लभ पन्त कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय तथा पंतनगर विमानक्षेत्र यहां ही स्थित हैं। उत्तर प्रदेश के प्रथम मुख्यमंत्री, गोविन्द बल्लभ पन्त के नाम पर ही इस नगर का नाम पंतनगर रखा गया है।

हिमालय की तलहटी के पास स्थित यह क्षेत्र 1960 से पहले घना जंगल हुआ करता था, जिसका उपयोग उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा 1947 के विभाजन के बाद पश्चिमी पाकिस्तान से आये हिंदू, सिख और अन्य प्रवासियों के पुनर्वास में किया जा रहा था। 1954 में, उत्तर प्रदेश सरकार ने भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के तत्कालीन उपराष्ट्रपति, डॉ॰ के॰ आर॰ दामले की अध्यक्षता में एक भारतीय-अमेरिकी टीम को आमंत्रित किया ताकि नैनीताल जनपद के तराई क्षेत्र में एक ग्रामीण विश्वविद्यालय के लिए संभावित स्थल को चुना जाए। इसके बाद, भारत सरकार, तकनीकी सहयोग मिशन और कुछ अमेरिकी भूमि अनुदान विश्वविद्यालयों के बीच एक अनुबंध पर भारत में कृषि शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए हस्ताक्षर किए गए। 17 नवंबर, 1860 को भारत के पहले प्रधान मंत्री जवाहरलाल नेहरू ने विश्वविद्यालय को समर्पित किया था। इस विश्वविद्यालय के आस पास धीरे धीरे लोग बसने लगे, और कुछ वर्षों के बाद इसे पंत नगर कहा जाने लगा।

10.10.1980: हल्दवानी

आज का प्रोग्राम जिम कार्बेट नेशनल पार्क देखने का था परन्तु वहाँ का रास्ता ठीक नहीं हुआ है और अभी जाना सम्भव नहीं है। इसलिए आज का प्रोग्राम अरण्यपाल श्री पांडे के साथ रखा गया। वे अभी अभी अफ.आर.आई से आये हैं। लालकुआ में उन्होंने दिखाया कि किस तरह ल्युसिनिया, पोपलर, चीड़ आदि को नर्सरी में तैयार किया जाता है और इनकी आज के वक्त कितनी उपयोगिता है।

तराई सेंट्रल डिवीजन की पीपलपाड़ाव (Pipalpadaw) में यूकेलिप्टस की नर्सरी देखी। यहाँ यूकेलिप्टस के पौधे तैयार करने की तकनीक समझाई गई। पीपल पड़ाव (Pipalpadaw) क्षेत्र का वृक्षारोपण भी देखा जहाँ पर फोरेस्ट लैंड लीज पर दी जाती है और उसमें खेती के साथ साथ टीक, पोपलर और ल्युसिनिया आदि लगाये जाते हैं। प्रतिहेक्टर 2000 पौधे लगाये गए हैं। इसमें फोरमेशन खर्च रु. 16000 प्रति हेक्टर और स्थापना खर्च रु. 400 प्रति हेक्टर है। यह रोपण 1975 में पूरा हुआ था।


11.10.1980: हल्दवानी (8.30 बजे) – ऋषिकेश (20 बजे) - कांसरो (22 बजे) दूरी = 250 किमी

हल्दवानी से सुबह जल्दी ही यानि 7 बजे चलने का था परन्तु टूट प्रभारी इंस्ट्रक्टर श्री संगल साहब बाहर गए हुए थे वे आ नहीं सके इसलिए लेट हो गए और 8.30 बजे वहाँ से निकलना हो सका। शाम को ऋषिकेश पहुंचे। हल्दवानी से ऋषिकेश की दूरी लगभग 250 किमी है। रास्ते में रामनगर, काशीपुर, धामपुर, नगीना, नजीबाबाद, हरिद्वार आदि शहर पड़ते हैं।

ऋषिकेश में पता लगा कि फोरेस्ट मोटर मार्ग जो कांसरो जाता है वह खराब है। तय यह किया गया कि वहाँ से चक्कर लगाकर लच्छीवाला से होकर चला जाये। रास्ता बड़ा ख़राब था। जंगल के बीच से बहुत सकड़ा रास्ता था जो जगह-जगह टूटा हुआ था। किसी तरह से रेलवे क्रॉसिंग तक पहुंचे तो वहाँ पाया कि गेट बंद है और कोई आदमी भी नहीं है। गाड़ी निकल नहीं सकती। उस समय 7 बजे थे। कांसरो यहाँ से 2 किमी ही पड़ता है। कुछ आदमी वहाँ से स्टेशन की तरफ गए और कुछ दूसरी तरफ। गेटमेन छुट्टी लेकर पास ही अपने किसी गाँव चला गया था। स्टेशन मास्टर ने कहा कि ताले तोड़ लिए जावें। उस समय तक रात के 10 बज चुके थे। फिर ताले तोड़ कर गेट खोले। वहाँ से चलकर कांसरों कैम्प पहुंचे। यहाँ पर टेंट में रहने का प्रबंध किया गया था।

12-14.10.1980: कांसरो जंगल कैम्प

कांसरो देहारादून जिले के ऋषिकेश तहसील में स्थित घना वन क्षेत्र है और यहाँ घूमने-फिरने का कोई ज्यादा काम नहीं था। एक ही शासकीय काम था- यहाँ की मिट्टी और जिओलोजी का अध्ययन करना। मुख्य लक्ष्य था - कांसरो जंगल कैम्प में रहकर जंगल के जीवन की अनुभूति करना। यहाँ जंगल में रहने का अनुभव कराने के लिए घने जंगल के ठीक बीच में वन विश्राम गृह के पास ही तम्बुओं में रहने की व्यवस्था की गई थी। प्रत्येक तम्बू में तीन-तीन अधिकारियों को रखा गया था। तम्बुओं में रहने का आनंद अलग ही था। सुबह-सुबह फ़्रेश होने के लिए जंगल में जाते थे और नदी में स्नान करने के लिए जाते थे। नदी का बहाव काफी तेज था परन्तु एक जगह उसमें हमें ऐसी मिली जहाँ पर पानी तो सीने तक था परन्तु बहाव कम था। वहाँ पर रोज सुबह शाम जाते और उसमें तैरते थे। चारों तरफ गहरे साल के वन थे और उसमें बहती हुई नदी और उसकी कल-कल की आवाज मन को मुग्ध कर लेती थी। घंटे दो घंटे तैरते रहते और प्रकृति की सुंदरता का आनंद उठाते। इस जंगल में हाथी तो काफी देखे जाते हैं परन्तु शेर भी यहाँ पाये जाते हैं। एक दिन रात को एक बजे मेरी नींद खुली। दूर कहीं कुत्तों के जोर-जोर से भौंकने की आवाजें आ रही थी। साथ ही जंगल के विभिन्न जानवरों की मिश्रित आवाज भी आ रही थी जो बड़ी भयानक और डरावनी लग रही थी। जंगल का इसी तरह अनुभव कराने के लिए हमारा पहला ही टूर फंदोवाला के जंगल का था जहाँ कुछ इसी तरह का अनुभव हुआ था। उस समय फंदोवाला में तो हमने हाथियों के चिंघाड़ने की आवाज भी सुनी थी।

कांसरो में और भी बहुत सी बातें हुई जो बहुत आनंद दायक रही। प्रभारी अधिकारी श्री संगल के व्यवहार से व्यथित होकर विरोध में सभी प्रोबेशनर एकजुट हो गए। सबने तय कर लिया कि टूर के अंत में आयोजित होने वाला टूर-टेस्ट का बहिष्कार कर दिया जावे। ऐसा ही किया और इससे माहौल काफी तनावपूर्ण हो गया था। परंपरानुसार टूर के अंतिम दिन की रात 14 अक्टूबर 1980 को कैम्प फायर आयोजित था। कैम्प फायर में आग जलती रहती है और सभी लोग घेरे में बैठकर कहानी-चुटकलों और गानों से अच्छा मनोरंजन करते हैं। कैम्प फायर में अजीबोगरीब स्थिति उस समय हो गई जब तमिलनाडु निवासी माइकल ने हिमाचल निवासी श्री आर.सी. बरगाल का सिल्विकल्चरल सिस्टम व्यंगात्मक रूप में पढ़ कर सुनाया। बरगाल को छोडकर सभी ने इसमें बड़ा आनंद लिया परंतु बरगाल भयंकर नाराज हो गया और गुस्से में बहुत कुछ सुना गया। तब कैम्प का वातावरण बहुत ही तनावपूर्ण हो गया था। यद्यपि इसका भी हमने खूब आनंद लिया।

15.10.1980: कांसरो (10 बजे) - देहरादून (12.30 बजे) दूरी = 50 किमी

कांसरो से 10 बजे चलकर हम डेढ़ घंटे में ही 12.30 बजे देहरादून पहुँच गए।

ईस्ट इण्डिया टूर – भाग एक समाप्त हुआ!

Author: Laxman Burdak, IFS (R)

Source - Facebook page of Laxman Burdak, 2.9.2021

संदर्भ

  1. Raychaudhuri, H.C. (1972). Political History of Ancient India, Calcutta: University of Calcutta, p.85
  2. Raychaudhuri, H.C. (1972). Political History of Ancient India, Calcutta: University of Calcutta, p.206
  3. Lahiri, B. (1974). Indigenous States of Northern India (Circa 200 B.C. to 320 A.D.) , Calcutta: University of Calcutta, pp.170-88; Bhandare, S. (2006). Numismatics and History: The Maurya-Gupta Interlude in the Gangetic Plain in P. Olivelle ed. Between the Empires: Society in India 300 BCE to 400 CE, New York: Oxford University Press, ISBN 0-19-568935-6, pp.76,88
  4. Raychaudhuri, H.C. (1972). Political History of Ancient India, Calcutta: University of Calcutta, p.473
  5. वसीम, अख्तर (4 जुलाई 2019). "मुहल्लानामा : पुराना शहर में जगतपुर से पड़ी बरेली की नींव". बरेली: दैनिक जागरण. मूल से 30 जुलाई 2019 को पुरालेखित
  6. वसीम, अख्तर (4 जुलाई 2019). "मुहल्लानामा : पुराना शहर में जगतपुर से पड़ी बरेली की नींव". बरेली: दैनिक जागरण. मूल से 30 जुलाई 2019 को पुरालेखित
  7. लाल 1987, पृ.6
  8. लाल 1987, पृ - 6
  9. लाल 1987, पृ.6