Shekhawati Ke Gandhi Amar Shahid Karni Ram/Kshetra Sewa Evam Mahaprayan

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पुस्तक: शेखावाटी के गांधी अमरशहीद करणीराम

लेखक: रामेश्वरसिंह, प्रथम संस्करण: 2 अक्टूबर, 1984

प्रथम-खण्ड:जीवन-वृतांत

4. क्षेत्र सेवा एवं महा प्रयाण

आंधियां आती रही।

कारवां बढ़ता रहा ।।

प्रथम चुनाव में कांग्रेस का बहुत जोर नहीं रहा। उसे सिर्फ 39 प्रतिशत से कुछ ऊपर मत मिले। जोधपुर डिवीजन में कांग्रेस की करारी हार हुई जहां उसे 35 सीटों में से सिर्फ 4 सीटें मिली। शेष चार डिवीजनों में से 3 में कांग्रेस का बहुमत रहा तथा चौथे में उसकी हार इतनी करारी नहीं रही जितनी जोधपुर में। जय नारायण व्यास स्वयं दोनों जगह हार गए। जोधपुर में, जोधपुर के महाराजा को 62.2 प्रतिशत मत मिले जबकि व्यास जी को 17.2 प्रतिशत। दूसरे क्षेत्र में भी उन्हें सिर्फ 18.9 प्रतिशत मत मिले थे।

टीकाराम पालीवाल को मुख्यमंत्री बनाया

श्री व्यास की पराजय के कारण कांग्रेस के सामने मंत्रिमंडल निर्माण की कठिनाई आ खड़ी हुई। काफी विचार-विमर्श के बाद 22 फरवरी 1952 को श्री टीकाराम पालीवाल को मुख्यमंत्री बनाया गया जो एक शांत प्रकृति के प्रभावशाली एवं योग्य नेता थे। एक प्रस्ताव द्वारा व्यास जी के नेतृत्व में विश्वास व्यक्ति किया गया एवं आशा प्रकट की गई की श्री व्यास आगे चलकर अपना उचित स्थान ग्रहण करेंगे।

श्री पालीवाल जी ने जिस मंत्रिमंडल का निर्माण किया वह सभी जातियों एवं क्षेत्रों का समान प्रतिनिधित्व नहीं करता था। झुंझुनू से श्री नरोत्तम लाल जोशी जो व्यास मंत्रिमंडल में न्याय मंत्री थे, इस बार मंत्रिमंडल में नहीं लिए गए।


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श्री जोशी व्यास जी के खास निजी व्यक्ति थे। इस विषय में अनेक क्षेत्रों के नेतागण पालीवाल जी से प्रसन्न नहीं थे।

आगे चलकर व्यास जी ने किशनगढ़ विधानसभा क्षेत्र से चुनाव लड़ा और विजयी हुए। उन्हें कांग्रेस विधायक दल का नेता चुना गया और वे पुनः राजस्थान के मुख्यमंत्री बने। व्यास मंत्रिमंडल अपने पतन अक्टूबर 1954 तक काम करता रहा।

शेखावाटी क्षेत्र में उदयपुरवाटी से श्री करणी राम जी यद्यपि चुनाव हार गए थे पर उन्हें जितनी अधिक संख्या में मत मिले थे उससे एक नई आशा का संचार हुआ। इसी क्षेत्र में दो स्थानों से सरदार हरलाल सिंह जी खड़े हुए थे। वे चिड़ावा से जीते मगर नवलगढ़ क्षेत्र में थोड़े मतों से पराजित हो गए।

चुनाव के समय श्री करणी राम जी सारी भोमियावाटी में घूमे थे। उन्होंने लोगों को बार-बार कहा था कि मैं सिर्फ आप लोगों को अन्याय से मुक्त कराने के लिए आया हूं, चुनाव मेरा साध्य नहीं है। मैं चुनावों के बाद भी आपके साथ निरंतर बना रहूंगा और कंधे से कंधा मिलाकर अन्याय का प्रतिकार करूंगा। उन्होंने अपना वादा पूरा निभाया। वे इस क्षेत्र में अब भी बराबर घूमते थे और लोगों की सहायता कर रहे थे।

राजस्थान में उस समय राजस्व कानूनों एवं नियमों में एकरूपता नहीं थी जागीरदारी जमीदारी और बिश्वेदारी आदि प्रथाएं इस क्षेत्र के विभिन्न भागों में जारी थी। वृहतर राजस्थान के निर्माण के 1 माह बाद श्री ए. ए. खेरी की अध्यक्षता में एक कमेटी का गठन किया गया जिसने नियमों के एकीकरण हेतु अपनी रिपोर्ट जुलाई 1949 में विधेयक के मसविदों सहित पेश कर दी थी पर यह कानून सन 1955 के पहले कई कारणों से लागू नहीं हो सका।

जागीर समस्या का नग्न स्वरूप

जागीरदारों ने देश की स्वतंत्रता के बाद यह समझ लिया था कि कृषकों के हित में कानून बनाकर सरकार उन्हें भूमि पर मालिकाना अधिकार दे देगी अतः वे बड़ी संख्या में कृषकों को बेदखल करने लगे। यह देख कर सरकार ने, किसानों को


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संरक्षण देने के लिए जून, 1949 में काश्तकार सरक्षण अधिनियम जारी किया। इसके अनुसार 1 अप्रैल, 1948 को जिस किसान के पास जमीन थी, उसे अगर बेदखल कर दिया तो उसे कानूनन जमीन वापस मिल जावेगी।

राजस्थान में अन्य प्रदेशों की तरह कई तरह की जागीरें थी। इनके कई भेद थे, जैसे जागीर, चकोटी, तनरवा, आमला, इनाम, लालजी, खागी, अलुफा, खान-पान, खिदमत, जायदाद, सीगा, तनकेदार, सलामी, चकराना, प्रीतोती, राजवी, भोगता, हुजूरी, सासन आदि।

अगस्त 1949 में राजस्थान और मध्य प्रदेश सरकार की प्रार्थना पर केंद्रीय सरकार ने जागीर समस्या के अध्ययन करने एवं निदान सुझाने के लिए एक जागीर जांच कमेटी वेकेंटाचारी की अध्यक्षता में बनाई जिसने दिसंबर, 1949 के अंत में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की। कई कारणों से इस पर कार्यवाही नहीं हो पाई। आगे चलकर राजस्थान लैंड रिफॉर्म रिजम्पशन ऑफ जागीर बिल को पेश किया जो 18 फरवरी 1952 को कानून बन गया। इस पर जागीरदारों ने हाईकोर्ट में रिटें की। नेहरू जी को मध्यस्थ बनाया गया जिन्होंने अपना निर्णय नवंबर, 1953 में दिया।

उस समय राजस्थान में नए शासन के सामने बड़ी-बड़ी समस्याएं थी। प्रथम यह कि भूमि के बिचौलिए जागीरदारों को कैसे हटाया जाए तथा दूसरी यह कि भूमि सुधार के कानूनों को कैसे अमल में लाया जाए। सारे राजस्थान में 16,780 गांव और 77,110 वर्गमील भूमि जागीरी क्षेत्र में थी जबकि 16,838 गांव और 50,110 वर्ग मील भूमि खालसा के अंतर्गत थी। झुंझुनू जिले से खालसा के सिर्फ 4 गांव थे। शेष 703 गांव जागीर में थे। इसी प्रकार सीकर जिले में सिर्फ 54 गांव खालसा के और शेष 777 गांव जागीरी व्यवस्था के थे। इस प्रथा को मिटाकर किसानों को राहत दिलाने का कार्य सरकार कर रही थी।

जागीरदार किसानों से आधा भाग का उपज लेते थे । कहीं-कहीं इसमें अधिक भी ले लेते थे। कोई निश्चित नियम नहीं था। कुंत जागीरदार के आदमी करते थे और इस कूंत के आधार पर आधा अनाज वे लेते थे। लगान नगद में न


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होकर बटाई में था। पांति में तथा किस्तों में वसूल होता था। 5-7 एकड़ सिंचित भूमि का लगान बटाई के रूप में सौ सवा सौ मन होता था। असिंचित भूमि का लगान पैदावार के आधे हिस्से के रूप में लिया जाता था।

लगान के बाद कई तरह की लाग-बाग ली जाती थी। लागबागों का विवरण अन्यत्र दिया गया है। लागबागों में प्रमुख लाग मलवा, नानवा, करड फेर, बाई जी का हाथ खर्च, माता जी भेंट, जाजम खर्च, न्योता, बागदम, ढोल डंका, धुंवाबाछ, हाल बेठिया, खुंटाबन्दी, नापाकोरी, नहर खर्च, कांसा परोसा, कुंवर जी का कलेवा, कारज खर्च, पड़वामेख, दाना, नजर, मोहराना, पांचराई, छाली, गिनती आदि थी।

लगान का अनाज किसान स्वयं नहीं तोल सकता था। वह पटवारी से तुलवाया जाता था। एक सेर से 5 सेर तक प्रति मन तुलाई पटवारी को देनी पड़ती थी। कुल पैदावार लगान, लागबाग, मलवा आदि में चली जाती थी। किसान एक दाना भी अपने खेत से घर नहीं ले जा सकता था। कुछ देना बाकी रहता था। सारे शेखावाटी क्षेत्र के किसान अन्य भागों से ज्यादा दुखी थे। उदयपुरवाटी में परिस्थिति इससे भी गई गुजरी थी। वहां किसानों पर निरंतर अत्याचार होते रहते थे। इसका एक विशेष कारण था। अन्य जगहों पर बड़े जागीरदार थे। उनके पास कई गांवो की जागीरें थी। पर उदयपुरवाटी का सारा क्षेत्र भोमियावाटी कहलाता था। यहां के भोमियों के पास एक या आधा गांव भी नहीं था। किसी-किसी के पास तो सिर्फ कुछ खेत ही थे। फिर भी उनकी ठसक किसी जागीदार से कम नहीं थी।

भोम उक्त जागीर को कहते हैं जो सिरकटी या कोई विशेष सेवा करने के लिए मिली हो। यह स्थाई और अपरिवर्तनशील जागीर होती थी। भोम की इस जागीर के आगे चलकर टुकड़े होते गए और फिर स्थिति यह हो गई कि एक गांव की भूमि के मालिक कई भोमिये हो गए। भूमि जागीर के मालिक ही भोमिया कहलाते थे और उनका क्षेत्र भोमियावाटी कहलाता था।

भौमियों के आय का कोई अन्य साधन तो होता नहीं था। इसलिए वे अपनी


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आय का एकमात्र साधन किसान की उपज को ही मानते थे। उनकी उपज का अधिक से अधिक हिस्सा लेने का प्रयत्न होता था। अगर किसान आनाकानी करता तो बुरी तरह पीटते थे। मारपीट उनका आए दिन का काम होता था।

भोमियावाटी का यह क्षेत्र पहाड़ों की दुर्गम पंक्तियों से गिरा है। झुंझुनू जिले में यह भाग पहाड़ी है। इस क्षेत्र के अनेक गांव पहाड़ों की घाटियों में बसे हैं। पानी की सतह अपेक्षाकृत ऊंचा है अतः सिंचाई के साधन अच्छे हैं। भूमि भी यहां अन्य स्थानों से अच्छी है।

किसानों में अधिकतर माली थे, जो जरा भी पढ़े-लिखे नहीं थे। हिसाब किताब नहीं जानते थे। अतः जो कुछ कामदार, पटेल, पटवारी करते चुपचाप देखते रहते। कोई पैमाइश, बंदोबस्त नहीं, कोई खतौनी नहीं। आज एक कुआं जोता कल बेदखल कर दिया और कुआ दूसरे को बता दिया।

उदयपुरवाटी की दशा

उदयपुरवाटी में कोई पक्का मकान नहीं बनाने दिया जाता था। कुएं भूण,चड़स,लाव भी किसान घर में ले जाकर रात को रखता था। उसी खुड्डी में बैल बंधते थे। खाट या चारपाई किसी के पास टूटी-फूटी होती थी। काश्तकारों को खाट पर बैठने का अधिकार नहीं होता था। बोरी का कपड़ा सिर पर ओढ़ते थे। लालटेन किसी के पास नहीं होती थी। जमीन में गूदड़ा बिछाकर पड़े रहते थे। लाल मिर्च की चटनी व जौ की रोटी का कलेवा करते थे। छाछ राबड़ी तो किसी भाग्यशाली को ही मिलती थी। वैशाख के महीने में फसल तैयार होने पर लाटा निकाला जाता था । उस समय कुए के मालिक भोमिये अपनी चारपाई, ढाल, तलवार, लाठी, बंदूक, हुक्का, लेकर पहरे पर बैठ जाते थे। इन्हें 'हींटा' कहा जाता था।

अनाज निकलने पर कामदार पटवारी अपने-अपने हिस्से का इज़ारे का अनाज तोलकर ले जाते। फिर बोहरे का नम्बर आता, वह अपनी सवाई-ड्येढ़ी लगाकर ले जाता। इसके बाद नाई,खाती,कुम्हार,चमार और लाग-बाग़ वालों का नम्बर आता था। काश्तकार न हिसाब जानता था न मोल-तोल। कमी रह जाती तो


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बोहरे से खाता लिखवाता था। काश्तकार को जेठ के महीने में गला सड़ा पिछली फसल का अनाज खाने को लेना पड़ता था।

रविंद्रनाथ ठाकुर ने ऐसे ही लोगों को लक्ष्य कर कहा है : 'मानवीय सभ्यता के विकास में जन साधारण के एक बहुत बड़े भाग का विशेष हाथ होता है पर वे लोग केवल वाहन बनकर जीवन बिताते हैं। उन्हें मनुष्य बनने का न तो अधिकार दिया जाता है ना अवकाश। राष्ट्र की संपत्ति के उचिछष्ट में वे पलते है। वे सबसे कम खाकर, सबसे कम पहिन कर, सबसे कम सीखकर दूसरों की परिचर्या या गुलामी करते है। जीवन यापन के लिए जितनी भी अनिवार्य सुविधायें आवश्यक हैं उन सबसे वे वंचित रहते हैं। वे जैसे सभ्यता की दीवट है। सदा सिर पर दिया लिए खड़े रहते हैं। ऊपर वालों को प्रकाश मिलता है और उन विचारों के ऊपर गर्म तेल टपकता रहता है।

'सभ्यता की उत्कृष्ट फसल तो केवल अवकाश के खेत में ही पैदा होती है। इसलिए बराबर यही सोचता हूं कि जो लोग केवल परिस्थितियों के कारण ही नहीं बल्कि शरीर और मन की विशेष गति के कारण भी नीचे रह कर काम करने को मजबूर हैं उनकी समुचित शिक्षा, स्वास्थ्य, सुख और सुविधा के लिए उद्योग किया जाना नितांत आवश्यक है।'

शेखावाटी के अन्य भागों में किसान जग गया था पर इस क्षेत्र में किसान आंदोलन जोर नहीं पकड़ पाया। यहां का किसान पिछड़ा और भोमियों से पूरी तरह भयभीत था। जागीरदार यहां संख्या में भी अधिक थे। उनकी कठोरता और निर्ममता अन्य जागीरदारों की तुलना में बहुत अधिक थी।

पूरे क्षेत्र में राजपूत, महाजन और ब्राह्मणों के अलावा किसी भी अन्य वर्ग के लोगों के पास पक्के मकान नहीं थे। जैसा पहले लिखा गया है यह उनके पैदा किए हुए अन्न का अधिकांश भाग जागीदार उठा ले जाता था। चारपाई बहुत कम लोगों के पास थी। खींप की रस्सी बांटकर चारपाई बुनते थे। बिछाने को गूदड़ा, ओढ़ने के उपरांत, रजाई गद्दे का तो कोई नाम भी नहीं जानता था। छप्पर खींप से छाये जाते थे।


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किसान महिला चांदी-सोने के गहने नहीं बना सकती थी, न पहन सकती थी। कड़ी पहनने पर पैर काट डालते थे। जागीरदार के मरने पर किसान की औरत को चूड़ी देनी पड़ती थी। बाल तो सभी किसानों को मुंडाने पड़ते थे। अगर कोई जागीदार के मरने पर मूंछ नहीं कटवाता तो उन्हें उखाड़ दिया जाता था। शादी के समय लाग-बाग के अलावा बेगार किसान को देनी ही पड़ती थी। जागीरदार सारा शादी का खर्च आसानी से पूरा करते थे।

जागीरदार के खुद काश्त की भूमि को जोतने से लेकर काटने तक का काम किसान बेगार में करता था। जागीरदारों के गांवों में ऊँटो पर चढ़कर राजपूतों के मोहल्ले में से कोई निकल नहीं सकता था। कोटड़ियो में कोई उनके आगे खाट पर नहीं बैठ सकता था। जागीरदार जब किसान के घर जाता तो खाट किसान की आती पर जागीरदार के सामने वह अपनी खाट पर भी नहीं बैठ सकता था।

इस प्रकार यहां किसान अनेक सामाजिक असमानताओं का शिकार था। उसका आर्थिक शोषण बराबर हो रहा था। वर्षों से पीढ़ी दर पीढ़ी इस अन्याय को सहते किसान की आत्मा मर चुकी थी और वह मूक पशु की तरह सारे अत्याचार सहता जा रहा था।

आसपास की जागृति का असर अब इस क्षेत्र पर भी होने लगा था। चुनावों ने उनकी आखों को खोल दी थी। नए जमाने की बातें वे जानने लगे थे। श्री करणीराम जी ने उन्हें सजग कर दिया था कि वह दिन दूर नहीं है जब ये जागीरदार नहीं रहेंगे। धीरे-धीरे वातावरण में बदलाव आ रहा था। कई कार्यकर्ता निरन्तर अब इस क्षेत्र में चक्कर लगाने लगे थे।

धीरे-धीरे लोग संगठित होने लगे। खिरोड़,देवगांव,पोसना,रघुनाथपुरा, धमोरा, चारण की ढाणी, जाखल,हुकुमपरा आदि स्थानों पर लोग संगठित होकर जागीरदारों का विरोध करने लगे। मनचाहा लगान अब वे नहीं देते थे तथा वेदखली का मुकाबिला करते थे।

कास्तकारो और भोमियों के झगड़े फसल की बुवाई और कटाई के समय खूब होने लगे। श्री करणीराम ने इस क्षेत्र के लोगों को शिक्षा के प्रति रूचि रखने को


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जगह-जगह प्रेरणा दी थी। फलस्वरूप किसान अब अपने बच्चो को पढ़ने भेजने लगा। बेगार देना प्राय: किसानों ने बन्द कर दिया था।

करणीराम के अनन्य सहयोगी

उस समय श्री करणीराम के नेतृत्व में कर्मठ कार्यकर्ताओं का दल बन गया। कई लोग आगे आये जिनमें लादूराम जाखल, सूरजमल, शंकर छाबसरी, चेतराम भोड़की, चुन्नीलाल, गंगाराम पोसाना, मंगलराम, रघुनाथपुरा, सूरजारामधमोरा, भोगूराम छापोली, ज्ञानाराम सराय, हुकमाराम हनुमानाराम टीटनवाड़, भागसिंह सोंथली, हनुमानराम गोधूराम चोकड़ी, मुखराम गुढ़ा इनमें प्रमुख हैं।

गीलों की ढाणी के श्री राम देव और श्री झाबर सिंह की भी इस जागृति में बड़ी भूमिका थी। दोनों पुराने उत्साही कार्यकर्ता और साथ ही निडर भी थे। जहां कहीं किसान-जागीरदार झगड़ा होता वे जा पहुंचते थे। श्री करणी राम को इस क्षेत्र से चुनाव लड़ने का श्रेय भी रामदेव सिंह जी को था और उन्होंने पूरी हिम्मत और हौसला इन चुनावों के दौरान प्रदर्शित किया था।

उदयपुरवाटी क्षेत्र में गिल परिवार ही जागृति का केंद्र था और उस क्षेत्र में राजनैतिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक चेतना का उद्गम स्थान गीलों की ढाणी था। इस ग्राम में करणीराम की शादी हो जाने की वजह से उदयपुरवाटी करणीराम जी की एक तरह से कर्मस्थली बन गई। उदयपुरवाटी झुंझुनू जिले के किसानों व जागीरदारों के संघर्ष का कुरुक्षेत्र था जहां करणीराम जी एवं रामदेव सिंह जी ने कृष्ण और अर्जुन की भूमिका निभाई थी। राम - लक्ष्मण की यह अदभुत जोड़ी थी और खेल समाप्त कर साथ ही अनंत में विलीन हो गए। जागीरदारों से लोहा लेना था। सारा भार इस क्षेत्र में रामदेव सिंह जी पर था। उत्पीड़ित एवं निर्बल काश्तकारों के दिल में सिंहनाद कर रामदेवजी ने संघर्ष के लिए मजबूत संगठन तैयार किया। कहने का तातपर्य यह है कि जागृति की लौ इस क्षेत्र में रामदेव सिंह जी ने ही जलायी थी। जिस समय उन्हें एक समर्पित नेता की आवश्यकता थी, श्री करणीराम जी रंग-मंच पर उपस्थित हो गए। उम्र में करणीराम से वे करीब 9 वर्ष छोटे थे पर छाया की तरह करणीराम के साथ रहते थे। करणीराम जी के हनुमान के रूप में


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वे जागीरदारों के लिए बड़े भयावह थे और उनके नाम से जागीरदार सशंकित होते थे। जागीरदार उन्हें अपना शत्रु नंबर एक समझते थे।

श्री रामदेवसिंह ने सरदार हरलालसिंह की प्रेरणा से अध्यापन कार्य छोड़ कर राजनीति में प्रवेश किया। उन्होंने भी विद्यार्थी भवन झुंझुनू को अपना कर्मक्षेत्र बनाया। वे सरदारजी के विश्वासपात्र थे। सरदारजी ने उन्हें जयपुर राज्य प्रजामंडल के अध्यक्ष बनने पर अपना निजी सचिव बनाया।

साहस एवं दृढ़निश्चय

श्री रामदेवसिंह बहुत हिम्मत वाले और दृढ़निश्चयी व्यक्ति थे। खतरों से तनिक नहीं घबराते थे। वे आसारण संगठन कर्ता थे। शांत बैठे लोगों के मन में अत्याचार का मुकाबला करने की हिम्मत भर देते थे। उदयपुरवाटी इलाका कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष भी थे और जिला बोर्ड के सदस्य थे। अत्याचार से संघर्ष करने के लिए वीरता का ज्वालामुखी उनके दिल में बिराजमान था।

1952 में उदयपुरवाटी से करणीराम को कांग्रेस टिकट पर खड़ा करने सम्बन्धी निर्णय में उनका ही सबसे बड़ा हाथ था। क्षेत्र के लिए जो समर्पित हो, ऐसा व्यक्ति उन्हें करणीराम मिला। एक ओर विवेक की सूझबूझ थी,दूसरी ओर अदम्य उत्साह। यह मिलन इलाके के लिए वरदान स्वरूप था।

जागीरदार करणीराम जी व रामदेवसिंह जी दोनों को ही अपने लिए कांटा मानते थे। वे उस अवसर की बराबर तलाश में थे जब इनको रास्ते से हटाया जा सके। कईबार प्रयत्न हुये पर रामदेव जी ईश्वर की कृपा से बराबर बचते रहे। उदयपुरवाटी के चुनाव का संचालन पूर्णतः उन्ही के कन्धों पर था। इस दायित्व को उन्होंने सफलतापूर्वक निभाया था।

वे गलत बात का जोरदार विरोध करते थे तथा झुकना नहीं जानते थे। करणीराम जी को वे अपना पथ प्रदर्शक मानते हुये बराबर उनके साथ चलते रहे और छाया की तरह अन्तिम समय में भी साथ रहे।

राज्य सरकार ने जागीरदारों को मन चाहे लगान लेने पर रोक लगान के


शेखावाटी के गांधी अमरशहीद करणीराम, पृष्ठांत-78

लिए उपज भाटक नियमन अधिनियम जून 1951 में बनाया। इसके अनुसार जागीरदार अधिक से अधिक 1/4 भाग उपज का लगान के रूप में ले सकता था। किसानों ने इस पर एतराज किया और 1/4 को अधिक बताया। इस पर अधिनियम में संशोधन हुआ और 1/4 के स्थान पर 1/6 भाग निश्चित किया गया। यह स्पष्ट कर दिया गया था कि उपज में घास अनाज का भूसा, सुखे डंठल आदि शामिल नहीं है।

यह बहुत बड़ा निर्णय था जिससे किसानों को बड़ी राहत मिली। जागीरदार लगान की दर खुद तय करते और उनके अनुसार बांट लेते थे। वे छठे हिस्से को लगान की दर मानने को तैयार नहीं थे। उधर काश्तकार सरकार द्वारा तय किये हुए से कुछ भी अधिक देने को तैयार नहीं थे।

करणीराम जी और रामदेवजी ने गांव-गांव जाकर किसान को जागृत किया। सरकारी नियम समझाया की 1/6 से अधिक लगान नहीं देना है। लगान बन्दी का अभियान शुरू हो गया। लोगों के खलिहान रोक दिए गए। जागीरदारों ने खलिहान उठाने नहीं दिए शांति व्यवस्था बराबर खतरे में थी।

इस अशांति को दूर करने के लिए राज्य सरकार ने केन्द्रीय रिजर्व पुलिस लाकर इस इलाके में डाल दी। उप जिलाधीश उदयपुरवाटी का शिविर गुढ़ा गोड़ जी में रखा गया। पुलिस की गश्त इलाके में शुरू हो गई। चूँकि इस क्षेत्र में भूमि का बन्दोबस्त नहीं हो पाया था अतः कोई रिकॉर्ड किसान के पास नहीं था।

जागीरदार लोग लगान ले लेते थे, पर रसीद नहीं देते थे। किसान सीधा जागीरदार को लगान देना नहीं चाहते थे। इस पर सरकारी पटवारी की मार्फत लगान वसूल किया जाने लगा। जागीरदारों से माल देकर पटवारी रसीद लेता और किसान को दे देता। पर सब जगह यह व्यवस्था लागू नहीं थी। जो रसीद देने को तैयार नहीं थे,उनका लगान सरकारी खजाने में जमा होने लगा। वसूली का खर्चा काट लगान वहां से जागीरदार को मिल जाता था।

इस प्रकार सदियों से चलती आ रही परम्परा और पद्धति में स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद एक परिवतर्न आया। यह व्यवस्था फिर भी सारे उदयपुरवाटी क्षेत्र


शेखावाटी के गांधी अमरशहीद करणीराम, पृष्ठांत-79

में नहीं थी। जहां किसान मजबूत था वहीं यह लागू हुई। जहां किस्म में अनाज लिया जाता था वहां समस्या समाप्त नहीं हुई थी। जागीरदार पहले की तरह आधा बांटा ही ले रहा था और अपनी दुर्बलता के कारण किसान इसका प्रतिकार नहीं कर सकता था।


जागीरदार भी इस बदलती हुई परस्थिति से अपरिचित नहीं थे। उनको ज्ञात था की सदियों से चली आती यह निर्मम परम्परा अब आगे जारी नहीं रह सकती है। उधर किसान भी जग गया और संगठित होकर मुकाबले पर उतर आया था। रियासतों के राज के समय प्रथम तो किसान संगठित नहीं थे दूसरे अगर वह सिर भी उठाता तो कुचल दिया जाता था। जागीरदार के अत्याचार की कोई सुनवाई नहीं थी। रियासत जागीरदार क्षेत्र के अन्दरूनी मामलों में दखलन्दाजी नहीं करती थी। शेखावाटी को हमेशा इलाका गैर मन गया और वह जयपुर राज्य के अन्य अधीनस्थ भू-भागों की तरह नहीं था।

अब जनता की चुनी हुई सरकार थी। जनता पर होने वाले अत्याचारों को दूर करना उसका पुनीत दायित्व था। अगर मारपीट इत्यादि की घटनायें होती तो राज्य की पुलिस उस पर कार्यवाही करती थी। इसके अलावा कांग्रेस का हर क्षेत्र में अपना संगठन था जो इस तरह के अन्यायों का मुकाबला करने को तैयार रहता था। इस प्रकार सारी परिस्थिति में एक महत्वपूर्ण परिवर्तन आ चुका था।


ऊपर कहा जा चुका है की राज्य सरकार के 1/6 भाग उपज का लगान तय कर देने पर जागीरदार इसे लेने को तैयार नहीं थे। उधर परिस्थितियों का संबल पाकर किसान भी छठे हिस्से से कुछ भी अधिक देने को तैयार नहीं था। इससे बड़े जागीरदारों को ज्यादा नुकसान था। अतः वे खुद आगे न आकर भौमियों को बहका रहे थे और जगह जगह लड़ाई झगड़े करवा रहे थे। इसी प्रश्न को लेकर कुछ अगुवा जागीरदार जिला प्रशासन के पास पहुंचे और विवाद को सुलझाकर लगान वसूली के काम को आगे बढ़ाने का अनुरोध किया।

समझौते के प्रयास

जिला प्रशासन भी आये दिन इनके झगड़ों से परेशान हो गया था। प्रसाशन


शेखावाटी के गांधी अमरशहीद करणीराम, पृष्ठांत-80

का सारा ध्यान कानून और सुरक्षा बनाये रखने पर ही लगया था। सरकार भी चाहती थी की कुछ समय के लिए समझौता हो जाए तथा स्थिति विस्फोटक नहीं बनी रहे। सरकार ने जिलाधीश को दोनों पक्षों से बातचीत करने का आदेश दिया।

उस समय झुंझुनू जिले में श्री बृजमोहन तन्खा जिलाधीश के पद पर कार्य कर रहे थे। उन्होंने उदयपुरवाटी के एक मात्र नेता श्री करणीराम जी को 27 अप्रैल 1952 को एक पत्र लिखा जिसमे उदयपुरवाटी क्षेत्र में जाकर समस्या का समुचित निदान ढूढ़ने का अनुरोध किया गया था। पत्र अन्यत्र दिया जा रहा है।

इस सम्बन्ध में एक बात का उल्लेख करना समीधीन है। राज्य सरकार ने जब छठा हिस्सा तय करके अधिनियम पारित कर दिया था उसमें यह भली प्रकार स्पष्ट कर दिया गया था कि इसमें फूस,चारा,डंठल आदि शामिल नहीं है। जागीरदार जगह-जगह किसानों में यह भ्रम फैलाने लगे कि फूस चारे का भी छठा हिस्सा लिया जावेगा।

जन प्रतिनिधि और कार्यकर्ता गांव-गांव जाकर लोगों को सावधान करते कि घास,चारा इसमें शामिल नहीं है। इतने विस्तृत क्षेत्र में यह सूचना पहुंचना सरल कार्य नहीं था फिर भी श्री करणीराम ने सुनियोजित ढंग से इस बात की व्यवस्था की कि जागीरदार छठे हिस्से के अनाज के अलावा और कुछ नहीं ले पायें।

करणीराम जी शान्ति प्रिय व्यक्ति थे। हिंसा में उनका जरा भी विश्वास नहीं था। वे व्यर्थ के खून खराबे के विरोधी थे। उन्हें ज्ञात था की सदियों की स्थापित परम्परा का अन्त, समय पाकर ही होगा। वे धैर्येशील थे। उन्हें उस दिन का इन्तजार था जब बिचौलिये नहीं रहेंगे और किसान अपनी भूमि का स्वामी स्वयं होगा।

वे समझौते के विरुद्ध नहीं थे उनका मानना था कि अगर आपस में थोड़ी छूट देकर भी समझौता हो जावे तो ठीक रहे। वे सच्चे मन से समझौते के पक्षपाती थे।


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जागीरदारों से व्यक्तिगत रूप से उनका कोई विरोध नहीं था और न वे किसी प्रकार की कटुता उनके प्रति रखते थे। वे उनसे बराबर मिलते रहे और न्यायसंगत हल निकलने की चेष्टा करते रहे। पर वे जागीरदारी प्रथा की बुराइयों से कोई समझौता करने को तैयार नहीं थे और किसानों पर अब कोई अत्याचार नहीं होने देना चाहते थे। दोनों और से प्रकट में समझौते की कार्यवाही होने लगी।

इस समय उनका पूरा ध्यान इस समस्या की और केंद्रित हो चुका था। वकालत अब नाम मात्र की रह गई थी। कभी इस गांव से चिंताजनक समाचार आया तो कभी दूसरे गांव से मारपीट का समाचार आया तो वहा दौड़े। इस प्रकार सारा समय इस भाग दौड़ में बीतने लगा। जागीरदारों को उनकी इस प्रकार की कार्यवाहियों से बड़ा क्रोध आता था पर वे प्रकट में कुछ करने को समर्थ नहीं थे।

इस प्रकार के उदाहरण राजस्थान में बहुत कम मिलेंगे जब एक क्षेत्र से हारा हुआ जन प्रतिनिधि उस क्षेत्र के कल्याण के लिए अपना सब कुछ दांव पर लगा दे। श्री करणीराम जी के मन में एक कसक बराबर बनी रहती थी। वे आपसी बातचीत में कहा करते थे कि यह किस प्रकार की व्यवस्था है जिसमें मानव दूसरे मानव के साथ पशुतापूर्ण व्यवहार कर रहा है। सदियों के अत्याचार ने मानव के ममत्व,दया,करुणा आदि सब गुणों को सोख लिया है। उसी के समान अलग पिता के द्वारा रचा गया किसान जागीरदार के लिए मानव नहीं रह गया था। वह सिर्फ उसे मूक पशु और निरंतर उसकी सेवा के लिए सृजित एक निरीह जीव मानकर चलता था। अतिशय रगड़ से चन्दन जैसा शीतल काठ जलने लगता है। अब किसान भी अग्निमुखी हो चुका था।

सरकार की यह योजना थी कि सारे राज्य में शीघ्र बन्दोबस्त हो और इस बीच की अबधि में निर्धारित लगान सभी से नकद में लिया जाये। राज्य सरकार की 1952 की प्रशासन की रिपोर्ट के अनुसार सारे राजस्थान में 130207 वर्ग मील क्षेत्र में 67295 वर्ग मील में बंदोबस्त हो चुका था। 24352 वर्ग मील में कार्य चल रहा था था शेष क्षेत्र में बाकी था। राजस्थान कृषि लगान नियंत्रण


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अधिनियम विधान सभा के प्रथम अधिवेशन में ही पास हो चुका था। वह 15 मई 1952 के गजट में प्रकाशित हुआ था।

राजस्थान विधानसभा में अपनी सरकार की उपलब्धियों की चर्चा करते हुए तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री टीकाराम जी पालीवाल ने एक वक्तव्य दिया था जिस के कुछ अंश निम्न प्रकार हैं:-

"राजस्थान की जनता में असुरक्षा की भावना से उत्पन घबराहट दूर हो गयी है। उनकी जान माल को अब किसी प्रकार की आशंका नहीं है। अनेक कुख्यात डाकूओ का सीधा मुकाबला किया जाकर सफाया किया जा चुका है। अपराधों की संख्या पर्याप्त रूप से घट गई है। ऐसे सामन्ती तत्वों की जिनका जघन्य अपराधों में सीधा हाथ था समुचित खबर ली गई है। जनता की भगदड और भीरुता की भावना दूर करके नैतिक स्तर ऊपर उठाया गया है। पुलिस को आधुनिक हथियारों से लेस किया गया है।"

जहा तक डाकुओं के सफाये की बात थी व्यक्तव्य ठीक था। पर सामन्ती तत्वों को सबक सिखाने की बात सत्य से दूर थी जैसा की आगे घटने वाली घटनाओं ने सिद्ध किया। मार्च 1952 से सितम्बर 1952 तक राजस्थान के विभिन्न भागों में 290 डाकुओं को मारा गया था पर अपहरण की घटनायें फिर भी हो रही थी। जून में झुंझुनू जिले में मलसीसर के सेठ बेनी प्रसाद को डाकू उठा ले गए थे। इसी प्रकार सितम्बर में डाकू ओंकार मल वैद्य को पकड़ कर ले गए थे।

संघर्ष की चरम परिणति

राजस्थान विधान सभा का प्रथम अधिवेशन 29 मार्च से प्रारम्भ होकर 24 अप्रैल 1952 तक चला था। इस अधिवेशन में अनेक लोक कल्याणकारी विशेष कृषक कल्याणकारी अधिनियम बनाये गए थे। जागीरी व्यवस्था राज्य में अन्तिम श्वास ले रही थी। बुझते हुए दीपक की तरह इसका प्रकाश खतरनाक रूप निरन्तर हो रहे संघर्ष को रोकने के लिए सम्बंधित वर्ग जिसमें जिले का प्रशासन भी शामिल था कोई समझौते का मध्यम मार्ग निकाल रहे थे। श्री करणीराम ने


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शुद्ध ह्रदय से समझौता प्रस्ताव का स्वागत किया था और इसके लिए वे प्रयत्न भी कर रहे थे। उन्होंने सभी कार्यकर्ताओं को भी यह आदेश दिया कि वे समझौते का मार्ग प्रशस्त करें। उन्होंने अपने साथी श्री रामदेव को जगह-जगह भेजा ताकि वे समझौते के लिए अनुकूल वातावरण पैदा करें।

जागीरदारों का मन अब भी साफ नहीं था। वे श्री करणीराम जी और उनके साथी रामदेवसिंह जी को मार्ग का कांटा मानते थे। उनकी मान्यता थी कि इन्हीं का बल पाकर सदियों से मूक पशु की तरह बर्ताव करने वाला कृषक आज उन्हें और उनके अधिकारों को चुनौती ही नहीं दे रहा वल्कि मुकाबले पर उतर आया है। वे इस मार्ग के कांटे को सदा के लिए हटा देना चाहते थे। इसके लिए उन्होंने समझौता वार्ता का आवरण फैलाया था।

झाझड़ गांव का संघर्ष

आम चुनावों के बाद 16-4-52 को झाझड़ गांव में रात के वक्त भौमियों एवं काश्तकारों की मुठभेड़ से जागीरदार-काश्तकार संघर्ष के एक नए अध्याय का सूत्रपात हुआ। लगान बन्दी आन्दोलन ने एक नया निश्चित मोड़ लिया। चुनावों के प्रचार ने एवं करणीराम जी के व्यक्तिव एवं उनके सम्मोहक भाषणों ने काश्तकारों के दुर्बल ह्रदय में एक नई वीरता एवं कुछ कर गुरजने की भावना जाग्रत कर दी थी। करणीराम जी ने मिट्टी के माधो को पहलवान बना दिया था। काश्तकार अपनी दुर्बलता,हीन भावना एवं मरीयलपन को छोड़कर अपने अधिकारों की प्राप्ति एवं स्थापना के लिए संघर्ष के लुए उठ खड़े हुए थे। झाझड़ गांव में काफी संख्या में जागीरदार और उनके डावड़े एवं दरोगे इकठ्ठे हो गए थे। माली काश्तकार भी काफी संख्या में एकत्रित हुए। दोनों और से जोरदार भिड़न्त हुई और काश्तकारों ने जागीरदारों के दांत खट्टे कर दिए। वे मैदान छोड़कर भाग गए। एक राजपूत शलम सिंह का हाथ भी तोड़ दिया था और जागीरदारों के कई लोग घायल हो गए थे।

यह पहला मौका था जब काश्तकारों ने जागीरदारों का प्रतिरोध कर संगीन मुकाबला किया और उन्हें शिकस्त दी। किसान की ताकत का यह एक तगड़ा विस्फोट था। अब तक काश्तकार गरीब मैमने की तरह जागीरदारों का शिकार


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ही हुआ करता था। इस मौके पर उस गरीब मैमने ने शेर का रूप धारण किया।

यह संघर्ष जागीरदारों के लिए आँख खोलने वाला था। जागीरदार यह सोच ही नहीं सकते थे कि माली काश्तकार भी उनका मुकाबला कर उन्हें पराजित कर सकते है। अब उनके मन में पक्की जंच गई कि किसान की ताकत का मूल आधार करणीराम जी व रामदेवसिंह जी है। उन्होंने इस मूल आधार को ही समाप्त करने का निश्चय किया। उन्होंने सोचा कि करणीराम जी को खत्म करने पर ही काश्तकारों को दबोच कर रखा जा सकता है। लोगों का कहना है कि इस झाझड़ कांड के बाद जागीरदारों ने गुप्त मंत्रणा कर उदयपुरवाटी में करणीराम जी को वार्ता के लिए आमंत्रित किया था। आगे घटित होने वाले तथ्यों एवं परिस्थितियों से उनकी इस योजना का संकेत एवं अनुमान मिलता है।

किशोरपुरा-चंवरा की घटना

राज्य सरकार की इस घोषणा से कि जागीरदार काश्तकारों से उपज का 1/6 हिस्सा से अधिक नहीं ले सकेंगे उदयपुरवाटी क्षेत्र में एक भयंकर उबाल एवं उद्धेलन की स्थिति बनी। सारा वातावरण तनावपूर्ण एवं विस्फोटक बन गया। इस अशांतपूर्ण स्थिति से निपटने के लिए जिला प्रशासन, जागीरदारों एवं काश्तकारों में समझौता वार्ता का सिलसिला आरंभ हुआ और जागीरदारों ने जैसा ऊपर लिखा जा चुका है करणीराम जी को बातचीत के लिए उदयपुरवाटी आमन्त्रित किया।

दिनांक 8-5-52 को उदयपुरवाटी के कांग्रेस के दफ्तर में करणीराम जी के साथ रामदेवसिंह जी, भागसिंह जी तथा अनेक कार्यकर्ता एकत्रित हुए। उस समय करणीराम जी के पास पुकार लेकर अनेक गरीब काश्तकार चंवरा की तरह से इकट्ठे हो रहे थे और काश्तकारों ने कहा कि जागीरदार लाटे लूट रहे हैं, आप लोग हमारी मदद पर आवे। करणीराम जी ने भाग सिंह जी व रामदेव सिंह जी को चंवरा जाने के लिए कहा और साथ में इकट्ठे काश्तकारों को भेजा। करणीराम जी स्वयं उदयपुरवाटी रह गए और बाद में झुंझुनू चले गए। भागसिंह जी 8.5.52 को


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ही चंवरा के लिए रवाना हो गए और रात्रि में चंवरा पहुंच गए। उनके पहुंचते ही दो-तीन सौ काश्तकार रात में ही इकट्ठे हो गए व भोलाराम माली नगेड़ा की ढाणी में ठहरे। "ओपरा" आदमी देखकर जागीरदार भी चौकन्ने हो गए और उन्होंने आकर गाली गलोच करना शुरू कर दिया और भोलाराम को मारने की धमकी देने लगे। जागीरदारों ने समझा कि कोई कांग्रेसी आ गया है और ये लोग सभा करेंगे और काश्तकारों को बहकायेंगे। रामदेवसिंह जी भी रघुनाथपुरा पोसणा आदि गांवों में होते हुए सैकड़ों काश्तकारों को साथ लेकर 9-5-52 को करीब 12 बजे चंवरा पहुंच गये। बाहर के काश्तकारों की ताकत को देखकर स्थानीय काश्तकार भी काफी इकट्ठे हो गए। सभी काश्तकार किशोरपुरा, चंवरा की सरहद पर पीपल के पेड़ के नीचे इकट्ठे हो गये। उधर जागीरदार जो पिछली रात से ही चौकन्ने हो रहे थे अपनी तैयारी में लग गये और दीपुरा, चंवरा, किशोरपुरा, कंकराणा आदि गाँवों के बहुत से जागीरदार अस्त्र-शस्त्र से सज्जित होकर इकट्ठे हो गये। आक्रमण के लिए पूरी तैयारी कर जागीरदार पीपल के पेड़ की तरफ बढ़ने लगे जहां रामदेवसिंह जीभागसिंह जी काश्तकारों के साथ बातचीत कर रहे थे। जागीरदारों ने रामदेवसिंह जी व भागसिंह जी को खत्म करने का पूरा विचार कर लिया था और वे इस विकराल रूप से आगे बढ़ रहे थे जैसे एक भयंकर युद्ध क्षेत्र में दुश्मन पर हमला करने जा रहे हों। उनका आकस्मिक, भयानक और विशाल संख्या में बढ़ती फौज को देखकर रामदेवसिंह जी व भागसिंह जी हक्के बक्के रह गये और उन्हें बचाव का कोई रास्ता नजर नहीं आ रहा था क्योंकि स्थानीय काश्तकार निर्बल और भयभीत थे। देवयोग से इतने में ही सशस्त्र पुलिस की गश्ती टुकड़ी एक ट्रक में वहा पहुंच गई जिसकी वजह से जागीरदार सहम गए। सशस्त्र पुलिस ने रामदेवसिंह जी व भागसिंह जी के चारों और सुरक्षात्मक घेराबन्दी कर दी और मशीनगन तथा बन्दूकों को जागीरदारों की तरफ तान दिया और सिपाहियों ने मोर्चा ले लिया जिसकी वजह से राजपूत आगे नहीं बढे अन्यथा पता नहीं कितने काश्तकार काल क्वलित होते। इसके बाद शाम को सभी जागीरदार पश्चिम की तरफ नाला "वाली" में इकट्ठे हो गये। वह नाला इतना गहरा था की ऊंट भी नजर नहीं आता,उसी "वाली" में जागीरदारों ने चुपचाप मोर्चा ले लिया जिससे पुलिस भी थोड़ी भयभीत हुई और उन्होंने रामदेवसिंह जी व भागसिंह जी को सुरक्षा


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प्रदान कर पुलिस ट्रक में गुढ़ा बावनी पहुंचा दिया। वहीं से 10-5-52 को रामदेवसिंह जी ने कांग्रेस कमेटी झुंझुनू के नाम चिट्ठी दे दी लेकिन वहां किसी ने भी कोई जिम्मेदारी पूर्ण जवाब नहीं दिया और झुंझुनू से कोई भी रामदेवसिंह जी आदि की मदद पर नहीं गया। करणीराम जी उस दिन झुंझुनू में नहीं थे वे इसके पूर्व ही उदयपुरवाटी के लिए रवाना हो गए थे।

किशोरपुरा-चंवरा को 9-5-52 की घटना से स्पष्ट है की करणीराम जी को 11-5-52 के लिए जागीरदारों ने समझौता वार्ता के लिए जो निमन्त्रण दिया था वह महज एक धोखा था और उनकी एक कुटिल एवं छदमपूर्ण चाल थी। रामदेवसिंह जी व भागसिंह जी ने चंवरा यात्रा के दौरान देखा कि गांवों में समझौते वार्ता की कोई भावना नजर नहीं आई। जगह - जगह हर खलिहान पर एक युद्ध का सा दृश्य नजर आ रहा था। समझौते की भावना परोक्ष रूप से भी नजर नहीं आ रही थी। जागीरदार और उनके डावड़े कन्धे पर बन्दूकें व तलवार लटका कर जगह-जगह उनको घूमते नजर आये।

महाभारतकालीन कुरुक्षेत्र का धर्मयुद्ध सारे गांवो में छिड़ गया था। एक तरह से प्रत्येक गांव एवं खलिहान संघर्ष का प्रांगण बना हुआ था। जागीरदार पशु बल से आधा बांटा लेने का प्रयास कर रहे थे और काश्तकार उपज के 1/6 हिस्से से अधिक देने को तैयार नहीं थे। काश्तकार और जागीरदार संघर्ष के लिए आमने सामने खड़े नजर आते थे। जगह-जगह से मारपीट खून खराबे की रिपोर्ट आ रही थी।

किशोरपुरा की घटना एक तरह से 13-5-52 को चंवरा में घटने वाली दुःखान्तिका का पूर्वाभ्यास था। इस घटना से यह भी साबित हो गया की जागीरदार समझौता नहीं बल्कि अन्तिम निर्णायक लड़ाई लड़ने के लिए कटिबद्ध थे। करणीराम जी को उदयपुरवाटी एवं चंवरा बुलाकर समझौते की बात करना स्पष्ट धोखा था, विश्वासघात था एवं उनको मारने का एक कायरतापूर्ण षड्यंत्र था तथा


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उनका इरादा करणीराम जी, रामदेव जी को खत्म कर सारे उदयपुरवाटी क्षेत्र के किसानों को जागीरी अत्याचार, अन्याय एवं उत्पीड़न की भयंकर लपटों से सदा के लिए झुलस देने का था।

उदयपुरवाटी के लिए प्रस्थान

जागीरदारों के निमंत्रण पर करणीराम जी उदयपुरवाटी के लिए अपनी यात्रा 10-5-52 को ऊंट गाड़ी से झुंझुनू आरम्भ की और रास्ते में ननिहाल अजाड़ी गए क्योंकि उनके मामा कालूरामजी की धर्मपत्नी का दो दिन पहिले ही स्वर्गवास हो चुका था। यह भी एक संयोग की बात है की करणीराम जी पर इस मामी का भी अत्यधिक स्नेह था - करणीराम जी इसके दो दिन बाद ही इस दुनिया में नहीं रहे। लोग कहते हैं कि उनकी यह मामी करणीराम जी की मृत्यु को कतई बर्दाश्त नहीं कर सकती थी पर भगवान ने कृपा करके उन्हें करणीराम जी से दो दिन पहिले ही इस संसार से उठा लिया। उन्होंने अपने इरादे से अपने मामा श्री मोहन राम जी को अवगत कराया। मोहनरामजी के पास बराबर समाचार विश्वसनीय सूत्रों से प्राप्त हो रहे थे की अगर करणीराम जी उदयपुरवाटी जायेंगे तो उन्हें मार दिया जावेगा। उन्होंने करणीराम जी को कहा कि जागीरदारों ने बातचीत का केवल बहाना किया है। जागीरदारों का इरादा न तो समझौता करने का है तथा न समझौता करेंगे। उनका इरादा तुम्हें व तुम्हारे साथियों को मारने का है। उन्होंने अपने मामाजी को कहा कि मुझे जागीरदारों ने समझौता वार्ता के लिए बुलाया है अतः जाना होगा। करणीराम जी ने कहा की श्री बी.एल. तनखा जिलाधीश ने भी उन्हें समझौता का प्रयास करने को कहा है। मोहनरामजी ने कहा कि श्री तनखा जागीरदारों का आदमी है अतः उसकी बातों पर विश्वास नहीं करना चाहिये। करणीराम जी ने उन्हें कहा कि मुझे उदयपुरवाटी तो जाना ही पड़ेगा और फिर 12-5-52 को वापिस झुंझुनू आ जाऊँगा। मोहनराम जी ने उन्हें कहा कि तुम वापिस नहीं पाओगे। तुम्हारी लाश ही मुझे वापिस लानी पड़ेगी। लेकिन करणीराम जी अपने इरादे से नहीं हटे और वे 10-5-52 को रात को अजाड़ी से रवाना होकर 11-5-52 को सवेरे उदयपुरवाटी पहुंच गये।

उदयपुरवाटी रवाना होने से पूर्व करणीराम जी व रामदेवसिंह जी 5-5-52


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के आसपास उदयपुरवाटी के मसले पर विचार-विमर्श हेतु जयपुर भी आये थे। यह बात जयपुर से करणीराम जी द्धारा श्री शिवनाथ सिंह को लिखे पत्र से ज्ञात होती है। कुम्भाराम जी ने मुझे बताया कि रात को 10 बजे सरदार हरलालसिंह जी के मकान से करणीराम जी उन्हें फोन कर मिलना चाहा था। इस पर कुम्भाराम जी स्वयं ही उनसे मिलने सरदार जी के मकान पर आ गये। उन्होंने कहा कि जागीरदार शास्त्रों से सजिज्त होकर पहाड़ियों पर फिरते है तथा काश्तकारों को डराते-धमकाते है तथा सभायें नहीं होने देते है। उदयपुरवाटी की खोफनाक हालत का वर्णन किया। 13-5-52 को उन्होंने चंवरा में मीटिंग बुलाई है पर स्थिति अति गंभीर है। कुछ भी अप्रत्याशित घटना घट सकती है। कुम्भाराम जी ने सरदार जी को कहा कि इन लोगों को चंवरा जाने से रोका जाये। लेकिन इस बात के लिए करणीराम जी व रामदेव सिंह जी तैयार नहीं हुए और सरदार जी ने भी उन्हें जाने से रोकना ठीक नहीं समझा। कुम्भाराम जी ने मुझे यह भी बताया कि रात को 12 बजे के आस पास करणीराम जी व रामदेव जी जीप में बैठकर रवाना होने लगे उसके पहिले रामदेव सिंह जी ने उन्हें आवाज देकर बुलाया और कहा कि यह हमारा अंतिम 'जय-हिन्द' है। कुम्भाराम जी ने मुझे बताया कि वे हालात की गम्भीरता को समझ गए थे कि ये दोनों वीर युवक मौत के मुँह में जा रहे हैं पर ये उनके इरादे से विरत न कर सके।

कुम्भाराम जी ने मुझे बताया की प्रथम आम चुनावों के पश्चात जब राजस्थान में कांग्रेस मंत्रिमंडल का निर्माण हुआ उस समय वे श्री करणीराम जी को मन्त्री बनाना चाहते थे क्योंकि करणीराम जी सुशिक्षित, सौम्य एवं राजनीतिक सूझ बूझ वाले होनहार कृषक नेता के रूप में उभर रहे थे। उन्होंने मुख्यमंत्री से तथा अन्य नेताओ से भी विचार-विमर्श कर लिया था परन्तु क्षेत्रीय प्रतिस्पर्धा के कारण यह बात आगे नहीं बढ़ सकी। विधि को कुछ और ही मंजूर था।

करणीराम जी को जयपुर के प्रवास के दौरान किसी बड़े नेता से उदयपुरवाटी की समस्या के समाधान हेतु सक्रिय सहयोग मिला प्रतीत नहीं होता है क्योकि नरोत्तमलाल जी को भी उन्होंने यही कहा कि कोई बड़ा नेता उदयपुरवाटी जाना नहीं


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चाहता अतः उन्हें ही जाना पड़ेगा। श्री ताड़केश्वर जी शर्मा ने भी अपने सस्मरण में इस बात की पुष्टि की है कि करणीराम जी जयपुर से निराश होकर लौटे थे। 10-5-52 को उदयपुरवाटी के लिये रवाना होने के पूर्व श्री करणीराम जी श्री नरोतमलाल जी जोशी से 9 मई को मिले थे। जोशी जी ने उनको मना किया था की चंवरा नहीं जावें। उन्होंने स्मरण दिलाया कि भौमियों ने मेरे साथ भी बहुत अत्याचार किये थे। मैं तो सिर्फ ब्राह्मण होने से बच गया नहीं तो मुझे जान से मार डालते। वैसे जान से मारने में कोई कसार नहीं छोड़ी थी। श्री करणीराम जी का एक ही उतर था कि किसान बेसहारा है वहां कोई बड़ा नेता जाता नहीं है अतः मुझे जाना ही होगा परिणाम चाहे जो हो।

करणीराम को श्री हरनन्दराम वकील एवं विद्याधर कुलहरि ने भी आगाह किया था कि चंवरे में कुछ अघटनीय घटने वाला है। उन्हें यह सूचना जागीरदारों के आदमियों ने दी थी। करणीराम जी का उतर था कि मैं विनाश की आशंका मात्र से कार्यक्रम स्थगित करना नहीं चाहता।

उदयपुर में समझौता वार्ता

11 मई 1952 को उदयपुरवाटी में श्री करणीराम जी को समझौता वार्ता के लिये आमंत्रित किया। उदयपुरवाटी में क्षेत्र के सभी बड़े जागीरदार उदयपुरवाटी में उस दिन एकत्रित हुए। डाकू भी सादा वेष में मौजूद थे।

श्री करणीराम अकेले इस मीटिंग में पहुंचे। जागीरदारों ने उनका स्वागत किया और ऐसा व्यवहार किया मानो उनके प्रति उनके मन में वैमनस्य की कोई भावना नहीं है. बैठक में उपस्थित दो-तीन अंजान व्यक्तियों से उनका परिचय विशेष रूप से करवाया गया. लगान के संबंध में चर्चा हुई. उन्होने कोई विशेष शर्त नहीं रखी। समझौते की इच्छा जाहिर की। सबने यही कहा की हम संघर्ष नहीं चाहते। करणीराम जो तय कर देंगे वह हमें स्वीकार होगा। लगान की शुरुआत करने के लिये चंवरा ग्राम को निश्चित किया गया।

चंवरा उदयपुरवाटी का भीतरी गाँव था। उसके एक और पहाड़ी पंक्ति ने उठाकर गाँव को ढक लिया था। कुल मालियों के घर थे। राजपूत अच्छी संख्या में


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थे। जागीरदारों ने इस स्थल को उद्देश्यपूर्वक चुना था। अन्तस्थित दूर दराज का पहाड़ों से घिरा स्थान उनकी योजना के अतीव अनुकूल था।

इस मीटिंग में श्री करणीराम जी के साथ श्री भगवानाराम तथा श्री चन्द्रा राम दो काश्तकार भी गए थे। ये उदयपुरवाटी के सभी प्रमुख जागीरदारों को जानते थे। उन्होंने अजनबियों के सम्बन्ध में बताया कि वे उदयपुरवाटी के नहीं है। ये वे लोग हैं जिन्हे आपको समाप्त करने के लिये बुलाया गया है। उन्होंने श्री करणीराम को शीघ्र उदयपुरवाटी से हट जाने को अनुरोध किया। यह बात विशेष तौर पर कही कि 13 तारीख को आप चंवरे नहीं आवें। उन्हें भनक पड़ गई थी। बातें करते हुये वे श्री चंद्र सिंह वकील के मकान पर आ गये। श्री करणीराम ने उनकी आशंकाओं को निर्मूल बताया। उनका कहना था की जागीरदार मुझे मार कर क्या लेंगे। मुझे मारने से उल्टा नुकसान ही होगा। दोनों ही पक्ष परेशानी में है अगर बातचीत से कोई समझौता हो तो उससे सम्पन्न करवाना मेरा कर्तव्य है।

चंवरा गाँव दो भागो में बंटा हुआ है। एक भाग एक जगह गाँव के रूप में सामूहिक बस्ती की तरह बसा हुआ है। दूसरा भाग किसान वर्ग का था जो अपने अपने कुंओ पर ढाणियों में बसा हुआ है। किसानों में अधिकांश माली और गुर्जर जाति के लोग हैं। इसी क्षेत्र में दक्षिणी और पूर्वी कोने पर सेडूराम गुर्जर अपने खेत में कुंए पर बसा हुआ था। यह स्थान सेडू की ढाणी कहलाती थी। इसमें तीन चार कच्चे छप्पर आवास के रूप में थे। घर का दरवाजा उतर की और था। दीवार की जगह काँटों की बाड़ थी।

चंवरा के लिए प्रस्थान

किसानों के हित साधन की उनकी लगन अटल थी। वे किसी भय की परवाह नहीं करते थे। किसानों के प्रति उनका अटूट प्रेम सर्व प्रसिद्ध था। उनकी लगन एक साधक की सी लगन थी ,जिसे माया,ममता,मोह,भय,रोक नहीं सकते थे अब तो बात फैल गई,जानत सब कोई,मीरा प्रभु लगन लागी होनी सो सौ होई का मूल मंत्र लेकर वे करणीय पूर्ति में लग गये थे।


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11-5-52 को जागीरदारों से बातचीत करने के बाद करणीराम ने रात को चन्द्र सिंह वकील के मकान पर विश्राम किया और सवेरे 12-5-52 को चंवरा के लिये प्रस्थान कर गये। 12-5-52 को रात को करणीराम जी बड़ की ढाणी में विश्राम किया। उनके साथ रतीराम, चुन्नीलाल व गंगाराम पोसाणा भी थे। करणीराम जी ने रतीराम जी पोसाणा वाले के ऊंट पर ही सवारी की थी। भाग सिंह जी करणीराम जी से बड़की ढाणी में ही मिले थे। रामदेव सिंह जी काणिका की ढाणी में ठहरे थे वहां उनके साथ राम सिंह जी व झाबर सिंह जी थे। भागसिंह जी उस दिन चंवरा की ढाणियों से दौरा करके लौटे थे। उन्होंने करणीराम जी को बताया कि चंवरा में राजपूत खलिहान लूट रहे हैं और काश्तकार बड़े भयभीत है। इस पर करणीराम जी ने उसी समय ऊंट पर कूंची मांड कर चलने के लिये कहा और भागसिंह जी को कहा कि अभी रामदेव सिंह जी को बुलाकर लाओ। उस समय काफी रात हो गई थी। बड़की ढाणी और काणिका की ढाणी पास पास ही है। भागसिंह जी जब रामदेव सिंह के पास गये तो रामदेव सिंह जी ने कहा सुबह चलेंगे और उन्होंने भागसिंह को अपने पास ही सुला लिया।

सुबह होते ही 13-5-52 को करणीराम जी व रामदेव सिंह जी चंवरा के लिए रवाना हो गये। करणीराम सीधे ही [[Chanwara|चंवरा]] के लिए रवाना हो गये। और रामदेव सिंह जी को निर्देश दिया कि वे रास्ते के काश्तकारों को इकट्ठे करके अपने साथ चंवरा लावे। करणीराम जी के साथ भागसिंह जी,रतीराम जी पोसणा रामसिंह जी व झाबर सिंह जी पैदल चले और करणीराम जी ऊंट पर सवारी की चंबरा के पास ज्ञानाराम जी माली की ढाणी में करणीराम ने थोड़ा विश्राम किया लेकिन वह कोई खास आराम नहीं कर पाये क्योंकि उनका दिल काश्तकारों के पास फौरन पहुंचने को हुआ। उन्हें पता चला कि काश्तकार सेडूराम गुर्जर की ढाणी में खेजड़ी के पेड़ के नीचे इकट्ठे है अतः वे भी उसी वक्त उसी स्थान के लिए रवाना हो गये।

खेजड़ी के पेड़ के नीचे बड़ी संख्या में एकत्रित थे। उन्होंने उनको अपने बीच पाकर बड़ी सुरक्षा एवं संतोष महसूस किया क्योंकि क्योंकि जागीरदार दिन दहाड़े जबरन उनके खलियानों को लूट रहे थे और सरकारी अधिकारियों को लाटों का कुंत नहीं करने दे रहे थे। भागसिंह जी ने मुझे बताया कि 12-5-52 को श्री आर. डी. गुप्ता उप. खण्ड अधिकारी व उदयपुरवाटी का तहसीलदार चंवरा में मौजूद थे और उन्होंने


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खलियानों की कुंत करने के लिए अथक प्रयास किये लेकिन दिनभर दो खलियानों की कुंत भी नहीं कर सके क्योंकि जागीरदारों का बड़ा भय था और वे इस कार्य में बराबर विघ्न डालते गये। सरकारी अधिकारी भी जागीरदारों का कुछ नहीं कर पाते थे। वे भी कई दफा डरके मारे हाथ में जूते लेकर कायर की तरह भाग जाते थे।

करणीराम जी ने पेड़ के नीचे इकठ्टे काश्तकारों से बातचीत आरम्भ की और उनका दुःख दर्द सुना। उन्होंने काश्तकारों को हिम्मत बंधाई और कहा कि घबराने की जरुरत नहीं मैं तुम्हारे पास आ गया हूँ। जागीरदारों से राजीनामा की बात चल रही है। आज इन्द्र सिंह जी पौंख वाले बातचीत के लिये आयेंगे। जागीरदारों को आप चौथा बांटा दे दें और उसकी बजाय आप लोगों को लगान की रसीद मिल जायगी और वह रसीद जमीन के कब्जे का सबूत बन जायेगी और जल्दी ही पैमाईश होकर तुम्हे पक्के पट्टे मिल जायेंगे। उन्होंने यह भी कहा कि में हमेशा तुम्हारे साथ रहूंगा। कृषकों को इस से बड़ा सहारा मिला। उनकी उपस्थिति से सहसा वे भयहीन एवं आश्वस्त हो गये थे। अप्रत्याशित की और किसी का ध्यान ही नहीं था। वे वट वृक्ष की शीतल छाह में बैठे थे जिसके हरे हरे पते हवा में लहरा रहे थे। आज भी यह वृक्ष उस कूक्रम की साक्षी के रूप में खड़ा है जिसने एक पर दुःख कातर महा मानव की इहलीला हटात समाप्त कर दी थी। हवा से हिलकर चरमराती हुई इसकी शाखायें अपनी अंतर्वेदना को अब भी प्रकट करती है। पर इस मूक कुन्दन को सुनने समझने वाले कितने है ?

काश्तकारों ने उनकी बात को स्वीकार कर लिया। जब यह बात हो रही थी उस समय कुँए के पास ही गोवर्धन सिंह उनसे मिला और कहा की आप जैसा कहेंगे वैसा फैसला कर देंगे। आप यही रहना और कहीं मत जाना में इन्द्रसिंह पौंख को बुलाकर ला रहा हुँ। लेकिन गोवर्धन सिंह इन्द्रसिंह को बुलाकर नहीं लाया। उनका कोई दूसरा ही षड्यंत्र था। इसी समय रामदेव सिंह बहुत से काश्तकारों को अपने साथ लेकर करणीराम


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जी के पास पहुंच गये और करणीराम के पास सेडूराम के छपरे में विश्राम करने के लिये आ गये। ढाणी के बाहर काफी काश्तकारों का जमाव था। छपरे में करणीराम जी के साथ भागसिंह जी। हेमताराम गुर्जर, चंद्राराम माली,सेडूराम गुर्जर आदि थे। धूप अधिक पड़ने की वजह से जो काश्तकार इकट्ठे हो रहे थे अलग अलग ढाणियों में विश्राम के लिये चले गये। रतीराम जी पोसाणा, गंगा राम जी, झाबर सिंह, रामदेव सिंह जी आदि भी आस पास की ढाणी में आराम करने के लिये चले गये। इंद्र सिंह पौंख या अन्य कोई जागीरदार काफी इन्तजार करने के बाद भी नहीं आये तो करणीराम जी ने भाग सिंह जी को कहा कि जो बल खलिहानों की लूटपाट जागीरदारों ने की है उसकी रिपोर्ट तैयार करवाये लेकिन उस समय किसी के पास दवात कलम नहीं था। अतः भागसिंह जी 2-3 आवडी दूर पड़े सुरक्षा दल की टुकड़ी के पास कलम दवात लेने के लिये चले गये। जब वे सुरक्षा पार्टी के पास कलम दवात का इन्तजाम कर रहे थे उस समय उन्हें पीछे से बन्दूक चलने की आवाज सुनवाई दी।

शेखावाटी के जागीरदार करणीराम जी पर इस बात से बेहद नाराज थे कि वे बराबर किसानों को सहयोग देकर उनके विरुद्ध उकसा रहे हैं और आधा लाटा देने में बराबर रुकावटें डाल रहे है। उदयपुरवाटी में चुनाव अभियान के समय श्री करणीराम के औजस्वी स्वरूप को उन्होंने पहिचान लिया था। उनके जनसेवा के कार्य में उन्होंने अपने वर्चस्व का अंत देखा था। ऐसी स्थिति में किसी न किसी तरह उनको खत्म करना ही उन्होंने अपना उद्देश्य बना रखा था। श्री करणीराम को चंवरा बुलाकर वे अपना गर्हित उद्देश्य पूरा करना चाहते थे। भाग्य से चिरप्रतिक्षित अवसर उनको मिल गया था।

करणीराम जी चुनाव के समय निरन्तर उदयपुरवाटी के क्षेत्र में बराबर घूमे थे। जागीरदारों,भौमियों से अनेक जगह टकराये थे,उनका खुलकर विरोध भी किया था। कई जगह वे बिना सुरक्षा के जागीरदारों के अन्तस्थित स्थानों पर भी हो आये थे। भौमिये बंदूकें लिए उनके चारों और फिरते रहते थे पर उन पर हाथ उठाने की हिम्मत उनकी नहीं हुई थी। चुनावों के समय उम्मीदवार पर हमला करना एक गम्भीर बात थी। उसके प्रतिफल से जागीरदार अनभिज्ञ नहीं थे अतः


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बहुत चाहते हुए भी वे श्री करणीराम जी को अपने रास्ते से नहीं हटा सके थे। उनका मन चाहा अवसर भाग्य ने अब ला दिया था।

चंवरा में स्थिति उतनी अनुकूल नहीं थी। एक और किसान बड़ी संख्या में साथ थे दूसरी ओर सुरक्षा दल पड़ा था। ऐसी स्थिति में अपने गर्हित उद्देश्य की पूर्ति में भौमिये सफल नहीं हो सकते थे। जब करणीराम जी सेडू राम की ढाणी में आराम करने चले गए और दूसरे लोग सूर्य के प्रखर ताप से बचने के लिए इधर-उधर बिखर गए तो भौमियों को अनुकूल अवसर मिल गया था। सुरक्षा दल भी किसी भावी दुर्घटना के प्रति पूर्ण रूप से आस्वस्थ नहीं था। उस समय तक जागीरदारों ने शक्ति का प्रदर्शन भी नहीं किया था।

भाग सिंह जी के जाते ही जागीरदार अपने पूर्व सुनियोजित षड्यंत्र के अनुसार पास ही पहाड़ी के उस पार से रवाना होकर सेडूराम की ढाणी में आकस्मिक रूप से छुपते हुये पहुँचे। जागीरदार सेडूराम की ढाणी के पास ही स्थित कैरों के जोड़ में से होकर आये। सेडूराम की ढाणी के पास ही एक एक बहुत बड़ा बालू का टीबा है अतः जागीरदार अपने आपको आसानी से छुपाते हुये सेडूराम के छप्पर में अचानक पहुँच गये। जँहा करणीराम जी व राम देव जी आराम कर रहे थे। सेडूराम की लड़की नारायणी देवी ने थोड़ी दूर पर आते हुये आक्रमणकारियों को देख लिया और उसने करणीराम जी व रामदेव जी को आगाह भी कर दिया था कि जागीरदार आपको किसी भी कीमत पर जिन्दा नहीं छोड़ेंगे। लेकिन दोनों नेता पूर्ण रूप से आश्वस्त थे कि अगर कोई अनहोनी होगी तो लोग जिस रास्ते पर गए है उसी पर हम भी चले जायेंगे : "हतोवा प्राष्यसि स्वर्ग जितोवा भौक्षष्यसैमहीन" वाली बात थी। जागीरदारों का आक्रमणकारी गिरोह आगे बढ़ रहा था। धूप की प्रंचडता से सारे क्षेत्र में निरह शांति थी और जीवन की कोई हलचल नजर नहीं आ रही थी। मई का सूर्य अपनी प्रखर किरणों का जाल लिये पूरी तरह तप रहा था। ऐसे समय में अपने आपको छिपाते हुए जागीरदार अपने घिनौने इरादे से छप्पर के नजदीक बढ़ने लये जहां करणीराम जी व राम देव जी विश्राम कर रहे थे। दो शस्त्रधारी घोड़े पर सवार, हाथ में बन्दूक लिए हुए आये और बन्दूक से


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बहुत पास से गोलियां छोड़ी। रक्त की धारा बहने लगी। गोलियां इतने करीब से दागी गई थी कि दोनों के कपड़े झुलस गये। दोनों के शरीर प्राणहीन होकर उसी खाट पर लुढ़क गये जिस पर वे आराम कर रहे थे। थोड़ी ही देर में भागसिंह गोलियों की आवाज सुनकर वहां पहुंचे। सुरक्षा दल की पलाटून घटना स्थल के नजदीक ही पड़ाव डाले हुई थी। भयंकर गर्मी के कारण सभी लोग विश्राम कर रहे थे। गोलियों की आवाज सुनकर संतरी ने कमान्डेंट व जवानों को सतर्क किया पर उन्होंने कोई ध्यान नहीं दिया। थोड़ी देर बाद जब घटना स्थल पर काफी काश्तकार इकट्ठे हो गये तो पुलिस दल मोके पर पहुंचा लेकिन उस समय तक सभी अपराधी भाग निकले। इसके थोड़ी देर बाद ही उप-खण्ड अधिकारी उदयपुरवाटी भी घटना स्थल पहुंच गए। करणीराम जी के 5 गोलियां लगी दो सीने पर, एक पेट पर एवं दो पेट के नीचे भाग पर। रामदेव सिंह जी के एक पसवाड़े पर 5 गोलियां लगी हुई थी और एक गोली दीवार में चली गई थी। गोलियां इतने नजदीक से दागी गई थी कि उनके कपड़ों से आग लग गई थी जिसे भाग सिंह जी ने लौटकर बुझाया।

कुछ ही क्षणों में बिजली की गति से यह समाचार फैल गया। पुलिस को यह इतला दी गई। आततायी पुलिस के आने से पहिले ही भाग चुके थे। पुलिस ने पीछा किया, पर कोई नहीं मिला। शायद पुलिस भी अपने कर्तव्य के प्रति सचेत नहीं थी। यह भी विचारणीय विषय है कि जब करणीराम जी लोकप्रिय मन्त्रियों को उदयपुरवाटी की अति अशान्त एवं खौफनाक हालत वर्णन की तो क्यों नहीं पुलिस की समुचित व्यवस्था की गई तथा जिला प्रशासन में ऊंघता रह गया। पास में पड़ी आर. इ. सी. प्लाटून ने क्यों लापरवाही बरती।

शहीदों के चारों और हज़ारों की संख्या में लोग एकत्रित हो गये। इस ह्रदय में विदारक समाचार को सुनकर किसान अतीव दुखी हुए। उनके रक्षक उनसे छीन लिये गये थे। दूर-दूर से लोग आने लगे। रात होते-होते अपार भीड़ जमा हो गई। जिलाधीश समाचार पाकर शीघ्र चंवरा पहुंचे।

उधर जयपुर में सूचना मिलने पर सरदार हरलाल सिंह, श्री कुम्भा राम आर्य,


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राजस्थान के महानिरीक्षक पुलिस चंवरा पहुंचे। भीड़ धीरे-धीरे बढ़ती जा रही थी। यह एक तरह का मानव समुद्र था जो प्रतिपल उमड़ रहा था। लोगो में उत्तेजना फैल रही थी। नेताओं ने उपस्थित भीड़ को सम्बोधित किया। श्री कुम्भा राम ने कहा कि करणीराम अमर है। वे भौमिये मर गये जिन्होंने करणीराम व रामदेव के सीने पर गोलियां मारी हैं।

उधर झुंझुनू में इस दुखद समाचार के पहुंचने पर शोक छा गया। गाड़ियां लेकर जिलाधीश के साथ नेतागण रवाना हुये। जाने के लिए मार्ग पर लोगों की भीड़ लगी हुई थी। 35 मील का फासला तय कर चंवरा पहुंचा गया। लोगों में प्रतिशोध की भावना उबल रही थी। कुछ भी अप्रत्याशित घटना घट सकती थी। हत्यारे भाग चुके थे। शहीदों के मृत शरीर गाड़ी पर रखे गये और दाह संस्कार के लिए झुंझुनू ले जाने के लिए काफिला रवाना हुआ।

इस प्रकार श्री करणीराम और उनके अन्य साथी श्री राम देव सिंह कृषकों की सदियों की पीड़ा, अत्याचार का प्रतिकार करते जागीरदारों के जुल्मों का मुकाबिला करते हुए अनन्त पथ के पथिक हो गये। मृत्यु के समय वे युवक थे। श्री करणीराम ने सिर्फ 38 बसन्त देखे थे। रामदेव जी उनसे भी छोटे थे। कमर्ण्य जीवन बड़ी शीघ्र गति से इस धरातल पर अवतरित होता है और बिजली की सी कौंध फैलाकर परमपद में लीन हो जाता है। वे मुहूर्त मात्र में जलकर समाप्त हो जाते है। अनन्त समय तक घुमायित होना उन्हें नहीं सुहाता। वे जिस पथ के पथिक थे वह पथ कांटो से भरा हुआ था। उन्होंने जीवन की कठिनाईयों से जानबूझ कर आलिंगन किया। परिवार का मोह, स्वजनों का प्यार,लौकिक संसार सभी उन्हें कर्तव्य पथ से नहीं रोक सके थे। ऐसे ही निस्वार्थी लोक हितैषियों को लक्ष्य कर कबीर ने कहा था।

"कबीर खड़ा बजार में लिये लुकाटी हाथ,

जो घर फूंके आपना, सो चले हमारे साथ।"

वस्तुत: यह घर फूंक तमाशा देखने की बात थी। मानव की जिजीविषा बड़ी प्रबल होती है। अपने सारे कार्य कलाप, भौतिक सम्पर्क, दैनिक जीवन के


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घात-प्रतिघात, स्नेह सम्बन्ध वह इस पर निछावर कर सकता है। इस जीवन रेखा को उन्होंने स्वतः ही मिटा दिया था।

वे जानते थे की मरण अवश्यभावी है। मानव अमर नहीं रहता। परम-पिता की कृपा से ये शुभ अवसर उन्हें मिला था, जिसका समुचित उपयोग कर वे अपना करणीय कर गये। पर दुखकातर महामानव हँसते हुए स्वधाम लौट जाते हैं और लोग उनकी याद कर आंसू बहाते रहते है। यही लौकिक मर्यादा है।

सामान्य जन भौतिक बन्धनों से जकड़ा हुआ रहता है। उसे लौकिक संसाधनों अपरिमित मोह ममत्व असामान्य जन विपरीत आचरण वाले,विपरीत ध्येय लिए होते है। यह जीवन उद्देश्य की विभिन्ता ही उन्हें मानव से देव बना देती है। ऐसे ही स्वधर्म पर प्राण निछावर करने वाले देव तुल्य महामानवों की प्रशसित में राष्ट्रकवि का उद्धघोष हुआ है ----

मनुज दुगध से देव सुधा से दनुज रक्त से जीते है।

किन्तु हलाहल भव सागर का शिव शंकर ही पीते है।


ऐसे ही बलिदानों, वीरों की स्मृति में श्रद्धासुमन चढ़ाते हुए गुरुदेव ने कहा है "मरण सागर के उस पार अनन्त यात्रा के पथिक हम तुम्हारा स्मरण करते है। " जनजन को तुम मुक्तिसुधा पिला गये। हम तुम्हारा स्मरण करते हैं। सत्य की वरमाला से वसुधा को तुम सुशोभित कर गये, हम तुम्हारा स्मरण करते हैं। जो मानवता की वाणी हमारे लिए तुमने छोड़ी है, उसकी जयध्वनि के बीच हम तुम्हारा स्मरण करते है।

जब-जब भी मानव के सामने कठिनाई आई है या किसी प्रकार संकट उत्पन्न हुआ है, तब तक किसी न किसी रूप में कोई महापुरष अवतरित हुआ है और उसने अपने सत्कार्यों और ज्ञान के अक्षय भण्डार द्वारा मानवों का उचित मार्गदर्शन किया है। अपनी उज्जवल यश पताका सर्वदा के लिए फहराती छोड़कर अनुकरण की प्रेरणा देते हुए वे अमर हो गए है। यह परम्परा विश्व के इतिहास में हमेशा लिखी गई है एवं लिखी जावेगी।


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विधि का विधान भी कठोर होता है। बड़े परिश्रम से सृजित अपनी कृति को वह अनायास ही भंग कर देता है यह उसकी अपण्डितता और बालिशता है।

सृजित तावदशेष गुणाकर, पुरुष रत्नमलकरणं भुवः।

तदपि तत्क्षण भंगि करोति चेंदहह कष्टमपणिडतता विधैः।

विधाता अजीव गुणशाली पुरुष को जो पृथ्वी का श्रृंगार होता है निर्मित करता है पर अचानक इस स्वनिर्मित अद्धितीय मूर्ति को नष्ट कर देता है। यह विधाता की अपण्डिता और उसका बचपन निश्चय ही कष्टकारक है।


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