User:Lrburdak/My Tours/Tour of South India
Author:Laxman Burdak, IFS (R), Jaipur |
लेखक द्वारा 'भारतीय वन अनुसंधान संस्थान एवं कालेज देहरादून' में प्रशिक्षण के दौरान की गई वर्ष 1981-82 में दक्षिण भारत की यात्रा का विवरण नीचे दिया जा रहा है। यात्रा विवरण चार दशक पुराना है परंतु कुछ प्रकाश डालेगा कि किस तरह भारतीय वन सेवा अधिकारियों का 'भारतीय वन अनुसंधान संस्थान एवं कालेज देहरादून' में दो वर्ष का प्रशिक्षण दिया जाता है। दो वर्ष की इस अवधि में कालेज से विज्ञान के विभिन्न विषयों में शिक्षा प्राप्त कर आए व्यक्ति को किस प्रकार से अखिल भारतीय सेवा का एक अधिकारी तैयार किया जाता है। दो वर्ष की प्रशिक्षण अवधि में लगभग 6 महीने का भारत भ्रमण रहता है जिससे देश के भूगोल, इतिहास, वानिकी, जनजीवन और विविधताओं को समझने का अवसर मिलता है. भ्रमण के दौरान ब्लेक एंड व्हाइट छाया चित्र साथी अधिकारियों या आईएफ़सी के फोटोग्राफर श्री अरोड़ा द्वारा प्राय: लिए जाते थे वही यहाँ दिये गए है। कुछ स्थानों की यात्रा बाद में भी की गई थी इसलिये उन स्थानों के रंगीन छाया चित्र भी पूरक रूप में यथा स्थान दिये गए हैं। उस समय की इंडियन फोरेस्ट कालेज (IFC) अब इंडियन फोरेस्ट अकादमी कहलाती है। कुछ वन आधारित कंपनियों के नाम यात्रा विवरण में आए हैं वे वर्तमान में या तो बंद हो चुकी हैं या अपना कार्यक्षेत्र बदल लिया है.
दक्षिण भारत का टूर (22.12.1981 - 17.1.1982)
दक्षिण भारत यात्रा का क्रम : 22.12.1981 देहारादून (21.00) → 23.12.1981 दिल्ली (6.00), 23.12.1981 दिल्ली (20.20) → 25.12.1981 मद्रास (चेन्नई), 25.12.1981 मद्रास (चेन्नई) (21.00) → 26.12.1981 कोयंबटूर (6.00) → 26.12.1981 ऊटी (21.00) → 28.12.1981 मुदुमलाई (तमिलनाडु) (20.00) → 29.12.1981 नीलाम्बुर (केरल) (15.00) → कालीकट → नेदमकायम, 1.1.1982 नीलाम्बुर (8.00) →मैसूर → श्रीरंगपट्टन → बंगलौर (24.00), 5.1.1982 बंगलौर → 6.1.1982 मद्रास (चेन्नई) (5.30) → महाबलीपुरम्, 8.1.1982 मद्रास (चेन्नई) → 9.1.1982 हैदराबाद (8.30) → 11.1.1982 हैदराबाद (22.00) → 12.1.1982 नागपुर (9.30) → 13.1.1982 रायपुर (6.00), 16.1.1982 रायपुर → 17.1.1982 दिल्ली (20.10) → 19.1.1982 देहारादून
देहारादून - दिल्ली - चेन्नई - कोयंबटूर
22.12.1981: देहारादून से रात्रि 21 बजे मसूरी एक्सप्रेस द्वारा यात्रा प्रारम्भ हुई। भारतीय वन सेवा प्रोबेशनर्स के लिए भारतीय रेलवे द्वारा अलग से प्रथम श्रेणी विशेष कोच की व्यवस्था की गयी थी।
23.12.1981: सुबह छ: बजे दिल्ली पहुंचते हैं। हमारा साथी एम. पी. राय पंजाब कैडर मिलने से परेशान है। बोले कि उनके परिचित श्री बालेश्वर राय भारतीय प्रशासनिक सेवा में हैं और यहीं किसी विभाग के डायरेक्टर पद पर हैं। सो मिलने का सोचा। उनसे मिलने 45 राजपुर रोड गए। वहाँ कुछ देर बात-चीत की और चाय वगैरह पी। राय साहब गृह-मंत्रालय जाने के लिए वहीँ रुक गए। मैं और साथी सुरेश काबरा वहाँ से आकर कृषि भवन चले गए। वहाँ श्री एस. के. भार्गव ए. आई. जी. एफ. से मिले। वहीँ राजस्थान कैडर के श्री कपूर ए.आई.जी.एफ. से मुलाकात भी हुई। वे अभी जुलाई में ही यहाँ आये हैं। महाराष्ट्र कैडर के मनमोहन भी मिले। वहाँ से कनाट प्लेस गए जहाँ पर हमारे मित्र के. एन. सिंह से भारत ओवसीज बैंक में मुलाकात हुई। पालिका बाजार और सुपर मार्किट घूमने के बाद शाम 20.20 बजे दक्षिण एक्सप्रेस द्वारा नई दिल्ली से रवाना हुए।
24.12.1981: लगातार यात्रा। दिल्ली से मद्रास के रास्ते में पड़ने वाले मुख्य शहर थे : दिल्ली (20.20)-आगरा- ग्वालियर- झाँसी - बीना - भोपाल- इटारसी - नागपुर - माजरी - वारांगल - काजीपेठ - गुंटूर - गुडुर - मद्रास (चेन्नई) । रास्ते में साथियों से गप-शप के अलावा एक अंग्रेजी का उपन्यास ..... पूरा किया।
25.12.1981: मद्रास (चेन्नई ) पहुंचे। वहाँ से मैरिना बीच देखने गए। यहाँ मद्रास में शर्दी बिलकुल नहीं है। समुद्र तट पर तेज लहरों के साथ बड़ी सुहानी हवा आती है।
25.12.1981: नीलगिरि एक्सप्रेस द्वारा 21 बजे रात फिर कोयंबटूर के लिए यात्रा प्रारम्भ की।
कोयंबटूर - ऊटी भ्रमण
26.12.1981: नीलगिरि एक्सप्रेस से सुबह छ: बजे कोयंबटूर (Coimbatore) पहुंचे।
कोयंबटूर औद्योगिक शहर और मद्रास के बाद दूसरा सबसे बड़ा नगर है। कर्नाटक और तमिलनाडु की सीमा पर बसा शहर मुख्य रूप से एक औद्योगिक नगरी है। शहर रेल और सड़क और वायु मार्ग से अच्छी तरह पूरे भारत से जुड़ा है। दक्षिण भारत के मैनचेस्टर के नाम से प्रसिद्ध कोयंबटूर एक प्रमुख कपड़ा उत्पादन केंद्र है। नीलगिरी की तराई में स्थित यह शहर पूरे साल सुहावने मौसम का अहसास कराता है। दक्षिण से नीलगिरी की यात्रा करने वाले पर्यटक कोयंबटूर को आधार शिविर की तरह प्रयोग करते हैं। कपड़ा उत्पादन कारखानों के अतिरिक्त भी यहां बहुत कुछ है जहां सैलानी घूम-फिर सकते हैं। यहां का जैविक उद्यान, कृषि विश्वविद्यालय संग्रहालय और वीओसी पार्क विशेष रूप से पर्यटकों को आकर्षित करता है। कोयंबटूर में बहुत सारे मंदिर भी हैं जो इस शहर के महत्व को और भी बढ़ाते हैं।
एच. ए. गॉस फोरेस्ट म्यूजियम (Gauss Forest Museum): हमारी बस तो कोयंबटूर स्टेशन पर ही तैयार खड़ी थी जिससे हम एच. ए. गॉस फोरेस्ट म्यूजियम (Gauss Forest Museum) पहुंचते हैं। एच. ए. गॉस (Horace Arichibald Gauss) यहाँ के वन संरक्षक थे जिन्होंने अपना व्यक्तिगत संग्रह प्रारम्भ किया था जो बाद में वर्ष 1902 में एक वन संग्रहालय के रूप में स्थापित किया। यहीं सदर्न फोरेस्ट रेंजर कालेज है और एस. एफ. एस. ट्रेनिंग कालेज भी हैं। यहाँ के प्रिंसिपल ने इस म्यूजियम के बारे में कुछ ख़ास बातें बताई। उन्होंने बताया कि मृत पक्षियों की ट्रॉफी का अच्छा संग्रह है। इनमें हैरियर पक्षी की ट्रॉफी भी है जिसको जनरल पटेरा ने यहाँ देखा था तब अपने अफसरों को हुक्म दिया था कि इसका चित्र बनाया जाये। तबसे एयर फ़ोर्स के अफसरों ने यहाँ आने और इन पक्षियों को देखने का एक नियम सा बना लिया है। वन विभाग स्कूली बच्चों के लिए यहाँ प्रदर्शित पक्षियों के पहचानने की प्रतिवर्ष प्रतियोगिता आयोजित करता है. अधिकांश बच्चे पक्षियों को ठीक-ठीक पहचान लेते हैं और उनके पहचान के लिए पक्षीविद सलीम अली की पुस्तक 'भारत के पक्षी' आधार स्रोत होता है। म्यूजियम के बारे में अन्य बताई गयी बातों में मुख्य हैं: हाथी के बच्चे के भ्रूण की तीन अवस्थाएँ - दूसरे, चौथे और 14वें महीने की संरक्षित हैं। हाथी दांत का जोड़ा है जिसमें महात्मा गांधी का चित्र लगा है। किंग कोबरा की 11.5 फिट लम्बी चमड़ी है। यहाँ चन्दन वृक्ष का तना 1.75 टन वजन का है।
फोरेस्ट म्यूजियम से ऊटी रवाना होकर रास्ते में साउथ इंडिया विस्कोस लिमिटेड फैक्टरी देखी।
साउथ इंडिया विस्कोस लिमिटेड फैक्टरी - साउथ इंडिया विस्कोस लिमिटेड (South India Viscose Ltd.) फैक्टरी में युक्लिप्टस से रेयान कपड़ा बनाया जाता है। नीलगिरि पर्वतों से युक्लिप्टस आता है जो कंपनी लाती है और वन विभाग प्रदाय करता है। युक्लिप्टस की ग्रोथ दश साल में पूरी हो जाती है तब काट लिया जाता है। यह काफी बड़ी फैक्टरी है जहाँ चार हजार मजदूर काम करते हैं। मजदूरों को यहाँ 40 % बोनस दिया जाता है सैलरी रु. 500 – 1200/- तक पड़ती है। यहाँ रैयान बहुत अच्छी गुणवत्ता का बनता है। हमारे लंच का प्रबंध कंपनी की कैंटीन में ही किया गया था।
इसके बाद टैन इंडिया लिमिटेड कंपनी (Tan India Ltd.) देखने गए जहाँ पर वाटल वृक्ष (wattle or acacias) से टैनिन बनाया जाता है।
नीलगिरि पहाड़ियाँ तमिलनाडु राज्य का पर्वतीय क्षेत्र है। यह सुदूर दक्षिण की पर्वत श्रेणी है। इन पहाड़ियों पर पश्चिमी एवं पूर्वी घाटों का संगम होता है। प्राचीन काल में यह श्रेणी मलय पर्वत में सम्मिलित थी। कुछ विद्वानों का अनुमान है कि महाभारत, वनपर्व 254, 15 ('स केरलं रणे चैव नीलं चापि महीपतिम्') में कर्ण की दिग्विजय यात्रा के प्रसंग में केरल तथा तत्पश्चात् नील नरेश के विजित होने का जो उल्लेख है, उससे इस राजा का नील पर्वत के प्रदेश में होना सूचित होता है।
ऊटी पहुंचते-पहुंचते रात के 9 बज गए थे इसलिए खाना खाया और सो गए। ऊटी में हम नटराज होटल में रुके।
27.12.1981: ऊटी (Ooty) या ऊटकमण्ड (AS, p.104) एक रमणीक पर्वतीय नगर है। ऊटकमण्ड का प्राचीन रूप उदकमंडल कहा जाता है। ऊटकमण्ड को ही सामान्यतया ऊटी कहते हैं। ऊटी का पुराना नाम ऊटकमण्ड और उदगमंडलम भी था।
ऊटी कोयंबटूर से 86 किमी उत्तर में स्थित है. ऊटी नीलगिरि जिले का मुख्यालय है। नीलगिरि जिले से पूर्व में मुख्यत: नीलगिरि के पर्वतीय क्षेत्र हैं। इसमें अनेक पहाड़ी नदियाँ हैं। यहाँ की पहाड़ी नदियाँ मोयार तथा भवानी नदियों में गिरती हैं। यह ज़िला शीतोष्ण कंटिबंधीय तथा तरकारियों के उद्यानों एवं प्रायोगिक कृषि क्षेत्रों से सुशोभित है। यहाँ मक्का, बाजरा, गेहूँ तथा जौ की खेती होती है। यहाँ सिनकोना के बाग़ान हैं। सिनकोना से कुनैन निकालने का कारखाना नाडुबट्टम में है। नीलगिरि ज़िला यूकेलिप्टस, चाय तथा कॉफ़ी के बाग़ानों से परिपूर्ण है। पायकारा जलविद्युत केंद्र प्रणाली का हेडवर्क यहीं पर है। यहाँ के प्रसिद्ध नगरों में ऊटकमण्ड, कूनूर तथा कोटागिरि मुख्य हैं। इस ज़िले की जनसंख्या का 30 प्रतिशत पहाड़ी जातियों का है, जिनमें कोटा तथा टोडा प्रमुख हैं।
ऊटी में हम नटराज होटल में रुके। सुबह जल्दी ही यहाँ के डी. एफ.ओ. नटराज होटल में आ गए थे जो आज हमारे साथ भ्रमण पर जाने वाले थे। उन्होने हमें नीलगिरि के वनों के बारे में जानकारी दी। ऊटी में पहले वनों की ख़ास अवस्था हुआ करती थी। यहाँ नालों में वृक्ष होते थे और पहाड़ों की चोटियों पर सिर्फ घास। इस प्रकार के वनों को सोला वन कहा जाता है। अंग्रेजों ने यहाँ घास की जगह एक्जोटिक पेड़ लगाए जिनमें युक्लिप्टस, वाटल, और पाईन मुख्य हैं। यहाँ की जमीन बहुत उपजाऊ है। यहाँ ज्यादातर लोग सब्जियां ही लगाते हैं। शेष सारी चीजें नीचे के मैदानों से आती हैं। हजारों ट्रक सब्जियां यहाँ से रोज भरकर नीचे मैदानों में जाती हैं। यहाँ पर काफी चाय-बागान और प्रायवेट-फोरेस्ट भी हैं। वनों के बीच हरे-भरे और कहीं-कहीं कटी फसलों का दृश्य मन को मोह लेता है। बस से हम एमेराल्ड बाँध (Emerald Lake) और अवेलांची झील (Avalanche Lake) देखने गए। एक गाँव तक हम बस से गए। उससे आगे बस नहीं जा सकती थी तो दो ट्रक का प्रबंध किया गया और उनमें बैठ कर अवैलांची वनविश्राम गृह पहुंचे। यहाँ पर चाय-पान का प्रबंध किया गया था। यह विश्रामगृह बहुत ही अच्छी जगह पर बना हुआ है। एक तरफ काफी नीचे एक झील है और चारों तरफ घना जंगल है जिसमें से पार होना मुश्किल है। दिन के तीन बजे लौटकर आये और फिर लेक पर गए। मुथोराई नर्सरी (Muthorai Nursery) देखी। इसमें यूकेलिप्टस (Eucalyptus globulus) और पाईन (Pinus patula) के पौधे तैयार किए जाते हैं.यह नर्सरी ऊटी से 5 किमी दक्षिण में स्थित है।
जन-जीवन: यहाँ के लोग काफी सीधे-सादे हैं। ये भाषा सिर्फ तमिल ही समझते हैं। परन्तु अंग्रेजी जानने वाले को कोई दिक्कत नहीं होती है। दुकानों और होटलों में हिंदी भी समझ लेते हैं।
28.12.1981: ऊटी (Ooty) - सुबह आठ बजे जल्दी ही तैयार होकर डोडा-बेट्टा (Doddabetta) चोटी पर गए। यहाँ गेट तक बस जाती है। यह चोटी ऊटी-कोटागिरी मार्ग पर 9 किमी दूर निलगिरी जिले में स्थित है. चोटी की ऊंचाई 8640 फीट है। यहाँ से चारों तरफ का दृश्य बड़ा ही सुहावना दिखाई देता है। पूर्व की तरफ देखिये तो उबलता हुआ समुद्र दिखाई देता है, बादल और पानी की रेखा एकदम मिली दिखाई देती है। यहाँ अलग से देखपाना सम्भव नहीं है कि कहाँ पानी ख़त्म होकर बादल में बदल जाता है। सागर के ऊपर के ये बादल आपसे काफी नीचे दिखाई देते हैं। पश्चिम और उत्तर की तरफ बसा हुआ है ऊटी शहर और आस-पास की छोटी-छोटी बस्तियां। ऊटी की विशेषता दूसरे हिल स्टेशनों की तुलना में यह है कि यह प्लेटो पर बसा हुआ है और इतनी गहरी ढलान नहीं है। पूरा शहर कटोरी की तरह लगता है। उत्तर की तरफ फोरेस्ट रेस्ट हाउस है जो अपनी छटा अलग ही बिखेर रहा है। चोटी से लौटकर सबसे पुराना युक्लिप्टस का वृक्षारोपण देखने गए जो अंग्रेज अधिकारी ट्रूप ने सन 1863 में लगाया था। यहीं है सबसे लम्बा युक्लिप्टस का वृक्ष जिसकी ऊंचाई है 78 मीटर।
बॉटनिकल गार्डन ऊटी: डोडा-बेट्टा से लौटकर हम बॉटनिकल गार्डन देखने गए। 55 हेक्टर में फैला यह बॉटनिकल गार्डन काफी अच्छा है। यहाँ के मैनेजर ने साथ होकर पूरा गार्डन दिखाया। बॉटनिकल गार्डन वर्ष 1848 में स्थापित किया गया था. इसके आर्किटेक्ट William Graham McIvor थे. यह मूल रूप से युरोपियन लोगों को सस्ती सब्जी उपलब्ध कराने के लिए बनाया गया था. इसका रख-रखाव होर्टीकल्चर विभाग द्वारा किया जाता है. बॉटनिकल गार्डन में हजारों की संख्या में देशी और एग्जोटिक वृक्ष और पादप प्रजातियाँ लगाई गई हैं. गार्डन के मध्य में एक वृक्ष का फोसिल रखा है जो 2 करोड वर्ष पुराना माना जाता है. यहाँ की कंजरवेटरी काफी प्रतिष्ठा की मानी जाती है जिसमें सभी तरह के सुंदर बहुरंगी फूलवाले पौधों का संग्रह है।
यहाँ लंच लेकर हम मदुमलाई पहुंचे।
नोट - ऊपर के छाया चित्रों में दिखाये गए श्री सुरेश काबरा इंडियन रिवेन्यू सर्विस (IRS) में चले गए तथा श्री जेएस सहरावत कुछ समय पहले स्वर्गवासी हो चुके हैं।
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Ooty Botanical Garden.28.12.1981
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Ooty Dodabeta Peak.28.12.1981
मुदुमलाई सैंक्चुअरी (तमिलनाडु)
28.12.1981:
मुदुमलाई सैंक्चुअरी (Mudumalai Wildlife Sanctuary): शाम को हम मुदुमलाई पहुँच गए जहाँ का कार्यक्रम पहले से तय नहीं था परन्तु अचानक बना लिया गया था और एक दिन पहले ही पहुँच गए थे फिर भी वहाँ के स्थानीय अधिकारियों ने अच्छा स्वागत किया और रहने की व्यवस्था भी बड़ी अच्छी करदी। रात को वन विश्राम गृह 'लोग हाउस' के वी. आई. पी. सूट में रहने की व्यवस्था हो गयी। मुदुमलाई तमिलनाडु के नीलगिरि जिले में उत्तरी सीमा पर स्थित है। यह कर्नाटक और केरल की सीमा को छूती है। रात को खाने की व्यवस्था वहीँ विश्रामगृह में की गयी थी। खाना मद्रासी था परन्तु खाकर तबियत खुश हो गयी। मद्रास के लोग काफी ठीक लगे यद्यपि यहाँ भाषा की समस्या जरूर है। वनविभाग का प्रभाव भी जनता में अच्छा लगा।
मुदुमलाई बहुत अच्छी सैंक्चुअरी है। इसका प्रचार-प्रसार भी पर्याप्त हुआ है. यहाँ पर्यटक काफी संख्या में आते हैं. पर्यटकों के लिए पर्याप्त संख्या में विश्राम गृह और हट बने हुये हैं. हम लोग हाउस में रुके थे जो सर्वोत्तम साईट मनी जाती है. यहाँ से आस-पास की प्राकृतिक सुंदरता देखते ही बनती है. घूमने के लिए वन विभाग जीप और हाथी उपलब्ध कराता है. हाथी का चार्ज प्रति व्यक्ति रु.5/- लिया जाता है. आप भाग्यशाली होंगे यदि प्राकृतिक वातावरण में बाईसन के दर्शन हो जायें.
29.12.1981: मुदुमलाई सैंक्चुअरी - सुबह 6 बजे ही तैयार होकर रिशेप्शन पर जाना था वहाँ जाकर पता लगा कि डीन साहब अभी आये नहीं। वे दूर के एक विश्रामगृह में रुके थे। वहाँ जीप गयी नहीं इसलिए नहीं आ सके। हम लोग हाथियों पर सवार होकर जंगल निकले। यहाँ का ख़ास आकर्षण बाइसन है जो नहीं देख पाये। करीब दो घंटे की हाथी की सवारी थी। इस बीच कुछ हिरन देखने को मिले।
अनूप भल्ला के साथ एक बड़ी मनोरंजक घटना घटी। श्री अनूप भल्ला को हाथी पर ही पेशाब आने लगा। भल्ला ने महावत से कहा कि मुझे उतार दो। महावत ने कहा यहाँ उतरना ठीक नहीं है। इससे हाथी चिड़ सकता है। कुछ दूर चले पर भल्ला रोक नहीं पाया सो महावत ने हाथी को पेड़ के सहारे लगाया और भल्ला पेड़ पर चढ़कर नीचे उतर गये। पेशाब करके जब वह वापस पेड़ पर चढ़कर हाथी पर चढ़ने लगा तो हाथी ने जोर से आवाज कर के सूंड घुमाई कि भल्ला पेड़ पर ही घबरा गया। इससे एक हाथ पेड़ से छूट गया और दूसरे हाथ से पेड़ को पकड़े रहा। वह पेड़ के चारों तरफ घूम गया और गिरते-गिरते बचा।
घूमकर वापस आये तो किसी ने बताया कि पास ही एक पेड़ पर मरा हुआ तेंदुआ लटक रहा है। वहाँ जाकर देखा तो पता लगा कि कोई तीस मीटर ऊपर पेड़ की दो डालियों के बीच गर्दन से लटक रहा है। पीछे का हिस्सा नोंच रखा था - शायद कौओं ने खाया होगा।
लोग हाउस जिसमें हम रुके थे, के आगे ही गहरी घाटी में नदी बहती है। वहीँ बहुत सारे लंगूर पेड़ों से लटक रहे थे और भांति-भांति की हरकतें कर रहे थे। वहीँ पास ही पटिये पर बैठी हुई इंग्लैंड की महिला मिस एल्ला (Miss Ella) उन लंगूरों का चित्र बना रही थी। हम लोगों ने भी कुछ देर उन लंगूरों की हरकतों को देखा। हमारे समूह ने मिस एल्ला से उनके साथ फ़ोटो खिंचवाने का आग्रह किया और वह तैयार हो गयी। उसके साथ एक फ़ोटो लिया।
मुदुमलाई की समुद्र तल से ऊंचाई 2048 मीटर है। यह ऊटी के बाद दूसरा पठार पर स्थित शहर है। यहाँ तीन सैंक्चुअरी मिलती हैं: बांदीपुर अभयारण्य (Bandipur Wildlife Sanctuary) (कर्नाटक), वायनाड अभयारण्य (Wayanad Wildlife Sanctuary) (केरल) और मुदुमलाई अभयारण्य (Mudumalai Wildlife Sanctuary) (तमिलनाडू), जिनको मिलाकर राष्ट्रीय उद्यान बनाने का विचार चल रहा है। 321 वर्ग किलोमीटर में फैला दक्षिण भारत में अपनी तरह का पहला मुदुमलाई वन्यजीव अभयारण्य केरल-कर्नाटक सीमा पर स्थित है। इस अभयारण्य के पास ही बांदीपुर अभयारण्य है। इन दोनों अभयारण्यों को मोयार नदी (Moyar River) अलग करती है। मैसूर और ऊटी को जोड़ने वाला राष्ट्रीय राजमार्ग इस अभयारण्य से होकर गुजरता है।
मुदुमलाई में वन्यजीवों की अनेक प्रजातियां देखने को मिलती हैं जैसे लंगूर, बाघ, हाथी, गौर और उड़ने वाली गिलहरियां। इसके अलावा यहां अनेक प्रकार के पक्षी भी देखे जा सकते हैं जैसे मालाबार ट्रॉगन, ग्रे हॉर्नबिल, क्रेस्टिड हॉक ईगल, क्रेस्टिड सरपेंट ईगल आदि। फरवरी से जून के बीच का समय यहां आने के लिए सबसे अधिक उपयुक्त है। यहां पर वनस्पति और जन्तुओं की कुछ दुर्लभ प्रजातियां पाई जाती हैं और कई लुप्तप्राय:जानवर भी यहां पाए जाते हैं। हाथी, सांभर, चीतल, हिरन आसानी से देखे जा सकते हैं। जानवरों के अलावा यहां रंगबिरंगे पक्षी भी उड़ते हुए दिखाई देते हैं। अभयारण्य में ही बना थेप्पाक्कडु हाथी कैंप बच्चों को बहुत लुभाता है।
मुदुमलाई (तमिलनाडू) से नीलाम्बुर (केरल)
29.12.1981: मुदुमलाई (11.30) (तमिलनाडू) - नीलाम्बुर (15.00) (केरल)
साढ़े ग्यारह बजे मुदुमलाई से नीलाम्बुर (Nilambur) के लिए रवाना हुए। मुदुमलाई से नीलाम्बुर की तरफ आते समय देखा कि यहाँ घने चौड़ी पत्ती वाले जंगल हैं। पहाड़ी रास्ता है और सारे पहाड़ सघन वनों से आच्छादित हैं। इसी बीच हमने मद्रास की सीमा पार कर केरल में प्रवेश किया। मद्रास के लोग काफी अच्छे लगे। वस्तुओं, ख़ास कर खाने-पीने की चीजों के, दाम काफी कम थे। मद्रास के सभी लोग आमतौर पर काले हैं परन्तु कुछ कम लोग ही गोरे मिलते हैं। केरल के ज्यादातर लोग सामान्य सांवले रंग के हैं।
हमलोग करीब तीन बजे दोपहर नीलाम्बुर पहुंचे। यहाँ जयश्री लाज में व्यवस्था थी। यह छोटासा शहर है और यहाँ कोई ख़ास घूमने की जगह नहीं हैं। प्रायः सभी लोग लूंगी में ही घूमते हैं जिसको ऊपर कर दोहरा कर लेते हैं। यहाँ तक कि स्कूली बच्चे भी यही ड्रेस पहनते हैं। स्कूली लड़कियों की ड्रेस अच्छी लगी जिसमें घाघरा और ऊपर कुर्ती जैसा ब्लाउज है जो लम्बा होकर नीचे घाघरे तक पहुंचता है। यहाँ बहुत गर्मी है और वातावरण नम होने से पसीना सूखता ही नहीं है।
30.12.1981: नीलाम्बुर - नीलाम्बुर केरल प्रांत के मलप्पुरम जिले में चलिहार नदी (Chaliyar River) के मुहाने पर स्थित है. नीलाम्बुर का नाम निलिम्ब (Nilimba) से पड़ा है जो संस्कृत में बांस के लिए प्रयुक्त किया जाता है। नीलाम्बुर के आस-पास बहुतायत में सागौन वन होने के कारण इसको सागौन का कस्बा नाम से भी जाना जाता है.
सबसे पुराना सागौन वृक्षारोपण: हम सुबह जल्दी तैयार होकर विश्व का सबसे पुराना सागौन का वृक्षारोपण देखने निकले जो नीलाम्बुर से 2 किमी दूर स्थित है। बस से उतर कर चलिहार नदी (Chaliyar River) को नाव से पार किया। नदी को यहाँ पूजा कहा जाता है। नदी का दृश्य बड़ा ही सुहाना था। ठीक मुहाने के ऊपर लम्बे-लम्बे पेड़ हैं। नदी को पार करते ही सबसे पुराना टीक का प्लांटेशन मिलता है। समुद्री जहाजों के लिए टीक की अच्छी लकड़ी मिलती रहे इस उद्देश्य से मलाबार के तत्कालीन अंग्रेज कलेक्टर एचवी कोनोली (Henry Valentine Conolly) ने यह प्लांटेशन करवाया था। सन 1846 मे बड़ी कठिनाइयों के बाद उप वन संरक्षक श्री चातुमेनन यह टीक प्लांटेशन करवाने में सफल रहे थे। सबसे बड़ा पेड़ इस समय (वर्ष 1980) 47.50 मीटर ऊँचा है जिसकी गोलाई 4.14 मीटर है. रु. 9000 प्रति घनमीटर की दर से इसकी 4 लाख रुपये कीमत है। बहुत गर्मी और अधिक वर्षा होने से यहाँ का पेड़ जल्दी बढ़ते हैं। इन्हीं कलेक्टर एचवी कोनोली को 11 सितंबर 1855 को मपिल्ला मुस्लिम लोगों द्वारा उनके नेता सैयद फ़ज़ल के ख़िलाफ़ कलेक्टर द्वारा कार्रवाई करने के कारण कालीकट में कलेक्टर निवास पर ही हत्या करदी थी।
30.12.1981: नीलाम्बुर (11.00) - कालीकट - नीलाम्बुर (23.00)
नीलाम्बुर से सुबह 11 बजे कालीकट (Calicut) (केरल) के लिए रवाना हुए। कालीकट में वहाँ के कंजरवेटर मिले जो श्री एन.के. जोशी के बैचमेट हैं। वे हमें मालाबार टाइल फैक्ट्री (Malabar Tile Factory) दिखाने ले गए। बाद में मालाबार प्लाईवुड फैक्ट्री (Malabar Plywood Factory) भी देखी। वहाँ के मैनेजर हमारे साथ रहे और फैक्ट्री दिखाने के बाद ताजा नारियल पानी पिलाया। फिर कालीकट (Calicut) का बीच देखने गए। यहाँ के समुद्र का किनारा इतना सुन्दर नहीं लगा। मछुआरे लोग मछलियां पकड़कर समुद्र से ला रहे थे। समुद्र के किनारे ही इन लोगों की झोंपड़ियां हैं। सारा मुहाना सड़ी मछलियों की गंध से महक रहा था। कंजरवेटर ने चाय-पान करवाया और फिर 8 बजे के करीब वापस रवाना हुए नीलाम्बुर के लिए। आते समय रस्ते में मंजेरी (Manjeri) में खाना खाया। रात के 11 बजे वापस नीलाम्बुर पहुंचे।
31.12.1981: नीलाम्बुर - नेदमकायम (Nedumkayam):
सुबह 12 बजे तक कोई प्रोग्राम नहीं था क्योंकि बस में कुछ गड़बड़ हो गयी थी। फिर लंच लेकर नीलाम्बुर से 14 किमी दूर स्थित नेदमकायम (Nedumkayam) फोरेस्ट रेस्ट हाउस पहुंचे वहाँ पर कंजरवेटर श्री चांदवासी, दो वनमंडल अधिकारी और कई रेंजर हमारा इन्तजार कर रहे थे। चाय-पानी पीकर हमने वहाँ का दृश्य देखा। ब्रिटिश काल में लकड़ी से बना यह विश्रामगृह बहुत ही सुन्दर जगह पर बना था। पास में ही करीम पूजा नदी (Karimpuzha River) बह रही है। नदी पर दो पल ब्रिटिश सरकार द्वारा यहाँ से सागौन के निकासी के लिए बनाये गए थे. यहाँ के हरे भरे रैन फोरेस्ट की छटा देखते ही बनती है. यहाँ से वनों में घूमते हुये हाथी और घास में चरते हुये हिरण बहुत सुंदर दृश्य प्रस्तुत करते हैं. वहाँ से डावसन की समाधी देखने निकले.
डावसन की समाधी नेदमकायम (Dawson Grave Yard): ईएस डॉसन (E. S. Dawson) नामक फोरेस्ट इंजीनीयर 19 वीं शताब्दी में साहसिक जीवन व्यतीत करने के लिए यहाँ आये थे। वर्ष 1931 और 1933 में उन्होंने दो पुल बनाये। वे कनाडा के रहने वाले थे और अच्छे तैराक भी थे। पुल से डाइव किया करते थे। उनकी एक दिन पत्थर से सर टकराने से मौत हो गयी। डावसन की समाधी अब भी वहाँ बनी है जो उनके पसंदीदा सागौन वृक्षों से घिरे स्थान पर बनाई गई है।
हाथी कैम्प नेदमकायम (Elephant Kraal): पास ही हाथी कैम्प है जहाँ 8 हाथी हैं। इनको जंगल से पकड़ा गया था। यहाँ के आदिवासियों ने इनको प्रशिक्षण दिया था। सबसे छोटी हथिनी तीन साल की है। इसका नाम निशा है। निशा ने कई करतब करके दिखाए, यथा माला डालना, झंडा पहराना, लकड़ी के लट्ठे पर चलना, फूटबाल खेलना, माउथ ऑर्गन बजाना आदि। अब क़ानून बनाकर हाथी पकड़ना बंद कर दिया है। यहाँ के आदिवासी पनिया (Paniya tribe) कहलाते हैं।
पनिया आदिवासी (Paniya tribe): यह केरल का सबसे बड़ा जनजातीय समूह है जो मुख्य रूप से वायनाड़ (Wayanad) जिले में और निकट के कर्नाटक के क्षेत्रों में पाये जाते हैं. ये वनों की सीमाओं पर केरल के वायनाड़, कोझिकोड, कन्नूर और मल्लपुरम जिलों में रहते हैं. इनका व्यवसाय कृषि मजदूरी का है. ऐसा माना जाता है कि मलाबार के राजा इनको यहाँ कृषि के लिए लाये थे. यह एक बहादुर जनजाति है.
सेंट्रल फोरेस्ट डिपो नेदमकायम: सेंट्रल फोरेस्ट डिपो नेदमकायम में इमारती लकड़ी के विक्रय की प्रक्रिया समझी। यह विक्रय वन मंडल द्वारा संचालित किया जाता है। इसके प्रभारी एक रेंज अफसर हैं। सौगौन का नीलाम इसी डिपो में किया जाता है जबकि रोज़वूड यहाँ से विक्रय के लिए कालीकट ले जाई जाती है। इस क्षेत्र में 1909 और 1919 के प्लांटेशन को रिटेन किया गया है जो डिपो में भंडारित लकड़ी को छाया प्रदान कर गर्मी से फटने से बचाते हैं।
केरल का जनजीवन: केरल में यह देखा गया कि किसी भी सड़क पर ऐसी जगह नहीं मिलती कि कहीं सड़क के दोनों और घर न बने हों। पूरे रास्ते में सड़क के दोनों और घर बने देखे गए। यह क्षेत्र कम विकसित माना जाता है फिर भी पढ़ाई लिखाई यहाँ भी काफी है। उत्पादन के तौर पर यहाँ इलायची, लौंग, व दूसरे अन्य मसाले खूब होते हैं। नारियल, सुपारी एवं रबड़ का उत्पादन भी खूब होता है। खेती की मुख्य फसल चावल है। काफी लोग अपने खेतों में रबड़ के पेड़ लगाते हैं क्योंकि प्रति हेक्टर सबसे ज्यादा कमाई इसी से होती है। इसमें ज्यादा परिश्रम नहीं करना पड़ता और पैसा भी नहीं लगता है। सुबह लोग जाते हैं और दश बजे तक रबड़ निकाल कर ले आते हैं।
नीलाम्बुर (केरल) - मैसूर-बंगलौर (कर्नाटक)
1.1.1982: नीलाम्बुर (7.00) (केरल) - गुडलुर - गुंदलुपेट - नंजनगुड़ - मैसूर (13.00) - बंगलौर (24.00)
सुबह 7 बजे हम नीलाम्बुर (केरल) से बस द्वारा रवाना हुए. रास्ते में नीलगिरि जिले (तमिलनाडू) के गुडलुर (Gudalur) में ब्रेकफास्ट किया. उसके बाद कर्नाटक राज्य के चामराजनगर ज़िले में स्थित गुंदलुपेट (Gundlupet) तथा मैसूर जिले में स्थित नंजनगुड़ (Nanjangud) होते हुये दिन के एक बजे मैसूर (कर्नाटक) पहुंचे. मैसूर में खाना खाया. रास्ते में स्थित स्थानों का विवरण इस प्रकार है:
नंजनगुड (Nanjangud): (22 किलोमीटर) यह नगर कबीनी नदी के किनारे मैसूर के दक्षिण में राज्य राजमार्ग 17 पर है. यह स्थान नंजुंदेश्वर या श्रीकांतेश्वर मंदिर के लिए प्रसिद्ध है. दक्षिण काशी कही जाने वाली इस जगह पर स्थापित लिंग के बार में माना जाता है कि इसकी स्थापना गौतम ऋषि ने की थी. यह मंदिर नंजुडा को समर्पित है. कहा जाता है कि हकीम नंजुडा ने हैदर अली के पसंदीदा हाथी को ठीक किया था. इससे खुश होकर हैदर अली ने उन्हें बेशकीमती हार पहनाया था. आज भी विशेष अवसर पर यह हार उन्हें पहनाया जाता है.
चामुण्डी हिल (Chamundi Hills): मैसूर आते समय रास्ते में चामुण्डी हिल (Chamundi Hills) होकर आये. चामुण्डी हिल मैसूर से 13 किमी की दूरी पर मैसूर से पूर्व में स्थित है तथा बहुत ही अच्छा टुरिस्ट सेंटर है. पहाड़ी पर नीचे ही एक दैत्याकार नांदी गाय की ग्रेनाईट की बनी मूर्ती लगी है. यह मूर्ति 4.9 मीटर ऊँची और 7.6 मीटर लंबी है. ऊपर पहाड़ी तक सीढियाँ बनी हैं. पहाड़ी के ऊपर चामुंडेश्वरी मंदिर (Chamundeshwari Temple) है. चामुंडेश्वरी मंदिर का जीर्णोद्धार 1827 ई. में मैसूर के शासक कृष्णराजा वोडियार III द्वारा करवाया गया था. यहाँ लगी महीषासुर की विशाल मूर्ति सबका ध्यान आकर्षित करती है जिनके बायें हाथ में कोबरा और दायें हाथ में तलवार दिखाई गई है. चामुण्डी हिल से मैसूर और आस-पास का बड़ा सुन्दर और मनमोहक दृश्य दिखाई देता है. यहाँ से मैसूर पैलेस (Mysore Palace), ललित महल (Lalitha Mahal), करंजी झील (Karanji Lake) और अनेक छोटे मंदिर दिखाई देते हैं. चामुण्डी हिल से मैसूर आते समय रास्ते में ही दांई तरफ ललित महल (Lalitha Mahal) पड़ता है.
श्रीरंगपट्टन: चामुण्डी हिल से हम श्रीरंगपट्टन स्थित टीपू सुल्तान की कब्र गए जो कावेरी और एक अन्य नदी का संगम है. वहाँ से दरिया दौलत गए जहाँ पर टीपू सुल्तान के समय की अच्छी पेंटिंग हैं. टीपू सुल्तान की राजधानी रंगपटन देखने का अवसर मिला. यहाँ एक रंगनाथ स्वामी मंदिर भी बना है. यहाँ टीपू सुलतान लड़ता हुआ मारा गया था. यह तथ्य एक पत्थर पर खुदाई कर लिखा गया है- ‘Body of Tipu Sultan found here’.
वृन्दावन गार्डन : रंगनाथ स्वामी मंदिर देखकर वृन्दावन गार्डन गए. यह बहुत ही सुन्दर गार्डन है. एक तरफ कृष्णा राजा सागर बाँध है. यहाँ अनेकानेक फव्वारे हैं. रात को जब प्रकाश सिस्टम चालू होता है तो यहाँ की सुंदरता में चार चाँद लग जाते हैं. यह दृश्य स्वर्ग के सामान दिखता है. इलुमिनेशन शाम 6.30 से 7.30 तक रहता है. रविवार और शनिवार को 8.30 तक रहता है. विस्तृत विवरण आगे देखें.
वृन्दावन गार्डन से हम सवा सात बजे रवाना होकर बंगलौर पहुंचे 12 बजे. हमारी रुकने की व्यवस्था संध्या लाज बंगलौर में की गयी थी.
मैसूर (AS, p.762): मैसूर का नाम महिषासुर दैत्य के नाम पर प्रसिद्ध है. किवदंती है कि देवी चंडी ने महिषासुर का वध इसी स्थान पर किया था. मैसूर के प्रांत का महत्व अति प्राचीन काल से चला आ रहा है क्योंकि मौर्य सम्राट अशोक (तीसरी सदीई.पू.) के दो शिलालेख मैसूर राज्य में प्राप्त हुए हैं (देखें ब्रह्मगिरि, मासकी).
ब्रह्मगिरि (AS, p.649) जिला चीतलदुर्ग मैसूर. अशोक का अमुख्य शिलालेख संख्या एक इस स्थान पर एक चट्टान पर उत्कीर्ण है. यह स्थान मासकी के साथ ही अशोक के साम्राज्य की दक्षिणी सीमा रेखा पर स्थित था.
मासकी AS, p.741) नामक स्थान कर्नाटक में स्थित है. अशोक के लघु शिलालेख के यहां मिलने के कारण यह स्थान प्रसिद्ध है. अशोक के समय यह स्थान दक्षिणापथ के अंतर्गत तथा अशोक के साम्राज्य की दक्षिणी सीमा पर था. मास्की के अभिलेख की विशेष बात यह है कि उसमें अशोक के अन्य अभिलेखों के विपरीत मौर्य सम्राट का नाम देवानंप्रिय (=देवानां-प्रिय) के अतिरिक्त अशोक भी दिया हुआ है. जिसे देवानांप्रिय उपाधि वाले [p.742]: (तथा अशोक नाम से रहित) भारत के अन्य सभी अभिलेख सम्राट अशोक के सिद्ध हो जाते हैं. मासकी के अतिरिक्त गुजर्रा नामक स्थान पर मिले अभिलेख में भी अशोक का नाम दिया हुआ है. अशोक के शिलालेख के अतिरिक्त मास्की से 200-300 ई. की, स्फटिक निर्मित बुद्ध के सिर की प्रतिमा भी उल्लेखनीय है. अंतिम सातवाहन नरेश सम्राट गौतमीपुत्र स्वामी श्रीयज्ञ सातकर्णी (लगभग 186 ई.) के समय के, सिक्के भी यहां से प्राप्त हुए हैं. कुछ विद्वानों का मत है कि मौर्य काल में दक्षिणापथ की राजधानी सुवर्णगिरि जिसका उल्लेख बौद्ध साहित्य में है, मासकी के पास ही थी.
मैसूर नगर इस प्रांत की पुरानी राजधानी है. मैसूर के पास चामुंडी पहाड़ी पर चामुंडेश्वरी देवी का मंदिर उसी स्थान पर है जहां देवी ने महिषासुर का वध किया था. 12 वीं सदी में होयसल नरेश के समय मैसूर राज्य में वास्तुकला उन्नति के शिखर पर पहुंच गई थी जिसका उदाहरण बेलूर का प्रसिद्ध मंदिर है. मैसूर का प्राचीन नाम महीशूर भी कहा जाता है. महाभारत में संभवत मैसूर के जनपद का नाम माहिष या माहिषक है (देखें माहिष).
माहिष: माहिषक (AS, p.742) मैसूर का प्राचीन नाम. 'कारस्करान् महिष्कान कुरंडान् केरलांस्तथा, कर्कॊटकान् वीरकांश च दुर्धर्मांश च विवर्जयेत' महा. कर्ण.44,33. माहिषक देश को महाभारत काल में विवर्जनीय समझा जाता था. विष्णु पुराण 4,24,65 में माहिष देश का उल्लेख है--'कलिंगमाहिषमहेंद्रभौमान गुहा भोक्ष्यन्ति'. यह देश माहिष्मती भी हो सकता है.
मैसूर न सिर्फ कर्नाटक में पर्यटन की दृष्टि से महत्वपूर्ण है बल्कि आसपास के अन्य पर्यटक स्थलों के लिए एक कड़ी के रूप में भी काफी महत्वपूर्ण है. शहर में सबसे ज्यादा पर्यटक मैसूर के दशहरा उत्सव के दौरान आते हैं. जब मैसूर महल एवं आसपास के स्थलों यथा जगनमोहन पैलेस, जयलक्ष्मी विलास एवं ललिता महल पर काफी चहल पहल एवं त्यौहार सा माहौल होता है. कर्ण झील चिड़ियाखाना इत्यादि भी काफी आकर्षण का केन्द्र होते हैं. मैसूर के सग्रहालय भी काफी पर्यटकों को आकर्षित करते हैं. मैसूर से थोड़ी दूर कृष्णराज सागर डैम एवं उससे लगा वृंदावन गार्डन अत्यंत मोहक स्थलों में से है. इस गार्डन की साज-सज्जा, इसके संगीतमय फव्वारे इत्यादि पर्यटकों के लिए काफी अच्छे स्थलों में से हैं. ऐतिहासिकता की दृष्टि से यहीं श्रीरंग पट्टनम का ऐतिहासिक स्थल है जो मध्य तमिल सभ्यताओं के केन्द्र बिन्दु के रूप में स्थापित था. नगर अति सुंदर एवं स्वच्छ है, जिसमें रंग बिरंगे पुष्पों से युक्त बाग बगीचों की भरमार है. चामुंडी पहाड़ी पर स्थित होने के कारण प्राकृतिक छटा का आवास बना हुआ है. भूतपूर्व महाराजा का महल, विशाल चिड़ियाघर, नगर के समीप ही कृष्णाराजसागर बाँध, वृंदावन वाटिका, चामुंडी की पहाड़ी तथा सोमनाथपुर का मंदिर आदि दर्शनीय स्थान हैं. इन्हीं आकर्षणों के कारण इसे पर्यटकों का स्वर्ग कहते है. यहाँ पर सूती एवं रेशमी कपड़े, चंदन का साबुन, बटन, बेंत एवं अन्य कलात्मक वस्तुएँ भी तैयार की जाती हैं. मैसूर के मुख्य पर्यटन स्थलों का विस्तृत विवरण नीचे दिया गया है.
चामुंडी पहाड़ी (Chamundi Hills): मैसूर से 13 किलोमीटर दक्षिण में स्थित चामुंडा पहाड़ी मैसूर का एक प्रमुख पर्यटक स्थल है. इस पहाड़ी की चोटी पर चामुंडेश्वरी मंदिर है जो देवी दुर्गा को समर्पित है. इस मंदिर का निर्माण 12वीं शताब्दी में किया गया था. यह मंदिर देवी दुर्गा की राक्षस महिषासुर पर विजय का प्रतीक है. मंदिर मुख्य गर्भगृह में स्थापित देवी की प्रतिमा शुद्ध सोने की बनी हुई है. यह मंदिर द्रविड़ वास्तुकला का एक अच्छा नमूना है. मंदिर की इमारत सात मंजिला है जिसकी कुल ऊँचाई 40 मी. है. मुख्य मंदिर के पीछे महाबलेश्वर को समर्पित एक छोटा सा मंदिर भी है जो 1000 साल से भी ज्यादा पुराना है. पहाड़ की चोटी से मैसूर का मनोरम दृश्य दिखाई पड़ता है. मंदिर के पास ही महिषासुर की विशाल प्रतिमा रखी हुई है. पहाड़ी के रास्ते में काले ग्रेनाइट के पत्थर से बने नंदी बैल के भी दर्शन होते हैं.
मैसूर महल (Mysore Palace): यह महल मैसूर में आकर्षण का सबसे बड़ा केंद्र है. मिर्जा रोड पर स्थित यह महल भारत के सबसे बड़े महलों में से एक है. इसमें मैसूर राज्य के वुडेयार महाराज रहते थे. जब लकड़ी का महल जल गया था, तब इस महल का निर्माण कराया गया. 1912 में बने इस महल का नक्शा ब्रिटिश आर्किटैक्ट हेनरी इर्विन ने बनाया था. कल्याण मंडप की कांच से बनी छत, दीवारों पर लगी तस्वीरें और स्वर्णिम सिंहासन इस महल की खासियत है. बहुमूल्य रत्नों से सजे इस सिंहासन को दशहरे के दौरान जनता के देखने के लिए रखा जाता है. इस महल की देखरख अब पुरातत्व विभाग करता है.
ललित महल (Lalitha Mahal): चामुण्डी हिल से मैसूर आते समय रास्ते में ही दांई तरफ ललित महल (Lalitha Mahal) पड़ता है. यहाँ मैसूर के महाराजा निवास करते थे. मैसूर का यह दूसरा सबसे बड़ा पैलेस है. यह वर्ष 1921 ई. में मैसूर के शासक कृष्णराजा वोडियार IV द्वारा बनवाया गया था. 1974 में इसको हेरिटेज होटल में बदल दिया है.
जगनमोहन महल (Jaganmohan Palace): इस महल का निर्माण महाराज कृष्णराज वोडेयार ने 1861 में करवाया था. यह मैसूर की सबसे पुरानी इमारतों में से एक है. यह तीन मंजिला इमारत सिटी बस स्टैंड से 10 मिनट की दूरी पर है. 1915 में इस महल को श्री जयचमाराजेंद्र आर्ट गैलरी का रूप दे दिया गया जहां मैसूर और तंजौर शैली की पेंटिंग्स, मूर्तियां और दुर्लभ वाद्ययंत्र रखे गए हैं. इनमें त्रावणकोर के शासक और प्रसित्र चित्रकार राजा रवि वर्मा तथा रूसी चित्रकार स्वेतोस्लेव रोएरिच द्वारा बनाए गए चित्र भी शामिल हैं.
मैसूर का दशहरा (Mysore Dasara): यूं तो दशहरा पूर देश में मनाया जाता है लेकिन मैसूर में इसका विशेष महत्त्व है. 10 दिनों तक चलने वाला यह उत्सव चामुंडेश्वरी द्वारा महिषासुर के वध का प्रतीक है. इसमें बुराई पर अच्छाई की जीत माना जाता है. इस पूरे महीने मैसूर महल को रोशनी से सजाया जाता है. इस दौरान अनेक सांस्कृतिक, धार्मिक और अन्य कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं. उत्सव के अंतिम दिन बैंड बाजे के साथ सजे हुए हाथी देवी की प्रतिमा को पारंपरिक विधि के अनुसार बन्नी मंटप तक पहुंचाते है. करीब 5 किलोमीटर लंबी इस यात्रा के बाद रात को आतिशबाजी का कार्यक्रम होता है. सदियों से चली आ रही यह परंपरा आज भी उसी उत्साह के साथ निभाई जाती है.
कृष्णराज सागर बांध (Krishna Raja Sagara): कृष्णराज सागर बांध 1932 में बना था जो मैसूर से 12 किलोमीटर उत्तर-पश्चिम में स्थित है. इसका डिजाइन श्री एम.विश्वेश्वरैया ने बनाया था और इसका निर्माण कृष्णराज वुडेयार चतुर्थ के शासन काल में हुआ था. इस बांध की लंबाई 8600 फीट, ऊँचाई 130 फीट और क्षेत्रफल 130 वर्ग किलोमीटर है। यह बांध आजादी से पहले की सिविल इंजीनियरिंग का नमूना है. यहां एक छोटा सा तालाब भी हैं जहां बोटिंग के जरिए बांध उत्तरी और दक्षिणी किनारों के बीच की दूरी तय की जाती है. बांध के उत्तरी कोने पर संगीतमय फव्वार हैं. बृंदावन गार्डन नाम के मनोहर बगीचे बांध के ठीक नीचे हैं.
वृन्दावन गार्डन (Brindavan Gardens): मैसूर से 12 किमी दूरी पर मांडया जिले में स्थित है. यह बहुत ही सुन्दर गार्डन है. यह उद्यान कावेरी नदी में बने कृष्णासागर बांध के साथ सटा है. इस उद्यान की आधारशिला 1927 में रखी गयी थी और इसका कार्य 1932 में सम्पन्न हुआ. कृष्णाराजासागर बांध को मैसूर राज्य के दीवान सर मिर्ज़ा इस्माइल की देखरेख में बनाया गया था. बांध के सौन्दर्य को बढाने के लिए सर मिर्ज़ा इस्माइल ने उद्यान के विकास की कल्पना की जो कि मुग़ल शैली जैसे कि कश्मीर में स्थित शालीमार उद्यान के जैसा बनाया गया. इसके प्रमुख वास्तुकार जी.एच.कृम्बिगल थे जो कि उस समय के मैसूर सरकार के उद्यानों के लिये उच्च अधिकारी नियुक्त थे. इसकी प्रेरणा हैदर अली से मिली थी जिन्होने बंगलोर में प्रसिद्ध लालबाग बोटनिकल गार्डन बनवाया था. वृन्दावन गार्डन 60 एकड़ में फैला हुआ है. साथ ही लगा हुआ 75 एकड़ में फ्रूट आर्चर्ड है. वृन्दावन गार्डन में अनेकानेक फव्वारे हैं. रात को जब प्रकाश सिस्टम चालू होता है तो यहाँ की सुंदरता में चार चाँद लग जाते हैं. रात में बृंदावन उद्यान के फव्वारों का सौन्दर्य देखते ही बनता है. यह दृश्य स्वर्ग के समान दिखता है. इलुमिनेशन शाम 6.30 से 7.30 तक रहता है. रविवार और शनिवार को 8.30 तक रहता है.
वृंदावन गार्डन तीन छतों में बना है जिसमें पानी के फ़व्वारे, पेड़, बेलबूटे और फूलों के पौधे शामिल हैं. इस गार्डन का विशेष आकर्षण 'म्यूजिकल फाउन्टेन्स' में संगीत की लहरी पर झूमते-नाचते पानी के फव्वारों का एक छोटा-सा शो है. इस विशाल गार्डन में नौका विहार का आनंद भी उठाया जा सकता है. मैसूर में पर्यटकों को वृंदावन गार्डन देखने ज़रूर जाना चाहिए. शाम होने के बाद वृंदावन गार्डन में लयबद्ध तरीके से जलती-बुझती रोशनी और संगीत पर पानी के फव्वारों का नृत्य देखने के लिए भीड़ जुटती है. जिस प्रकार शाम रात की ओर बढ़ने लगती है, वाद्य यंत्रों की धुन पर पानी के रंग-बिरंगे फ़व्वारे जीवंत हो जाते हैं. यह नज़ारा इतना अद्भुत होता है कि मानो पर्यटक परियों के देश में पहुँच गए हों. हर साल लगभग 20-22 लाख पर्यटक इसको देखने आते हैं. यह उद्यान सामान्य जनता के लिये निःशुल्क खुला रहता है.
श्रीरंगपट्टन: मैसूर से बंगलोर के रास्ते में मैसूर से 15 किमी दूर मांडया जिले में स्थित है- श्रीरंगपट्टन जो टीपू सुल्तान की राजधानी थी. दरिया दौलत बाग में टीपू सुल्तान का दरिया दौलत महल स्थित है. हम टीपू सुल्तान की कब्र गए जो कावेरी और एक अन्य नदी के संगम पर स्थित है. वहाँ से दरिया दौलत गए जहाँ पर टीपू सुल्तान के समय की अच्छी पेंटिंग हैं. यहाँ एक रंगनाथ स्वामी मंदिर भी बना है। यहाँ टीपू सुलतान लड़ता हुआ मारा गया था। यह तथ्य एक पत्थर पर खुदाई कर लिखा गया है- ‘Body of Tipu Sultan found here’. रंगनाथ स्वामी मंदिर देखकर वृन्दावन गए.
हैदर अली और टीपू सुलतान के नेतृत्व में श्रीरंगपट्टण मैसूर की वस्तुतः राजधानी बन गया था. जब टीपू ने वाडियार महाराज से सत्ता अपने हाथ में ली और उन्हें अपना बंदी बनाते हुए अपनी "खुदादाद सलतनत" की घोषणा की, श्रीरंगपट्टण वस्तुत: इस अल्प-अवधि अस्तित्व की राजधानी बना। इस तूफ़ानी दौर में टीपू के राज्य की सीमाएँ हर दिशा में फैलने लगी थी, जिसमें दक्षिण भारत का एक बड़ा भाग सम्मिलित हो गया था. श्रीरंगपट्टण के मज़बूत राज्य की संयुक्त राजधानी के तौर पर विकसित हुआ. विभिन्न भारतीय-इस्लामी स्मार्क इस नगर में फैले हैं, जैसे कि टीपू के महल "दरिया दौलत" और "जुमा मस्जिद", जो इस दौर से सम्बंधित हैं.
इस शहर का नाम प्रसिद्ध श्री रंगानाथस्वामी मन्दिर के नाम पर है. इससे श्रीरंगपट्टण दक्षिण भारत का एक प्रमुख वैष्णव तीर्थस्थल है. इस मन्दिर का निर्माण पश्चिमी गंग वंश ने इस क्षेत्र में नौवीं शताब्दी में किया था. इस ढाँचे को तीन सदियों के पश्चात मज़बूत और बहतर बनाया गया था. इस मन्दिर की निर्माण कला होयसल राजवंश और विजयनगर साम्राज्य की हिन्दू मंदिर स्थापत्य का मिश्रण है.
श्रीरंगपट्टन का इतिहास (AS, p.922-23): मैसूर से 9 मील दूर कावेरी नदी केटापू पर स्थित है. पौराणिक किंवदंती कि पूर्व काल में इस स्थान पर गौतम ऋषि का आश्रम था. श्रीरंगपट्टनम का प्रसिद्ध मंदिर- रंगनाथ स्वामी मंदिर अभिलेखों के आधार पर 1200 ई.का सिद्ध होता है. 18 वीं सदी के उत्तरार्ध में मैसूर में हैदर अली और तत्पश्चात उसके पुत्र टीपू सुल्तान का राज्य था. टीपू के समय में मैसूर की राजधानी इसी स्थान पर थी. उस समय हैदर की मराठों तथा अंग्रेजों से अनबन रहती थी. 1759 ई. में मराठों ने श्रीरंगपट्टन पर आक्रमण किया किंतु हैदरअली नगर की सफलतापूरवाल रक्षा की. 1799 ई. में टीपू की मैसूर की चौथी लड़ाई में पराजय हुई, फलस्वरूप मैसूर रियासत पर अंग्रेजों का अधिकार हो गया. टीपू सुल्तान श्रीरंगपट्टन के दुर्ग के बाहर लड़ता हुआ वीरगति को प्राप्त हुआ.
श्रीरंगपट्टनम की भूमि पर प्रत्येक स्थान पर आज भी इस भयानक तथा निर्णायक युद्ध के चिन्ह दिखाई पड़ते हैं. अंग्रेजों की सेना के निवास स्थान की टूटी हुई दीवारें, सैनिक चिकित्सालय के खंडहर, भूमिगत तहखाने तथा अंग्रेज कैदियों का आवास - ये सब पुरानी कहानियों की स्मृति को नवीन बना देते हैं. टीपू की बनाई हुई जामा मस्जिद यहां के विशाल भवनों में से है. दुर्ग के बाहर काष्ठ निर्मित दरिया दौलत नामक भवन टीपू ने 1784 में बनवाया था. कावेरी के रमणीक तट पर एक सुंदर उद्यान के बीच में यह ग्रीष्म-प्रासाद स्थित है. इसकी दीवारें, स्तंभ, महराब और छतें अनेक प्रकार की नक्काशी से अलंकृत है. बीच-बीच में सोने का सुंदर काम भी दिखाई पड़ता है जिससे इसकी शोभा दुगनी हो गई है. बहिर्भितियों पर युद्धस्थली के दृश्य तथा युद्ध-यात्राओं के मनोरंजक चित्र अंकित हैं. द्वीप के पूर्वी किनारे पर टीपू का मकबरा अथवा गुंबद स्थित है. यह भी एक सुंदर उद्यान के भीतर बना है. इसे टीपू ने अपनी माता तथा पिता हैदरअली के लिए बनवाया था किंतु अंग्रेजों ने टीपू की कब्र भी इसी में बनवा दी.
श्रीरंगपट्टन दुर्ग: श्रीरंगपट्टन दुर्ग का निर्माण विजयनगर साम्राज्य में चित्रदुर्ग के शासक Timmanna Nayaka द्वारा वर्ष 1454 ई. में किया गया था. 1495 ई. में इस पर Wodeyar शासकों का कब्जा हो गया जो अपनी राजधानी मैसूर से श्रीरंगपट्टन ले आए और यह दक्षिण भारत में महत्वपूर्ण शक्ति केंद्र बन गया. कृष्णराजा वोडेयार (1734–66) के शासन काल में हैदर अली के सेनापतित्व में यह राज्य महत्वपूर्ण सैन्य शक्ति बना. 1782 में हैदर अली के पुत्र टीपू सुल्तान ने अपने अधीन लेकर दुर्ग का और विस्तार किया. दुर्ग को एक तरफ से कावेरी नदी ने घेर रखा है जो इसकी पश्चिम और उत्तर दिशाओं में सुरक्षा प्रदान करती है. 1799 ई. में टीपू की मैसूर की चौथी लड़ाई में पराजय हुई, फलस्वरूप मैसूर रियासत पर अंग्रेजों का अधिकार हो गया. किले के अंदर लाल महल और टीपू महल स्थित थे जो अंग्रेजों ने 1799 ई. की लड़ाई में ध्वस्त कर दिये थे.
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मैसूर के पास चामुंडीपहाड़ी पर चामुंडेश्वरीदेवी मंदिर.
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मैसूर के पास चामुण्डीहिल पर स्थित महीषासुर की विशाल मूर्ति
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मैसूर महल
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श्री भुवनेश्वरी मंदिर, मैसूर महल
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मैसूर महल
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ललित महल मैसूर, अब हेरिटेज होटल
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जगनमोहन महल
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कृष्णाराजा सागर बाँध, मैसूर
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कृष्णाराजा सागर बाँध, मैसूर
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वृन्दावन गार्डन मैसूर, फव्वारे
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वृन्दावन गार्डन मैसूर, फव्वारे
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वृन्दावन गार्डन मैसूर, फव्वारे
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वृन्दावन गार्डन मैसूर, फव्वारे: लक्ष्मण बुरड़क
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वृन्दावन गार्डन मैसूर:आर श्रीवास्तव, एमसीशर्मा & लक्ष्मण बुरड़क
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वृन्दावन गार्डन मैसूर
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वृन्दावन गार्डन मैसूर, प्रशासनिक भवन
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वृन्दावन गार्डन मैसूर, रात्री में लाइटें
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वृन्दावन गार्डन मैसूर, रात्री में लाइटें
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वृन्दावन गार्डन मैसूर, रात्री में लाइटें
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वृन्दावन गार्डन मैसूर, रात्री में लाइटें
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वृन्दावन गार्डन मैसूर, रात्री में फव्वारे
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श्रीरंगपट्टनम, रंगनाथ स्वामी मंदिर
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श्रीरंगपट्टनम, दरिया दौलत बाग का मानचित्र
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श्रीरंगपट्टनम, टीपू का मकबरा
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श्रीरंगपट्टनम, टीपू का ग्रीष्म-प्रासाद दरिया दौलत: यू प्रकाशम, आर श्रीवास्तव & कु. श्रीवास्तव
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श्रीरंगपट्टनम, टीपू की तोप
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श्रीरंगपट्टनम, टीपू का दुर्ग
बंगलौर (कर्नाटक) का भ्रमण
2.1.1982: बंगलौर - बंगलौर पहुंचने में रात के 12 बज गए थे। हमारी व्यवस्था संध्या लाज में की गयी थी। आज दिन भर कोई सरकारी कार्य नहीं था। हम पिक्चर चले गए -"मेरी आवाज सुनो"।
3.1.1982: बंगलौर -
गोत्तीपुरा बुर्सेरा प्लांटेशन (Gottipura Bursera Plantation): सुबह ही गोत्तीपुरा स्थित बुर्सेरा प्लांटेशन देखने गए। यह होसकोटे (Hoskote) तहसील, कर्नाटक राज्य के बंगलोर ग्रामीण ज़िले में स्थित है। राष्ट्रीय राजमार्ग 75 यहाँ से गुज़रता है। बुरसेरा प्लांटेशन होसकोटे से लगभग 8 किमी और बंगलोर से 35 किमी दूर है। यह बंगलौर से 35 किमी उत्तर-पूर्व की तरफ स्थित है। बुर्सेरा सबसे पहले यहीं वर्ष 1958 में लगाया गया था और इसको 'मैसूर का गर्व' कहा जाता है। इससे एसेंसियल आयल बनाया जाता है। यहाँ रोपित बुर्सेरा की प्रजाति मेक्सिको मूल की Bursera penicillata है। यह एक मध्यम ऊँचाई का पर्णपाति पेड़ होता है। नवम्बर से मार्च महीनों में इसके पत्ते गिर जाते हैं। वैसे तो इसके हर पार्ट से एसेंसियल आयल मिलता है परंतु इसकी भूसी (husk) में 10 प्रतिशत से अधिक ऑइल की मात्र निकलती है। भूसी का संग्रहण सितंबर-अक्तूबर के महीने में किया जाता है. इसके पेड़ वेजिटेटिव प्रोपोगेशन पद्धति से लगाये जाते हैं।
इन्डियन टेलीफोन इंडस्ट्री (Indian Telephone Industries Limited): इसी रास्ते पर ही इन्डियन टेलीफोन इंडस्ट्री पड़ती है जिसको देखने का अवसर मिला। इंडियन टेलीफोन इंडस्ट्रीज भारत सरकार की एक इलेक्ट्रॉनिक उत्पाद निर्माणी कंपनी है। भारत की प्रथम सार्वजनिक उद्यम ईकाई (पीएसयू) आईटीआई लिमिटेड 1948 में स्थापित हुई। इसका मुख्यालय बंगलोर में है. इसके पश्चात् दूरसंचार के क्षेत्र में इस प्रथम उद्यम कम्पनी ने वर्तमान राष्ट्रीय टेलकॉम नेटवर्क को 50 प्रतिशत का योगदान दिया है। यह बृहद विनिर्माण सुविधाओं सहित 6 स्थानों पर फैला हुआ है तथा देशभर में विभिन्न मार्केटिंग नेटवर्क है। कम्पनी, टेलीकॉम उत्पादों की पूर्ण रेंज और संपूर्ण स्वीचिंग, ट्रांसमिशन, एक्सेस और सबस्क्राइबर प्रिमसस उपकरण सहित संपूर्ण समाधान उपलब्ध कराती है।
बैनरगट्टा नेशनल पार्क (Bannerghatta National Park): बैनरगट्टा नेशनल पार्क देखा जो बंगलोर शहर से 22 किमी दूर स्थित है। इसकी स्थापना 1970 में की गई थी और वर्ष 1974 में इसको राष्ट्रीय उद्द्यान का दर्जा दिया गया है. यहाँ का ख़ास आकर्षण लायन सफारी और सर्प गृह है। यहाँ की लायन-सफारी में शेर आराम से चारों तरफ बैठे रहते हैं और लोग गाड़ी के अंदर शीशे बंद करके देख सकते हैं। दूसरा आकर्षण 'हर्बिवोर सफारी' है जिसमे बायसन को आराम से तालाब के किनारे बैठा देख सकते हैं। शर्प-गृह भी काफी अच्छा बना हुआ है। एक-एक शर्प के लिए एक पूरा गोल चक्कर है और बीच में पेड़ लगा है। यहाँ के सर्प विशेषज्ञ मनमोहन ने कोबरा को हाथ से पकड़कर निचे उतारा। इस किंग कोबरा को आज ही इस जगह पर उतारा गया था। यहाँ एक पिकनिक कॉर्नर भी बना है जहाँ काफी लोग भी आते हैं।
शाम को प्लाजा में अंग्रेजी पिक्चर देखी - Summer Time Killer.
4.1.1982: बंगलौर : सुबह फोरेस्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट (एफ.आर.आई. बंगलोर) और सैंडल वुड रिसर्च सेंटर का दौरा किया. फोरेस्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट बंगलोर की स्थापना वर्ष 1956 में दक्षिण भारत की इमारती लकड़ियों के विदोहन और उपयोगों पर अनुसंधान के लिए की गई थी. सैंडल वुड रिसर्च सेंटर बंगलोर प्रारंभ में एफ.आर.आई. बंगलोर का एक भाग था परंतु वर्ष 1977 में भारत शासन ने सैंडल वुड पर गहन अनुसंधान के लिए पृथक से सैंडल वुड रिसर्च सेंटर की स्थापना की. विश्व में सैंडल वुड के उत्पादक देशों में भारत और इंडोनेशिया मुख्य हैं. आजकल यह काष्ट विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी संस्थान (Institute of Wood Science and Technology) कहलाती है. विस्तृत विवरण आगे देखें.
शाम को बंगलौर शहर का भ्रमण किया।
5.1.1982: बंगलौर (21.45) - मद्रास (वर्तमान चेन्नई) (5.30): आज कोई प्रोग्राम नहीं रहा. शाम को बंगलौर-मद्रास एक्सप्रेस से 21.45 बजे रवाना
बंगलोर का परिचय: कर्नाटक (भूतपूर्व मैसूर) राज्य का 1831 से शहर और राजधानी है. बंगलोर भारत का सातवाँ सबसे बड़ा शहर है. बंगलोर को भारत का बगीचा भी कहा जाता है. समुद्र तल से 949 मीटर की ऊँचाई पर कर्नाटक पठार की पूर्वी-पश्चिमी शृंखला सीमा पर स्थित यह शहर राज्य के दक्षिण पूर्वी भाग में है. शरद एवं ग्रीष्म ॠतु में खुशगवार मौसम के कारण निवास के लिए लोकप्रिय स्थान है. यहाँ 910 मिमी वार्षिक वर्षा होती है. बंगलोर कन्नड़, तमिल और तमिल भाषा के लोगों के लिए सांस्कृतिक संगम का बिंदु है.
बंगलोर के नामकरण से संबंधित कथा: एक बार होयसल वंश के राजा बल्लाल जंगल में शिकार करने के लिए गए थे. किन्तु वह रास्ता भूल गए. जंगल के काफ़ी अन्दर एक बूढ़ी औरत रहती थी. वह बूढ़ी औरत काफ़ी ग़रीब और भूखी थी और उसके पास राजा को पूछने के लिए सिवाए उबली सेम (बींस) के अलावा और कुछ नहीं था. राजा बूढ़ी औरत की सेवा से काफ़ी प्रसन्न हुए और उन्होंने पूरे शहर का नाम बेले-बेंदा-कालू-ऊरू रख दिया. स्थानीय (कन्नड़) भाषा में इसका अर्थ उबली बींस की जगह होता है. इस ऐतिहासिक घटना के नाम पर ही इस जगह का नाम बेंगळूरू रखा गया बताते हैं. लेकिन अंग्रेज़ों के आगमन के पश्चात् इस जगह को बंगलोर के नाम से जाने जाना लगा. वर्तमान में दुबारा से इसका नाम बदलकर बंगलूरू कर दिया गया. एक पुराने कन्नड़ शिलालेख (c.890) में वर्णित "बेंगलुरु युद्ध" बेंगलुरु नाम के अस्तित्व का सबसे पहला सबूत है. पुराणों में इस स्थान को कल्याणपुरी या कल्याण नगर के नाम से जाना जाता था. अंग्रेजों के आगमन के पश्चात ही बंगलौर को अपना यह अंग्रेज़ी नाम मिला.
बंगलोर का इतिहास(AS, p.599): किंवदंती के अनुसार इस नगर की स्थापना तथा इसके नामकरण (शब्दार्थ उबली सेमों का नगर) से यहां के एक प्राचीन राजा बल्लाल से संबंधित एक कथा जुड़ी है किंतु ऐतिहासिक तथ्य यह है कि 1537 ई. में शूरवीर सरदार केंपेगोड़ा (Kempé Gowdā) ने एक मिट्टी का दुर्ग और नगर के चारों कोनों पर चार मीनारें बनवाई थीं. इस प्राचीन दुर्ग के अवशेष अभी तक स्थित हैं. हैदरअली ने इस मिट्टी के दुर्ग को पत्थर से पुनर्निर्मित करवाया (1761 ई.) और टीपू सुल्तान ने इस दुर्ग में कई महत्त्वपूर्ण परिवर्तन किए. यह क़िला आज मैसूर राज्य में मुस्लिम शासनकाल का अच्छा उदाहरण है. क़िले से 7 मील दूर हैदरअली का लाल बाग़ स्थित है. बंगलौर से 37 मील दूर नंदिगिरि नामक ऐतिहासिक स्थान है. (देखें:नंदिगिरि)
नंदिगिरि (AS, p.471) मैसूर में बंगलौर से 37 मील (लगभग 59.2 कि.मी.) की दूरी पर स्थित एक ऐतिहासिक स्थान है. इसका सम्बन्ध सातवीं शती के गंग वंशीय राजाओं से बताया जाता है. तत्पश्चात् एक सहस्र वर्ष तक इस प्रदेश पर अधिकार प्राप्त करने के लिए अनेक युद्ध होते रहे. 18वीं शती में मराठों और हैदर अली के बीच कई युद्ध इसी स्थान पर लड़े गए. 1791 ई. में अंग्रेज़ों ने नंदिगिरि पर अधिकार कर लिया और इसे ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया. नंदिगिरि में दो शिव मंदिर भी हैं- 'भोगनंदीश्वर का मंदिर', जो पहाड़ी के नीचे है, ऊपर के मंदिर से वास्तु की दृष्टि से अधिक सुंदर है.
बेगुर: बेगूर कर्नाटक राज्य के बंगलोर शहरी ज़िले में स्थित एक उपनगर है। राष्ट्रीय राजमार्ग 44 और राष्ट्रीय राजमार्ग 48 इसके समीप से गुज़रते हैं. (Begur) बेगुर में स्थित नागेश्वर मंदिर को स्थानीय लोग नागनाथेश्वर मंदिर बोलते हैं. नागेश्वर मंदिर, बेगुर के शिलालेखों से यह ज्ञात है कि बेगुर को कभी वीपुर (Veppur) और केल (Kelele) कहा जाता था (पश्चिमी गंगा राजा दुर्विनीता का मोलहल्ली में 580-625 ई. का शिलालेख). मंदिर परिसर के भीतर दो तीर्थस्थल हैं: नागेश्वर और नागेश्वरस्वामी जो पश्चिमी गंगा राजवंश के समय निर्मित किए गए थे. ये राजा थे - नितीमर्ग I (843-870) और एरेयप्पा नितीमर्गा II (907-921). शेष मंदिरों को इस क्षेत्र में चोल राजवंश के शासन की बाद की विरासत माना जाता है. एक पुराना कन्नड़ शिलालेख (c.890) "बेंगलुरु युद्ध" (आधुनिक बैंगलोर शहर) का वर्णन करता है, जो इस मंदिर परिसर में एपिग्राफिस्ट आर. नरसिम्हाचर द्वारा खोजा गया था। यह शिलालेख "एपिग्राफिया कर्नाटिका" (वॉल्यूम 10 पूरक) में दर्ज किया गया है. यह बेंगलुरु नामक जगह के अस्तित्व का सबसे पहला सबूत है.
बेगुर (Begur) के पास मिले एक शिलालेख से ऐसा प्रतीत होता है कि यह जिला 1004 ई० तक, गंग राजवंश का एक भाग था. इसे बेंगा-वलोरू (Bengaval-uru) के नाम से जाना जाता था, जिसका अर्थ प्राचीन कन्नड़ में "रखवालों का नगर" (City of Guards) होता है. सन् 1015 से 1116 तक तमिलनाडु के चोल शासकों ने यहाँ राज किया जिसके बाद इसकी सत्ता होयसल राजवंश के हाथ चली गई.
ऐसा माना जाता है कि आधुनिक बंगलौर की स्थापना सन 1537 में विजयनगर साम्राज्य के दौरान हुई थी. विजयनगर साम्राज्य के पतन के बाद बंगलौर के सत्ता की बागडोर कई बार बदली. मराठा सेनापति शाहाजी भोंसले के अघिकार में कुछ समय तक रहने के बाद इस पर मुग़लों ने राज किया. बाद में जब 1689 में मुगल शासक औरंगजेब ने इसे चिक्कादेवराजा वोडयार (Chikkadevaraja Wodeyar) को दे दिया तो यह नगर मैसूर साम्राज्य का हिस्सा हो गया. कृष्णराजा वोडयार के देहांत के बाद मैसूर के सेनापति हैदर अली ने इस पर 1759 में अधिकार कर लिया. इसके बाद हैदर-अली के पुत्र टीपू सुल्तान, जिसे लोग शेर-ए-मैसूर के नाम से जानते हैं, ने यहाँ 1799 तक राज किया जिसके बाद यह अंग्रेजों के अघिकार में चला गया. यह राज्य 1799 में चौथे मैसूर युद्ध में टीपू की मौत के बाद ही अंग्रेजों के हाथ लग सका. मैसूर का शासकीय नियंत्रण महाराजा के ही हाथ में छोड़ दिया गया, केवल छावनी क्षेत्र (कैंटोनमेंट) अंग्रेजों के अधीन रहा. ब्रिटिश शासनकाल में यह नगर मद्रास प्रेसिडेंसी के तहत था. मैसूर की राजधानी 1831 में मैसूर शहर से बदल कर बंगलौर कर दी गई.
1537 में विजयनगर साम्राज्य के सामंत केंपेगौडा प्रथम (Kempé Gowdā) ने इस क्षेत्र में पहले किले का निर्माण किया था. इसे आज बेंगलूर शहर की नींव माना जाता है. समय के साथ यह क्षेत्र मराठों, अंग्रेज़ों और आखिर में मैसूर के राज्य का हिस्सा बना. अंग्रेज़ों के प्रभाव में मैसूर राज्य की राजधानी मैसूर शहर से बेंगलूर में स्थानांतरित हो गई, और ब्रिटिश रेज़िडेंट ने बेंगलूर से शासन चलाना शुरू कर दिया. बाद में मैसूर का शाही वाडेयार परिवार भी बेंगलूर से ही शासन चलाता रहा. 1947 में भारत की आज़ादी के बाद मैसूर राज्य का भारत संघ में विलय हो गया, और बेंगलूर 1956 में नवगठित कर्नाटक राज्य की राजधानी बन गया.
बंगलौर शहर “बागों के शहर” के नाम से भी जाना जाता है. यह शहर टीपू सुल्तान और हैदर अली जैसे राजाओं की राजधानी भी रहा है. यहां अनेक रमणीक और आकर्षक उद्यान देखने योग्य है. यहां के बाग बगीचों की जितनी तारीफ की जाए कम है. इसके अलावा आधुनिक मकानों की शिल्पकला का आकर्षण भी पर्यटको को खूब लुभाता है. अंग्रेजों के जमाने में यह शहर अंग्रेजों का ग्रीष्मकालीन निवास भी रहा है. इस शहर का विकास योजनाबद्ध तरीके से किया गया है. आज यह एक शांत, आधुनिक और खुबसूरत शहर है. दक्षिण भारत के इस शहर में जबर्दस्त विकास देखने को मिलता है. यह शहर संरचना विकास और सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भारत के उदीयमान चमकते हुये सितारों में से है.
ऐसा माना जाता है कि जब कैंपे गौड़ा (Kempe Gowda I) ने 1537 में बंगलौर की स्थापना की, उस समय उसने मिट्टी की चिनाई वाले एक छोटे किले का निर्माण कराया. साथ ही गवीपुरम (Gavipuram) में उसने गवी गंगाधरेश्वरा मंदिर (Gavi Gangadhareshwara Temple) और बासवा में बसवनगुडी मंदिर की स्थापना की. इस किले के अवशेष अभी भी मौजूद हैं जिसका दो शताब्दियों के बाद हैदर अली ने पुनर्निर्माण कराया और टीपू सुल्तान ने उसमें और सुधार कार्य किए. ये स्थल आज भी दर्शनीय हैं. शहर के मध्य 1864 में निर्मित कब्बन पार्क और संग्रहालय देखने के योग्य है. 1958 में निर्मित सचिवालय, गांधी जी के जीवन से संबंधित गांधी भवन, टीपू सुल्तान का समर महल, बाँसगुड़ी तथा हरे कृष्ण मंदिर, लाल बाग, बंगलौर पैलेस, बैनरगट्टा नेशनल पार्क, काष्ट विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी संस्थान, इंडियन प्लाईवूड इंडस्ट्रीज रिसर्च एंड ट्रेनिंग इंस्टीट्यूट, विधान सौधा (विधान सभा), विश्वेश्वरैया औद्योगिक ऐवं प्रौद्योगिकीय संग्रहालय, वेनकटप्पा आर्ट गैलरी, इस्कोन मंदिर, साईं बाबा का आश्रम, नृत्यग्राम आदि कुछ ऐसे स्थल हैं जहाँ बंगलौर की यात्रा करने वाले ज़रूर जाना चाहेंगे.
गोत्तीपुरा बुर्सेरा प्लांटेशन (Gottipura Bursera Plantation): यह होसकोटे (Hoskote) तहसील, कर्नाटक राज्य के बंगलोर ग्रामीण ज़िले में स्थित है. राष्ट्रीय राजमार्ग 75 यहाँ से गुज़रता है. बुरसेरा प्लांटेशन होसकोटे से लगभग 8 किमी और बंगलोर से 35 किमी दूर है. यह बंगलौर से 35 किमी उत्तर-पूर्व की तरफ स्थित है. बुर्सेरा सबसे पहले यहीं वर्ष 1958 में लगाया गया था और इसको 'मैसूर का गर्व' कहा जाता है. इससे एसेंसियल आयल बनाया जाता है. यहाँ रोपित बुर्सेरा की प्रजाति मेक्सिको मूल की Bursera penicillata है. यह एक मध्यम ऊँचाई का पर्णपाति पेड़ होता है. नवम्बर से मार्च महीनों में इसके पत्ते गिर जाते हैं. वैसे तो इसके हर पार्ट से एसेंसियल आयल मिलता है परंतु इसकी भूसी (husk) में 10 प्रतिशत से अधिक ऑइल की मात्र निकलती है. भूसी का संग्रहण सितंबर-अक्तूबर के महीने में किया जाता है. इसके पेड़ वेजिटेटिव प्रोपोगेशन पद्धति से लगाये जाते हैं.
इन्डियन टेलीफोन इंडस्ट्री (Indian Telephone Industries Limited): इंडियन टेलीफोन इंडस्ट्रीज भारत सरकार की एक इलेक्ट्रॉनिक उत्पाद निर्माणी कंपनी है. भारत की प्रथम सार्वजनिक उद्यम ईकाई (पीएसयू) आईटीआई लिमिटेड 1948 में स्थापित हुई. इसका मुख्यालय बंगलोर में है. इसके पश्चात् दूरसंचार के क्षेत्र में इस प्रथम उद्यम कम्पनी ने वर्तमान राष्ट्रीय टेलकॉम नेटवर्क को 50 प्रतिशत का योगदान दिया है. यह बृहद विनिर्माण सुविधाओं सहित 6 स्थानों पर फैला हुआ है तथा देशभर में विभिन्न मार्केटिंग नेटवर्क है. कम्पनी, टेलीकॉम उत्पादों की पूर्ण रेंज और संपूर्ण स्वीचिंग, ट्रांसमिशन, एक्सेस और सबस्क्राइबर प्रिमसस उपकरण सहित संपूर्ण समाधान उपलब्ध कराती है.
बैनरगट्टा नेशनल पार्क (Bannerghatta National Park): बैनरगट्टा नेशनल पार्क बंगलोर शहर से 22 किमी दूर स्थित है. इसकी स्थापना 1970 में की गई थी और वर्ष 1974 में इसको राष्ट्रीय उद्द्यान का दर्जा दिया गया है. यहाँ का ख़ास आकर्षण लायन सफारी और सर्प गृह है. यहाँ की लायन-सफारी में शेर आराम से चारों तरफ बैठे रहते हैं और लोग गाड़ी के अंदर शीशे बंद करके देख सकते हैं. दूसरा आकर्षण 'हर्बिवोर सफारी' है जिसमे बायसन को आराम से तालाब के किनारे बैठा देख सकते हैं. शर्प-गृह भी काफी अच्छा बना हुआ है. एक-एक शर्प के लिए एक पूरा गोल चक्कर है और बीच में पेड़ लगा है. यहाँ के सर्प विशेषज्ञ मनमोहन ने कोबरा को हाथ से पकड़कर निचे उतारा. इस किंग कोबरा को आज ही इस जगह पर उतारा गया था. यहाँ एक पिकनिक कॉर्नर भी बना है जहाँ काफी लोग भी आते हैं.
काष्ट विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी संस्थान (Institute of Wood Science and Technology): यह संस्थान 'भारतीय वानिकी अनुसंधान एवं शिक्षा परिषद' के संस्थानों में से एक है, जिसकी स्थापना 1988 में हुई थी. इससे पहले उस समय की मैसूर सरकार ने 1938 में बंगलौर में एक वन अनुसंधान प्रयोशाला (एफ.आर.एल.) की स्थापना की थी. प्रारंभिक वर्षों में मुख्य रूप से काम विभिन्न इमारती प्रजातियों तथा उनके गणों, आवश्यक तेलों, अन्य अकाष्ठ वन उत्पादों तथा कीटों तथा रोगों से लकड़ी तथा वृक्षों की सुरक्षा पर होता था. 1956 में यह प्रयोगशाला वन अनुसंधान संस्थान, देहरादून के क्षेत्रीय केंद्र के रूप में स्थापित किया गया. 1977 में आनुवंशिकी विभिन्न पहलुओं, वन संवर्धन तथा चंदन के प्रबंधन के लिए चंदन अनुसंधान केंद्र स्थापित किया गया. वर्ष 1988 में भारत में वानिकी अनुसंधान की पुर्नस्थापना भा.वा.अ.शि.प. (भारतीय वानिकी अनुसंधान एवं शिक्षा परिषद) के रूप में की गई तथा वन अनुसंधान प्रयोगशाला का उन्नयन किया गया तथा चंदन अनुसंधान केंद्र तथा छोटे वन उत्पाद एकक को मिलाकर 'काष्ठ विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी संस्थान' नाम प्रदान किया गया.
इंडियन प्लाईवूड इंडस्ट्रीज रिसर्च एंड ट्रेनिंग इंस्टीट्यूट (IPIRI) (Indian Plywood Industries Research & Training Institute, Bangalore) : की स्थापना 1962 में प्लाईवूड पर अनुसंधान हेतु वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान परिषद के अधीन सहकारी प्रयोगशाला के रूप में की गई थी. वर्ष 1990 से यह भारत सरकार के पर्यावरण वन एवं जलवायु परिवर्तन मंत्रालय का एक स्वायत्त अनुसंधान व विकास संस्थान है, जिसका मुख्यालय बेंगलूर में अवस्थित है. प्रारंभ से ही संस्थान, देश में प्लाईवुड तथा पैनल उद्योग के विकास के साथ करीब से जुडा हुआ है और प्रारंभिक अवस्था से ही प्लाईवुड उद्योग के विकास में सहायक रहा है. उद्योग के साथ गहरे संबंध स्थापित करने वाले संस्थान ने उद्योग चालित संगठन के रूप में काम करना जारी रखा है. यह प्लईवुड और पैनल उद्योग के लिए काम करने वाला अपने तरीके का एकमात्र संस्थान है. 1963 में आई पि आई आर टी आई फील्ड स्टेशन, कोलकाता और 2008 में आई पि आई आर टी आई केंद्र, मोहाली की स्थापना की गई ताकि इन क्षेत्रों में पैनल उद्याग के परीक्षण, प्रशिक्षण और विस्तार की ज़रूरतों को पूरा किया जा सके. यह अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर एक विशेषज्ञता केन्द्र की मान्यता प्राप्त है. (http://www.ipirti.gov.in/organisation.html)
विधान सौधा (Vidhana Soudha) : वर्तमान समय में यह जगह कर्नाटक राज्य के विधान सभा के रूप में उपयोग किया जाता है. इसके अलावा इमारत का कुछ हिस्सा कर्नाटक सचिवालय के रूप में भी कार्य कर रहा है. यह जगह बंगलूरू के प्रमुख पर्यटक स्थलों में से एक है. इसका निर्माण 1954 ई. में किया गया. इस इमारत की वास्तुकला नियो-द्रविडियन शैली पर आधारित है. विधान सौधा के सामने कर्नाटक उच्च न्यायालय है. विधान सौधा के तीन मुख्य फर्श हैं. यह भवन 700 फुट उत्तर दक्षिण और 350 फीट पूरब पश्चिम आयताकार है.अगर आप बेंगलुरु जा रहे हैं तो विधान सौदा जरूर जाएं. यह राज्य सचिवालय होने के साथ-साथ ईंट और पत्थर से बना एक उत्कृष्ट निर्माण है. करीब 46 मीटर ऊंचा यह भवन बेंगलुरु का सबसे ऊंचा भवन है. इसकी वास्तुशिल्पीय शैली में परंपरागत द्रविड शैली के साथ—साथ आधुनिक शैली का भी मिश्रण देखने को मिलता है. सार्वजनिक छुट्टी के दिन और रविवार के दिन इसे रंग—बिरंगी रोशनी से सजाया जाता है, जिससे यह और भी खूबसूरत हो उठता है. हालांकि विधान सौदा हर दिन शाम 6 से 8.30 बजे तक रोशनी से जगमगाता रहता है. बेंगलुरु सिटी जंक्शन से यह सिर्फ 9 किमी दूर है. कब्बन पार्क के पास स्थित दूर तक फैले हरे-भरे मैदान पर बना विधान सौदा घूमने अवश्य जाना चाहिए.
लालबाग बॉटनिकल गार्डन बंगलोर (Lalbagh Botanical Garden) : यह स्थान बंगलोर में लाल बाग बॉटनिकल गार्डन, या लाल बाग वनस्पति उद्यान के नाम से भी जाना जाता है. इसका विस्तार 240 एकड़ क्षेत्र में है तथा 1760 में इसकी नींव हैदर अली ने रखी और टीपू सुल्तान ने इसका विकास किया. लालबाग के बीचोंबीच एक बड़ा ग्लास-हाउस है जहां वर्ष में दो बार, जनवरी और अगस्त में पुष्प प्रदर्शनी का आयोजन किया जाता है. पार्क के भीतर ही एक डीयर-एंक्लेव भी है. इस उद्यान में बहुत सी भारतीय फिल्मों की शूटिंग हो चुकी है. यहाँ घास के लॉन, दूर तक फैली हरियाली, सैंकड़ों वर्ष पुराने पेड़, सुंदर झीलें, कमल के तालाब, गुलाबों की क्यारियाँ, दुर्लभ समशीतोष्ण और शीतोष्ण पौधे, सजावटी फूल हैं.
उद्यान में वनस्पतियों के 1,000 से अधिक प्रजातियां पायी जाती हैं. उद्यान में वनस्पतियों के 100 साल से अधिक पुराने पेड़ पायी जाती हैं. सिंचाई के लिए एक जटिल पानी प्रणाली के साथ, इस उद्यान में लॉन, फूल, कमल पूल और फव्वारे भी, बनाए गए हैं. 1760 ई. में इसकी नींव हैदर अली ने रखी और टीपू सुल्तान ने इसका विकास किया. लाल बाग के चार द्वार हैं. यह स्मारक 3000 करोड़ वर्षीय प्रायद्वीपीय ऐसे चट्टान संबंधी चट्टानों से बना है जो लाल बाग पहाड़ी पर भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण द्वारा नामित किया गया है.
कब्बन पार्क (Cubbon Park): कब्बन पार्क और संग्रहालय बंगलोर शहर के मध्य में स्थित यह सुंदर पार्क 1864 में बना था. इसका नाम पूर्व मुख्य आयुक्त मार्क कब्बन के नाम पर रखा गया है. साथ ही आप पार्क में बना सरकारी संग्रहालय देखने योग्य है. यहाँ होयसला शिल्पकला, मोहनजोदड़ो से प्राप्त प्राचीन तीरों, सिक्कों और मिट्टी के पात्रों का अविश्वसनीय संग्रह है. इसको श्री चामराजेन्द्र पार्क (Sri Chamarajendra Park) नाम से भी जाना जाता है जो Chamarajendra Wodeyar (1868–94) के शासनकाल में बनाया गया था. [[ File:Bangalore Palace.jpg|thumb|200px|बंगलूरू पैलेस, बंगलूरू]] बंगलूरू पैलेस (Bangalore Palace): यह महल बंगलूरू के प्रमुख पर्यटन स्थलों में से एक है. इस महल की वास्तुकला तुदौर शैली (Tudor Revival style architecture) पर आधारित है. यह महल बंगलूरू शहर के मध्य में स्थित है. यह महल लगभग 800 एकड़ में फैला हुआ है. यह महल इंगलैंड के विंडसर कासल (Windsor Castle) की तरह दिखाई देता है. प्रसिद्ध बैंगलोर पैलेस (राजमहल) बैंगलोर का सबसे आकर्षक पर्यटन स्थान है जो 4500 वर्ग फीट पर बना है. यह सदशिवनगर और जयामहल के बीच में स्थित है. इस महल के निर्माण का काम 1862 में श्री गेरेट (Rev. J. Garrett) द्वारा शुरू किया गया था. इसके निर्माण में इस बात की पूरी कोशिश की गई कि यह इंग्लैंड के विंसर कास्टल की तरह दिखे. 1884 में इसे वाडेयार वंश के शासक चमाराजा वाडेयार ने खरीद लिया था. महल की खूबसूरती देखते ही बनती है. जब आप आगे के गेट से महल में प्रवेश करेंगे तो आप मंत्रमुग्ध हुए बिना नहीं रह सकेंगे. अभी हाल ही में इस महल का नवीनीकरण भी किया गया है. महल के अंदरूनी भाग की डिजाइन में तुदार शैली का वास्तुशिल्प देखने को मिलता है. महल के निचले तल में खुला हुआ प्रांगण है. इसमें ग्रेनाइट के सीट बने हुए हैं, जिसपर नीले रंग के क्रेमिक टाइल्स लेगे हुए हैं. रात के समय इसकी खूबसूरती देखते ही बनती है. वहीं महल के ऊपरी तल पर एक बड़ा सा दरबार हॉल है, जहां से राजा सभा को संबोधित किया करते थे. महल के अंदर के दीवार को ग्रीक, डच और प्रसिद्ध राजा रवि वर्मा के पेंटिंग्स से सजाया गया है, जिससे यह और भी खिल उठता है.
विश्वेश्वरैया औद्योगिक ऐवं प्रौद्योगिकीय संग्रहालय (Visvesvaraya Industrial and Technological Museum): कस्तुरबा रोड पर स्थित यह संग्रहालय सर. एम. विश्वेश्वरैया को श्रधाजंलि देते हुए उनके नाम से बनाया गया है. इसके परिसर में एक हवाई जहाज और एक भाप इजंन का प्रदर्शन किया गया है. संग्रहालय का सबसे प्रमुख आकर्षण मोबाइल विज्ञान प्रदर्शन है, जो पूरे शहर में साल भर होता है. प्रस्तुत संग्रहालय में इलेक्ट्रानिक्स मोटर शक्ति और उपयोग कर्ता और धातु के गुणो के बारे में भी प्रदर्शन किया गया है. सेमिनार प्रदर्शन और वैज्ञानिक विषयों पर फिल्म शो का भी आयोजन किया गया है. संग्रहालय की विशेषताएँ- इजंन हाल, इलेक्ट्रानिक प्रौद्योगिकि वीथिका, किम्बे कागज धातु वीथिका, लोकप्रीय विज्ञान वीथिका और बाल विज्ञान वीथिका.
टीपू का समर पैलेस (Tipu Sultan's Summer Palace): टीपू पैलेस व किला बंगलूरू के प्रसिद्व पर्यटन स्थलों में से है. इस महल की वास्तुकला व बनावट मुगल जीवनशैली को दर्शाती है. इसके अलावा यह किला अपने समय के इतिहास को भी दर्शाता है. टीपू महल के निर्माण का आरंभ हैदर अली ने करवाया था. जबकि इस महल को स्वयं टीपू सुल्तान ने पूरा किया था. टीपू सुल्तान का महल मैसूरी शासक टीपू सुल्तान का ग्रीष्मकालीन निवास था. यह बैंगलोर, भारत में स्थित है. टीपू की मौत के बाद, ब्रिटिश प्रशासन ने सिंहासन को ध्वस्त किया और उसके भागों को टुकड़ा में नीलाम करने का फैसला किया. यह बहुत महंगा था कि एक व्यक्ति पूरे टुकड़ा खरीद नहीं सक्ता है. महल के सामने अंतरिक्ष में एक बगीचेत और लॉन द्वारा बागवानी विभाग, कर्नाटक सरकार है. टीपू सुल्तान का महल पर्यटकों को आकर्षित करता है. यह पूरे राज्य में निर्मित कई खूबसूरत महलों में से एक है.
वेनकटप्पा आर्ट गैलरी (Venkatappa Art Gallery): यह जगह कला प्रेमियों के लिए बिल्कुल उचित है. इस आर्ट गैलरी में लगभग 600 पेंटिग प्रदर्शित की गई है. यह आर्ट गैलरी पूरे वर्ष खुली रहती है. इसके अलावा, इस गैलरी में कई अन्य नाटकीय प्रदर्शनी का संग्रह देख सकते हैं. यह कब्बन पार्क और संग्रहालय बंगलोर शहर के पास ही स्थित है. यह 1967 में स्थापित की गई थी.
बसवनगुडी मंदिर (Basavanagudi Nandhi Temple): यह मंदिर भगवान शिव के वाहन नंदी बैल को समर्पित है. प्रत्येक दिन इस मंदिर में काफी संख्या में भक्तों की भीड़ देखी जा सकती है. इस मंदिर में बैठे हुए बैल की प्रतिमा स्थापित है. यह मूर्ति 4.5 मीटर ऊंची और 6 मीटर लम्बी है. बुल मंदिर एन.आर.कालोनी, दक्षिण बैंगलोर में हैं. मंदिर रॉक नामक एक पार्क के अंदर है. बैल एक पवित्र हिंदू यक्ष, नंदी के रूप में जाना जाता है. बैल को कन्नड़ में बसव बोलते हैं. नंदी एक करीबी भक्त और शिव का गण है. नंदी मंदिर विशेष रूप से पवित्र बैल की पूजा के लिए है. विजयनगर साम्राज्य के शासक केंपेगौड़ा द्वारा 1537 में मंदिर बनाया गया था. केम्पे गौड़ा (Kempe Gowda) के शासक के सपने में नंदी आये और एक मंदिर पहाड़ी पर निर्मित करने का अनुरोध किया. एक छोटे से गणेश मंदिर के ऊपर भगवान शिव के लिए एक मंदिर बनाया गया है. किसानों का मानना है कि अगर वे नंदी कि प्रार्थना करते है तो वे एक अच्छी उपज का आनंद ले सक्ते है. बुल टेंपल को दोड़ बसवन गुड़ी मंदिर भी कहा जाता है.
बुल टेंपल को द्रविड शैली में बनाया गया है और ऐसा माना जाता है कि विश्वभारती नदी प्रतिमा के पैर से निकलती है. पौराणिक कथा के अनुसार यह मंदिर एक बैल को शांत करने के लिए बनवाया गया था, जो कि मूंगफली के खेत में चरने के लिए चला गया था, जहां पर आज मंदिर बना हुआ है. इस कहानी की स्मृति में आज भी मंदिर के पास एक मूंगफली के मेले का आयोजन किया जाता है. नवंबर-दिसंबर में लगने वाला यह मेला उस समय आयोजित किया जाता है, जब मूंगफली की पैदावार होती है. यह समय बुल टेंपल घूमने के लिए सबसे अच्छा रहता है. दोद्दा गणेश मंदिर बुल टेंपल के पास ही स्थित है.
गवि गंगाधरेश्वर मंदिर (Gavi Gangadhareshwara Temple) - बेंगलुरु का यह गुफा मंदिर भगवान शिव को समर्पित है. जिसका निर्माण 16 वी शताब्दी में केम्पे गोवडा ने किया था, जो बेंगलुरु के संस्थापक भी थे. बेंगलुरु के प्राचीनतम मंदिरों में से यह एक है. गवि गंगाधरेश्वर मंदिर का निर्माण केम्पे गोवडा ने रामा राया की कैद से पांच साल बाद रिहा होने की ख़ुशी में करवाया था. अग्निमुर्थी मूर्ति के भीतर दूसरी मूर्तियाँ भी है, जिनमे 2 सिर, सांत हाँथ और तीन पैरो वाली एक मूर्ति भी शामिल है. कहा जाता है कि जो लोग इस मूर्ति की पूजा करते है उन्हें आँखों से संबंधित बीमारियों से छुटकारा मिल सकता है. साथ ही यह मंदिर अखंड स्तम्भ, डमरू, त्रिशूल और विशालकाय आँगन के लिए भी प्रसिद्ध है.
गविपुरम की प्राकृतिक गुफा में बना यह मंदिर भगवान शिव को समर्पित और अखंड स्तंभों में बना हुआ है. मंदिर के आँगन में बहुत से अखंड स्तम्भ बने हुए है. मंदिर के परिसर में पाए जाने वाले ग्रेनाइट पिल्लर ही आकर्षण का मुख्य कारण है. इन दो पिल्लरों को सूरज और चन्द्रमा का प्रतीक माना जाता है. गुफा मंदिर के अंदरूनी भाग को पत्थरों से सुशोभित किया गया है. इन्हें कुछ इस तरह से बनाया गया है कि सूर्यप्रकाश सीधे शिवलिंग पर ही पड़े.
मकर संक्रांति के अवसर पर शाम में हमें एक अद्वितीय घटना के दर्शन होते है जिसमे सूर्यप्रकाश नंदी के दो सींगो के बीच से होकर सीधे गुफा के भीतर स्थापित लिंग पर पड़ता है और सम्पूर्ण मूर्ति को अद्भुत रौशनी से प्रकाशित कर देता है.
शिवोहम शिव टेंपल (Shivoham Shiva Temple): बंगलोर में पुरानी एयरपोर्ट रोड पर स्थित है. यह 1995 में बनाया गया था. महाशिवरात्रि पर यहां लाखों लोग श्रद्धालु आते हैं. यहां पर शिव की एक विशाल मूर्ति बनी हुई है. यह शिव मूर्ति 65 मीटर ऊँची है। इस मूर्ति में भगवान शिव पदमासन की अवस्था में विराजमान हैं. इस मूर्ति की पृष्ठभूमि में कैलाश पर्वत, भगवान शिव का निवास स्थल तथा प्रवाहित हो रही गंगा नदी है.
नागेश्वर मंदिर, बेगुर (Nageshvara temple, Begur) - बेगुर में स्थित नागेश्वर मंदिर को स्थानीय लोग नागनाथेश्वर मंदिर (Naganatheshvara Temple) बोलते हैं. बेगूर कर्नाटक राज्य के बंगलोर शहरी ज़िले में स्थित एक नगर है. यह बंगलुरु का एक उपनगर है। राष्ट्रीय राजमार्ग 44 और राष्ट्रीय राजमार्ग 48 इसके समीप से गुज़रते हैं. बेगुर (Begur) के पास मिले एक शिलालेख से ऐसा प्रतीत होता है कि यह जिला 1004 ई० तक, गंग राजवंश का एक भाग था. इसे बेंगा-वलोरू (Bengaval-uru) के नाम से जाना जाता था, जिसका अर्थ प्राचीन कन्नड़ में "रखवालों का नगर" (City of Guards) होता है. सन् 1015 से 1116 तक तमिलनाडु के चोल शासकों ने यहाँ राज किया जिसके बाद इसकी सत्ता होयसल राजवंश के हाथ चली गई.
शिलालेखों से यह ज्ञात है कि बेगुर को कभी वीपुर (Veppur) और केल (Kelele) कहा जाता था (पश्चिमी गंगा राजा दुर्विनीता का मोलहल्ली में 580-625 ई. का शिलालेख). मंदिर परिसर के भीतर दो तीर्थस्थल हैं: नागेश्वर और नागेश्वरस्वामी जो पश्चिमी गंगा राजवंश के समय निर्मित किए गए थे. ये राजा थे - नितीमर्ग I (843-870) और एरेयप्पा नितीमर्गा II (907-921). शेष मंदिरों को इस क्षेत्र में चोल राजवंश के शासन की बाद की विरासत माना जाता है. एक पुराना कन्नड़ शिलालेख (c.890) "बेंगलुरु युद्ध" (आधुनिक बैंगलोर शहर) का वर्णन करता है, जो इस मंदिर परिसर में एपिग्राफिस्ट आर. नरसिम्हाचर द्वारा खोजा गया था. यह शिलालेख "एपिग्राफिया कर्नाटिका" (वॉल्यूम 10 पूरक) में दर्ज किया गया है. यह बेंगलुरु नामक जगह के अस्तित्व का सबसे पहला सबूत है.
इस्कोन मंदिर (Iskon Temple, Rajajinagar Bangalore): इस्कोन मंदिर (दॉ इंटरनेशलन सोसायटी फॉर कृष्णा कंसी) बंगलूरू की खूबसूरत इमारतों में से एक है. इस इमारत में कई आधुनिक सुविधाएं जैसे मल्टी-विजन सिनेमा थियेटर, कम्प्यूटर सहायता प्रस्तुतिकरण थियेटर एवं वैदिक पुस्तकालय और उपदेशात्मक पुस्तकालय है. इस मंदिर के सदस्यो व गैर-सदस्यों के लिए यहाँ रहने की भी काफी अच्छी सुविधा उपलब्ध है. अपने विशाल सरंचना के कारण ही इस्कॉन मंदिर बैगंलोर में बहुत प्रसिद्ध है और इसिलिए बैगंलोर का मुख्य पर्यटन स्थान भी है. इस मंदिर में आधुनिक और वास्तुकला का दक्षिण भरतीय मिश्रण परंपरागत रूप से पाया जाता है. मंदिर में अन्य संरचनाऍ - बहु दृष्टि सिनेमा थिएटर और वैदिक पुस्तकालय। इस्कॉन मंदिर के बैगंलोर में छ: मंदिर है:- 1. मुख्य मंदिर राधा और कृष्ण का है, 2. कृष्ण बलराम, 3. निताई गौरंगा (चैतन्य महाप्रभु और नित्यानन्दा), 4. श्रीनिवास गोविंदा (वेकंटेश्वरा), 5. प्रहलाद नरसिंह एवं 6. श्रीला प्रभुपादा.
उत्तर बैगंलोर के राजाजीनगर में स्थित कृष्ण और राधा का मंदिर दुनिया का सबसे बड़ा इस्कॉन मंदिर है. इस मंदिर का उद्घाटन भारत के राष्ट्रपति श्री शंकर दयाल शर्मा ने सन् 1997 में किया था.
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Indian Telephone Industries Limited- इन्डियन टेलीफोन इंडस्ट्री, बंगलोर
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Bannerghatta National Park Bangalore-बैनरगट्टा नेशनल पार्क
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Institute of Wood Science and Technology Bangalore-काष्ट विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी संस्थान, बंगलोर
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Vidhana Soudha, Bangalore-विधान सौधा
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Lalbagh Botanical Garden Bangalore -लालबाग, बंगलोर
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Lalbagh Botanical Garden Bangalore-लालबाग, बंगलोर
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Lalbagh Botanical Garden Bangalore-लालबाग, बंगलोर
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Lalbagh Botanical Garden Bangalore-लालबाग, बंगलोर
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Lalbagh Botanical Garden Bangalore-लालबाग बंगलोर:यू प्रकाशम & लक्ष्मण बुरड़क
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Lalbagh Botanical Garden Bangalore-लालबाग बंगलोर
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Lalbagh Botanical Garden Bangalore-लालबाग बंगलोर: एमसीशर्मा & लक्ष्मण बुरड़क
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Lalbagh Botanical Garden Bangalore-लालबाग बंगलोर, चमराजेन्द्र वोडेयार मूर्ति
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Bangalore Palace-बंगलूरू पैलेस
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Visvesvaraya Industrial and Technological Museum-विश्वेश्वरैया औद्योगिक ऐवं प्रौद्योगिकीय संग्रहालय
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Tipu Sultan's Summer Palace-टीपू का समर पैलेस
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Basavanagudi Nandhi Temple, Bangalore-बसवनगुडी मंदिर
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Gavi-Gangadhareshwara-Temple-गवि गंगाधरेश्वर मंदिर
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Shivoham Shiva Temple- भगवान शिव मूर्ति, बेंगळूरू
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Naganatheshvara Temple (9th century) at Begur, Bengaluru- नागेश्वर मंदिर, बेगुर
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Iskon Temple, Rajajinagar Bangalore-इस्कोन मंदिर
बंगलौर - मद्रास (चेन्नई)
5.1.1982: बंगलौर (21.45) - मद्रास (वर्तमान चेन्नई) (5.30): आज कोई प्रोग्राम नहीं रहा। शाम को बंगलौर-मद्रास एक्सप्रेस से 21.45 बजे रवाना
6.1.1982: मद्रास (चेन्नई)
सुबह साढ़े पांच बजे मद्रास (चेन्नई) पहुंचे। अरुण होटल में रुकने की व्यवस्था थी। तैयार होकर वैण्डलूर जूलोजिकल पार्क पहुंचे। यह पार्क अभी निर्माणाधीन है। इसका विस्तार 400 हेक्टर में अनुमानित है। यहाँ टायगर सफारी भी बनाई जायेगी। पार्क में उसी समय तमिल फिल्मों का एक प्रसिद्ध हीरो भी आये हुए थे। वैण्डलूर चन्नई के दक्षिण-पश्चिम भाग में चेन्नई सेंट्रल से 15 किमी दूरी पर स्थित है।
महाबलीपुरम की यात्रा : वैण्डलूर जूलोजिकल पार्क से महाबलीपुरम पहुंचे। महाबलीपुरम में सातवीं शदी के पल्लवी सम्राटों के बनाये हुए कई मंदिर हैं। यहाँ का समुद्र तट बहुत ही सुन्दर है। यहाँ के सात मंदिर पहले ही समुद्र में बह चुके हैं। एक मंदिर अभी समुद्र तट पर बना हुआ है। यहाँ काफी संख्या में देशी और विदेशी पर्यटक आते हैं।
महाबलीपुरम् (AS, p.723-25) का इतिहास :
महाबलीपुरम् एक ऐतिहासिक नगर है जो 'ममल्लपुरम्' भी कहलाता है। यह पूर्वोत्तर तमिलनाडु राज्य, दक्षिण भारत में स्थित है। यह नगर बंगाल की खाड़ी पर चेन्नई (भूतपूर्व मद्रास) से 60 किलोमीटर दूर स्थित है.
मद्रास से लगभग 40 मील दूर समुद्र तट पर स्थित वर्तमान ममल्लपुर. इसका एक अन्य प्राचीन नाम बाणपुर भी है. यह पल्लव नरेशों के समय (सातवीं सदी ई.) में बने सप्तरथ नामक विशाल मंदिरों के लिए प्रसिद्ध है. ये मंदिर भारत के प्राचीन वास्तुशिल्प के गौरवमय उदाहरण माने जाते हैं. पल्लवों के समय में दक्षिण भारत की संस्कृति उन्नति के सर्वोच्च शिखर पर पहुंची हुई थी. इस काल में बृहत्तर भारत, विशेषकर स्याम, कंबोडिया, मलाया और इंडोनेशिया में दक्षिण भारत से बहुसंख्यक लोग जाकर बसे थे और वहां पहुंच कर उन्होंने नए-नए भारतीय उपनिवेशों की स्थापना की थी. महाबलीपुर के निकट एक पहाड़ी पर स्थित दीपस्तंभ समुद्र-यात्राओं की सुरक्षा के लिए बनवाया गया था. इसके निकट ही सप्तरथों के परम विशाल मंदिर विदेश यात्राओं पर जाने वाले यात्रियों को मातृभूमि का अंतिम संदेश देते रहे होंगे. [p.724] दीपस्तंभ के शिखर से शिल्पकृतियों के चार समूह दृष्टिगोचर होते हैं.
पहला समूह:पहला समूहएक ही पत्थर में से कटे हुए पाँच मन्दिरों का है, जिन्हें रथ कहते हैं। ये कणाश्म या ग्रेनाइट पत्थर के बने हुए हैं। इनमें से विशालतम धर्मरथ हैं जो पाँच तलों से युक्त हैं। इसकी दीवारों पर सघन मूर्तिकारी दिखाई पड़ती है। भूमितल की भित्ति पर आठ चित्रफलक प्रदर्शित हैं, जिनमें अर्ध-नारीश्वर की कलापूर्ण मूर्ति का निर्माण बड़ी कुशलता से किया गया है। दूसरे तल पर शिव, विष्णु और कृष्ण की मूर्तियों का चित्रण है। फूलों की डलिया लिए हुए एक सुन्दरी का मूर्तिचित्र अत्यन्त ही मनोरम है। दूसरा रथ भीमरथ नामक है, जिसकी छत गाड़ी के टाप के सदृश जान पड़ती है। तीसरा मन्दिर धर्मरथ के समान है। इसमें वामनों और हंसों का सुन्दर अंकन है। चौथे में महिषासुर मर्दिनी दुर्गा की मूर्ति है। पाँचवां एक ही पत्थर में से कटा हुआ है और हाथी की आकृति के समान जान पड़ता है।
दूसरा समूह: दूसरा समूह दीपस्तम्भ की पहाड़ी में स्थित कई गुफ़ाओं के रूप में दिखाई पड़ता है। वराह गुफ़ा में वराह अवतार की कथा का और महिषासुर गुफ़ा में महिषासुर तथा अनंतशायी विष्णु की मूर्तियों का अंकन है। वराहगुफ़ा में जो अब निरन्तर अन्धेरी है, बहुत सुन्दर मूर्तिकारी प्रदर्शित है। इसी में हाथियों के द्वारा स्थापित गजलक्ष्मी का भी अंकन है। साथ ही सस्त्रीक पल्लव नरेशों की उभरी हुई प्रतिमाएँ हैं, जो वास्तविकता तथा कलापूर्ण भावचित्रण में बेजोड़ कही जाती है।
तीसरा समूह: तीसरा समूह सुदीर्घ शिलाओं के मुखपृष्ठ पर उकेरे हुए कृष्ण लीला तथा महाभारत के दृश्यों के विविध मूर्तिचित्रों का है। जिनमें गोवर्धन धारण, अर्जुन की तपस्या आदि के दृश्य अतीव सुन्दर हैं। इनसे पता चलता है कि स्वदेश से दक्षिण पूर्व एशिया के देशों में जाकर बस जाने वाले भारतीयों में महाभारत तथा पुराणों आदि की कथाओं के प्रति कितनी गहरी आस्था थी। इन लोगों ने नए उपनिवेशों में जाकर भी अपनी सांस्कृतिक परम्परा को बनाए रखा था। जैसा ऊपर कहा गया है, महाबलीपुर समुद्रपार जाने वाले यात्रियों के लिए मुख्य बंदरगाह था और मातृभूमि छोड़ते समय ये मूर्तिचित्र इन्हें अपने देश की पुरानी संस्कृति की याद दिलाते थे।
चौथा समूह: चौथा समूह समुद्र तट पर तथा सन्निकट समुद्र के अन्दर स्थित सप्तरथों का है, जिनमें से छः तो समुद्र में समा गए हैं और एक समुद्र तट पर विशाल मन्दिर के रूप में विद्यमान है। ये छः भी पत्थरों के ढेरों के रूप में समुद्र के अन्दर दिखाई पड़ते हैं।[p.725]
महाबलीपुरम के रथ: महाबलीपुरम के रथ जो शैलकृत्त हैं, अजन्ता और एलौरा के गुहा मन्दिरों की भाँति पहाड़ी चट्टानों को काट कर तो अवश्य बनाए गए हैं किन्तु उनके विपरीत ये रथ, पहाड़ी के भीतर बने हुए वेश्म नहीं हैं, अर्थात ये शैलकृत होते हुए भी संरचनात्मक हैं। इनको बनाते समय शिल्पियों ने चट्टान को भीतर और बाहर से काट कर पहाड़ से अलग कर दिया है। जिससे ये पहाड़ी के पार्श्व में स्थित जान नहीं पड़ते हैं, वरन् उससे अलग खड़े हुए दिखाई पड़ते हैं। महाबलीपुरम दो वर्ग मील के घेरे में फैला हुआ है। वास्तव में यह स्थान पल्लव नरेशों की शिल्प साधना का अमर स्मारक है। महाबलीपुरम के नाम के विषय में किंवदन्ती है कि वामन भगवान ने जिनके नाम से एक गुहामन्दिर प्रसिद्ध है दैत्यराज बलि को पृथ्वी का दान इसी स्थान पर दिया था।
छाया चित्र - महाबलीपुरम का मंदिर
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Mahabalipuram Sea-6.1.1982
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Nakula Sahadeva Ratha, Mahabalipuram-6.1.1982
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Mahabalipuram Shore Temple-6.1.1982
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Mahabalipuram Shore Temple-6.1.1982
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Mahabalipuram Sea Beach-6.1.1982
7.1.1982: मद्रास - मद्रास में हमारा होटल अच्छी जगह नहीं था। यद्यपि कमरा वातानुकूलित था परन्तु वहाँ के वातावरण को देख कर लगता था - हम किसी रेड लाइट एरिया में हों। होटल के नीचे रातको केबरे डांस भी होता है। यहाँ से हम वेदांतगल पक्षी विहार देखने गए।
वेदांतगल पक्षी विहार (Vedanthangal Bird Sanctuary): यह पक्षी विहार चेंगलपट्टु जिले में स्थित है और चेन्नई से 75 कि.मी. है। केके सोमसुंदरम (IFS) वाइल्ड लाइफ वार्डन हैं. यहाँ का ख़ास आकर्षण 'वाच टॉवर ' और वहाँ बनी पक्षियों की तस्वीर हैं जिनकी सहायता से पक्षियों को आसानी से पहचाना जा सकता है। वेदान्थांगल पक्षी अभयारण्य दो कारणों के लिए देश भर के पक्षी प्रेमियों का तथा पक्षी-वैज्ञानिकों का ध्यान आकर्षित करती है। सबसे पहले, यह भारत में स्थापित किए गए प्रथम पक्षी अभयारण्यों में से एक है जिसका इतिहास ब्रिटिश शासन काल जितना पुराना है। दूसरा, इस अभयारण्य को जो राष्ट्रव्यापी महत्व मिलता है इसका श्रेय इस अभयारण्य के संरक्षण के लिए दिए गए स्थानीय समुदायों के लोगों की भागीदारी को जाता है। विविध प्रकार के प्रवासी पक्षियों के कारण वेदान्थांगल पक्षी अभयारण्य देश भर से पक्षी प्रेमियों को आकर्षित करता है। इस अभयारण्य में देखे जाने वाले दुर्लभ और विदेशी पक्षियों की प्रजातियों में कलहंस, ऑस्ट्रेलिया का ग्रे हवासील, श्रीलंका का ड़ार्टर, ग्रे बगुला, ग्लॉसी आइबिस, ओपन बिल सारस, साइबेरियाई सारस, स्पॉट बिल हंस शामिल हैं। इस अभयारण्य में अनगिनत छोटी झीलें मौजूद हैं और यह 74 एकड़ के क्षेत्र में फैला है। नवंबर और दिसंबर के महीनों में इस अभयारण्य में यूरोपीय प्रजाति के कई दुर्लभ पक्षी देखे जा सकते हैं। पक्षियों के लिए महत्वपूर्ण वृक्ष प्रजातियाँ हैं- Baringtonia sp. और Acacia nilotica.
राष्ट्रीय उद्यान गिंडी (Guindy National Park): गिंडी नेशनल पार्क गए। 2.76 वर्ग किमी में फैला देश का सबसे छोटा राष्ट्रीय उद्यान गिंडी राष्ट्रीय उद्यान पूर्ण रूप से शहर के भीतर स्थित है। यह हिरण, लोमड़ियों, बंदरों और सांपों की विभिन्न विलुप्तप्रायः किस्मों को सहेजे है। राष्ट्रीय उद्यान में स्थित गिंडी सर्प उद्यान में सांपों का विशाल संग्रह है एवं यह विषरोधी सीरम का एक महत्वपूर्ण स्रोत है।
चेन्नई सर्प उद्यान (Chennai Snake Park): वहाँ पर मि. वेटकर (Romulus Whitaker) का स्नेक पार्क देखने योग्य है। सभी प्रकार के सांप यहाँ पर हैं। समय-समय पर दिन में कई बार सर्पों का प्रदर्शन भी किया जाता है। सर्प उद्यान तमिलनाडु के शहर चेन्नई का एक मुख्य पर्यटन स्थल है। इस उद्यान में भारत के लगभग 40 सांपों की प्रजातियाँ हैं। यहाँ मगरमच्छों, गिरगिटों, कछुओं, छिपकलियों और गोह को प्राकृतिक अवस्था में देखा जा सकता है। सर्प उद्यान में सांपों का विशाल संग्रह है एवं यह विषरोधी सीरम का एक महत्त्वपूर्ण स्रोत है।
पेरिस मार्किट: वहाँ से लौटकर पेरिस मार्किट गए।
मरीना बीच (Marina Beach ): बाद में शाम को मरीना बीच का लुत्फ़ लिया। यहाँ काफी भीड़ लगी रहती है। जब थोडा अँधेरा होने लगता है तो प्रेमी-युग्मों की भीड़ बढ़ने लगती है। दक्षिण भारत का चेन्नई महानगर में एक प्रसिद्ध बीच है। यह बीच विश्व के सबसे लम्बे तट (बीच) में से एक है। यह भारत का सबसे बड़ा और दुनिया का दूसरा सबसे बड़े समुद्र तटों में गिना जाता है। मरीना बीच भारत के बंगाल की खाड़ी के साथ चेन्नई, तमिलनाडु में एक शहरी क्षेत्र का प्राकृतिक समुद्र तट रहा है। यह तट 13 किमी. रेतीली नदी दक्षिण के बेसंत नगर (Besant Nagar)से उत्तर में फोर्ट सेंट जॉर्ज तक फैला हुआ है। मरीना तट मुख्य रुप से रेतीली-चट्टानी संरचनाओं के विपरित रेतीला है जो मुंबई के जुहू समुद्र तट को दर्शाता है। समुद्र तट की औसत चौड़ाई 300 मी. जबकि पश्चिमी चौड़ाई 437 मी. है। मरीना बीच के खतरों को देखते हुए स्नान तथा तैराकी पर प्रतिबंध लगाया गया है। यह देश के उन सबसे भीड़भाड़ वाले समुद्र तटों में है जहां सप्ताह में 3,000 और छुट्टियों के दिनों लगभग 50,000 के करीब दर्शनार्थी आकर्षण के केन्द्र होते हैं। यहाँ गर्मियों के महिनों और फ़रवरी, नंम्बर महीनों में बिशेष रुप से 15,000 से 20,000 दर्शनार्थियों को आकर्षित करता है। 16 वी. शताब्दी से पहले, समुद्र के स्तर में वृद्धि के फलस्वरूप भूमि जलग्रहण की अनेक घटनाएँ होती थी। लेकिन वहाँ समुद्र पीछे हटने से कई लकीरें और लैगून बन गये। 1880 के दशक में वहाँ के गर्वनर माउंटस्टाट एल्फिंस्टन ग्रांट डफ द्वारा चेन्नई में मरीना बीच का नवीनीकरण किया गया था।
मद्रास (चेन्नई) - हैदराबाद
8.1.1982: मद्रास (चेन्नई) - हैदराबाद
मद्रास (चेन्नई) से हैदराबाद के लिए 10.10 बजे न्यू डेल्ही एक्सप्रेस से रवाना हुए। विजयवाड़ा में गलती से रेलवे ने हमारी बोगी को ट्रेन से अलग कर दिया था और ट्रेन निकल गयी। सहायक स्टेशन मास्टर से बात-चित हुई तो पता लगा कि उनको मद्रास से टेलीग्राम मिला था कि स्पेशल बोगी को काट दो । इसलिए हमने काट दिया। पहले वह जरा गर्मी से बोल रहा था। बाद में जब उसे पता लगा कि ये भारतीय वन सेवा के अधिकारी हैं तो नरमी से बात करने लगा। तकनिकी सलाहकार से सलाह कर हमारी विशेष बोगी को 22.30 पर दूसरी आने वाली गाड़ी के साथ जोड़ा गया।
9.1.1982: हैदराबाद
सुबह साढ़े आठ बजे सिकंदराबाद पहुंचे। सिकंदराबाद और हैदराबाद जुड़वां शहर हैं। हैदराबाद में हमारे रुकने की व्यवस्था जया इंटरनेशनल होटल में की गयी थी। यह थ्री-स्टार होटल है। यहाँ नहा-धोकर गोलकुंडा किला देखने निकले। इतिहास प्रसिद्ध कोहिनूर हीरा यहीं पर रखा गया था। वर्ष 1518 से कुतुबुद्दीन शाही शासकों ने यहाँ पर राज्य किया और बहमनी साम्राज्य का यह सबसे बड़ा किला माना जाता है। किले की ऊंचाई 400 फीट है। इसके ऊपर से चारों तरफ का दृश्य बड़ा मनमोहक लगता है। इससे पहले क़ुतुब-शाही गार्डन देखने गए थे। यह गोलकुंडा किले के पास ही है। यहाँ कुतुबशाही, जो पर्शियन राजा थे, के मकबरे बने हैं। सबसे अच्छा मकबरा मोहम्मद कुली क़ुतुब शाह का बना है। इन्होने ही हैदराबाद शहर बसाया था।
10.1.1982: हैदराबाद
आज पूरे दिन शहर का भ्रमण था। सबसे पहले गए चार मीनार जो वर्ष 1591 में बनाई गयी थी जब हैदराबाद शहर की नींव डाली थी । प्लास्टर और पत्थर से बनी यह बहुत सुन्दर ईमारत है। प्रत्येक मीनार की ऊंचाई 180 फीट है। ऊपर चढ़कर देखने से शहर का बड़ा सुहाना दृश्य नजर आता है। चार मीनार के दक्षिण में ही मक्का मस्जिद बनी है। यह सन 1614 में बनी थी। मोहम्मद कुतुबशाह-VI ने इसे बनाना प्रारम्भ किया था और औरंगजेब ने इसे पूरा किया। अन्य सुन्दर इमारतें जो प्रभावित किये बिना नहीं रहती उनमें प्रमुख हैं - उस्मानिया जनरल हॉस्पिटल, स्टेट सेन्ट्रल पुस्तकालय और हाई कोर्ट। हाई कोर्ट मुसी नदी के किनारे सबसे सुन्दर इमारतों में से एक है। फिर हम नेहरू जूलोजिकल पार्क गए। यह देश के सबसे सुन्दर जूलोजिकल पार्कों में से एक है। सभी तरह के पशु-पक्षी और लायन सफारी यहाँ देखे जा सकते हैं। लायन सफारी में चार सिंह हैं। अंत में हमने सलारजंग म्यूजियम देखा। यह मुसी नदी के किनारे स्टेट पुस्तकालय के ठीक सामने स्थित है। यहाँ मीर युसूफ खान (सालार जंग) का बहुमूल्य संग्रह है। उनके कला प्रेम की सभी विधाएं यहाँ देखी जा सकती हैं। यहाँ की मूर्तियां और पेन्टिंग किसी का भी बरबस ध्यान आकर्षित करती हैं।
हैदराबाद - नागपुर - रायपुर - देहारादून
11.1.1982: हैदराबाद (22.00) - नागपुर ट्रेन द्वारा
आज सुबह मुख्य वनसंरक्षक आंध्र प्रदेश, श्री मनवर हुसैन ने सम्बोधित किया। उन्होंने बताया कि आंध्र प्रदेश में वानिकी के लिए बजट बहुत ही कम है सिर्फ दस करोड़ रुपये। रात के दस बजे सिकंदराबाद से ट्रेन द्वारा रायपुर के लिए रवाना हुए। रास्ते के स्टेशन हैं Hyderabad (22.00) → Kazipet → Sirpur → Kagaznagar → Ballalpur → Ramgundam → Nagpur (9.30)
12.1.1982: नागपुर (9.30)
सुबह साढ़े नौ बजे नागपुर पहुंचे। दिनभर नागपुर में ही बिताया। सामान बोगी में ही रखा था। नागपुर में कोई खास देखने का स्थल नहीं है। यहाँ का संतरा बड़ा प्रसिद्ध है। इसलिए एक-एक टोकरी संतरा खरीदा। संतरे वाले लोग बड़े चिपकू थे, उनसे पीछा छुड़ाना मुश्किल लगता है। रात को 8 बजे चक्रधरपुर एक्सप्रेस के साथ हमारी बोगी संलग्न की गयी और हम रायपुर के लिए रवाना हुए।
नागपुर (AS, p.487) : महाराष्ट्र में नाग नदी पर अवस्थित है. गोंड राजाओं ने इस नगर की नींव डाली थी. बाद में 18वीं सदी में यहां भोंसला मराठों का आधिपत्य स्थापित हुआ. 1777 में मराठों और अंग्रेजों का युद्ध नागपुर में हुआ था. लॉर्ड डलहौजी ने नागपुर की रियासत को नागपुर नरेश के उत्तराधिकारी न होने की दशा में जप्त कर लिया और यहां के राजवंश के कीमती रत्नआदिकों का नीलाम कर दिया. भोंसला वंश के शासन काल का यहां एक दुर्ग तथा अन्य भवन स्थित है.
13.1.1982: रायपुर
सुबह पांच बजे रायपुर पहुंचे। रायपुर स्टेशन पर रिसीव करने हमारे सीनियर श्री अजित सोनकिया (IFS-1979) पहुंचे। रायपुर में हम होटल मयूर में रुके। भिलाई स्टील प्लांट देखने गए जो यहाँ से 40 किमी दूर है। यह एशिया का सबसे बड़ा प्लांट हैं। यह संयंत्र रसियन सहयोग से 1955 में बनाया गया है। यह भारत का पहला इस्पात उत्पादक संयंत्र है तथा मुख्यतः रेलों का उत्पादन करता है। इस कारखाने की स्थापना दूसरी पंचवर्षीय योजना (1956-61)के अंतर्गत की गई थी।यह वर्तमान में क्षमता से ज्यादा उत्पादन कर रहा है। हमने फर्नेस स्मेल्टर रेल व स्ट्रकचरल मिल और बाई प्रोडक्ट प्लांट देखे। यह कारखाना राष्ट्र में रेल की पटरियों और भारी इस्पात प्लेटों का एकमात्र निर्माता तथा संरचनाओं का प्रमुख उत्पादक है। देश में 260 मीटर की रेल की सबसे लम्बी पटरियों के एकमात्र सप्लायर, इस कारखाने की वार्षिक उत्पादन क्षमता 31 लाख 53 हजार टन विक्रेय इस्पात की है। यह कारखाना वायर रॉड तथा मर्चेन्ट उत्पाद जैसे विशेष सामान भी तैयार कर रहा है।
शाम को कोई प्रोग्राम नहीं था। रात को लगी प्रदर्शनी देखी।
14.1.1982: रायपुर
आज रायपुर डिवीजन के फोरेस्ट देखने गए। यहाँ से 125 किमी दूर है देवपुर जहाँ पर हमारे सीनियर श्री अजित सोनकिया रेंज ट्रेनिंग में हैं। इससे पहले रास्ते में ही सिरमूर में मगध के नरेश की पुत्री और महाकौशल की माता का बनाया हुआ आठवीं शताब्दी का ईंटों से बना मंदिर देखा जो अब भी ज्यों का त्यों है। यहाँ की मूर्तियां रायपुर म्यूजियम में रख दी गयी हैं। परन्तु कुछ मूर्तियां अब भी यहाँ रखी हैं। 125 किमी चलने के बाद जंगल प्रारम्भ होते हैं। यहाँ जंगल काफी घना है।
15.1.1982: रायपुर - आज दक्षिण रायपुर वनमंडल के जंगल देखे।
16.1.1982: रायपुर - रायपुर से रवाना हुए छतीसगढ़ एक्सप्रेस से दोपहर बाद 3 बजे।
17.1.1982: दिल्ली - रात को 8.10 बजे हजरत निजामुद्दीन पहुंचे। रात को कोच यहीं रहा। दक्षिण भारत का टूर समाप्त
18.1.1982: सुबह 8.35 बजे बीकानेर एक्सप्रेस से गाँव ठठावता के लिए रवाना। शाम को ठठावता पहुंचा।