Vohitaraja
Vohitaraja (वोहितराज) was Dhaulya clan ruler of Kharnal. He was grandfather of Tejaji. His eldest son Tahardev died before him in 1082 AD. Vohitaraja had to see the administration of Kharnal republic after death of Tahardev. In some folk songs name Baksaji is also mentioned who was same as Bohitaraja. [1]
Variants of name
- Baksaji (बक्सा जी)
- Bohitaraja (बोहित राज)
- Bohita raja (बोहित राज)
- Bohita Raja (बोहित राज)
- Bohit Raja (बोहित राज)
- Bohit Raj (बोहित राज)
- Bohitaraja (बोहितराज)
- Vohita Raja (वोहितराज)
- Vohita raja (वोहितराज)
Genealogy of Tejaji
Mansukh Ranwa[2] has provided the Genealogy of Dhaulya rulers. The primeval man of their ancestry was Mahābal, whose descendants and estimated periods calculated @ 30 years for each generation are as under:
- 1. Mahābal (महाबल) (480 AD)
- 2. Bhīmsen (भीमसेन) (510 AD)
- 3. Pīlapunjar (पीलपंजर) (540 AD)
- 4. Sārangdev (सारंगदेव) (570 AD)
- 5. Shaktipāl (शक्तिपाल) (600 AD)
- 6. Rāypāl (रायपाल) (630 AD)
- 7. Dhawalpāl (धवलपाल) (660 AD)
- 8. Nayanpāl (नयनपाल) (690 AD)
- 9. Gharṣanpāl (घर्षणपाल) (720 AD)
- 10. Takkapāl (तक्कपाल) (750 AD)
- 11. Mūlsen (मूलसेन) (780 AD)
- 12. Ratansen (रतनसेण ) (810 AD)
- 13. Śuṇḍal (सुण्डल) (840 AD)
- 14. Kuṇḍal (870 AD)
- 15. Pippal (पिप्पल) (900 AD)
- 16. Udayarāj (उदयराज) (930 AD) (Udayaraja Dhaulya defeated Kalas of Jayal and occupied Kharnal in 964 AD and made his capital)[3]
- 17. Narpāl (नरपाल) (960 AD)
- 18. Kāmrāj (कामराज) (990 AD)
- 19. Vohitrāj (वोहितराज) (1020 AD)
- 20. Thirarāj (थिरराज) (1050 AD) or Tahardev (ताहड़देव)
- 21. Tejpal (तेजपाल) (1074- 1103 AD)
तेजाजी के पूर्वज
संत श्री कान्हाराम[4] ने लिखा है कि.... [पृष्ठ-62] : रामायण काल में तेजाजी के पूर्वज मध्यभारत के खिलचीपुर के क्षेत्र में रहते थे। कहते हैं कि जब राम वनवास पर थे तब लक्ष्मण ने तेजाजी के पूर्वजों के खेत से तिल खाये थे। बाद में राजनैतिक कारणों से तेजाजी के पूर्वज खिलचीपुर छोडकर पहले गोहद आए वहाँ से धौलपुर आए थे। तेजाजी के वंश में सातवीं पीढ़ी में तथा तेजाजी से पहले 15वीं पीढ़ी में धवल पाल हुये थे। उन्हीं के नाम पर धौलिया गोत्र चला। श्वेतनाग ही धोलानाग थे। धोलपुर में भाईयों की आपसी लड़ाई के कारण धोलपुर छोडकर नागाणा के जायल क्षेत्र में आ बसे।
[पृष्ठ-63]: तेजाजी के छठी पीढ़ी पहले के पूर्वज उदयराज का जायलों के साथ युद्ध हो गया, जिसमें उदयराज की जीत तथा जायलों की हार हुई। युद्ध से उपजे इस बैर के कारण जायल वाले आज भी तेजाजी के प्रति दुर्भावना रखते हैं। फिर वे जायल से जोधपुर-नागौर की सीमा स्थित धौली डेह (करणु के पास) में जाकर बस गए। धौलिया गोत्र के कारण उस डेह (पानी का आश्रय) का नाम धौली डेह पड़ा। यह घटना विक्रम संवत 1021 (964 ई.) के पहले की है। विक्रम संवत 1021 (964 ई.) में उदयराज ने खरनाल पर अधिकार कर लिया और इसे अपनी राजधानी बनाया। 24 गांवों के खरनाल गणराज्य का क्षेत्रफल काफी विस्तृत था। तब खरनाल का नाम करनाल था, जो उच्चारण भेद के कारण खरनाल हो गया। उपर्युक्त मध्य भारत खिलचीपुर, गोहाद, धौलपुर, नागाणा, जायल, धौली डेह, खरनाल आदि से संबन्धित सम्पूर्ण तथ्य प्राचीन इतिहास में विद्यमान होने के साथ ही डेगाना निवासी धौलिया गोत्र के बही-भाट श्री भैरूराम भाट की पौथी में भी लिखे हुये हैं।
संत श्री कान्हाराम[5] ने लिखा है कि....तेजाजी का जन्म चौहान शासक गोविन्दराज या गोविंददेव तृतीय के समय में हुआ था। तब मुसलमानों की दाखल के कारण गोविंद देव तृतीय ने अपनी राजधानी नागौर से सांभर स्थानांतरित करली थी और नागौर का क्षेत्र तनावग्रस्त सा हो गया था। इसी समय 1074 – 1085 ई. के बीच तेजाजी के पिता ताहड़देव की मृत्यु हो चुकी थी। तेजाजी के पिता 24 गाँव के समूह खरनाल गणराज्य के गणपति थे। उनकी मृत्यु होने पर तेजाजी के दादा बोहित राज (बक्सा जी) गणराज्य एवं तेजाजी के संरक्षक की भूमिका निभा रहे थे। इन गणराज्यों की केंद्रीय सत्ता सांभर के चौहानों के हाथ थी।
[पृष्ठ-80]: उस काल में मरुधर के अंतर्गत नागवंशी जाटों के नेतृत्व में अनेक गणराज्य संचालित थे। गुजरात में गुर्जरों के नेतृत्व में, हाड़ौती में गुर्जर और मीनों के नेतृत्व में। मेरवाड़ा (मेवाड़) में मेरों के, भीलवाडा एवं कोटा क्षेत्र में भीलों के नेतृत्व में गणराज्य चला करते थे।
तेजाजी के पूर्वज मूलतः नागवंश की मालवा शाखा के श्वेतनाग के वंशज थे। भैरूराम भाट डेगाना की पौथी के अनुसार ये नागवंश की चौहान खांप (शाखा) की उपशाखा खींची नख के धौलिया गोत्र के जाट थे। श्वेतनाग (धौलानाग) के नाम पर धौल्या गोत्र बना। धवलपाल इनके पूर्वज थे।
संत श्री कान्हाराम[6] ने लिखा है कि.... [पृष्ठ-84]: तेजाजी के जन्म के समय (1074 ई.) यहाँ मरुधरा में छोटे-छोटे गणराज्य आबाद थे। तेजाजी के पिता ताहड़ देव (थिरराज) खरनाल गणराज्य के गणपति थे। इसमें 24 गांवों का समूह था। तेजाजी का ससुराल पनेर भी एक गणराज्य था जिस पर झाँझर गोत्र के जाट राव रायमल मुहता का शासन था। मेहता या मुहता उनकी पदवी थी। उस समय पनेर काफी बड़ा नगर था, जो शहर पनेर नाम से विख्यात था। छोटे छोटे गणराज्यों के संघ ही प्रतिहार व चौहान के दल थे जो उस समय के पराक्रमी राजा के नेतृत्व में ये दल बने थे।
[पृष्ठ-85]: पनैर, जाजोता व रूपनगर गांवों के बीच की भूमि में दबे शहर पनेर के अवशेष आज भी खुदाई में मिलते हैं। आस पास ही कहीं महाभारत कालीन बहबलपुर भी था। पनेर से डेढ़ किमी दूर दक्षिण पूर्व दिशा में रंगबाड़ी में लाछा गुजरी अपने पति परिवार के साथ रहती थी। लाछा के पास बड़ी संख्या में गौ धन था। समाज में लाछा की बड़ी मान्यता थी। लाछा का पति नंदू गुजर एक सीधा साधा इंसान था।
तेजाजी की सास बोदल दे पेमाल का अन्यत्र पुनःविवाह करना चाहती थी, उसमें लाछा बड़ी रोड़ा थी। सतवंती पेमल अपनी माता को इस कुकर्त्य के लिए साफ मना कर चुकी थी। खरनाल व शहर पनेर गणराजयों की तरह अन्य वंशों के अलग-अलग गणराज्य थे। तेजाजी का ननिहाल त्योद भी एक गणराज्य था। जिसके गणपति तेजाजी के नानाजी दूल्हण सोढ़ी (ज्याणी) प्रतिष्ठित थे। ये सोढ़ी पहले पांचाल प्रदेश अंतर्गत अधिपति थे। ऐतिहासिक कारणों से ये जांगल प्रदेश के त्योद में आ बसे। सोढ़ी से ही ज्याणी गोत्र निकला है।
इन सभी गणराजयों की केंद्रीय सत्ता गोविंददेव या गोविंदराज तृतीय चौहान की राजधानी सांभर में निहित थी। इसके प्रमाण इतिहास की पुस्तकों के साथ-साथ यहाँ पनेर- रूपनगर के क्षेत्र के गांवों में बीसियों की संख्या में शिलालेख के रूप में बिखरे पड़े हैं। थल, सिणगारा, रघुनाथपुरा, रूपनगढ, बाल्यास का टीबा, जूणदा आदि गांवों में एक ही प्रकार के पत्थर पर एक ही प्रकार की बनावट व लिखावट वाले बीसियों शिलालेख बिलकुल सुरक्षित स्थिति में है।
संत श्री कान्हाराम[7] ने लिखा है कि.... [पृष्ठ-86]: इन शिलालेख के पत्थरों की घिसावट के कारण इन पर लिखे अक्षर आसानी से नहीं पढे जाते हैं। ग्राम थल के दक्षिण-पश्चिम में स्थित दो शिलालेखों से एक की लिखावट का कुछ अंश साफ पढ़ा जा सका, जिस पर लिखा है – विक्रम संवत 1086 गोविंददेव ।
रघुनाथपुरा गाँव की उत्तर दिशा में एक खेत में स्थित दो-तीन शिलालेखों में से एक पर विक्रम संवत 628 लिखा हुआ है। जो तत्कालीन इतिहास को जानने के लिए एक बहुत बड़ा प्रमाण है। सिणगारा तथा बाल्यास के टीबा में स्थित शिलालेखों पर संवत 1086 साफ-साफ पढ़ा जा सकता है। इन शिलालेखों पर गहन अनुसंधान आवश्यक है।
[पृष्ठ-87]: रूपनगढ क्षेत्र के रघुनाथपुरा गाँव के प्राचीन गढ़ में एक गुफा बनी है जो उसके मुहाने पर बिलकुल संकरी एवं आगे चौड़ी होती जाती है। अंतिम छौर की दीवार में 4 x 3 फीट के आले में तेजाजी की एक प्राचीन प्रतिमा विराजमान है। उनके पास में दीवार में बने एक बिल में प्राचीन नागराज रहता है। सामंती राज में किसी को वहाँ जाने की अनुमति नहीं थी। इस गुफा के बारे में लेखक को कर्तार बाना ने बताया। कर्तार का इस गाँव में ननिहाल होने से बचपन से जानकारी थी। संभवत ग्रामीणों को तेजाजी के इतिहास को छुपने के प्रयास में सामंतों द्वारा इसे गोपनीय रखा गया था।
राष्ट्रीय राजमार्ग – 8 पर स्थित मंडावरिया गाँव की पहाड़ी के उत्तर पूर्व में स्थित तेजाजी तथा मीना के बीच हुई लड़ाई के रणसंग्राम स्थल पर भी हल्के गुलाबी पत्थर के शिलालेखों पर खुदाई मौजूद है। पुरातत्व विभाग के सहयोग से आगे खोज की आवश्यकता है।
बोहितराज या बक्साजी
संत श्री कान्हाराम[8] ने लिखा है कि....लोक गाथाओं व जन मान्यताओं में तेजाजी के पिता का नाम बक्साजी बताया जाता है लेकिन तेजाजी के पूर्वजों के वंशज धौलिया जाटों की बही रखने वाले डेगाना निवासी भैरूराम भाट की पौथी से इस तथ्य की पुष्टि नहीं होती है। पौथी में तेजाजी के पिता का नाम ताहड़ देव (थिर राज) लिखा हुआ है। वहाँ तेजाजी के पूर्वजों की 21 पीढ़ी तक की वंशावली दी गई है। उस पौथी में ताहड़ देव आदि सात भाईयों के नाम भी लिखे हैं। उनमें ताहड़ देव सबसे बड़े हैं। वहाँ तेजाजी के ताऊ का बक्साजी कोई नाम नहीं है, जैसा कुछ लेखकों ने लिखा है।
काफी खौज खबर के बाद पता चला कि तेजाजी के दादा बोहित राज जी ही बोल चाल में बक्साजी के नाम से लोकप्रिय थे। भाषा विज्ञान की दृष्टि से भी बोहित जी तथा बक्सा जी मेल खाते हैं। तेजाजी के दादा बोहितराज जी ने अपने जीतेजी सर्वाधिक योग्य होने के कारण खरनाल गणराज्य के आमजन की सहमति से गणपत का पद तेजाजी के पिता ताहड़ देव को दिया था।
तेजाजी के पिता ताहड़ देव की म्रत्यु 50-55 वर्ष की आयु में हो गई थी। इसलिए परिवार की एवं गणराज्य की ज़िम्मेदारी बोहितराज के कंधों पर आ गई थी। भाईयों में सबसे छोटे होने के बावजूद भी योग्यता के आधार पर युवराज पद का भार तेजपाल के कंधों पर डाला गया। परिवार की संरक्षक की भूमिका में होने के कारण लोक गाथाओं तथा जन मान्यताओं में तेजाजी के पिता के रूप में बोहितराज (बक्साजी) नाम प्रचलित हो गया था।
External links
References
- ↑ Sant Kanha Ram: Shri Veer Tejaji Ka Itihas Evam Jiwan Charitra (Shodh Granth), Published by Veer Tejaji Shodh Sansthan Sursura, Ajmer, 2015. p.159
- ↑ Mansukh Ranwa: Kshatriya Shiromani Veer Tejaji, 2001, p.13
- ↑ Sant Kanha Ram:Shri Veer Tejaji Ka Itihas Evam Jiwan Charitra (Shodh Granth), Published by Veer Tejaji Shodh Sansthan Sursura, Ajmer, 2015. pp.62-63
- ↑ Sant Kanha Ram: Shri Veer Tejaji Ka Itihas Evam Jiwan Charitra (Shodh Granth), Published by Veer Tejaji Shodh Sansthan Sursura, Ajmer, 2015. pp.62-63
- ↑ Sant Kanha Ram: Shri Veer Tejaji Ka Itihas Evam Jiwan Charitra (Shodh Granth), Published by Veer Tejaji Shodh Sansthan Sursura, Ajmer, 2015. pp.79-80
- ↑ Sant Kanha Ram: Shri Veer Tejaji Ka Itihas Evam Jiwan Charitra (Shodh Granth), Published by Veer Tejaji Shodh Sansthan Sursura, Ajmer, 2015. pp.84-85
- ↑ Sant Kanha Ram: Shri Veer Tejaji Ka Itihas Evam Jiwan Charitra (Shodh Granth), Published by Veer Tejaji Shodh Sansthan Sursura, Ajmer, 2015. pp.86-87
- ↑ Sant Kanha Ram: Shri Veer Tejaji Ka Itihas Evam Jiwan Charitra (Shodh Granth), Published by Veer Tejaji Shodh Sansthan Sursura, Ajmer, 2015. pp.159
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