Tahar Dev

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Tahardev (born: ?-death:1082 AD) (ताहड़देव) or Thiraraja (थिरराज), son of Vohitrāj, was Dhaulya clan ruler of Kharnal and father of Tejaji. Taharji married with Ramkunwari in V.S. 1104 (=1047 AD) daughter of Dulhan Sodhi (Jyani) of Tyod. [1] Later Taharji, father of Tejaji, married with Rami Devi daughter of Karnoji Fidoda/Phardoda of village Koyalapatan (Athyasan) in V.S. 1116 (=1059 AD). [2]

Tahardev and his brother Askaran were killed by Baliya Kala of Jayal and Kaliya Meena of Chang in V.S. 1139 (1082 AD) at Kharnal. [3]

Variants of name

Genealogy of Tejaji

Mansukh Ranwa[4] has provided the Genealogy of Dhaulya rulers. The primeval man of their ancestry was Mahābal, whose descendants and estimated periods calculated @ 30 years for each generation are as under:

तेजाजी के पूर्वज

संत श्री कान्हाराम[6] ने लिखा है कि.... [पृष्ठ-62] : रामायण काल में तेजाजी के पूर्वज मध्यभारत के खिलचीपुर के क्षेत्र में रहते थे। कहते हैं कि जब राम वनवास पर थे तब लक्ष्मण ने तेजाजी के पूर्वजों के खेत से तिल खाये थे। बाद में राजनैतिक कारणों से तेजाजी के पूर्वज खिलचीपुर छोडकर पहले गोहद आए वहाँ से धौलपुर आए थे। तेजाजी के वंश में सातवीं पीढ़ी में तथा तेजाजी से पहले 15वीं पीढ़ी में धवल पाल हुये थे। उन्हीं के नाम पर धौलिया गोत्र चला। श्वेतनाग ही धोलानाग थे। धोलपुर में भाईयों की आपसी लड़ाई के कारण धोलपुर छोडकर नागाणा के जायल क्षेत्र में आ बसे।


[पृष्ठ-63]: तेजाजी के छठी पीढ़ी पहले के पूर्वज उदयराज का जायलों के साथ युद्ध हो गया, जिसमें उदयराज की जीत तथा जायलों की हार हुई। युद्ध से उपजे इस बैर के कारण जायल वाले आज भी तेजाजी के प्रति दुर्भावना रखते हैं। फिर वे जायल से जोधपुर-नागौर की सीमा स्थित धौली डेह (करणु के पास) में जाकर बस गए। धौलिया गोत्र के कारण उस डेह (पानी का आश्रय) का नाम धौली डेह पड़ा। यह घटना विक्रम संवत 1021 (964 ई.) के पहले की है। विक्रम संवत 1021 (964 ई.) में उदयराज ने खरनाल पर अधिकार कर लिया और इसे अपनी राजधानी बनाया। 24 गांवों के खरनाल गणराज्य का क्षेत्रफल काफी विस्तृत था। तब खरनाल का नाम करनाल था, जो उच्चारण भेद के कारण खरनाल हो गया। उपर्युक्त मध्य भारत खिलचीपुर, गोहाद, धौलपुर, नागाणा, जायल, धौली डेह, खरनाल आदि से संबन्धित सम्पूर्ण तथ्य प्राचीन इतिहास में विद्यमान होने के साथ ही डेगाना निवासी धौलिया गोत्र के बही-भाट श्री भैरूराम भाट की पौथी में भी लिखे हुये हैं।

संत श्री कान्हाराम[7] ने लिखा है कि....तेजाजी का जन्म चौहान शासक गोविन्दराज या गोविंददेव तृतीय के समय में हुआ था। तब मुसलमानों की दाखल के कारण गोविंद देव तृतीय ने अपनी राजधानी नागौर से सांभर स्थानांतरित करली थी और नागौर का क्षेत्र तनावग्रस्त सा हो गया था। इसी समय 1074 – 1085 ई. के बीच तेजाजी के पिता ताहड़देव की मृत्यु हो चुकी थी। तेजाजी के पिता 24 गाँव के समूह खरनाल गणराज्य के गणपति थे। उनकी मृत्यु होने पर तेजाजी के दादा बोहित राज (बक्सा जी) गणराज्य एवं तेजाजी के संरक्षक की भूमिका निभा रहे थे। इन गणराज्यों की केंद्रीय सत्ता सांभर के चौहानों के हाथ थी।


[पृष्ठ-80]: उस काल में मरुधर के अंतर्गत नागवंशी जाटों के नेतृत्व में अनेक गणराज्य संचालित थे। गुजरात में गुर्जरों के नेतृत्व में, हाड़ौती में गुर्जर और मीनों के नेतृत्व में। मेरवाड़ा (मेवाड़) में मेरों के, भीलवाडा एवं कोटा क्षेत्र में भीलों के नेतृत्व में गणराज्य चला करते थे।

तेजाजी के पूर्वज मूलतः नागवंश की मालवा शाखा के श्वेतनाग के वंशज थे। भैरूराम भाट डेगाना की पौथी के अनुसार ये नागवंश की चौहान खांप (शाखा) की उपशाखा खींची नख के धौलिया गोत्र के जाट थे। श्वेतनाग (धौलानाग) के नाम पर धौल्या गोत्र बना। धवलपाल इनके पूर्वज थे।


संत श्री कान्हाराम[8] ने लिखा है कि.... [पृष्ठ-84]: तेजाजी के जन्म के समय (1074 ई.) यहाँ मरुधरा में छोटे-छोटे गणराज्य आबाद थे। तेजाजी के पिता ताहड़ देव (थिरराज) खरनाल गणराज्य के गणपति थे। इसमें 24 गांवों का समूह था। तेजाजी का ससुराल पनेर भी एक गणराज्य था जिस पर झाँझर गोत्र के जाट राव रायमल मुहता का शासन था। मेहता या मुहता उनकी पदवी थी। उस समय पनेर काफी बड़ा नगर था, जो शहर पनेर नाम से विख्यात था। छोटे छोटे गणराज्यों के संघ ही प्रतिहारचौहान के दल थे जो उस समय के पराक्रमी राजा के नेतृत्व में ये दल बने थे।


[पृष्ठ-85]: पनैर, जाजोतारूपनगर गांवों के बीच की भूमि में दबे शहर पनेर के अवशेष आज भी खुदाई में मिलते हैं। आस पास ही कहीं महाभारत कालीन बहबलपुर भी था। पनेर से डेढ़ किमी दूर दक्षिण पूर्व दिशा में रंगबाड़ी में लाछा गुजरी अपने पति परिवार के साथ रहती थी। लाछा के पास बड़ी संख्या में गौ धन था। समाज में लाछा की बड़ी मान्यता थी। लाछा का पति नंदू गुजर एक सीधा साधा इंसान था।

तेजाजी की सास बोदल दे पेमाल का अन्यत्र पुनःविवाह करना चाहती थी, उसमें लाछा बड़ी रोड़ा थी। सतवंती पेमल अपनी माता को इस कुकर्त्य के लिए साफ मना कर चुकी थी। खरनालशहर पनेर गणराजयों की तरह अन्य वंशों के अलग-अलग गणराज्य थे। तेजाजी का ननिहाल त्योद भी एक गणराज्य था। जिसके गणपति तेजाजी के नानाजी दूल्हण सोढ़ी (ज्याणी) प्रतिष्ठित थे। ये सोढ़ी पहले पांचाल प्रदेश अंतर्गत अधिपति थे। ऐतिहासिक कारणों से ये जांगल प्रदेश के त्योद में आ बसे। सोढ़ी से ही ज्याणी गोत्र निकला है।

पनेर के निकटवर्ती गाँव थल, सिणगारा, रघुनाथपुरा, बाल्यास का टीबा स्थित सांभर के चौहान शासक गोविंददेव तृतीय (1053 ई.) के समय के शिलालेख, जो कि तेजाजी के समकालीन था

इन सभी गणराजयों की केंद्रीय सत्ता गोविंददेव या गोविंदराज तृतीय चौहान की राजधानी सांभर में निहित थी। इसके प्रमाण इतिहास की पुस्तकों के साथ-साथ यहाँ पनेर- रूपनगर के क्षेत्र के गांवों में बीसियों की संख्या में शिलालेख के रूप में बिखरे पड़े हैं। थल, सिणगारा, रघुनाथपुरा, रूपनगढ, बाल्यास का टीबा, जूणदा आदि गांवों में एक ही प्रकार के पत्थर पर एक ही प्रकार की बनावट व लिखावट वाले बीसियों शिलालेख बिलकुल सुरक्षित स्थिति में है।


संत श्री कान्हाराम[9] ने लिखा है कि.... [पृष्ठ-86]: इन शिलालेख के पत्थरों की घिसावट के कारण इन पर लिखे अक्षर आसानी से नहीं पढे जाते हैं। ग्राम थल के दक्षिण-पश्चिम में स्थित दो शिलालेखों से एक की लिखावट का कुछ अंश साफ पढ़ा जा सका, जिस पर लिखा है – विक्रम संवत 1086 गोविंददेव

मंडावरिया पर्वत की तलहटी स्थित रण संग्राम स्थल के देवले

रघुनाथपुरा गाँव की उत्तर दिशा में एक खेत में स्थित दो-तीन शिलालेखों में से एक पर विक्रम संवत 628 लिखा हुआ है। जो तत्कालीन इतिहास को जानने के लिए एक बहुत बड़ा प्रमाण है। सिणगारा तथा बाल्यास के टीबा में स्थित शिलालेखों पर संवत 1086 साफ-साफ पढ़ा जा सकता है। इन शिलालेखों पर गहन अनुसंधान आवश्यक है।


[पृष्ठ-87]: रूपनगढ क्षेत्र के रघुनाथपुरा गाँव के प्राचीन गढ़ में एक गुफा बनी है जो उसके मुहाने पर बिलकुल संकरी एवं आगे चौड़ी होती जाती है। अंतिम छौर की दीवार में 4 x 3 फीट के आले में तेजाजी की एक प्राचीन प्रतिमा विराजमान है। उनके पास में दीवार में बने एक बिल में प्राचीन नागराज रहता है। सामंती राज में किसी को वहाँ जाने की अनुमति नहीं थी। इस गुफा के बारे में लेखक को कर्तार बाना ने बताया। कर्तार का इस गाँव में ननिहाल होने से बचपन से जानकारी थी। संभवत ग्रामीणों को तेजाजी के इतिहास को छुपने के प्रयास में सामंतों द्वारा इसे गोपनीय रखा गया था।

राष्ट्रीय राजमार्ग – 8 पर स्थित मंडावरिया गाँव की पहाड़ी के उत्तर पूर्व में स्थित तेजाजी तथा मीना के बीच हुई लड़ाई के रणसंग्राम स्थल पर भी हल्के गुलाबी पत्थर के शिलालेखों पर खुदाई मौजूद है। पुरातत्व विभाग के सहयोग से आगे खोज की आवश्यकता है।

ताहड़देव के ससुराल: तेजाजी के ननिहाल

संत श्री कान्हाराम[10] ने लिखा है कि.... [पृषह-160]: तेजाजी के ननिहाल दो जगह थे – त्योद (किशनगढ़, अजमेर) और अठ्यासन (नागौर)

तेजाजी के पिता ताहड़देव जी धौलिया का पहला विवाह त्योद किशनगढ़ के दुल्हण जी सोढ़ीज्याणी जाट की पुत्री रामकुंवरी के साथ वि.स. 1104 (=1047 AD) में सम्पन्न हुआ। विवाह के 12 वर्ष पश्चात भी जब खरनाल गणराज्य के उत्तराधिकारी के रूप में किसी राजकुमार का जन्म नहीं हुआ तो राजमाता रामकुँवरी ने ताहड़ जी को दूसरे विवाह की अनुमति दी और स्वयं अपने पीहर त्योद जाकर शिव और नागदेवता की पूजा अर्चना में रत हो गई।

तेजाजी के प्रथम ननिहाल त्योद में ज्याणी जाटों के मात्र 3 घर ही हैं। इनके पूर्वज मंगरी गाँव में बस गए हैं।

विवाह के 12 वर्ष तक रामकुँवरी के कोई संतान नहीं हुई। अतः अपने वंश को आगे बढ़ाने के लिए ताहड़ जी के नहीं चाहते हुये भी रामकुँवरी ने अपने पति का दूसरा विवाह कर दिया। तेजाजी के पिता ताहड़ जी धौलिया का दूसरा विवाह कोयलापाटन (आठ्यासन) निवासी अखोजी (ईंटोजी) के पौत्र व जेठोजी के पुत्र करणोजी की पुत्री रामीदेवी के साथ वि.स. 1116 (=1059 AD) में सम्पन्न हुआ। इस विवाह का उल्लेख फरड़ोदों के हरसोलाव निवासी भाट जगदीश की पोथी में है। रामी देवी के कोख से तेजाजी के पाँच बड़े भाई उत्पन्न हुये – रूपजी, रणजी, गुण जी, महेशजी और नगजी। सभी भाईयों ने छोटे होते हुये भी तेजाजी को राज्य का उत्तराधिकारी स्वीकार किया यह भ्रातृ प्रेम का उत्कृष्ट उदाहरण है।

राम कुँवरी को 12 वर्ष तक कोई संतान नही होने से अपने पीहर पक्ष के गुरु मंगलनाथ जी के निर्देशन में उन्होने नागदेव की पूजा-उपासना आरंभ की। 12 वर्ष की आराधना के बाद उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति तेजाजी के रूप में हुई एक पुत्री राजल भी प्राप्त हुई। यह नाग-बांबी आज भी तत्कालीन त्योद-पनेर के कांकड़ में मौजूद है। अब उस स्थान पर तेजाजी की देवगति धाम सुरसुरा ग्राम आबाद है। उस समय वहाँ घनघोर जंगल था। सुरसुरा में तेजाजी का मंदिर बना हुआ है जिसमें तेजाजी की स्वप्रकट मूर्ति प्रतिष्ठित है। उसके सटाकर वह बांबी मौजूद है।


[पृषह-161]: इस बाम्बी के पास सटाकर तेजाजी के वीरगति पाने के बाद आसुदेवासी के नेतृत्व में ग्वालों ने तेजाजी का दाह संस्कार किया था। यहीं पर उनकी पत्नी पेमल सती हो गई थी। पेमल की अरदास पर सूर्यदेव की किरण से अग्नि उत्पन्न हो गई थी। इसी स्थान पर तेजाजी की समाधि पर भव्य मंदिर बना हुआ है। यहाँ नागदेव की बाँबी भी मौजूद है। त्योद के निवासी अपने भांजे तेजाजी की मान मर्यादा को निभाने के लिए आज तक यहाँ वीरगति स्थल समाधि धाम सुरसुरा में आते हैं। भादवा सुदी तेजा दशमी के दिन त्योद के वासिंदे गाजा बाजा के साथ तेजाजी का लोकगीत गाते हुये सुरसुरा में तेजाजी के समाधि धाम वीरगति स्थल पर खोपरा व मोलिया लाकर चढ़ाते हैं। यह परंपरा तब से अब तक अनवरत रूप से बदस्तूर जारी है।


[पृषह-162]:जगदीश भाट हरसोलाव की पौठी में इसका साक्षी विद्यमान है कि तेजाजी की ननिहाल अठ्यासन गाँव के फिडोदा गोत्री जाट के घर थी। भैरू भाट की पोथी में केवल एक ही नाम राम कुँवरी लिखा हुआ है। जबकि जगदीश भाट की पोथी में अथयासन वाली पोथी में अठ्यासन वाली पत्नी का नाम भी रामी लिखा है।

ताहड़ देव की प्रथम पत्नी त्योद निवासी ज्याणी गोत्र के जाट करसण जी के पुत्र राव दूल्हन जी सोढ़ी की पुत्री थी। यह सोढ़ी शब्द दूल्हन जी की खाँप या उपगोत्र अथवा नख से संबन्धित है। अब यहाँ ज्याणी गोत्री जाटों के सिर्फ तीन घर आबाद हैं। यहाँ से 20-25 किमी दूर आबाद मंगरी गाँव में ज्याणी रहते हैं।

त्योद - यह ग्राम तेजाजी का ननिहाल है। त्योद ग्राम तेजाजी के समाधि धाम सुरसुरा से 5-6 किमी उत्तर दिशा में है। त्योद निवासी ज्याणी गोत्र के जाट करसण जी के पुत्र राव दूल्हन जी सोढ़ी की पुत्री राम कुँवरी का विवाह खरनाल निवासी बोहित जी (बक्साजी) के पुत्र ताहड़ देव (थिर राज) के साथ विक्रम संवत 1104 में हुआ था।


[पृष्ठ-163]: विवाह के समय ताहड़ देव एवं राम कुँवरी दोनों जवान थे। ये सोढ़ी गोत्री जाट पांचाल प्रदेश से आए थे। यह ज्याणी भी सोढियों से निकले हैं। तब सोढ़ी यहाँ के गणपति थे। केंद्रीय सत्ता चौहानों की थी। यहाँ पर तेजाजी का प्राचीन मंदिर ज्याणी गोत्र के जाटों द्वारा बनवाया गया है। अब यहाँ पुराने मंदिर के स्थान पर नए भव्य मंदिर का निर्माण करवाया जा रहा है। यहाँ पर जाट, गुर्जर, बनिया, रेगर, मेघवाल, राजपूत, वैष्णव , ब्राह्मण, हरिजन, जांगिड़ , ढाढ़ी , बागरिया, गोस्वामी, कुम्हार आदि जतियों के लोग निवास करते हैं।

किशनगढ़ तहसील के ग्राम दादिया निवासी लादूराम बड़वा (राव) पहले त्योद आते थे तथा तेजाजी का ननिहाल ज्याणी गोत्र में होने की वार्ता सुनाया करते थे। पहले इस गाँव को ज्याणी गोत्र के जाटों ने बसाया था। अब अधिकांस ज्याणी गोत्र के लोग मँगरी गाँव में चले गए हैं।


[पृष्ठ-164]: तेजाजी के जमाने से काफी पहले ज्यानियों द्वारा बसाया गया था। पुराना गाँव वर्तमान गाँव से उत्तर दिशा में था। इसके अवशेष राख़, मिट्टी आदि अभी भी मिलते हैं। वर्तमान गाँव की छड़ी ज्याणी जाटों की रोपी हुई है।

अठ्यासन - तेजाजी के द्वितीय ननिहाल अठ्यासन में फरडोद जाटों के 3 ही घर हैं। इनके पूर्वजों ने फरड़ोद गोत्र से ही नया गाँव फरड़ोद बसाकर वहीं बस गए। अठ्यासन का प्राचीन नाम कोयलापाटन था। यह गाँव 2 से 3 हजार साल पुराना बताया जाता है। ऐतिहासिक कारणों से यह गाँव उजड़ गया। गाँव के पास खाती की ढ़ाणी में 8 साधू महात्माओं के धुणे थे। आठ आसनों के चलते गाँव का यह नाम आठ्यासन पड़ा। इस गाँव के मूल निवासी फरड़ोद गोत्र के जाट थे। इन्हीं फरड़ोद गोत्र के जाटों से मेघवालों की कटारिया गोत्र का उद्भव हुआ। आज भी इन दोनों के भाट एक ही हैं। बाद में फरड़ोद जाट गोत्र के लोगों ने गाँव छोड़ दिया और नया गाँव फिड़ौदा/फरड़ोद बसाकर वहाँ रहने लगे। अब यहाँ जाटों के फिड़ौदा/फरड़ोदा गोत्र के 3 परिवार ही हैं। इनके अलावा झिंझागटेला (घिटाला) गोत्री जाट यहाँ निवास करते हैं। ये तथ्य फरड़ोद गोत्र के जाटों के भाट जगदीश की पोथी में दर्ज हैं। वर्तमान में इस गाँव में छोटा सा मगर भव्य तेजाजी का मंदिर है। इसके पुजारी हरीराम झिंझा हैं। मुख्य मंदिर के पीछे एक छोटा सा प्राचीन (मान्यता अनुसार तेजाजी काल का) मंदिर है जिसमें तेजाजी और बहिन राजल की देवली हैं। यह इस गाँव की प्राचीनता तथा तेजाजीके ननिहाल की जीवटता को प्रदर्शित करता है।

फिड़ौदा गोत्री जाटों के भाट जगदीश भाट निवासी हरसोलाव की पोथी के अनुसार तेजाजी का ननिहाल फिड़ौदा गोत्री जाटों के घर था। जाट 81, माली 125, मेघवल 55, भाट 5, ब्राह्मण 250 कुल 277 घर थे। जगदीश भाट निवासी हरसोलाव की पोथी के अनुसार अखोजी के पौत्र तथा जेठोजी के पुत्र करणो जी की पुत्री रामी का विवाह विक्रम संवत 1116 में बोहित जी के पुत्र ताहड़ जी धौलिया खरनाल के साथ हुआ था।

तेजाजी का जन्म

नागदेव के वरदान से तेजाजी की प्राप्ति हुई

तेजाजी का जन्म राजस्थान के नागौर जिले में खरनाल गाँव में माघ शुक्ला, चौदस वार गुरुर संवत ग्यारह सौ तीस, तदनुसार 29 जनवरी, 1074, को धुलिया गोत्र के जाट परिवार में हुआ था। उनके पिता चौधरी ताहरजी (थिरराज) राजस्थान के नागौर जिले के खरनाल गाँव के मुखिया थे। तेजाजी के नाना का नाम दुलन सोढी (ज्याणी) था। उनकी माता का नाम रामकुंवरी था। तेजाजी का ननिहाल त्यौद गाँव (किशनगढ़) में था।


संत श्री कान्हाराम[11] ने तेजाजी के जन्म का विवरण ऐतिहासिक प्रमाणों सहित विस्तार से निम्नानुसार लिखा है:

[पृष्ठ-160]: खरनाल परगना के जाट शासक (गणपति) बोहितराज के पुत्र ताहड़देव का विवाह त्योद (त्रयोद) के गणपति करसण जी (कृष्णजी) के पुत्र राव दुल्हण जी (दूलहा जी) सोढी (ज़्याणी) की पुत्री रामकुंवरी के साथ विक्रम संवत 1104 में समपन्न हुआ। त्योद ग्राम अजमेर जिले के किशनगढ़ परगने में इससे 22 किमी उत्तर दिशा में स्थित है और किशनगढ़ अजमेर स 27 किमी पूर्व में राष्ट्रीय राजमार्ग-8 पर स्थित है।

विवाह के 12 वर्ष तक रामकुँवरी के कोई संतान नहीं हुई। अतः अपने वंश को आगे बढ़ाने के लिए ताहड़ जी के नहीं चाहते हुये भी रामकुँवरी ने अपने पति का दूसरा विवाह कर दिया। यह दूसरा विवाह कोयलापाटन (अठ्यासान) निवासी अखोजी (ईन्टोजी) के पौत्र व जेठोजी के पुत्र करणो जी फिड़ौदा की पुत्री रामीदेवी के साथ विक्रम संवत 1116 में सम्पन्न करवा दिया। इस विवाह का उल्लेख बालू राम आदि फिड़ौदों के हरसोलाव निवासी बही-भाट जगदीश पुत्र सुखदेव भाट की पोथी में है।

द्वितीय पत्नी रामी के गर्भ से ताहड़ जी के रूपजीत (रूपजी) , रणजीत (रणजी), महेशजी, नगजीत ( नगजी) पाँच पुत्र उत्पन्न हुये।

राम कुँवरी को 12 वर्ष तक कोई संतान नही होने से अपने पीहर पक्ष के गुरु मंगलनाथ जी के निर्देशन में उन्होने नागदेव की पूजा-उपासना आरंभ की। 12 वर्ष की आराधना के बाद उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति तेजाजी के रूप में हुई एक पुत्री राजल भी प्राप्त हुई। यह नाग-बांबी आज भी तत्कालीन त्योद-पनेर के कांकड़ में मौजूद है। अब उस स्थान पर तेजाजी की देवगति धाम सुरसुरा ग्राम आबाद है। उस समय वहाँ घनघोर जंगल था। सुरसुरा में तेजाजी का मंदिर बना हुआ है जिसमें तेजाजी की स्वप्रकट मूर्ति प्रतिष्ठित है। उसके सटाकर वह बांबी मौजूद है।

माता राम कुँवरी द्वारा नाग पूजा- [पृष्ठ-166]: ताहड़ देव का दूसरा विवाह हो गया । दूसरी पत्नी से पुत्र रत्न की प्राप्ति भी हो गई। किन्तु रामकुँवरी को महसूस हुआ कि उसकी हैसियत दोयम दर्जे की हो गई है। दो वर्ष 1116-1118 विक्रम संवत रामकुँवरी इस मनः स्थिति से गुजरी। रामकुँवरी ने पति ताहड़ देव से परामर्श किया और पति की आज्ञा से विक्रम संवत 1118 को अपने पीहर त्योद चली आई। त्योद में अपने माता-पिता के कुलगुरु संत मंगलनाथ की धुणी पर जाकर प्रार्थना की और अपना दुख बताया।


[पृष्ठ-167]: कुल गुरु ने रामकुँवरी को विधि विधान से नागदेव की पूजा-आराधना के निर्देश दिये। रामकुँवरी ने त्योद के दक्षिण में स्थित जंगल में नाड़े की पालपर खेजड़ी वृक्ष के नीचे नागदेव की बांबी पर पूजा-आराधना 12 वर्ष तक की। कहते हैं कि विक्रम संवत 1129 अक्षय तृतीया को नागदेव ने दर्शन देकर पुत्र प्राप्ति का आशीर्वाद दिया।


[पृष्ठ-168]: तपस्या पूर्ण होने पर कुलगुरु मंगलनाथ की आज्ञा से रामकुँवरी अपने भाई हेमूजी के साथ ससुराल खरनाल पहुंची।


[पृष्ठ-170]: नागदेव का वरदान फला और विक्रम संवत 1130 की माघ सुदी चौदस गुरुवार तदनुसार 29 जनवरी 1074 ई. को खरनाल गणतन्त्र में ताहड़ देव जी के घर में शेषावतार लक्ष्मण ने तेजाजी के रूप में जन्म लिया। इस तिथि की पुष्टि भैरू भाट डेगाना की बही से होती है।


[पृष्ठ-171]: कहते हैं कि बालक के जन्म लेते ही महलों में प्रकाश फ़ैल गया। बालक के चेहरे पर प्रखर तेज दमक रहा था। दमकते चेहरे को देखकर पिता ताहड़ देव के मुख से सहसा निकला कि यह तो तेजा है। अतः जन्म के साथ ही तेजा का नामकरण हो गया। जोशी को बुलाकर नामकरण करवाया तो उसने भी नामकरण किया तेजा।

तेजाजी के जन्म के बारे में जन मानस के बीच प्रचलित एक राजस्थानी कविता के आधार पर मनसुख रणवा का मत है-

जाट वीर धौलिया वंश गांव खरनाल के मांय।
आज दिन सुभस भंसे बस्ती फूलां छाय।।
शुभ दिन चौदस वार गुरु, शुक्ल माघ पहचान।
सहस्र एक सौ तीस में, परकटे तेजा महान ॥

अर्थात - अवतारी तेजाजी का जन्म विक्रम संवत 1130 में माघ शुक्ल चतुर्दशी, बृहस्पतिवर को नागौर परगना के खरनाल गाँव में धौलिया जाट सरदार के घर हुआ.

तेजा जब पैदा हुए तब उनके चेहरे पर विलक्षण तेज था जिसके कारण इनका नाम रखा गया तेजा। उनके जन्म के समय तेजा की माता को एक आवाज सुनाई दी - "कुंवर तेजा ईश्वर का अवतार है, तुम्हारे साथ अधिक समय तक नहीं रहेगा। "

तेजाजी के पूर्वजों की जायल के काला जाटों की पीढ़ी दर पीढ़ी शत्रुता चली आ रही थी। जायल के सरदार बालू नाग ने अपने ज्योतिषी को बुलाकर बालक का भविष्य पूछा तो बताया गया कि बालक बड़ा होनहार एवं अपरबली होगा। अन्याय, अत्याचार के खिलाफ एवं धर्म संस्थापन के पक्ष में मर मिटने वाला होगा। अपने दुश्मनों के लिए यमदूत साबित होगा। गौधन व सज्जनों के लिए देवदूत साबित होगा।

ज्योतिषियों द्वारा ऐसी भविष्यवाणी सुन खरनाल गणराज्य के दुश्मन जायलों (काला जाटों) ने भयभीत होकर जनता में अनेक तरह की अफवाहें फैलाई यथा बालक मूल नक्षत्र में पैदा हुआ है, अगर बालक को रखा गया तो धौलिया वंश का नाश हो जाएगा, खरनाल गणराज्य में अकाल पड़ेगा, जनता बर्बाद हो जाएगी आदि आदि। जनता इन अफवाहों से दुखी होकर अनिष्ट की आशंकाओं से भयभीत होने लगी।


[पृष्ठ-172]: जनता ने अनिष्ट की आशंका से अन्न-जल त्याग दिया तथा शिव की आराधना करने लगी। तेजाजी के माता-पिता शंकर भगवान के उपासक थे। उन्होने भी अन्न-जल त्याग दिया और शिव की आराधना में लग गए। कहते हैं कि इस तपस्या से खुश होकर शिव-पार्वती ने तपस्यारत तेजा के माता-पिता को दर्शन दिये तथा कहा कि आपका यह पुत्र शेषावतार लक्ष्मण का अवतार है। यह गौरक्षा कर भूमि का भार उतारने आया है। आप निश्चिंत रहें किसी प्रकार की आशंका न करें। यह बालक तेरी तथा तेरे गणराज्य की कीर्ति को संसार में अमर करेगा। दिव्य-शक्ति की पहचान यह है कि इसके मुख-मण्डल का तेज झेला नहीं जाता। शंकर भगवान के वरदान से ही तेजाजी की प्राप्ति हुई है। तेजा के प्राणों पर आया संकट इस तरह शिव कृपा से टल गया। इस कारण कलयुग में तेजाजी को शिव का अवतार माना गया है।

बाई राजल का जन्म

संत श्री कान्हाराम[12] ने लिखा है कि.... [पृष्ठ-183]: तेजाजी के जन्म के तीन वर्ष बाद ताहड़ जी की बड़ी पत्नी रामकुँवरी की कोख से विक्रम संवत 1133 (1076 ई.) में एक कन्या का जन्म हुआ जिसका नाम रखा गया राजलदे (राजलक्ष्मी) । बोलचाल में उसे राजल कहा जाता था। वह तेजाजी के बलिदान के बाद लगभग 26 वर्ष की आयु में विक्रम संवत 1160 (1103 ई.) के भादवा सुदी एकादश को धरती की गोद में समा गई।

खरनाल के एक किमी पूर्व में एक तालाब की पाल पर इनका मंदिर बना हुआ है। जन मान्यता के अनुसार जहां मंदिर बना है उसी स्थान पर एक साथी ग्वला द्वारा तेजाजी के बलिदान का समाचार सुन वह धरती की गोद में समा गई थी। लोगों की मान्यता , आस्था है कि मंदिर में लगी प्रतिमा भूमि से स्वतः प्रकट हुई थी।

तेजाजी ने जब ससुराल के लिए विदाई ली, उससे पहले अपनी बहन राजल को ससुराल से लेकर आए थे। राजल का ससुराल अजमेर के पास तबीजी गाँव में था। वहाँ के राव रायपाल जी के पुत्र जोराजी (जोगजी) सिहाग से राजल का विवाह हुयाथा। राजल के एक पुत्र भी था।

कुछ लोगों की मान्यता के अनुसार तेजाजी के एक और भोंगरी या बुंगरी अथवा बागल बाई के नाम से एक छोटी बहिन थी। लेकिन धौलिया वंशी खरनाल के जाटों के डेगाना निवासी भैरू राम भाट की पौथी में छोटी बहन का उल्लेख नहीं है। वहाँ तेजाजी के राजल नाम की छोटी बहन बताई गई है।

जमीन में समाने के बाद तेजाजी की बहिन का जो मंदिर बना हुआ है वह बुंगरी माता का मंदिर कहलाता है। शायद इसी बुंगरी नाम की गफलत के कारण बुंगरी नामक छोटी बहन और होने की भ्रांति हुई।


[पृष्ठ- 184]: काफी खोज करने के बाद पता चला कि शरीर पर उबरने वाले मस्सों को मिटाने के लिए आमजन इस मंदिर में बुहारी (झाड़ू) चढ़ाते हैं। झाड़ू को स्थानीय भाषा में बुंगरी कहा जाता है। बुंगरी चढ़ाने से इंका नाम बुंगरी माता प्रसिद्ध हो गया है। बुंगरी माता का मंदिर तथा तालाब (जोहड़) बड़ा रमणीय है। इस तालाब की मिट्टी की पट्टी आँखों पर बांधने से आँखों की समस्त बिमारियाँ मिट जाती हैं।

पास ही बुंगरी माता (राजल दे) की सहेली जो तेजाजी को माँ जाया भाई जैसा मानती थी उसकी भी समाधि मौजूद है। कहते हैं कि वह सहेली भी राजल के साथ धरती में समा गई थी। यह सहेली कौन थी इसका ठीक-ठीक पता नहीं है। कहते हैं कि कुछ लोग उसे नायक जाति की तो कुछ लोग मेघवाल जाति की कन्या बताते हैं।

तेजाजी के विवाह में पेमल के मामा की हत्या

संत श्री कान्हाराम[13] ने लिखा है कि.... [पृष्ठ-179]: तेजाजी के जन्म के बाद माता रामकुँवरी ने पतिदेव से कहा कि पुत्र प्राप्ति की मनोकामना पूर्ण हुई है, इसलिए पुष्कर स्नान और नागदेव की मांबी पर धोक देने के लिए चलना चाहिए। इसलिए देवप्रबोधिनी एकादशी के एक दिन पहले विक्रम संवत 1131 की कार्तिक शुक्ल दशमी को प्रातः तेजा को लेकर ताहड़ जी सपत्नीक पुष्कर यात्रा को निकल पड़े। साथ में इष्ट मित्र और तेजा के काका आसकरण जी भी थे। पुष्कर में स्नान करने के बाद बूढ़े पुष्कर के नाग घाट पर तेजा को लिटाकर मंगल कामना की और विधिवत पूजा अर्चना कर मुक्त हस्त से दान दक्षिणा दी।

पनेर के गणपति रायमल जी मुहता भी उसी समय पुष्कर स्नान के लिए आए हुये थे। उनके घर में भी पेमल के रूप में पुत्री धन की प्राप्ति हुई थी। शहर पनेर और खरनाल के दोनों गणपतियों के परिवारों ने एकादशी से पूर्णिमा तक साथ-साथ स्नान, ध्यान, देवदर्शन और दान आदि किए। इस दौरान दोनों का परिचय घनिष्ठता में बदल गया।

तब तेजा 9 माह के थे और पेमल 6 माह की थी। तेजा के काका आसकरण और पेमल के पिता रायलल जी मुहता ने आपसी घनिष्ठता को रिसते में बदलने का प्रस्ताव रखा तो ताहड़ जी ने प्रस्ताव स्वीकार कर लिया।


[पृष्ठ-180]: दोनों पक्षों ने निर्णय किया कि पुष्कर पूर्णिमा जैसा शुभ मुहूर्त दुर्लभ है। वैदिक मंत्रोचार के साथ पुष्कर के प्रकांड पंडितों ने बूढ़े पुष्कर के नाग घाट पर पीले-पोतड़ों में तेजा व पेमल का विवाह सम्पन्न किया। उस समय बाल-विवाह की सामाजिक स्वीकृति थी।

इस विवाह की स्वीकृति के लिए दोनों पक्षों के मामाओं को भी बुलाया गया था। तेजा के मामा पास के त्योद के गणपति करसण जी के पौत्र व दूलहन जी सोढ़ी (ज्यानी) के पुत्र हेमूजी सोढ़ी सही समय पर पुष्कर पहुँच गए थे। लेकिन पेमल के मामा खाजू काला को जायल से पुष्कर पहुँचने में काफी देर हो गई थी। वह फेरे लेने के समय पहुंचा, क्योंकि फेरों का मुहूर्त विक्रम संवत 1131 की पुष्कर पूर्णिमा को गोधुली वेला निश्चित था। फेरे होने के बाद पेमल के मामा खाजू काला को पता चला कि उनकी भांजी का विवाह उनके दुश्मन पक्ष के गणपति ताहड़ देव के पुत्र तेजा के साथ सम्पन्न हुआ है। काला और धौलिया गणतंत्रों के बीच काफी पीढ़ियों से दुश्मनी चली आ रही थी।


[पृष्ठ-181]: पेमल के मामा की हत्यापेमल के मामा को यह संबंध गले नहीं उतरा। अतः वह पुष्कर घाट पर ही ताहड़ देव को भला बुरा कहने लगा। विवाद बढ़ गया और टकराव की स्थिति बन गई। ताहड़ जी ने तलवार उठाकर पेमल के मामा की हत्या कर दी। ताहड़ जी और रायमल मुहता बड़े समझदार गणपति थे। दोनों बड़े दुखी हुये परंतु पेमल के मामा की अति को समझते हुये घटना को विस्मृत करना उचित समझा। लेकिन पेमल की माँ ने इस घटना को दिल से लगा लिया। उसने पुष्कर घाट पर ही प्रतिज्ञ की कि वह खून का बदला खून से लेगी। दोनों वंश अपने-अपने गणतंत्र को प्रस्थान कर गए परंतु इस घटना के कारण काला और धौलिया परिवारों में दुश्मनी की खाई और गहरी हो गई।

अब आगे और कोई अनहोनी होने के भय से नागदेव की बांबी पर धोक लगाए बिना ही दोनों गणतंत्रों के गणपति अपने-अपने गंतव्यों की तरफ चल पड़े। राम कुँवरी ने कहा कि ईश्वर की कृपा रही तो फिर कभी नागदेव की बांबी ढोकने आएंगे। समय का तकाजा है कि तुरंत हमें खरनाल पहुंचना चाहिए।

कालिया-बालिया द्वारा ताहड़ देव की हत्या

संत श्री कान्हाराम[14] ने लिखा है कि.... [पृष्ठ- 185]:कुँवर तेजपाल की आयु लगभग 9-10 होने तक सब ठीक-ठाक चलता रहा। कालिया-बलिया की कुटिलताएं जारी थी परंतु खरनाल सावधान था। विक्रम संवत 1139 (1082 ई.) के आस-पास आसोज माह में गणराज्य की फसल को देखने की लालसा में गणपति ताहड़ देव घोड़े पर सवार होकर अकेले दिन के तीसरे पहर खेतों की ओर निकले थे।


[पृष्ठ- 186]: खेतों में लहलहाती फसल को देखकर वे बहुर खुश थे। कालिया-बालिया के दल उस समय फसलों में छुपकर घात लगाए बैठे थे। दुश्मनों ने अचानक हमला कर ताहड़ देव की हत्या कर दी। खरनाल से ताहड़ देव के भाई आसकरण सहायता लेकर पहुंचे और दुश्मनों का पीछा किया। दुश्मन अधिक संख्या में थे। इस युद्ध में तेजाजी के चाचा आसकरण भी शहीद हो गए।

External links

References

  1. Sant Kanha Ram: Shri Veer Tejaji Ka Itihas Evam Jiwan Charitra (Shodh Granth), Published by Veer Tejaji Shodh Sansthan Sursura, Ajmer, 2015. p.160
  2. Sant Kanha Ram: Shri Veer Tejaji Ka Itihas Evam Jiwan Charitra (Shodh Granth), Published by Veer Tejaji Shodh Sansthan Sursura, Ajmer, 2015. p.160,164
  3. Sant Kanha Ram: Shri Veer Tejaji Ka Itihas Evam Jiwan Charitra (Shodh Granth), Published by Veer Tejaji Shodh Sansthan Sursura, Ajmer, 2015. p.185
  4. Mansukh Ranwa: Kshatriya Shiromani Veer Tejaji, 2001, p.13
  5. Sant Kanha Ram:Shri Veer Tejaji Ka Itihas Evam Jiwan Charitra (Shodh Granth), Published by Veer Tejaji Shodh Sansthan Sursura, Ajmer, 2015. pp.62-63
  6. Sant Kanha Ram: Shri Veer Tejaji Ka Itihas Evam Jiwan Charitra (Shodh Granth), Published by Veer Tejaji Shodh Sansthan Sursura, Ajmer, 2015. pp.62-63
  7. Sant Kanha Ram: Shri Veer Tejaji Ka Itihas Evam Jiwan Charitra (Shodh Granth), Published by Veer Tejaji Shodh Sansthan Sursura, Ajmer, 2015. pp.79-80
  8. Sant Kanha Ram: Shri Veer Tejaji Ka Itihas Evam Jiwan Charitra (Shodh Granth), Published by Veer Tejaji Shodh Sansthan Sursura, Ajmer, 2015. pp.84-85
  9. Sant Kanha Ram: Shri Veer Tejaji Ka Itihas Evam Jiwan Charitra (Shodh Granth), Published by Veer Tejaji Shodh Sansthan Sursura, Ajmer, 2015. pp.86-87
  10. Sant Kanha Ram: Shri Veer Tejaji Ka Itihas Evam Jiwan Charitra (Shodh Granth), Published by Veer Tejaji Shodh Sansthan Sursura, Ajmer, 2015. pp.160-165
  11. Sant Kanha Ram: Shri Veer Tejaji Ka Itihas Evam Jiwan Charitra (Shodh Granth), Published by Veer Tejaji Shodh Sansthan Sursura, Ajmer, 2015. pp.160-165
  12. Shri Veer Tejaji Ka Itihas Evam Jiwan Charitra (Shodh Granth), Published by Veer Tejaji Shodh Sansthan Sursura, Ajmer, 2015. p. 183-184
  13. Shri Veer Tejaji Ka Itihas Evam Jiwan Charitra (Shodh Granth), Published by Veer Tejaji Shodh Sansthan Sursura, Ajmer, 2015. p. 179-181
  14. Shri Veer Tejaji Ka Itihas Evam Jiwan Charitra (Shodh Granth), Published by Veer Tejaji Shodh Sansthan Sursura, Ajmer, 2015. p. 185-186

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