Badami

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Author:Laxman Burdak, IFS (R)

Badami (बादामी), formerly known as Vatapi (वातापि), is a town and taluk in the Bagalkot district of Karnataka, India. It was the regal capital of the Badami Chalukyas from AD 540 to 757. It is famous for its rock cut structural temples.

Location

It is located in a ravine at the foot of a rugged, red sandstone outcrop that surrounds Agastya lake.

Origin

Variants

  • Badami बादामी, दे. Vatapi वातापि (AS, p.620)
  • Vatapi वातापि, जिला बीजापुर, (AS, p.839)

History

Badami Chalukyas was founded in AD 540 by Pulakeshin I (AD 535–566), an early ruler of the Chalukyas is generally regarded as the founder of the Early Chalukya line. An inscription record of this king engraved on a boulder in Badami records the fortification of the hill above "Vatapi" in 544. Pulakeshin's choice of this location for his capital was no doubt dedicated by strategic considerations since Badami is protected on three sides by rugged sandstone cliffs. His sons Kirtivarman I (AD 567–598) and his brother Mangalesha (AD 598–610) constructed the cave temples.

Kirtivarman I strengthened Vatapi and had three sons Pulakeshin II, Vishnuvardhana and Buddhavarasa, who at his death were minors, thus making them ineligible to rule, so Kirtivarman I's brother Mangalesha took the throne and tried to establish rule, only to be killed by Pulakeshin II who ruled between AD 610 to 642.[1] Vatapi was the capital of the Early Chalukyas, who ruled much of Karnataka, Maharashtra, parts of Tamil Nadu and Andhra Pradesh between the 6th and 8th centuries. The greatest among them was Pulakeshin II (AD 610–642) who defeated many kings including the Pallavas of Kanchipuram.

The rock-cut Badami Cave Temples were sculpted mostly between the 6th and 8th centuries.[2]

Kings of Badami Chalukyas (543–757)

वातापि

विजयेन्द्र कुमार माथुर[3] ने लेख किया है .....वातापि (AS, p.839) ज़िला बीजापुर, कर्नाटक राज्य भारत में स्थित है। शोलापुर से 141 मील दूर स्थित वर्तमान बादामी ही प्राचीन 'वातापी' है। यह शोलापुर-गदग रेल मार्ग पर स्थित है। बादामी की बस्ती दो पहाड़ियों के बीच में है। वातापी का नाम पुराणों में उल्लिखित है, जहाँ इसका सम्बन्ध वातापि नामक दैत्य से बताया जाता है, जिसे अगस्त्य ऋषि ने मारा था। (दे. ब्रहमपुराण- 'अगस्त्यो दक्षिणामाशामाश्रित नभसि स्थित:तरुणसत्यात्मजो योगी विंध्यवातापि मर्दन:')

छठी-सातवीं शती ई. में वातापी नगरी चालुक्य वंश की राजधानी के रूप में प्रसिद्ध थी। पहली बार यहाँ 550 ई. के लगभग पुलकेशिन् प्रथम ने अपनी राजधानी स्थापित की थी। उसने वातापी में अश्वमेध यज्ञ सम्पन्न करके अपने वंश की सुदृढ़ नींव स्थापित की थी। 608 ई. में पुलकेशिन् द्वितीय वातापी के सिंहासन पर आसीन हुआ। यह बहुत प्रतापी राजा था। इसने प्रायः 20 वर्षों में गुजरात, राजस्थान, मालवा, कोंकण, वेंगी आदि प्रदेश को विजित किया। 620 ई. के लगभग उसने उत्तर भारत के प्रसिद्ध नरेश महाराज हर्ष को भी हराया जिससे हर्ष की दक्षिण देशों के विजय की आकांक्षा फलीभूत न हो सकी. 630 ई. के आसपास नर्मदा नदी के दक्षिण में वातापी नरेश की सर्वत्र दुंदुभि बज रही थी और उसके समान यशस्वी राजा दक्षिण भारत में दूसरा नहीं था। मुसलमान इतिहास लेखक तबरी के अनुसार 625-626 ई. में ईरान के बादशाह ख़ुसरो द्वितीय ने पुलकेशिन् की राज्यसभा में अपना एक दूत भेजकर उसके प्रति अपना सम्मान प्रदर्शित किया था। शायद इसी घटना का [p.840]: दृश्य अजन्ता के एक चित्र (गुहा संख्या 1) में अंकित किया गया है। वातापी नगरी इस समय अपनी समृद्धी के मध्याह्न काल में थी। किन्तु 642 ई. में पल्लवनरेश नरसिंह वर्मन ने पुलकेशिन् को युद्ध में परास्त कर चालुक्य सत्ता का अन्त कर दिया। पुलकेशिन स्वंय भी इस युद्ध में आहत हुआ। वातापी को जीतकर नरसिंह वर्मन ने नगर में खूब लूटमार मचाई। पल्लवों और चालुक्यों की शत्रुता इसके पश्चात् भी चलती रही।

750 ई. में राष्ट्रकूटों ने वातापी तथा परिवर्ति प्रदेश पर अधिकार कर लिया। वातापी पर चालुक्यों का 200 वर्षों तक राज्य रहा। इस काल में वातापि ने बहुत उन्नति की। हिन्दू, बौद्ध और जैन तीनों ही सम्पद्रायों ने अनेक मन्दिरों तथा कलाकृतियों से इस नगरी को सुशोभित किया। छठी शती के अन्त में मंगलेश चालुक्य ने वातापी में एक गुहामन्दिर बनवाया था जिसकी वास्तुकला बौद्ध गुहा मन्दिरों के जैसी है। वातापी के राष्ट्रकूट नरेशों में दंन्तिदुर्ग और कृष्ण प्रथम प्रमुख हैं। कृष्ण के समय में एलौरा का जगत् प्रसिद्ध मन्दिर बना था किन्तु राष्ट्रकूटों के शासनकाल में वातापी का चालुक्यकालीन गौरव फिर न उभर सका और इसकी ख्याति धीरे-धीरे विलुप्त हो गई।

अहलावत सोलंकी वंश बादामी के शासक

दलीप सिंह अहलावत[4] लिखते हैं: अहलावत सोलंकी जाटवंश के शासकों की दो शाखायें कही गई हैं। पहली शाखा ने सन् 550 ई० से 753 ई० तक लगभग 200 वर्ष तक दक्षिण भारत में राज्य किया। इनकी राजधानी बादामी1 (वातापी) थी। दूसरी शाखा ने सन् 973 ई० से 1190 ई० तक लगभग 200 वर्ष तक दक्षिण भारत में राज्य किया। इनकी राजधानी कल्याणी थी2

वातापी या बादामी के शासक (सन् 550 ई० से 753 ई० तक)3

इस वंश के पहले दो शासक जयसिंह और रणराजा थे। किन्तु बादामी राज्य का संस्थापक पुलकेशिन प्रथम था जो इस सोलंकीवंश का तीसरा राजा हुआ। विन्सेन्ट स्मिथ के लेख अनुसार, “चालुक्यवंश दक्षिण में एक प्रसिद्ध वंश था जिसका संस्थापक पुलकेशिन प्रथम था जिसने इस राज्य को छटी शताब्दी के मध्य में स्थापित किया था।”


1. वातापी (बादामी) - यह गोदावरी नदी और कृष्णा नदी के बीच पश्चिमी तट के निकट है।
2. कल्याणी - यह वातापी से उत्तर-पूर्व वरंगल के निकट है।
3. हिन्दुस्तान की तारीख (उर्दू) पृ० 377.


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-203


1: पुलकेशिन प्रथम ने वातापी को जीतकर अपने राज्य की राजधानी बनाई। इसी खुशी में उसने एक अश्वमेध यज्ञ किया। (अश्वमेध - राजा न्याय धर्म से प्रजा का पालन करे, विद्यादि का देनेहारा, यजमान और अग्नि में घी आदि का होम करना अश्वमेध कहलाता है - सत्यार्थप्रकाश एकादश समुल्लास पृ० 188)।

2: पुलकेशिन प्रथम की मृत्यु के पश्चात् उसके दो पुत्रों कीर्तिवर्मन और मंगलेश ने अपने शत्रुओं से युद्ध किए। मंगलेश ने अपनी राजधानी बादामी में विष्णु का एक सुन्दर मंदिर बनवाया।

3: पुलकेशिन द्वितीय (सन् 608 ई० से 642 ई०) - इस वंश का सबसे प्रसिद्ध और शक्तिशाली सम्राट् पुलकेशिन द्वितीय था1। चीनी यात्री ह्यूनत्सांग (हुएनसांग) ने अपनी यात्रा समय लिखित पुस्तक “सि-यू-की” में लिखा है कि “पुलकेशिन द्वितीय बड़ा प्रतापी सम्राट् था। उसका राज्य नर्मदा के दक्षिण में बंगाल की खाड़ी से अरब सागर तक और दक्षिण में पल्लव (जाटवंश) राज्य की सीमाओं कांची तक फैला हुआ था2। विदेशी राजा उसका मान करते थे। उसके दरबार में फारस का राजदूत आया था। उसके जलपोत व्यापार के लिए ईरान और दूसरे देशों में जाते थे। उसके राज्य के निवासी बड़े निडर और युद्धप्रिय थे।” पुलकेशिन के चित्रित दरबार में फारस के राजदूत का चित्र आज भी अजन्ता की गुफाओं में देखा जा सकता है*

उत्तरी भारत का शक्तिशाली सम्राट् हर्षवर्धन (606 ई० से 647 ई० तक) वसाति या वैस जाट गोत्र का था। उसने सन् 620 ई० में पुलकेशिन द्वितीय पर आक्रमण किया। दोनों सेनाओं का युद्ध नर्मदा के पास हुआ। हर्ष की असफलता हुई जिसके कारण पुलकेशिन द्वितीय की शक्ति और मान में अधिक वृद्धि हुई3। पुलकेशिन द्वितीय ने पल्लव (जाटगोत्र) राजा महेन्द्रवर्मन को हराया और बढ़ता हुआ कांची तक जा पहुंचा। परन्तु महेन्द्रवर्मन के पुत्र नरसिंह वर्मन ने इस हार का बदला लिया। सन् 642 ई० में उसने बादामी पर आक्रमण किया जिसमें पुलकेशिन द्वितीय हार गया और मारा गया।

4: विक्रमादित्य प्रथम - पुलकेशिन द्वितीय की मृत्यु के पश्चात् उसका पुत्र विक्रमादित्य प्रथम सन् 642 ई० में राजगद्दी पर बैठा। इसने पल्लवों को हराया और उनकी राजधानी कांची तक


1. सर्वखाप पंचायत का रिकार्ड जो सर्वखाप पंचायत के मंत्री चौ० कबूलसिंह ग्रा० व डा० शोरम जिला मुजफ्फरनगर (उ० प्र०) के घर में है, में लिखा है कि पुलकेशिन सम्राट् जाट अहलावत गोत्र का था।
2. भारत का इतिहास हरयाणा विद्यालय शिक्षा बोर्ड, भिवानी पृ० 81.
  • - उस समय ईरान का राजा खुसरो द्वितीय था (590-628 ईस्वी)। खुसरो द्वितीय का दूतमण्डल पुलकेशिन द्वितीय के दरबार में आया था। उसके दरबार में भी पुलकेशिन द्वितीय ने एक दूतमण्डल भेजा था। (मध्य एशिया में भारतीय संस्कृति पृ० 41, लेखक सत्यकेतु विद्यालंकार)।
3. भारत का इतिहास, हरयाणा विद्यालय शिक्षा बोर्ड, भिवानी पृ० 81; भारत का इतिहास प्री-यूनिवर्सिटी कक्षा के लिए, पृ० 153, लेखक अविनाशचन्द्र अरोड़ा।
नोट - महाराजा पुलकेशिन द्वितीय का एक शिलालेख मिला है जिस पर लिखे लेख का वर्णन, पं० भगवद्दत बी०ए० द्वारा रचित भारतवर्ष का इतिहास द्वितीय संस्करण पृ० 205 पर किया गया है।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-204


अधिकार कर लिया। उसने दक्षिण के चोल, पांड्य वंश चीर वंश को भी जीत लिया था।

5: विक्रमादित्य द्वितीय - यह विक्रमादित्य प्रथम का पौत्र था। इसने पल्लव राजा नन्दीवर्मन जो हराकर उसकी राजधानी कांची पर अधिकार कर लिया। इसकी मृत्यु के बाद यह वंश कमजोर होता चला गया।

6: कीर्तिवर्मन द्वितीय - यह इस वंश का अन्तिम राजा था। इसको सन् 753 ई० में राष्ट्रकूट वंश (राठी) के राजा वन्तीदुर्ग ने हरा दिया और इसका राज्य छीन लिया। इस तरह से बादामी के शासकों का अन्त हो गया1

सन् 754 ई० से लेकर सन् 972 ई० अर्थात् लगभग 200 वर्ष के अन्तराल में इन अहलावत वंशज जाटों के गौण राज्य स्थापित रहे जिनका ऐतिहासिक महत्त्व नगण्य है।

External links

References

  1. "Rich slice of history - Badami". The Hindu. Chennai, India. 17 May 2013.
  2. Rajarajan, R.K.K. (2012). Rock-cut Model Shrines in Early Indian Art. New Delhi: Sharada Publishing House. ISBN 978-81-88934-83-6.
  3. Aitihasik Sthanavali by Vijayendra Kumar Mathur, p.839
  4. जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठ.203-205