Chand Ram Hala

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Chandram Hala of Sindh

Chand Ram Hala (चन्द राम हाला) was a King of Hala Jat gotra of Halakhandi in Sindh, Pakistan during early 8th century.

Variants of name

Jat Gotras

Hala

History

Shalvakagiri (शाल्वका गिरि) is a mountain mentioned by Panini.[1] This corresponds with the present Hala mountain, forming boundary between Baluchistan and Sindh.

V S Agarwal[2] mentions....[p.39]: These six names (of mountains) seem to be taken from some Bhuvanakosha list, giving in order the ranges on the western frontiers from Afghanistan to Baluchistan. Starting from below, Shalvakagiri is phonetically the name of [p.40]: Hala Range lying north-south between Sind and Baluchistan. To the west of it is the Makran chain of hills the home of the Hingula River and Hingulaja goddess, Hingula seems to be the Prakrit form of Kimsulaka. It was also called by its synonymous name, the Parada country, Pardene of classical writers, corresponding to Pardayana of Patanjali (IV.2.99). Goddess Hihgula of this place is of vermilion colour, also called Dadhiparni, because of its association with the ancient Scythian tribes of Dahae and Parnians. It was worshipped also as Nani, or Nana of antiquity.


V. S. Agrawala[3] writes that Ashtadhyayi of Panini mentions janapada Sālva (शाल्व) (IV.2.135). It was confined to limited geographical horizon in the central and north eastern Punjab. Shalva may coincide with the territory extending from Alwar to north Bikaner. Salvas were ancient people who migrated from west through Baluchistan and Sindh where they left traces in the form of Śālvakāgiri, the present Hala mountain, and then advancing towards north Sauvira and along the Saraswati and finally settled in north Rajasthan.


V. S. Agrawala[4] writes that Ashtadhyayi of Panini mentions janapada Bodha (बोधा) - The Bodha also occur in the list of Bhishmaparva (10.37-38) in the same group as Kulingas, Sālvas and Mādreyas. Shalva country had a special breed of bulls known as s Sālvaka.

जाट इतिहास

ठाकुर देशराज[5] ने लिखा है.... चन्द्रराम- हाला - यह खानदान कुछ पुराना है। सतवाहन लोगों में हाला एक विद्वान पुरुष हुआ है। जिसने गाथा सप्तमी तैयार कराई थी। राजपूत काल में चंदराम हाला सूस्थान का अधिपति था। इसका देश हालाखंडी के नाम से मशहूर था।

उस समय सिंध में मता और नेरून नाम के दो जाट राजा और भी राज करते पाए जाते हैं।


ठाकुर देशराज लिखते हैं कियह चन्द्रराम ‘हाला’ वंश का जाट सरदार था। पहले सूस्थान का शासक था, किन्तु सूस्थान इसके हाथ से निकल गया था। कुछ समय यह इधर-उधर मारा-मारा फिरता रहा, किन्तु ज्योंही अवसर आया सूस्थान से मुसलमानों को निकाल कर किले पर कब्जा कर लिया। मुहम्मद कासिम ने इस खबर को सुना तो वह नाराज हुआ और अब्दुल रहमान के साथ एक हजार सवार और दो हजार पैदल देकर चन्द्रराम का दमन करने के लिए भेजा। ‘चन्द्रराम हाला’ बड़ी बहादुरी से लड़ा, किन्तु हार गया। उसका प्रदेश हालाखण्डी नाम से प्रसिद्ध है।[6][7]

दलीपसिंह अहलावत[8] लिखते हैं - सिंध में चन्दराम हाला नामक नरेश की परम्परा का राज्य 7वीं शताब्दी में मुहम्मद-बिन-कासिम ने समाप्त कर दिया। वहां सिंध को बलोचिस्तान से पृथक् करने वाला हाला पर्वत इसी हाला वंश के नाम पर है जो आजकल सोमगिरी कहलाता है। यहां पर इनके राज्य क्षेत्र का नाम हाला खण्डी था। काठियावाड़ में हाला नामक जिला इन्हीं हाला जाटों का स्मारक है। सिंध में हाला जाट मुस्लिम धर्मी हैं और राजस्थान, पंजाब तथा यू० पी० (बदायूं) में बसने वाले सभी हाला जाट हिन्दू हैं जो डीलडौल और गठन में आदर्श क्षत्रिय हैं।

सिंध केसरी राजा चांदराम सिंह हाला

बात उस समय की है जब एक अरबी लुटेरे मोहम्मद बिन कासिम ने देश पर आक्रमण कर दिया था। वह बहुत ही क्रूर लुटेरा था। उसने बहुत से क्षेत्रों को जीत लिया था। इसी बीच उसने देबल को भी राजा दाहिर से जीत लिया था और फिर उसने आक्रमण किया सीस्तान (शिवस्थान) पर। शिवस्थान पर हिन्दू वीर जाट राजा चांदराम हाला का शासन था जो बहुत ही वीर और साहसी व धर्मभक्त राजा थे। राजा चांदराम जी ने अरबों से 18 दिन तक लगातार युद्ध लड़ा लेकिन उनकी ही शरण में आये एक बौद्ध भिक्षुक आया हुआ था (राजा ने उसे भिक्षुक समझकर शरण दे दी थी परंतु वह कासिम का हितैषी था व षड्यंत्र के तहत आया था) उस ने उनसे गद्दारी की और किले में पड़ी सारी रसद को कासिम तक पहुंचा दिया जिस कारण वे हार गए और शिवस्थान पर अरबियों का कब्जा हो गया। परन्तु राजा चांदराम हाला अरबियों के हाथ नहीं आये। इस युद्ध में 3000 अरबी लुटेरे तो 1200 जाट वीरगति को प्राप्त हुए जबकि जाटों की सेना अरबों की तुलना में बहुत छोटी थी। और हथियारों के मामले में भी अरबी मजबूत थे।

राजा को गदार का पता नहीं लगा। राजा फिर से अरबियों से अपना राज्य वापिस लेने के लिए कोशिश करने लगे व कुछ ही दिनों में उन्होंने फिर से अपने वफादार सैनिकों को इकट्ठा किया और किले पर आक्रमण कर दिया अरबियों को इस बार बुरी तरह से खदेड़ दिया हजारों अरबी मारे गए और उन्होंने किले पर कब्जा कर लिया। किलेदार को मौत के घाट उतार दिया व उसका सिर किले के गेट पर रख दिया।

अरबी सेना ने यह संदेश कासिम तक पहुँचाया की शिवस्थान उनके हाथ से निकल गया है और राजा चांदराम ने फिर से अपने राज्य पर कब्जा कर लिया है।राजा चांदराम देशभक्त व धर्मभक्त था और शिवस्थान ऐसी जगह थी जहां से दाहिर की मदद की जा सकती थी व अरबियों से राजा दाहिर व सिंध को बचाया जा सकता था। इसलिए उसने उसी समय और सेना भेजी व अपने सेनापति मूसा को तुरंत भेजा। कासिम उससे लड़ चुके थे तो जानता था कि चांदराम को हराना आसान नहीं इसलिये उसने काफी हथियार भी भेजे।

राजा चांदराम ने जब किले पर कब्जा किया तो उसमें कुछ बौद्ध भी शरण लिए हुए थे। राजा ने सोचा कि ये बन्दी बनाये हुए हैं है कासिम की सेना द्वारा इसलियव उन्होंने उन बौद्धों को उन्होंने किले से बाहर न निकाला।

लोकश्रुति के अनुसार राजा चांदराम शिवभक्त थे वे रोज सुबह अपने रक्त से शिवलिंग का अभिषेक करते थे।कहते हैं कि जब राजा सोते थे तो वे अपने पालतू शेरों को खुला छोड़ देते थे व खुद उनके बीच सो जाते थे ये शेर उनकी रक्षा करते थे।

कासिम के सेनापति मूसा ने राजा को समझौता करने के लिए कहा और कासिम का साथ देने के लिए कहा। परन्तु राजा चांदराम जानते थे कि इस्लाम की मजहबी तलवार लिए जो कासिम अरब से आया है वह देश के लिए बहुत खतरनाक है इसलिए उन्होंने कोई भी समझौता करने से इनकार कर दिया।

इसके बाद एक भयानक युद्ध शुरू हो गया। रहज चांदराम ने अरबी सेना के होश उड़ा दिए थे।किले से बाहर निकलकर राजा ने अरबियों के खून से धरा को लाल बना दिया था। इस युद्ध में लगभग 2500 से ज्यादा अरबी लुटेरे मारे गए और 1000 के करीब जाट भी वीरगति को प्राप्त हुए। अंत में हथियार खत्म होने पर राजा वापिस किले की ओर मुड़ गए,क्योंकि किले में हथियार पड़े थे व किले के अंदर से वे और मजबूती से लड़ सकते थे।

परन्तु जैसे ही राजा किले के गेट के पास पहुंचे तो गदार बौद्ध भिक्षु ने किले के दरवाजे बंद कर दिए। आपको बता दें कि किले में अरबियों के आक्रमण के समय कुछ बौद्धों ने शरण माँगी थी तो राजा ने उन्हें अपने ही सनातनी भाई समझकर शरण दे दी थी। उसके बाद पहले युद्ध में भी उन्ही बौद्ध लोगों ने कासिम को किले की रसद पहुंचा दी थी। असल में ये बौद्ध पहले से ही कासिम के साथ मिले हुए थे व उसके कहने पर ही किले में शरण लेने आये थे ताकि अंदर से उसकी मदद कर सकें।

राजा ने बौद्ध भिक्षु को जब किले का दरवाजा बंद करते हुए देखा तो उनकी आंखों में पश्चाताप के आंसू निकल आये कि जिन लोगो को उन्होंने असहाय समझकर शरण दी उन्होने ही उनके साथ गद्दारी कर दी।

अब राजा के पास हथियार के नाम पर मात्र एक तलवार थी व कुछ सैनिक।उन्होंने दुश्मन के आगे घुटने टेकने की बजाय वीरगति को बेहतर समझा। सब के सब कासिम की सेना पर टूट पड़े और अरबों का खून बहाते हुए वीरगति को प्राप्त हो गए अंत में राजा व उसके परिवार को घेर लिया गया. राजा का हाथ कट गया राजा ने उल्टे हाथ में तलवार लेकर लड़ाई लड़ी पर वह हाथ भी कट गया। अरबियो के हाथों लगने से बेहतर उनकी पत्नी ने मृत्यु का आलिंगन करना बेहतर समझा और खुद ही तलवार से अपनी जान दे दी। उसके बाद उन्हें बन्दी बना लिया गया और किले में ले जाकर उन्हें बांध दिया गया। उनके तीन बेटे जो लगभग 2, 5 व 7 साल के थे उन्हें उनकी आंखों के सामने असहनीय यातनाएं देकर मार दिया और उनके बच्चों की हत्या की खुशी मनाई और उनके सामने उत्सव की तरह मनाया गया। फिर राजा को भी कठोर यातनाएं दी व अंत में उनकी भी हत्या कर दी गई।

Source:- Jat Kshatriya Culture

References -arab in sindh, chachanama- an ancient history of sindh, religion and society in Arab sindh, Chachanama retold: an account of the arab conquest of sindh,

References


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