Jat Itihas (Utpatti Aur Gaurav Khand)/Wiki Editor Note
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About the Book
Jat Itihas (Utpatti Aur Gaurav Khand) is a book by Author : Thakur Deshraj, Jaghina-Bharatpur, Publisher: Thakurani Triveni Devi Mitra-Mandal Press, Rajamandi-Agra, 1937
This publication is an extension of his earlier book Jat History by Thakur Deshraj, 1934 for the benefit of the students and to acquaint them with the History of Jats.
Review by Prof. H.R. Isran
Book: Jat-Itihas (Utpatti aur Gaurav Khand ) 1937, pages 175 Jat History (Origin and Glory ): A Volume
Author: Thakur Deshraj, Jaghina,Bharatpur
Publisher: Thakurani Triveni Devi, Mitra Mandal Press, Raja mandi, Agra
The book titled 'Jat History' authored by Thakur Deshraj, a renowned historian, is indeed a superbly significant treatise dealing in detail with the origin and grandeur of the Jats. A distinguished historian and biographer, Thakur Deshraj has keen historical acumen to give an accurate historical representation of the subject under his investigation. His presentation seems fair and interpretation unbiased. No distortion. No exaggeration. No diminishing of materials.
The book under review provides valuable information about the origin and glorious history of the Jats. It is indeed an interesting and well-written book , and at the same time a rare contribution to the history of the Jats.
Content: The book consists of nine chapters and an appendix/ epilogue. The opening chapter provides information about the number and distribution of population of the Jats in ancient times scattered over different states in India and abroad and the boundaries of the provinces inhabited by the Jats. The factors responsible for diminishing Jat population have also been explained.
The second chapter concludes that Jat is certainly a tribe of the Aryan race. The Indo-Aryan origin of the Jats has been advocated by a host of historians on the grounds of ethnological, physical and linguistic standard. They are the purest Aryan in India and indigenous to India. Ample historical proofs are provided in the book to substantiate this theory. Author has also highlighted the factors responsible for creating confusion about their Indo-Aryan origin.
The third chapter unambiguously establishes that as per Varna (caste) system, the Jats are Kshatriyas or the warrior class. They are the legitimate descendants of the warriors who reigned during the Vedic, Ramayana, Mahabharata and Buddhist periods in India.
Chapter 4 discusses how the ancient warriors/Kshatriyas were named Jats. So far as the origin of the word 'Jat 'is concerned, one can note doubt that this word finds mention, in one or the other way, in the ancient Indian literary texts and epics like Rig Veda and Mahabharata. Thakur Deshraj subscribes to the view that the word 'Jat' is derived from the Sanskrit word 'Jnati' (ज्ञाति) or 'Jnata' (ज्ञात). Later on, this word changed to Jat in Prakrit language. Panini, an ancient Sanskrit philologist and grammarian, mentions the word 'Jat' in his text Ashtadhyayi, a sutra -style treatise on Sanskrit grammar. To cite the relevant line: जट झट संघाते (Its English translation is that Jat is a democratic federation.) The point is that the word Jat was coined before 8th century BC.
Chapter 5 provides information about the ruling dynasties of the Jats that existed in ancient India.
Next chapter deals with those ruling dynasties of the Jats that struggled against the Rajput rulers.
Chapter 7 gives an account of the Sinsinwal, Bhati, Sindhu and Rana dynasties of the Jat rulers.
The eighth chapter highlights the ruling Janapada systems, constitution of villages, the sabhas and samitis, governanvce mechanism adopted in the ancient Jat kingdoms.
The concluding chapter delivers an account of those Jat dynasties that migrated from India and ruled over many countries outside India.
The appendix enumerates the distinguishing features and characteristics of the Jats and incorporates brief biographies of the eminent Jats.
Assessment: The book authored by a proven historian is an excellent resource to researchers interested in Jat history, educators and the younger generation cut off from the history of their ancestors. The chapters create neatly parceled packages. Each chapter of the book is divided into parts and paragraphs under subheadings, which fit logically into the topic of the chapter. All chapters are composed of several defining parts that maintain a sense of continuity throughout the volume. The book is well organized and skillfully written.
A historian of great repute, Deshraj provides historical evidence to support his theories, and relates bibliographical information about other historians who advocated the same or different theories in their historical explorations. He maintains balance of primary and secondary sources, and the source base is quite substantial. The book fits into the scholarly debate on the subject. Above all, the author supplies an in-depth analysis of various aspects of the theories regarding the origin of the Jats and also the rise and fall of the ruling dynasties of Jats. The book offers an objective view and is well-referenced, making sufficient skillful use of first person sources. The author's enthusiasm for the subject is obvious throughout the book.
Reviewed by Prof. Hanumana Ram Isran, Retired Principal, College Education, Rajasthan.
विकी एडिटर नोट
पुस्तक: जाट इतिहास (उत्पत्ति और गौरव खंड), 1937, मुझे प्रोफेसर डालचंद सहारण द्वारा ग्रामोत्थान विद्यापीठ संगरिया के पुस्तकालय से प्राप्त कर उपलब्ध कराई गई। पुस्तक को डिजिटल रूप में परिवर्तित कर जाटलैंड साईट पर यहाँ उपलब्ध कराई जा रही है। पुस्तक के डिजिटल रूप में परिवर्तित करने का काम 8 फरवरी 2018 को शुरू किया गया और यह कार्य 28 फरवरी 2018 को पूरा किया गया। पुस्तक की अङ्ग्रेज़ी में समीक्षा प्रोफेसर हनुमाना राम ईसराण द्वारा की गई है।
महाराजा सूरजमल का जन्म 13 फरवरी 1707 को हुआ था। अतः यह ऑनलाइन संस्करण महाराजा सूरजमल को समर्पित है।
पुस्तक का स्वरूप
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मूल पुस्तक में प्रत्येक अध्याय में उप-शीर्षक नहीं दिये गए हैं। पुस्तक के ऑनलाइन संस्करण में प्रत्येक अध्याय को उप-शीर्षकों में विभाजित किया गया। यह विषय को उपयोगी और शीघ्र-ग्राह्य करने के लिए किया गया है।
ठाकुर देशराज द्वारा मूल पुस्तक की विषय सूची में परिशिष्ट क्रमांक 1-2 ही अंकित किए थे परंतु जाट पताका गान और कृतज्ञता प्रकाशन आगे जोड़े गए हैं परंतु परिशिष्ट क्रमांक नहीं दिया गया था सो इस ऑनलाइन संस्करण में इनका क्रमांक 3 और 4 अंकित कर दिया गया है।
पुस्तक की उपयोगिता
ठाकुर देशराज ने पुस्तक की प्रस्तावना में उन्नति की इच्छुक प्रत्येक जाति के लिए इतिहास की आवश्यकता, जाटों का धार्मिक और राजनैतिक दोहरा संघर्ष, जाट इतिहास को अंधकार में डालने की कार्यवाहियां, जाटों के आत्म-गौरव और जातीय-अभिमान को मिटाने वाले तथ्यों का सुंदर चित्रण किया है। जाटों के उत्पत्ति के सिद्धान्त के भ्रम को दूर कर सही व्याख्या की गई है। जाट इतिहास का अधिक से अधिक प्रचार किए जाने की आवश्यकता प्रतिपादित की है।
विद्यार्थी-काल में आत्मगौरव और जाति-अभिमान के भाव पैदा करने के उद्देश्य से इतिहास का यह खंड अवश्य लाभदायक होगा।
'जाट इतिहास' में ठाकुर देशराज द्वारा उच्च कोटि की हिंदी का प्रयोग हुआ था। इसलिए लेखक ने इस 'खंड इतिहास' में भाषा सरल बनाने की कोशिश की है।
प्रथम परिच्छेद में जाटों की प्राचीन आबादी और विस्तार पर अच्छा प्रकाश डाला गया है। यह भी समझाया गया है कि जाटों का ह्नास क्यों और कैसे हुआ। इस अध्याय में स्वहित में संगठन का अभाव रेखांकित किया गया है।
द्वितीय परिच्छेद में यह प्रमाणित किया गया है कि जाट विशुद्ध आर्य हैं किंतु सामाजिक मामलों में ये अधिक उदार होने के कारण ये (पिछले जमाने के) ब्राह्मणों की आंखों में खटकने लगे और उन्होंने इन का जातीय पद नीचे गिराने का यत्न किया। जाट नवीन हिन्दू-धर्म के बन्धन से मुक्त रहना चाहते थे। वह कुछ सीमा तक बौद्ध-धर्म के कायल थे।
तीसरे परिच्छेद में जाटों की वर्ण-मीमांसा दी गई है। जाटों का बौद्ध-धर्मी होने से और बौद्ध-ब्राह्मण संघर्ष के कारण मध्य काल के कुछ लोग जाटों को क्षत्रीय कहने में अपनी हेटी समझते थे वरना वे क्षत्रिय तो हैं ही। ठाकुर देशराज ने जाट क्षत्रिय होने के अनेक प्रमाण दिये हैं।
चौथा परिछेद में जाट शब्द मीमांसा पर प्रकाश डाला गया है। कई मनगढ़ंत काल्पनिक सिद्धान्तों को नकार दिया है। ठाकुर देशराज यह प्रमाणित करते हैं कि जाट शब्द ज्ञात शब्द का रूपांतर है। ज्ञात शब्द साहित्यिक संस्कृत का है और जाट प्राकृत अथवा बोलचाल की संस्कृत का है। प्रजातन्त्र वादी (ज्ञातिवादी), ज्ञाति के विधान तथा नियम और शासन-प्रणाली में विश्वास रखने वाले और उसे देश और समाज के लिए कल्याणकारी समझने वाले लोग आगे चलकर के ज्ञात कहलाने लगे। अर्थात्-ज्ञातवादी ही, ज्ञात, जात अथवा जाट नाम से प्रसिद्ध हुए। पाणिनी ने जो कि गांधार देश का प्रसिद्ध पंडित था, अपने व्याकरण (धातुपाठ) में जट शब्द का प्रयोग 'जट झट संघाते' सूत्र के रूप में किया है।
पंचम परिच्छेद में उन प्राचीन राजवंशों का वर्णन दिया है जो जाति-राष्ट्र के सिद्धांतों पर चलने के कारण जाट कहलाए। मूल पुस्तक में ठाकुर देशराज द्वारा प्राचीन राजवंशों का अनुक्रमांक नहीं दिया गया था परंतु इस ऑनलाइन संस्करण में सुलभ संदर्भ के लिए प्रत्येक प्राचीन राजवंश का अनुक्रमांक दिया गया है।
छठे परिच्छेद में मध्य कालीन जाट राजवंशों का विवरण दिया गया है। मूल पुस्तक में ठाकुर देशराज द्वारा इन राजवंशों का अनुक्रमांक नहीं दिया गया था परंतु इस ऑनलाइन संस्करण में सुलभ संदर्भ के लिए प्रत्येक राजवंश का अनुक्रमांक दिया गया है।
सातवाँ परिच्छेद में वर्तमान काल के राजवंशों का विवरण दिया गया है। ऑनलाइन संस्करण में सुलभ संदर्भ के लिए प्रत्येक राजवंश का अनुक्रमांक दिया गया है।
आठवां परिच्छेद में जाट गणराज्यों की शासन प्रणाली, जाटों की ग्राम रचना, जाटों के दुर्ग, शासन-सभा आदि का विवरण दिया गया है और बताया गया है कि जाट गणराज्य नष्ट क्यों हो गए? अच्छे अच्छे-अच्छे सैनिक योद्धा रखते हुए भी यह गणराज्य नष्ट हो गए क्योंकि यह छोटे बहुत होते थे और साम्राज्यवादियों के मुकाबले तिक नहीं पाये। यौधेय, यादव आदि के जो बड़े-बड़े संघ थे वे काफी समय तक साम्राज्यवादियों के मुकाबले डटे रहे।
नवम परिच्छेद में जाटों की प्राचीन निवास भूमि का विवरण दिया गया है। जाट आर्यावर्त के मूल निवासी थे। उत्तरोत्तर संख्या वृद्धि के साथ ही वंश (कुल) वृद्धि भी होती गई और प्राचीन जातियाों में से एक-एक के सैंकड़ों वंश हो गए। ये समूह आपस में सदियों तक लड़े। अनेकों समूहों को देश छोड़ विदेशों में भटकना पड़ा। जाटों ने ईरान और अफगानिस्तान को भी आबाद किया। हूणों के आक्रमण के समय जगजार्टिस और आक्सस नदियों के किनारे तथा कैस्पियन सागर के तट पर बसे हुए जाट यूरोप की ओर बढ़ गए।
पुस्तक के अंतिम अध्याय में जाटों की राष्ट्रीय-पताका और एक पताका गान भी दिया गया है जिससे ठाकुर रामबाबूसिंहजी परिहार ने तैयार किया है। अंत में कृतज्ञता प्रकाशन शीर्षक के अंतर्गत ठाकुर देशराज द्वारा उन सभी महानुभावों के नाम दिये हैं जिनका योगदान जाट इतिहास और इस पुस्तक के छपवाने और वितरण में सहायता की थी।