Karnaprayag
Author:Laxman Burdak, IFS (R) |
Karnaprayag (कर्णप्रयाग) is a city in Chamoli District in the Indian state of Uttarakhand. Karnaprayag is one of the Panch Prayag (five confluences) of Alaknanda River, situated at the confluence of the Alaknanda, and Pindar River.
Location
Karnaprayag is located at 30.27°N 79.25°E. It has an average elevation of 1,451 metres. The confluence of the Pindar River, which arises from the icy Pindari glacier and the Alaknanda, occurs at Karnaprayag. Nanda Devi, towering above at 7,816 m, and surrounded by an array of glittering peaks, Trisul, Drona Giri, Nanda Ghunti, Mrigathuni and Maiktoli.
Variants
- Karnaprayaga (कर्णप्रयाग) (जिला गढ़वाल, उ.प्र.) (AS, p.143)
History
Karnaprayag is one of five sites where the confluence of rivers occurs. The five prayags are Vishnuprayag, Nandprayag, Karnaprayag, Rudraprayag and Devprayag. Allahabad where the Ganges, Yamuna and mythical Saraswati join, is known as Prayag, and is one of the holy places of Hindu pilgrimage. Karnaprayag is believed by many to be the place where Karna of the Mahabharata, was to have worshipped the Sun God. There is an ancient temple, devoted to Uma in Karnaprayag.
In some versions Karnaprayag is the place where Lord Krishna done the cremation of Karna. When Arjuna used the Anjalika astra on weaponless Karna, who was still trying to lift the sunken chariot wheel, Lord Krishna found that Karna was still alive even though seriously wounded. Lord Krishna found that Dharma-devata, the goddess responsible for protecting Dharma (righteousness) is guarding Karna from death and resisting every arrows send by Arjuna. Krishna and Arjuna found it was impossible to kill Karna as the goddess was protecting Karna personally. Lord Krishna explained to Arjuna that the Dharma-devata herself was protecting Karna from death because of the massive good merit Karna earned by giving charity during his lifetime and it was impossible even for Lord Shiva to kill Karna. Krishna said wherever Dharma is present there is victory and this time Dharma was with the side of Karna. So Krishna went down from his chariot and appeared as a Brahmin and asked for Karna's punya or merit to him as charity. Karna gave his entire merits as charity to the Brahmin in the form of his blood and once Karna gifted his life's merit to him, Krishna rewarded Karna with the view of Krishna's Vishwaroopa. Krishna told that only this way it was possible to kill Karna and when Karna gave away his life's merit to Krishna, Dharma-devata disappeared. Karna asked Krishna to cremate him in a virgin land where nobody else is present. Then Krishna went back to his chariot and asked Arjuna to take the kill shot on Karna. Later Krishna himself done the cremation of Karna at Karnaprayag.[1]
It is on the way to Badrinath, on the confluence of two holy rivers Alaknanda and Pindar. It is said that Karna of Mahabharata meditated here for many years to acquire the impregnable shield, which made him a formidable warrior in the battlefield. Swami Vivekananda meditated here for eighteen days with his Guru Bhai, Guru Turianand ji and Akharanand ji. It is the sub-divisional headquarters of district Chamoli. Roads from here go to Almora, Nainital and Jim Corbett National Park.
भद्रकर्णेश्वर
विजयेन्द्र कुमार माथुर[2] ने लेख किया है ...भद्रकर्णेश्वर (AS, p.656): महाभारत में इस तीर्थ का वन पर्व के अंतर्गत तीर्थ-प्रसंग में उल्लेख है, 'भद्रकर्णेश्वरं गत्वा देवम अर्च्य यथाविधिं, न दुर्गतिम अवाप्नॊति नाकपृष्ठे च पूज्येते' वनपर्व 84,39 भद्रकर्णेश्वर का अभिज्ञान जिला गढ़वाल (उत्तर प्रदेश) में स्थित कर्णप्रयाग से किया गया है जो प्रसंग से ठीक ही जान पड़ता है क्योंकि वन पर्व 84, 37 में रुद्रावर्त (रुद्रप्रयाग) का वर्णन है.
कर्णप्रयाग
विजयेन्द्र कुमार माथुर[3] ने लेख किया है ...कर्णप्रयाग (AS, p.143) : महाभारत में वर्णित भद्रकर्णेश्वर तीर्थ (वनपर्व 84, 39) शायद यही है.
कर्णप्रयाग परिचय
उत्तराखण्ड के प्रसिद्ध धार्मिक स्थलों में से एक है। यह तीर्थ स्थान अलकनंदा तथा पिण्डर नदियों के संगम पर स्थित है। पिण्डर का एक नाम कर्ण गंगा भी है, जिसके कारण ही इस तीर्थ संगम का नाम कर्णप्रयाग पड़ा है। उमा मंदिर और कर्ण मंदिर यहाँ के प्रसिद्ध दर्शनीय स्थल हैं। कर्णप्रयाग की संस्कृति उत्तराखंड की सबसे पौराणिक एवं अद्भुत नंद राज जाट यात्रा से जुड़ी है।
अलकनंदा एवं पिंडर नदी के संगम पर बसा कर्णप्रयाग धार्मिक पंच प्रयागों में तीसरा है, जो मूलरूप से एक महत्त्वपूर्ण तार्थ हुआ करता था। बद्रीनाथ मंदिर जाते हुए साधुओं, मुनियों, ऋषियों एवं पैदल तीर्थयात्रियों को इस शहर से गुजरना पड़ता था। यह एक उन्नतिशील बाज़ार भी था और देश के अन्य भागों से आकर लोग यहां बस गये, क्योंकि यहां व्यापार के अवसर उपलब्ध थे। इन गतिविधियों पर वर्ष 1803 की बिरेही बाढ़ के कारण रोक लग गयी, क्योंकि शहर प्रवाह में बह गया। उस समय प्राचीन उमा देवी मंदिर का भी नुकसान हुआ। फिर धीरे-धीरे यहाँ सब कुछ पहले जैसा सामान्य हुआ, शहर का पुनर्निर्माण हुआ तथा यात्रा एवं व्यापारिक गतिविधियाँ भी पुन: आरंभ हो गयीं।
पौराणिकता: कर्णप्रयाग का नाम हिन्दू महाकाव्य महाभारत के केंद्रीय पात्र कर्ण के नाम पर है। कर्ण का जन्म कुंती के गर्भ से हुआ था, इस प्रकार वह पांडवों का बड़ा भाई था। यह महान् योद्धा तथा दुखांत नायक कुरूक्षेत्र के युद्ध में कौरवों के पक्ष से लड़ा। एक किंबदंती के अनुसार आज जहां कर्ण को समर्पित मंदिर है, वह स्थान कभी जल के अंदर था और मात्र कर्णशिला नामक एक पत्थर की नोक जल के बाहर थी। कुरूक्षेत्र युद्ध के बाद भगवान श्रीकृष्ण ने कर्ण का दाह संस्कार कर्णशिला पर अपनी हथेली का संतुलन बनाये रखकर किया था। एक दूसरी कहावतानुसार कर्ण यहां अपने पिता सूर्य की आराधना किया करता था। यह भी कहा जाता है कि यहां देवी गंगा तथा भगवान शिव ने कर्ण को साक्षात दर्शन दिया था। पौराणिक रूप से कर्णप्रयाग की संबद्धता पार्वती से भी है। उन्हें समर्पित कर्णप्रयाग के मंदिर की स्थापना 8वीं सदी में आदि शंकराचार्य द्वारा पहले हो चुकी थी। कहावत है कि उमा का जन्म डिमरी ब्राह्मणों के घर संक्रीसेरा के एक खेत में हुआ था, जो बद्रीनाथ के अधिकृत पुजारी थे और इन्हें ही उसका मायका माना जाता है तथा कपरीपट्टी गांव का शिव मंदिर उनकी ससुराल होती है।
नंद राज जाट यात्रा: कर्णप्रयाग नंदा देवी की पौराणिक कथा से भी जुड़ा है; नौटी गांव जहां से नंद राज जाट यात्रा आरंभ होती है, इसके समीप है। गढ़वाल के राजपरिवारों के राजगुरू नौटियालों का मूल घर नौटी का छोटा गांव कठिन नंद राज जाट यात्रा के लिये प्रसिद्ध है, जो 12 वर्षों में एक बार आयोजित होती है तथा कुंभ मेला की तरह महत्त्वपूर्ण मानी जाती है। यह यात्रा नंदा देवी को समर्पित है, जो गढ़वाल एवं कुमाऊं की ईष्ट देवी हैं। नंदा देवी को पार्वती का अन्य रूप माना जाता है, जिसका उत्तरांचल के लोगों के हृदय में एक विशिष्ट स्थान है, जो अनुपम भक्ति तथा स्नेह की प्रेरणा देता है। नंदाष्टमी के दिन देवी को अपने ससुराल, हिमालय में भगवान शिव के घर, ले जाने के लिये राज जाट आयोजित की जाती है तथा क्षेत्र के अनेकों नंदा देवी मंदिरों में विशेष पूजा होती है।
External links
References
- ↑ M.P. Veerendra Kumar. Haimavatabhoovil. Mathrubhumi Books. p. 734. ISBN 978-81-8264-560-8.
- ↑ Aitihasik Sthanavali by Vijayendra Kumar Mathur, p.656
- ↑ Aitihasik Sthanavali by Vijayendra Kumar Mathur, p.143