Nathu Dhatarwal

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Author:Laxman Burdak, IFS (R)

Nathu Dhatarwal (1323-1387 AD) was a chieftain of village Dhatri in present Sujangarh tahsil of Churu district in Rajasthan.

History

Nathu Dhatarwal (1323-1387 AD), chieftain of village Dhatri in present Sujangarh tahsil of Churu, was born at Dhatri in VS 1380 (=1323 AD) in the family of Ch. Malu Ram Dhatarwal and Smt Miron (Rajal). Nathu Dhatarwal founded village Rajasar in memory of his mother Rajal.

Nathu Dhatarwal married with Rupa Godara daughter of Narsi Godara at Baderan (Bikaner) in VS 1406 (= 1349 AD) on Akshaya Tratiya.

Dhatarwals had a war with Sinwars at Dhatri when they lost Malu Ram Dhatarwal father of Nathu Dhatarwal. After the war Nathu Dhatarwal along with his uncle Kalu Dhatarwal and maternal brother Bhinya Ram Roj left Dhatri. They settled at Baderan in Lunkaransar area where they constructed ponds and wells.

Nathu Dhatarwal died fighting with invaders from Sindh on Asoj badi 9 VS 1444 (=1387 AD).

Dhatarwals founded number of villages after Nathu Dhatarwal and his descendants. 12 villages founded by Dhatarwals are:

1. Kheenyera, 2. Soolera, 3. Bheekhnera, 4. Kumbhana, 5. Kolana, 6. Ajeetmana, 7. Ladera, 8. Bhanabasti, 9. Meghana, 10. Manera, 11. Thoiya, 12. Nathor (Nathuwas). Nathuwas was founded in memory of Nathu Dhatarwal.

Nathu Dhatarwal's eldest son was Kumbha after whom founded village Kumbhana.

Nathu Dhatarwal's second son was Khinya after whom founded village Kheenyera.

Nathu Dhatarwal's third son was Lado after whom founded village Ladera.

Nathu Dhatarwal's fourth son was Megha after whom founded village Meghana .

Nathu Dhatarwal's daughter was Thoili after whom founded village Thoiya. Thoili was married to Beniwals

Nathu Dhatarwal's younger brother was Asu, who had three sons. Asu's eldest son was Mena after whom founded village Manera.

Asu's second son was Bhikha after whom founded village Bheekhnera.

Mula son of Bhikha founded Mulera.

Nathu Dhatarwal's tau was Bhana after whom founded village Bhanabasti.

Bhana's younger brother Chuda founded Chudana.

Bhana's second younger brother Ajeeta founded Ajeetmana.

Malu was father of Nathu Dhatarwal whose cousin brother was Kalu. Kalu's son was Kola who founded Kolana.

धतरवाल गोत्र का इतिहास

लोक देवता श्री नाथूदादा जी कुंवों खोदायो कलश रो, बांधी पुन री पाल। सो सराई मारिया सिद्ध नाथु धतरवाल ।।
नाथूदादा धतरवाल

राजस्थान की वीर भूमि का इतिहास अति प्राचीन है। अनेक वीर महापुरूषों, संत-शूरमाओं, शिक्षाविदों ने समय-समय पर यहां की पावन धरा पर जन्म लेकर अपने सद्‌कर्मों से यहां की माटी को गौरवान्वित किया। उन्ही में एक महान व्यक्तित्व प्रातः स्मरणीय श्री नाथूदादा जी थे। जिन्होंने अपने जीवन काल में अनेकों ऐसे कार्य करवाए जिसके कारण वे तत्कालीन जनमानस में अवतारी पुरूष के रूप में लोकप्रिय हो गए।

नाथूदादा का जन्म: ऐसे महान बलिदानी पुरूष, लोक जीवन के नायक व आस्था के देव, प्रकृक्ति प्रेमी नाथूदादा का जन्म उनके दादा मांगीराम जी (मंगलो जी) को मां हिंगलाज से मिले वरदान के कारण शेषनाग के अवतार के रूप में चूरु जिले के धातरी गांव में वि.सं. 1380 (=1323 ई.) के आसपास चौधरी मालूरामजी धतरवाल (मालोणजी) व माता मीरों (राजल) के घर हुआ। नाथूदादा जब छह माह के थे तब पालने में सो रहे थे और मां घर के काम में लग गई। जब मां को याद आया कि आज नाथू को दूध नहीं पिलाया तब मां पालने के पास आयी तो देखा कि एक बड़ा शेषनाग पालने में नाथुजी के साथ खेल रहा है। मां चिल्लाई तो परिवार वाले इकट्ठे हो गए तब मांगीराम जी को याद आया कि हिंगलाज के वरदान से शेषनाग के अवतार के रूप में पोते की प्राप्ति हुई है। सभी ने नाग को प्रणाम किया। इसके बाद शेषनाग चले गए। इस प्रकार नाथुदादा ने अपनी मां को पहला परचा दिखाया।

इनके चाचा कालुरामजी धैर्यवान, करूणामयी, दयालु व सेवाभावी थे। जिनके व्यक्तित्व का प्रभाव बालक नाथू पर बचपन में ही पड़ गया। अपने चाचा से मिले गुण-संस्कार के कारण वे बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि, कर्त्तव्यनिष्ठ, हिम्मतवान, प्रकृति प्रेमी, धर्मनिष्ठ, सत्यवादी, दृढ़ निश्चयी बन गए। वचनबद्धता तो उनमें कूट-कूटकर भरी हुई थी। वे मां जोगमाया के अनन्य भक्त थे।

नाथूदादा का सफ़ेद घोड़ा: परिवार के कार्यों व खेती-किसानी के बाद अतिरिक्त समय में दादा नाथूजी पशु-पक्षियों को दाना-पानी देने व पेड़ पौधों की देखभाल में व्यतीत करते थे। नाथूजी महाराज जब 5 वर्ष के थे तो एक दिन अपने दादा मांगीराम जी के साथ बैठे थे उसी समय उनके मन में घोड़े पर बैठने की इच्छा हुई और अपने दादाजी से कहने लगे कि दादाजी मुझे एक अच्छा सा घोड़ा दिलवाओ। तब दादाजी ने समझाया कि बेटा अभी तू छोटा है। मैं तुझे एक अच्छा ऊँट दिलवा दूंगा लेकिन नाथुजी ने हठ कर लिया कि "मुझे तो घोड़ा ही चाहिए"। दादाजी सोचने लगे कि घोड़ा कहां से लाएंगे। तब नाथुजी ने अपनी दिव्य दृष्टि से देखकर दादा से कहा कि घोड़ा जोधपुर दरबार (उस समय मारवाड़ में मिल जाएगा। मांगीरामजी नाथुजी को साथ लेकर जोधपुर (मारवाड़) के लिए रवाना हो गए। उन्होने एक पोटली में चांदी के पांच सौ सिक्के साथ लिये। दरबार में उनका आदर सत्कार किया। मांगीराम जी ने महाराज के समक्ष अपने पोते की जिद रखी तो महाराज ने अपने दरबारी को आदेश देकर उन्हें घोड़ों के तबेले में ले जाने को कहा। नाथुजी को तबेले में भी घोड़ा पसंद नहीं आया। तब उन्होंने अपने दादाजी से कहा कि यहां एक सफेद घोड़ा भी है। महाराज ने बताया कि उस घोड़े को तो हमारे योग्य घुड़सवार भी काबू नहीं कर सकते। बालक नाथु ने कहा कि हम भी देखें आपके घोड़े को। वे जब घोड़े के पास पहुंचे तो घोड़े ने उनका सत्कार किया। देखते ही देखते नाथुजी ने घोड़े पर काठी व लगाम बांधली। सवार होते ही वे पवन वेग की तरह घोड़ा दौड़ाने लगे। उनकी घुड़सवारी से प्रसन्न होकर राजा ने उन्हें वह घोड़ा मुफ्त में देने की पेशकश की तब मांगीराम जी ने कहा कि भेंट-दान की चीजें ग्रहण करना हमारे धर्म में नहीं है। उन्होंने पांच सौ चांदी के सिक्के देकर वह घोड़ा घोडा खरीद लिया। । वे घोड़े पर सवार होकर धातरी पहुंच गए। कुछ समय बाद नाथुजी घोड़ा लेकर घूमने चले गए।

धतरवालों व सींवरों में युद्ध: धातरी में धतरवालसींवर बराबर अनुपात में रहते थे। उस दिन धतरवालों व सींवरों के रेवड़ व गायों का आमना-सामना हुआ। रेवड़ के साथ आए कुत्ते आपस में लड़ने लगे तो ग्वाले भी लड़ पड़े। कुछ ही समय में गांव के धतरवालों व सींवरों में घनघोर युद्ध हुआ। युद्ध में मरने वालों में सींवर ज्यादा थे मगर धतरवालों को भी नाथुदादा के पिताजी मालूराम जी के रूप में अपना मजबूत स्तम्भ खोना पड़ा। नाथुजी महाराज घूमकर वापस आए तो घरवालों ने उन्हें उक्त घटना के बारे में नहीं बताया। नाथुजी ने मां दुर्गा की जोत करके दिव्य दृष्टि लगाई तो पूरी घटना सवृतांत दिखाई दी। वे अपने दादाजी के पास गए और क्रोधित होकर कहा कि ये सब क्या हो गया। वे ढाल तलवार लेकर कहने लगे कि मैं सींवरों का विनाश कर दूंगा। तब दादाजी ने समझाया कि जो हुआ हो गया। अब शांत हो जाओ।

नाथूदादा का परिवार सहित धातरी से प्रस्थान : इधर मां दुर्गा ने भी आकाशवाणी की - "नाथु मेरे भक्त तुम शक्ति धारण करो और अब यह धातरी की भूमि आपके लिए उचित नहीं रही। अपना परिवार लेकर तुम उत्तर दिशा में प्रस्थान करो।" नाथुदादा दादा को स्वप्न में मां जोगमाया ने दर्शन देकर एक दृष्टांत दिखाया जिसमें दिखाया जिसमें एक अति दुर्गम क्षेत्र जहां ऊँचे-ऊँचे रेत के धारों के बीच वीरान मरुभूमि में जीव-जंतु एवं विरले मानुस पानी की कमी में काल-कवलित हो रहे हैं तथा वे प्राणी उन्हें बार-बार बुला रहे हैं - "आ हमें बचाले, आ हमें बचाले"।

मां के इस हुक्म को मानकर नाथुदादा परिवार सहित उत्तर दिशा में चल पड़ है। इनके साथ 7 जातियां भी रवाना हुई। जिसमें गौड़ ब्राह्मण (बबेरवाल) भुरटा खाती, लिलड़िया नाई, चमगा ढाढी, चमगा ढाढ़ी, जोगपाल मेघवाल, लाखा भील, मखतुला सांसी (कोटवाल) प्रमुख थे। चलते-चलते वे चूरू के तालछापर पहुंचे जहां एक शिकारी ने कृष्णामृग का शिकार कर दिया था। यह देख नाथूदादा ने शिकारी को बुरा-भला कहा। तब शिकारी ने ताना दे दिया कि मैनें तो इसे मार दिया। आप इतने ही तपस्वी हैं तो इसे जिंदा कर दीजिए। तब दादा ने मां का स्मरण करके मृग को जिंदा कर दिया। इस घटना के बाद शिकारी चरणों में गिर पड़ा तथा उसने हिंसा का त्याग कर दिया।

नाथूजी धतरवाल ने अपनी माँ राजल के नाम पर राजसर गांव बसाया।

यहां से दादा आगे उस दिशा की ओर बढ़े जहां आज आर्मी का महाजन फिल्ड फायरिंग रेंज व उसके आसपास का क्षेत्र हैं। इस यात्रा में उनके साथ चाचा कालुजी व मौसेरा भाई भींयाराम रोझ भी थे। सभी बीकानेर के लूणकरणसर (उस समय थोरिया बस्ती) पहुंचे।

लूणकरणसर में एक सेठ परिवार ने उनका आतिथ्य स्वीकार किया तथा रहने की व्यवस्था की। रात्रिभोजन के समय जब सेठ ने सभी को भोजन ग्रहण करने हेतु आमंत्रित किया तो नाथुदादा ने विनम्रपूर्वक सेठजी का आमंत्रण यह कहते हुए टाल दिया कि हम स्वयं अपने साथ लाए सामान से भोजन तैयार करके ग्रहण करेंगे। तब सेठ ने सोचा कि यह व्यक्ति कोई साधारण पुरुष नहीं बल्कि स्वाभिमानी महापुरुष है।

उसी रात कुछलुटेरों ने सेठ के यहां से धन लूट लिय लिया। समाचार सुनकर चाचा-भतीजे सेठ की पीढ़ियों की संचित कमाई को वापस लाने हेतु निकल पड़े। लुटेरों के साथ उनका झगड़ा हुआ तथा अंततः धन लाकर सेठ को सुपुर्द किया। इस कार्य हेतु सेठ ने उन्हें मुंह-मांगा ईनाम देने का वचन किया तो नाथुदादा व कालु जी ने कहा कि हमने धर्म की रक्षा की है यह हमारा कर्त्तव्य है। ये बातें सुनकर सेठ के मन में इन दोनों के प्रति सम्मान और बढ़ गया।

नाथूजी धतरवाल बड़ेरण (बीकानेर) में रूके : लुणकरणसर से आगे चलकर नाथुजी वर्तमान बड़ेरण गांव (बीकानेर) में जाकर रूके। यहां आते ही उन्हें सबसे पहले जल की भारी कमी की समस्या का सामना करना पड़ा। तत्कालीन समय में तकनीकी व संसाधनों के अभाव में रेगिस्तान में पानी ढूंढना बड़ा कठिन काम था। । बडेरण गांव से 10-10 कोस दूर कुछ स्थानों से ऊँटों पर पानी लाया जाता था। दादा मांगीराम जी ने अपने परिवार की महिलाओं को गांव से पानी लाने भेजा लेकिन किसी ने उन्हें पानी नहीं भरने दिया। जब महिलाएं खाली मटके लेकर आई तो मांगीरामजी ने कहा अब क्या होगा ? गर्मी के कारण बच्चे, गायें, वैलिये सब पानी के लिए व्याकुल थे।

नाथू ने यह सुनकर मां दुर्गा का स्मर्ण किया तो दुर्गा ने आकाशवाणी की - "नाथू घबराओं मत! जहां तू बैठा है वहां से उत्तर दिशा में दस कदम पर एक कुएँ की नाल है, शिला है उसमें मीठा पानी है।" नाथूजी ने दस कदम चलकर अपने भाइयों से मिट्टी हटवाई। वहां खुदाई में मीठा पानी मिला। सभी ने खुशी प्रकट की, उसी गांव के गोदारा परिवार की बहू बेटी खेत में सूड़ करके वापस लौट रही थी तब उन्होने पास पानी से भरे तालाब को देखना चाहा। ननंद, भोजाई से पहले घर आ गई और भोजाई उन लोगों को देखने चली गई जिन्होंने वह कुआं खोदा था। जब वह घर लौटी तो घरवालों ने उसे घर से निकाल दिया। वह रोती-बिलखती नाथुजी के पड़ाव पर जा पहुंची। मांगीरामजी ने उसके सर पर हाथ रखकर धर्म की बेटी मानकर अपने पड़ाव पर बैठा दी। उसकी सास ने बडेरण के चौधरी नरसी जी से कहा कि हमारी बहु को तो पड़ाव वाले ले गए। वडेरण चौधरी नरसी गोदारा ने गांव वालों से कहा कि आप लोग जैसा सोच रहे हो वैसा नहीं है। वे तो कोई महान पुरुष ही हैं क्योंकि उन्होंने रातोंरात कुआँ खुदवा लिया है। हम जाकर उनसे मिलते हैं। जब नरसी गोदारा अपने लोगों के साथ पड़ाव पर पहुंचे तो मांगीराम जी ने उनका आदर सत्कार किया तथा सच्चाई बताई। जब नरसी ने नाथुजी को देखा तो उन्होंने मांगीराम जी से उनका परिचय पूछा। मांगीरामजी ने कहा कि यह मेरा पोता है। नरसी जी ने कहा कि मैं अपनी पुत्री का ब्याह आपके पोते नाथुजी से करना चाहता हूं। । मांगीराम जी ने कहा कि हमारे पास तो अपनी जमीन भी नहीं है। विवाह कैसे कर सकते हैं। नरसीजी ने कहा कि आपका घोड़ा सूर्योदय से सूर्यास्त तक चलकर नापले वह जमीन आपकी होगी। मांगीराम जी ने रिश्ता स्वीकार कर लिया।

नाथूदादा ने अनुरोध स्वीकार कर अपने चाचा के साथ क्षेत्र का भ्रमण किया तो मालूम पड़ा कि यह क्षेत्र तो वही है जो कुछ समय पहले उन्हें माँ ने सपने में दिखाया था। फिर क्या था, नाथू दादा को अपनी मंजिल मिल गई तथा वे इस रेगिस्तान को नखलिस्तान (हरा-भरा) बनाने में लग गए। वि. सं. 1406 (= 1349 ई.) को आखातीज के दिन नाथूदादा का विवाह नरसीजी गोदारा की बेटी रूपों के साथ सम्पन्न हुआ।

Villages around Lunkaransar in Bikaner district

नाथुजी ने अपने काकाश्री के बताए अनुसार वर्षा जल इक‌ट्ठा होने वाली जगहों (तालों) में जोहड़े (तालाब) एवं कुएँ बनवाने का काम शुरू किया तथा उसी क्षेत्र में इन कुओं, जोहड़ों के आसपास अपने परिवारों को बसाना शुरू कर दिया। धीरे-धीरे इस क्षेत्र में कुल 12 गांव बसा दिए गए। ये गांव थे -

1. खिंयाणा (खींयेरा), 2. सुलेरा, 3. भिखनेरा, 4. कुंभाणा, 5. कोलाणा, 6. अजीतवाणा, 7. लाडेरा, 8. भानाबस्ती, 9. मेघाणा, 10. मनेरा, 11. ठोईया, 12. नाथौर (नाथुवास)।

सबसे प्रमुख नाथुवास था जो नाथुजी के नाम पर बसाया गया। ये सभी गांव धतरवालों के थे।


नाथुदादा के सबसे बड़े पुत्र का नाम 'कुम्भा जी' था। जिनके नाम पर कुम्भाणा बसा।

दूसरे बेटे खिंयाजी ने 'खिंयाणा' गांव बसाया।

तीसरे पुत्र 'लाडोजी' ने लाडेरा तथा

चौथे पुत्र मेघाजी ने मेघाणा बसाया।

पांचवी संतान के रूप में पुत्री ठोईली हुई जो बेनिवालों को ब्याही गई। जिनके नाम से ठोईया गांव का नाम रखा।

नाथुराम जी के छोटे भाई आसुराम जी थे। जिनके तीन संतान थी। सबसे बड़े बेटे का नाम मेणाराम था। जिन्होंने बड़े होकर मनेरा गांव बसाया।

दूसरे पुत्र भिखाराम ने भिखनेरा की स्थापना की तथा

मुलाराम ने मूलेरा गांव बसाया। नाथुदादा के ताऊ जी भाणाराम थे है। जिनके नाम पर भानाबस्ती बसायी।

भाणाराम से छोटे 'चूडाराम' ने चूडाना गांव बसाया। उनसे छोटे अजीताराम ने अजीतराणा गांव बसाया।

नाथुजी के पिता मालूराम जी के चचेरे भाई कालूराम जी के पुत्र कोलाराम ने बड़े होकर कोलाणा गांव बसाया।

उपर्युक्त गांवों में सुलेरा, भिखनेरामेघाणा वर्तमान में महाजन फायरिंग रेंज से बाहर है तथा शेष 9 गांव सन् 1981 से 1986 के मध्य खाली करवा दिए गए। इन गांवों के विस्थापित लोगों को इंदिरा गांधी नहर परियोजना की सिंचाई सुविधा वाले गांव संसारदेसर, करणीसर, कृष्णनगर, तख्तपुरा, सामरथा, वारानी तथा नाथुसर वास में बसाया गया। कुछ परिवार श्रीगंगानगर, हनुमानगढ़पंजाब, हरियाणा के नहरी क्षेत्रों में बस गए।

नाथूदादा का सिंध के लुटेरों से युद्ध: थूदादा के साथ उनका उनका एक मुस्लिम मित्र रसूला का परिवार भी रहता था। उस समय चारों तरफ सिंध के के सराई लुटेरों का आतंक था और जनमानस में लूट-मार का खौफ इस कदर था कि लोग रात में घरों में चिंगारी तक नहीं जलाते। इसी समय कानुकापीर और उसके साथी लुटेरे रसुला की गायों को चुराकर सिंध ले गए। रसुला पीछे-पीछे चला गया। मित्र पर आए संकट के समाचार सुनकर नाथुदादा ने तुरंत गायों की वार चढ़ने का प्रण लिया। नाथदादा नै घोड़ी तैयार करने हेतु ज्यों ही जीण कसी घोड़ी ने विकराल रूप धारण कर दिया तथा जीण कसने नहीं दी। नाथुदादा समझ चुके थे कि आने वाले संकट के संकेत घोड़ी दे रही है लेकिन उनके लिए तो धर्म रक्षा करना प्राथमिक कार्य था। किसी कवि ने सच ही कहा है- "शूर न देखे टीपणो, सुगन गिणे नशूर"। अपशगुन की परवाह किये बिना दादा नाथुजी ने गायों की रक्षा करने की ठानी। ऐसा न करना वे अपनी जाट कौम के ऊपर कलंक समान मानते थे। मन में दृढ़ संकल्प व माँ जोगमाया को याद कर दादा गायों के लिए निकल पड़े। सिन्ध जाकर लुटेरों के साथ घनघोर युद्ध किया। युद्ध से जमीन रक्त रंजित हो गई। युद्ध भूमि में माँ जोगमाया के अनन्य भक्त व बलिष्ठ नाधु के आगे सिन्ध के लुटेरे टिक नहीं पाए। कई मौत के घाट उतार दिये कुछ अपनी जान बचाने भाग खड़े हुए। लम्बे संघर्ष के बाद दादा ने गायों को मुक्त करवाकर रसुला को वापस भेज दिया तथा स्वयं बाकी बचे लुटेरों के खात्मे में लग गए। इस संघर्ष में नाथ दादा का शरीर जीर्ण-शीर्ण हो गया। वे घोड़ी लेकर वापस लौट रहे थे। तब घायल अवस्था में गांव से 2-3 किलोमीटर पहले वे घोड़ी से गिर गये। घोड़ी घर गई तब परिवार वाले लहुलुहान घोड़ी देखकर दंग रह गए। घोड़ी के पदचिह्नों पर उस स्थान पर पहुंचे जहां नाथूदादा घायल अवस्था में गिरे थे। नाथूजी की धर्मपत्नी ने उन्हें गोद में लेकर सचेत किया तो दादा ने कहा कि मुझे माँ भवानी की ज्योति के दर्शन करवाए जाएं ताकि वीरगति पा सकु । परिवार जनों ने अग्नि से ज्योत प्रज्ज्वलित की। ज्योत में दादा को माँ भवानी ने दर्शन दिए। वे ज्योति में समा गए। इस प्रकार धर्म रक्षक, सहिष्णु, सत्यनिष्ठ, सेवाभावी, जीव-दयालु, गौरक्षक वीर दादा नाथुजी अपने जीवन के अंतिम क्षणों तक परोपकारी कार्य करते करते हुए आसोज बदी 9 वि.सं. 1444 (=1387 ई.) को देवलोक गमन हो गए।

श्री देव नाथुदादा के देवलोक गमन के बाद क्षेत्र के लोग अपने धन सम्पदा, पशुओं को बीमारी से रक्षार्थ दादा नाथु का स्मरण करने लगे। दादाजी उनकी कष्ट पीड़ा को दूर कर लोगों को खुशहाली देने लगे। घर-घर नाथुजी की पूजा होने लगी। उनके देहावसान स्थल खिंयाणा (बीकानेर) में भव्य मंदिर बनवाया गया। जहां आज राजस्थान, पंजाब, हरियाणा के किसान वर्ग श्रद्धापूर्वक दादा की स्तुति करके मन्नते मांगते हैं। नाथुदादा का परिवार "जय नाथुदादा की " बोलते हैं.


नाथूदादा के परचे

1. प्रथम परचा बचपन में मां को शेषनाग के रूप में दिया।

2. जब नाथुदादा धातरी से रवाना हुए तो बीच रास्ते में एक गांव आया। वहां एक सेठ ईमिचंद लाखोटिया के घर मातम था। रोने की आवाज सुनकर नाथुजी ने सेठ के घर में प्रवेश किया तथा रोने का कारण पूछा। सेठ ने अपने इकलौते पुत्र की मृत्यु नाग के डसने से होना बताया तब नाथुजी ने दुर्गा का स्मरण करके लड़के के शरीर पर हाथ फेरा तो लड़का अंगड़ाई लेता हुआ ऐसे खड़ा हुआ मानो अभी सो कर उठा हो। बाद में गांव का नाम नाथुदादा की माँ के नाम पर राजलदेसर कर दिया।

3. देवलोकगमन होने के बाद दादा ने प्रथम परचा दानाराम धतरवाल (चूनावड़) को दिया तथा कुष्ठ रोग से मुक्ति दिलाई। आज भी दादा को सच्चे मन से स्मरण करने वालों की मनोकामनाएं पूर्ण होती है।

External links

References


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