Jagdev Sidhanthi
Author:Laxman Burdak, IFS (R) |
Pandit Jagdev Singh Sidhanthi (1900-1979) (पंडित जगदेव सिंह सिद्धान्ती) was a social reformer, Member of Parliament, a great scholar of sanskrit and Vedas.
Introduction
He was born in 1900 on the day of Vijayadashami in the family of Ch. Preet Ram Ahlawat at village Barhana (Gugnan) in Jhajjar district Haryana. His mother was Mamkaur. He joined Army in 1917 but resigned after four years. Later he learnt sanskrit and got degree of Siddhant Bhushan and put his surname Siddhanti and became a great scholar of sanskrit and Vedas. He joined Arya Mahavidyalay Kirthal. Raghuvir Singh Shastri was his student. Siddhanti took part in the Sikar Jat Prajapati Mahayagya in 1934 to awaken the farmers of Shekhawati. He became pradhan of Sauram Sarv Khap Panchayat in 1950. He was elected Member of Parliament from Jhajjar in 1962. He played a very important role in the struggle carried out for the formation of Haryana State. He died on 27 August 1979.
In Kirthal Gurukul
In the year 1920 CE, one such Sanskrit Gurukul (School ) was opened in the village of Kirtthal in the province of Uttar Pradesh.( then the United Provinces of Agra and Oudh) In Kirtthal Chaudhary Kunde Singh gave over an Orchard for the school, Chaudhary Amir Singh and , Lambardar and Muktyar Singh had school classrooms rooms built .The School was put under the mentorship and protection of Chaudhary Arjun Singh, of the village of Kakor, District Baghpat. Chaudhary Arjun Singh was a staunch Arya Samaj supporter, and was also the Pradhan or chief of the Panchayat of the Chaubisi of Chhaprauli (the unit of 24 villages of Chaprauli).[1]
Initially there were many students, but due to a shortage of resources, and teachers, the numbers went into a decline. In 1929, at the request of the founders of the school, Swami Jagdev Singh Sidhanthi, left his teaching position at Gurukul Matindu, Haryana, and joined the Kirttal as the Acharya or head. The school was in poor condition and on the verge of closure. There were only five students left, and of these two were Raghuvir Singh, and Dharamvir Singh, nephews of Chaudhary Arjun Singh. Chaudhary Arjun Singh had told them' it does not matter if your daily food has to sent from some relative, but you will stay here and not give up on your studies.' Later Raghuvir Singh Shastri, in his youth, would participate in the Prajapati Yagya at Sikar, and by strength of his exemplary achievement and capability, he would light the path and encourage the Jats towards education.[2]
The first action of Acharya Sidhanthiji was to change the name of the school from Sanskrit Vidhyalaya (School), to Arya Mahvidhyalaya, (University) Kirttal. He then worked day and night to build the institution. He went from village to village to obtain students. Good students were invited to join the school. He brought the learned pandit P. Shanti Swarup from Lahore, and Swami Vidhyanand form Matindu to Kirttal. In three of four years the reputation of the school spread far and wide, and Sidhanthiji was acknowledged as a Guru in this district. He then received an invitation to attend the Prajapati Yagya at Sikar. [3]
जीवन परिचय
पंडित जगदेव सिंह सिद्धान्ती का जन्म हरयाणा प्रान्त के तहसील झज्जर जिला झज्जर के बरहाणा(गूगनाण ) गाँव में सन १९०० में विजयादशमी के दिन चौधरी प्रीतराम अहलावत के घर हुआ था . इनकी माताजी का नाम मामकौर था. इनके पिता न.प. अंगाल रिसाल में घुड़सवार थे. वे हिन्दुस्तानी सेना में प्रथम रहे हैं और वहीं इन्होने अंग्रेजी, उर्दू, हिन्दी पढ़ना लिखना सीखा. इनकी माता चरखी दादरी के निकट अटैला गाँव की थी. इनकी माताजी काफी धार्मिक विचारों की थी इसलिए ये बचपन से ही ईश्वर भक्ति में लग गए.
६ वर्ष की आयु में इन्होने गाँव की स्कूल से पांचवीं पास की, बेरी स्कूल से आठवीं पास की तथा झज्जर से छात्रवृति प्राप्त की. इन्हे २ रुपये मासिक छात्रवृति मिलती थी. जाट हाई स्कूल रोहतक से दसवीं पास की. जब वे १६ वर्ष के थे इनकी माताजी का देहांत हो गया. १९१६ में इनका विवाह बिरोहड़ गाँव की नानती देवी से कर दिया गया.
सेना में भर्ती
दसवीं पास करने के पश्चात सन १९१७ में ३५ सिख पलटन में सेना में भरती हो गए. इस समय इनका वेतन ११ रुपये मासिक था. इन्होने अपनी मेहनत से १,२,३ सेना की श्रेणियां पास की. जिससे इनका वेतन २० रुपये महिना बढ़ा दिया गया. ३५ सिक्ख पलटन को आगरा छावनी में भेजने का आदेश हुआ. रेल के सफर में कमांडर से वह सूची गुम हो गई जिसपर इस युवा सैनिक ने जबानी तैयार कर दिया. बाद में रेल सफाई कर्मचारी को वह सूची मिल गई. और सूचि कमांडर के पास पहुँची तो दोनों सूचियां एक जैसी मिली. इस पर खुश होकर कर्नल हार्थी ने जगदेव सिंह को क्वार्टर मास्टर का हैड क्लर्क बना दिया. और इनका वेतन ४५ रुपये महिना कर दिया.
एक बार चांदमारी के लिए कपड़ा खरीदना था. उस समय सरकारी कपड़े की दुकानें थी. जिनसे कपड़ा खरीदना अनिवार्य था परन्तु जगदेव सिंह ने कपड़ा देसी दुकान से ख़रीदा जो सस्ता था. जब क्वार्टर मास्टर को पता लगा तो उसने कहा कि "आगे से कपड़ा अंग्रेजी दुकान से ही खरीदना है. क्योंकि ये पैसे ब्रिटिश सरकार के खाते में जाते हैं." जगदेव सिंह ने उत्तर दिया कि - "देसी दुकान का पैसा हमारे देश में रहता है. इससे देश की तरक्की होगी." ऐसी हिम्मत सेना के इतने बड़े अधिकारी को कहने की इसी युवक की हो सकती थी.
जगदेव सिंह १० वर्ष की आयु में ही आर्य समाज के प्रभाव में आ गए थे. जब ये सेना में थे तो वहां पर मांस खाना जरुरी था. इसका इन्होने विरोध किया. और कहा कि वेदों में मांस खाना वर्जित है. इस पर इनका कोर्ट मार्शल हुआ तथा उसी दौरान कोर्ट मार्शल में एक जाट अधिकारी भी था. तब जगदेव सिंह ने कहाकि मनु स्मृति में मांस खाना वर्जित है. अंग्रेज अधिकारी ने इनको बाईबल हाथ में लेकर इसको चूम कर शपथ लेने के लिए कहा.
तब इन्होने कहा कि "यह तो ईसाईयों कि पुस्तक है. मैं इसे नहीं चूम सकता. हमारी धर्म पुस्तक वेद है हम उसी को मानते हैं." वहां वेद नहीं था. तब ब्रिगेडियर ने कहा कि अच्छा यही शपथ लो कि मैं जो कुछ कहूँगा, सच कहूँगा. जगदेव सिंह ने वैसा ही किया तथा कहा कि हमारे धर्म में मांस खाना मना है और उसी समय उसने ब्रिगेडियर को महारानी विक्टोरिया का वह आदेश भी दिखाया जिसमें लिखा था कि किसी धर्म में दखल न दिया जाए और न ही किसी के साथ जबरदस्ती की जाय. इसके बाद वहां मांस खाना सैनिक की इच्छा पर निर्भर कर दिया गया. साढे चार वर्ष नौकरी करने के पश्चात इन्होने सेना से त्याग पात्र दे दिया.
संस्कृत सीखा और बने सिद्धान्ती
इसके बाद ग्रेचुटी का सारा पैसा घर वालों को देकर मटिन्डू गुरुकुल में २० रुपये मासिक गणित पढाने लगे. वहां पर एक शिक्षक शान्ति स्वरुप से संस्कृत सीखने लगे. एक वर्ष में ही संस्कृत प्राग्य में ६०० में से ५३० अंक प्राप्त किए. अगले वर्ष विशारद की परीक्षा पास की. इसके बाद लाहोर से सिद्धांत विशारद तथा सिद्धांत भूषण की परीक्षा पास की. इन्ही दिनों इनकी मुलाकात स्वामी स्वतंत्रता नन्द जी से हुई तथा इनको अपना गुरु बना लिया. यह लाहोर महाविद्यालय के आचार्य थे. सिद्धांत भूषण परीक्षा पास करने के बाद अपने नाम के आगे सिद्धान्ती लगना शुरू कर दिया.
इनके जीवन की एक अहम घटना है कि गाँव सालान के जेलदार चौधरी अमर सिंह बड़े नेक दिल इंसान थे परन्तु इनकी पत्नी मेहमानों को भोजन नहीं देती थी. इसको भी जगदेव सिंह ने यह कहकर सीधा किया कि बाहर सारे समाज में मैं तेरा प्रचार करूँगा की जेलदार के घर एक ऐसी कमबख्त औरत है जो मेहमानों को खाना नहीं देती है. इससे उस औरत का विचार बदल गया तथा वह शेष जीवन में मेहमानों को खाना देने लगी और उनकी सेवा में लीन रहने लगी.
सन १९२५ में इनके पिता श्री प्रीतराम का देहांत हो गया. जब इनकी आयु २६ वर्ष थी तो इनके घर में एक पुत्र रत्न प्राप्त हुआ जिसका नाम रखा महेंद्र. किंतु डेढ़ वर्ष कि आयु में ही इस बालक का देहांत होगया. पुत्र के देहांत से इनके मन में वैराग्य पैदा हो गया. संसार से विरक्त हो गए और शेष जीवन वेदादि शास्त्रों के पठन पाठन तथा आर्य समाज की सेवा में लगा दिया. उन्होंने अपनी पत्नी को भी त्याग दिया. सिद्धान्ती का छोटा भाई इनसे १४ वर्ष छोटा था परन्तु उसकी शिक्षा का पूरा खर्च देते रहे और उसकी पढ़ाई पूरी करवाई.
जहर देकर मारने का प्रयास
यह संसार बड़ा विचित्र है. इसमें धर्म के ठेकेदारों ने हमेशा इर्षा-द्वेष रखा है. शंकराचार्य को जहर पिलाया, महात्मा बुद्ध को शंखिया दिया, दयानंद को दूध में जहर दिया, स्वामी श्रदानंद जी को गोली मारी. श्री सिद्धान्ती जी भी अपवाद नहीं थे. उनको भी इर्शालू धर्म के ठेकेदारों ने संखिया पिलाया जिसको स्वामी विद्यानंद के वैद्यता के कारण बड़े हाकिम नामिसद्दीन की दवा से बचा लिया गया. सिद्धान्ती जी ने अपने गुरु स्वामी दयानंद सरस्वती की तरह उस दुष्ट ब्रह्मण को क्षमा कर दिया.
समाज सेवा
इन्होने ही वर्तमान आर्य महाविद्यालय किरठल (उत्तर प्रदेश ) को इस वर्तमान स्थिति में उसकी महान सेवा करके पहुँचाया. उस समय इस विद्यालय में केवल पांच ही छात्र थे जिनमें रघुवीर सिंह तथा धर्मवीर शामिल थे.इन्होने अपनी मेहनत व लग्न से विद्यालय को आर्य महाविद्यालय का दर्जा दिलवाया. इनको एक बार ककोर में प्रसिद्ध विद्वान भगवत प्रसाद से शास्त्रार्थ करना पड़ा जिसमें इनका ही पलडा भारी रहा. इन्ही दिनों छपरोली चौबीसी ने विवाह के कुछ नियम बनाये ताकि दहेज़ की पीडा से बचा जा सके. इसमें एक नियम यह भी था कि विवाह कराने वाले पंडित को भी तीन रुपये दिए जायेंगे. इससे नाराज होकर ब्राहमणों ने फेरे कराने बंद कर दिये तो सिद्धान्ती जी ने ही इन सब रस्मों को बखूबी निभाया.
सन १९३३ में स्वामी आर्य समाजी सन्यासी सर्वदानंद जी की एक पुस्तक 'सन्मार्ग दर्शन' छपी. जिसमें वेद और आर्य सिद्धांत विरोधी कुछ बातें छपी थी. सिद्धान्ती जी ने 'आर्य मित्र' नमक पत्र में इनकी आलोचना कर दी. यह पढ़ कर सर्वदानंद जी ने सिद्धान्ती जी को पत्र लिखा कि या तो माफ़ी मांगो या दिल्ली या देहरादून में मुझ से शास्त्रार्थ करो. सिद्धान्ती जी मेरठ में आर्य समाज मन्दिर में शास्त्रार्थ के लिए तैयार हो गए. दोनों में शास्त्रार्थ चला. स्वामी जी पिछड़ गए तो झुंझलाकर कहा कि "ये वेद तो आर्य समाजियों के हैं वास्तविक वेद तो लुप्त हो गए हैं.' इन वचनों से स्वामीजी की छवि जनता में कम हो गई. शास्त्रार्थ के बीच में स्वामी जी की ही जाति के ब्रह्मण आचार्य अलगुराय बीच में बातें करते रहे. सिद्धान्ती जी ने जब कहा कि बीच में बातें मत करो तो उन आचार्य ने कहा कि "आप बकता है, बकते रहो." वह फ़िर बोलने लगे और सिद्धान्ती जी ने फ़िर टोका तो अलगुराय ने फ़िर वही दोहराया. ब्रह्मण आचार्य की बातें असह्य होने पर सिद्धान्ती जी से नहीं रहा गया और कहा "श्रीमान जी मैं केवल पंडित ही नहीं हूँ, रोहतक का फोजी जाट भी हूँ. कुछ और भी कर दूँगा." यह बातें सुन कर शास्त्रार्थ के प्रधान ने कहा कि शास्त्रीजी या तो चुप बैठो या पीछे जा कर बैठो. तभी कुछ लोगों ने सिद्धान्ती जी से कहा कि स्वामी जी पूज्य सन्यासी हैं उनका बहुत अपमान हो गया है. आप यह कह दें कि मेरा समाधान हो गया है. तब सिद्धान्ती जी ने कहा कि मेरा समाधान तो नहीं हुआ, वैसे ही क्यों कह दूँ. कल वेद के सम्बन्ध में बोला था आज 'सन्मार्ग दर्शन' की अशुद्धियाँ प्रस्तुत करूँगा. अगले दिन स्वामी जी ने यह कह कर पिंड छुडाया कि मैं इन गलतियों को ठीक करा दूंगा.
श्री रघुवीर सिंह शास्त्री, सिद्धान्ती जी के परम शिष्य थे. अपने बाद उन्हें उसी आर्य महाविद्यालय के प्रधानाचार्य बनादिया. आर्य समाज की शिक्षा-दीक्षा से उत्तर प्रदेश तथा हरियाणा में बड़ी जाग्रति आ गई थी. लेकिन राजस्थान में शेखावाटी, जयपुर और बीकानेर में राजपूतों का शासन था और वहां किसानों और खासकर जाटों पर बहुत अत्याचार किए जा रहे थे. जाट किसान बहुत पिछड़ गए थे. ५०० गांवों में कोई भी प्राथमिक स्कूल भी नहीं था. उस समय जाटों पर बड़ा अत्याचार किया जा रहा था. उसी समय १९३४ में सीकर में जाट प्रजापति महा यज्ञ किया गया. राजपूत तथा ब्रह्मण संयुक्त रूप से इस यज्ञ को असफल करना चाहते थे. राजपूत इसे अपने शान के खिलाफ मानते थे तथा ब्रह्मण अपने पांडित्य के खिलाफ. उस समय सिद्धान्ती जी के शिष्य रघुवीर सिंह को शास्त्रार्थ में उतारा गया जब वे महज १६ वर्ष के थे. एक दिन रात्रि सभा में ब्राहमणों ने चिढ़कर सिद्धान्ती जी से कहा कि क्या आपके शिष्य रघुवीर सिंह जो विषय हम देंगे उस पर बोलेंगे. तब सिद्धान्ती जी ने ब्राहमणों की चुनोती को स्वीकार किया. उन ब्राहमणों ने रघुवीर सिंह को 'आत्मा' विषय दिया. इस पर रघुवीर सिंह ने बिना रुके एक प्रवाह से ऐसा भाषण दिया कि ब्राहमणों ने दांतों तले उंगली दबा ली तथा बहुत लज्जित हुए.
सन १९४२ में आर्य महाविद्यालय को अपनी बुद्धि व विवेक से बंद होने से बचाया. समाज विरोधी लोगों ने उन पर दवाब बनाया कि छात्रों को युद्ध में धकेल दो. इस पर उन्होंने ना कर दिया. भारत के स्वतंत्रता संग्राम में बहुत सूझबूझ से भाग लिया. आजादी के पश्चात सन १९५० में सोरम मार्ग मुजफ्फरनगर में उनको सर्वखाप पंचायत का प्रधान बनाया गया. वे गुरुकुल कांगडी के कुलपति भी रहे. इन्होने पंजाब हिन्दी रक्षा आन्दोलन में भी बढ़ चढ़ कर भाग लिया. इस आन्दोलन में ७०-८० सत्यग्राहियों ने गिरफ्तारी दी थी. जब सरकार से समझौता हुआ तो आप सबसे बाद में जेल से बाहर आए. जब प्रो. शेर सिंह ने हरियाणा लोकसमिति बनाई तो आप उसकी टिकट पर झज्जर से सन १९६२ में लोक सभा सदस्य बने. आपने हरियाणा प्रान्त बनाने में भी बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.
२७ अगस्त १९७९ को पंडित जगदेव सिंह सिद्धान्ती का शरीर पंचतत्व में लीन हो गया. इनका अन्तिम संस्कार वैदिक रीति से दिल्ली में निगम बोध घाट पर किया गया. अपने कृतियाँ तथा समाज सेवा के कारण वे अमर रहेंगे.
जाट जन सेवक
ठाकुर देशराज[4] ने लिखा है ....पंडित जगदेव जी शास्त्री- [पृ.323]: जाट जगत का परिचय आप से सीकर महायज्ञ के समय से आरंभ हुआ। सीकर का जाट महायज्ञ आपके किरठल महाविद्यालय के ब्रह्मचारियों द्वारा संपन्न हुआ था। आप उनके आचार्य और यज्ञ के ब्रह्मा थे। पंडित रघुवीर सिंह जी शास्त्री उस समय ब्रह्मचारियों के अगवा मात्र थे।
पंडित जगदेव जी का जन्म संवत 1957 विजयदशमी के दिन रोहतक जिले के बदहाणा गांव में चौधरी प्रीतराम जी अहलावत जाट सरदार के यहां हुआ था। आपने आरंभ में उर्दू की शिक्षा पाई। उसके बाद सन 1914 ई. में फौज में चले गये।
फौज से लौटने के बाद गुरुकुल मटिंडू से आपने शास्त्री और सिद्धांति की परीक्षाएं दी। उनमें पास होने के बाद आर्य पाठशाला किरठल के अध्यापक बने। और उसे अपने परिश्रम से महाविद्यालय के उच्च पद पर पहुंचाया। आज वहां ब्रहमचारी शास्त्री और आचार्य तक की परीक्षाएं देते हैं।
जाट जाति के आर्यसमाजी विद्वानों में जगदेव जी का स्थान काफी ऊंचा है। वह परिश्रमी और सत्यनिष्ठ आदमी हैं।
[पृ.324]: उन्होंने अनेकों जाट बालकों को ऊंचा उठाया है। इस समय आप सम्राट द्वारा आर्य जगत की भारी सेवा कर रहे हैं।
सीकर यज्ञ में योगदान
ठाकुर देशराज[5] ने लिखा है .... जनवरी 1934 के बसंती दिनों में सीकर के आर्य महाविद्यालय के कर्मचारियों द्वारा सीकर यज्ञ आरंभ हुआ। उन दिनों यज्ञ भूमि एक ऋषि उपनिवेश सी जांच रही थी। बाहर से आने वालों के 100 तम्बू और और छोलदारियाँ थी और स्थानीय लोगों के लिए फूस की झोपड़ियों की छावनी बनाई।
20000 आदमी के बैठने के लिए पंडाल बनाया गया था जिसकी रचना चातुरी में श्रेय नेतराम सिंह जी गोरीर और चौधरी पन्ने सिंह जी बाटड़, बाटड़ नाऊ को है। यज्ञ स्थल 100 गज चौड़ी और 100 गज लंबी भूमि में बनाया गया था जिसमें चार यज्ञ कुंड चारों कोनों पर और एक बीच में था। चारों यज्ञ कुंड ऊपर यज्ञोपवीत संस्कार होते थे और बीच के यज्ञ कुंड पर कभी भी न बंद होने वाला यज्ञ।
[पृ.227]: 25 मन घी और 100 मन हवन सामग्री खर्च हुई। 3000 स्त्री पुरुष यज्ञोपवीत धारण किए हुये थे।
यज्ञ पति थे आंगई के राजर्षि कुंवर हुकुम सिंह जी और यज्ञमान थे कूदन के देवतास्वरुप चौधरी कालूराम जी। ब्रह्मा का कृत्य आर्य जाति के प्रसिद्ध पंडित श्री जगदेव जी शास्त्री द्वारा संपन्न हुआ था। यह यज्ञ 10 दिन तक चला था। एक लाख के करीब आदमी इसमें शामिल हुए थे। इस बीसवीं सदी में जाटों का यह सर्वोपरि यज्ञ था। यज्ञ का कार्य 7 दिन में समाप्त हो जाने वाला था। परंतु सीकर के राव राजा साहब द्वारा जिद करने पर कि जाट लोग हाथी पर बैठकर मेरे घर में होकर जलूस नहीं निकाल सकेंगे।
3 दिन तक लाखों लोगों को और ठहरना पड़ा। जुलूस के लिए हाथी जयपुर से राजपूत सरदार का लाया गया था, वह भी षड्यंत्र करके सीकर के अधिकारियों ने रातों-रात भगवा दिया। किंतु लाखों आदमियों की धार्मिक जिद के सामने राव राजा साहब को झुकना पड़ा और दशवें दिन हाथी पर जुलूस वैदिक धर्म की जय, जाट जाति की जय के तुमुलघोषों के साथ निकाला गया और इस प्रकार सीकर का यह महान धार्मिक जाट उत्सव समाप्त हो गया।
इस महोत्सव में भारतवर्ष के हर कोने से जाट सरदार आए थे। इन्हीं दिनों राजस्थान जाटसभा का द्वितीय अधिवेशन कुंवर रतन सिंह जी के सभापतित्व में पूर्ण उत्साह के साथ संपन्न हुआ।
इस अवसर पर जाट साहित्य भी काफी प्रकाशित हुआ। चौधरी रीछपाल सिंह जी धमेड़ा का लिखा जाट महायज्ञ का इतिहास, चौधरी लादुराम रानीगंज का लिखा नुक्ताभोज,
[पृ 228]: पंडित दत्तूराम जी की लिखी गौरव भजनावली और ठाकुर देशराज जी का लिखा पुनीत ग्रंथ जाट इतिहास भी इस समय प्रकाशित हुए।
External Links
- Bio Profile of Jagdev Sidhanti at Lok Sabha website
- Election Petition in Supreme court - Pratap Singh Daulta vs. Jagdev Sidhanti
सन्दर्भ
- भलेराम बेनीवाल (2008): जाट योद्धाओं का इतिहास (Jāt Yodhāon kā Itihāsa), p. 614-617
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