Shurparaka

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Shurparaka (शुर्पारक) was an ancient kingdom founded by Parashurama near the Western sea, close to the mouth of the river Narmada in India. It is mentioned in the epic Mahabharata. Parashurama gave this kingdom to Kashyapa.

Variants of name

Identification

History

Aparanta is regarded as an umbrella term for Shurparakadesha for Konkan, to include in the North and Gomantaka in the south with the river Kundalika to serving as a dividing line in between the two.[2]

Sura = Assyria

K.P. Jayaswal [3] writes....The Varavatyas were Yadavas as mentioned at p. 604 (verse 324) Yātavā Vārayatyāś (cha) . The Varavatyas seem to be noted in the Paikuli Sassanian inscription in Asuristan in the form of Boraspacin whose chief was Mitra al-Sen in 294 A.D. (JJBORS., XIX) . It is noted in the AMMK that from the sea the Valabhi (Kathiawar) people used to cross over to Sura, which refers to their trade ventures to and regular commerce with Assyria. The port Śūrapāraka (Sopārā) acquired that name for being the port of embarkation for Assyria.

In Mahabharata

Shurparaka (शूर्पारक) is mentioned in Mahabharata (II.28.43), (III.83.40), (III.86.9), (XIII.46.47)


Sabha Parva, Mahabharata/Book II Chapter 28 mentions Sahadeva's victory march towards south: kings and tribes defeated. Shurparaka (शूर्पारक) is mentioned in Mahabharata (II.28.43).[4]....Having brought king Nila of Avanti under his sway the victorious son of Madri, viz. Sahadeva, then went further towards the south. He then brought the king of Tripura under his sway. And next turning his forces against the Paurava kingdom, he vanquished and reduced to subjection the monarch thereof. And the prince, after this, with great efforts brought Akriti, the king of Saurashtra and preceptor of the Kausikas under his sway. The virtuous prince, while staying in the kingdom of Saurashtra sent an ambassador unto king Rukmin the son of Bhishmaka within the territories of Bhojakata. And the monarch cheerfully accepted the sway of the son of Pandu. And the master of battle then, having exacted jewels and wealth from king Rukmin, marched further to the south. And, endued with great energy and great strength, the hero then, reduced to subjection, Shurparaka and Talakata, and the Dandakas also.


Vana Parva, Mahabharata/Book III Chapter 83 mentions Surparaka (शूर्पारक) in verse Mahabharata (III.83.40) [5].... One should proceed to Shurparaka, where Jamadagni’s son had formerly dwelt. Bathing in that tirtha of Rama, one acquireth the merit of giving away gold in abundance.


Vana Parva, Mahabharata/Book III Chapter 86 mentions in verse Mahabharata (III.86.9).[6] that In the tirtha called Shurparaka are two sacrificial platforms of the illustrious Jamadagni, called Pashana and Punaschandra.


Yudhishthira plunged his body in all the holy spots, and then came again to Shurparaka (3:118). Bathing in the Narmada as also in the tirtha known by the name of Shurparaka, observing a fast for a full fortnight, one is sure to become in one’s next birth a prince of the royal line. (13:25).

The Ocean created for Jamadagni’s son (Bhargava Rama), a region called Shurparaka (12:49). Having made the earth destitute of Kshatriyas for thrice seven times, the puissant Bhargava, at the completion of a horse-sacrifice, gave away the earth as sacrificial present unto Kashyapa. Kashyapa having accepted the earth in gift, and made a present of it unto the Brahmanas, entered the great forest.

This gave rise to the myth of Parashurama, reclaiming the land from the sea. The people of Shurparaka brought this myth to Kerala where this myth still exists.


Anusasana Parva/Book XIII Chapter 26 mentions the sacred waters on the earth. Shurparaka (शूर्पारक) is mentioned in Mahabharata (XIII.46.47).[7].....Bathing in the Narmada as also in the tirtha known by the name of Shurparaka, observing a fast for a full fortnight, one is sure to become in one's next birth a prince of the royal line.

In Mahavamsa

Suppäraka is mentioned in Mahavansa/Chapter 6.

The Mahavamsa, the Sri Lankan Pali chronicle, mentions that the legendary founder of the Sinhalese, prince Vijaya, left his homeland of Lala and landed first in Suppäraka (the Pali form of the Sanskrit Shurparaka) identified with modern Sopara, in Palgar district north of Mumbai.

शूर्पारक = सोपारा

शूर्पारक अथवा सोपारा (AS, p.906): विजयेन्द्र कुमार माथुर [8] ने लेख किया है ...महाभारत, शांतिपर्व 49,66.67 के अनुसार शूर्पारक देश को महर्षि परशुराम के लिए सागर ने रिक्त कर दिया था- 'ततः शूर्पारकं देशं सागरस्तस्य निर्ममे, सहसा जामदग्नस्य सोऽपरान्तमहीतलम्।' शूर्पारक वर्तमान 'सोपारा' (बेसीन तालुका, ज़िला थाना, मुंबई) का तटवर्ती प्रदेश है और महाभारत के उर्पयुक्त अवतरण से जान पड़ता है कि पहले यह भूभाग सागर के अंतर्गत था। यह क्षेत्र अपरांत का ही एक भाग था। शूर्पारक पर पाण्डव सहदेव की विजय का वर्णन भी

[p.907]: महाभारत, सभापर्व 31,65 में है- 'ततः स रत्नमादाय पुनः प्रायाद युधाम्पतिः ततः शूर्पारकं चैव तालाकटमथापि च।' महाभारत, वनपर्व 188,8 में पांडवों की शूर्पारक यात्रा का उल्लेख है।

मौर्य सम्राट अशोक के 14 शिलालेखों में से केवल 8वां यहां एक शिला पर अंकित है, जिससे मौर्य काल में इस स्थान की महत्ता सूचित होती है। उस समय यह अपरान्त का समुद्रपत्तन (बंदरगाह) रहा होगा। शूर्पारक (सुप्पारक) जातक में भरुकच्छ के व्यापारियों की दूर-दूर के विचित्र समुद्रों की यात्रा करने का रोमांचकारी वर्णन है। (अग्निमाली, नलमाली) इस जातक से सूचित होता है कि शूर्पारक 'भृगुकच्छ प्रदेश' का बंदरगाह था। इस जातक में भरुकच्छ के राजपूत्र का नाम 'सुप्पारक कुमार' कहा गया है। 'बुद्धचरित' 21, 22 में भी बुद्ध का शूर्पारक जाना वर्णित है।

अग्निमाली

विजयेन्द्र कुमार माथुर[9] ने लेख किया है ...अग्निमाली (AS, p.10) शूर्पारक-जातक में वर्णित एक सागर-'यथा अग्गीव सुरियो व समुद्दोपति दिस्सति, सुप्पारकं तं पुच्छाम समुद्दो कतमो अयंति। भरुकच्छापयातानं वणि-जानं धनेसिनं, नावाय विप्पनट्ठाय अग्गिमालीति वुच्चतीति।'

अर्थात् जिस तरह अग्नि या सूर्य दिखाई देता है वैसा ही यह समुद्र है; शूर्पारक, हम तुमसे पूछते हैं कि यह कौन-सा समुद्र है? भरुकच्छ से जहाज़ पर निकले हुए धनार्थी वणिकों को विदित हो कि यह अग्निमाली नामक समुद्र है।

इस प्रसंग के वर्णन से यह भी सूचित होता है कि उस समय के नाविकों के विचार में इस समुद्र से स्वर्ण की उत्पत्ति होती थी। अग्निमाली समुद्र कौन-सा था, यह कहना कठिन है। डॉ. मोतीचंद के अनुसार यह लालसागर या रेड सी का ही नाम है किंतु वास्तव में शूर्पारक-जातक का यह प्रसंग जिसमें क्षुरमाली, नलमाली, दधिमाली आदि अन्य समुद्रों के इसी प्रकार के वर्णन हैं, बहुत कुछ काल्पनिक तथा पूर्व-बुद्धकाल में देश-देशांतर घूमने वाले नाविकों की रोमांस-कथाओं पर आधारित प्रतीत होता है। भरुकच्छ या भडौंच से चल कर नाविक लोग चार मास तक समुद्र पर घूमने के पश्चात् इन समुद्रों तक पहुंचे थे। (दे. क्षुरमाली, बड़वामुख, दधिमाली, नलमाली, कुशमाल)

बड़वामुख

विजयेन्द्र कुमार माथुर[10] ने लेख किया है .....बड़वामुख (AS, p.602): सुप्पारकजातक में वर्णित एक समुद्र-- 'तत्य उदकं कड़ि्ढत्वा कड़ि्ढत्वा सब्बतो भागेन उग्गच्छति। तस्मिं सब्बतो भागेन उग्गतोदकं सब्बतो भागेन [p.603]: छिन्नतट महा सोब्भोविय पंचायति, ऊमिया उग्गताय एकतो पपात सदिसं होति भय-जननो सद्दो उपजति सोतानि भिन्दन्तो विय हृदयं फालेन्तो विय'-- अर्थात वहाँ जल निकलकर सब ओर से ऊपर आ रहा था. सब और से जल ऊपर उठने के कारण किनारे की ओर बड़ा गर्त सा दिखाई देता था. लहरें उठकर एक प्रपात की तरह जान पड़ती थी. बड़ा भय उत्पन्न करने वाला शब्द वहां हो रहा था जो हृदय को वेध सा रहा था. यह समुद्र भरूकच्छ से जहाज पर व्यापार के लिए निकले हुए धनार्थी वणिकों को अपनी लंबी यात्रा के दौरान में मिला था. (देखें नलमाली, अग्निमाली, दधिमाली,क्षुरमाली). शूर्पारकजातक में वर्णित समुद्रों का वृतांत अधिकांश में प्राचीन काल के देश-विदेश में घूमने वाले नाविकों की कल्पना रंजीत कथाओं पर आधारित है. डॉक्टर मोतीचंद के मत में यह समुद्र भूमध्य सागर का कोई भाग हो सकता है. (देखें सार्थवाह,पृ.59)

References

  1. The Ancient Geography of India, p.494
  2. Kamat Satoskar, B.D. (1982). Gomantak:Prakruti ani Sanskruti(Marathi). Pune: Shubhada publications. p. 39.
  3. An Imperial History Of India/Provincial History of Lāḍa Sea-coast (Kachh-Sindh),p.25
  4. ततः शूर्पारकं चैव गणं चॊपकृताह्वयम, वशे चक्रे महातेजा दण्डकांश च महाबलः (II.28.43)
  5. ततः शूर्पारकं गच्छेज जामदग्न्य निषेवितम, राम तीर्थे नरः सनात्वा विन्द्याद बहुसुवर्णकम (III.83.40)
  6. वेदी शूर्पारके तात जमदग्नेर महात्मनः रम्या पाषाण तीर्था च पुरश्चन्द्रा च भारत (III.86.9)
  7. नर्मदायाम उपस्पृश्य तथा सूर्पारकॊदके, एकपक्षं निराहारॊ राजपुत्रॊ विधीयते (XIII.46.47)
  8. Aitihasik Sthanavali by Vijayendra Kumar Mathur, p.906-907
  9. Aitihasik Sthanavali by Vijayendra Kumar Mathur, p.10
  10. Aitihasik Sthanavali by Vijayendra Kumar Mathur, p.602