Jat History Thakur Deshraj/Chapter VII: Difference between revisions
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Revision as of 03:30, 13 June 2012
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सप्तम अध्याय : पंजाब और जाट |
भारतवर्ष में जाटों की सबसे अधिक आबादी का पता पंजाब और सिंध में लगता है , क्योंकि यही इनका प्राचीन जन्म-स्थान है। जाटों का जब से भी कोई इतिहास मिलता है, तब से ही उनका अस्तित्व पंजाब में पाया जाता है। इन दोनों प्रान्तों में जाटों की अधिक आबादी होने का यही कारण है कि अति प्राचीन काल से यहां के राज्यवंश गणतन्त्री थे। यदि हम भारतीय राजनैतिक इतिहास का सिंहावलोकन करते हैं तो हमें इन प्रान्तों में एकतन्त्री विचार के समुदायों का अभाव ही दिखाई देता है। रामायण-काल में दशरथ, सहस्त्राबाहु, रावण और महाभारत-काल में अर्जुन, दुर्योधन, कंस, जरासंघ, शल्य आदि ऐसे राजाओं के नाम मिलते हैं जिन्हें एकतन्त्री राजा के नाम से पुकारा जाता है। किन्तु इनमें किसी का भी अधिपत्य पंजाब और सिंध की पूरी आबादी पर नहीं मिलता। द्रुपद और शल्य एवं वृहद्रथ के अधिकार में भी कोई भू-भाग था तो वह अधिक विस्तृत नहीं था। सिंध के सम्बन्ध में यहां तक बात गढ़ी गई कि सिंध के लोगों ने राज्य-संचालन कार्य में अयोग्य होने के कारण दुर्योधन की बहन को शासन करने के लिए बुलाया था।
महाभारत में उत्तर-भारत के जिन गणराज्यों का वर्णन आता है, उनमें से अधिकांश पंजाब स्थित थे। पंजाब में यदि एकतन्त्र शासन का प्रचार हुआ भी तो बहुत देर से और बहुत थोड़े दिन के लिए हुआ और वह एकतन्त्र ऐसे लोगों का था जिनमें से अधिकांश पंजाब की प्राचीन आर्य जाति के न थे। यह पिछले अध्यायों में लिखा जा चुका है कि जाट उन समुदायों का फेडरेशन (संघ) है जोकि गणवादी अथवा ज्ञात-वादी थे। अतः जिन-जिन गणों का पंजाब में अस्तित्व था उनमें से जो-जो जट (संघ) में शामिल हुए और जिनका वर्णन हमें मालूम हो सका है, उनके नाम तथा परिचय भी पीछे दिए जा चुके हैं। यहां वह थोड़ा-सा इतिहास देते हैं जोकि जाटों में एकतन्त्री भाव आने के पश्चात् घटित हुआ।
सिकन्दर के आक्रमण के समय पंजाब में पौरुष, आम्भी, हस्ती नाम के केवल तीन राजा पाए जाते हैं। पौरुष को यदि राजा मान लिया जाय (क्योंकि कुछ लोग पौरस जाति बतलाते हैं) तो चार राजाओं का नाम हमारे सामने आता है। अभी तक निश्चय नहीं हो सका कि इन राजाओं के वंशज पंजाब की जाट, गूजर, खत्री और राजपूत आदि क्षत्रिय जातियों में से किस में शामिल हो गए। फिर भी यह खयाल किया जा सकता है कि अभिपार वाले और तक्षशिला वाले लोग जाट थे। क्योंकि तक्षक गोत्र का जाटों में होना इस बात का प्रबल उदाहरण है। कर्नल टाड ने भी तक्षकों को जाटों से सम्बन्धित किया है। राजा सस्ति निश्चय ही जाट था जो कि सिंध नदी के किनारे पर एक छोटे से भू-भाग का शासक था। सिंध के एक जाट गोत्र की जो वंशावली हमें जाटों से प्राप्त हुई है, उसमें राजा हस्ती का नाम आता है। वह सिंध जाटों का सरदार था।
पौरुष का शासन झेलम और चिनाव के बीच के प्रदेश पर था। हमें महमूद गजनवी के वर्णन में यह उल्लेख मिलता है कि जाट लोगों ने झेलम नदी में चार हजार नावों से गजनवी से युद्ध किया था। पौरुष और सिकन्दर की लड़ाई में भी नदी में युद्ध करने का वर्णन मिलता है। आरम्भ से जिस ढंग से सिकन्दर और पौरुष के योद्धा लड़े थे, वह बिलकुल चन्द्रवंशी क्षत्रियों के तरीके को याद दिलाता है, जिन तरीकों का अनुसरण जाटों ने एक लम्बे समय तक किया है। आज भी झेलम और चिनाब के बीच सब से अधिक आबादी जाटों की ही है, चाहे उनका एक बड़ा भाग अपने को ‘जाट मुसलमान’ कहता हो। महमूद के युद्ध से पहले तो यहां जाटों की बहुत ही घनी आबादी थी।
पौरुष की सेना में हाथियों के सिवाय हम रथों का एक बड़ा भाग देखते हैं। हेरोडोटस ने जेहुन नदी के किनारे के जाटों को रथों से युद्ध करने वाला बतलाया है जैसा कि हम पिछले पृष्ठों में लिख चुके हैं। दारा की संरक्षता में भी सिकन्दर से रथों द्वारा युद्ध किया था।
सिख इतिहास में जब हम हजारा के जाट नरेश राजा शेरसिंह का हाल पढ़ते हैं तो अनायास पौरुष याद आ जाता है।3 जिसने अंग्रेज जनरल की दाहिनी ओर खड़े होकर के अंग्रेज अफसर के यह कहने पर कि यदि आपको छोड़ दिया जाए? तो यह स्पष्ट कहा था कि “मैं अपनी मातृ-भूमि की रक्षा के लिए भी वही करुंगा जो अब किया है?” राजा शेरसिंह पौरुष का दूसरा रूप दिखाई देता है।
ऋग्वेद में हमें पौरव नाम की जाति का वर्णन भी मिलता है और वह जाति आगे चल करके हमें गण के रूप में दिखलाई देती है।
जिस स्थान पद युद्ध हुआ था, सिकन्दर ने अपनी विजय के उपलक्ष में ‘निकय’ नाम का एक नगर बसाया था। जो कि ‘नकाई’ नाम से मशहूर हुआ। सिक्खों की बारह मिसलों में से एक मिसल का नाम नकई मिसल है जो कि वहां के नकई जाटों के गांव के नाम से मशहूर हुई। निकय गांव के लोग अवश्य ही उस जाति के होंगे, जिसमें स्वयं पौरुष था। क्योंकि 200 गांवों के जिस प्रदेश को सिकन्दर ने सन्धि होने के बाद पौरुष को सौंपा था, यह गांव भी उन्हीं में शामिल है।
उपर्युक्त कारण और दलीलें यह साबित करती हैं कि पौरुष निश्चय ही ज्ञात (जाट) थे।
शासन व्यवस्था, युद्ध के ढंग, स्वभाव, तत्कालिक वर्णन पौरुष को जाट के सिवाय अन्य कुछ मान लेने में कठिनाई पेश करते हैं, क्योंकि पंजाब में न तो मौजूदा राजपूत पौरुष को अपना पुरखा स्वीकार करते हैं और न खत्री लोग। राजपूतों की वंशावली रखने वाले भाटों ने भी उनको राजपूत नहीं लिखा है और जाटों में ऐसे गोत्र पाए जाते हैं जिन्हें पौरव और पौरुष का रूपान्तर कह सकते हैं जैसे, पौरिया, पुवार, पोरोथ, पोरुवार आदि आदि।
महाराज कनिष्क
इनके समय के विषय में निश्चित रूप से तय नहीं हो पाया है। डाक्टर भंडारकर इनका समय 203 ई. मानते हैं। लेकिन मि. विंसेंट स्मिथ का अनुमान है कि ईसवी सन् 226 में भारत के कुषाण वंश का राज्य समाप्त हो गया था। कुषाण राजाओं के सिक्कों से मालूम होता है कि कुषाण वंश के राजाओं का पांचवीं सदी तक काबुल और उसके आस-पास राज्य रहा था। कुछ लोग सन् 61 ई. में कनिष्क का होना मानते हैं। हमारे विचार से ईसा की प्रथम शताब्दी के अन्तिम भाग में कुषाणों का राज्योदय होना जंचता है, क्योंकि भविष्य पुराण के अनुसार ईसवी सन् के आरम्भ में राजा शालिवाहन का अवस्थित होना पाया जाता है। यदि कनिष्क और शालिवाहन समकालीन होते तो भट्टी ग्रंथों में उसका वर्णन अवश्य आता। शालिवाहन के बाद पंजाब में एक प्रकार भट्टी लोगों का राज्य उठ सा ही जाता है। इसलिये ही भट्टी ग्रंथों में कनिष्क व कुषाणों के सम्बन्ध में वर्णन नहीं मिलता।
कुषाण लोग कौन थे, इसके सम्बन्ध में भी दो भिन्न मत हैं। ‘राजतरंगिणी’ का लेखक उन्हें तुरुष्क और आधुनिक विद्धान यूहूची व यूचियों की एक शाखा मानते हैं। चीनी इतिहासकारों ने एक तीसरी राय इनके सम्बन्ध में यह दी है कि कुषाण लोग ‘हिंगनु’ लोग हैं। चाहे वे ‘तुरुष्क’ हों, चाहे ’यूची’ और ‘हिंगनु’ पर हर हालत में वे जाट थे। ‘पृथ्वीराज विजय’ के आधार पर बदायूं जिला निवासी ठा. रामलालजी हाला ने भी अब के कई वर्ष पूर्व यही बात लिखी है। तुरुष्क, यूची और हिंगनु लोगों के लिए अनभिज्ञ इतिहासकारों ने विदेशी और आयों से इतर जन मानने की भी अक्षय भूल की है। पुराणों की संकुचित मनोवृत्ति के आधार पर ही कुछ देशीय और विदेशीय विद्धानों ने तुरुष्कों और यूचियों को विदेशी मानने की स्थापना की है। तुरुष्क चन्द्रकुल के संभूत राजा तुर्वुस की सन्तान हैं, जिन्हें कि पुराणकारों ने केवल इस अफराज से कि वहां तक ब्राह्मण नहीं पहुंचते थे, उनको पतित क्षत्री बताने की धृष्टता की है। कनिघंम के शब्दों में भारत के जाट, यूरोप के जेटी और गाथ और चीन के यूची व ज्यूटी एक ही हैं। तुर्क या तुरुष्क जैसा कि लोग समझते हैं, मुसलमान यवन अथवा अनार्य नहीं हैं। तुर्वुस के प्रदेश का नाम तुरुष्क अथवा तुर्किस्तान है और किसी भी वंश अथवा जाति का आदमी जो कि तुर्किस्तान में रहता हो, तुर्क कहलायेगा। उसी तुर्किस्तान में जेहून, आक्सस, हिंगनू, जगजार्टिस नाम की उपजाऊ भूमि में भारतीय क्षत्रिय जाति रहती थी, वह जूटी, जोयी और यहूची कहलाती थी और हिंगु अथवा हिंगनू कुषाण आदि उसकी शाखायें थीं। यह तो हम पिछले अध्यायों में बता ही चुके हैं कि प्रजातन्त्रीय राजवंशों के संगठित समुदाय का नाम जाट है जिनमें कृष्ण, अर्जुन, दुर्योंधन, शुरसेन, भोज, शिव परिवारों के वंशज शामिल हैं। कुषाण वे लोग हैं जो कि पांडवों के साथ महाप्रस्थान में कृष्ण-वाशियों में से गये थे। संस्कृत के कार्ष्णेय तथा कार्षणिक से कुषाण शब्द बना, इसमें सन्देह करने की गुंजायश नहीं रह जाती। यह कुशन नहीं है, बल्कि जाटों के अन्तर्गत पाये जाने वाले ‘कुशवान’ हैं।
- “कहावत है कि जब भूल होती है और खास तौर पर पढ़े लिखों से भूल होती है तो दहाई भूली जाती है और गणित में तो भूल चाहे आरम्भ में हो चाहे मध्य में उनका अन्तिम नतीजा भी भूल ही होता है। जातियों के निर्णय में भी लगभग यही बात है। यदि किसी जाति को वैश्य करार दे दिया तो उसके पुरखे का नाम भी कुबेर ही बताना पड़ेगा, चाहे वह शिशुपाल की संतान हो और चाहे बाल्मीकि की और चाहे बेचारे कुबेर के बाप दादे भी कभी वैश्य न रहे हों। कुषाणवंशी जाट क्षत्रियों के सम्बन्ध में भी बिलकुल यही बात हुई है। जहां उनके सम्बन्ध में यह भ्रान्ति हुई कि वे विदेशी हैं, उसके साथ ही यह भी भ्रान्ति हो गई कि वे विजातीय और विधर्मी भी थे और बौद्ध धर्म को ग्रहण करके हिन्दू हो गए, और हो भी आनन-फानन में गए, और ऐसे हुए कि खास हिन्दुस्तान के हिन्दुओं को भी मात कर दिया।”
- “कितनी हास्यास्पद बात है कि जो जाति कल तक अहिन्दू है और दो ही चार वर्ष में अपने खास जाति भाई तातारियों की अपेक्षा हिन्दुओं से बिलकुल घुल मिल जाती है। शुद्धि वालों ने तो और भी रंग दे दे करके इस बात को दोहराया है। लेकिन हम कहते हैं कि कुषाण और यूची न तो विदेशी है न अहिन्दू। ये वैदिक कालीन उन क्षत्रियों की औलाद हैं जो भारत से बाहर उपनिवेश कायम करने अथवा अन्य किसी कारण से गए थे और तुर्किस्तान तो भारत से बाहर का देश भी नहीं है, जबकि वैदिक काल में आक्सन (इक्षुरसोद व इक्षुमति नदी) और काबुल (कुभा नदी) तक भारत की सीमा थी। ऋषि दयानन्द के शब्दों में त्रिविष्टप या तिब्बत, लोकमान्य तिलक के कथनानुसार मध्य-एशिया जब आर्यों का उद्गम स्थान है तो इन देशों के लोग, ईसा और मुहम्मद से भी पहले, अहिन्दू किस तरह हो गये? विदेशी इतिहासकारों के पीछे आंख मूंद कर चलने वाले देशी इतिहासकारों ने भी ऐसी ही बहकी बातों में पृष्ठ के पृष्ठ रंग डाले हैं। कनिष्क उन क्षत्रियों की औलाद में से थे, जिनको आज यहां अवतार मानकर पूजा जाता है।”
भारतवर्ष में जाट-राज्य के लिए ‘जाटशाही’ का प्रयोग किया जाता है और कुषाणवंशी राजाओं के लिए भी शाही अथवा शहन्शाही का प्रयोग किया जाता था। देवसंहिता में जाटों के लिए देवसंभूत व देवों की सन्तान कहा गया है जैसा कि हमने पिछले किन्हीं पृष्ठों में देव-संहिता के उन श्लोकों को उदधृत करके बता दिया है। कुषाणवंशी राजाओं के लेखों में इनकी उपाधि हमें देवपुत्र लिखी हुई मिलती है।
चीनी इतिहास लेखकों के आधार पर अंग्रेज लेखकों ने कुषाण राज्यवंश का इस तरह से वर्णन किया है - यूची नाम की जाति शुरू में चीन के उत्तर-पश्चिम मे रहती थी। ईसवी पू. 165 के लगभग हिंगनु नाम की जाति से उसका युद्ध हुआ। इस युद्ध में यूची लोग हार गए और पश्चिम की ओर नई भूमि की खोज में चल दिए। पहले जा करके बलख में अपनी बस्तियां आबाद कीं। यूची जाति के एक गिरोह का नाम कुषाण था। ऐसा कहा जाता है कि इनके सरदार का नाम कुजूल केडफाइसिस (कूजूल कपिशास) था।
उसने अपने प्रभावों से यूचियों की पांचों शाखाओं को एक कर दिया। तभी से कुल युची जाति कुषाण कहलाने लगी। केडफाइसिस ने पार्थिया, कन्धार, काबुल जीत कर अपने राज्य में मिला लिये। इस तरह से उसका राज्य फारस की सीमा से अफगानिस्तान तक फैल गया। इसके सिक्के काबुल की घाटी में मिलते हैं, जो कि यूनानी राजा हरमियस के सिक्कों की नकल पर बनाये गए थे। उनमें एक ओर यूनानी अक्षरों में हरमियस का नाम तथा दूसरी ओर खरोष्टी अक्षरों में ‘कुजूल कसस’ लिखा है। इससे यह सिद्ध होता है कि वह हरमियस के बाद ई. पूर्व (क25 ????? to check) के बाद हुआ। वह 80 वर्ष तक जीवित रहा। अतः मोटे तौर पर उसका राज्यकाल 50 ई. तक माना जाता है। उसके बाद उसका पुत्र भीम केडफाइसिस उसका उत्तराधिकारी हुआ, जिसे कुछ लेखकों ने केडफाइसिस द्वितीय कहा है।
केडफाइसिस द्वितीय
(भीम काषिणक अथवा भीम कपिशप त्रिदत्त) इसे चीन के साथ युद्ध करना पड़ा। इस युद्ध का कारण यह था कि इसने चीन की शहजादी से विवाह करने का प्रस्ताव भेजा था। चीनियों ने इसके दूतों का अपमान किया। इसने एक-एक करके पंजाब के कई यूनानी और शक राजाओं को जीत लिया। इसका राज्य उत्तर भारत में बनारस तक पहुंच गया था। इसके पहले के राजाओं के सिक्के चांदी, तांबे या कांसे के हैं। इसने सोने के सिक्के प्रचलित किए। इसके सिक्के में त्रिशूलधारी शिवजी की मूर्ति है जिससे पता लगता है कि पंजाब के शिवगोत्री लोगों के प्रभाव से केडफाइसिस शिव का उपासक हो गया था। पेशावर जिले के पंजतार नामक स्थान से इसका सन् 64 ईसवी का सिक्का प्राप्त हुआ है। कहा जाता है इसके समय में रोम और भारत का व्यापारिक सम्बन्ध अत्यधिक था। यहां के रेशमी वस्त्र, जवाहरात, रंग, मसाले आदि की एवज में रोम से स्वर्ण आने लग गया था। मि. स्मिथ कहते हैं कि शक सम्वत् इसी ने चलाया था।
भीम केडफाइसिस के पिता के सिक्कों पर “कुजूल कसस कुषणाय बुगस ध्रमठिदस, कुशनस, युवस कोयुल कपसस सब ध्रमठिदस (???? to check)” और इसके सिक्कों पर “महाराज रजदिरजस सर्व लोग ईश्वरस महेश्वर सहिमकपिशष त्रिदत्त” लिखा है। मोटे तौर पर इसका राज्यकाल 45 से 78 ई. तक माना जाता है। काशीप्रसादजी जायसवाल के मतानुसार मथुरा के अजायबघर में रखी हुई किसी कुषाणवंशी राजा के सिंहासन पर पैर लटकाए हुए बैठने वाले की मूर्ति इसी केडफाइसिस की है। मथुरा के अजायबघर में कनिष्क की भी एक खड़ी हुई मूर्ति है जिस पर उसका नाम खुदा हुआ है।
कनिष्क
यह कुषाणों की दूसरी शाखा के बाझेष्क नामक राजा के पुत्र थे, ऐसा अनेक इतिहासकार मानते हैं। लेकिन यह पता नहीं चलता कि भीम केडफाइसेस के हाथ से इसके हाथ में राज्य कैसे आया। डॉक्टर फ्लीट औरकेनेडो का मत है कि विक्रम सम्वत् कनिष्क ने ही चलाया और वह ईसवी 57 में गद्दी पर बैठा था। बाद में मालवा के लोगों ने इस सम्वत् को अपनाया और विक्रमी के नाम से प्रसिद्ध किया। डॉक्टर फ्लीट ने यह मत एक बौद्ध दन्तकथा के आधार पर बनाया है। उस दन्तकथा के अनुसार बुद्ध की मृत्यु के चार सौ वर्ष बाद कनिष्क राजा हुआ और उसने एक सम्वत् भी चलाया। चूंकि भगवान बुद्ध को निर्वाण हुए 400 वर्ष ईसवी सन् से पूर्व प्रथम शताब्दी में होते हैं और विक्रम सम्बत् भी ईसवी सन् से पूर्व प्रथम शताब्दी में आरम्भ होता है। इसी बात को आधार मानकर डॉक्टर फ्लीट ने विक्रम सम्वत् का प्रचारक महाराज कनिष्क को माना है। मि. कैनेडी का कहना है कि चीन यूरोप का व्यापारिक सम्बन्ध पहली शताब्दी में आरम्भ हुआ था और चीन से जाने वाला माल कनिष्क राज्य में होकर गुजरता था अर्थात् भारतीय व्यापारी चीनियों से माल खरीद करके यूरोप के व्यापारियों के हाथ बेचते थे। इसी व्यापार के लिए कनिष्क ने सोने के सिक्के ढलवाये थे और यूनानी लोगों की सुविधा के लिए उसने अपने सिक्कों पर यूनानी अक्षर अंकित करा दिए थे। इसलिये कहा जाता है कनिष्क ईसवी पूर्व पहली शताब्दी में विद्यमान था। कनिघंम साहब उसे ईसवी पश्चात् सन् 91 में विद्यमान बतलाते हैं। कुछ इतिहासकारों ने सिक्कों के आधार पर कनिष्क को रोम के सम्राट हैढ्रिममार्क्स और ओरेलस का समकालीन बताया है। हम पहले ही लिख चुके हैं कि कनिष्क का प्रामाणिक काल निर्णय अभी नहीं हो सका है। लेकिन वह ईसवी पूर्व से ईसवी पश्चात् तक भी पाया जा सकता है जब कि उसकी उम्र 150 या 175 वर्ष रही हो। अब से दो हजार वर्ष पहले कोई आदमी डेढ़ सौ दो सौ वर्ष तक जिन्दा रह सकता था तो कोई आश्चर्य की बात नहीं। गर्दभसेन के पुत्र राजा विक्रमादित्य की भी आयु ऐसी ही लम्बी बताई गई है। कुछ लोग शक सम्वत् जिसका आरम्भ सन् 78 ई. से आरम्भ होता है इसी का चलाया हुआ मानते हैं।
कनिष्क आदि राजा लोग अपने नाम के साथ ‘शाही’ या ‘शाहानु शाही’ उपाधि लगाते थे। शिलालेखों में “देव पुत्रस्य राजतिराजस्य शाहेः” इन राजाओं के नामों के साथ लिखा मिलता है। इलाहाबाद के स्तम्भ पर भी देव-पुत्र-षाही षाहानुषाही लिखा हुआ है। इस स्तंभ में, समुद्रगुप्त के साथ, षाही-वंश के राजा की संधि का उल्लेख है। शायद वह राजा इस वंश का वासुदेव रहा होगा।
कनिष्क का राज्य-विस्तार उत्तर पश्चिमी भारत में विन्ध्याचल तक था। काश्मीर और सिंध को उसने अपने प्रारम्भिक समय में ही जीत लिया था। काश्मीर में उसके बनाए हुए बहुत से बौद्ध-मन्दिर और मठ हैं। उसकी राजधानी पुरुषपुर या पेशावर थी। उद्यान, गन्धार, तक्षशिला, सीतामढ़ी यह उनके राज्य के प्रसिद्ध शहर थे। कनिष्क ने चीनी तुर्किस्तान के काशगर, यारकन्द और खुतुन नामक प्रान्तों को जीतकर अपने राज्य में मिला लिया था। चीनी यात्री सुंगयुन ने पेशावर में बने हुए इसके बौद्ध-स्तूप और मठों की बड़ी प्रशंसा की। दन्तकथाओं से ऐसा मालूम होता है कि इसने पटना पर भी अधिकार कर लिया था। मि. स्मिथ कहते हैं कि महाराष्ट्र के शासक क्षहरात, नहपान और उज्जैन के शासक क्षत्रप चष्टन भी कनिष्क के अधीनस्थ सामन्त थे। कनिष्क के जो सिक्के मिले हैं, उनमें एक तरफ राजा का चित्र होता है। दूसरी तरफ स्त्री या शिवजी अथवा अन्य देवताओं के चित्रे रहते हैं। लेखों में कनिष्क की उपाधि ‘महाराज राजाधिराज देवपुत्र कनिष्क’ मिलती है।
इसके समय में शिल्पकला की अच्छी उन्नति हुई थी। इसके समय के बने हुए स्तूप मठ मूर्तियां इसकी साक्षी हैं। इसकी सभा में अनेक विद्वानों का जमघट रहता था। आयुर्वेद का प्रसिद्ध ज्ञाता आचार्य चरक इनका राज्य-वैद्य था। नागार्जुन, अश्वघोष, वसुमित्र भी इसकी सभा में आते रहते थे।
ऐसा कहा जाता है कि कनिष्क ने बौद्ध-धर्म की दीक्षा अपने जीवन के उत्तर भाग में ली थी। बौद्ध होते हुए भी वह बौद्ध, पौराणिक यूनानी और पारसी सभी धर्मों का आदर करता था। बौद्ध लोग कनिष्क को दूसरा अशोक कहकर पुकारते थे। बौद्ध-धर्म की चौथी महासभा हुई थी। कनिष्क ने इस सभा के लिए काश्मीर की राजधानी में एक बड़ा विहार बनवाया था। इस सभा में 500 विद्वान एकत्रित हुए थे। वसुमित्र सभापति और अश्वघोष उपसभापति चुने गए थे। इन विद्वानों ने समस्त बौद्ध ग्रन्थों का सार संस्कृत भाषा के एक लक्ष श्लोकों में ‘सूत्र पिटक’ ‘विनय पिटक’ और ‘अभिधर्म पिटक’ नामक तीन महाभाष्यों में रचा। वे सब ताम्रपत्र पर नकल करके एक ऐसे स्तूप में रखे गए जो कनिष्क ने इसीलिए बनवाया था। सम्भव है अब भी वे काश्मीर राज्य में पृथ्वी के अन्दर से किसी खुदाई के समय निकल आयें।
कनिष्क सिकन्दर की भांति महत्वाकांक्षी था। जाट राजाओं में उस समय के लोगों में यह पहला व्यक्ति था, जिसने साम्राज्यवाद की ओर कदम बढ़ाया था। चीन की प्रगतियों ने इसके वंश के हृदय में एकतंत्र के भाव भर दिये थे। कनिष्क चाहता था कि ज्यादा से ज्यादा प्रदेश पर उसका राज्य हो। अन्य जातियों और देशों पर भी अधिकार जमाने की प्रवृत्ति ने उसके अन्दर से ज्ञाति राज्य की भावनाओं को नष्ट कर दिया था और यह स्वाभाविक बात है कि एक ज्ञाति (जाति) दूसरी ज्ञाति (जाति) पर राज्य करने की इच्छुक हो जाती है तो उसे अपने अस्तित्व को कायम रखने के लिए गणवादी की बजाय साम्राज्यवादी हो जाना आवश्यक होता है। कनिष्क ने अपना साम्राज्य बढाने के लिए बहुत सी लड़ाइयां लड़ीं। उसके सरदार युद्ध में उसके साथ बाहर रहते-रहते ऊब गए थे। अनुमान किया जाता है कि इसी कारण उसके सेनापतियों ने षड़यन्त्र करके उसे मार डाला। कनिष्क योद्धा था, साहसी था, इसके सिवाय वह धर्मात्मा भी था।
वासिष्क
कनिष्क के मरने के बाद शासन-सूत्र वासिष्क के हाथ आया। यह पिता की अनुपस्थिति में भी राज्य कार्य संभालता रहता था। मथुरा के पास ईसापुर में इसका एक लेख मिला था जो कि आजकल मथुरा के अजायबघर में है। यह पत्थर के एक यज्ञ-स्तम्भ पर है। उस पर विशुद्ध संस्कृत में लेख खुदा हुआ है। जिस पर इसे “महाराज राजतिराज देव पुत्रशाहि वासिष्क” लिखा हुआ है। कुछ लोगों का कहना है कि इसका राज्यकाल कनिष्क के राज्यकाल के अर्न्तगत था।
हुविष्क
वासिष्क के पश्चात्, कनिष्क का राज्य उससे छोटे पुत्र हुविष्क को मिला। इसने काश्मीर में अपने नाम से हुष्कपुर नामक नगर बसाया जो कि आज कल उस्कपुर कहलाता है। जब ह्नानचांग काश्मीर गया था, तब इसी हुष्कपुर के बिहार में ठहरा था। मथुरा में एक और भी बिहार था। उसके सिक्के कनिष्क के सिक्कों से भी अधिक संख्या में और विविध प्रकार के पाए जाते हैं। उन सिक्कों में यूनानी, ईरानी और भारतीय, तीनों प्रकार के सिक्कों के चित्र हैं। इसने 120 ई. से 140 ई. सन् तक राज्य किया । कुछ लोग कहते हैं कि इसका शासन-काल 162 ई. से 182 ई. तक था। काबुल, काश्मीर और मथुरा के प्रदेश इसके राज्य में शामिल थे। इसके सोने चांदी के सिक्के मिलते हैं। जिन पर ‘हूएरकस’ लिखा रहता है।
वासुदेव
हुविष्क की मृत्यु के बाद वासुदेव राजगद्दी पर बैठा। इसके जो लेख मिले हैं, उनमें इसकी उपाधि “महाराज रपहाधिराज देवपुत्र वासुदेव” मिलती है। इसके सिक्के सोने, चांदी और तांबे के मिले हैं। जिन पर एक तरफ इनकी मूर्ति और दूसरी तरफ शिवजी की आकृति बनी रहती है और ’बैजौडेओ’ इसका नाम लिखा रहता है। इसके समय से कुषाणों का राज्य छिन्न-भिन्न होने लग गया था। लेकिन यह नहीं कहा जा सकता कि कुषाण साम्राज्य का अन्त किस तरह हुआ। इसका राज्य काल 140 ई. से 180 ई. तक बताया जाता है। लेकिन कुछ लोग 182 ईसवी से 220 ईसवी तक भी मानते हैं। इस बात का पता नहीं चलता कि वासुदेव की मृत्यु के बाद कोई सम्राट या बड़ा राजा इनमें हुआ हो। मालूम ऐसा होता है कि कुषाण साम्राज्य का अधःपतन होते ही इनका साम्राज्य छोटे-छोटे भागों में बंट गया और कुछ काल तक कुषाण राजा काबुल और उसके आस-पास के ही शासक रह गये। क्योंकि वासुदेव के पीछे उसके उत्तराधिकारियों के भी सिक्के मिलते हैं। वे सिक्के धीरे-धीरे ईरानी ढंग के हो गये हैं।
श्रीयुत आर. डी. बेनरर्जी वासुदेव के पश्चात्, कनिष्क द्वितीय, वासुदेव द्वितीय और वासुदेव का क्रमशः राजा होना अनुमान करते हैं। इस राज्यवंश के पश्चात् तृतीय शताब्दी में जो राज्यवंश हुए वे बहुत ही छोटे-छोटे थे। कुषाणों के सिक्कों से यह पता चलता है कि ईसा की पांचवी शताब्दी तक इनका राज्य काबुल और उसके आस-पास के प्रदेश पर रहा, जिसको अन्त में हूणों ने इनसे छीन लिया। फिर भी कुछ छोटे-छोटे स्थान बच रहे थे, उनको ईसा की सातवीं सदी में ईरान-विजयी अरबों ने समाप्त कर दिया।
शालेन्द्र
भारत एवं पंजाब से कुषाणों का राज्य अस्त हो जाने के बाद भी अनेक स्थानों में जाटों के छोटे-छोटे राज्य उपस्थित थे। दो शताब्दी तक उनके किसी प्रबल राजा का अभी तक नाम नहीं मालूम हो सका है, लेकिन पांचवी शताब्दी में जाटों में एक ऐसा महापुरुष पैदा होता है जो कि उनके नाम को फिर चमका देता है। उसका राज्य पंजाब से लेकर मालवा और राजपूताने तक फैला हुआ था, क्योंकि कर्नल टाड को उनके सम्बन्ध की लिपि कोटा राज्य में प्राप्त हुई थी। तब अवश्य ही उनके राज्य की सीमा कोटा तक रही होगी, अथवा कोटा उनकी सीमा के अन्तर्गत रहा होगा। टाड साहब को यह लिपि कोटा राज्य में कनवास नामक गांव में सन् 1820 ई. में मिली थी। इस प्राप्त शिलालेख को हम यहां ‘टाड राजस्थान’ से ज्यों का त्यों उदधृत करते हैं - “जटा आपकी रक्षक हों। जो जटा जीवन समुद्र पार की नौका स्वरूप हैं, जो कुछ एक श्वेत वर्ण और कुछ एक लाल वर्ण युक्त हैं, उन जटाओं का विभव न देखा जाता है। जिन जटाओं में कुछ भीषण शब्दकारी सर्प विराजमान है, वह जटा कैसी प्रकाशमान हैं, जिन जटाओं के मूल से प्रबल तरंगे निकल रही हैं, उन जटाओं के साथ क्या किसी की तुलना की जा सकती है। उन जटाओं द्वारा आप रक्षित हों।
- जिनके वीरत्व-बाहुबल से शालपुर देश रक्षित होता था, मैं अब उन राजा जिट का वर्णन करूंगा। प्रबल अग्नि-शिखा जिस प्रकार अपने शत्रु को भस्मीभूत करके फेंक देती है, राजा जिट का प्रताप भी उसी प्रकार प्रबल था।
- महाबली जिट शालेन्द्र (2) परम रूपवान् पुरुष थे, और वह केवल अपने बाहुबल से वीर पुरुषों के आग्रणी हुए थे। चन्द्र जिस प्रकार पृथ्वी को प्रकाशमान करते हैं, उसी प्रकार वह भी अपने शासित देश, शालपुरी को देदीप्यमान करते थे। सम्पूर्ण संसार जिट राजा की जय घोषणा कर रहा है। वह मनुष्य लोक में चन्द्रमा स्वरूप्प दुर्द्धर्ष, साहसी, महामहा बलिष्ठ लोंगों में पंक के बीच कमल के समान बैठ कर स्वजातीय गौरव गरिमा प्रकाश करते थे। उनकी अमित बलशाली दोनों भुजाओं के मनोहर मणि-माणिक्य के आभूषणों का प्रकाश उनकी मूर्ति को उज्जवल कर देता था। असंख्य सेना के अधिनायक थे और उनका धनरत्न असीम था। वह उदार चित्त और समुद्र के समान गम्भी थे। जो राजवंश महाबली वंशों में विद्यमान है, जिस वंश के राजा लोग विश्वासघातकों के परम शत्रु थे, जिनके चरणों पर पृथ्वी ने अपना सम्पूर्ण धन-धान्य अर्पण किया था और जिस वंश के नरपतियों ने शत्रुओं के सब देश अपने अधिकार में कर लिए थे, यह वही शूरवंश घर हैं। (3) होम यज्ञादि के द्वारा यह नरेश्वर पवित्र हुए थे। इनका राज्य परम रमणीय तक्ष का दुर्ग भी अजेय है। इसके धनुष की टंकार से सब ही महा भयभीत होते थे। यह क्रुद्ध होने पर महासमराग्नि प्रज्वलित कर देते थे, किन्तु मोती जिस प्रकार गले की शोभा बढ़ाता है, अनुगत लोगों के प्रति, इनका आचरण भी वैसा ही था। लाल तरंगों से समर क्षेत्र रंगने पर भी यह संग्राम से नहीं हटते थे। प्रचण्ड मार्तण्ड की प्रखर किरणों से पद्मिनी जिस प्रकार मस्तक नवाती है, उसी प्रकार इनके शत्रु दल इनके चरणों पर नवते थे और भीरू-कायर लोग युद्ध छोड़कर भागते थे।
- इन राजा शालेन्द्र से दोगला की उत्पत्ति हुई। आज इतने समय के पीछे भी उनका यश फैला हुआ है। उनसे शाम्बुक ने जन्म लिया, शाम्बुक के औरस से दोगाली ने जन्म लिया। उन्होंने यदुवंश की दो कन्याओं से विवाह किया था। (4) उनमें से एक के गर्भ से प्रफुल्लित कमल के समान वीर नरेन्द्र नामक पुत्र ने जन्म लिया था। आमों के कुंज अर्थात् जिन आमों के वृक्षों की मिली हुई मंजरी में सहस्त्रों मधुमक्षिका विराजमान हैं, जिन वृक्षों के नीचे थके हुए यात्री आकर विश्राम करते हैं, उन आमों के वृक्षों की कुंज में यह मन्दिर स्थापित हुआ। जब तक समुद्र की तरंगें बहेंगी और जब तक चन्द्र सूर्य आ पर्वत माला विराजमान रहेंगी, तब तक मानो इस मन्दिर और मन्दिर-प्रतिष्ठा का यश फैला रहेगा। 597 संवत् में तावेली नदी के तट पर मालवा के शेष सीमान्त में वीरचन्द्र के पुत्र शालिचन्द्र के द्वारा (5) मन्दिर प्रतिष्ठित हुआ।
- जो पुरुष इन वचनों को स्मृति पट पर अंकित करेंगे, उनके सब पाप दूर हो जाएंगे।
- द्वार शिव के पुत्र खोदक शिवनारायण द्वारा खोदित और बुतेना ने यह कविता निर्माण की है।”
उपर्युक्त शिलालेख के पढ़ने से निम्न बात सहज ही में समझ में आ जाती है-
(1) यह शालपुरी के शासक थे, जोकि आज श्यालकोट कहलाता है। यह राज्य उन्होंने अपनी भुजाओं के बल से प्राप्त किया था। क्योंकि शिलालेख में साफ लिखा हुआ है कि “यह केवल अपने बाहुबल से वीर पुरुषों में अग्रणी हुए।” इस वाक्य से यह भी सिद्ध होता है कि वह किसी प्रजातन्त्रवादी समूह के सरदार से एक तन्त्री शासक बन गए और उनका प्रताप यहां तक बढ़ा कि “राजा लोगों के सिर उनके चरण अंगूठे की पूजा करते थे।”
(2) उनके पास असंख्य सेना थी और साथ ही उनके कोष मणि-माणिक्यों से भरे पड़े थे।
(3) पंजाब के जाटों में जहां कि चन्द्रवंशी जाट अधिक हैं, ये अपने कुल की इसलिए अधिक प्रशंसा किया करते थे, क्योंकि ये सूर्यवंशी थे।
(4) यह भी मालूम होता है कि ये बुद्ध धर्म को छोड़कर पौराणिक धर्म में दीक्षित होम यज्ञ आदि करने लग गये थे।
(5) तक्षशिला का किला भी उनके ही अधिकार में था।
(6) इन महाराज ने किसी ऐसी जाति की स्त्री से शादी की थी जो कि इनकी जाति से इतर थी। क्योंकि इनके एक दोगला की उत्पत्ति होने का वर्णन भी शिला-लेख में है।
(7) इनके प्रपौत्र ने यादववंश की कन्याओं के साथ विवाह किया था। इससे ऐसा मालूम होता है कि यह तक्षक दल के सूर्यवंशी जाट थे। अथवा पंजाब में यादवों का कोई ऐसा समूह रहा होगा कि अहीरों में यादव हैं। इस तरह से जाट और अहीरों के विवाह की प्रणाली का शिलालेखक ने उल्लेख किया है।
(8) इस शिलालेख से निम्न वंशावली बनती है - 1. महाराज शालेन्द्र, 2. दोगला, 3, शाम्बुक, 4. देगाली, 5. वीर नरेन्द्र।
(9) सम्बत् 597 में ताबेली नदी के किनारे पर, जिन वीरचन्द्र के पुत्र शालीचन्द्र ने इनकी स्मृति के लिए मन्दिर बनवाया था तथा शिलालेख खुदवाया था, वे अवश्य ही शलेन्द्र जित के निकट सम्बन्धी रहे होंगे, और बहुत सम्भव है कि वीर नरेन्द्र का पुत्र शालीचन्द्र हुआ हो और संबत् 597 में शालीवाहनपुर को छोड़कर मालवा में आ गये हों। उनके शालीवाहनपुर को छोड़ने का कारण हूणों का आक्रमण हो सकता है। डॉक्टर हार्नले और कीलहार्न ने लिखा है कि ईसवी सन् 547 में कहरूर में यशोधर्मा ने मिहिर-कुल हूण को हराया था। मिहिर कुल तूरमान हूण का पुत्र था। तूरमाण के साथी हूणों के द्वारा इनसे शालीवाहन पुर छीन लिया गया हो, यह बहुत सम्भव है। अगर ऊपर के 597 को ईसवी सन बनाया जाए तो 597 - 57 = 540 होता है। तूरमाण के पंजाब पर हमलों का लगभग यही समय रहा होगा।
लेकिन सी. बी. वैद्य ने अलबरुनी के लेखों का प्रमाण देकर साबित किया है कि कहरूर का युद्ध 544 ईसवी से बहुत पहले हुआ था। यदि यह कथन ठीक है तो वह बुद्ध शालिचन्द्र के पिता वीरचन्द्र अथवा प्रपिता वीरनरेन्द्र के समय में हुआ होगा। यह तो बिल्कुल ही ठीक बात है कि हूणों ने महाराज शालिचन्द्र के वंशजों को शालिवाहनपुर अथवा श्यालकोट से निकाल दिया था, क्योंकि हम हूणों के इतिहास में श्यालकोट हूणों की राजधानी पाते हैं।
जिस समय पहला हमला शालेन्द्र के राज्य पर हूणों का हुआ होगा, उस समय अवश्य ही उनके वंशजों ने महाराज यशोधर्मा की, जो कि उनके सजातीय और मालवा के प्रसिद्ध राजा थे, मदद ली थी और पहली बार में इस सम्मिलित जाट शक्ति ने हूणों को हराकर पंजाब से निकाल दिया था। जैसा कि चन्द्र के “अजयत् जर्तों हुणान्” अर्थात् जाटों ने हूणों को जीता, वाक्य से सिद्ध होता है।
इस शिलालेख से हम जिस ऐतिहासिक परिणाम पर पहुंचते हैं, वह यह है - पांचवी शताब्दी के आरम्भ में पंजाब में जाट नरेश महाराजा शालेन्द्र राज्य करते थे। जिस प्रकार सिंह स्वयं अभिषिक्त होता है, उसी भांति महाराज ने अपने बाहुबल के प्रताप से बड़ा राज्य प्राप्त करके महती प्रभुता प्राप्त की थी। उनके दरबार में दुर्द्धर्ष साहसी और महा बलिष्ठ लोगों का जमघट रहता था जिनमें वह अपने जातीय गौरव की भी प्रशंसा किया करते थे। उनके अधीनस्थ कई छोटे-छोटे और भी राजागण थे। वह समृद्धिशाली राजा थे। कोष उनका परिपूर्ण था, और बहुत बड़ी सेना उनके पास थी। इतना बड़ा वैभव रखते हुए भी गंभीर और उदार चित्त थे। बौद्ध धर्म को छोड़कर नवीन हिन्दू धर्म को उन्होंने ग्रहण कर लिया था। होम, यज्ञ आदि के बड़े प्रेमी थे, और वे उन जाटों में से थे जो अपने को काश्यप-वंशी (सूर्यवंशी) कहते हैं। उन्होंने ऐसे कुल की स्त्री से भी शादी की थी जिससे उत्पन्न होने वाली संतान को स्वजातीय लोगों ने दोगला नाम से पुकारा।
इनके वंशज दोगाली ने यदुवंशी नाम के अहीर या राजपूतों की लड़कियों से विवाह सम्बन्ध किए और यदि वे यदुवंशी जाट ही थे तो यह कहा जा सकता है कि उन्होंने शालेन्द्र की दोगला सन्तान को धर्मशास्त्र के अनुसार विवाह सम्बन्ध करके जाति से दूर नहीं होने दिया। कुछ भी हो, दोगाली ने यदुवंश की कन्याओं के साथ शादी की थी जिनमें से एक के गर्भ से वीर नरेन्द्र ने जन्म लिया था।
हूणों के आक्रमण के बाद, पंजाब से महाराजा शालेन्द्रजित के वंशज का राज्य नष्ट हो गया और उन्होंने मालवों के पश्चिमी प्रान्त के तावेली नदी के किनारे आकर कोई छोटा सा राज्य स्थापित किया और संबत् 597 या सन् 540 ई. में उन्हीं के वंशज वीरचन्द्र के पुत्र शालिचन्द्र ने आमों के घने बाग में, श्रेष्ठ स्थान पर, मंदिर बनवा करके महाराणा शालेन्द्रजीत की स्मृति स्थापित की। अब उस स्थान पर कनवास नाम का छोटा सा ग्राम है और यह कोटा राज्य में है।
शालीवाहन
जैसलमेर के भट्टी ग्रन्थों में इसे यदुवंशी राजा गज का पुत्र माना गया है और इसका आगमन भारत में दूसरी शताब्दी के पश्चात् बताया है। श्यालकोट जिसे महाभारत का शॉकल मानते हैं, भट्टी-ग्रन्थों में इसी का बसाया हुआ बताया गया है। श्यालकोट इसका बसाया हुआ नहीं, तो इतना अवश्य मान लेना पड़ेगा कि इसने उसका पुनरुद्धार किया होगा। पिछले पृष्ठों में हमने जिन महाराज शालेन्द्रजित का जिक्र किया है, वह भी इसी स्यालकोट में रहते थे। लेकिन शालिवाहन और शालेन्द्रजित में दो शताब्दियों का अन्तर है। शालेन्द्रजित के समय से पहले ही शालिवाहन की संतान के लोग स्यालकोट को छोड़ करके लाहौर और हिसार की ओर चले जाते हैं। जैसलमेर के भाटी लोग तथा नाभा, पटियाला, फरीदकोट आदि के जाट राजे इस शालिवाहन को भी अपना पूर्वज बतलाते हैं। कुछ लोग इन राजा शालिवाहन को शक साबित करते हैं, कुछ लोग इसे पैटन का अधीश्वर, अर्थात् सात किरण सात वाहनों में से।3 यह भी कहा जाता है कि इन शक लोगों को कालि-कार्य जैन भारत में लाए थे। जैन प्रभसूरी ने अपने ‘कल्प-प्रदीप’ नामक ग्रन्थ में लिखा है - पैठन के रहने वाले एक विदेशी ब्राह्मण की विधवा बहन से शातबहन (शालिवाहन) उत्पन्न हुआ। उसने उज्जैन के राजा विक्रम को परास्त किया और पैठन का राजा बनकर ताप्ती तक कछ देश अपने अधिकार में किया।
जैसलमेर के भाटियों की बात सही है अथवा स्मिथ और जैन प्रभसूरि (जो 1300 ई. के करीब हुआ था) में से किसकी बात सही है, इस बात पर तो हमें बहस नहीं बढ़ानी, किन्तु इतना जरूर कह देना है कि भाट लोगों के वर्णन और वंशावली निष्पक्ष, युक्ति-संगत तथा पूर्ण प्रामाणिक नहीं हैं।
भाटी जिसके गोत्र के लोग राजपूत और जाट दोनों में पाये जाते हैं, शालिवाहन के वंश का बताया जाता है। भाटी के जन्म की कथा भी बड़े विचित्र ढंग से वर्णन की जाती है। देवी के नाम पर भट्टी में सर चढ़ा देने के कारण इसका नाम भट्टी हुआ ऐसी दन्तकथा है। जाटों में जो भाटी लोग है, उनके सम्बन्ध में भी इन भाट ग्रन्थों में ऐसी ही ऊंट-पटांग बाते लिखी पड़ी हैं। पटियाला, नाभा, जींद, फरीदकोट आदि के भट्टी जाटों के सम्बन्ध में भाट-ग्रन्थों में लिखा है कि रावखेवा नाम के एक राजपूत ने जाटनी से शादी कर ली इसलिए रावखेवा की संतान के लोग जाट कहलाने लगे। खेद तो इस बात का है कि पटियाला के बुद्धिमान राजा ने भी भाट-ग्रन्थों की इस बात को सही मान लिया कि वे दोगला हैं और इसीलिए फिर से उन्होंने उस दोगला होने वाल बात की पुनरावृत्ति की। हमने भाट लोगों से करीब 500 जाट-गोत्रों का वर्णन पूछा, सब में यह बात पाई कि अमुक राजपूत ने अमुक जाटनी से शादी कर ली, इसलिए अमुक गोत्र बन गया। ये बातें बिल्कुल निराधार और बेहूदी हैं। इन बातों पर पूरा प्रकाश हम आगे डालेंगे।
भाट-ग्रन्थों में लिखा है कि भट्टीराव के नाम से सारे यादव भट्टी कहलाने लग गए लेकिन हम देखते हैं कि भट्टीराव कोई प्रसिद्ध ऐतिहासिक पुरुष नहीं। भाटों के कथनानुसार भी हमें उसका कोई ऐसा बड़ा काम दिखलाई नहीं देता, जिसके कारण यादवों को भट्टी कहलाने में गौरव जान पड़ा हो। वास्तव में बात यह है कि गजनी से लौटने वाले यादवों का समूह पंजाब की ससबसब्ज (????) जमीन से प्रताड़ित होकर, जंगल प्रदेश की निकटवर्ती भटिड (गैर उपजाऊ, जलहीन) भूमि में बस गए, जिससे वह उस देश के नाम से भाटी कहलाने लगे। जहां तक भी हमें जान पड़ा है कि भाटी नाम का कोई व्यक्ति नहीं हुआ और कुछ हुआ भी तो वह इतना प्रसिद्ध नहीं हुआ कि जिसके नाम पर पूरी कौम का नाम बदल जाता। भाटों की वंशावली में जो नाम दिए हैं, उनमें से अधिकांश असभ्य लोगों के जैसे गढ़े हुए जान पड़ते हैं। जैसे लद्धरचन्द, सधरचन्द, गूमनचन्द, अतरचन्द, दोषपाल, गेंदपाल, बुदरमल, गोधल प्रकाश साथपतप्रोकाश, साहवप्रकाश, साहरोब, आयतबल, लोधरपाल, मथुरापाल, जोगेर, ख्यूपाल आदि आदि इनमें अतरचंद और साहबचंद आधी हिन्दी और आधी उर्दू वाले नाम क्या आज से 1800 वर्ष पहले जब कि उर्दू का जन्म भी नहीं हुआ था प्रचलित थे, ऐसा कोई भी बुद्धिमान मानने को तैयार नहीं होता। ये सारे नाम हमने शालिवाहन के पहले के उद्धृत किए हैं। उस समय भारतवर्ष व अफगानिस्तान में बौद्ध-धर्म फैला हुआ था। इन नामों में बौद्ध-धर्म की सभ्यता का प्रकाश है और संस्कृत साहित्य का पुट। जैसा कि लद्धर-चन्द और सद्धर-चन्द से प्रकट होता है। श्रीकृष्ण से लेकर के भाटी तक एक सौ उनसठ पीढ़ियां भाटीग्रन्थों में वर्णित हैं। यह कभी नहीं माना जा सकता कि यह बिल्कुल सही है। भरतपुर के महाराज कृष्णसिंह को भगवान कृष्ण एक सौ दो की पीढ़ी पर उनकी वंशावली वाले बतलाते हैं, और पंजाब का मौजूदा राजा ओकगंवर दो सौ से ऊपर की पीढ़ी पर पहुंचता है। यह इतना बड़ा अन्तर ही सिद्ध कर देता है कि अनेक नाम कल्पित हैं।
हमारा यह मत निश्चय ही सही है कि गैर-उपजाऊ प्रदेश में बसने के कारण, गजनी से आया हुआ यादव-दल, भट्टी नाम को प्राप्त हुआ। गजनी में रहते हुए उधर कई विजातीय राजाओं से रक्त सम्बन्ध कर लेने पर जब यादवों की कोई जाति नहीं बदलती, तब भारत में किस कारण से रावखेवा को जाटनी के साथ शादी कर लेने के कारण जाट करार दे दिया जाता है। वास्तव में रावखेवा के साथी आरम्भ से ही जाट थे। किन्तु यों कहना चाहिए कि राजा शालिवाहन स्वयं जाट थे। उनके वंशजों में से जिन लोगों ने बौद्ध-धर्म को छोड़कर नवीन प्रचलित पौराणिक धर्म को स्वीकार कर लिया अर्थात् बाप-दादे के समय से चली आई हुई रिवाज, विधवा विवाह, जातीय-समानता की रिवाज को छोड़ दिया और बलिदान-प्रथा तथा बहुदेव पूजा को स्वीकार कर लिया, कहीं राजपूत श्रेणी में गिने जाने लगे और जो अपनी पुरानी रस्मों पर डटे रहे, वे जाट भट्टी हुए। बस यही जाट भट्टी और राजपूत-भट्टी का अलग-अलग होने का कारण है।
खेद तो इस बात का है कि पटियाला तथा फरीदकोट के मुस्लिम इतिहास लेखकों ने तथा किसी-किसी अंग्रेज लेखक ने भी जैसलमेर के भाटों के ग्रन्थों में लिखी हुई बेबुनियाद बातों को अपने इतिहास में स्थान देने की भूल की है।
ऊपर का दिया हुआ निर्णय, समझदार लेखकों और पाठकों के वास्ते सत्य की खोज करने के लिए, बहुत कुछ काम दे सकेगा और जो इतिहास अन्धविश्वास की भित्ति पर अब तक भाटियों का तैयार किया हुआ है, वह भी अवैज्ञानिक और मानने योग्य सामग्री के आधार पर नहीं है, इसी उद्देश्य से हमने विषयान्तर करके भी इतना प्रकाश डाला है।
जयपाल, आनन्दपाल
ग्यारहवीं सदी में लाहौर, भटिंडा पर महाराज जयपाल राज्य करते थे। इनको कुछ लेखकों ने ब्राह्मण बतलाया है और कुछ ने कायस्थ। कुछेक लोग उन्हें राजपूत भी समझने लगे हैं। न वह ब्राह्मण और कायस्थ थे और न वह राजपूत, वह जाट थे। काबुल की तरफ उन्हें हमलों की इच्छा होना तथा काबुल पर जाकर चढ़ाई करना ये बातें ऐसी हैं जो उनके ब्राह्मण होने के सिद्धान्त को काट देती हैं। क्योंकि पौराणिक धर्म के अनुसार विदेशयात्रा और खास तौर से मुसलमानों के देश में जाना पाप है। कायस्थों की हुकूमत पंजाब में कभी हुई हो इसके तनिक भी प्रमाण नहीं मिलते। राजपूतों का प्रवाह दक्षिण से उत्तर की ओर है। एक चौहान खानदान को छोड़ करके पंजाब की तरफ दसवीं सदी से पहले उनका कोई भी खानदान जिसका कि राज्य इतने बड़े प्रदेश पर हो सके, पंजाब में दिखाई नहीं देता। राजपूतों ने जो 36 राजवंशों की वंशावली ग्यारहवीं सदी में तैयार करवाई थी, उसमें उल्लिखित 36सों राजवंशों में से किसी का भी सम्बन्ध जयपाल से नहीं बताया गया है।
लाहौर के आस-पास के कुछ जाट समूह ऐसे हैं जो अपने को गंधार, काबुल, गजनी और हिरात से आया हुआ बतलाते हैं। सर हेनरी एम. इलियट के. सी. बी. ने भी अपनी ‘डिस्ट्रीब्यूशन ऑफ दी रेसेज ऑफ दी नार्थ वेस्टर्न प्रॉविन्सेज ऑफ इण्डिया’ नामक पुस्तक में इसी बात का जिक्र किया है। आरम्भिक मुसलिम आक्रमणों के समय काबुल और गंधार से आये हुए इन जाटों की प्रवृत्ति फिर से उन प्रदेशों को अपने अधिकार में कर लेने की बहुत समय तक बनी रही। उसी प्रवृत्ति का यह फल था कि महाराज जयपाल ने काबुल और गजनी पर चढ़ाई की।
दिल्ली के शासक अनंगपाल और राजपाल थे जिनसे कि पृथ्वीराज चौहान के हाथ दिल्ली का राज्य आया था। जयपाल के पोते का नाम भी राजपाल था। कुछ इतिहास लेखक तो यहां तक गड़बड़ कर गए हैं कि इन्हीं लोगों को लाहौर भटिंडा के आनन्दपाल और राजपाल मानकर काबुल विजेता लिख दिया है। यही कारण है कि भटिंडे के इन जाट नरेशों को कुछ लोग भ्रम से राजपूत समझने की भूल कर गए हैं, हालांकि उन्हें इस सम्बन्ध में पूरा सन्देह रहा है।
राजपाल के लिए भिन्न-भिन्न रायें होने के कारण सचाई की तह तक पहुचने के बाद भी मि. स्मिथ को उन्हें जाट लिखने में शायद जाट शब्द का प्रयोग करना पड़ा, जैसा कि उन्होंने लिखा है-
- In the later part of tenth century the Raja of Bathindah was Jaipal, probably a Jat or Jaat.
अर्थात् - दसवीं शताब्दी के पिछले भागों में भटिंडा का राजा जयपाल था जो कि शायद एक जट या जाट था। लेकिन मि. स्मिथ इस राज्य के सम्बन्ध में हमारे उस कथन का समर्थन भी करते हैं कि - उन उच्च राजवंशों में से, जिनका उल्लेख राजपूतों के भाटों ने उनकी वंशावलियों में किया है, वे दसवीं सदी तक पंजाब में कभी इतने बलवान नहीं हुए। जैसा कि हमने कहा है कि उन दिनों चौहानों का ही एक खानदान था, जो उत्तरी-भारत में कुछ महत्व रखता था। चौहानों के साथी परिहार, पंवार, सोलंकी भी राजपूताना, गुजरात और मध्य मालवा में कुछ अस्तित्व रखते थे। किन्तु पंजाब की ओर इनकी न कोई विशेषता पाई जाती है और न इनके इतिहास में ऐसा वर्णन आता है कि इनके किसी वंशज ने पंजाब में जा करके कोई राज्य स्थापित किया हो। इसी बात को भटिंडे के राजा के सम्बन्ध में मि. स्मिथ ने इस तरह लिखा है-
- “Raja Jaipal of Bathindah. The rule of the Parihars had never extended across the Satlej, and the history of the Punjab between the seventh and tenth centuries is extremely obscure. At some time not recorded a powerful kingdom had been formed which extended from the mountains beyond the Indus eastward as far as the Hakra or lost river, so that it comprised a large part of the Punjab as well as probably northern Sind. The capital was (Bhatanda) Bathendah, the Tabarhind of Muhammadan histories, now in the Patiala state, and for many centuries as important fortress and the military road connecting Multan with India proper through Delhi. At that time Delhi, if in existence, was a place of little consideration. In the later part of tenth century the Raja of Bhatindah was Jaipal, probably a Jat or Jaat.”
- अर्थात् - परिहारों का राज्य सतलुज से उस पार कभी नहीं बढ़ा। पंजाब का सातवीं और दसवीं सदियों के दरम्यान का इतिहास बिल्कुल अन्धकारमय है। किसी समय (जो लिखा नहीं गया है) एक शक्तिशाली राज्य बन गया था, जो कि पहाड़ों से इण्डस नदी के उस पार हकारा या खोई हुई नदी के पूर्व की ओर तक फैला हुआ था, जिसमें पंजाब का बड़ा भाग और शायद सिन्ध शामिल थे, जिसकी राजधानी बथिण्डा (भटिंडा) थी मुसलमान इतिहासों का तवरहिन्द है और अब पटियाला रियासत में है। यह बहुत शताब्दियों तक एक नामी किला था, जो फौजी सड़क पर मुल्तान और हिन्दुस्तान खास को देहली से जोड़ता था। उस समय यदि दिल्ली थी तो मामूली जगह थी। दसवीं शताब्दी के पिछले भाग में बथिण्डा (भटिंडा) का राजा जयपाल था जो शायद एक जट या जाट था।
कई शताब्दियों के पीछे लिखे जाने वाले इतिहासों में भ्रम और गलतियां हो जाना स्वभाविक है और उस समय इतिहास लिखने वाले की सूझ और दृष्टि अपने समय के उन्नत जातियों ही ओर से अधिक रहती है। जनरल कनिंघम ने ऐसी ही एक गलती का निर्देश अपने सिख इतिहास में की पाद-टिप्पणी में किया है। कर्नल टाड ने उमर-कोट के राजपरिवार को प्रमार या शक्ति-वंश-संभूत लिखा था, अर्थात् राजपूत स्त्री के लिए जनरल कनिंघम ने कहा है कि - इस राज परिवार को हुमायूं की जीवनी लिखने वाले ने प्रमार के राजा और उनके अनुचरों का जाट नाम से परिचय दिया है।4
हुमायूं की जीवनी लिखने वाले को, जो कर्नल टाड से कई शताब्दी पहले हुआ है, अमरकोट के राजा की जाति के सम्बन्ध में जितना अधिक सही पता हो सकता है, उतना टाड साहब को नहीं हो सकता। लेकिन जिस समय कर्नल टाड इतिहास लिख रहे थे, उस समय उनकी निगाह राजपूतों पर ही जाकर ठहर सकती थी क्योंकि उस समय जाटों की अपेक्षा, राजपूत अधिक उन्नत थे और भारतीय जाट उन्हें किसान दृष्टिगोचर होते थे। यही बात जयपाल के सम्बन्ध में कही जा सकती है। जैसलमेर के इतिहास में एक बात और देखते हैं कि जैसल जो कि भाटी राजपूत था, जयपाल के विरुद्ध महमूद-मजनबी के साथ मेल कर लेता है और भटिंडा के आसपास के जाट जयपाल के लड़के आनन्दपाल के साथ हजारों की तादाद में सिर्फ उनकी मान-रक्षा के लिए इकट्ठे हो जाते हैं और स्त्रियां अपने जेवर उतार करके युद्ध के खरचे के लिए दे डालती हैं। फिर कैसे माना जा सकता है कि वह जाट के सिवा कुछ और था? यही क्यों, मुल्तान के आसपास और झेलम के तटवर्ती जाट भी जब यह सुनते हैं कि महमूद आनन्दपाल का सर्वनाश करके लौट रहा है, तब वह उसके ऊपर बाज की तरह टूट पड़ते हैं। वे उसके प्राण ले लेना चाहते थे। यदि वह मैदान में अकड़ के साथ डट जाता तो यह निश्चय था कि वह यहां से जिन्दा बच करके नहीं जाता।
अब हम जयपाल तथा उसके वंशजों के इतिहास पर थोड़ा-सा प्रकाश डालते हैं। जिस समय सुबुक्तगीन गुलाम की सूरत से निकल करके गजनी का शासक हुआ था और वह उत्तरोत्तर अपने राज्य को बढ़ा रहा था, उस समय महाराज जयपाल ने उसके देश पर चढ़ाई की। उनका राज्य सिंन्ध के प्रदेश तक फैल चुका था और वह अपने बुजुर्गों के राज्य गजनी और काबुल, कन्धार पर भी अधिकार जमाने के इच्छुक थे। इसीलिए उन्होंने सुबुक्तगीन के ऊपर चढ़ाई कर दी। इस चढ़ाई में सुबुक्तगीन को बड़ी हानि उठानी पड़ी और उसने महाराज को कुछ दे लेकर के विदा कर दिया। कुछ ही वर्षो के बाद उन्हें सुबुक्तगीन पर फिर चढ़ाई करनी पड़ी। इस बार सुबुक्तगीन सुलह के बहाने से लड़ाई को टालता रहा। इतने में शीतकाल आ गया और भारी बर्फ पड़ने के कारण उनकी फौज को बड़ी हानि उठानी पड़ी। हजारों मनुष्य ठिठुर कर मर गए। यह दुर्भाग्य की बात थी कि उस समय अत्यधिक पाला पड़ा। अब स्वयं महाराज को सुबुक्तगीन और उसके लड़के महमूद से सुलह का प्रस्ताव करना पड़ा और हरजाने में कुछ देने का वायदा भी करना पड़ा।
भारत में आने के बाद, ब्राह्मण मंत्रियों की राय से, महाराज जयपाल ने अपनी प्रतिज्ञा को पूरा नहीं किया। जब महमूद गजनी का मालिक हुआ तो उसने अपने पिता का बदला लेने के लिए तथा जयपाल की प्रतिज्ञा-भंग का स्मरण करके दस हजार सवार लेकर 391 हिजरी में, जयपाल के ऊपर चढ़ाई कर दी। चूंकि इधर कोई ऐसी भारी तैयारी न थी, इसलिए जयपाल की हार हो जाना स्वाभाविक था। महमूद लूट-मार करके भारत से लौट गया। दूसरी बार लूट के लालच से और जयपाल के राज्य को अपने राज्य में मिलाने के लिए फिर से भारत पर चढ़ाई की। इस बार महाराज जयपाल ने खूब डटकर सामना किया। महमूद भाग जाने ही वाला था कि एक राजकुमार महमूद से जाकर के मिल गया और यही नहीं, किन्तु मुसलमान भी हो गया। उसके मुसलमान होने का वर्णन इस प्रकार है - एक अत्यन्त सुन्दरी मुस्लिम बाला, जिसे पहली बार देखकर वह उस पर मोहित हो चुका था, के लोभ से वह मुसलमान हो गया और उसने जयपाल की हार के तमाम तरीके महमूद को बता दिए। सम्भव है यह राजकुमार अभिषार का युवराज सुखपाल रहा होगा। ‘गजनवी जहाद’ में मौलाना हसन निजामी लिखता है कि - कुछ समय के बाद यह फिर मुसलमान से हिन्दू हो गया। हिन्दू होने के बाद उसने महमूद के सूबेदारों को हिन्दुस्तान से मार भगाया। जयपाल की हार का कारण वह मुसलमान होने वाला राजकुमार ही था। चाहे वह सुखपाल रहा हो अथवा कोई और। महमूद इस लड़ाई को जीत अवश्य गया, किन्तु उसे तुरन्त ही हिन्दुस्तान से लौट जाना पड़ा। इस लड़ाई की हार से महाराज जयपाल को इतना बड़ा धक्का लगा कि उनका कुछ ही दिनों में प्राणन्त हो गया।
जयपाल के पश्चात्, उनके बड़े पुत्र आनन्दपाल राज्यधिकारी हुए। 396 हिजरी में आनन्दपाल को भी महमूद से युद्ध करना पड़ा। भाटना नामक स्थान में विजयराव नाम का एक बड़ा वीर राजा राज्य करता था, जो कि जयपाल के सम्बन्धियों में से था। उसने सरहद पर जो मुसलमान हाकिम रहते थे, उनको मार भगाया था। महमूद इसी बात का बदला लेने के लिए उस पर चढ़के आया। उसकी बहादुरी और युद्ध के सम्बन्ध में ‘गजनवी जहाद’ में हसन निजामी को विवश होकर लिखना पड़ा है कि - “राजा अपनी फौज और हाथियों की अधिकता के कारण बहुत अभिमान करता था। वह फौज लेकर मुकाबले के लिए निकला। दोनों फौजों में तीन दिन तक अग्नि वर्षा होती रही। विजयराव की फौज ऐसी वीरता और साहस से लड़ी कि इस्लामियों के छक्के छूट गए।” इस लड़ाई में सुल्तान महमूद को अपनी भुजाओं के बल का विश्वास छोड़कर दरगाह में खुदा और रसूल के आगे घुटने टेकने पड़े। बेचारे की डीढ़ा पर मिन्नत के समय टप-टप आंसू गिरते थे। गजनी उसे बहुत दूर दिखलाई देता था।
विजयराव युद्ध करता हुआ वीर गति को प्राप्त हुआ। आनन्दपाल ने विजयराव के युद्ध में मारे जाने वाली घटना को सुना तो उसने यह निश्चय कर लिया कि अब की बार महमूद भारत पर चढ़कर के आए, तो उससे अवश्य बदला लूंगा। यही कारण था कि जब 396 हिजरी में महमूद मुल्तान के हाकिम अबुल फतह पर चढ़कर आया तो आनन्दपाल ने अबुलफतह को मदद दी किन्तु अबुलफतह महमूद के साथ मिल गया। फिर भी आनन्दपाल ने महाराज का सामना किया। महमूद भी चाहता था कि अब की बार आनन्दपाल के कुल राज्य पर अधिकार कर लूं, किन्तु हिरात में बगावत हो जाने के कारण उसे लौट जाना पड़ा।
399 हिजरी में महमूद ने आनन्दपाल के राज्य को नष्ट करने के लिए भारत पर फिर से चढ़ाई की। मुसलमानी लेखकों ने इस लड़ाई को बड़ा तूल दिया है और एक ही बार में महमूद को सिकन्दर से भी बढ़कर विजेता ठहरा दिया है। मुसलमान लेखक लिखते हैं कि - इस समय आनन्दपाल की सहायता के लिए उज्जैन, ग्वालियर, कालिंजर, कन्नौज, देहली और अजमेर के तमाम राजा अपनी-अपनी फौजें लेकर आए थे। विश्व विजयी सिकन्दर की सेना की अकेले पॉरुष से लड़ने के बाद इतनी हिम्मत न रही थी कि वह कोई और दसरी लड़ाई लड़ सके, और महमूद जिसे कि विजयराव के कारण ही दरगाह की शरण लेनी पड़ी थी, इतने राजाओं पर एक साथ विजयी हो गया। जरा बुद्धि रखने वाला लेखक इस बात को सही नहीं मान सकता है। अजमेर में उस समय चौहानों का राज्य था। यदि वह अकेले भी आनन्दपाल के साथ होते तो यह कभी नहीं हो सकता कि आनन्दपाल हार जाता। आनन्दपाल के साथ जो कुछ भी फौज थी, वह उसके नव सिखुए प्रजाजनों की थी। खेद है कि कुछ हिन्दुस्तानी लेखकों ने भी मुसलमान लेखकों की इस डींग को सही मान लिया है। यह लड़ाई 40 रोज तक होती रही। अन्तिम दिन जयपाल के वीर सैनिक मुसलमानी फौज में घुस पड़े और 3-4 हजार मुसलमानों को आंख झपकते तलवारों और बर्छों की नौक पर रख लिया। महमूद के प्राण संकट में थे, उसे अल्लाह और रसूल एक साथ याद आ रहे थे। वह चाहता था कि आज लड़ाई मुल्तवी हो जाए कि अचानक आनन्दपाल का हाथी आतिशबाजी से डरकर भाग खड़ा हुआ। महमूद की यह ऐसी विजय थी जो उसे दैवयोग से मिल गई। 400 हिजरी के करीब जब आनन्दपाल मर गया तो उसके बेटे राजपाल का पुत्र जयपाल भटिंडा का मालिक हुआ। राजपाल आनन्दपाल के आगे ही मर चुका था। महमूद ने 404 हिजरी में, जबकि जयपाल भटिंडा में मौजूद था, उसकी राजधानी को लूट लिया। जब जयपाल को इसकी खबर लगी तो उसने महमूद को किला नूहकोट में जा घेरा, किन्तु महमूद ने उसकी फौज पहुंचने से पहले ही गजनी को कूच कर दिया था। इससे अगला आक्रमण महमूद का ग्वालियर का हमला हुआ, तो जयपाल ने ग्वालियर वालों की मदद की। इसे हम द्वितीय जयपाल कह सकते हैं। यह जब तक जिन्दा रहा मुसलमानों का सामना करता रहा।
राजा सरकटसिंह
पंजाबी दन्तकथाओं के आधार पर ‘सेरे पंजाब’ के लेखक ने इस राजा का थोड़ा-सा वर्णन किया है। शेखपुरा इलाके में एक मौजा ‘अम्बीका पत्ता’ नाम से प्रसिद्ध है। किसी समय में वहां एक राजा राज्य करता था। वह चौसर का बड़ा प्रसिद्ध खिलाड़ी था। उसने अनेक राजाओं के साथ चौसर खेली और वह सबसे जीता, कोई भी उसे न हरा सका। वह हारने वाले का सर काट लेता था, इसीलिए उसका नाम सरकाटसिंह व सरकट मशहूर हुआ। स्यालकोट में जिस समय राजा रसालू हुआ तो उसने इसे चौसर के खेल में जीत लिया। सरकट ने हारने के कारण रसालू से अपनी लड़की की शादी कर दी। संभव है इस दन्तकथा का अधिक सार न हो किन्तु यह अवश्य मानना पड़ेगा कि इस स्थान पर कोई सरकट नाम का छोटा मोटा राजा था।
शेखपुरा में एक बाढ़ है। पंजाब में बाढ़ घने जंगल को कहते हैं। शेखपुरा इलाके से यह बाढ़ आरम्भ होकर मुल्तान तक चला गया है। एक ओर गुजरांवाला तक इसका विस्तार हैं। यह बाढ़, इलाभट्टी के नाम से मशहूर है। दूसरा नाम इसका सन्दलबाड़ी है। तहसील हाफिजाबाद में पिड़ी भट्टियान नामक ग्राम है। इलाभट्टी यहीं का रहने वाला था और इस समस्त बाढ़ के ऊपर उसका अधिकार था। सोलहवीं सदी में उसके जीवित होने का प्रमाण मिलता है। अपनी सेना के खर्च के लिए वह आस-पास के इलाकों पर आक्रमण किया करता था। शेखपुरा के तथा इस बाढ़ के आस-पास के भट्टी मुसलमान जाट इस बात को कहते हैं कि इला राज्य सरकट के खानदान में से था। यद्यपि इसका कोई लिखित ऐतिहासिक प्रमाण नहीं मिलता है, फिर भी ‘फरीदकोट के इतिहास’ और ‘सेरे पंजाब’ में इला और उसकी बाढ़ के सम्बन्ध में कुछ वर्णन अवश्य है। जयपुर राज्य में जाटों का एक चूलड़ गोत है, उनकी वंशावली रखने वाले भाटों ने उनके पूर्वज का नाम इला एवं इडड़ भट्टी लिख रखा है। इसमें सन्देह नहीं कि इलड़ एक प्रभावशाली और अपनी बाढ़ का स्वतन्त्र शासक था।
जलयुद्ध
जैसा कि हम पहले लिख चुके हैं, जाटों ने, महमूद गजनवी को भारत से लौटते वक्त लूट लिया था और उसे बहुत तंग किया था। क्योंकि वे उसके ऊपर भटिंडा राज नष्ट करने के कारण तथा देव-मन्दिरों को लूटने के कारण चिढ़े हुए बैठे थे। महमूद उस समय तो जान बचाकर भाग गया था, किन्तु 1027 ई. में उसने बड़ी तैयारी के साथ जाटों को नेस्तनाबूद करने के इरादे से चढ़ाई की। जदु के डूंग में उसका राज्य था, जो अभी तक प्रजातंत्री सिद्धान्तों पर चल रहा था। तारीख फरीश्ता ने इस युद्ध का हाल इस तरह से लिखा है कि
- “यह युद्ध झेलम नदी में हुआ था। सुल्तान का भारी लश्कर मुल्तान की ओर पहुंचा। वहां पहुंच कर उसने 1400 नावें तैयार कराई और हर एक नाव में लोहे की तीन नोकदार मजबूत और पैनी तीन शलाखें जड़वाई एक नाव की पेशानी पर और दो उसके दोनों बाजुओं पर। इन शलाखों के लगाने का मतलब......................प्रत्येक किश्ती में 20 सैनिक तीर कमान व तलवार बरछी लिये हुए बैठाए। जाटों ने सावधान होकर अपने बाल-बच्चों और स्त्रियों को टापुओं में भेज दिया और स्वयं मुकाबले पर तैयार हुए। चार हजार नाव एक दफै और फिर आठ हजार नाव नदी में छोड़ीं और हर एक नाव में एक जत्था सवार करा के मुकाबले को दौड़े। जब दोनों पक्षों का मुकाबला हुआ, तो भारी युद्ध होने लगा। किन्तु महमूद की किश्ती के सामने जो नाव आती वह डूब जाती। यहां तक कि समस्त जाट डूब गये और शेष तलवार की घाट उतरे। सुल्तान की सेना ने उनके बाल-बच्चों के सर पर जाकर सबको कतल किया और कैद भी किया। महमूद गजनी को लौट गया।”
कर्नल टाड ने इस पर यह टिप्पणी दी है कि फरिश्ता का यह कहना सत्य है कि सब जाट इस लड़ाई में खतम हो गये। हमारे विचार से महमूद और उसके साथियों के जाटों ने ऐसे दांत खट्टे किये कि फिर वे हिन्दुस्तान पर चढ़ाई करने की हिम्मत न कर सके। महमूद ही क्या, उसके उत्तराधिकारी तक उस रास्ते से नहीं आये जिस रास्ते जाट पड़ते थे। किन्तु जाट महमूद से लगा कर तैमूर तक के होशों को बिगाड़ते रहे हैं। “वाकए राजपूताना” का लेखक लिखता है - यकीन है कि महमूद से सैकड़ों वर्ष बाद सन 1203 ई. उसके उत्तराधिकारी कुतुब को मजबूरन उत्तरी जंगल के जाटों से बजात खुद लड़ना पड़ा क्योंकि उन्होंने हांसी को स्वतन्त्र राज्य करना चाहा था और फीरोज आजम की लायक वारिस रजिया बेगम ने शत्रु डर से जाटों की शरण ली थी तो उन्होंने रजिया की सहायता के लिए गकरों की फौज जमा करके रजिया की सहायता में उसके शत्रु पर चढ़ाई की थी। वहां दुश्मनों पर विजय पा गई। जाट इस युद्ध में वीरता के साथ मारे गए। जब 1397 ई. में तैमूर ने भारत पर आक्रमण किया था तो मुल्तान-युद्ध के समय जाटों ने उसे भारी अड़चन और कष्ट पहुंचाये। इसी बात से चिढ़कर तैमूर ने भटनेर पर हमला किया था।
देशी-विदेशी सभी इतिहासकारों ने इस बात के लिए स्वीकार किया है कि 600 ई. में पहले का पर्याप्त इतिहास नहीं मिलता और 600 ई. से 1000 तक का जो इतिहास प्राप्त होता है, वह भी अपूर्ण है। फिर जाटों के इतिहास के सम्बन्ध में कहना ही क्या, जिन्होंने स्वयं भी इस बात की चेष्टा ही नहीं की कि उनका संगृहीत इतिहास हो? हम यह दावे से कहते हैं कि जाट-इतिहास की खोज बराबर चलती रहे, तो ईसा से 7 सदी पूर्व से 14वीं सदी तक पंजाब में हर जगह प्रत्येक कोने में जाटों के शासन करने का पर्याप्त इतिहास मिल सकेगा। हमें पंजाब में, सांगवाण और घनघस, मालिक, गठवाला आदि जाटों के ऐसे वर्णन मिलते हैं, जिन्होंने पंजाब के छोटे-छोटे प्रदेशों पर स्वतन्त्रातापूर्वक राज्य किया था। हमारे कथन की साक्षी इस छोटे से गीत से हो जाती है-
हरियाणा के बीच में एक गांव धणाणा।
सूही बांधे पागड़ी क्षत्रीपण का बाणा।
नासे भेजे भड़कते घुड़ियान का हिनियाना।
तुरइ टामक बाजता बुर्जन के दरम्याना।
अपनी कमाई आप खात हैं नहिं देहिं किसी को दाणा।
बापोड़ा मत जाणियो है ये गांव धणाणा।”
अर्थात! इस गीत से मालूम होता है कि घनघस जाटों के 900 सैनिक हर समय तैयार रहते थे और राजसी ढंग से उनके सैनिक लड़ने के लिए गाजे-बाजे के साथ जाते थे। उनके पड़ौस में राजपूतों का बापोड़ा नामक गांव था। बापोड़ा वालों ने शाह दिल्ली को खिराज देना स्वीकार कर लिया था और जब धणाणा के जाटों के सामने यही प्रस्ताव पेश हुआ, तब उन्होंने कहा - “बापूड़ा मत जाणियो, है यह गांव धणाणा।” यदि इसी तरह का संग्रह किया जाए तो पंजाब के जाट-राज्यों का, जो कि मुस्लिम काल से पहले ही से अवस्थित थे, एक स्वतन्त्र इतिहास बन जाए।
नोट - इस पुस्तक में दिए गए चित्र मूल पुस्तक के भाग नहीं हैं. ये चित्र विषय को रुचिकर बनाने के लिए जाटलैंड चित्र-वीथी से लिए गए हैं.
संदर्भ
1. ‘अर्ली हिस्ट्री आफ इण्डिया’। पृ. 254
2. टाड परिशिष्ट पृ. 1134 खड्ग विलास प्रेस बांकीपुर का संस्करण।
3. ‘सरस्वती’ भाग 3 संख्या 33
4. Memoirs of Humayoon. Page 45
5. तारीख फरिश्ता उर्दू तर्जुमा। नवलकिशोर प्रेस लखनऊ। पृ. 54-55
6. वाकए राजपूताना, जिल्द 3, लेखक मुन्शी ज्वालासहाय।
NOTE - REMAINING TEXT IN THIS PAGE WILL BE INSERTED IN DUE COURSE - Dndeswal (talk) 15:08, 29 May 2012 (EDT)
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