Jat History Thakur Deshraj/Chapter VI

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जाट इतिहास
लेखक: ठाकुर देशराज
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षष्ठ अध्याय : जाट साम्राज्य
अफगानिस्तान, ईरान, ओहिन्द, जर्मनी, स्केण्डनेविया, रोम, इटली, चीन, जटलेंड प्रभृति देशों में जाट-उपनिवेशों का वर्णन

विदेशों में जाट-उपनिवेश

पहले यह जान लेना आवश्यक है कि ‘विदेशों में जाट-उपनिवेशों’ की सामग्री किन इतिहासों से मिलती है -

  • (1) हेरोडोटस - यह यूरोप का सबसे पुराना इतिहास लेखक कहा जाता है। 480 ईसवी पूर्व यह मौजूद था। इसी के उद्धरणों से कर्नल कनिंघम, तथा कर्नल टाड ने बाहरी जाटों के सम्बन्ध में प्रकाश डाला। प्रथम दारा के पुत्र जरक्सीज के यूनान पर आक्रमणों का इसने इतिहास लिखा है। जरक्सीज के साथ भारतीय जाटों का जत्था भी था। इसके बाद भी जाटों से हेरोडोटस का परिचय हुआ। अपने इतिहास में इसी जानकारी के कारण उसने जाटों के ऊपर काफी लिखा है। इसका ग्रन्थ भारत में कहीं नहीं मिलता। इलियट साहब ने कुछ संग्रह इसके आधार पर किया है, जो उनकी हिस्ट्री आफ इंडिया में उल्लिखित है।
  • (2) स्ट्राबो - यह भी यूनानी लेखक था। रोम के हमलों के बाद से इसका परिचय जाटों से हुआ था और इसी कारण इसने उनके वर्णन को स्थान दिया है।
  • (3) डिगायन - इसने चीन का इतिहास लिखा है और उसमें जाटों के सम्बन्ध में प्रकाश डाला है। यह भी लिखा है कि जाटों ने बौद्ध-धर्म स्वीकार कर लिया था।
  • (4) कनिंघम - इन्होंने पर्शिया की हिस्ट्री लिखी है। उसमें फारस-स्थित जाटों का वर्णन है। इन्होंने ही सिखों का इतिहास लिखा था।
  • (5) तिरमिजी अबबाबुल इम्साल - यह अरबी ग्रन्थ है। इसमें हजरत मुहम्मद और अली के समय के जाटों के सम्बन्ध और अस्तित्व का वर्णन है।
  • (6) तारीखे तबरी - यह भी अरबी-ग्रन्थ है, इसमें जाटों के रोम के विरूद्ध अरबों की सहायता करने का वर्णन है।
  • (7) एड्डा - यह स्केण्डनेविया की धर्म पुस्तक है। मि. जन्स्टर्न ने इसे

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भारत से लाए हुए धर्म के आधार पर बनी धर्म-पुस्तक बताया है। इसमें जाटों द्वारा प्रचारित रस्मों का वर्णन है।

इनके अलावा अनेक पारसी, चीनी तथा यूरोपियन इतिहासों में जाटों के उपनिवेशों का तथा उनके आचार-विचार और युद्धों का वर्णन है। यह वर्णन इतना है कि उसके संग्रह के लिए कई हजार रूपये और कई साल के समय की आवश्यकता है। इसलिए हमने सोचा कि ‘विदेशों में जाटशाही’ नामक एक अलग इतिहास लिखें। इस इतिहास के मुद्रण के पश्चात् अवश्य ही हम ‘विदेशों में जाट साम्राज्य’ अथवा ‘यूरोप के जाट’ इतिहास का काम प्रारम्भ कर देंगे। इसी से इसमें कुछ संक्षिप्त सा इस विषय का वर्णन करते हैं।

मि. कनिंघम की ‘सिक्ख इतिहास’ की ‘पाद टिप्पणी’ पढ़ने से स्पष्ट पता चलता है कि जाट लोग भारत में जट, जिट या जाट, चीन में इउइचि (यूती, यूची) तथा यूनान में गिट, जेटा और गाथ के नाम से थे। यह केवल भाषा-भेद है, किन्तु कनिंघम ने हेरोडोटस के लेखों का आधार लेकर यह सिद्ध करने की चेष्टा की है कि जाट सीथियन या शक लोग हैं। इस मत का उत्तर हमने पिछले अध्यायों में दे दिया है; किन्तु शक भी आर्य थे। अन्तर इतना है कि इण्डो-आर्यन और एक इण्डो-सीथियन उनके दो नाम हो जाते हैं। यदि देशों में बसने के कारण ऐसे नाम पड़ते हों तो जाटों के दो हिस्से हो जाते हैं। एक इण्डो-आर्यन और एक इण्डो सीथियन क्योंकि उनका विस्तार सिन्ध और गंगा-यमुना के द्वाबे से लेकर ईरान की खाड़ी तक जगजार्टिस नदी तक था। जाटों मे दो बड़े दल भी हैं। शायद वे घरू बोल-चाल के देसवाल और पछादे हैं। अर्थात् वे लोग जिनका घर भारत ही में था और दूसरे वे जो पच्छिम में बसे हुए थे। स्ट्राबो ने अपने वर्णनों में पछांदे और उसकी शाखाओं का जिनमें ये भी हैं, वर्णन किया है। हेरोडोटस और स्ट्राबो का पाला भी पछांदे अर्थात् पश्चिम देशों में बसे हुए लोगों से पड़ा था। डन्हीं के वर्णनों के आधार पर मि. कनिंघम को यह भ्रम हो गया है कि सारे देशों में फैले हुए जाट पर्शिया के अथवा पश्चिम के (पछांदे) जाट हैं और व पर्शिया के होने के कारण सीथियन (शक) हैं। यदि मि. कनिंघम को देसवाली (भारत-स्थिति) जाटों के वर्णनों की कोई पुस्तक मिल जाती अथवा वह पछादे और देसवाल दो बड़े भेदों से परिचित होते तो, उन्हें भी मानना पड़ता कि जाट इण्डो-आर्यन हैं और इंडिया से बाहर कहीं उनका अस्तित्व मिलता है तो उसकी जड़ भारत ही है।1

अस्तु, अब हमें यह बताना है कि उनकी गति (पथ) किस ओर से थी । पहला वर्णन उनका भारत के बाद ईरान में पाया जाता है। यदि वे ईरान के आदिम निवासी होते तो उनका नाम संस्कृत शब्द जाट न होकर पार्सी भाषा का कोई शब्द


1. मुगल साम्राज्य का क्षय और उसके कारण देखो


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होता और उनके नाम से ईरान में जाटाली प्रान्त न होता जो कि जाटालय का अपभ्रंश है। ईरान की नदी बान भी व्याना के निकटवर्ती वान (जाट) लोगों के नाम पर इस नाम से न पुकारी जाती। अतः भाषा-विज्ञान के अनुसार जाटों का पथ भारत की ओर से ईरानी की ओर है, न कि ईरान की ओर से भारत की ओर। यदि ऐसा होता तो आज व विंध्याचल के उस पार अथवा बंगाल मे पाए जाते। ‘यादव कल दिग्विजय’ और ‘महाभारत’ से तथा अनेक अंग्रेज इतिहास लेखकों के लेखों से यादवों अथवा जाटों का पथ (गति) दक्षिण-पूर्व से उत्तर-पच्छिम की ओर है। यादवों (चन्द्रवंशियों) की आरम्भिक आबादी प्रयाग में थी, वह जितने भी बढ़े उत्तर की ओर बढ़े हैं, उत्तर-पच्छिम की ओर उनके बढ़ने के कारण भी हैं। दक्षिण-पूर्व की ओर से साम्राज्यवादी लोगों तथा पौराणिक धर्मद्वेषियों ने प्रजातंत्री और बौद्धों को एक नहीं, अनेक बार उत्तर-पच्छिम की ओर बढ़ने का बाध्य किया है। यह गति उलटी भी हुई थी, किन्त ईसवी सन् से पहले उसके उदाहारण और कारण बहुत ही कम मिलते हैं। ईरान का प्राचीन इतिहास भी यह नहीं बताता कि भारत के जाट ईरान से गए हुए हैं। हां, सिकन्दर के आक्रमण से कई सौ वर्ष बाद, ईसाई तथा मुस्लिम संघर्षों से, वे ईरान की ओर से भारत को अवश्य लौटे जो भाटी, पच्छादे और ढे नामों से प्रसिद्ध हैं। उनके साथ देसवाली और मांझे के जाटों ने बहुत समय तक समानता का व्यवहार नहीं किया था। इससे भी विदित हो जाता है कि आदि बस्ती उनकी भारत ही है। भूगोल-समिति के समाचार-पत्र The Journal of the Geographical Society, XIV, 207, note के सम्पादक गण ने जाटों को भारत में इतना पुराना माना है कि वे लिखते है - ‘‘पुराने और आदिम संस्कृत शब्द ‘जियेसता’ से जाट शब्द बना है और इसे यह आदिम आधिवासी जान पड़ते हैं।’’


इसके सिवाय ईरानियों के साथ उनके सम्बन्ध का जिक्र जहां ईसवी पूर्व छठी सदी में ही चल जाता है। अरब में तथा यरूसलम में स्पष्ट रूप से दूसरी सदी में चलता है और रूस तक को 4थी - 5वीं सदी में पहुंच पाते हैं। भारतीय भावनाओं के अनुसार भारतीय लोग पूर्व से पच्छिम की यात्रा को समझते भी श्रेष्ठ हैं।

यूरोप के इटली और रूस प्रदेशों में पहुंचते समय उनके दो प्रधान विभाग हो जाते हैं। रूस अथवा इटली के लिए यह पूर्वी पच्छिमी दल कैसे जान पड़े, इसका स्पष्टीकरण होना भी आवश्यक है।

यह हम पहले बता चुके हैं कि उनका विस्तार उत्तर में जगजार्टिस और पच्छिम में ईरान की खाड़ी तक तक हो गया था। ईरान के डेरियस के अलावा अपने नेताओं के साथ उन्होंने यूनान को पहले देख लिया लिया था। समय पाकर तथा संख्याधिक एवं अन्य परिस्थितियों से वह आगे की ओर बढ़े और रोम अथवा इटली


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में पूर्व की ओर से आक्रमण करने लगे। उधर मध्य-एशिया में हूणों का प्रथम उपद्रव खड़ा हुआ, जब जगजार्टिस के किनारे पर बसे हुए जाट लोगों का कुछ हिस्सा नये और हरे-भरे देशों की खोज के लिए यूराल पहाड़ को पार कर गया और जर्मनी में जा पहुंचा। उनसे भी अधिक उत्साही लोगों को वहां पहुंचा दिया, जहां से आगे थल न था अर्थात् जमीन का खात्मा हा गया था, वह देश था स्कन्धनाभ अथवा स्केण्डनेविया। यूरोप में दूसरी सदी से सातवीं सदी तक आक्रमणों का प्राबल्य रहा है। दूसरे स्कंधनाभ उस समय कुछ उपजाऊ देशों की ओर बढ़े। इटली और रोम में इनका प्रवेश पच्छिम से होता था, इसीलिए वे पच्छिमी गाथ कहलाये। उन देशों के लिए यही पूर्वी पच्छिमी गाथ दो भेद थे। गाथों के सिवाय रूलाव, बंडाल आदि अल्प जातियों ने भी यूरोपियन देशों को विजित किया था। इस मस्त लोगों के समूह को यूनान वाले ट्यूटन कहते थे। यह वर्णन जाटों की गति (पथ) के सम्बन्ध में तथा उनके इण्डो-आर्यन के बजाय इण्डोसीथियन समझ लेने वालों के भ्रम-निवारण के लिए है। अब कुछ संक्षेप से उनके अन्य देशों में उपनिवेश स्थापित करने के सम्बन्ध में लिखा जाता है।

अफगानिस्तान

Afghanistan in Middle East Countries

यह देश तो अति प्राचीन काल से भारत मे सम्मिलित था। महाभारत में भी यह भारत के अन्तर्गत ही समझा गया है। यह कभी भारतीयों और कभी ईरानियों के अधिकार में रहता है। गांधार उस समय तक जाटों के अधिकार में रहा है, तब तक इस्लाम का आक्रमण भारत पर नहीं हुआ। उस आक्रमण के बाद ही धर्म-प्रिय जाटों ने भारत की ओर मुंह मोड़ दिया। चन्द्रगुप्त मौर्य के समय में सौभागसेन यहां का राजा था। मि. क्रुक साहब ने लिखा है कि - कुछ जाटों ने हमें अपना आना गढ़ गजनी से बताया है। यह सही है कि यादव लोगों ने गजनी को आबाद किया था और फिर शालवाहन के समय में भारत में वापस लौट आये थे। इनमें से कुछ पौराणिक धर्म में दीक्षित होकर राजपूत हो गये। शेष ने भटनेर भटिंडा और पंजाब में जाट-राज्य स्थापित किए। अफगानिस्तान के पच्छिम में हिरात नदी है और वह प्रांत भी हिरात कहलाता है। उस प्रदेश में भी जाटों ने एक लंबे अरसे तक अपना प्रभुत्व कायम रखा था। सर हेनरी इलियट ने डिस्ट्रीब्यूशन आफ दी रेसेज ऑफ नार्थ वेस्टर्न प्राविंसेज आफ इण्डिया में लिखा है -

"गुजरात (पंजाब) के जाट चिनाव के किनारे देश को हिरात के नाम से पुकारते हैं, क्योंकि उनमें दन्तकथा है कि वे ईरान की हिरात नदी के किनारे रहते थे।"

इन प्रान्तों के सिवाय आजकल सीस्तान नाम से पुकारे जाने वाले प्रदेश में शिवगोत्री जाट राज्य करते थे और वह प्रदेश उस समय शिविस्थान कहलाता था।1 भारत के साथ इन लोगों


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का सभी प्रकार का राजनैतिक-सामाजिक सम्बन्ध था और जब कभी भी विदेशी आक्रमणकारी से युद्ध करने की नौबत आती थी, ये अपने सजातीय भाई सिन्धू (सिन्ध के) जाटों को याद करते थे। किस वंश ने कब तक और किस रूप में अफगानिस्तान में राज्य किया इसके पूरे विवरण की हमें बहुत सामग्री प्राप्त होगी।

अफगानों के सम्बन्ध में कर्नल कनिंघम ने सिक्ख इतिहास में लिखा है -

"जाट लोग एक और राजपूतों के साथ और दूसरी ओर अफगानों के साथ मिल गये हैं, किन्तु यह छोटी-छोटी जाट जाति की शाखा-समुदाय पूर्व अंचल के राजपूत और पश्चिम अंचल के अफगान और बलूचों के नाम से अभिहित है।"2

अर्थात् - कनिंघम साहब के मत से कुछ जाट तो अफगान और बलूच हो गये और कुछ जाट राजपूत हो गये। इससे भी जाटों के अफगानिस्तान में अवस्थित होने का पूरा प्रमाण मिलता है और आरम्भ में कोई जाति विदेशों में विजेता के रूप में ही प्रविष्ट होकर भूमि अधिकृत कर सकती है। अफगानिस्तान में जाटों के पास जितना भी भूभाग था, वह उपजाऊ और हरा-भरा था।

बिलाचिस्तान

यह देश बिल्कुल सिन्ध से सटा हुआ है। यहां हिंगलाज की देवी का मन्दिर भी है। ब्रज के जाटों में हिंगलाज की देवी के गीत खूब गाये जाते हैं। संभव है शैवमत की भांति इधर के कुछ जाटों पर शाक्त-मत का भी प्रभाव पड़ा हो और उन्होंने हिंगलाज में देवी-पूजा के लिए मठ बनवाया हो। मौर्य-काल में कुलूत इस देश की राजधानी थी और चित्रवर्मा राज करता था। जाटों के अन्दर बिलोच गोत्र पाया जाता है। बिलोच शब्द बहुत संभव है, बिलोचन से बना हो; जैसा कि अफगान को अपगान (अप=बुरा + गान=गान्धर्वों का देश) शब्द से बना मानते हैं। वैसे यह नाम महाभारत में तो आता नहीं है। उस समय यह शल्य के राज्य में शामिल रहा होगा। मि. इबैट्सन ने लिख है कि -

"जाटों के लिए बिलाच राष्ट्र में घुसने की राजनैतिक एकता और संगठन की आवश्यकता थी, वही इन्होंने किया।"

चीन

तंगण और पर-तंगण दो प्रजातंत्रों का चीन की सीमा पर महाभारत ग्रन्थ में वर्णन पाया जाता है, यही हमारे तांगर और प्रतिहार जाट हैं। अब भी टांग (तांग) पर्वत-माला तंगणों के नाम से मानसरोवर से आगे है। हिंगू पहाड़ और हुंगहू नदी


1.पर्शिया में चन्द्रवंश नामक लेख देखो। राजपूत संख्या 8 वर्ष 27
2. सिक्ख साम्राज्य इतिहास, पृ. 11 (चक्रवर्ती का अनुवाद)


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के किनारे मौर्यकाल मे गये हुए, भारतीय आर्यो के इस वंश ने वहां पर काफी समय तक राज किया और फिर स्वदेश आ गये जो आज कल हैगा कहलाते हैं। यह लोग यादव-कुल के थे। तिब्बत ग्रन्थ में खोतान (लीपुल) के सम्बन्ध में वर्णन आता है कि इसे नागों ने भर दिया था, शाक्य मुनि न उसे सुखा दिया। फिर धर्माशोक का पुत्र कुश्तन जिसे कि राजा ने ज्योतिषियों के कहने से फिकवा दिया था वैश्रवण के द्वारा रीगा के बोधिसत्व राजा के यहां पहुंच कर बड़ा होता है। फिर ‘‘पश’’ धर्माशोक का मंत्री नये राज्य स्थापन की इच्छा से चीने में पहुंचता है और तोला नामक स्थान में ठहरता हैं। वहां कुश्तन से मुलाकात होती है। दोनों हुंगहु देश पर राज्य करते हैं।1 इन बातों से यह सिद्ध होता ही है कि भारतीय लोग चीन में उपनिवेश बसाने गये। कदाचित कुछ लोग यह कहे कि जाटों ने भी चीन में उपनिवेश स्थापित किया इसका क्या प्रमाण है? इसके लिये इतना ही कहना काफी होगा कि चीन के इतिहास में यूची जाति चीन की शासक जाति बतलाई गई है। हिंगू लोगों की धाक और राज्यचर्चा अब तक चीन की शासक जाति बतलाई गई। हिंगू लोगों की धाक और राज्यचर्चा अब तक चीन में व्याप्त है। इसके सिवाय बौद्ध-धर्म से दीक्षित यूची-पार्थेय, सोगड़ीय विद्वानों द्वारा धर्म-प्रचार की चर्चा का वर्णन आता है। मि. डिगाइन जिन्होंने कि चीन का इतिहास लिखा है, जाटों का अन्य वर्णन करते हुए उन्हें बौद्ध-धर्मावलंबी बताते हैं।2 मि. ग्राउस साहब मथुरा मेमायर्स में नववीर (नोवारों) को खोतन के पास नोह झील के पास से वापस आए हुए बताते हैं। वे कहते हैं कि -

"नोहवार भारतीय नवराष्ट्र के रहने वाले लोग थे और वे खोतान से ऊपर तक पहुंच गये। हूणों के आक्रमण से पहले भारत में वापस आ गये और अब नोह झील (मथुरा जिला) में रहते हैं।

मि. कनिंघम साहब सिख-इतिहास में लिखते हैं - जाट लोगों की प्रसिद्ध शाखाओं में चीन, भुराइच, चुल्ये शाखाये भी हैं ।

अर्थात् कनिंघम साहब का कहना है कि जाटों के अन्दर एक चीन गोत्र है जिससे उनका चीन जाना सिद्ध होता है और विदेश में या तो उपनिवेश स्थापना के लिए जातियां जाती हैं अथवा धर्म-प्रचार के लिये जाती हैं। जाटों ने दोनों ही कार्य चीन में जाकर किये।

नेपाल

यह नाम नयपाल से बना है। आरम्भ में यह देश भूट लोगों से भरा हुआ रहा होगा। मध्यकाल में यहां ठाकुरी वंश का राज हुआ था। डॉ. भगवानलालजी इन्द्र ने यहां शिलालेखों के आधार पर कुछ खोज की थी, जिससे ठाकुरी वंश की


1.मौर्य साम्राज्य का इतिहास, पृ. 539
2. टाड राजस्थान पहली जिल्द देखो।


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दो तीन पीढ़ियों का पता चल जाता है। यह ठकुरी सम्भवतया अलीगढ़ जिले के ठकुरेले हो सकते हैं जो कि वैशाली के ज्ञात (जाटों से) निकले हुये कहे जा सकते हैं। लिच्छिवियों का प्रजातंत्र नष्ट हो जाने के बाद ही इस वंश की नेपाल में एकतंत्र शासन-प्रणाली पनपी है। नेपाल राज्य के इतिहास से मालूम होता है कि अंशु वर्मा इस कुल का प्रथम पुरूष था जो कि लिच्छिवि का महासामन्त था। सन् 355 ई. में उसका उदय हुआ था। अंशु वर्मा ने आगे चलकर राजा की उपाधि धारण कर ली थी। सन् 481 ई. के आस-पास इसके वंश के लोग स्वतंत्र शासक हो गये थे और ग्यारहवी-बारहवी सदी में तो उन्होंने नेपाल के एक बड़े हिस्से पर अधिकार कर लिया था। भातगांव उनकी राजधानी थी। 1322 ई. में अयोध्या के राजा हरीसिंह ने तुगलकशाह (मुसलमान) के भय से भाग कर नेपाल में शरण ली और भातगांव चालाकी से ठकुरी लोगों से उसने ले लिया। यहीं से ठकुरी राज नष्ट हो गया।

ईरान

ईरान का मानचित्र

ईरान को तो जाटों की दूसरी मां कहना चाहिए। भारत के पश्चात् उनका गौरव-सूर्य ईरान में ही चमका है। ईरान के पच्छिमी किनारे पर वान नदी है। उसी के किनारे वाना (जाटों) का एक किला था। जून सन् 1932 के भूगोल के विशेषांक में एक दन्त कथा वान लोगों के सम्बन्ध में छपी थी। उसका सारांश इस प्रकार है - वान लोगों के किले पर शत्रुओं ने घेरा डाल लिया। बहुत दिन के घेरे के बाद जब कि दुर्ग में रसद निपट चुकी तो बड़ी चिन्ता हुई। सब लोग मिल कर एक वृद्धा के पास गए, उसने युक्ति बताई कि शत्रु को यह दिखा दो कि तुम्हारे पास काफी रसद है, वह घेरा उठा लेगा। जितना तुम्हारे पास आटा है उसमें से बहुत सारा किले के बाहर फिकवा दो। ऐसा ही किया गया। जब शत्रु से समझा कि इनके दुर्ग में इतना आटा है कि पुराने का फेंक रहे हैं, तो उसने घेरा उठा लिया। ये वान आरम्भ में बयाना के पास रहते थे। उन्हीं के नाम से यहां की नदी का नाम बान गंगा है। अन्य चन्द्रवंशी (सासानी) लोगों के साथ ईरान के आखिरी सिरे तक पहुंच गये थे और वे वापस भारत आ गए।

स्ट्राबो के कथनानुसार - काशपियन के सहारे ढाये या ढे जाट रहते थे। ये भी भारत से बौद्ध-काल के आरम्भ में उधर पहुंच गए मालूम देते हैं। ढे शब्द किस शब्द से बना है इसकी मीमांसा में अंग्रेज लेखकों को खूब मगज पच्ची करनी पड़ी है। किन्तु वे एक मत पर नहीं पहुंच पाये हैं। ढे, और धे में कोई अन्तर नहीं है जो कि यौधेय का अपभ्रंश है। यौधेय से यौधे और फिर सिर्फ धे रह गया। इस्लामी टक्कर के समय ये अपनी मातृ-भूमि की ओर मुड़ आए, किन्तु जितने दूर थे, उतने ही देर से भारत में आए। देसवाली जाटों ने, जिन पर कि पौराणिक धर्म


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की छाया पड़ रही थी, इन लोगों से समानता का बर्ताव नहीं किया। भाटी जाटों के साथ भी जो कि गजनी से लौटे थे, मांझे के जाटों ने उस समय तक समानता का व्यवहार नहीं किया, जब तक कि उनके नाभा, पटियाला जैसे सुविस्तृत राज्य कायम न हो गये। इलियट साहब ने भारत की उत्तर-पश्चिम की जातियों के विभाजन नाम अंग्रेजी पुस्तक में लिखा है -

"Whereas in India at the present day the Dhe is the Sub-Division of the Jats, in the time of Strabo the Xanthii are a sub-division of the Dhe so that if we are to identify Xanthii with Jats and Dhee with Dhe, an interchange of names, or inversion of some sort must have taken place.
"It would seem that at the undefined date, and in those undermined regions attended to by the above-names writer, the various tribes and races enjoyed a multiplicity of names which must have been tant soil pen bewildering to themselves and their neighbour; for we are taught that the Jats were once called Abars which is connected with Abiria in India, generally supposed to be the Abhiri or Ahirs. They also had the name of Sus, and many other. All this may be true, but the application to it to the Jats rests on the single link afforded by the similarity of Xanthii of Jats. On the other hand we have the whole of Sindh peopled with Jats."


अर्थात् - जहां पर भारत में आजकल ढे जाटों की एक उपजाति है, स्ट्राबों के समय में जैन्थिआई दहाये लोगों की उपजाति है। यदि हम जैन्थिआई लोगों को जाट मानें और दहाये लोगों को ढे, तो नामों में कुछ घटाव, बढ़ाव करना पड़ेगा। यह समझने की बात है कि उस समय में और उन स्थानों में जिनका कि उपरोक्त लेखक ने वर्णन किया है, बहुत सी जातियां अपने नामों को खुशी से घटाती-बढ़ाती रहती थीं। जिससे वह स्वयम् को और पड़ौसियों को अचम्भे में डाला करती थीं। हमको बतलाया गया है कि जाट एक समय में अबार कहलाते थे जिसका कि भारत में अबीरिया से सम्बन्ध है। आम तौर पर ख्याल किया जाता है कि वह देश अभीर या अहीरों का देश था। उनके साथ और दूसरे भी नाम थे। यह सब सत्य हो सकता है किन्तु इस बात का जाटों के ऊपर प्रयोग केवल जैन्थिआई और जाटों की समानता के लिए किया गया है। दूसरी ओर हमको सारे सिन्ध में जाट ही बसे हुए मिलते हैं

डाक्टर ट्रिम्प कहते हैं कि - सिन्ध की आदि निवासी जाति जाट हैं। ..... इसमें संशय नहीं कि ये जाट जो कि इस देश में आदि निवासी जाति दिखलाई देते हैं, विशुद्ध आर्य-वंश में से हैं। यदि यूरोपिय इतिहास लेखक इस बात को मानकर खोज करें कि जाटों का मूल स्थान भारत में है तो उन्हें इस समस्या के सुलझाने


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज,पृष्ठान्त-180


मे कोई भी कठिनाई न हो। जैसा कि हमने बता दिया है कि ढे अथवा स्ट्राबो के दहाये यौधेय से ढे और दहाये, धे ये शब्द सरलता से बन जाते हैं।

बैक्ट्रिया और हरकानिया तथा खुरासानिया के मध्य मारगंस नदी के किनारों पर एक बहुत उपजाऊ प्रदेश है। यहां के निवासी जिट्टी लोगों का वर्णन करते हुए टोलेमी और प्लिनी कहते हैं - जाटों की यही आदि भूमि है। यदि ये दोनों यूनानी लेखक भारत की ओर आये होते तो उन्हें डॉ. ट्रिम्प की राय माननी पड़ती। साथ ही सहज में वह समझ लेते कि बैक्ट्रिया और हरकानियां के मध्य के जाट लोग भारतीय जाटों के वंशज हैं जो कि यहां अपना प्रजातंत्र चलाने के लिये उपनिवेश स्थापन के लिये आये हैं। यह प्रदेश इनके नाम से जाटालि मशहूर हुआ।1 इस तरह सिन्ध से लेकर के विलोचिस्तान, कंधार, गजनी, हिरात, जाटालि तक ढे लोगों तथा बान लोगों का देश बिल्कुल जाटों से आबाद पाया जाता है। यदि कंधार से एक रेखा खींची जाए तो व बान लोगों की आबादी तक एक ऐसा रास्ता बना देगी जो कि किधर ही को बिना मुड़े हुए ‘जाट-साम्राज्य’ के बीच में से गुजरेगा और वहां उससे भी कहीं अधिक जाट पाये जाते हैं जितने कि नारनोल से भादरा (बीकानेर) के रास्ते में भरे पड़े हैं। लेकिन वे विस्तार मे इनसे कई गुना अधिक होते। ईरान में जाटों की इतनी घनी आबादी को देखकर ही यूनानी लेखकों ने उन्हें (जाटों को) सीथियन होने का भ्रम किया है। इनकी भांति की दूसरे लेखकों ने जब देखा कि भरतपुर से आरम्भ होकर जगजार्टिस नदी तक खींचे जाने वाली रेखा के पश्चिमी भाग में जाट मधुमक्खियों की तरह से भरे पड़े हैं तो उन्होंने अनुमान कर लिया कि अवश्य ही वे यूचियों या तातारियों की सन्तान हैं। असल में इन लेखकों ने शाखाओं को वृक्ष मान लेने जैसी भूल की है।

जाटाली प्रदेश में ययाति वंशी जाटों का उल्लेख जनरल कनिंघम ने किया है। ययाति राजा नहुष के पुत्र थे, इन्हीं के भाई ययाति को शुक्राचार्य की कन्या ब्याही गई थी । इससे स्पष्ट होता है कि भारतीय चन्द्रवंशी आर्यों की ईरान में बस्तियां थी, और इनमें अधिकांश ज्ञातिवादी (गणतंत्री) जाट ही थे।

जाटों के विरोधी जाटाली के पड़ौसी हरकानियां वासी अवश्य ही रहे होंगे, वरना क्या कारण है कि जाट स्त्रियां अपनी प्रतिद्वन्द्वी स्त्री को हुरकिनी (हिरकनी) के नाम से पुकारती हैं। यह तो बिल्कुल सही बात है कि हुरकिनी हिन्दी का शब्द नहीं। ईसाइयत के संघर्ष से जब कुछ जाटाली स्थित जाट भारत की ओर लौट आये तो हिरकानियों की वीभत्सता का वर्णन भी साथ लेते आये।


1. राजपूत, भाग 27 संख्या 8


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज,पृष्ठान्त-181


स्केण्डनेविया

स्केण्डनेविया का मानचित्र

इतिहास लेखकों ने अनुमानिक तौर से बताया है कि स्केण्डनेविया में ईसा से 500 वर्ष पूर्व जाट लोगों ने प्रवेश किया था। इनके नेता का नाम ओडिन लिखा हुआ है। कर्नल टाड ने उसे बुध माना है, साथ ही बुध की व्याख्या करते हुए उसे चौथा बुध महावीर (जैनों के 24 वें तीर्थंकर) बतलाया है। भगवान महावीर ज्ञातृ (जाट) थे, यह तो हम पिछले किसी अध्याय में बता चुके है। लेकिन यह कठिन जान पड़ता है कि स्कंधनाभ (स्केण्डनेविया) में जाने वाले जाटों के नेता महावीर ही थे। स्केण्डनेविया को स्कंधनाभ शब्द से बना हुआ मानकर उसे सैनिकों का देश बताया गया है। कर्नल टाड भी ऐसा ही अर्थ करते हैं किन्तु चौधरी धनराज डिप्टी कलक्टर ने जनवरी सन् 1926 ई. में ‘महारथी’ में लेख लिखकर बताया है कि बाणासुर का पुत्र स्कंध कृष्ण से हारकर स्कंधनाभ चला गया था, किन्तु धनराजजी की यह कल्पना निर्मूल है। कृष्ण ईसा से 3000 वर्ष पहले हुए हैं और स्कंधनाभ में भारतीय लोग ईसा से 400 वर्ष पहले पहुंचे हैं। वहां के धर्म-ग्रन्थ ‘एड्डा’ के आधार पर भी धनराज जी की कल्पना कोरी कल्पना ही रह जाती है। जबकि स्केण्डेनेविया के प्रसिद्ध इतिहासकार मि. जन्स्टर्न - स्वयम् अपने को ओडिन की संतान मानते हैं। स्कंध और ओडिन का कोई शब्द सामंजस्य भी नहीं है। हां ओडिन और उद्धव शब्द का सामंजस्य है। बहुत संभव है, ये लोग उद्धव वंशी जाट हों। कर्नल टाड, सुरापान की आदत का मिलान करके स्कंधनाभीय लोगों को जित (जाटों) कुल से उत्पन्न हुआ बताते हैं। पर्शिया मे बहुत दिन रहने के कारण उन्हें अंगूरों के रस (सुरा) की आदत पड़ गई हो ऐसा हो सकता है किन्तु भारत के जाटों में शराब का रिवाज बहुत ही कम है। इस समानता के सिवाय कर्नल टाड के जाटों और स्कंधनाभ वालों के सम्बन्ध में और भी बातें लिखी हैं। यथा - स्कंधनाभ वालों के प्राचीन ग्रन्थों में लिखा है कि वे पहले शव के देह को जलाते नहीं थे, पृथ्वी में गाड़ देते थे अथवा पर्वत की कन्दरा में डाल देते थे। बोधेन की शिक्षा से विशेष अवस्था को प्राप्त हो, वे लोग उस समय से मृतक देह को जला दिया करते थे। कहते हैं कि मृत के साथ में उसकी विधवा स्त्री भी जल जाती थी। हेरोडोटस कहता है कि - ये सब प्रथाएं शाकद्वीप से वहां पर गईं।

बोधेन के साथ स्कंधनाभ में जाने वाले लोगों में एक बलदार नाम भी थी। उसकी स्त्री नन्ना उसके साथ सती हुई थी। अनेक स्त्रियों में से सती पहली ही स्त्री होती थी, यह उनका नियम था।

हेरोडोटस कहता है कि -

"शाक द्वीप के निवासी जब मरते थे तो उनके प्यारे घोड़े उनके साथ जलाए जाते थे और स्कन्धनाभ के जित (जाट) मरते थे, तब उनके घोड़े गाड़ दिए जाते थे।"

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स्कन्धनाभ वाले और जक्षरतीस के किनारे रहने वाले जित लोग सजातीय मृतक पुरूष की भस्म पर ऊंची वेदिका बनाया करते थे।
शाक द्वीप के जिट लोगों में शस्त्र-पूजा की विधि भारत के राजपूतों के समान है। जिस समय जिट (जाट) लोगों की बलाग्नि से सारा यूरोप संताप पा रहा था, उस काल में यह प्रथा विशेष उन्नति पर पहुंच गई थी। कहते है कि, प्रचंड जिट वीरों ने आटेला और अथेन्स नगर में महा घूम-धाम के साथ अपने अस्त्र-शस्त्रादिकों की पूजा की थी।"1


इन उद्धरणों को देखकर कर्नल टाड ने हेरोडोटस के इस मत की पुष्टि करते हुए कि जाट शाकद्वीपी हैं, यह सिद्ध किया है कि जाट और राजपूत एक ही हैं। उनके सारे अवरतणों, आलाचनाओं का केवल यही सार है। यह तो हम पिछले पृष्ठों में काफी बता चुके हैं कि शाकद्वीप (ईरान) के जाट भी इण्डो-आर्यन थे। स्कन्धनाभ में जो असि - जाट पहुंचे वे भी भारतीय सभ्यता के मानने वाले थे। चाहे वे कास्पियन सागर के तट से गए, चाहे जगजार्टिस के किनारे से। उनके बलदार, गौतम, नन्नू, बुद्ध, प्रभृति ईरानी नाम न थे, किन्तु भारतीय नाम थे। न वे यजदमद थे न हुरमुजत या जमशेद। शाकद्वीप के आदि-निवासी जरदुष्ट अहुर मज्द के अनुयायी न होकर वे वैदिक अथवा बौद्ध धर्मावलम्बी थे। इस बात को हेरोडोटस स्वयम् मानता है कि जाट एकेश्वरवादी थे।2 ईरान के आदिम निवासी आज तक भी अपने मुर्दो को जलाते नहीं हैं। मुर्दे जलाने वाले शाकद्वीप के जिट वहां के आदिम निवासी न होकर प्रवासी तथा उपनिवेश-संस्थापक थे। ईरान के डेरियस अथवा दाराशाह ने तथा अन्य भी आदिम ईरान वासियों ने इन्हें निकालने की भी कोशिश की थी।

स्कन्धनाभ में बस जाने के समय उनका नाम असि भी पड़ गया। यह नाम उस समय पड़ा जबकि इन्होंने जटलैण्ड व यूटलैण्ड नामक नगर बसाए। ‘एड्डा’ में लिखा है - स्कन्धनाभ में प्रवेश करने वाले जेटी अथवा जट लोग असि नाम से विख्यात थे, उनकी पूर्व बस्ती असिगई थी। असिगब व असीगढ़ नीमाड़ (भारत में) हैं।

तुरक व तुरक्ष देश

उत्तर-भारत का वह देश जो हिन्दूकुश से लगाकर कास्पियन सागर ओर जगजार्टिस तोरिम नदी तक फैला हुआ है, तुर्किस्तान कहलाता है।


1.हिन्दी टाड राजस्थान बम्बई का छपा अध्याय 5 देखो
2.टाड परिशिष्ट अध्याय 6


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इस सारे प्रदेश में किन्हीं दिनों जाट फैले हुए थे। पुराणों के अनुसार यह सारा देश तुरष्क को मिला था। आज कल तुरक के माने लोग मुसलमान के समझते हैं, किन्तु वास्तव में तुरक तुरष्क की संतान आर्य थे और इस्लाम के आगमन पर तथा हिन्दू-संस्कृति की संकुचित दृष्टि से ये मुसलमान हो गए। बौद्ध-धर्म की अहिंसा ने भी उन्हें मुसलमान होने में पूरी सहायता दी। सीतामढ़ी, उद्यान, विराट आदि प्रसिद्ध नगर इसी में थे, जो आज समय के फेर से शहबाजगढ़ी, यूसफजई और तख्तवाही कहलाते हैं। जनरल एबट ने सन् 1854 ई. में तख्तवाही को देखा था, उसमें एक विशाल राजमन्दिर के चिन्ह अब तक पाए जाते हैं। कादम्बरी के चन्द्रापीड़ का विवाह यूसफजई (उद्यान में) हुआ था।

रानी तोमरिस सायरस के सिर के साथ

इस प्रदेश के महान् योद्धा तोमरिस (तोमरसैन व तोकऋषि) ने साइरस से युद्ध किया था। साइरस ने पहले तो जाटों की सहायता से मीडिया को परास्त करके पारसी साम्राज्य की नींव डाली थी, पुनः उसने जाटों से भी युद्ध छेड़ दिया। वीर तोमरिस ने उनके छक्के खुरासान के पूर्वी उत्तर हिस्से पर छुड़ाकर वापस लौटा दिया था। उद्यान के सम्बन्ध में जनरल कनिंघम लिखते हैं-

"I can hardly suppose that these advantages for securing an artificial supply of water in British Yusufzai were lost sight of by the practical Hindus who held the country for many generations before the conquest of Mahmud of Ghazni brought in the rapacious Musalmans. (Cunninghan Vol.5, 3.)
The broad and fertile valley of Swat river is known to be the rich in ancient remains but it is regretted that it is inaccessible to European. (Cunningham Vol 5, 1.)"

अर्थात् - मैं यह कल्पना नहीं कर सकता कि ब्रिटिश यूसफजई में जल की कृत्रिम आपूर्ति के लिए गजनी के महमूद की विजय के साथ आए सर्वनाशी मुसलमानों के पहले इस क्षेत्र को कई पीढ़ियों तक अपने अधीन रखने वाले व्यवहारिक हिन्दुओं ने इन सुविधाओं को नजर अन्दाज कर दिया होगा।

स्वात नदी की विशाल एवं उर्वर घाटी पुरातन अवशेषों के लिए प्रसिद्ध है परन्तु यह खेद की बात है कि यूरोपियों के लिए अनभिगम्य है।

जोहन नदी के किनारे पर रहने वाली यूची जाति पीछे से जेटा व जेटन कहनाने लगी। ऐशिया के इस प्रान्त में इनका बहुत समय तक अधिकार रहा। पाण्डव वज्र को लेकर इसी देश में पहुंचे थे, ऐसा कर्नल टाड मानते हैं। हमारा अपना मत है, साथ ही अन्य लोगों का भी मत है कि कुषाण लोग कृष्ण वंशी थे और कार्ष्णिक (कृष्णन) से कुषाण शब्द बना है। चौधरी धनराजजी डिप्टी कलक्टर और चौधरी रामलालजी हाला भी ऐसा ही मानते हैं। जाट वंशोत्पत्ति सम्बन्धी पुस्तक में हालाजी ने पृथ्वीराज विजय (संस्कृत) के हवाले से कुषाण वंशी महाराज कनिष्क को जाट बताया है। वास्तव में यह बिल्कुल सही बात है भी। यदि महाराज कनिष्क आर्य-वंश संभूत न होते तो भारतीय सभ्यता का प्रचार करने की बजाय हूणों की भांति उसका ध्वंस करते।


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हेरोडोटस ने लिखा है कि - मध्य एशिया की बड़ी जेटी जाति में अश्वमेध का रिवाज था और संक्रांति के शुभ अवसर पर यह महोत्सव उनके यहां होता था (पारसी लोगों में तो अश्वमेध नहीं होता फिर हेरोडोटस किस आधार पर उन्हें शाक ही पुकारता है। - ले.) । मध्य ऐशिया में एक अश्व जाति भी जाटों के पड़ोस में रहती थी, वह वाजस्व की संतान के लोग कहे जाते थे। लेकिन पिंकर्टन ने यूरोप में जाटों के साथ सुएवी, कट्टी, केम्ब्री और हेमेन्द्री आदि 6 जातियां बताई हैं। ये सब एल्प और वेजर नदी के किनारे तक फैल गई थीं। वहां उन्होंने युद्ध के देवता महादेवजी के नाम पर एक विशाल स्तंभ खड़ा किया था। अनेक इतिहास लेखकों ने अपनी-अपनी मति से उसे मंगल अथवा बुद्ध का स्तंभ बताया है। ये छः जातियां भारत में क्रम से जाट, अहीर, काछी, कुर्मी, हेमेन्द्री कहलाती हैं। वास्तव में जाटों का और अहीर काछियों आदि का प्रारम्भ से निकट रहना और निकटतम सम्बन्ध पाया जाता है। ये सभी एक ही स्टाक की जगजार्टिस के किनारे की रहने वाली जातियां थीं। जाटों ने यूनान में कर्जसीज को और अर्बेला में दारा को रथों की सेना की सहायता दी थी। इस सेना में 15 हाथी और 200 रथ थे। [Todd|कर्नल टाड]] ने हेरोडोटस के आधार पर लिखा है कि इन लोगों से युद्ध करने के लिए सिकन्दर ने स्वयं कमान की थी। वे अपनी भुजाओं के बल से यूनानियों को प्रत्येक आचरण में विफल कर देते थे। उन्होंने सिकन्दर की पर्शिनियो की कमान वाली सेना को अस्तव्यस्त कर दिया था, जिससे उसे दूसरी सेना उनसे भिड़ने के लिए भेजनी पड़ी थी। प्रत्येक जाट ने वह पराक्रम दिखाया कि मानो वह जीत की पक्की अभिलाषा रखता है, किन्तु अर्बोला के युद्ध में दारा की पराजय बदी थी। काछी लोग भी इस युद्ध में बड़ी बहादुरी से लड़े थे।

डिडगनीज ने पुराने प्रमाणों के आधार पर सिद्ध किया है कि जिस समय जट जाति पर सू लोगों ने चढ़ाई की तो उस समय उनके सौ से अधिक ऐसे नगर थे, जिनमें भारत की सौदागरी की वस्तुएं और उन लोगों में जो सिक्के प्रचलित थे उन उन्हीं के राजाओं की मूर्तियां अंकित थीं। मध्य-एशिया की यह दशा ईसवी सन् से बहुत पहले थी जो इन देशों में होने वाली लड़ाइयों से बरबाद हुई, जिसका निदर्शन यूरोप में नहीं पाया जाता और जिसके कारण यह देश उजाड़ हो रहा है और इस काल में जैटिक जाति की तैमूर के साथ तथा उसके लोभी पूर्वजों की लड़ाई से निदर्शित होती है।

तुरूष्क देश में बसने वाले जाटों ने बड़ी समृद्धि प्राप्त की थी। उन्होंने बड़े-बड़े नगर बनाये थे। राजनियमों का संग्रह किया था, वे व्यापारिक धन्धों में भी उन्नति कर रहे थे। उनका राज्य इस समय सभ्यता और ऐश्वर्य में किसी से कम न था। नगरों में बाजार, नदियों में नावे, सेना में हाथी, रथ, घोड़े, उत्सवों में यज्ञ, धार्मिक


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विश्वासों, एकेश्वर-पूजा उनके वैभव सम्पन्न, योग्य-शासक, युद्ध-कुशल, सुसभ्य और वैज्ञानिक होने के प्रमाण हैं। इनके देश में चंगेजखां की चढ़ाई के समय तक बड़े-बड़े नगर विद्यमान थे। उस समय मध्य एशिया में तुरूष्क देश के जाटों की सभ्यता सर्वश्रेष्ठ थी। कर्नल टाड इन जाटों के सम्बन्ध में लिखते हैं कि -

"साइरिस के समय में ईसा से 600 वर्ष पहले इस बड़ी गेटिक जाति के राजकीय प्रभाव की यदि हम परीक्षा करें तो यह बात हमारी समझ में आ जाएगी कि तैमूर की उन्नत दशा में इन जातियों का पराक्रम-ह्रास नहीं हुआ था। यद्यपि 20 शताब्दी का समय व्यतीत हो चुका था।"

एक बात और भी हमें बता देनी है। यूनानी लेखकों ने इन जाटों को चगताई करके लिखा है जोकि उन्होंने सकताई (शक लोग) से बनाया है। अबुल-फजल गाजी ने मुगलों के वर्णन में मुगलों को भी आर्यवंश से बनाने की चेष्टा की है। काश्मीर से ऊपर के प्रदेश के लोग अपने नाम के पीछे खान की उपाधि इस्लाम के आने के पूर्व ही लगाने लग गए थे। फाहियान चीनी यात्री को ईदुलखां नाम का सरदार इस देश में मिला था जोकि बहुत दिन के बाद मुसलमान हुआ था। शायद सैन, चन्द और दत्त की भांति खान भी कोई शब्द था और यथासंभव सैन से जैसे सिंह की प्रथा चली थी वैसे ही सैन से भारत के उत्तर में बैन, खैन और खान बोलने और लिखने की प्रणाली पड़ गई। ज्यों-ज्यों उद्यान से ऊपर के जाटों का भारत के जाटों से सम्बन्ध कम होता जाता था, त्यों-ही-त्यों भाषा और व्यवहारों में भेद हो गया। हिन्दुकुश की ऊंची चोटियों ने पहले से ही अलग तो कर ही रखा था, किन्तु ई.पूर्व 600 वर्ष (साइरस के समय) से उन्हें संघर्ष में भी फंस जाना पड़ा। चीन में नित नये राजवंश खड़े होते थे। यूरोप में रक्त की नदियां बहाई जाती थीं। तुरूष्क देश के जाटों को चीन के आदिम निवासी, यूनान के नये विश्व-विजय के इच्छुक, पर्शिया में उदय होने वाले राजवंशों में सभी टक्कर लेनी पड़ी। ऐसे ही कारण थे कि सू आक्रमण के समय जहां व भारत से पूरे सम्बन्धित पाये जाते हैं चंगेजखां के उपद्रव के समय जो कि जाटों से भी आगे रहने वाले तातार देश का था, उनका भारत से कोई सम्बन्ध नहीं दिखाई देता है। ईसवी पूर्व 500 से भी पहले वे जेहून और जगजार्टिस को छोड़कर कास्पियन के दायें-बायें किनारे से जर्मनी की ओर बढ़ रहे थे। शेष जो डटे रहे थे, उन पर तातारियों की सभ्यता का धीरे-धीरे रंग चढ़ रहा था। किन्तु समय से पहले ही कुषाण-वंश ने प्रबलता धारण की और बौद्ध-धर्म का बोलबाला इनमें हो गया। किन्तु कुषाण वंश भी मध्य-एशिया में न ठहर सका। वह हिन्द की ओर बढ़ आया और अन्त में जो यह कश्मीर, गांधार और पेशावर तक आ पहुंचा। इस तरह से जाटों का जो उपनिवेश कास्पियन, जहून, हिन्दूकुश और जगजार्टिस के प्रदेश पर था, वह नष्ट हो गया। कुषाण नेता कीर्तिप्रकाश (कैडफाइसिस) के वंशज गांधार तक्षशिला के सिवाय अपने पूर्वजों की भूमि ब्रज (मथुरा) में आ गए। जेहून के आस-पास रहने वाले इस्लाम में शमिल हो गए।


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जर्मनी

जर्मनी में जो जाट पहुंचे उनका रास्ता या तो कास्पियन के दक्षिणी तटों से हो सकता है अथवा यूराल पहाड़ को पार करके हो सकता है। यह तो निश्चय है कि जर्मनी में जाटों का वह समूह गया जो पर्शिया के उत्तर में आबाद था अथवा जो जेहून नदी के किनारे बसता था। और यह दल उस समय से कुछ पहले ही जर्मनी पहुंच गया होगा जबकि स्कंधनाभ में पहुंचा था। श्री मैक्समूलर भी जर्मनी में आर्य रक्त स्वीकार करते हैं। कर्नल टाड कहते हैं -

‘‘घोड़े की पूजा जर्मनी में सू, कट्टी, सुजोम्बी और जेटी (जाट) नाम की जातियों ने फैलाई है, जिस भांति कि स्कंधनाभ में असि जाटों ने फैलाई।’’

टसीटस ने लिखा है कि - जर्मन लोग घोड़े की आकृति बनी हुई देखकर ही सिक्के का व्यवहार करते थे अन्यथा नहीं। यूरोप के असी जेटी लोग और भारत के अट्टी तक्षक जटी बुध को अपना पूर्वज मानकर पूजते थे। कर्नल टाड ने भारत के जाट और राजपूत तथा जर्मन लोगों की समानता के लिए निम्न दलीलें पेश की हैं -

चढ़ाई करने वालों और इन सब हिन्दू-सैनिक लोगों का धर्म बौद्ध-धर्म था। इसी से स्केण्डनेविया और जर्मन जातियों और राजपूतों की आचार, विचार, और देवता सम्बन्धी कथाओं की सदृश्यता और उनके वीररसात्मक काव्यों का मिलान करने से यह बात अधिक प्रमाणित हो जाती है।

जातीय स्वभाव और पहनावा टसीटस के लेखानुसार प्रत्येक जर्मन का बिस्तरे पर से उठकर स्नान करने का स्वभाव जर्मनी के शीतप्रधान देश का नहीं हो सकता, किन्तु यह पूर्वी देश का है और दूसरी रीति-नीति जातीय स्वभाव सीथियन, सुर्पवी, जरकटी, किम्प्री जाति के मिथ्या विश्वासों का हुआ होगा जो उसी नाम की जेटी जातियों के सदृश ही है जिनका वर्णन, हेरोडोटस, जस्टिन और स्ट्राबो ने किया है और जो व्यवहार राजपूत शाखा में अब तक विद्यमान है ।

अब हमें वह समानता मिलानी उचित है जो इतिहास से धर्म और आचार के विषय में पाई जाती है। सबसे प्रथम धर्म-विषयक समानता की आलोचना करते हैं। देववंश अथवा देवोत्पति - जर्मनियों के आदि देवता टुइसटों, मरक्यूरी (बुध) और आर्था (पृथ्वी) थे।

सुयोगी सुएवी (शैवी) जो स्कंधनाभ की जेटी जातियों मे सबसे अधिक बलिष्ठ जाति थी वह बहुत से सम्प्रदाय व जातियों में विभक्त हो गई


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जिनमें सेसू (यूचीजिट) अपनी बगीचियों में आर्था को बलि देते थे और आर्था का रथ एक गाय खींचती थी।

प्रसिद्ध इतिहास लेखक टसीटस कहता है कि पहले जर्मनी के लोग लंबे और ढीले कपड़े पहना करते थे। सवेरे बिस्तरे पर से उठते ही हाथ मुंह धो डालते थे। दाढ़ी-मूंछों के बाल कभी नहीं मुंडाते थे और सिर के बालों की एक वेणी बनाकर गुच्छे के समान मस्तक के ऊपर गांठ भी बांध लेते थे।

इसके अतिरिक्त इनके नित्य नैमित्यक कार्यों का जो वृत्तान्त पाया जाता है उससे विदित होता है कि कदाचित ये लोग शाक द्वीप के जिट, कठी, किम्बरी और शेवी एक ही वंश के हैं। यद्यपि टसीटस ने यह स्पष्ट नहीं लिखा कि जर्मनी की आदि निवास भूमि भारतवर्ष में थी परन्तु वह कहता है कि जिस जर्मनी में रहने से शरीर के प्रत्येक अंग विकल हो जाते हैं उस जर्मनी में बसने को ऐशिया के एक गर्म देश को छोड़ना क्या बुद्धिमानी का काम है? इससे यही निश्चय पूर्वक कहा जा सकता है कि एशिया का कोई देश उनका आदि स्थान था। और टसीटस को उसका वृतान्त विदित था। आर्य वीर राजपूत गण अपनी गृह-लक्ष्मियों के साथ जैसा श्रेष्ठ व्यवहार करते हैं प्राचीन जर्मनी वाले तथा स्कंधनाभ वाले और जाट लोग भी अपनी नारियों के साथ ठीक वैसा ही व्यवहार करते थे। जर्मनी और स्कंधनाभ, असी लोगों के वीरों का जट-कुल से उत्पन्न होने के प्रमाण उनकी सुरा-प्रियता का विचार करने से ही हो जाता है। (भारतीय जाट तो सुरा नहीं पीते थे। - ले.)


इतने प्रमाणों के बाद यह तो साबित हो ही जाता है कि जर्मनी में जाट पहुंचे और उन्होंने अपना उपनिवेश स्थापित किया। लेकिन कर्नल टाड ने यह साबित करने की चेष्ठा की है कि जाट इण्डो-सीथियन हैं और राजपूत उनका रूपान्तर हैं। इसमें हेराडोटस जैसे लेखकों ने जो कि भारत की अपेक्षा शाकद्वीप के जाटों से अधिक परिचित तथा सहमत हो कर यह भूल अवश्य की है कि जाट और राजपूतों की जन्म-भूमि भारत के बजाय ईरान अथवा आल्पस के किनारे को माना। इन बातों का हम पीछे वर्णन कर चुके हैं कि जाट चाहे संसार में कहीं भी मिलता हो, उसकी जड़ भारतवर्ष में है।

जर्मनी मे ये जाट समुदाय अपने अन्य समकक्ष क्षत्रिय दलों के साथ जैसा कि हम पहले लिख चुके हैं, ईसा के लगभग 500 वर्ष पहले पहुंचा था और यूरोप के अन्य देशों इटली, यूनान आदि पर जो उनके आक्रमणों का वर्णन यूरोपीय इतिहास में मिलता है उनमें पूर्वी-पश्चिमी दो नामों से प्रसिद्ध होने वाले जाट-दलों में अधिकांश स्कन्धनाभ और जर्मनी वाले ही शामिल थे। इसमें भी सन्देह नहीं कि जाट जिस किसी भी देश में गए, वहां पर उन्होंने उस देश की सभ्यता को नष्ट न किया, किन्तु जो अच्छी बातें थी, उनको उन्होंने ग्रहण कर लिया।


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वह अधिक झगड़ालू नहीं थे, किन्तु वे सीमा स्थापित करने और अपना स्वतंत्र राज्य बनाने के इच्छुक अवश्य थे। कहीं भी इन्होंने आलस्य का प्रचार नहीं किया। युद्ध के समय में वे सैनिक और शान्ति के समय में सुयोग्य शासक साबित होते थे। उन्होंने जितना हो सका, अपनी सभ्यता का भी यूरोप में प्रचार किया। कहा जाता है कि यूरोप वालों को भैसों से काम लेना जाटों ने ही सिखाया था। इसके अलावा तलवार की पूजा और सरदार के निर्वाचन की प्रथा एवं मुर्दो को जलाने की रिवाज का भी प्रचार किया। शैलश के किनारे जो स्तूप उन्होंने खड़ा किया था, वह इनकी कीर्ति का तो द्योतक है ही, साथ ही यह भी बताता है कि वे अपनी सभ्यता के प्रचारक और प्रेमी थे। ऐसा कहीं यूरोप के युद्धों में वर्णन नहीं मिलता कि जाटों ने पराजित देश के स्त्री, बच्चों तथा पुरूषों को दास बनाया हो अथवा उन्हें कत्ल किया हो। ईसाई धर्म के प्रबल अंधड़ में वह अवश्य ही भारत से बहुत दूर रहने के कारण देश-काल की परिस्थिति के अनुसार अपने पुराने वैदिक व बौद्ध-धर्म को ईसवी चौथी, पांचवी शताब्दी में छोड़ बैठे, किन्तु इसमें सन्देह नहीं कि उन्होंने भारत के सिर को इस बात के लिए ऊंचा कर दिया कि उसके पुत्रों ने जर्मनी जैसे प्रबल राष्ट्र पर बसन्ती झण्डा फहराया था और आज भी जर्मन नागरिकों के रूप में अपने देश का माथा ऊंचा कर रहे हैं।

रोम

रोम की ओर जाट (गाथ) लोगों ने 250 ई. से बढ़ना शुरू किया था यद्यपि जाट रोम से ईसवी सन् से पूर्व कई शताब्दी से परिचित थे और उन्होंने डेरियस के साथ ईसा से 500 वर्ष पहले रोम के पड़ोसी यूनान पर आक्रमण किया था। सिकन्दर का भी उन्होंने फारिस के मैदानों में मुकाबला किया था। रोम में कई बार में जाकर इन्होंने बस्तियां आबाद कर ली थीं। रोम उस मसय गृहकलह में भी फंसा हुआ था। वे उत्तम सैनिक तो थे ही, इसलिए आक्रमणों से पहले रोम की सेना में स्थान पा चुके थे।

374 ई. में मध्य-यूरोप के लोगों पर ऐशिया से आई हुई, बर्बर जाति के हूणों ने आक्रमण किया। नीस्टर नदी के पास भयंकर युद्ध के बाद जाटों को आगे बढ़ने को विवश होना पड़ा। रोम सम्राट वैलिन्स की सहमति से उन्होंने बालकन प्रायद्वीप में डेन्यूब नदी के किनारे अपना जनपद स्थापित किया और भारी संख्या में वहा बस गये। कुछ ही दिन के बाद रोम के सम्राट ने उन्हें निकालने के लिए छेड़-छाड़ आरम्भ कर दी। भला परिश्रम-पूर्वक आबाद किये हुए देश को वे कैसे छोड़ सकते थे। कशमकश यहां तक बढ़ी कि पूर्व मित्रता के भाव नष्ट हो गये और युद्ध छिड़ गया।

378 में सम्राट वेलिन्स ने रोमनों की एक बड़ी सेना के साथ गाथों (जाटों) पर


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आक्रमण कर दिया। बड़ा घमासान युद्ध हुआ। किन्तु एड्रियानोपल नगर के पास गाथों के एक घुड़सवार दल ने रोमन लोगों को करारी परास्त दी। रोमन भाग खड़े हुए। सम्राट सख्त घायल हुआ और युद्ध-भूमि में ही मारा गया। गाथों के नेता की भी इसी समय मृत्य हो गई। साथ ही प्लेग भी फैल गया। इससे वह अपनी विजय पर हर्ष उत्सव न मना सके।

सम्राट बेलिन्स के उत्तराधिकारी सम्राट थियोडोसियस ने भी शासन-भार हाथ में आते ही जाटों पर चढ़ाई की, किन्तु अन्त में उसे गाथों (जाटों) से सन्धि करनी पड़ी। इस सन्धि के अनुसार थ्रेस और एशियाई माइनर में बहुत सी भूमि उसे उनको देनी पड़ी। जाटों ने भी बदले में रोम को चालीस हजार सेना की सहायता देना स्वीकार किया। यद्यपि यह सेना रोम के अधीन समझी जाती थी, किन्तु उसके अफसर जाट ही थे। इससे सम्राट दिल में शंकित भी रहता था, पर जाटों ने ईमानदारीपूर्वक सन्धि को निभाया।

395 ई. में सम्राट थियोडोसियस मर गया। उसने अपने दो पुत्रों को अपना राज्य बांट दिया था। बड़ा पुत्र आर्केडियस पूर्वी भाग का मालिक था। राजधानी उसकी कॉस्टेन्टाइन थी। दूसरा पुत्र होनोरियस पच्छिमी भाग का अधिकारी हुआ और मिलन में राजधानी रखी। इस समय गाथ लोगों से दोनों सम्राटों का सम्बन्ध हो गया था। गाथों का प्रसिद्ध नेता एलरिक इस समय अधिक प्रसिद्ध था। उसने पहले तो रोम के पूर्वी भाग को जाटों से अधिकृत करने के अभिप्राय से चढ़ाई की किन्तु कान्स्टेण्टीनोपुल की सुदृढ़ दीवारों को उसकी सेना न भेद सकी। अतः उसने मिलन पर चढ़ाई की। होनोरियस सम्राट के बंडाल सेनापति स्टिलाइको से मुकाबला हुआ। विशेष तैयारी न होने के कारण एलरिक की हार हुई। किन्तु एलरिक हताश होने वाला व्यक्ति न था। सन् 408 ई. में दुबारा चढ़ाई कर दी। बादशाह ने कुछ वायदे उसके साथ ऐसे किये, जिससे उसे घेरा उठा लेना पड़ा। किन्तु बादशाह ने वायदे को पूरा न किया। इसलिये एलरिक ने तीसरी बार इटली को फिर घेर लिया। रोमन लोग हार गए, शहर पर जाटों का अधिकार हो गया। एलरिक ने इटली के दक्षिण भाग को भी विजय करने की इच्छा से चढ़ाई की, किन्तु वहां वह बीमार होकर मर गया। यद्यपि गाथ नेताविहीन हो गए थे, फिर भी दृढ़ रहे, और औटाल्फस (अतुलसैन) को अपना राजा बनाया। रोम का पूर्वी भाग ले सम्राट थियोडोसियस गाथों (जाटों) से बहुत डरा हुआ था। उसने गाथों से निश्चिन्त होनें के लिये यही उत्तम समझा कि अपनी लड़की की शादी (अटाल्फस) के साथ कर दी| इस तरह से जाट और रोमन्स लोगों का रक्त सम्बन्ध स्थापित हो गया।

यह रोमन लड़की बड़ी स्वजाति-भक्त थी, यद्यपि वह जाटों के घर में आ गई थी, किन्तु चाहती यही थी कि रोमन लोग जाटों से निर्भय हो जायें, इसलिये उसने गाथों को सलाह दी कि इटली से बाहर अपना साम्राज्य स्थापित करें।


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज,पृष्ठान्त-190


उसकी सलाह के अनुसार गाथों (जाटों) ने स्पेन और गाल के बीच अपना साम्राज्य स्थापित किया जो 300 वर्ष तक कायम रहा।

सन् 446 ई. में हूणों ने एटिला की अध्यक्षता में रोम का ध्वंश करते हुए गाल पर आक्रमण किया जो कि रोमन और गाथों का सम्मिलित प्रदेश था। इस समय रोमन और गाथों ने एटिला की सम्मिलित शक्ति के साथ मुकाबला किया, हूण हार गए और एटिला को निराश होना पड़ा।

यूरोप में जाटों (गाथों) को ट्यूटानिक जाति में (दल) गिना गया है। हमारी समझ में प्रजातंत्री अथवा शक्ति-सम्पन्न होने के कारण उन्हें यह नाम दिया गया है। तांत्रिक शब्द से भी ट्यूटानिक बन सकता है, इन ट्यूटानिक लोगों मे गाथ, फ्रेंक, डेन, ऐंगल तथा सैक्सन आदि हैं।


यह ट्यूटांनिक जातियां स्कंधनाभ और राइन प्रदेश मे बसी हुई बताई गई हैं। यहां से उठकार काला सागर और डेन्यूब में बसने वाले लोगों को गाथ (जाट) कहा गया है।

इन लोगों को प्रजातंत्री बताया गया है। स्थानीय झगड़ों का फैसला नगर के मुखिया लोग ही इनके यहां करते थे, ऐसा यूरोप वालों का कथन है। ग्रामों में पंचायतों और प्रान्त में जनसभा के द्वारा शासन करते थे। इनकी सभाओं में सरदार और नागरिक की राय का मूल्य बराबर था। इनके युवक लोग किसी सरदार के पास रहकर सैनिक-शिक्षा प्राप्त करते थे, इससे सरदारों और युवकों में घनिष्ठ सम्बन्ध रहता था। प्रायः एक-एक योद्धा के पास बीसियों युवक होते थे।

धर्म में यह प्रकृति के उपासक थे, ऐसा यूरोप वालों का अनुमान है। वे कहते हैं, ये वृक्षों और गुफाओं की भी पूजा करते थे।1 इनमें कोई अलग पुजारी-दल न था। प्रायः सभी लोग चौपाये पालते थे। खेती करना इन्हें बहुत पसन्द था और शिकार भी खेलते थे। ये लोग सटी हुई बस्तियां पसन्द करते थे। नगर दूर-दूर और खुले मैदान में बनाते थे। इस कारण स्वस्थ और बलवान रहते थे। इनके लम्बे कद, उज्जवल रंग, बलवान शरीर और सुर्ख चेहरे को देखकर रोमवालों पर बहुत प्रभाव पड़ा। लड़ने को तो ये अपना पेशा समझते थे, सत्यप्रियता के लिए बहुत प्रसिद्ध थे।

इटली के जाट पूर्वी गाथ कहलाते थे और स्पेन की ओर बसे हुए पश्चिमी गाथ के नाम से रोमन लोगों द्वारा पुकारे जाते थे। 489 ई. में पूर्वी गाथों के सरदार थियोडेरिक (देवदारूक) ने इटली पर आक्रमण किया। 4 वर्ष की निरन्तर लड़ाई के बाद इटली के तत्कालीन सम्राट औडोवकर ने इटली का आधा राज्य


1.ये ही बातें तो भारत के जाटों में हैं, वे पीपल और खेजड़ी को पूजते हैं। पुजारियों का दल तो भला उनके साथ विदेश जाता ही क्यों?


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देकर गाथों से सन्धि कर ली। थोड़े ही दिन बाद थियोडोरिक (देवदारूक) ने औडोवकर को मरवाकर सारी इटली पर गाथों का अधिकार जमा दिया। रोमन लोगों के साथ उसने सख्त व्यवहार न करके इन्हें इतना सुख दिया कि वे यह कहने लग गये कि खेद है कि

‘जाट इससे पूर्व ही हमारे यहां क्यों न आये।’

बड़े-बड़े पदों पर रोमनों को नियुक्त किया। नगर, सड़क, बाग-बगीचे, बनाए तथा सड़क और नहरों की मरम्मत कराई । कृषि और उद्योग-धन्धों की वृद्धि के लिए प्रोत्साहन दिया। तेतीस वर्ष के अपने राज्य-काल में उसने इटली को कुबेरपुरी बना दिया। इसके अलावा पड़ोसी जर्मनी से विवाह सम्बन्ध करके सम्राज्य की नींव को और भी मजबूत किया। इतने अच्छे जाट सरदार की 526 ई. में मृत्यु हो गई। इससे जाट (गाथ) और रोमन सभी को बड़ा दुःख हुआ। इटली के पूर्वी गाथों का यह सबसे बड़ा और लोकप्रिय सरदार था। उसके बाद सन् 553 तक उसके वंशजों के हाथ में इटली का राज्य रहा। इसी सन् में उनके हाथ से रोमन सम्राट जस्टिनियन ने इटली का राज्य छीन लिया।

पश्चिम के जाट लोगों ने दक्षिणी गाल और स्पेन पर अधिकार कर लिया था, यह पीछे लिखा जा चुका है। आठवी शताब्दी तक उन्होंने वहां बड़ी निर्भयता और सफलता के साथ शासन किया। बीच में फ्रेंक राजाओं से उन्हें युद्ध करने पड़े थे और हानि भी रही थी। किन्तु मेरेसिन लोगों ने आठवीं शताब्दी के मध्य में प्रबल आक्रमणों से उनके राज्य का अन्त कर दिया। इस तरह रोम से जाटों का साम्राज्य जाता रहा। किन्तु उन्होंने आशा को न छोड़ा इस समय के स्पेनिश में केल्ट, रोमन गोथ तथा मूर कई जातियों का मेल है। जस्टिनियन ने गाथों से इटली के पूर्वी-पच्छिमी हिस्से की जीतने के बाद अन्य देशों पर भी चढ़ाइयां कीं, साथ ही बहुत सी इमारतें बनवा डालीं, जिससे उसका खजाना खाली हो गया। प्रजा में आर्थिक कष्ट बढ़ जाने से लोग जाटों के राज्य की याद करने लगे। इस असन्तोष से लाभ उठाने का गाथों ने फिर एक बार प्रयत्न किया और टोटिला (तोतिला) नाम से एक वीर सरदार की अध्यक्षता में इटली पर आक्रमण किया। टोटिला बड़ा न्यायी और वीर था, 538 ई. में उसने कई लड़ाइयों के बाद इटली पर फिर जाटों का अधिकार कर दिया। 14 वर्ष तक गाथ लोगों का सितारा इटली में चमकता रहा। 552 ई. में उनके विरूद्ध रोमनों ने फिर से तलवार उठाई। टोटिला बड़ी बहादुरी के साथ लड़ा, उसके बहुत से घाव आये जिनके कारण थोड़े ही दिनों में वह इस संसार से चल बसा। गाथ लोग फिर भी कई बार रोमनों से लड़े, किन्तु बार-बार के युद्धों के कारण उन्हें इटली छोड़ना पड़ा। और आल्पस को पार कर के पश्चिमी जाटों में जा मिले। इटली में उनका कुछ भी अस्तित्व न रह गया ।


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उस समय यूरोप में एक नया धर्म खड़ा हुआ था जिसका नाम महात्मा ‘यीशु’ के नाम पर ईसाई धर्म था। इस धर्म के प्रति यीशु को फांसी के पश्चात् लोगों के हृदय में सहानुभूति पैदा हो गई थी। इसके सिद्धान्त भी बौद्ध-धर्म से मिलते-जुलते थे। इसलिये गाथों पर भी जो कि अपनी मातृ-भूमि भारत से सदियों तक दूर हो चुके थे, ईसाई धर्म का प्रभाव पड़ गया और वे बारहवीं सदी तक सबके सब ईसाई हो गये। यदि भारतीय उपदेशक पौराणिक-धर्म की आज्ञा के प्रतिकूल विदेश-यात्रा करते रहते, तो बहुत सम्भव था, कि भारत से गई हुई जाट, कट्टी, सुऐवी, स्लाव, जातियां ईसाई न हुई होतीं। यूरोप के इतिहास में लिखा हुआ है कि गाथ तथा बण्डाल पहले आर्यन मत के अनुयायी थे।

नौवीं सदी तक गाथ, बरगंडी आदि जातियां अपनी पुरानी भाषा को भी भूल गई थीं। अपराध की जांच के लिए वे अग्नि-परीक्षा और जल-परीक्षा लिया करते थे। गर्म तवे अथवा जल में हाथ डलवा कर, अपराध जानने की उनमे वैसी ही प्रथा थी, जैसी कि भारत में थी।

स्पेन, गाल

यह पीछे लिखा जा चुका है कि थियोडोसियस की पुत्री के साथ अटाल्फस जाट नेता के शादी कर लेने पर उन्होंने स्पेन और गाल के प्रदेशों पर जाकर कब्जा कर लिया था। हूणों ने भी इस प्रान्त पर चढ़ाई की थी, किन्तु वे असफल लौटे थे। सन् 711 ई. में तरीक की अध्यक्षता में मुसलमानो ने स्पेन के गाथ लोगों पर चढ़ाई की, उस समय उनका नेता रोडरिक (रूद्र) था, वह युद्ध में हार गया और बर्बर अरबों का स्पेन और गाल पर अधिकार हो गया।1

जटलेंड : इस देश में स्कंधनाभ के जाट गए थे और इनके सरदार जिनके साथ यहां से अन्य देशों में पहुंचे थे, हेंगिस्ट और होरसा नाम के दो महान वीर थे। ये जटलेंड में असिवंश से मशहूर हुए थे।

स्काटलेंड : यहां होरसा और हेंगिस्ट के साथ अनेक जाट समूहों ने सागर पार करके प्रवेश किया था। कहा ऐसे जाता है कि यूरोप के सभी देशों में ट्रांसकोसियाना से जाट फैले हैं।

समोस द्वीप : यह द्वीप एजियन सागर में है। एशियाई रोम के ठीक पच्छिमी किनारे पर बसा हुआ है। यहां जो जाट समूह गया था, वह क्षौथी (Xuthi) कहलाता था। क्रुक साहब ने ‘ट्राइब्स एन्ड कास्टस आफ दी नार्थ वेस्टर्न


1. रोम, स्पेन और गाल के जाटों का प्रायः सारा वर्णन रामकिशोर मालवीय के यूरोप के इतिहास के आधार पर किया है।


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प्राविन्शेज एन्ड अवध’ नामक पुस्तक में लिखा है -

"Their course from the Oxus to Indus may, perhaps, be dimly traced in the Xuthi of, Dianosius of Samos and the Xuthi of Ptolemy who occupied the Karmanian desert on the frontier of Drangiana."

इसी बात को जनरल कनिंघम साहब ने अपनी तवारीख में इस भांति लिखा है -

"Xuthi of Dianosius of Samos were Jatii or Jats, who are coupled with the Ariene and in the Xuthi of Ptolemy, who occupied the Karmanian desert on the frontier of Drangiana. (Cunningham Vol.II P.55)

अर्थात् - सामोस के डाईनीसीअस के क्षूति जटी या जाट थे जो ऐर्रानी से टोलेमी के जूथी में मिल गए, जिन्होंने ड्रेनजिआना के सीमांत के करमानिया के ऊपर अधिकार कर लिया।

टर्की और सीरिया

Middle East Countries Map.jpg

टर्की और सीरिया की सीमा पर खानकेस स्थान है उसमें जिप्सी नाम की जाति अब तक पाई जाती है जो कि जाट का रूपांतर है।

"Jats expelled to Khani Kin on the Turkish Frontier and to the Frontier of Syria (H.P. Vol.II P.79)

मिस्त्र के एक हिस्से ईजिप्ट का नाम जिप्सी नाम के जाटों के बसने के कारण पड़ा है। ऐसा कहा जाता है कि खानकेस स्थान से ही ईजिप्ट में यह लोग पहुंचे थे।

ग्रीस

विश्व विजय सिकन्दर के देश ग्रीस में भी जाटों ने अपना उपनिवेश स्थापित किया था, यद्यपि इस समय ग्रीस में उनका अस्तित्व नहीं पाया जाता, किन्तु उसके मोरिया (Morea) के निकट ज्यूटी (Zouti) द्वीप के निवासी जाटों के उत्तराधिकारी हैं।

अरब

सीरिया अरब का पड़ोसी देश हैं। रोम भी अरब से अधिक दूर नहीं । जब इन देशों में जाट पहुंच चुके थे तो यह कैसे हो सकता था, कि वे अरब न पहुंचते ? कुछ लोगों का तो अनुमान है कि अरब का कुरेश खानदान भारतीय है। कौरवों की सन्तान के लोग कौरवेश कहलाते थे। कौरवेश शब्द से कुरेश बन जाना कठिन नहीं है। हमें यहां केवल जाटों के ही सम्बन्ध की चर्चा करनी है। अरबी लोग जाटों को जटजत नाम से पुकारते थे। उन्हें जाटों के सम्बन्ध में प्लिनी और टोलेमी


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आदि यूरोपियन लेखकों की भांति जाटों के सम्बन्ध में यह भ्रम न हुआ कि उन का आदि निकास शाकद्वीप है। वे जाटों के सम्बन्ध में जानते थे कि वे भारतीय हैं। यही नहीं, किन्तु जाटों से सम्बन्ध होने के कारण वे सारे हिन्दुओं को जाट नाम से पुकारते थे।1

हजरत मुहम्मद के साथ भी जाट रहते थे, ऐसे एक हदीस के लेख में वर्णन है। अब्दुल्लाह बिनमसउद सहाबीव ने हजरत मुहम्मद के साथ जाटों को देखा था। ‘तिरमिजी अबवाबवुल इम्लास’ अरबी ग्रन्थ के आधार पर मौलाना सैयद सुलेमान नदवी साहब ने भी ‘अरब और भारत के सम्बन्ध’ पर व्याख्यान देते हुए इस बात का जिक्र किया है। हम मसऊद सहाबी के उपदेशों पर जब ध्यान देते हैं तो पता चलता है कि मसऊद सहाबी के उपदेशों पर भी भारतीय धर्म का रंग था और वह भी बौद्ध-धर्म का, क्योंकि गोश्तखोरी की सहाबी ने कड़ी भर्त्सना की है। यह प्रभाव उन पर बौद्ध-जाटों का पड़ा हो तो अचंभे की कोई बात नहीं है। हजरत मुहम्मद साहब ने अपनी रक्षा के लिए इन लोगों से मदद ली होगी, क्योंकि आरम्भ में अरब लोग उनके खूब विरूद्ध थे। नदवी साहब ने लिखा है

‘कि ये बहादुर जाट लोग वहां का रूख देखकर कुछ शर्तो के साथ आकार मुलमानों के लश्कर में मिल गये। मुसलमान सेनापति ने इनकी खूब प्रतिष्ठा की।’

इजरत अली ने जो कि इस्लाम में एक महावीर समझे जाते हैं, बसरे के खजाने की रक्षा के लिए जमल वाले युद्ध के समय इन्हीं रणवांके जाटों को नियुक्त किया था।2


अमीर मुआविया का जब रूमियों के साथ युद्ध छिड़ा और रोमन लोग उन्हें दुर्धर्ष दिखाई दिए तो अरब की रक्षा के लिए उन्होंने जाटों का सहारा लिया और उन्हें शाम देश के समुद्र-तट के नगरों में बसाया ताकि वे रामनों का सामना करते रहें। वलीद बिन अब्दुलमलिक ने भी उनके सहारे से अरब को दुश्मनों के आक्रमण से बचाए रखने के लिए कुछ जाट समूहों को अन्ताकिया में आबाद किया।3


अरब लोग अपने शत्रुओं-काफिरों-यहूदियों की औरतों को भी लूटते थे। लूट का माल और स्त्रियां सैनिकों में बांटी जाती थीं। यहूदिन स्त्रियां खूबसूरती के लिए मशहूर हैं। अरब किसी को अपने मजहब में शामिल करने के बाद स्त्रियां देने को तैयार रहते थे। अरब स्त्रियां भी खूबसूरती में श्रेष्ठ होती हैं। लूट का भाग और समानता का व्यवहार तथा यहूदी और कुरेश स्त्रियों के सौन्दर्य के लोभ ने जाटों


1. भारत के देशी राज्य और मुगल साम्राज्य का क्षय और उसके कारण नामक ग्रन्थ देखो।
2. तारीखे तबरी।
3. बिलाजुरी, असावरा का वर्णन।


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को इस्लाम की ओर आकर्षित कर लिया और वे अपने वैदिक व बौद्ध-धर्म के बजाय इस्लाम में दीक्षित हो गए। भारत की संतान ने अरब में - उस अरब में जहां के योद्धा भारत की ओर बढ़े थे यह प्रमाणित कर दिया कि उसके पुत्र अरबों से कहीं अधिक योद्धा और वीर होते हैं। यही कारण था कि हजरत मुहम्मद अली कुआबिया आदि को उनकी सहायता लेनी पड़ी। इसके आगे नदवी साहब कहते है कि - बहुत ही प्रामाणिक साधन से उनके विद्या सम्बन्धी कार्यो का भी पता चलता है। इमाम बुखारी (मृत्यु सन् 1256 ई.) ने अपनी ‘किताबुल अदबुल मुफरद’ नामक पुस्तक में मुहम्मद साहब के समकालीन लागों के समय की एक घटना लिखी है, जिसमें यह बताया है कि एक बार श्रीमती आयशा (मुहम्मद साहब की दूसरी पत्नी) जब बीमार हुई थीं, तब उनके भतीजों ने एक जाट-चिकित्सक को उनकी चिकित्सा करने के लिए बुलाया था


अरब के प्रदेश में भारत से जाट जहाज और नौकाओं द्वारा भी जाते रहते थे। बौद्ध-जातकों में जहाजों की बनावट, प्रकार और चाल का वर्णन है। अभिधान जातक में जाटों के सम्बन्ध में वर्णन है। सिंध के देवल बन्दरगाह पर अरब और ईरान की खाड़ी के जहाज उतरा करते थे। बाना और हिरात के समीप के जाट अपने धर्म की रक्षा के लिए ईरान की खाड़ी से जहाजों द्वारा ही अपने देश में आए थे। सिंध देश से कपास, मिर्च, ऊन, जाट लोग अरब के परवर्ती देशों में पहुंचाया करते थे।

सिकन्दर जब भारत से जाने लगा था मसकसैन (मुशिकन) ने उसको सिंधु नदी में चलने के लिए नावें दी थीं। समुद्र में चलने के बड़े जहाजों के जंघाला, वेगिनी, गत्वरा, दीर्घिका आदि नाम होते थे। सबसे बड़ा वेगिनी और सबसे छोटा दीर्घिका होता था। वेगिनी जहाज का आकार 176 हाथ लंबा, 22 हाथ चौड़ा, 17.3/5 ऊंचा और दीर्घका का आकार लम्बाई 32 क्यू., चौड़ाई 4 क्यू., उंचाई 3.1/5 क्यू. होती थी। इनके अलावा जहाजों के अनेक नाम होते थे। मन्दरा जहाज में कमरी सबसे अच्छा होता था। उसमें युद्ध-संबंधी तथा शाही सामग्री भेजी जाया करती थी, मध्य मन्दिरा में राजा लोग यात्रा करते थे। इन जहाजों के सम्बन्ध में लिखा है ‘‘चिरप्रवासयात्रायां रणकाले घनात्यये’’ चिर-प्रवास और युद्ध के समय तथा वर्षा के समय तथा वर्षा के समय ये जहाज काम में आते हैं। श्री सी. डेनियल की ‘इन्डस्ट्रियल कम्पटीशन आफ एशिया’ नामक पुस्तक में लिखा है कि भारत का व्यापार रोम के साथ एक बार इतना बढ़ गया कि प्लिनी को बड़ा दुःख हुआ कि प्रायः 70000 पौंड रोम से भारत ले लेता है। असीरिया के डा. सेस का कथन है कि भारत और


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बैबलोन का व्यापारिक संबंध ईसा से हजारों वर्ष पहले से था। प्लिनी ने जाटों के सम्बन्ध में बहुत कुछ लिखा है। एक समय रोम की बागडोर इनके हाथ में थी। असीरिया को भारत के असि जाटों ने ही आबाद किया थासिंध में नदियों के किनारे खश खूब होता था। वहां के निवासी जाट राज्यों व अन्य राज्यों के लोगों से इत्र निकलवा कर भी विदेशों में भेजते थे। नाविक अथवा जलयुद्ध में जाट खूब निपुण थे, इसका प्रमाण 1026 ई. में चार हजार नावें लेकर महमूद गजनबी के साथ भिड़ने की कथा में हमें तारीख फरिश्ता में मिलता है।

रोम के लिए जाते समय जाट अवश्य ही अरब को छूते जाते होंगे। किन्तु ऐसा मालूम होता है कि सिकन्दर के आक्रमण के बाद से जाटों का रोम जाना बन्द हो गया था, क्योंकि भारत में उससे कुछ ही काल बाद आन्तरिक संघर्ष चल निकला था। बाहर के लोग सिंध को चीन का सूबा समझा करते थे। किन्तु यह उनकी भूल है। इसीलिए उन्होंने जाटों के विषय में शायद यह जानते हुए भी कि वे सिंध में रहते हैं, उनके होने के वर्णन जैहून नदी और ईरान में किये हैं, अस्तु।

हमें बताना था कि जाटों ने, जिनकी मूलभूमि सप्तसिंधु देश है, एशिया ही नहीं, प्रत्युत सारे भूमंडल पर अपने उपनिवेश स्थापित किए थे। इसमें भी कोई सन्देह नहीं कि यदि ईसाइयत और इस्लामियत का जन्म न हुआ होता, तो आज जमुना-गंगा से लेकर जेहूना, जगजार्टिस, आक्सस, मारगस, वान, हिरात, राइन, डान्यूब, कुभा नदियों के किनारे जाट ही जाट नजर आते। बीकानेर और मारवाड़ में यदि आज उन्होंने रेत के टीलों के नीचे जल-शून्य स्थान में चहल-पहल मचा रखी है, फिर क्या कारण था कि वे अरब के रेतीले मैदानों में कुरेश और यहूदियों से सम्बन्ध करते रहने पर भी जाट के रूप में नजर नहीं आते। किन्तु पौराणिक धर्म की संकुचित और ईसाइयत तथा इस्लाम की सर्वग्रासी नीति ने यह इतिहास में लिखने भर की बात रहने दी है। मजहबों के कारण रक्त-सम्बन्ध बिलकुल ढीला हो गया। ईरान के रजाशाह पहलवी हैं जो कि भारतीय मजहब के हैं किन्तु धर्मो की विभिन्नता ने न तो भारतियों के हृदय में यह अभिमान रहने दिया कि वे हमारे हैं न रजाशाह को पता है कि भारत के क्षत्रियों के साथ हमारा भी कोई सम्बन्ध है।

हम में से अनेक ऐसे हैं जो प्रमाणों के होते हुए भी इस बात से इनकार करने को तैयार हैं कि जर्मन, स्कन्ध अथवा अनेक तुरक जाट हैं। रक्त की घनिष्ठता को मजहबों ने अलग-अलग कर दिया। धर्मान्धता में एलविक, टाटिला आदि महावीरों के ईसाई होने तथा अरब के जाटों के मुसलमान हो जाने के कारण हममें से अनेक घृणा प्रकट तो कर देंगे किन्तु, उनकी वीरता की प्रशंसा करने में हिचकेंगे और केवल इस कारण से कि वे ईसाई या मुसलमान हो गए हैं। यही क्यों, उन्हें अपना भाई मानने से भी इनकार कर देंगे।


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जाटों के लिए यह महान् गौरव की बात है कि उन्होंने विदेशों में उपनिवेश स्थापित किए। और कर्नल टाड के शब्दों में यह रोने की बात है कि जिन जित वीरों के पराक्रम से एक दिन आधा ऐशिया हिल गया था, आज उनके वंशधर पंजाब और राजपूताने में खेती करते हुए पाए जाते हैं।

जाटों ने जहां उपनिवेश स्थापित किए, वहां की सभ्यता को नष्ट न करके उसे प्रोत्साहन दिया। रोम के लोग उनसे डरते थे, किन्तु उन्हें पीछे जाटों का राज्य इतना अच्छा लगा कि वे बहुत समय तक उसे याद किया करते थे। एल्व के किनारे का स्तूप और डेरियस की सहायता को हाथी और रथ भेजने के वर्णन उनके समृद्धिशाली और योग्य शासक होने के लक्षण हैं। उन्होंने कहीं भी कर भार से प्रजा को पीड़ित नहीं किया।

जो जाति एक समय उत्तरी भारत के भी आधे ही भाग में निर्वाह कर लेती थी, उसने एशिया यूरोप दोनों महाद्वीपों को ही नहीं अफ्रीका में भी अपने उपनिवेश कायम किए। यह बात जाटों के अदम्य उत्साह और साहस की द्योतक है।

जाट प्रजातंत्री थे। इस शासन-नीति को उन्होंने भारत में ही एक लम्बे अर्से तक निभाया हो, यही बात नहीं है, किन्तु भारत से बाहर भी इसी नियम के अनुसार उन्होंने शासन किया। अपने निर्वाचित सरदार की आज्ञा में चलकर उन्होंने जहां अन्य देशों में भूमि अधिकृत की है, वहां अपने सिद्धान्तों का भी प्रचार किया। यज्ञ करना, प्रातः स्नान करना, दृढ़प्रतिज्ञ होना, खुले मैदानों में बस्तियों का बनाना। घोड़ों पर चढ़ने का शौक जहां जाटों ने अन्य देशों को सिखाया है, वहां ही एक हाथ में तलवार और एक में खुरपा रखने की नीति को भी सिखाया है। उन्होंने विजित देश को तबाह किया, स्त्री बच्चों को गुलाम बनाया ऐसे वर्णन उनके किसी भी देश के इतिहास में नहीं मिलते हैं। यही कारण थे कि उन्होंने विदेशों में उपनिवेश कायम कर लिए, क्योंकि वे इसके सर्वथा योग्य भी तो थे।


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षष्ठ अध्याय समाप्त

नोट - इस पुस्तक में दिए गए चित्र मूल पुस्तक के भाग नहीं हैं. ये चित्र विषय को रुचिकर बनाने के लिए जाटलैंड चित्र-वीथी से लिए गए हैं.


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