Folk deities and Goddesses of Rajasthan

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भारतवर्ष के हर राज्य में लोक देवताओं और देवियों का महत्वपूर्ण स्थान है. राजस्थान में लोक देवियों के प्रति बडी आस्था और मान्यता है. प्रत्येक अंचल में उनका अपना विशेष प्रभाव है तथा इनकी पूजा व्यापक तौर पर होती है. हर ख़ुशी के मौके पर यथा जन्म, शादी-ब्याह, मुंडन, आदि में इन लोक देवताओं और देवियां को याद किया जाता है. गाँव गाँव में इनके थान बने हुए हैं. रोगों से मुक्ति पाने के लिए मनौतियाँ बोली जाती हैं, उनके थान पर फेरी लगाई जाती हैं तथा इनके नाम के धागे बांधे जाते हैं.

राजस्थान के प्रमुख लोक देवता

तेजाजी

Main article: तेजाजी

तेजाजी के जन्म स्थान खरनाल में तेजाजी का मंदिर

तेजाजी मुख्यत: राजस्थान के लेकिन उतने ही उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, गुजरात और कुछ हद तक पंजाब के भी लोक-नायक हैं।राजस्थानी का ‘तेजा’ लोक-गीत तो इनमें शामिल है ही। वे इन प्रदेशों के सभी समुदायों के आराध्य हैं। तेजाजी का जन्म राजस्थान के नागौर जिले में खरनाल गाँव में माघ शुक्ला, चौदस वार गुरुवार संवत ग्यारह सौ तीस, तदनुसार २९ जनवरी, १०७४, को धुलिया गोत्र के जाट परिवार में हुआ था। उनके पिता चौधरी ताहरजी (थिरराज) राजस्थान के नागौर जिले के खरनाल गाँव के मुखिया थे।

लोग तेजाजी के मन्दिरों में जाकर पूजा-अर्चना करते हैं और दूसरी मन्नतों के साथ-साथ सर्प-दंश से होने वाली मृत्यु के प्रति अभय भी प्राप्त करते हैं। स्वयं तेजाजी की मृत्यु, जैसा कि उनके आख्यान से विदित होता है, सर्प-दंश से ही हुई थी। बचनबद्धता का पालन करने के लिए तेजाजी ने स्वयं को एक सर्प के सम्मुख प्रस्तुत कर दिया था। वे युद्ध भूमि से आए थे और उनके शरीर का कोई भी हिस्सा हथियार की मार से अक्षत्‌ नहीं था। घावों से भरे शरीर पर अपना दंश रखन को सर्प को ठौर नजर नहीं आई, तो उसने काटने से इन्कार कर दिया। वचन-भंग होता देख घायल तेजाजी ने अपना मुँह खोल कर जीभ सर्प के सामने फैला दी थी और सर्प ने उसी पर अपना दंश रख कर उनके प्राण हर लिए थे। तेजाजी का निर्वाण दिवस भादवा सुदी १० संवत ११६०, तदानुसार २८ अगस्त ११०३, माना जाता है ।

वीर बिग्गाजी

वीर बिग्गाजी

Main article: Bigga Ji Jakhar

राजस्थान के वर्तमान चुरू जिले में स्थित गाँव बिग्गा व रिड़ी में जाखड़ जाटों का भोमिचारा था और लंबे समय तक जाखड़ों का इन पर अधिकार बना रहा. बिग्गाजी का जन्म विक्रम संवत 1358 (१३०१) में रिड़ी में हुआ रहा. बिग्गाजी ने सन १३३६ में गायों की डाकुओं से रक्षा करने में अपने प्राण दांव पर लगा दिये थे. ऐसी लोक कथा प्रचलित है कि बिग्गाजी १३३६ में अपनी ससुराल में साले की शादी में गए हुए थे. रात्रि विश्राम के बाद सुबह खाने के समय मिश्रा ब्राहमणों की कुछ औरतें आई और बिग्गाजी से सहायता की गुहार की. बिग्गाजी ने कहा "धर्म रक्षक क्षत्रियों को नारी के आंसू देखने की आदत नहीं है. आप अपनी समस्या बताइए." मिश्रा ब्राहमणियों ने अपना दुखड़ा सुनाया कि यहाँ के राठ मुसलामानों ने हमारी सारी गायों को छीन लिया है. वे उनको लेकर जंगल की और गए हैं. कृपा करके हमारी गायों को छुड़ाओ. वहीं से बिग्गाजी अपने लश्कर के साथ गायों को छुडाने के लिए चल पड़े. मालसर से ३५ कोस दूर जेतारण में बिग्गाजी का राठों से मुकाबला हुआ. लुटेरे संख्या में कहीं अधिक थे. दोनों में घोर युद्ध हुआ. काफी संख्या में राठों के सर काट दिए गए. वहां पर इतना रक्त बहा कि धरती खून से लाल हो गई. जब लगभग सभी गायों को वापिस चलाने का काम पूरा होने ही वाला था कि एक राठ ने धोके से आकर पीछे से बिग्गाजी का सर धड़ से अलग कर दिया. आशोज शुक्ला त्रयोदशी को बिग्गाजी ने देवता होने का सबूत दिया था. वहां पर उनका चबूतरा बना हुआ है. उसी दिन से वहां पर पूजापाठ होने लगी. बिग्गाजी १३३६ में वीरगति को प्राप्त हुए थे. इस स्थान पर एक बड़ा भारी मेला लगता है. लोगों में मान्यता है कि गायों में किसी प्रकार की बीमारी होने पर बिग्गाजी के नाम की मोली गाय के गले में बांधने से सभी रोग ठीक हो जाते हैं. बिग्गाजी के उपासक त्रयोदसी को घी बिलोवना नहीं करते हैं तथा उस दिन जागरण करते हैं और बिग्गाजी के गीत गाते हैं. इसकी याद में भादवा सुदी १३ को ग्राम बिग्गा व रिड़ी में स्थापित बिग्गाजी के मंदिरों में मेले भरते हैं जहाँ हरियाणा, गंगानगर तथा अन्य विभिन्न स्थानों से आए भक्तों द्वारा सृद्धा के साथ बिग्गाजी की पूजा की जाती है.

गोगाजी

वीर गोगाजी

Main article: गोगाजी

चौहान वीर गोगाजी का जन्म विक्रम संवत १००३ में चुरू जिले के ददरेवा गाँव में हुआ था. उनके पिता का नाम जेवर सिंह तथा माता का नाम बाछल था. उनका विवाह कोलुमण्द की राजकुमारी केलमदे के साथ होना तय हुआ था किन्तु विवाह होने से पहले ही केलमदे को एक सांप ने डस लिया. इससे गोगाजी कुपित हो गए और मन्त्र पढ़ने लगे. मन्त्र की शक्ति से नाग तेल की कढाई में आकर मरने लगे. तब नागों के राजा ने आकर गोगाजी से माफ़ी मांगी तथा केलमदे का जहर चूस लिया. इस पर गोगाजी शांत हो गए. गोगाजी एक युद्ध में शहीद हुए थे. जिस स्थान पर उनका शारीर गिरा था उसे गोगामेडी कहते हैं. यह स्थान हनुमानगढ़ जिले की नोहर तहसील में है. इसके पास में ही गोरखटील है तथा नाथ संप्रदाय का विशाल मंदिर स्थित है. आज भी सर्पदंश से मुक्ति के लिए गोगाजी की पूजा की जाती है. गोगाजी के प्रतीक के रूप में पत्थर या लकडी पर सर्प मूर्ती उत्कीर्ण की जाती है. लोक धारणा है कि सर्प दंश से प्रभावित व्यक्ति को यदि गोगाजी की मेडी तक लाया जाये तो वह व्यक्ति सर्प विष से मुक्त हो जाता है. भादवा माह के शुक्ल पक्ष तथा कृष्ण पक्ष की नवमियों को गोगाजी की स्मृति में मेला लगता है. उत्तर प्रदेश में इन्हें जहर पीर तथा मुसल मान इन्हें गोगा पीर कहते हैं. (सन्दर्भ - डॉ मोहन लाल गुप्ता:राजस्थान ज्ञान कोष, वर्ष २००८, राजस्थानी ग्रंथागार जोधपुर, पृ. ४७३ )

बाबा रामदेव

बाबा रामदेव का जन्म जैसलमेर जिले के पोकरण के पास रूणीचा गाँव में हुआ था. इनका जन्म काल संवत १४०९ से १४६२ के मध्य माना जाता है. इनके पिता तंवर क्षेत्रीय थे. उनका नाम अजमाल था. माता का नाम मैणादे था. रामदेवजी ने बाल्यावस्था में ही सातलमेर में तांत्रिक भैरव का वध कर उसका आतंक समाप्त किया था. उनका विवाह अमर कोट के सोढा राजपूत दले सिंह की पुत्री नेतलदे के साथ हुआ. राम देव सब मनुष्यों को बराबर मानते थे तथा मूर्ती पूजा और तीर्थ यात्रा को व्यर्थ मानते थे. उन्होंने मुसलमान बन गए हिन्दुओं का शुद्धि का काम आरम्भ किया था. वे जाति प्रथा का विरोध करते थे. राम देव जी ने कामडिया पंथ आरम्भ किया जिसमें उच्च और अछूत जातियों के सदस्य सम्मिलित हुए . उनकी समाधी राम देवरा गाँव में है. यहाँ प्रति वर्ष भादवा के शुक्ल पक्ष की द्वितीया को मेला लगता है. राम देव जी के पगलिये गाँव-गाँव में पूजे जाते हैं. बीकानेर तथा जैसलमेर जिलों में राम देव जी की फड़ बांची जाती है. इनके भक्त तेरह ताली नृत्य करते हैं. (सन्दर्भ - डॉ मोहन लाल गुप्ता:राजस्थान ज्ञान कोष, वर्ष २००८, राजस्थानी ग्रंथागार जोधपुर, पृ. ४७४)

पाबूजी

पाबूजी राठोड़ ऊँटों के देवता माने जाते हैं. इनकी मनौती मनाने पर ऊँटों की बीमारी दूर हो जाती है. इनका जन्म संवत १३१३ में जोधपुर जिले की फलौदी तहसील के कोलू ठिकाने में हुआ. इनके पिता का नाम घांघल जी राठोड़ था. वे कालू दुर्ग के दुर्गपति थे. पाबूजी का विवाह अमरकोट के सोढा राणा सूरज मल की पुत्री के साथ हुआ. विवाह के तुंरत बाद दूदा सूमरा ने अमरकोट पर हमला कर दिया. उसके सिपाही गायों को ले भागे. पाबूजी ने तुंरत सूमरा को जा घेरा और युद्ध के लिए ललकरा. घमासान युद्ध में गायें तो छुड़ाली पर पाबूजी वीर गति को प्राप्त हुए. उन्हें लक्षमण जी का अवतार माना जाता है तथा भाला लिए अश्वरोही के रूप में अंकित किया जाता है. पाबूजी के यशगान में पावड़े गाये जाते हैं तथा मनौती पूर्ण होने पर फड़ गाई जाती है. पाबूजी की फाड़ राजस्थान में बहुत विख्यात है. (सन्दर्भ - डॉ मोहन लाल गुप्ता:राजस्थान ज्ञान कोष, वर्ष २००८, राजस्थानी ग्रंथागार जोधपुर, पृ. ४७३)

आलमजी

ये जीतमल राठोड़ थे. बाड़मेर जिले के मालाणी प्रदेश में लूणी नदी के किनारे स्थित राड़धरा क्षेत्र में इन्हें लोक देवता के रूप में पूजा जाता है. ढांगी नाम के रेतीले टीले पर इनका स्थान बना हुआ है जिसे आलमजी का धोरा भी कहते हैं. यहाँ भादवा के शुक्ल पक्ष की द्वितीया को मेला भी भरता है. इनके बारे में एक दोहा भी कहा जाता है:

धर ढांगी आलम धणी, परघळ लूणी पास ।
लिख्यो जिणने लाभसी, राड़धरो रहवास ।।

(सन्दर्भ - डॉ मोहन लाल गुप्ता:राजस्थान ज्ञान कोष, वर्ष २००८, राजस्थानी ग्रंथागार जोधपुर, पृ. ४७३ )

देवनारायण

देवनारायण नागवंशी गुर्जर बगडावत वंश के थे. उनका जन्म विक्रम संवत १३०० में पिता सवाई भोज के घर में माता सेडू (सोढी) खटाणी के गर्भ से हुआ था. पिता ने इनका नाम उदय सिंह रखा था. गुर्जर समाज उन्हें भगवान विष्णु का अवतार मानता है. राजस्थान, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश तथा हरियाणा में इनके मंदिर मिलते हैं. (सन्दर्भ - डॉ मोहन लाल गुप्ता:राजस्थान ज्ञान कोष, वर्ष २००८, राजस्थानी ग्रंथागार जोधपुर, पृ. ४७५ )

राजस्थान की प्रमुख लोक देवियां

The list of Goddesses of Rajasthan is given below regionwise:

राजस्थान में लोक देवियों की सूची यहां दी जा रही है. आप इसमें अपने क्षेत्र के लोक देवों और देवियों के नाम जोड़ सकते हैं

१. उदयपुर

२. हाडोती

३. जयपुर

४.जोधपुर

५. जैसलमेर

६. बीकानेर-शेखावाटी

एक बार जीण और उसकी भावज तालाब पर पानी भरने गईं. वहां दोनों में शर्त लगी कि हर्ष किसे अधिक प्रेम करता है!यह निश्चय किया गया कि घर पहुँचने पर हर्ष जिसके सर से पहले घड़ा उतारेगा, वह उसीसे अधिक प्रेम करता है. दैव योग से हर्ष ने अपनी पत्नी के सर से पहले घड़ा उतारा. जीण सर पर घड़ा लिए खड़ी रही. शर्त हार जाने पर स्वयं को अपमानित अनुभव करके जीण घर से चली गई और हर्ष के पहाड़ों में बैठ कर तपस्या करने लगी. हर्ष ने सारी बात जानकर बहुत पश्चाताप किया और अपनी बहिन को मनाने के लिए उसके पीछे आया किन्तु जीण ने घर चलने से मना कर दिया. हर्ष भी घर नहीं गया और पास की एक पहाड़ी पर बैठ कर तपस्या करने लगा. जीण आजीवन ब्रह्मचारिणी रही और तपस्या के बल पर देवी बन गई.
यहाँ चैत्र व आसोज के महीने में शुक्ल पक्ष की नवमी को मेला भरता है. राजस्थानी लोक साहित्य में जीणमाता का गीत सबसे लम्बा है. इस गीत को कनफ़टे जोगी केसरिया कपड़े पहन कर, माथे पर सिन्दूर लगाकर, डमरू एवं सारंगी पर गाते हैं. यह गीत करुण रस से ओतप्रोत है. (सन्दर्भ - डॉ मोहन लाल गुप्ता:राजस्थान ज्ञान कोष, वर्ष २००८, राजस्थानी ग्रंथागार जोधपुर, पृ. ४७७)

७. जालोर

  • आशापुरी देवी - आशा पूर्ण करने वाली देवी को आशापुरी या आशा पुरा देवी कहते हैं. जालोर के चौहान शासकों की कुलदेवी आशापुरी देवी थी जिसका मंदिर जालोर जिले के मोदरां माता अर्थात बड़े उदर वाली माता के नाम से विख्यात है. चौहानों के अतिरिक्त कई जातियों के लोग तथा जाटों में बुरड़क गोत्र इसे अपनी कुल देवी मानते हैं. (सन्दर्भ - डॉ मोहन लाल गुप्ता:राजस्थान ज्ञान कोष, वर्ष २००८, राजस्थानी ग्रंथागार जोधपुर, पृ. ४७६). आशापुरा देवी का मंदिर राजस्थान के नादोल नाम के गाव मे भी स्थित है.

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