Madhya Pradesh Ke Prachin Jat Ganarajya

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मध्य प्रदेश के प्राचीन जाट गण राज्य
                              लेखक – लक्ष्मण राम बुरड़क 
                              सेवा निवृत IFS

मध्य प्रदेश भारत का एक ऐसा राज्य है, जिसकी सीमाऐं पांच राज्यों की सीमाओं से मिलती हैं। इसके उत्तर मे उत्तरप्रदेश, पूर्व में छत्तीसगढ़, दक्षिण में महाराष्ट्र, पश्चिम में गुजरात तथा पश्चिमोत्तर में राजस्थान है। इस प्रदेश के तुंग-उतुंग शैल शिखर विन्ध्य-सतपुड़ा, मैकल-कैमूर की उपत्यिकाओं के अन्तर से गूँजते अनेक पौराणिक आख्यान और नर्मदा, सोन, सिन्ध, चम्बल, बेतवा, केन, धसान, तवा नदी, ताप्ती, शिप्रा, काली सिंध आदि सर-सरिताओं ने प्राचीन काल में अनेक सभ्यताओं और संस्कृतियों को फलने-फूलने का अवसर दिया है। इस लेख में मध्य प्रदेश के विभिन्न अंचलों में प्राचीन जाट गण राज्यों के इतिहास का विवरण दिया जा रहा है। मध्य प्रदेश में मुख्य रूप से मालवा आँचल में प्राचीन जाट गणराज्यों का शासन रहा है।

मालवा में जाट शासक - मालवा ज्वालामुखी के उद्गार से बना पश्चिमी भारत का एक अंचल है। मध्य प्रदेश के पश्चिमी भाग तथा राजस्थान के दक्षिणी-पश्चिमी भाग से गठित यह क्षेत्र आर्यों के समय से ही एक स्वतंत्र राजनीतिक इकाई रहा है। मध्य एशिया से प्राचीन समय से ही लोगों का मालवा तक आवागमन होता रहा है। मालवा से जाटों के अभिगमन का उल्लेख भी जाट इतिहास में मिलता है। मालवा का अधिकांश भाग चंबल नदी तथा इसकी शाखाओं द्वारा सिंचित है, पश्चिमी भाग माही नदी द्वारा सिंचित है, इस कारण से यह अत्यंत उपजाऊ क्षेत्र रहा है। जाटों के इस आँचल की तरफ आकर्षित होने का संभवतया यही मुख्य कारण रहा है।

मालवा नामकरण - मालवा का उक्त नाम 'मालव' नामक जाति के आधार पर पड़ा। इस जाति का उल्लेख सर्वप्रथम ई. पू. चौथी सदी में मिलता है, जब इस जाति की सेना सिकंदर से युद्ध में पराजित हुई थी। ये मालव प्रारंभ में पंजाब तथा राजस्थान क्षेत्रों के निवासी थे, लेकिन सिकंदर से पराजित होकर वे अवन्ति व उसके आस- पास के क्षेत्रों में बस गये। उन्होंने आकर दशार्ण तथा अवन्ति को अपनी राजनीतिक गतिविधियों का केंद्र बनाया। दशार्ण की राजधानी विदिशा थी तथा अवन्ति की राजधानी उज्जयिनी थी। कालांतर में यही दोनों प्रदेश मिलकर मालवा कहलाये।

ठाकुर देशराज ने जाट इतिहास में लिखा है कि मल्ल लोगों के कारण इसका नाम मालवा पड़ा है। मल्ल गण-तन्त्री थे और वे महाभारत तथा बौद्ध-काल में प्रसिद्ध रहे हैं। ये मल्ल ही आगे चलकर, सिकन्दर के समय में, मल्लोई के नाम से जाने गए थे। इस समय इनका अस्तित्व ब्राह्मण और जाटों में पाया जाता है। ‘कात्यायन’ ने शब्दों के जातिवाची रूप बनाने के जो नियम दिए हैं, उनके अनुसार ब्राह्मणों में से मालवी और क्षत्रियों (जाटों) में माली कहलाते हैं ये। दोनों शब्द ‘मालव’ शब्द से बने हैं। मल्ल लोग विदेहों के पड़ौसी थे। इधर कालान्तर में आये होंगे। पहले यह देश अवन्ति के नाम से प्रसिद्ध था। राजा विक्रमादित्य इसी देश में पैदा हुए थे। मालवा समृद्धिशाली और उपजाऊ होने के लिए प्रसिद्ध है। पंजाब और सिंध की भांति जाटों की निवास भूमि होने का इसे सौभाग्य प्राप्त है। जाटों का इस धन-धान्य के सम्पन्न भूमि पर राज्य ही नहीं, किन्तु साम्राज्य रहा है।

मल्ली गोत्र - यहाँ मल्ली गोत्र पर थोड़ा प्रकाश डालना उचित होगा। मध्य प्रदेश जाट समाज के अध्यक्ष हरनारायण जी का गोत्र माली है, जो प्राचीन मल्ली गोत्र के वंशज हैं। जैसे पंजाबी में जट्ट/जट्टी से हिंदी में जाट बना है उसी तरह मल्ल/मल्ली से माली बना है। 326 ई. पूर्व में ब्यास नदी के किनारे अलेग्जेंडर का सामना जाट राजा पोरस से हुआ था। पोरस भी जाट राजा थे और यह गोत्र अब भी मध्य प्रदेश में पाया जाता है। राजा पोरस की वीरता से अलेग्जेंडर बहुत प्रभावित हुआ था और उसके बाद अलेग्जेंडर की सेना ने विद्रोह कर दिया और भारत की तरफ आगे बढ़ने से मना कर दिया था। जब अलेग्जेंडर वापस लौट रहा था तो उसका सामना मुल्तान पाकिस्तान में मल्ली जाटों से हुआ जिनके तीर से वह घायल हो गया। मुलतान मल्ली गणराज्य की राजधानी थी। मल्लिस्थान से ही मुलतान बना है। इसी मल्ली/मल्ल गोत्र के नाम से ही मध्य प्रदेश के मालवा क्षेत्र का नाम पड़ा है।

बिन्दु और अनुबिन्दु - ईसा से चार शताब्दी पूर्व का इतिहास अंधकार में है और जो मिलता भी है, वह क्रमबद्ध नहीं। महाभारत काल में उज्जैन में बिन्दु और अनुबिन्दु नाम से राजा राज करते थे। उनका राज्य द्वैराज्य-प्रणाली पर चलता था। वे अवश्य ही दो जातियों की ओर से चुने हुए होंगे। इस तरह उनका राज्य ज्ञाति-राज्य (जाट) था। वर्तमान में जिस भूभाग को मालवा कहते हैं, उसमें दशार्ण, दशार्ह, मालवत्स्य, कुकर, कुन्ती, भोज, कुंतल और चर्मन आदि अनेक जाति-समूह रहते थे।

मंदसौर और मांडू - धारानगर के निकटवर्ती प्रदेश में भोज और मंदसौर के आसपास दशार्ण और दशार्ह लोगों का राज्य था। आज के मंदसौर का पूर्व नाम दशपुर अथवा दसौर था। दशपुरिया जाट गोत्र मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश में पाया जाता है। उनकी उत्पत्ति दशार्ण से हुई है जिसके आधार पर मंदसौर का नामकरण दशपुर पड़ा है। मंदसौर नाम के संबंध में धारणा है कि जब मध्य एसिया और ईरान में मंडा जाट साम्राज्य का पतन हुआ तो मंडा जाट भारत के अनेक प्रान्तों में फैले। पाणिनी ने 5 वीं सदी ई. पूर्व में पंजाब में उनके बसाये अनेक कस्बों का विवरण दिया है। संभवत: कुछ मंडा लोग मालवा की तरफ भी आए और उन्होने अपने नाम से मंदसौर और मांडू आदि स्थानों को आबाद किया। भानपुरा नामक एक शहर मध्य प्रदेश के मंदसौर जिले में है। इसको पंजाब से आए भामन नामक राजा ने बसाया था। उल्लेखनीय है कि पंजाब में भामन जाट गोत्र है।

मौर्य, गुप्त, अंधक और पँवार - इन जातियों के अलावा इस प्रदेश पर मौर्य, गुप्त, अंधक और पँवार लोगों का भी राज रहा है। ये जातियां मालवा-प्रदेश से बाहर की थीं और इन्होंने ऊपर लिखे प्रजातंत्रों को नष्ट करके अपना राज्य जमाया था। इनसे पहले यहां मल्लोई जाति का प्रजातंत्र बहुत बड़ा था। सिकन्दर के समय क्षुद्रक लोगों का भी पता इनके ही पड़ौस में लगता है। इन सब जातियों में से कुछ न कुछ समूह जाट और राजपूत दोनों में पाए जाते हैं। किन्तु दशपुरिया, भोज, और कुंतल केवल जाटों में ही मिलते हैं। मालवा में बांगरी लोगों का भी आधिपत्य रहा था और उनके नाम से एक हिस्से का नाम बांगर प्रसिद्ध हो गया था। उनका निशान ब्राह्मण और जाट जातियों में मिलता है।

गुप्त राजवंश - गुप्त वंश प्राचीन भारत के प्रमुख राजवंशों में से एक था। इसे भारत का एक स्वर्ण युग माना जाता है। गुप्त साम्राज्य की नींव तीसरी शताब्दी के चौथे दशक में तथा उत्थान चौथी शताब्दी की शुरुआत में हुआ। चन्द्रगुप्त द्वितीय 375 ई. में सिंहासन पर आसीन हुआ। वह समुद्रगुप्त की प्रधान महिषी दत्तदेवी से हुआ था। वह विक्रमादित्य के नाम से इतिहास में प्रसिद्ध हुआ। उसने 375 से 415 ई. तक (40 वर्ष) शासन किया। चन्द्रगुप्त द्वितीय ने शकों पर अपनी विजय हासिल की जिसके बाद गुप्त साम्राज्य एक शक्तिशाली राज्य बन गया। चन्द्रगुप्त द्वितीय के समय में क्षेत्रीय तथा सांस्कृतिक विस्तार हुआ। वाकाटकों और गुप्तों की सम्मिलित शक्ति से शकों का उन्मूलन किया। कदम्ब राजवंश का शासन कुंतल में था। चन्द्रगुप्त के पुत्र कुमारगुप्त प्रथम का विवाह कदम्ब वंश में हुआ। शक उस समय गुजरात तथा मालवा के प्रदेशों पर राज कर रहे थे। शकों पर विजय के बाद उसका साम्राज्य न केवल मजबूत बना बल्कि उसका पश्चिमी समुद्र पत्तनों पर अधिपत्य भी स्थापित हुआ। इस विजय के पश्चात उज्जैन गुप्त साम्राज्य की राजधानी बना। चन्द्रगुप्त द्वितीय के शासन काल में उसकी प्रथम राजधानी पाटलिपुत्र और द्वितीय राजधानी उज्जयिनी थी।

प्रसिद्ध इतिहासकार के. पी. जायसवाल ने 'इंपीरियल हिस्ट्री ऑफ इंडिया' (C. 700 BC – C. 770 AD) में यह लेख किया है गुप्त वंश वस्तुत: मूल रूप से मथुरा के धारण गोत्र के जाटवंशी राजा थे। चन्द्रगुप्त द्वितीय की पुत्री प्रभावतीगुप्त ने पूना और ऋद्धपुर शिलालेख में स्वयं का गोत्र धारण बताया है। समाज के लिए ख़ुशी की बात है कि NCERT पुस्तकों में यह समावेश हो चुका है कि गुप्त सम्राट धारण गोत्र के जाट थे। (देखें - भारत का इतिहास - कुलदीपराज दीपक, अध्याय-12, कक्षा-11)

वरिक जाटवंश - मालवे के बाहर से आने वाले जाति-समूहों ने यहां के गणवादी और ज्ञातिवादी राज्यों को बहुत हानि पहुंचाई। अपनी स्वाधीनता की रक्षा के लिए उन्होंने लम्बे अरसे तक लड़ाइयां लड़ीं, किन्तु साम्राज्यवादियों द्वारा वे पराजित और अर्द्धमूर्च्छित कर दिए गए। कई शताब्दियों के पश्चात्, गणवादियों में विवश होकर अपने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए, एकतंत्र के प्रति रुचि जागी। उनमें से कुछ महामना व्यक्ति आगे बढ़े और अपने राज्य, कई-कई ने अपने साम्राज्य भी स्थापित किए। ज्ञातिवादी (जाट) लोगों में से ऐसे महानुभावों में कनिष्क, शालेन्द्र और यशोधर्मा के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। महाराज विष्णुवर्द्धन सम्राट् यशोधर्मा के पिता थे।

महाराज विष्णुवर्द्धन जिन्हें कि कहीं-कहीं विष्णुधर्मा भी लिखा गया है, वरक् वंश के जाट थे। बयाने में जो उनका विजय-स्तम्भ है, उस पर उनका नाम वरिक् विष्णुवर्द्धन लिखा हुआ है। ठाकुर देशराज लिखते हैं कि भारत क्या, संसार के इतिहास में हूणों के आक्रमण प्रसिद्ध हैं। इन्होंने यूरोप और एशिया दोनो ही जगह उथल-पुथल मचा दी थी। जाट-जाति के लिए यह सर्वत्र नाशकारी सिद्ध हुए। किन्तु यूरोप और एशिया दोनो ही स्थानों पर जाटों ने इनकी शक्ति का सामना किया। यद्यपि जाट भी इनके युद्धों में क्षीणबल हो गए, किन्तु उन्होंने हूणों के बढ़ते हुए प्रभाव को इतना धक्का पहुंचाया कि आज हूणों की न कोई स्वतंत्र जाति है और न राज्य। सुदूर कश्मीर में अवश्य कुछ दिन उनका राज्य रहा। यूरोप को रोंदते हुए इनका दल जब रोम पहुंचा तो वहां के गाथ (जाट) योद्धाओं ने ऐसा लोहा बजाया कि उन्हें उलटे पैरों लौटना पड़ा। भारत में आने पर भी जल-प्रलय की भांति जब ये आगे बढ़ने लगे तो मध्य-भारत के अधीश्वर महाराजा यशोधर्मा ने इनको ऐसा खदेड़ा कि कश्मीर में जाकर दम लिया। यशोधर्मा के समय के तीन शिलालेख्स प्राप्त हुए हैं। ये तीनों ही मन्दसौर में पाए गए हैं। इनमें एक शिलालेख मालव संवत् 589 ईसवी (सन् 532) का है।

मालवा से वरिक जाटवंश के राज्य के समाप्त होने पर जाटों के पास कोई बड़ा राज्य न रह गया था। फिर भी वे जहां-तहां अपने चार-चार पांच-पांच या दस-बीस गांव के छोटे-छोटे जनपदों के अधीश्वर बहुत समय तक बने रहे थे।

असीरगढ़ के असियाग - इतिहास लेखकों ने अनुमानिक तौर से बताया है कि स्केण्डनेविया में ईसा से 500 वर्ष पूर्व जाट लोगों ने प्रवेश किया था। इनके नेता का नाम ओडिन लिखा हुआ है। असियाग लोगों को ‘असि’ शब्द के कारण कुछ इतिहासकारों ने असीरिया से लौटे हुए लिखा है, किन्तु बात ऐसी नहीं है। आरम्भ में ये लोग मालवा के असीरगढ़ में रहते थे। यहीं से एक भाग यूरोप चला गया, जिसके कारण उनके उपनिवेश का नाम असीरिया प्रसिद्ध हुआ। जांगल-प्रदेश में बसने वाले असियाग नाम से प्रसिद्ध हुए। असि तलवार को कहते हैं। कौटिल्य ने शस्त्रोपजीवी और शास्त्रोपजीवी गणों का उल्लेख किया है। असियाग शस्त्रोपजीवी थे अर्थात् जिनकी आजीविका शस्त्र अथवा तलवार (असि) थी। राजस्थान के प्राचीन भू-भाग जांगल-प्रदेश के 150 ग्रामों पर इनका अधिकार था। स्कन्धनाभ में जो असि - जाट पहुंचे वे भी भारतीय सभ्यता के मानने वाले थे। स्कन्धनाभ में बस जाने के समय उनका नाम असि भी पड़ गया। यह नाम उस समय पड़ा जबकि इन्होंने स्केण्डनेविया में जटलैण्ड व यूटलैण्ड नामक नगर बसाए। स्केण्डनेविया की धार्मिक पुस्तक एड्डा में लिखा है - स्कन्धनाभ में प्रवेश करने वाले जेटी अथवा जट लोग असि नाम से विख्यात थे, उनकी पूर्व बस्ती असिगई थी। असिगब व असीगढ़ मालवा-नीमाड़ (मध्यप्रदेश, भारत में) हैं।

खिरवार राजवंश - नरसिंहपुर शहर को खिरवार जाटों ने बसाया था। खिरवार गोत्र की उत्पत्ति राजा खिर से हुई है जो कृष्ण की चौथी पीढ़ी में थे। वे नरसिंह के उपासक थे जिनकी याद में नरसिंह अवतार मंदिर का निर्माण किया था और बाद में नरसिंहपुर बसाया था। भगवान श्रीकृष्ण के पौत्र अनिरुद्ध के पुत्र ब्रज के बड़े पुत्र खिर थे। इनकी परंपरा ने इसके नाम पर खिरवार वंश के जाट आज भी ब्रज के अंतर्गत आगरा जिले में रहते हैं। पथौली इस वंश की अच्छी रियासत रही है। पंजाब में तरण तारण के समीप खण्डूशाह, सांगोकी, शेरों, उसमा, झाली, गोलाबडा, मानकपुरा इस वंश के प्राचीन आर्यों की बस्तियां हैं। मध्य प्रदेश में यह खिरवार शब्द खिनवाल नाम पर प्रसिद्ध हैं। इधर इस वंश के कुछ पुरुष हरदा, होशंगाबाद में जाकर छत्रपति शिवाजी और उनकी परंपरा की सहायता करते हुए 'भौसला बहादुर' की उपाधि से सत्कृत हुए। राव जगभरथ जी के नृसिंह इष्ट थे, इन्होने नरसिंहावतार के दो मंदिर बनवाए और नरसिंहपुर नामक नगरी को बसाया। इनकी परंपरा देर तक इस नगरी पर स्वतंत्र शासन करती रही। इस परिवार (गोत्र) ने हिन्दू और सिक्खों में सामान प्रतिष्ठा प्राप्त की।

जाट इतिहास लेखन – जाटों का इतिहास अत्यंत शानदार रहा है। जाट समाज के हर सदस्य को चाहिए कि जाट इतिहास पढ़ें, समझें और अन्य भाईयों को भी बतावें। हम स्कूल कालेजों में मुगल आक्रांताओं का इतिहास पढ़ते हैं, राजपूतों का इतिहास पढ़ते हैं परन्तु आक्रांताओं का और समाज शोषकों का दृढ़ता से सामना करने वाले देशभक्त जाटों का इतिहास नहीं पढ़ने को मिलता। यदि पाठ्य पुस्तकों में कहीं जाट शब्द आता है तो केवल इतना आता है कि जाट एक विद्रोही जाति रही है। जाटों ने विद्रोह शासक की गलत नीतियों के विरुद्ध किया है। जाट इतिहास लिखने के प्रयास निश्चय ही सफल होंगे और जाट समाज के प्रति भरी गई दुराग्रह की भावना दूर होगी। समग्र जाट इतिहास लेखन से सही तस्वीर धीरे-धीरे सामने आ रही है।

References


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