Bahudhanyaka

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Author:Laxman Burdak, IFS (R)

Bahudhanyaka (बहुधान्यक) was a Country mentioned in Mahabharata. Mahabharata knows Haryana as Bahudhanyaka, land of plentiful grains and Bahudhana, the land of immense riches. Bahudhana (बहुधन) finds mention in Mahabharata (II.29.4).

Variants of name

History

V S Agarwal [1] writes about Yaudheya (V.3.117) – Panini’s reference to Yaudheyas is the earliest known. The Yaudheyas have a long history as shown by their inscriptions and coins of different ages, and were existing up to the time of Samudragupta. Their coins are found in the east Punjab (now Haryana) and all over the country between the Sutlej and Jamuna, covering a period of about four centuries, 2nd century BC to 2nd century AD. The Mahabharata mentions Rohitaka as the capital of Bahudhāñyaka Country, where a mint site of the Yaudheyas of Bahudhanyaka was found by the late Dr Birbal Sahani. Sunet mentioned by Panini as Sunetra was a centre of Yaudheyas where their coins, moulds and sealings have been found. The Yaudheyas do not seem to have come into conflict with Alexander, since they are not named by the Greek writers. The Johiyas who are found on the banks of the Sutlej along the Bahawalpur frontier may be identified as their modern descendants (ASR, xiv, p.114).

In Mahabharata

Sabha Parva, Mahabharata/Book II Chapter 29 mentions that Nakula subjugated Western Countries. It includes Bahudhana in verse (II.29.4) [2] ...And the hero first assailed the mountainous country called Rohitaka (Rohtak) that was dear unto (the celestial generalissimo) Kartikeya and which was delightful and prosperous and full of kine and every kind of wealth and produce.

Jat History

Yaudheyas are identified with the Jats clan Joiyas or Johiya[3] of Bahawalpur and Multan Divisions (Pakistan) and Bikaner, Rajasthan (India). Yaudheyas were the rulers of South-Eastern Punjab and Rajasthan. Even today these areas are inhabited by the Johiyas.

Alexander had heard about a very powerful people beyond the river Beas. Arrian describes them as gallant fighters, good agriculturists and having constitutional government. [Ibid.] Though they have not been specifically named, there is little doubt in their being Yaudheyas. [4], [5] It is said in the Adi Parva of Mahabharata that Yaudheya was son of Yudhishthira by his Shivi wife. [6] They find mention in the Sabhaparva of the Mahabharata under different name-Mattamayura. It is said that starting from Khandavapratha Nakul marched towards west and reached Rohitika-beautiful, prosperous and rich in cattle and horses and dear to Kartikeya. He also captured Marubhumi and Bahudhanya. Because these three places had been the chief centres of Yaudheyas and also because Kartikeya finds depiction on the Yaudheya coins, Mattamayura is merely another name for the Yaudheyas. This ancient name is preserved in Jat gotra as Mori, Maur, Mor. [7]

It appears that the political power of the Yaudheyas was eclipsed under the Mauryas. But after their decline the Yaudheyas again became politically dominant and had their heydays up to the rise of the Guptas. [8][9]

During the glorious period of the Yaudheyas their neighbours in Rajasthan were Malavas (Jaipur, Tonk, Ajmer), Shivis (Chittor), Matsya (Alwar) and Maukharis (Kota). The Yaudheyas probably formed a confederacy with these and others and, as Atlekar suggests, gave a final blow to the tottering Kushan Kingdom.[10] The Yaudheya chiefs who bore the titles Maharaja Senapati appear to have been chosen for this purpose by Yaudheya gana. During this period they might have developed some contacts with the Vakatakas, Bharashivas and other Naga families, under the subjugation of the Guptas, they must have developed closure toes with the Guptas. It is probably during these centuries that they absorbed some elements of their neighbours. The Jat Gotra names Malava, Mokhar, Makhar, Machchar, Bharshiv, Nag, Dharan may be understood against this back ground. [11]

बहुधान्यक

विजयेन्द्र कुमार माथुर[12] ने लेख किया है .....बहुधान्यक (AS, p.615) नामक स्थान का वर्णन महाभारत, सभापर्व 32, 4 में हुआ है। इस वर्णन में इस स्थान उल्लेख 'रोहीतक' (वर्तमान रोहतक) के साथ है। श्री वासुदेवशरण अग्रवाल के अनुसार प्राचीन काल में बहुधान्यक पर यौधेयगण का राज्य था। इनके सिक्के रोहतक के निकट के खोकराकोट नामक स्थान पर मिले हैं। कुछ विद्वानों ने अपने मत में बहुधान्यक को वर्तमान लुधियाना (पंजाब) माना है। यह भी संभव है कि लुधियाना बहुधान्यक का ही अप्रभंश हो।

इतिहासकार स्वामी ओमानन्द सरस्वती लिखते हैं -

एक प्रचलित किंवदन्ति है कि ब्रज से द्वारका को जाने के लिये हरि अर्थात् कृष्ण के यान का जाने का यही निर्दिष्ट मार्ग था, अतः यह भू-भाग हरियाणा कहलाया । इसी से मिलती-जुलती एक अन्योक्ति भी है कि कौरवों और पाण्डवों के युद्ध में श्रीकृष्ण जब सम्मिलित होने के लिए आये तो सर्वप्रथम इसी प्रदेश में ठहरे थे । उनकी सेना भी इधर ही एकत्र थी । इसलिये हरि-कृष्ण का आना, इससे यह प्रदेश हरि-आना (हरियाना) कहलाया । (बालमुकुन्द स्मारक ग्रन्थ, पृष्ठ १)

समीक्षा - योगिराज श्रीकृष्ण को भी पौराणिक भाईयों ने विष्णु का अवतार माना है, अतः विष्णु के नाम हरि से इन्हें भी विभूषित किया गया । श्रीकृष्ण जी महाराज की जन्मभूमि मथुरा भी हरियाणे में है और इनकी कर्मभूमि इन्द्रप्रस्थ तथा कुरुक्षेत्र भी इसी प्रदेश में हैं । इनके महाभारत के समय ठहरने का स्थान भी हरयाणा था तथा ब्रज से द्वारका जाने का मार्ग भी उनका यहीं से था । अतः इस प्रदेश का नाम उनके 'हरि' नाम के कारण हरियाणा पड़ गया । यह कल्पना भी कारण हो सकती है, किन्तु इससे अधिक प्रमाणित बात यह है कि जहाँ उनकी कर्मभूमि और जन्मभूमि दोनों ही इस प्रदेश में थीं, वहाँ उन्होंने इस प्रदेश को जीतकर अपनी विजय पताका इस पर फहराई थी तो इसी कारण इसका नाम हरियाणा भी हो गया । महाभारत सभापर्व में उनकी जीत का निम्नलिखित प्रमाण है –

नकुलस्य तु वक्ष्यामि कर्माणि विजयं तथा ।
वासुदेव - जितामाशा यथासवजयत प्रभुः ॥
(महा० सभापर्व ३२ अध्याय)

मैं नकुल के पराक्रम और विजय का वर्णन करूंगा । शक्तिशाली नकुल जिस प्रकार भगवान् वसुदेव के पुत्र श्रीकृष्ण ने इस पश्‍चिम दिशा को जीता था, उसी प्रकार इस पश्‍चिम दिशा पर नकुल ने विजय पाई ।

महर्षि व्यास ने पश्‍चिम दिशा का जो उल्लेख किया है, उसमें सर्वप्रथम हरयाणे का भाग रोहतक आदि आता है । (निर्याय खांडवप्रस्थात्) वह नकुल खांडवप्रस्थ (इन्द्रप्रस्थ) दिल्ली से पश्‍चिम की ओर चलता है और जहाँ-जहाँ पहुँचता है उसके विषय में लिखा है -

ततो बहुधनं रम्यं गवाढ्यं धनधान्यवत् ।
कार्तिकेयस्य दयितं रोहितकमुपाद्रवत् ॥

वहाँ इन्द्रप्रस्थ से चलकर मार्ग में बहुत धनी, गोबहुल धन ही नहीं, धान्य (अनेक प्रकार के अन्नों) से परिपूरित सुन्दर रमणीय कार्त्तिकेय के प्रिय नगर रोहितक (रोहतक) में जा पहुँचा ।

तत्र युद्धं महच्चासीत् शूरैर्मत्तमयूरकैः ।
मरुभूमिं च कार्त्स्न्येन तथैव बहुधान्यकम्
(महा० सभापर्व अ० ३२)

वहाँ उनका मत्तमयूरक (मयूरध्वज धारी) शूरवीर यौधेयों के साथ घोर संग्राम हुआ । नकुल ने सारी मरुभूमि (मयूरभूमि) और सारे बहुधान्यक (हरयाणा) प्रदेश को जीत लिया ।

शैरीषकं महेत्थं च वशे चक्रे महाद्युति ।
आक्रोश चैव राजर्षिं तेन युद्धमभवन्महत् ॥
तान् दशार्णान् जित्वा स प्रतस्थे पाण्डुनन्दनः ।

इस प्रदेश के मध्य स्थान शैरीषक (सिरसा) और महेत्थं (महम) आदि को उस तेजस्वी नकुल ने जीता । इस प्रकार यौधेयों के दशार्ण - दश दुर्गों को जीत कर वह आगे बढ़ा । यहां आक्रोश के साथ घोर युद्ध हुआ, किन्तु नकुल ने उसे जीत लिया ।

इस प्रकार श्रीकृष्ण जी महाराज ने इस हरयाणा प्रदेश को जो नकुल ने जीता, इसे पहले ही जीत लिया था । इसी अध्याय में पुनः इसकी पुष्टि महाभारत में की है । यथा -

एवं विजित्य नकुलो दिशं वरुणपालिताम् ।
प्रतीचीं वासुदेवेन निर्जितां भरतर्षभ ॥२०॥

इस प्रकार हे भरत श्रेष्ठ ! भगवान् वासुदेव श्रीकृष्ण द्वारा जीती हुई वरुणपालित पश्‍चिम दिशा पर (हरयाणा सहित) विजय पाकर नकुल इन्द्रप्रस्थ को गया । इस प्रकार यह हरयाणा श्रीकृष्ण महाराज की जन्मभूमि, कर्मभूमि और विशेषतया उनका जीता हुआ प्रदेश था । अतः श्रीकृष्ण का नाम विष्णु के नाम (अवतार) हरि मानने के कारण हरियाणा पड़ गया, इस युक्ति में कुछ सार और तथ्य प्रतीत होता है ।[13]

External links

References

  1. V S Agarwal, India as Known to Panini,p.445
  2. ततो बहुधनं रम्यं गवाढ्यं धनधान्यवत्, कार्तिकेयस्य दयितं रोहीतकम् उपाद्रवत् Mahabharata (II.29.4)
  3. Cunningham , A. Coins of Ancient India, London, 1891,pp. 75-76
  4. Brahma Purana, Ch. 13
  5. Harivansha, Ch. 32
  6. Mahabharata ch. 95, 76
  7. Maheswari Prasad, “Jats in Ancient India”:The Jats, Ed. Dr Vir Singh, Vol.I, p. 23
  8. Maheswari Prasad, “Jats in Ancient India”:The Jats, Ed. Dr Vir Singh, Vol.I, p. 23
  9. History of the Jats, Pages 108-110
  10. A.S. Atlekar and R.C. Majumdar, The Vakataka Gupta Age, p.27
  11. Maheswari Prasad, “Jats in Ancient India”:The Jats, Ed. Dr Vir Singh, Vol.I, p. 25
  12. Aitihasik Sthanavali by Vijayendra Kumar Mathur, p.615
  13. वीरभूमि हरयाणा (पृष्ठ 24-27)

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