Jat History Dalip Singh Ahlawat/Chapter I

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जाट वीरों का इतिहास
लेखक - कैप्टन दलीप सिंह अहलावत
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प्रथम अध्याय: सृष्टि प्रकरण

सृष्टि प्रकरण

जाटवीरों का इतिहास आर्यों व भारत देश का इतिहास है। इसकी कड़ियां आर्यों व भारत के इतिहास से जुड़ी हुई हैं और आर्यों व भारत का इतिहास आदि से प्रारम्भ होता है। अतः सर्वप्रथम सृष्टि के इतिहास पर प्रकाश डालना ही जाटवीरों का इतिहास प्रकाशित करना है। इसी तथ्य को मानकर सर्वप्रथम सृष्टि का इतिहास लिखता हूँ।

प्रत्येक विचारशील मनुष्य जो वर्तमान सृष्टि में विचरता है उसके मन में इस प्रकार के अनेक प्रश्न उठते हैं कि यह सृष्टि कब बनी? कितने वर्ष हुए? इसका लेखा-जोखा किस प्रकार है? इसकी आयु कितनी है अर्थात् यह कब तक स्थिर रहेगी? इसका कर्त्ता, धर्त्ता और हर्त्ता कौन है, इत्यादि। इन प्रश्नों का यथार्थ उत्तर ही सृष्टि का प्रामाणिक इतिहास है।

सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय का करना ईश्वर का ही सामर्थ्य है। सर्वज्ञ, सर्वव्यापक और सर्वशक्तिमान ईश्वर ही इस महान् कार्य को कर सकता है। प्रलय के समय सृष्टि के उपादान कारण प्रकृति के परमाणु पृथक्-पृथक् होते हैं जो किसी मनुष्य आदि प्राणी को बड़े से बड़े सूक्ष्मवीक्षणयन्त्र1 यन्त्र से भी दिखाई नहीं देते, फिर उनको पकड़कर यथायोग्य मिलाकर किसी पदार्थ की रचना करना यह अल्पबुद्धि मानव किस प्रकार कर सकता है? इसलिए इस सृष्टि का निमित्त कारण अथवा कर्त्ता एकमात्र सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान् ईश्वर ही है। निष्कर्ष यह निकला कि ईश्वर ही इस जगत का कर्त्ता-धर्त्ता और हर्त्ता है। हां! जीव इतना अवश्य कर डालता है कि वह परमेश्वर की सृष्टि में से पदार्थों को लेकर अपनी अनेकविध रचनायें करता रहता है। स्वयं मूलतः किसी वस्तु को बनाने का उसमें कोई सामर्थ्य नहीं है। अतः उस जीव को साधारण निमित्त कारण कह सकते हैं।2

सृष्टि की रचना

प्रकृति, जीव और परमात्मा तीनों अज अर्थात् जिनका जन्म कभी नहीं होता और न कभी ये जन्म लेते हैं अर्थात् ये तीन सब जगत् के कारण हैं। इनका कारण कोई नहीं है। ये तीनों अनादि हैं।

(सत्त्व) शुद्ध, (रजः) मध्य, (तमः) जाड्य अर्थात् जड़ता तीन वस्तु मिलकर जो एक संघात है उसका नाम प्रकृति है। इस अनादि प्रकृति का भोग अनादि जीव करता हुआ फंसता है और उसमें परमात्मा न फंसता है और न उसका भोग करता है। जो सब जीवों के समस्त पाप-पुण्यरूपी कर्मों


1. Microscope (सूक्ष्मदर्शी)।
2. सत्यार्थप्रकाश अष्टम समुल्लास।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-1


को जानकर फलों को देता है। उपर्युक्त प्रकृति ही सब संसार के बनाने की सामग्री है, यही सृष्टि का उपादान कारण है। इसके जड़ होने से इसमें स्वयं सृष्टि को बनाने और बिगाड़ने का सामर्थ्य नहीं है। प्रकृति के द्वारा सृष्टि का बनाना तथा उस बनी हुई सृष्टि को पुनः प्रकृतिरूप करना सर्वशक्तिमान् परमात्मा का ही कार्य है। जब कोई वस्तु बनाई जाती है तो उसमें विभिन्न साधनों की आवश्यकता पड़ती है जैसे - ज्ञान, दर्शन, बल, हाथ तथा दिशा, काल और आकाश - ये साधारण कारण हैं। जैसे घड़े को बनाने वाला कुम्हार निमित्त कारण, मिट्टी उपादान और दण्ड चक्रादि सामान्य निमित्त कारण, दिशा काल आकाश प्रकाश आंख हाथ ज्ञान क्रिया आदि निमित्त साधारण कारण और निमित्त कारण भी होते हैं। इन तीनों कारणों के बिना कोई वस्तु न बन सकती है, न बिगड़ सकती है।

सर्वव्यापक परमात्मा जिस प्रकृति के भीतर भी और बाहर भी व्यापक है, उस व्यापक प्रकृति व परमाणु (कारण) से स्थूल जगत् को बनाकर आप उसी में व्यापक होकर साक्षीभूत आनन्दमय हो रहा है। सृष्टिकाल में अनेक प्रसिद्ध चिन्हों व लक्षणों से युक्त होने से वह जानने के योग्य होता है। इसी अवस्था में वह उपलब्ध हो सकता है। प्रलयावस्था में उसे प्राप्त नहीं कर सकते। क्योंकि यह जगत् सृष्टि से पूर्व प्रलयकाल में अन्धकार से ढका हुआ रहता है। प्रलयावस्था में सब जीव प्रसुप्त दशा में ही होते हैं। गाढ़निद्रा में जीवात्मा सर्वथा ब्रह्मज्ञानरहित होते हैं। अतः विवशता के कारण वह कुछ जान नहीं सकता। तथा सृष्टि के अभाव में परमात्मा के जानने के लिए प्रसिद्ध चिन्हों वा साधनों का भी अभाव होता है। प्रलयकाल की समाप्ति पर जब सृष्टि का समय आता है तब परमात्मा उन परमसूक्ष्म पदार्थों को इकट्ठा करता है। उसकी प्रथम अवस्था में परमसूक्ष्म प्रकृतिरूप कारण से कुछ स्थूल होता है उसका नाम महत्तत्व और जो उससे कुछ स्थूल होता है उसका नाम अहंकार और अहंकार से भिन्न-भिन्न पांच सूक्ष्मभूत जिन्हें पञ्चतन्मात्रायें कहते हैं, उत्पन्न होते हैं। इनसे दोनों प्रकार की इन्द्रियों की उत्पत्ति होती है अर्थात् श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, जिह्वा तथा घ्राण - ये पांच ज्ञानेन्द्रियां, और वाक्, हस्त, पाद, गुदा, और उपस्थ - ये पांच कर्मेन्द्रियां उत्पन्न होती हैं। और ग्यारहवां मन कुछ स्थूल उत्पन्न होता है। और उन पञ्चतन्मात्राओं से अनेक स्थूलावस्थाओं को प्राप्त होते हुए क्रम से पांच स्थूलभूत जिनको हम लोग प्रत्यक्ष देखते तथा अनुभव करते हैं, पैदा होते हैं। उनसे नाना प्रकार की औषधियां, वृक्ष आदि, उनसे अन्न, अन्न से वीर्य और वीर्य से शरीर होता है। परन्तु आदि सृष्टि मैथुनी नहीं होती। क्योंकि जब स्त्री पुरुषों के शरीर परमात्मा बनाकर उनमें जीवों का संयोग कर देता है, तदनन्तर मैथुनी सृष्टि चलती है।

इस तरह से परमेश्वर ने अपनी शक्ति से इस सृष्टि की रचना की और इसमें असंख्यात ब्रह्माण्ड बनाये और प्रत्येक के बीच में एक-एक सूर्य स्थापित किया। दूसरे शब्दों में असंख्यात लोक, सूर्य, चन्द्रमा, अन्तरिक्ष, पृथ्वी, नक्षत्र आदि बनाये जिनकी गिनती नहीं की जा सकती। आकाश, अग्नि, जल, वायु और विद्युत् आदि उत्पन्न किये। इनमें एक-एक ब्रह्माण्ड में एक-एक सूर्य प्रकाशक और दूसरे सब लोक लोकान्तर प्रकाश्य हैं। सूर्य, आकर्षण गुण से भूगोलों को धारण करता है वैसे सूर्य आदि जगत् को ईश्वर धारण करता है।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-2


(यह सृष्टि प्रकरण विषय स्वामी दयानन्द कृत सत्यार्थप्रकाश अष्टम समुल्लास सृष्टि उत्पत्ति आदि विषय से लिया गया है। अधिक जानकारी के लिए वहां पर देखो। ऋषि जी ने वहां वेदों और अन्य शास्त्रों के निर्देश दे रखे हैं।)

वेदविषयविचार और रचना

सृष्टि की रचना के साथ वेदों की रचना का विवरण भी अति आवश्यक है। जब सृष्टि का आरम्भ हुआ और मनुष्यों की उत्पत्ति हुई, तब परमपिता परमात्मा ने मनुष्यमात्र के कल्याण के लिए जो मार्ग-दर्शक ज्ञान अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा - इन चार ऋषियों, जो आदि सृष्टि में त्रिविष्टप (तिब्बत) में उत्पन्न हुए थे, की आत्मा में एक-एक वेद का प्रकाश किया जिसे श्रुति या वेद के नाम से जाना जाता है। जैसे पिता अपने पुत्र को चलना, पढ़ना, लिखना आदि सिखाकर सब भांति उसका कल्याण चाहता है ऐसे ही सर्वसृष्टि के रचयिता प्रभु द्वारा सृष्टि के आरम्भ में अपने पुत्रों के लिए ऐसे निर्देश देने आवश्यक थे जिनके द्वारा समस्त सृष्टि पदार्थों का उचित प्रयोग करके मनुष्य ऐहिक और पारलौकिक सुख, शान्ति और आनन्द प्राप्त कर अपनी जीवन यात्रा पूर्ण कर सकें।

‘वेद’ ईश्वरीय ज्ञान है। यह ऐसी दिव्यवाणी है जो देश, काल, इतिहास की सीमाओं में न बंध कर समान रूप से सदा सबको कल्याण का निर्देशन करती है। संसार के सबसे प्राचीन ग्रन्थ के रूप में वेद की गौरव गरिमा के सम्मुख सभी विद्वान् एक मत से नत-मस्तक हैं। वेद का अर्थ है ज्ञान और ज्ञान का लक्ष्य है निर्माण, कल्याण, उत्थान।

वेद चार हैं - ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद। वेदों का ज्ञान ईश्वर ने सृष्टि के आरम्भ में चार ऋषियों को दिया अर्थात् अग्नि ऋषि को ऋग्वेद, वायु को यजुर्वेद, आदित्य को सामवेद, अंगिरा को अथर्ववेद। इन चारों ऋषियों ने अपने-अपने वेद का ज्ञान ब्रह्मा जी को दिया और अन्य मनुष्यों को उपदेश दिया।

वेदों में अवयवरूप विषय तो अनेक हैं परन्तु उनमें से चार मुख्य हैं।

(1) एक ज्ञान अर्थात् सब पदार्थों को यथार्थ जानना। (2) दूसरा कर्म (3) तीसरा उपासना और (4) चौथा विज्ञान है। विज्ञान उसको कहते हैं कि जो कर्म, उपासना और ज्ञान - इन तीनों से यथावत् उपयोग लेना और परमेश्वर से लेके तृण पर्यन्त पदार्थों का साक्षात् बोध का होना, उनसे यथावत् उपयोग का करना। इसको अपरा विद्या भी कहते हैं। दूसरी परा विद्या वह है जिससे सर्वशक्तिमान् ब्रह्म की यथावत् प्राप्ति होती है अर्थात् जिसका नाम मोक्ष है।1

आदि सृष्टि से महाभारत पर्य्यन्त मनुष्य जाति ‘वेद-मार्ग’ पर चलते हुए उत्कर्ष की राह पर बढ़ती रही। किन्तु दुर्भाग्यवश स्वार्थ और अज्ञानवशीभूत हो प्रभु का ज्ञान विस्मृत होता गया और जैसे सूर्य के छिपने पर नाना दीपक जल उठते हैं वैसे ही वेदभानु के अस्त होते ही मनुष्यकृत


1. सत्यार्थप्रकाश सप्तम समुल्लास।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-3


नाना मत-मतान्तरों का उदय हुआ, मनुष्य और मनुष्य के मध्य विभिन्न दीवारें खड़ी हो गईं, धरती अन्धकार में डूबती गई।

19वीं शताब्दी के मध्य में जब भारत राष्ट्र पराधीनता और अज्ञान के कारण निराशा के सागर में डूब रहा था, तब प्रभु की कृपा से ऋषि दयानन्द ने फिर से भारत में वेदों का डंका बजाया। उन्होंने बताया - वेद सब विद्याओं का पुस्तक है और कहा कि जब तक मनुष्य जाति प्रभु के बताए वेद-मार्ग पर नहीं चलेगी, तब तक उसका कल्याण नहीं होगा।

वेदो के विषय में कुछ विदेशी विद्वानों के विचार

  1. प्रो० मैक्समूलर महोदय अपनी पुस्तक “India - What can it teach us” (भारत हमें क्या सिखाता है) के पृ० 118 पर लिखते हैं कि - वेद अपौरुषेय और नित्य हैं।
  2. प्रसिद्ध पाश्चात्य विद्वान् जैकोलियट ने अपनी पुस्तक “The Bible in India” (भारत में बाइबिल) में लिखा है कि बड़े आश्चर्य की बात है कि ईश्वरीय ज्ञान समझे जाने वाले ग्रन्थों में केवल वेद ही हैं जिनके सिद्धान्त विज्ञान के सर्वथा अनुकूल हैं।
  3. श्रीमती वलावेटस्की का भी दृढ़ विश्वास है कि “वास्तव में वेद ईश्वरीय ज्ञान है।”
  4. इसी प्रकार डा० जेम्स कज्जिन, डा० लिट, प्रसिद्ध दार्शनिक मैटरलिंक (Materlink), लार्ड माल और मि० मौरिस फिलिप (Mr. Morris Philip) आदि अनेक पाश्चात्य विद्वान् वेदों को न केवल ईश्वरीय ज्ञान वरन् संसार की प्राचीनतम पुस्तक ज्ञान के एकमात्र भण्डार (जिस में गुप्त मन्त्र रूप से समस्त विद्याओं का उपदेश निहित है) तथा संसार की सभ्यता का आदिम स्रोत मानते हैं। उनका विश्वास है कि वैदिक आदर्शों पर चलने से ही संसार फिर से स्वर्ग बन सकता है।

ये सब उपरलिखित 1, 2, 3, 4 उदाहरण, भारतवर्ष का शुद्ध इतिहास प्राचीन भारत (भाग 1) लेखक प्रेमभिक्षु वानप्रस्थ, के पृ० 147-148 पर लिखित हैं)।

सृष्टि की आयु

सृष्टि उत्पन्न होने के पश्चात् जब तक स्थिर रहती है, उस समय को शास्त्रीय परिभाषा में एक कल्प कहते हैं। इसकी दूसरी संज्ञा सहस्रमहायुग भी है। यह कल्प चार अरब बत्तीस करोड़ (4,320000000) वर्षों का होता है।

वेदों के साक्षात्कृतधर्मा ऋषियों ने सृष्टिविज्ञान को भली-भांति यथार्थ रूप से समझा और लोक कल्याणार्थ इसका प्रचलन किया। सूर्य सिद्धान्त (जो गणित ज्योतिष का सच्चा और सुप्रसिद्ध ग्रन्थ है, जिसके रचयिता मय नामक महाविद्वान् थे) में लिखा है - अल्पावशिष्टे तु कृतयुगे मयो नाम महासुरः। अर्थात् कृतयुग = सतयुग जब कुछ बचा हुआ था, तब मय नामक विद्वान् ने यह ग्रन्थ


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-4


बनाया। आज से इक्कीस लाख पैंसठ सहस्र अड़सठ (21,65,068) वर्ष पुराना यह ग्रन्थ है।1


चतुर्युगी अथवा महायुग
नामयुग युग के वर्षों की निश्चित संख्या'
1. सतयुग (कृतयुग) 17,28000 वर्ष
2. त्रेतायुग 12,96000 वर्ष
3. द्वापर युग 8,64000 वर्ष
कलियुग 4,32,000 वर्ष
एक चतुर्युगी का समय 43,20,000 वर्ष

तेतालीस लाख बीस सहस्र वर्षों की एक चतुर्युगी होती है जिसका नाम महायुग भी है। यहां यह स्मरण रखना चाहिये कि कलियुग से दुगुना द्वापर, तीनगुना त्रेता और चारगुना सतयुग (कृतयुग) होता है। एक सहस्र महायुग का एक कल्प होता है जो कि सृष्टि की आयु है। इसी काल को एक ब्राह्मदिन कहते हैं। जितना काल एक ब्राह्मदिन का होता है उतना ही ब्राह्मरात्रि अर्थात् प्रलयकाल होता है।

मन्वन्तर

इकहत्तर (71) चतुर्युगी को एक मन्वन्तर कहते हैं। एक कल्प या सर्ग में सन्धिसहित ऐसे-ऐसे चौदह मन्वन्तर होते हैं। कल्प के प्रारम्भ में तथा प्रत्येक मन्वन्तर के अन्त में जो सन्धि हुआ करती है वह भी एक सतयुग के वर्षों के समान अर्थात् 17,28000 वर्षों की होती है। इस प्रकार एक कल्प में पन्द्रह सन्धियां होती हैं। सृष्टि का स्वभाव नया पुराना प्रति मन्वन्तर में बदलता जाता है, इसीलिए मन्वन्तर संज्ञा बांधी है। इसी तरह चारों युगों के चार भेद और उनके वर्षों की कम ज्यादा संख्या निश्चित की है। मन्वन्तरों के नाम इस प्रकार हैं -

1. स्वायम्भव 2. स्वारोचिष 3. औत्तमि 4. तामस 5. रैवत 6. चाक्षुष 7. वैवस्तमनु - यह सातवां वैवस्तमनु वर्त्त रहा है, इससे पहले छः बीत गये हैं और सावर्णि आदि सात मन्वन्तर आगे भोगेंगे। यह सब मिलकर 14 मन्वन्तर होते हैं।

8 से 14 तक जो मनु होंगे, जिनके नाम पर मन्वन्तर होंगे उनके नाम इस प्रकार हैं - 8. सावर्णि 9. दक्षसावर्णि 10. ब्रह्मसावर्णि 11. धर्मसावर्णि 12. रुद्रसावर्णि 13. रोच्य 14. भौत्यके (अग्निपुराण, गर्ग संहिता, 151वां अध्याय पृ० 264-65 पर देखो)।

(श्रीमद् भगवत महापुराण अष्टम स्कन्ध, 13वां अध्याय में 8 से 12 तक यही नाम हैं परन्तु 13वां देवसावर्णि और 14वां इन्द्रसावर्णि लिखे हैं)।


1. हरयाणे के वीर यौधेय (पृथम खण्ड पृ० 16, लेखक श्री भगवान् देव आचार्य)


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-5


इनके अनुसार गणना -

एक चतुर्युगी का समय 4320000 वर्ष
71 चतुर्युगियों का एक मन्वन्तर का समय 4320000 x 71 = 306720000 वर्ष
14 मन्वन्तरों का काल 306720000 x 14 = 4294080000 वर्ष
15 सन्धियों का काल 172800 x 15 = 25920000 वर्ष1
सृष्टि की आयु या एक कल्प (1000 चतुर्युगियों का काल अर्थात् 4320000 x 1000) 4,32,000000 वर्ष

सृष्टि संवत्

सृष्टि की उत्पत्ति को कितना समय हो चुका है इसकी गणना निम्न प्रकार है -

एक कल्प या एक सर्ग में 14 मन्वन्तर होते हैं। अब तक छः मन्वन्तर बीत चुके हैं और सातवां मन्वन्तर बीत रहा है जिसकी अठाईसवीं चतुर्युगी का भोग हो रहा है और इस 28वीं चतुर्युगी का वर्तमान कलियुग बीत रहा है।

एक मन्वन्तर का बीता हुआ समय 4320000 x 71 = 306720000 वर्ष
छः मन्वन्तर का बीता हुआ समय 306720000 x 6 = 1840320000 वर्ष
सातवें मन्वन्तर की 27 चतुर्युगियों का काल 4320000 x 27 = 116640000 वर्ष
सातवें मन्वन्तर की 28वीं चतुर्युगी के 3 युगों का काल (सतयुग + त्रेता + द्वापर) 3888000 वर्ष
वर्तमान कलियुग के बीत चुके 5088 वर्ष
सृष्टि तथा वेदों की उत्पत्ति को हो गये (क) 1,96,08,53,088 वर्ष
सृष्टि का काल बाकी है (ख) 2,35,91,46,912 वर्ष
सृष्टि का स्थिति काल (स्थिरता काल) जोड़ (क + ख)2 4,32,0000000 वर्ष
1. सृष्टि-संवत् 1,96,08,53,088 (सृष्टि तथा वेदों की उत्पत्ति के समय से)
2. विक्रम संवत् 2045 - भर्तृहरि के भाई विक्रमादित्य ने शकों को हराकर 57 ई० पू० में विक्रम संवत् चलाया।
3. शाक संवत् (शक संवत्) 1910 - कनिष्क ने 78 A.D. में प्रचलित किया।
4. ईस्वी सन् 1988 (ईसा के जन्म से)
5. दयानन्दाब्द 164 (महर्षि दयानन्द के जन्म 1824 ई० से)।
6. हिजरी संवत् 1408 (हजरत मुहम्मद जब मक्का से मदीना गए तब से)।
7. यौधिष्ठिरी संवत् 5088 (महाराजा युधिष्ठिर के राज्याभिषेक के समय से)।
8. कलियुगी संवत् 5088 (कलियुग के आरम्भ से)
9. गुप्त संवत् 1668 - चन्द्रगुप्त प्रथम ने प्रचलित किया। ( 26 फरवरी 320 ई० से)



जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-6


सृष्टि की आयु और पाश्चात्य विद्वान्

पाश्चात्य विद्वानों का मत है कि भूमि सूर्य का एक भाग है और इसको ठण्डा होने में बहुत ज्यादा समय लगता है, तब कहीं यह वनस्पतियों को उत्पन्न करने तथा पशु-पक्षी और मानव के रहने योग्य बनती है।

  • 1. प्रो० एस. न्यूकोम्ब की मान्यता है कि भूमि को ठण्डा होने में एक करोड़ वर्ष लगते हैं।
  • 2. प्रो० क्राल साहिब भूमि को ठण्डा होने का काल सात करोड़ वर्ष मानते हैं।
  • 3. प्रो० सर विलियम टामस के मतानुसार भूमि के ठण्डा होने में दस करोड़ वर्ष लगते हैं।
  • 4. प्रो० लचाफ का कथन है कि भूमि को ठण्डा होने में पैंतीस करोड़ वर्ष लग गये हैं।
  • 5. प्रो० रैड के कथनानुसार यूरोप में जब से वनस्पतियां उगनी प्रारम्भ हुई हैं, तब से पचास करोड़ वर्ष बीत चुके हैं।
  • 6. प्रो० हक्सल, जो भूगर्भविद्या के विशेषज्ञ माने जाते हैं, ने अपने अनुसंधान के आधार पर लिखा है कि जब वनस्पतियां पृथ्वी पर उगने लगीं उस समय एक अरब वर्ष बीत चुके थे। (पं० लेखराम जी द्वारा लिखित सृष्टि का इतिहास से ये प्रमाण लिये हैं)।
  • 7. 33 करोड़ वर्ष पूर्व के जीवाश्म - विज्ञान (जनसत्ता, नई दिल्ली 1 जून 1985) - नई दिल्ली, 31 मई (वार्ता)। स्काटलैंड के वैज्ञानिक स्टेनली वूड ने ऐसे जीवाश्मों के समूह की खोज की है जिससे 33 करोड़ वर्ष पूर्व के कीटाणुओं के जीवन के बारे में जानकारी मिलेगी। ब्रिटिश सूचना केन्द्र के अनुसार वूड की खोज पर न्यू कैसल विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने अध्ययन के बाद पाया कि ये जीवश्म मेंढक के पूर्वजों के हैं। इससे पूर्व मिले जीवाश्म से 30 करोड़ वर्ष पहले जीवन का पता चला था। इस खोज से उभयचर प्राणियों के बारे में विस्तृत जानकारी मिलेगी।
  • 8. सृष्टि से पूर्व की अवस्था का वर्णन ऋग्वेद में उपलब्ध होता है जिसे आज का विज्ञान जगत् भी स्वीकार करता है। मन्त्र इस प्रकार है -
गीर्णं भुवनं तमसापगूढमाविः स्वरभवज्जाते अग्नौ ।
तस्य देवाः पृथिवी द्यौरुतापोऽरणयन्नोषधीः सख्ये अस्य ॥ ऋ० 10.88.2

जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-7


प्रलयावस्था में यह संसार निगला हुआ सा और अन्धकार से ढ़का था। सूर्य के बन जाने पर प्रकाश हो गया। इसके पीछे सारी सृष्टि क्रमशः उत्पन्न हुई। इस ईश्वर रूप अग्नि के सहयोग में पृथ्वी, द्युलोक, जल और औषधियां रमण करने लगीं।
  • 9. सुप्रसिद्ध इतिहासकार इनफनिस्टन महोदय का (जो बम्बई के राज्यपाल भी रहे थे) कथन है कि ब्राह्मदिवस का जो समय आर्य लोग मानते हैं वह ज्योतिष शास्त्र के सिद्धान्तों के अनुसार होने से सत्य है। हिन्दुओं की गणनानुसार ब्राह्मदिवस चार अरब बत्तीस करोड़ वर्ष का होता है।1
  • 10. Scientists (Prof. Nagi and Prof. Zumberg of the University of Arizona have found traces of ancient life and matter dating back to 2,300 million years. The discovery was made in rocks found in Transaval area of South Africa 320 K.M. North of Johannesberg. - The Tribune, 13th July 1975.

अर्थात् - अरीजोना विश्वविद्यालय के प्रो० नागी व प्रो० जुमबर्ग नामक वैज्ञानिकों ने 2 अरब 30 करोड़ वर्ष प्राचीनकाल के जीवन व पदार्थ के अवशेष प्राप्त किये हैं। यह वैज्ञानिक खोज दक्षिणी अफ्रीका के ट्रांस्वाल क्षेत्र में मिली चट्टानों से की गई थी, जो कि जॉहनस्बर्ग से 320 कि० मी० उत्तर में है (दि ट्रिब्यून 13 जुलाई 1975)।

इसी तरह की बहुत सी बातें इतिहासकारों ने अपने ही ढ़ंग से लिखी हैं जो वेदों से मेल नहीं खाती हैं। जैसे -

भारत में सबसे पुरानी रचना आड़ावला (अरावली) विन्ध्यमेखला और दक्खिन भारत का पठार है। उनका विकास अजीव कल्प में ही पूरा हो चुका था। उत्तर भारत, अफगानिस्तान, पामीर, हिमालय, तिब्बत उस समय समुद्र के अन्दर थे। उसी प्राचीन समुद्र की लहरों ने आड़ावला पर्वत को काट काटकर उसके लाल पत्थर से मालवा का पठार बना दिया। द्वितीय कल्प के अन्तिम भाग खटिका युग (Cretaceous Period) से भूकम्पों का सिलसिला आरम्भ हुआ जो तृतीय कल्प के आरम्भ तक जारी रहा। उन्हीं भूकम्पों से हिमालय, तिब्बत, पामीर आदि तथा उत्तर भारत के कुछ अंश समुद्र के ऊपर उठ आये। (‘भारत भूमि और उनके निवासी’ पे० 19)|

इस पर टिप्पणी - यह पहले लिख दिया है कि सृष्टि की आयु एक कल्प है, जो कि 4,32,0000000 वर्ष की है। इस काल के समाप्त होने पर प्रलयकाल शुरू होता है उसका काल भी 4,32,0000000 वर्ष का होता है। फिर सृष्टि की उत्पत्ति हो जाती है। यह सिलसिला जारी रहता है। ऊपर के प्रकरण में लिखा है कि द्वितीय कल्प के अन्तिम भाग से भारी भूकम्प शुरू



1. सृष्टि का इतिहास लेखक पं० लेखराम जी।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-8


होकर तृतीय कल्प के आरम्भ तक जारी रहा। कल्प के अन्तिम भाग के बाद तो प्रलयकाल शुरु हो जाता है जिससे सारी सृष्टि परमाणु रूप होकर अन्धकार छा जाता है। तो देखिए भला आड़ावाला, दक्खिन भारत का पठार और यह समुद्र आदि अपनी असली शक्ल में कैसे रह सकते हैं। ये भी तो सब परमाणु बन जाते हैं।

दूसरी बात यह है कि मनुष्यों की आदि सृष्टि त्रिविष्टप अर्थात् जिसको तिब्बत कहते हैं, में हुई। यह भारत देश का ही एक भाग था। (सत्यार्थप्रकाश अष्टम समुल्लास पृ० 147)। तो देखिये, वहां समुद्र कैसे हो सकता है? कुछ समय के बाद आर्य लोग तिब्बत से आकर भारत-भूमि पर बस गये। इसी से इस देश का नाम आर्यावर्त हुआ जिसकी सीमायें उत्तर में हिमालय, पूर्व में दृषद्वती जिसको ब्रह्मपुत्र कहते हैं, पश्चिम में अटक नदी और दक्षिण में विन्ध्याचल पहाड़ हैं1। जब वेद शास्त्रों में ऐसे लिखा है, सो यही प्रमाणित है।

हमारे देव और ऋषि (त्रिदेव - ब्रह्मा, विष्णु और महेश)

आदि सृष्टि में आर्यावर्त्त देश ऋषि-मुनियों और देवताओं से परिपूरित था। सात्विक आहार-व्यवहार के कारण, सत्वगुणप्रधान देव और ऋषियों का बाहुल्य था। इसको देवयुग कहा गया है जिसमें सहस्रों ऋषि, मुनि और देवी देवता हुए हैं, किन्तु ब्रह्मा, विष्णु और महेश - ये तीन देवता अति प्रसिद्ध हैं। उनका थोड़ा सा विशेष वर्णन करना आवश्यक है।

महर्षि ब्रह्मा

आदि सृष्टि में परमात्मा तथा प्रकृति से ब्रह्मा की उत्पत्ति हुई। वे अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न हुए। इसी कारण उनका नाम स्वयम्भू है। उनके सांसारिक माता पिता नहीं थे। परमात्मा पिता और प्रकृति (स्थूल भूतरूप पृथ्वी) माता थी। (अथर्ववेद) यह पहले लिख दिया है कि आदि सृष्टि में ईश्वर-प्रदत्त वेदज्ञान की शिक्षा अग्नि वायु, आदित्य और अंगिरा ऋषियों के द्वारा ब्रह्मा को मिली। ब्रह्मा ने यह वेदज्ञान अन्य ऋषियों को दिया। बह्मा ने यह वेदज्ञान अन्य ऋषियों को दिया। इसीलिए ब्रह्मा को वेदों का ज्ञाता कहा गया है2

ब्रह्मा सब विद्याओं का जानने वाला होता है। वह यज्ञ तथा सभी विद्याओं के ज्ञान से निपुण है, इसीलिए वह ब्रह्मा (बृहत्) कहलाता है3

ब्रह्मा जी सब देवों में पहले जन्म लेने तथा सबसे विद्वान् होने से प्रथम माने जाते हैं। उन्हीं के पीछे अन्य मानवों ने जन्म लिया। उन सब प्राणियों तथा पदार्थों के नामकरण आदि उन्होंने ही किये। इसलिए वे विश्व के कर्ता (विश्वकर्मा) कहलाये। सब संस्था आदि के निर्माण के कारण ये ही सब भवनों के रक्षक कहलाये और सब विद्याओं में श्रेष्ठ ब्रह्मविद्या के निर्माता स्वयं ब्रह्मा जी


1. सत्यार्थप्रकाश अष्टम समुल्लास पृ० 148.
2. श्वेताश्ववतर उपनिषद् 6-18.
3. यास्क निरुक्त अ० 1, खण्ड 8.


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थे, जिन्होंने इस विद्या का प्रवचन अपने ज्येष्ठपुत्र अथर्वा के लिए किया1। ब्रह्मा का एक नाम हिरण्यगर्भ भी था। हिरण्यगर्भ के बनाये हुए योगशास्त्र के दो श्लोकों का भावार्थ यह है - योगी कभी अपनी साधना का अहंकार नहीं करता, वह मान को हानिकारक और अपमान को हितकारक समझता है, इसीलिए वह लोकैषणा से सदा दूर रहता है2

आयुर्वेद के प्रवक्ता ब्रह्मा

चार वेदों के चार उपवेद हैं। आयुर्वेद, ऋग्वेद सम्बन्धी एक उपवेद है। इसको वैद्यकशास्त्र भी कहते हैं। आयुर्वेदविद्या की परम्परा इस प्रकार है। ब्रह्मा ने आयुर्वेद की विद्या दक्ष प्रजापति को दी, दक्ष ने अश्विनीकुमारों को और उनसे यह विद्या इन्द्र ने प्राप्त की3। धन्वन्तरि जी कृत सुश्रुत में भी ब्रह्मा को आयुर्वेद का प्रथम प्रवक्ता बताया है। ब्रह्मा ने हस्त्यायुर्वेद नाम का भी एक ग्रन्थ बनाया था।

धनुर्वेद का आदि प्रवक्ता ब्रह्मा

धनुर्वेद एक उपवेद है। यह यजुर्वेद सम्बन्धी है। इसको शस्त्रास्त्र विद्या ग्रन्थ कहते हैं। सब अस्त्रों के प्रतिबन्ध के लिए ब्रह्मा जी ने ब्रह्मास्त्र का निर्माण किया। अर्जुन ने भी इस परम्परागत विद्या को ग्रहण किया था4। ब्रह्मास्त्र के निर्माता और शिक्षक स्वयं ब्रह्मा जी थे5

पुष्पक विमान के आदि निर्माता ब्रह्मा

पुष्पक विमान के प्रथम निर्माता ब्रह्मा जी थे। यह देवताओं का वाहन न टूटने फूटने वाला और बड़ा सुन्दर था। न अधिक ठण्डा न अधिक गर्म, किन्तु सब ऋतुओं में सुखदायक और मंगलकारी था। इस विमान के खम्भे तथा फाटक स्वर्ण और वैदूर्यमणि (रत्न) के बने हुए थे। वह सब ओर से मोतियों की जाली से ढका हुआ था। उसके भीतर ऐसे वृक्ष लगे हुए थे जो सभी ऋतुओं में फल देने वाले थे। उसका वेग मन के समान तीव्र था। यात्रियों की इच्छानुसार सब स्थानों पर जा सकता था तथा चालक की इच्छानुसार छोटा बड़ा रूप भी धारण कर लेता था। उस आकाशचारी विमान में मणि और सुवर्ण की सी सीढियां तथा तपाये हुए सोने की वेदियां बनी हुई थीं6

लिपि निर्माता ब्रह्मा

अपने अन्तर्गत भावों को किसी दूरस्थ व्यक्ति के आगे प्रकट करने तथा सुरक्षित रखने के लिये लिखने की आवश्यकता हुआ करती है। वह लिखावट लिपि कहाती है। सृष्टि के आरम्भ में सबसे पहली लिपि आविष्कर्ता ब्रह्मा जी ही थे। इसी कारण उस लिपि का नाम ब्राह्मी लिपि प्रसिद्ध हुआ। सर्ग (कल्प) के आदि से लेकर आज से 1590 वर्ष पूर्व तक यही लिपि प्रयोग में लाई जाती रही है। वेद भी इसी लिपि में लिपिबद्ध हुए। प्राचीन शिलालेख इसी लिपि में मिलते हैं। इसी कारण व्याकरण, ज्योतिषशास्त्र, वास्तुशास्त्र, गणितशास्त्र, अश्वशास्त्र,


1. मुण्डकोपनिषद्। 2. विष्णुपुराण 2-13. 3. पतञ्जलिकृत चरक संहिता चिकित्सास्थान 1-4.
4. महाभारत में लिखा देखो। 5. वाल्मीकि रामायण (युद्ध काण्ड)।
6. वाल्मीकि रामायण उ० का० सर्ग 15 में देखो।


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नाट्यशास्त्र, इतिहास (पुराण), मीमांसा आदि का प्रणयन भी सब विषयों के विद्वान् ब्रह्मा जी ने ही किया था1

पुराण

वेद सम्बन्धी ऐतरेय, शतपथ, साम और गोपथ ब्राह्मण ग्रन्थ कहलाते हैं। इन्हीं के यह पाँच नाम इतिहास, पुराण, कल्प गाथा और नाराशंसी हैं। (इतिहास) जैसे जनक और याज्ञवल्क्य का संवाद। (पुराण) जगदुत्पत्ति आदि का वर्णन। (कल्प) वेद शब्दों के सामर्थ्य का वर्णन, अर्थनिरूपण करना। (गाथा) किसी का दृष्टान्त दार्ष्टान्त रूप कथाप्रसंग कहना। (नाराशंसी) मनुष्यों के प्रशंसनीय व अप्रशंसनीय कर्मों का कथन करना। इन्हीं से वेदार्थ का बोध होता है। अब पाठक समझ गए होंगे कि यह पुराण इन नवीन कपोलकल्पित श्रीमद् भागवत, शिवपुराणादि मिथ्या व दूषित ग्रन्थों से भिन्न हैं2

वैदिक नाम हरयाणा

जब ब्रह्मा जी ने वेद के आधार पर गुण, कर्म, स्वभावानुसार सभी अधिष्ठानों के नाम रक्खे उसी समय हरयाणा प्रान्त का नाम भी वेद के अनुसार ब्रह्मा जी ने रक्खा। (ऋग्वेद 8.25.22) ब्रह्मा जी के छः मानस पुत्र [संभव है कि वे उनके विद्यापुत्र (शिष्य) हों] । उनके नाम ये हैं - मरीचि, अत्रि, अंगिरस, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु। ब्रह्मा के एक पुत्र दक्ष प्रजापति थे जिनकी तेरह कन्यायें थीं। इस वंशावली का वर्णन आगे लिखा गया है। (महाभारत आदि पर्व अध्याय 65)

विष्णु

ब्रह्मा के पुत्र दक्ष प्रजापति थे। दक्ष की 13 कन्यायें थीं। उन्हीं से देव, दैत्य और दानवादि की उत्पत्ति हुई। उन कन्याओं में से एक का नाम अदिति था जिससे 12 पुत्र आदित्य (देव) उत्पन्न हुए। विष्णु इन देवों में सबसे छोटा होता हुआ भी गुणों में सबसे अधिक था3। बारह आदित्यों में से विष्णु को राज्य दिया गया। यह बारह देवों का कुल ही देवकुल व सुरकुल नाम से प्रसिद्ध है। देवों का राजा होने से विष्णु सुरकुलेश कहलाया। यही विकृत होकर हरकुलीस (Hercules) बन गया जो यूनानियों का प्रसिद्ध देवता है तथा जिसका चित्र यूनानियों की बहुत मुद्राओं (सिक्कों) पर मिलता है। यवन लोग भी हरकुलीस के बारह भ्राता मानते हैं और बारह में हरकुलीस को सबसे छोटा मानते हैं4। हमारे साहित्य में विष्णु को महासेनापति, राजा आदि माना गया है। इसके सहस्र नाम विष्णु सहस्रनाम पुस्तक में लिखे हैं। महाभारत अनुशासन पर्व में भी विष्णु देव को अनेक नामों से पुकारा गया है। ये चारों वेदों के ज्ञाता, सर्वप्रकार के शस्त्रास्त्रों को धारण करने वाले योद्धा, इन्द्र से भी महान्, सब विद्या तथा कलाओं में निष्णान्त पण्डित, सत्त्वगुणप्रधान देवता धनुर्वेद के ज्ञाता, सबकी रक्षा करनेवाले सच्चे वीर क्षत्रिय राजा थे।


1. श्री भगवान् देव आचार्यकृत हरयाणे के वीर यौधेय प्रथम खण्ड पृ० 117.
2. सत्यार्थप्रकाश एकादश समुल्लास पृ० 218-219 पर देखें।
3. महाभारत आदि पर्व 65-16 .
4. वायुपुराण 70-5.


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उनके विमान का नाम गरुड़ था तथा उस पर गरुड़ध्वज अंकित रहता था। ब्रह्मा, विष्णु, महेश सभी विमानों द्वारा आकाशमार्ग से यात्रा करते थे। इसी विमान में बैठकर विष्णु महाराज ने लंकापुरी के राक्षसों के साथ घोर युद्ध किया था। वे युद्ध में हार गए और विष्णु जी से भयभीत होकर लंका को छोड़ गये और पाताल (अमेरिका) में चले गये1। इसका पूर्ण विवरण ब्रह्मा की वंशावली में दिया गया है। सबसे पहले आदिसृष्टि रचना में मनुष्य की उत्पत्ति त्रिविष्टप (वर्तमान तिब्बत) में हुई। यह त्रिविष्टप ही प्राचीनकाल की अमरपुरी या स्वर्गलोक था। यहां पर ही इन्द्र, विष्णु, महादेव आदि का राज्य था। देवता व विद्वान् अपने में से एक योग्य विद्वान् व्यक्ति को चुनते थे जिसकी पदवी इन्द्र की थी। वही सबका राजा होता था। उसका सिंहासन अमरपुरी या इन्द्रपुरी में था। विष्णु जी वैकुण्ठ नगरी में रहते थे जो उसकी राजधानी थी। महादेव जी कैलाश को अपनी राजधानी बनाकर रहते थे। अलकापुरी, वैश्रवण (जिसको धनपति कुबेर भी कहते थे) की राजधानी थी। ये सब शोभायमान नगर आदिसृष्टि में त्रिविष्टप (स्वर्गलोक) में बन चुके थे2

महेश (शिव)

महेश (शिव)

महेश (शिव) पुत्र महर्षि अग्निष्वात - महाभारत में शिवजी के 1008 नामों का उल्लेख मिलता है जो उसके गुण, कर्म, स्वभाव और इतिहास पर प्रकाश डालते हैं। प्राचीन प्रसिद्ध नाम स्थाण्वीश्वर (थानेसर) जो कुरुक्षेत्र के पास विद्यमान है, सम्भव है इसे शिवजी महाराज ने बसाया हो। वे स्वयं भी यहां निवास करते थे। कुरुकर्ता, कुरुवासी, कुरुभूत - ये नाम भी शिवजी के ही हैं। कुरुक्षेत्र व कुरुजांगल आदि के निर्माता होने से कुरुकर्त्ता, इस प्रदेश में निवास करने के कारण कुरुवासी और इस प्रदेश को सर्वथा उन्नत करने के कारण इसी में रम गये जिससे कुरुभूत नाम से प्रसिद्ध हुए। यह स्थाण्वीश्वर, कुरुप्रदेश व कुरुक्षेत्र का मुख्य नगर जाट सम्राट् महाराजा हर्षवर्धन तक इस प्रदेश की राजधानी रहा।

महादेव जी सभी विद्याओं के द्वारा सबके कष्टों को हरते थे, इस गुण के कारण वे हर नाम से सारे विश्व में विख्यात हुए। सारा भारत हर हर महादेव की गूंज से घोषित हो उठा और यह नाद आर्य जाति का युद्धघोष (Battle Cry) बन गया। देवर्षि ब्रह्मा से लेकर महर्षि व्यास पर्यन्त इसी देवभूमि हरयाणे में यज्ञ-याग करते आये हैं। शिवजी ने गुरुकुल और आश्रमों का निर्माण यहीं पर किया। इस ब्रह्मर्षि देश हरयाणे में सारे भूमंडल के लोग वेदज्ञानविहित चरित्र की शिक्षा लेते थे। महादेव ने अपनी महारानी पार्वती (गौरी), गौरीपुत्र गणेश और कार्तिकेय को इस कुरुभूमि के निर्माण में लगा दिया था। कार्तिकेय ने हरद्वार के निकट अपने वाहन (ध्वज) के नाम पर मयूरपुर नामक नगर बसाया, जो कनखल में अब भी मायापुर के नाम से प्रसिद्ध है, जिसके अवशेष अब खण्डहर के रूप में विद्यमान हैं। कार्तिकेय ने रोहतक 3 को अपनी राजधानी तथा निवास स्थान बनाया। जिस समय शिव, ब्रह्मा, इन्द्र और विष्णु आदि ने अपनी देवसेना का सेनापति कार्तिकेय


1. वाल्मीकि रामायण उत्तरकाण्ड सर्ग 3-8 ।
2. स्वामी दयानन्द सरस्वती के पूना प्रवचन (उपदेश मंजरी पृ० XX और XVIII ।
3. सूर्य-सिद्धान्त ग्रन्थ के अनुसार रोहतक नगर 21,65,000 वर्षों से भी पुराना है। (यह ग्रन्थ मय नामक महाविद्वान् ने बनाया था)


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को चुना, तब सभी नेताओं ने उसको अपनी-अपनी भेंट दी। सुपर्ण = गरुड़ (जो देवों में महायोद्धा थे) ने कार्त्तिकेय को मोर चिह्न दिया । महाभारत अनुशासन पर्व, 86 अध्याय, शल्यपर्व, 46 अध्याय]]

गणेश को उसके पिता महादेव और भारतीय प्रथम संविधान के निर्माता ब्रह्मा ने गणों (खापों) का अधिपति नियुक्त किया, जिसका कार्य जनता में होने वाले आन्तरिक विघ्नों का नाश करना था।1 इसी से गणेश को विध्ननिवारक देवता मानकर पौराणिककाल में यहां के लोग सभी शुभ अवसरों पर उसकी पूजा करते रहे हैं। गणेश जी सैनिक प्रशिक्षण देते थे और शस्त्राशस्त्र की विद्या में निपुण थे। गणेश जी की अस्त्र-शस्त्र बनाने की प्रयोगशालायें (Laboratories) हरयाणा में कई स्थानों पर थीं।

देवराज इन्द्र का चुनाव

प्रारम्भ में त्रिविष्टप (तिब्बत) में सभी देवासुरों की सृष्टि उत्पन्न हुई थी और देवताओं का राज्य आरम्भ से महाभारत के बहुत पीछे तक वहां पर रहा था। देव मिलकर देवराज इन्द्र का चुनाव करते थे और सबने मिलकर उसे स्वर्ग (सभी सुखों से युक्त) बना रखा था। इसीलिए त्रिविष्टप, मोक्षद्वार व स्वर्गद्वार नामों से प्रसिद्ध हुआ। महादेव जी को देवताओं ने चुनकर देवराज इन्द्र का पद दिया था। वे अस्त्र-शस्त्रों की विद्या में सिद्धहस्त थे अर्थात् धनुर्वेद के प्रकाण्ड विद्वान् थे। वे महात्मा के रूप में कमण्डलुधारी थे और धनुषबाण, अशनी, शतघ्नी, खड्ग, परशु आदि अस्त्र-शस्त्रों को धारण करने वाले महान् योद्धा थे।

आदिसृष्टि में गणराज्य या पंचायतराज्य के वे ही प्रथम निर्माता थे। अपने युग में सबसे अधिक योग्य होने से गणाध्यक्ष और महासेनापति चुने गये थे। इनके प्रिय शस्त्र पिनाक धनुष2, त्रिशूल, परशु आदि के चित्र इनको मानने वाले गण यौधेयादि ने अपनी मुद्राओं पर भी अंकित किये हैं।

शिवजी महाराज आयुर्वेद विद्या के बहुत बड़े विद्वान् थे। कुशल चिकित्सक होने से धन्वन्तरि नाम से विभूषित थे। स्थावर संखिया, कुचलादि और जंगम सर्प, बिच्छू आदि विषों की चिकित्सा में निष्णात थे। अतः हालाहल विष3 का पान, भयंकर विषधर सर्पों का उनके गले और हाथों पर लिपटे रहना यही सिद्ध करते हैं कि उन्हें विषों से किसी प्रकार का भय नहीं था।

शिवजी व पार्वती दीन हीन दुखियों के दुःख दूर करने वाले थे। शिवजी गौ, नन्दी (बैल) सांड आदि के पालक और रक्षक थे। इसीलिए उन्होंने अपने विशाल ध्वज का चिह्न नन्दी (सांड) का बनाया। शिवजी महाराज अपने राज्य की शासनव्यवस्था करने के लिए भ्रमण करते रहते थे। शीघ्रता से आने-जाने के लिए वे वायुयान का प्रयोग करते थे, जिसका आकार बाहर से नन्दी (वृषभ) के समान था।


1. याज्ञवल्क्य स्मृति आचाराध्य, 271 श्लोक।
2. शिवजी का धनुष जिसको रामचन्द्र जी ने जनकपुरी में तोड़ा था।
3. बहुत तीव्र विष।


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शिवजी महाराज का राज्य

इनका राज्य कैलाश पर्वत से काशी तक जिसमें शिवालक (शिव की जटायें = राज्य की जटायें = गणप्रजायें), हरद्वार शामिल थे। इसके अतिरिक्त हरयाणा प्रदेश पर भी इनका राज्य था। इस हरयाणा प्रदेश को ब्रह्मर्षि देश भी कहा गया है। कुरु-प्रदेश, जिसका नाम कुरुक्षेत्र अथवा कुरु-जांगल भी रहा है, जिसको धर्मक्षेत्र के नाम से पुकारा गया है, इसी हरयाणा प्रान्त का एक भाग है। शिव की राजधानी ग्रीष्मकाल में कैलाश पर्वत और अन्य ऋतुओं में स्थाण्वीश्वर (थानेसर) थी।

हरयाणा प्रदेश की सीमायें

राजनैतिक उथल-पुथल के कारण भारत राष्ट्र की सीमाओं हरयाणा की सीमाओं में भी फेर-बदल होता रहा है। सामान्य रूप से हरयाणा की सीमा यह रही है -

उत्तर में सतलुज नदी, पूर्व में हिमालय की तराई से बरेली-मैनपुरी तक, दक्षिण में चम्बल नदी की घाटियां और पश्चिम में गंगानगर से ग्वालियर तक। दिल्ली इसके बीच में है1। मनु महाराज लिखते हैं -
कुरुक्षेत्रं च मत्स्याश्च पाञ्चालाः शूरसेनकाः ।
एष ब्रह्मर्षि देशो वै ब्रह्मावर्तादनन्तरः ॥ मनु० अ० 2

अर्थात् ब्रह्मर्षि देश के अन्तर्गत कुरुक्षेत्र, मत्स्य, पाञ्चाल और शूरसेनक - ये चारों देश आ जाते हैं। हरयाणा प्रदेश को ब्रह्मर्षि देश कहा है। यह प्रदेश ऋषि-मुनियों की तपोभूमि रहा है, इसी कारण इसी हरयाणा प्रान्त का नाम ब्रह्मर्षि देश था। यहां पर ब्रह्मज्ञान और सब प्रकार की विद्याओं2 के भण्डार ऋषि, महर्षि, सदाचारी विद्वान् ब्राह्मणों के बड़े-बड़े आश्रम, गुरुकुल, महाविद्यालय विद्यमान थे, जहां पर सब द्वीपों व देशों से सब प्रकार की विद्या पढ़ने और सदाचार की शिक्षा लेने के लिए महाभारत पर्यन्त मनुष्य आया करते थे।

सन् 1857 ई० में स्वतन्त्रता की पहली लड़ाई भारतवासियों ने अंग्रेजों के विरुद्ध छेड़ दी थी परन्तु अंग्रेजों ने इस पर काबू पा लिया। उन्होंने सन् 1858 ई० में इस हरयाणा का विभाजन कर दिया जिससे इस प्रान्त का नाम ही मिटा दिया गया। 1 नवम्बर 1966 में पंजाब विभाजन होने पर वर्तमान हरयाणा प्रदेश बना।

हरयाणा प्रान्त में स्थान-स्थान पर शिवालय (शिव मन्दिर) बड़ी संख्या में मिलते हैं जिनमें शिवजी, पार्वती, गणेश और नन्दी की मूर्तियां स्थापित हैं, जिनकी पूजा पौराणिक काल से यहां के निवासी करते आ रहे हैं।

आदि सृष्टि के त्रिदेव ब्रह्मा, विष्णु और महेश (शिव) का यह वर्णन संक्षेप से किया गया है। इसको पढ़ने से पाठक-गण समझ गए होंगे कि आदि सृष्टि में ही इस आर्यावर्त में सब प्रकार की


1. जगदेवसिंह सिद्धान्ती एम० पी० कृत लेख आर्यसमाज और रोहतक (डिस्ट्रिक्ट गजटियर)।
2. महेश (शिव) का यह वर्णन हरयाणे के वीर यौधेय, प्रथम भाग, पृष्ठ 122-136 (लेखक श्री भगवानदेव आचार्य) पर है।


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विद्यायें, विज्ञान और कलाकौशल उन्नति के शिखर पर पहूंच चुके थे और महाभारत काल तथा उससे भी पश्चात् राजा वीर विक्रमादित्य और भोज के शासनकाल तक रही।1 विदेशी और अंग्रेज इतिहासकारों ने भारतीयों को असभ्य, मूर्ख और जंगली सिद्ध करने के काफी यत्न किये हैं। उन्होंने लिखा है कि प्राचीनकाल में मनुष्य गुफाओं में रहते थे। वृक्ष की छाल से शरीर ढकते थे। कन्द मूल तथा कच्चा मांस खाते थे। उसको खेती करनी नहीं आती थी। वे लोग अस्त्र तथा औजार पत्थर के बनाते थे। इस युग को पत्थर का युग कहा है। इसके बाद धातु युग चला2। यह भी लिख मारा कि आर्यों से पूर्व भारत में सिन्धुघाटी सभ्यता विद्यमान थी3। इस तरह की अनेक कपोल कल्पनायें विदेशी इतिहासकारों की मनगढ़न्त हैं जो सब मिथ्या हैं। खेद है कि आज भी ये बातें स्कूल-कालिजों में विद्यार्थियों को पढ़ाई जाती हैं।

विष्णु और महादेव, ब्रह्मा जी के साथ त्रिमूर्ति मुख्य देवता प्रसिद्ध हुए।

हिमालय की ऊंची चोटी पर विष्णु वास करने लगे, उसी स्थान को वैकुण्ठ कहते हैं। यही उनके राज्य की राजधानी का नगर था। फिर दूसरे हिमाच्छादित भयंकर ऊंचे प्रदेश में महादेव वास करने लगे। उसे कैलाश कहते थे। कुबेर अलकापुरी4 के रहने वाले थे। यह सब केदारखण्ड का वर्णन किया गया है। कश्मीर से लेकर नेपाल तक हिमालय की जो ऊंची-ऊंची चोटियां हैं वहां देवता अर्थात् विद्वान् पुरुष रहते थे। गत समय में इस समय की तरह प्रायः बर्फ नहीं पड़ती थी ऐसा विचार होता है। इस देवलोक में भद्रपुरुष प्रत्येक स्थान पर राज्य करते थे।

  1. देहली में इन्द्रप्रस्थ नामी स्थान था, वहां इन्द्र का राज्य था।
  2. पुष्कर और ब्रह्मावर्त्त में ब्रह्मा ने राज्य किया।
  3. काशी, उज्जैन और हरद्वार आदि में महादेव जी का राज्य था।

इन विद्वानों अर्थात् आर्यों के वैरी अनार्य भील आदि थे। इनके साथ बराबर आर्यों को युद्ध करना पड़ता था। विमानों में बैठकर भी युद्ध करते थे। जहां कहीं स्वयंवर रचा गया तो विमानों पर चढ़कर शीघ्र ही उस स्थान पर पहुंच जाते थे। इन देवताओं में बड़े देवता लोग अत्यन्त वीर थे। इनकी स्त्रियां मर्दाना जोश में अपने पतियों के साथ युद्ध में जाया करती थीं। (उपदेशमंजरी में स्वामी दयानन्द सरस्वती का आठवां और दसवां प्रवचन पृ० 70 और 79 पर)। त्रिविष्टप (वर्तमान तिब्बत) ही प्राचीनकाल की अमरपुरी अथवा स्वर्गलोक था। यहां पर ही इन्द्र, विष्णु, महादेव आदि का शासन था। (उपदेशमंजरी पृ० XX)

आर्य कौन हैं, उनका मूल निवासस्थान कौन सा है?

आदिसृष्टि में एक मनुष्य जाति थी, पश्चात् - वि जानीह्यर्यान्ये च दस्यवो बर्हिष्मते रन्धया शासदव्रतान् ॥ ऋ० मं० 1 सू० 51, मं० 8 ॥ उत शूद्रे उतार्ये ॥ अथर्व 19-62-1 का वचन है। आर्य नाम धार्मिक, विद्वान् आप्तपुरुषों का और इससे विपरीतजनों का नाम दस्यु अर्थात् डाकू, दुष्ट, अधार्मिक और अविद्वान् है। आर्यों में पूर्वोक्त प्रकार से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र चार


1, 2 और 3 का वर्णन आगे अध्याय तीन में किया जायेगा।
4. ब्रह्मा की वंशावली में ब्रह्मा का परपौत्र वैश्रवण जिसे धापति कुबेर भी कहा गया है, ने अलकापुरी हिमालय पर्वत पर बसाई थी। वंशावली देखो।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-15


वर्ण गुण, कर्म के आधार पर हुए तथा ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य द्विजों का नाम आर्य और शूद्रों का नाम अनार्य अर्थात् अनाड़ी है। (सत्यार्थप्रकाश अष्टम समुल्लास पृ० 148)। आदि सृष्टि में अनेक मनुष्य, युवावस्था में ईश्वर ने उनके कर्मों के अनुसार उत्पन्न किए, क्योंकि बालक उत्पन्न करता तो उनको पालने के लिए दूसरे मनुष्य आवश्यक होते और जो वृद्धावस्था में बनाता तो मैथुनी सृष्टि न होती, इसलिए युवावस्था में सृष्टि की है जिसको अमैथुनी सृष्टि कहते हैं। इससे आगे मैथुनी सृष्टि चलती है (सत्यार्थप्रकाश अष्टम समुल्लास पृ० 146-147)।

आर्यों का मूल निवास स्थान

इस विषय में देशी और विदेशी इतिहासवेत्ताओं के अलग-अलग मत हैं। विद्वानों का कहना है कि संस्कृत और यूरोप की कुछ भाषाओं में गहरा सम्बन्ध है। संस्कृत, लैटिन, अंग्रेजी, फारसी तथा जर्मन भाषाओं के बहुत से शब्द एक दूसरे से मिलते हैं। इन सब दूसरी भाषाओं की जननी संस्कृत1 भाषा है। भारत, ईरान, यूनान, जर्मनी, इटली, ब्रिटेन, स्कैण्डेनेविया, आदि के लोग आर्य जाति से ही सम्बन्धित हैं और इनकी भाषाओं में घनिष्ठ समानता है। प्रश्न यह है कि वह स्थान कौन सा है जहां पर इन भाषाओं के बोलने वालों के पूर्वज रहते थे? भिन्न-भिन्न विचार निम्नलिखित हैं-

  • (1). सरकार के शिक्षा विभाग द्वारा पाठ्यपुस्तकों में मनुष्य का आदि उत्पत्ति स्थान मध्य एशिया बताया गया है। इस विचार के प्रवर्तक यूरोप के विद्वान् क्यूनो थे। उन्होंने यूराल पर्वत से लेकर अटलांटिक महासागर तक लम्बे मैदान से ही आर्यों का यूरोप, ईरान, भारत में जाना सिद्ध किया है। इसका कारण बताया है कि वहां के चारों ओर भाषा का सीधा अपभ्रंश बोला जाना। किन्तु आज तक के खोज किए गए भाषाविज्ञान (साइन्स आफ लैंग्वेज पुस्तक) से इस बात का खण्डन हो गया है कि एक भाषा बोलने वाले एक ही जाति के नहीं हो सकते हैं। जैसे अंग्रेजी भाषा के विद्वान एक मद्रासी को अंग्रेज यूरोपियन नहीं मान सकते।
  • (2). जर्मनी के विद्वान् मैक्समूलर का विचार है कि आर्य जाति का मूलस्थान मध्य एशिया था और यहीं से ये लोग यूरोप और एशिया के अन्य प्रदेशों में गए। एशिया माइनर के नोगजकोई स्थान से लगभग 1400 ई० पूर्व का एक अभिलेख मिला है जिसमें आर्यों के वैदिक देवता इन्द्र, वरुण आदि का उल्लेख है। इससे अनुमान लगाकर मैक्समूलर ने मध्य एशिया और भारत में आना लिखा है। परन्तु 'साइन्स आफ लैंग्वेज' पुस्तक लिखी जाने के बाद इसी मैक्समूलर को अपनी अन्तिम रचना 'गुडवर्ड' अगस्त सन् 1887 में लिखना पड़ा कि जिस प्रकार 40 वर्ष पूर्व मैंने कहा था उसी तरह अब भी कहता हूं कि आर्यों की जन्मभूमि कहीं एशिया में ही है। 'कहीं' शब्द ही मध्य एशिया का खण्डन है।
  • (3). प्रसिद्ध विद्वान श्री 'वार्न' ने आदि पुरुष उत्तरीय ध्रुव में हुये, लिखा है। सम्भवतः लोकमान्य बालगंगाधर तिलक ने भी 'वार्न' की पुस्तक से प्रेरणा पाकर इस विद्वान् से सहमति प्रकट की हो। वार्न के विचार से “किसी समय आर्य उत्तरी ध्रुव में रहते थे। दस हजार

1. ऋषि दयानन्द सरस्वती के पन्द्रह व्याख्यान (पूना प्रवचन उपदेश-मंजरी) प्रथम प्रवचन (पृ० 28-29)


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-16


वर्ष पूर्व वहां बर्फ की महान् वर्षा हुई जिससे वे वहां से निकल भागे और भारत, ईरान, यूरोप में बस गए।”
लोकमान्य तिलक जी ने भी आर्यों का मूलस्थान उत्तरी ध्रुव बताया है1। वेद शास्त्रों में छः मास की रात और छः मास के दिन का उल्लेख है। ऐसा उत्तरी ध्रुव में ही हो सकता है। इस विचार के विरुद्ध विद्वानों ने यह तर्क प्रस्तुत किया है कि उत्तरी ध्रुव जैसे शीत प्रदेश में किसी जाति का रहना सम्भव नहीं है। महात्मा तिलक ने आर्यों का उत्तरी ध्रुव से कैस्पियन तट और ईरान के प्रदेशों से गुजरते हुए पंजाब में आना सिद्ध किया है। इसका खण्डन रामायण में है -
(i) सुग्रीव सीता जी की खोज के लिए उत्तर दिशा में भेजे जाने वाले वानरों को आदेश देते हैं - श्रेष्ठ वानरो ! तुम उत्तर कुरु के उत्तर में कभी न जाना, उससे आगे न तो सूर्य का प्रकाश है और न किसी देश आदि की सीमा है और आगे की दशा का कुछ भी ज्ञान नहीं है। (वा० रा० किष्किम्धाकाण्ड 43वां सर्ग श्लोक 59)
(ii) डा० एलेन्सन ने अन्य वैज्ञानिक प्रमाणों से सार निकाला है कि मनुष्य की खाल पर उत्तरध्रुवनिवासी पशुओं के समान लम्बे बाल नहीं हैं। उसकी खाल में पसीना निकलने वाले रोमकूपों से स्पष्ट है कि वह उत्तर ध्रुव का मूल निवासी नहीं है। आधुनिक अनुसंधानों से यह भी स्पष्ट हो चुका है कि उत्तरी ध्रुव में मनुष्य तब पहुंचा जब भारत आदि देशों में मनुष्य बहुत तरक्की कर चुके थे। इन कारणों से उत्तर ध्रुववाद भी अप्रमाणित सिद्ध होता है।
  • (4). महाराष्ट्र के प्रसिद्ध विद्वान् नारायण भवनराव पावगी भारतीय आर्यों का मूलस्थान सप्तसिन्धु मानते हुए सिद्ध करते हैं कि “उत्तर ध्रुव तथा अन्य प्रदेशों में भारतीय आर्य उपनिवेश (बस्तियां) बसाने गए थे और जलप्रलय के बाद वे भारत में लौट आये। इसी आगमन यात्रा को लोग भ्रम से आर्यों का विदेशों से भारत में आना सिद्ध करते हैं।”
  • (5). डाक्टर पी० गिल्ज का विचार है कि आर्यों का मूलनिवासस्थान आस्ट्रया व हंगरी है। ये लोग वहां मध्य यूरोप से डेन्यूब (Danube) नदी के किनारे रहा करते थे। उनका विचार है कि गंगा के मैदान से लेकर आयरलैंड तक भाषायें हैं वे सब आर्यों की भाषा से सम्बन्ध रखती हैं। यहां से आर्य लोग भिन्न-भिन्न देशों में फैल गये। प्रोफेसर मैकडानल भी डा० गिल्ज के विचार से सहमत हैं। इनका कहना है कि गाय, घोड़ा और लोहा जो आर्यों की जरूरी चीजें थीं वे सब मध्य यूरोप में ही मिलती थीं।

1. इसका प्रमाण - बंगाल के प्रसिद्ध विद्वान् उमेशचन्द्र विद्यारत्न ने तिलक से उनके घर पूना जाकर पूछा तो तिलक जी ने स्पष्ट कह दिया कि “मैंने मूल वेद नहीं पढ़े। मैंने तो पाश्चात्य विद्वानों का किया अनुवाद पढ़ा है” (आर्यों का आदि देश पृ० 12, लेखक स्वामी विद्यानन्द सरस्वती)। पाश्चात्य विद्वानों ने हमारे वेद-शास्त्रों का गलत अनुवाद भारतीयों को ईसाई बनाने के लिए किया है। इसके अनेक उदाहरण इसी लेखक की पुस्तक में लिखे हैं।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-17


  • (6). श्री बाबू सुनितिकुमार जी का विचार है कि “आर्य लोग बाहर से आकर भारत में बसे। सभ्यता में आर्य लोग पुरानी सुसभ्य जातियों से बहुत पीछे थे।” इसकी आलोचना करते हुए पण्डित भगबद्दत्त बी० ए० ने अपनी पुस्तक भारत का बृहद् इतिहास प्रथम भाग पृ० 338 पर लिखा है कि “यह बेसिर-पैर की बात है। आर्य लोग पृथु वेन के काल में, वैवस्त मनु, पुरुरवा, भरत चक्रवर्ती, रघु और राम के काल में यहीं भारत में ही रहते थे। आदिसृष्टि से आर्यों ने वेदों का ज्ञान लिया और उन्होंने ही वेदों की विद्या और अपनी सभ्यता संसार के सब देशों में जाकर फैलाई।” इसकी अधिक जानकारी अगले अध्याय में लिखी जायेगी।
  • (7). ईसाइयों का कहना है कि “सबसे पहले मनुष्य आदम व उसकी स्त्री हव्वा हुए, उनका स्थानदन का बाग था1।” इसका खण्डन उनकी धार्मिक विश्वास बाइबल में ही होता है। And it came to pass as they journeyed from the East Genesis - चैप्टर IV में लिखा है कि “आदि पुरुष पूर्व की ओर से आये।”
  • (8). सन् 1786 ई० में सर विलियम जोफ्ज, जो जातियों की परीक्षा करने वाले वैज्ञानिक थे, ने अपना विचार इस प्रकार जाहिर किया - यूरोप, ईरान और भारत की जातियां एक ही नस्ल से हैं। इन जातियों की भाषा बहुत कुछ मिलती जुलती है। इन भाषाओं की बनावट, रस्म व रिवाज इस प्रकार की हैं जिससे यह नतीजा निकलता है कि इनके पूर्वज किसी समय एक ही नसल के और एक ही स्थान पर रहते थे2
  • (9). अंग्रेजी लेखकों में सबसे पहले कर्नल अस्काट ने जो थ्योसिया नीकल सोसाइटी के नेता थे और महर्षि दयानन्द के बड़े शिष्य थे, यह बात संसार के सामने रखी कि “भारत के लोगों ने आज से आठ-दस हजार वर्ष पूर्व मिस्र (Egypt) को अपनी उच्च स्तर की सभ्यता व कला की शिक्षा दी और मिस्रवासियों ने इनको भारतीयों से ग्रहण किया।” यह जानकारी मिलने पर यूरोपियन लोग चकित रह गए। कहां तो वह बात जो वे लोग संसार के सामने रख रहे थे कि आर्य लोग दो हजार वर्ष ईसा पूर्व बाहर से आये थे और कहां यह बात कि आज से हजारों वर्ष पहले जबकि यूरोपियन और दूसरी सभ्यताओं का कहीं नाम व निशान भी न था, भारत पूर्ण उन्नति के पथ पर था और इसका प्रभाव सारे संसार पर था3
  • (10). म० पोक्क की पुस्तक “इण्डिया इन ग्रीस” का हवाला देते हुए प्रो० कृष्णकुमार एम० ए० ने सिद्ध किया कि “प्राचीन आर्यों ने ही मिश्र को बसाया था। मिश्र की नदियों व प्रान्तों के नाम भी भारत से गये हैं और मिश्र के राजाओं के नाम भी हिन्दू नामों से मिलते हैं, जैसे राम और रायस। मिश्र की भाषा के बहुत से शब्द संस्कृत के हैं। मिश्र में चांद, शिव, विष्णु के मन्दिर हैं, देवदासी रिवाज भी वहां चलती है। मिश्र के ग्रन्थों में सृष्टि की रचना आदि बातें हिन्दू ग्रन्थों से भारी मेल खाती हैं। हिन्दुओं की तरह वे भी मानते हैं कि आत्मा मरती नहीं, अमर है। मिश्र के तहखानों से हजारों वर्ष पुरानी लाशें मिली

1. बाइबल के तौरेत पर्व 1, आयत 26-28, पर्व 2, आयत 7-9, पर्व 2, आयत 21-22 देखो।
2 और 3. तारीख मेव उर्दू 46-48 लेखक डा० अजमल खान व मौलवी अब्दुल शकूर।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-18


हैं जो बारीक मलमल से लिपटी हैं। यह मलमल भारत के सिवाय किसी अन्य देश में नहीं बनती थी। मन्दिरों के दरवाजे सागवान की लकड़ी के बने हैं जो भारत के सिवाय किसी अन्य देश में नहीं थी। भारतीय जहाज अरब, ईराक, यूनान और मिश्र तक जाते थे। आर्यों की बस्तियां संसार के हर भाग में बसी थीं1।”
  • (11). भारत के प्रथम विदेशी यात्रियों में मैगस्थनीज की यात्रा वर्णन का सभी आदर करते हैं। वह यूनानी राजा सिल्यूकस का राजदूत था जो 302 से 294 ई० पूर्व तक सम्राट् चन्द्रगुप्त के दरबार में रहा। उसने लिखा है कि “भारत अनगिनत और विभिन्न जातियों से बसाया हुआ है, इनमें से मूल में एक भी विदेशी नहीं थी, प्रत्युत स्पष्ट ही सारी इसी देश की थीं।”
  • (12). आर्यों को विदेशी लिखने वालों के शिरोमणि मि० मूर को भी अन्त में लिखना पड़ा कि - “जहां तक मुझ को ज्ञात हुआ है, संस्कृत की किसी भी प्राचीन पुस्तक के आधार पर यह बात सिद्ध नहीं होती कि भारतवासी आर्य किसी अन्य स्थान से आये।” (Muir's Sanskrit Text Book Vol. II, P. 323)
  • (13). सुप्रसिद्ध विद्वान नैसफील्ड ने लिखा है कि “भारत में आर्य-विजेता और मूलनिवासी जैसे कोई विभाग नहीं, वे विभाग बिल्कुल आधुनिक हैं।”
  • (14). बहुत से भारतीय विद्वान् जिनमें श्री अविनाशचन्द्रदास और बाबू सम्पूर्णानन्द बहुत प्रसिद्ध हैं, भारत को ही आर्यों का मूल देश मानते हैं। उनके विचार से आर्यों को यहां वेदों का ज्ञान हुआ। सप्तसिन्धु, जिसमें सिन्धु, जेहलम, चिनाब, रावी, व्यास, सतलुज और सरस्वती नदियों के प्रदेश सम्मिलित थे, यही आर्यों का मूल देश था। उनके विचार अनुसार आर्य कोई बाहर से आने वाले आक्रमणकारी नहीं थे किन्तु भारत ही उनका मूल देश था। ऋग्वेद आर्यों का सबसे प्राचीन ग्रन्थ है जिसमें ऐसा कोई संकेत नहीं मिलता कि आर्य विदेशों से भारत आए। ऋग्वेद में जो फूल, पत्ते, वृक्ष, नदियों और भूमि का वर्णन है वे सब इसी प्रदेश में मिलते हैं। उनका वैदिक साहित्य किसी अन्य देश में नहीं मिलता। उनके विचार से भारत से ही आर्य दूसरे देशों में गये।
मनुष्यों की आदि सृष्टि त्रिविष्टप अर्थात् जिसको तिब्बत कहते हैं, में हुई। आदि सृष्टि में एक मनुष्य जाति थी, पश्चात् आर्य नाम धार्मिक, विद्वान् पुरुषों का और दस्यु नाम अधार्मिक और अविद्वान् पुरुषों का हुआ। जब आर्यों और दस्युओं में सदा लड़ाई झगड़ा रहने लगा, तब आर्य लोग सब भूगोलों में उत्तम इस भूमि खण्ड को जानकर यहीं आकर बसे। इसी से इस देश का नाम आर्यावर्त हुआ। तिब्बत प्रदेश इसी का भाग है2

1. तारीख मेव उर्दू 46-48. लेखक डा० अजमल खान व मौलवी अब्दुल शकूर।
2 स्वामी दयानन्द जी के इस मत का समर्थन एक विदेशी इतिहासकार एफ० ई० परगाईटर (F.E. Pargiter) ने अपनी पुस्तक “प्राचीन भारतीय ऐतिहासिक परम्परायें” में किया है। (भारत का इतिहास प्री-यूनिवर्सिटी कक्षा के लिए) पृ० 4, लेखक अविनाशचन्द्र अरोड़ा।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-19


आर्यावर्त्त की सीमा इस प्रकार है -
उत्तर में हिमालय, दक्षिण में विन्ध्याचल, पूर्व और पश्चिम में समुद्र तथा सरस्वती, पश्चिम में अटक नदी, पूर्व में दृषद्वती जो नेपाल के पूर्व भाग पहाड़ों से निकलकर बंगाल व आसाम के पूर्व और बर्मा के पश्चिम की ओर होकर दक्षिण के समुद्र की खाड़ी में आकर मिली है, जिसको ब्रह्मपुत्र कहते हैं। हिमालय की मध्यरेखा से दक्षिण और पहाड़ों के भीतर और रामेश्वर पर्यन्त विन्ध्याचल के भीतर जितने देश हैं इन सब को आर्यावर्त इसलिए कहते हैं कि यह आर्यावर्त देश आर्यों अर्थात् विद्वानों ने बसाया और आर्यजनों के निवास करने से आर्यावर्त कहलाया है। इसके असली निवासी आर्य लोग ही हैं। इससे पूर्व इस देश का नाम कोई भी नहीं था और न कोई आर्यों से पूर्व इस देश में बसते थे। आर्य लोग ही सृष्टि के आदि में कुछ काल के पश्चात् तिब्बत से सीधे इसी देश में आकर बसे थे। आर्यों के यहां आने से पूर्व का इस देश का नाम बताने का कोई साहस तो करे! कोई नहीं बता सकता। किसी संस्कृत ग्रन्थ में व इतिहास में नहीं लिखा है कि आर्य लोग ईरान से आये और यहां के जंगलियों से लड़कर, जय पाकर उनको निकालकर इस देश के राजा हुए। फिर विदेशियों के लेख पर विश्वास नहीं हो सकता। कौल, भील, द्रविड़ आदि जातियों को जो लोग भारत के आदिवासी बताते हैं और आर्यों को बाहर से आए हुए लिखते हैं, यह सब विदेशियों की धूर्तता है, क्योंकि वे स्वयं विदेशी थे। और आयों को विदेशी बताकर यह सिद्ध करना चाहते थे कि तुम भी विदेशी, हम भी विदेशी, फिर तुम आर्य लोग इसे अपना देश बताकर स्वराज्य क्यों मांगते हो? कौल, भील, द्रविड़ आदि जातियां भी आर्यों की ही संतान हैं जो धार्मिक क्रियाओं के लोप होने से धीरे-धीरे शूद्रता को प्राप्त हो गईं। आर्यावर्त देश आर्यों का बसाया हुआ है। ये ही इसके आदिवासी हैं और सृष्टि के आदि से ये ही आज तक यहां बसते आये हैं। इक्ष्वाकु से लेकर कौरव-पांडव तक सर्व भूगोल में आर्यों का राज्य और वेदों का थोड़ा-थोड़ा प्रचार आर्यावर्त से भिन्न देशों में भी रहा तथा इसमें यह प्रमाण है कि ब्रह्मा का पुत्र विराट्, विराट का मनु, मनु के मरीचि आदि दस, उनके स्वायम्भवादि सात राजा और उनकी संतान इक्ष्वाकु आदि राजा जो आर्यावर्त के प्रथम राजा हुए, जिन्होंने यह आर्यावर्त बसाया है। (सत्यार्थप्रकाश अष्टम समुल्लास पृ० 147-149)
महर्षि दयानन्द सरस्वती ने अपने पूना प्रवचन में कहा कि जब आर्यावर्त में लोक-संख्या बहुत हो गई, उसे कम करने के लिए आर्य लोग अपने साथ मूर्ख शूद्रादि अनार्य लोगों को लेकर विमान उड़ाते फिरते, जहां कहीं सुन्दर प्रदेश देखा कि झट वहीं पर बस जाते। इस प्रकार सब जगत् के प्रत्येक देश में मनुष्य फैले। (पूना प्रवचन उपदेश मंजरी सम्पादक डॉ. भवानीलाल भारतीय एम० ए० पी० एच० डी०, महर्षि दयानन्द सरस्वती का आठवां प्रवचन पृ० 71 पर)। स्वामी दयानन्द सरस्वती के विचार व लेख ठोस प्रमाण हैं जिनको चुनौती देने का साहस कोई नहीं रखता। अतः ऊपरलिखित उदाहरणों से परिणाम साफ है कि आर्य लोग भारत के मूल निवासी हैं और आर्यावर्त से जाकर बाहर दूसरे देशों में फैल गये। वहां जाकर बस्तियां बसाईं, धर्म फैलाया, वेदों का प्रचार किया, विद्या और कला की शिक्षायें दीं और राज्य स्थापित किये। आदि सृष्टि से कौरव पाण्डव तक आर्यों का चक्रवर्ती राज्य रहा। आदि

जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-20


काल में ही वेद शास्त्र लिखे गए, कला-कौशल, अस्त्र-शस्त्र तथा वायुयान आदि का आविष्कार आर्य विद्वानों ने कर लिया था। इनके विषय में आगे के पृष्ठों पर लिखा जायेगा।
  • (16). निम्न बातों में प्रायः सभी का मत लगभग एक सा है -
  1. ईरान, यूरोप और एशिया की अधिकांश आबादी आर्य नसल की है।
  2. वैदिक सभ्यता का प्रभाव सारे संसार के देशों की सभ्यता पर अच्छादित है।
  3. भारतीयों और ईरानियों का निकट तक सम्बन्ध है।
  4. अति प्राचीन काल में काबुल, कन्धार, तुर्किस्तान और तिब्बत भारत में शामिल थे।
  5. इव्री, कूशी, यूनानी, लातिनी, आंग्ल आदि सब ही भाषाओं की जननी आदि संस्कृत है।
  6. धर्मनीति और विज्ञान का प्रचार करने के लिए भारतीय आर्य विदेशों में गए थे।
  7. भारतीय राजवंशों ने चीन, तुर्किस्तान, अफगानिस्तान, ईरान लंका, कम्बोडिया और यूरोप के कई देशों में जाकर अपनी बस्तियां बसाईं थीं और वहां पर राज्य स्थापित किये थे1
  • (17). History of World में वाल्टर रेले ने माना है कि वृक्ष, लता, मनुष्य की सृष्टि पहले भारत में ही हुई। मनु का स्थान भी वहीं था। (जाट इतिहास पृ० 32, लेखक श्रीनिवासाचार्य महाराज)।
  • (18). बिड़ला मन्दिर दिल्ली की यज्ञशाला के शिलालेख जो कि अरबी तथा हिन्दी भाषाओं में लिखे हैं, केवल हिन्दी भाषा के लेख ज्यों के त्यों निम्न प्रकार से हैं -
(क) प्राचीन अरब देश के लोग आर्य धर्म को मानते थे। अरबी भाषा में अरबी कवि की रचना। कविता वेद भगवान सम्बन्धी। कवि का नाम - लबी बिने अखतब बिने तुर्फा। यह कविता पुस्तक सेअरूल ओंकूल के पृष्ठ 157 पर है। केवल हिन्दी लेख - यह कवि अरब में हजरत मुहम्मद से 2300 वर्ष पूर्व हुआ।
  1. अर्थात् हे भारत की पुण्य भूमि! तू धन्य है क्योंकि ईश्वर ने अपने ज्ञान के लिए तुझ को चुना।
  2. वह ईश्वर का ज्ञान-प्रकाश जो चार प्रकाशस्तम्भों के सदृश सम्पूर्ण जगत् को प्रकाशित करता है। यह भारतवर्ष में ऋषियों द्वारा चार रूप में प्रगट हुए।
  3. और परमात्मा समस्त संसार के मनुष्यों को आज्ञा देता है कि वेद जो मेरे ज्ञान हैं, उनके अनुसार आचरण करो।
  4. वह ज्ञान के भंडार साम और यजुर् हैं जो ईश्वर ने प्रदान किये। इसलिए हे मेरे भाइयो उनको मानो क्योंकि ये हमें मोक्ष का मार्ग बताते हैं।
  5. और दो उनमें से रिक (ऋग्), अतर (अथर्व) हैं जो हमको भ्रातृत्व की शिक्षा देते हैं। जो उनके प्रकाश में आ गया वह कभी अन्धकार को प्राप्त नहीं होता।
(ख) अरबी भाषा में अरबी कवि की रचना। कविता महादेव सम्बन्धी। कवि का मुख्य नाम अमरबिने हरशाम, उपनाम अबुल हकमै (ज्ञान का पिता) जिसको द्वेष

1. जाट इतिहास - लेखक ठाकुर देशराज, पृ० 2


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-21


पक्षपात के कारण बदल कर मुसलमानों ने अबुजिहल कर दिया। वह हजरत मुहम्मद का समकालीन और उनका चाचा था। वह मुसलमान नहीं हुआ। एक युद्ध में मुसलमानों से लड़ता हुआ परलोकवासी हुआ। कविता केवल हिन्दी में अर्थात् (1) वह मनुष्य जिसने सारा जीवन पाप और अधर्म में बिताया हो, काम क्रोध में अपने जीवन को नष्ट किया हो। (2) यदि अन्त में उसको पश्चात्ताप हो और भलाई की ओर लौटना चाहे तो क्या उसका कल्याण हो सकता है? (3) एक बार भी सच्चे हृदय से वह “महादेव” की पूजा करे तो धर्ममार्ग में उच्च से उच्च पद पा सकता है। (4) हे प्रभु! मेरा समस्त जीवन लेकर केवल एक दिन भारत के निवास को दे दो क्योंकि वहां पहुंच कर मनुष्य जीवनमुक्त हो जाता है। (5) वहां की यात्रा से सारे शुभकर्मों की प्राप्ति होती है और आदर्श गुरुजनों का सत्संग मिलता है। यह कविता अरबी के प्रसिद्ध काव्य ग्रन्थ सेअरूल ओंकूल के पृष्ठ 235 पर है।
  • (19). भारतवर्ष का शुद्ध इतिहास, प्राचीन भारत (भाग 1) लेखक - आचार्य प्रेमभिक्षु : वानप्रस्थ के कुछ संक्षिप्त उदाहरण निम्न प्रकार से हैं -
(i) हमारा इतिहास हमें बताता है कि भारत विश्व का प्राचीनतम देश है। यह वह देश है जहां सर्वप्रथम मानव सृष्टि हुई। यहीं के ऋषि मुनियों को परमपिता परमात्मा ने सर्वप्रथम अपना दिव्य वेद ज्ञान दिया। महाभारत की संस्कृति - वैदिक संस्कृति सम्पूर्ण विश्व की प्रथम और एकमात्र संस्कृति है। जैसा कि पवित्र वेदों में कहा है “सा प्रथमा संस्कृतिर्विश्ववारा” इस अमर संस्कृति का सन्देश संसार के सब मनुष्यों के लिए और सब कालों के लिए है। (पृ० 26-27)।
(ii) जर्मनी के प्राच्यविद्याविशारद प्रो० मैक्समूलर ने भी अपनी अन्तिम पुस्तक “India - What can it teach us?” (भारत हमें क्या सिखा सकता है?) में इस तथ्य को स्वीकार किया है। उसके प्रथम अध्याय में ही उसने लिखा है - “यदि मेरे पास कोई आये और पूछे कि संसार में वह कौन सा देश है जहां मानव सभ्यता सर्वप्रथम समुद्-भूत हुई तथा फली-फूली तो मैं भारत की ओर ही संकेत करूंगा।” ( I will and I must point out to India). यदि कोई मुझ से प्रश्न करे कि भूमण्डल पर वह कौन सा देश है जो सर्वप्रथम गणित, दर्शनशास्त्र, ज्योतिष आदि विद्याओं का स्रोत रहा है, तो पुनः “I will and I must point out to India”. (“मैं भारत की ओर ही संकेत करूंगा और मुझे करना भी चाहिये”) (पृ० 28-29)।
(iii) इसी प्रकार चन्द्रनगर के प्रसिद्ध प्रधान फ्रेंच न्यायाधीश लुई जैकोलियट ने अपनी पुस्तक “The Bible in India” (भारत में बाइबिल) में भारत भूमि को मानवता की जन्मस्थली (cradle of humanity) मानते हुए लिखा है -
“अर्थात् प्राचीन भारत भूमि! मानवता की जन्मदात्री नमस्कार! पूजनीय मातृभूमि नमस्कार! जिसको शताब्दियों से होने वाले नृशंस आक्रमणों ने अभी तक विस्मृति की धूल के नीचे नहीं दबा दिया है, तेरी जय हो! श्रद्धा, प्रेम, काव्य एवं

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विज्ञान की पितृभूमि तेरी जय हो! तेरा अभिनन्दन हम अपने पाश्चात्य के भविष्य में तेरे अतीत के पुनर्जागरण का जय-जयकार करें।” (पृ० 29)।
(iv) पं० नेहरू जी की लिखित “विश्व इतिहास की झलक” नामक पुस्तक के पृ० 230 पर उन्होंने लिखा है कि “आयुर्वेद और गणित जैसे अनेक विषयों में अरब वालों ने भारत से बहुत कुछ सीखा था। भारतीय विद्वान् और् गणितज्ञ बड़ी तादाद में वहां जाते थे और बहुत से अरबी विद्यार्थी उत्तर भारत में तक्षशिला आया करते थे, जो कि उस समय तक एक बहुत बड़ा विश्वविद्यालय था और आयुर्वेद की शिक्षा के लिए मशहूर था। आयुर्वेद की और दूसरे विषयों की पुस्तकें खासतौर से संस्कृत से अरबी जबान में अनुवाद की गईं थीं। बल-उच्च-स्थान (बलोचिस्तान) तथा अप-गान-स्थान (अफगानिस्तान) तो कभी भारत के ही भाग थे। ईरान (आर्यान्), कन्दहार (गान्धार), चीन आदि में भी वैदिक संस्कृति का सन्देश इन्हीं मार्गों से पहुंचा था। जहां इन मार्गों से भारत अपने सांस्कृतिक साम्राज्य का विस्तार कर सका, वहां भारत के पतनकाल में विदेशी आक्रान्ता शक, हूण, यवन, पठान आदि भी इन्हीं मार्गों से आये जिन्होंने सदियों तक भारत को दासता की जंजीरों में बांधे रक्खा।” (पृ० 39-40)
(v) अमेरिका के प्रसिद्ध विद्वान् डेविस अपनी 'हारमोनिया' नामक पुस्तक के 5 भाग में जर्मनी के प्रोफेसर ओकन (Oaken) की साक्षी सहित इस बात को प्रतिपादित करते हैं कि चूंकि हिमालय सबसे ऊंचा पहाड़ है इसलिए आदिसृष्टि हिमालय के निकट कहीं पर हुई होगी। वेदों के प्रकाण्ड विद्वान् स्वामी दयानन्द जी ने आदिसृष्टि का होना त्रिविष्टप (तिब्बत) में बताया है जो हिमालय प्रदेश का ही एक भाग है। (पृ 64-65)
(vi) एक बहुत बड़े भाषाशास्त्री की साक्षी से टेलर महोदय कहते हैं कि मनुष्य जाति की जन्मभूमि स्वर्णतुल्य कश्मीर ही है। पृ० 66)
(vii) एक सौ चौदह वर्ष पूर्व एल्फिस्टन ने अपनी पुस्तक “भारत का इतिहास” लिखी। उसमें वह लिखता है कि “भारतीय आर्यों के पूर्व पुरुष कभी अपने आधुनिक निवास स्थान के अतिरिक्त किसी दूसरे देश में थे, ऐसा मानने का कोई कारण नहीं। वेद, मनुस्मृति या मनु से पूर्व किसी भी ग्रन्थ में इनकी पूर्व निवासभूमि का कोई उल्लेख नहीं मिलता।” (पृ० 73)


(viii) यदि आर्यों से पहले कौल, द्रविड़ यहां के मूल निवासी होते तो उनकी भाषा में इस देश का कोई न कोई नाम अवश्य होता किन्तु उनकी भाषा में भी आर्यावर्त और भारतवर्ष नाम के अतिरिक्त पहले का कोई भी नाम नहीं मिलता। इससे भी यह बात बिल्कुल स्पष्ट हो जाती है कि यहां आर्यों से पहले कौल, द्रविड़ आदि नहीं रहते थे। (पृ० 74)
(ix) कुछ समय से शिक्षित द्रविड़ों ने अपना कुछ इतिहास लिखा है परन्तु उन्होंने अपना इतिहास किन्हीं अनार्य नामों से आरम्भ न करके अगस्त्य और कण्व आदि ऋषियों

जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-23


के चरित्रों से ही आरम्भ किया है। इससे भी यह बात बिल्कुल स्पष्ट हो जाती है कि द्रविड़ों से पहले यहां आर्य ही निवास करते थे। (पृ० 75।
(x) आर्यों की किसी भिन्न शाखा ने भी स्वीकार नहीं किया कि वैदिक आर्य हम से जुदा होकर भारत को गये। लिखने का सारांश यह है कि संसार में ऐसा कोई प्राचीन प्रामाणिक इतिहास नहीं है कि जिससे यह सिद्ध होता हो कि आर्य लोग भारत में बाहिर से आये और उनसे पूर्व यहां कौल, द्रविड़ आदि कोई अन्य लोग रहते थे। पृ० 75)।
(xi) भारत के अनेक नगरों, ग्रामों और देशों के नाम प्राचीन आर्य महापुरुषों तथा राजाओं के नाम पर रखे गये थे जैसे - आर्यों के नाम पर आर्यावर्त, चक्रवर्ती सम्राट् भरत के नाम पर भारतवर्ष, महर्षि ब्रह्मा के नाम पर ब्रह्मर्षि देश (हरयाणा), राजा हस्ती के नाम पर हस्तिनापुर, महाराजा कुरु के नाम पर कुरुक्षेत्र (कुरुजांगल देश), राजा उशीनर के नाम पर उशीरकोट (वर्तमान शेरकोट), ययातिपुत्र अनु के वंशज राजा बलि के छः पुत्रों - अंग, वंग, कलिंग, सुह्य, आन्ध्र और पौण्ड्र से इनके नाम पर इन्हीं नामों वाले छः देशों के नाम पड़े। ऐसे-ऐसे अनेक उदाहरण और भी हैं। ये सब सम्राट् व नरेश आर्य थे तथा इसी आर्यावर्त के मूल निवासी थे। (पृ० 75-76)।
(xii) आर्यों के सभी धर्म और तीर्थस्थान भारत में ही हैं। यदि आर्य बाहिर से आये होते तो वे अपने मूल देश के तीर्थस्थान स्मरण रखते और वहां वे यात्रार्थ कभी-कभी जाया करते। इसके ठीक विपरीत 3000 वर्ष हिन्दुओं ने सिन्धु के पार जाना ही अधर्म माना। यह स्पष्ट प्रमाण है कि आर्यों की आदि भूमि भारतवर्ष ही थी। वे कहीं से मार खाकर भारतवर्ष में नहीं आये थे। (पृ० 76)।
(xiii) इससे भी अधिक महत्त्वपूर्ण इस विषय का एक लेख ईरान के स्कूलों में पढ़ाई जाने वाली एक पुस्तक से उद्धृत है जिसका भाव यह है कि “कुछ हजार साल पहले आर्य लोग हिमालय पर्वत से उतरकर यहां आये और यहां का जलवायु अनुकूल पाकर ईरान में बस गये।” इस उदाहरण से तिब्बत (हिमालय) में मानव सृष्टि होने और वहीं से आर्यों के इधर-उधर फैल जाने विषयक भारतीयपन की पूर्णतया पुष्टि होती है। (पृ० 77)।
(xiv) महोदय जैकोलियट भूतपूर्व जज सुप्रीमकोर्ट चन्द्रनगर ने अपनी पुस्तक “Bible in India” (भारत में बाइबिल) में और महोदय वानशोडर प्रोफेसर संस्कृत केल यूनिवर्सिटी (जर्मनी) ने अपनी पुस्तक “Prehistoric antiquity of the Aryans” (आर्यों की अत्यन्त प्राचीनता) में लिखा है कि “तमाम संसार को आर्य लोगों ने प्रस्थान करके आबाद किया।” (पृ० 127)।
(xv) उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि एशिया, यूरोप, अमेरिका, आस्ट्रेलिया, अफ्रीका, फ्रांस और रूस आदि सभी महाद्वीपों, द्वीपों तथा देशों के निवासी मूलतः आर्य हैं। आर्य सभ्यता ही संसार भर की सभ्यताओं की जननी है। आर्य संस्कृति ही कभी विश्व

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संस्कृति रही है। इसी प्रकार यह भी सिद्ध है कि संस्कृत भाषा ही संसार की सभी भाषाओं की जननी है। (पृ० 138)
(xvi) उपर्युक्त सब उदाहरणों से यह बात शुद्ध प्रमाणित है कि “भारत भूमि ही आर्यों की आदि भूमि है। यह देश आर्यों का आदि देश तो है ही, साथ ही आर्यों का केन्द्र भी है। आर्य + आवर्त अर्थात् आर्यों का केन्द्र। वास्तविकता यह है कि भारतवर्ष आर्यों का आदि देश है और आर्य यहां के मूल निवासी हैं तथा द्रविड़, कौल, किरात, शक, यवन, कम्बोज आदि सभी आर्यों के क्षत्रिय वर्ग में से हैं और खान-पान, आचार विचार आदि के भ्रष्ट हो जाने के कारण ये सब लोग अलग-अलग वर्णों में बंट गये तथा पृथक्-पृथक् नामों से पुकारे जाने लगे।” (पृ० 77)।
  • (20). “आर्यों का प्राचीन गौरव” पुस्तक के लेखक पण्डित कालीचरण शर्मा ने पृ० 55 पर लिखा है कि “अर्थात् इससे सिद्ध होता है कि सारे संसार को सभ्यता तथा विज्ञान व संस्कृति आर्यों ने प्रदान की और सारे संसार को बसाने वाले आर्य हैं तथा मनुष्यमात्र की उत्पत्ति आर्यों की नसल से है।”
  • (21). इस प्रकरण में लिखित ठोस प्रमाणों के आधार पर निस्सन्देह मेरा मत है कि आर्य लोग भारतवर्ष के ही मूलनिवासी हैं और आर्यावर्त से बाहर जाकर संसार के अन्य देशों को बसाया व राज्य स्थापित किये। फिर समय अनुसार कुछ वहां से वापिस अपने पैतृक देश भारतवर्ष में भी लौट आये और विदेशों में भी बड़ी संख्या में बसे रह गये जो दूसरे धर्मों जैसे ईसाई मुस्लिम आदि के अनुयायी बन गये। (लेखक)

आदि सृष्टि से आर्यों का चक्रवर्ती राज्य

आदिकाल में बह्मा से उत्पत्ति आरम्भ होती है। उसका पुत्र विराट् और उसका पुत्र स्वायम्भव मनु थे। संसार के सर्वप्रथम राजा स्वायम्भव मनु थे। वह लोक के विधि-विधान अर्थात् न्याय-नियम के निर्माता होने से राजा कहलाये। विद्वानों का यह मत है कि स्वायम्भव मनु आदि नाम प्रत्येक मन्वन्तर के आदि में समान रहते हैं। चाक्षुष और वैवस्वत मन्वन्तर में भी यही नाम थे। ये स्वायम्भव मनु वैवस्वत मन्वन्तर के आरम्भ में हुए।

स्वायम्भव मनु (वैराज) के दो पुत्र प्रियव्रत प्रजापति और उत्तानपाद हुए। इन दोनों की माता तथा स्वायम्भव मनु की पत्नी का नाम अनन्ती था। वीर प्रियव्रत ने प्रजापति कर्दम की पुत्री प्रजावती से विवाह किया। यह कर्दम सर्वप्रथम प्रजापति था। प्रियव्रत और प्रजावती से दो कन्यायें तथा दस पुत्र उत्पन्न हुए। उनके नाम ये हैं -

1. अग्निध्र 2. वपुष्मान 3. ज्योतिष्मान 4. द्युतिमान 5. भव्य 6. सवन 7. मेधातिथि 8. मेधा 9. मित्र 10. अग्निबाहु और दो कन्यायें। छोटे तीन भाइयों (मेधा, मित्र, अग्निबाहु) की राज्य करने की प्रवृत्ति न थी अतः वे तपस्यार्थ योगी हो गये1

पृथ्वी को पुराणों ने सात द्वीपों में विभाजित किया है और प्रत्येक द्वीप को सात वर्षों (देशों)


1. ब्रह्माण्ड पुराण पूर्वभाग 14-6; वायुपुराण अ० 33 और मत्स्य अ० 4; मार्क० अ० 50 में भी इन सबका वर्णन है।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-25


में बांटा है। प्रियव्रत ने अपने सात पुत्रों में कुल पृथ्वी बांट दी। प्रत्येक के हिस्से में जो भूमि आई वह द्वीप कहलाया। आगे चलकर इन सात पुत्रों के जो सन्तान हुई उनके बंटवारे में जो भूमि भाग आया वह वर्ष या आवर्त (देश) कहलाया।

प्रियव्रत ने जो द्वीप अपने पुत्रों को बांट दिये, उनके नाम इस प्रकार हैं - द्वीप: 1. जम्बू 2. शाल्मली 3. कुश 4. क्रौंच 5. शाक 6. पुष्कर 7. प्लक्षन।

प्रियव्रत ने अपने बेटे अग्निध्र को जम्बू द्वीप का राजा बनाया। वपुष्मान् को शाल्मली द्वीप, ज्योतिष्मान् को कुश द्वीप, द्युतिमान् को क्रौंच द्वीप, भव्य को शाक द्वीप, सवन को पुष्कर द्वीप और मेधातिथि को प्लक्षन द्वीप का राज्य दिया1|

जम्बू द्वीप आगे चलकर अग्निध्र के नौ पुत्रों में इस भांति बंट गया -

  1. भरतखण्ड के ऊपर वाला देश किम्पुरुष को मिला, जो उसी के नाम पर किम्पुरुष कहलाया। यही बात शेष 8 भागों के सम्बन्ध में भी है। जो देश जिसको मिला उसी के नाम पर उस देश का भी नाम पड़ गया।
  2. हरिवर्ष को निषध पर्वत वाला देश हरिवर्ष।
  3. जिस देश के बीच में सुमेरु पर्वत है और जो सब के बीच में है वह इलावृतवर्ष, इलावृत को।
  4. नील पर्वत वाला रम्य देश, रम्य को।
  5. श्वेताचल को बीच में रखने वाला तथा रम्य के उत्तर का हिरण्यवान देश, हिरण्यवान को।
  6. श्रृंगवान् पर्वत वाला सब के उत्तर समुद्री तट पर बसा हुआ कुरु प्रदेश कुरु को।
  7. भद्राश्व जो कि सुमेरु का पूर्वी खण्ड है, भद्राश्व को।
  8. इलावृत देश के पश्चिम सुमेरु पर्वत वाला, केतुमाल को, और
  9. हिमालय के दक्षिण समुद्र तक का फैला हुआ भरतखण्ड नाभी को मिला2

आज यह बताना कठिन है कि कौन सा द्वीप कहां था। और उसके वर्ष (खण्ड, देश) आज किस नाम से पुकारे जाते हैं? विष्णु पुराण अंश 2 अध्याय 4 में इन द्वीपों का पता बताया है। किन्तु तब से भौगोलिक स्थिति में काफी परिवर्तन हुआ है। फिर भी अनुमान के आधार पर इनके आजकल के नाम इस प्रकार से हैं -

1. शाक द्वीप 
कुछ इतिहासकारों ने पर्शिया और उसके निकटवर्ती देशों को शाक द्वीप माना कहा है। हमारे विचार में भी ईरान शाक द्वीप बनता है, क्योंकि पुराणों में शाक द्वीप के ब्राह्मणों को वेग लिखा है3 और यह बात सर्वविदित है कि वेग ईरानी ब्राह्मण थे जिन्हें पौराणिक कथा के अनुसार शाम्ब, सूर्य पूजा के निमित्त भारत में लाये थे4
2. प्लक्षन द्वीप 
जम्बू द्वीप के पश्चिमी किनारे के साथ-साथ प्लक्षन द्वीप था। आज का पश्चिमी तिब्बत और दक्षिणी साइबेरिया इसे समझा जा सकता है। क्योंकि विष्णु पुराण में इसे जम्बू द्वीप को घेरने वाला बताया है।

1. वायुपुराण अ० 33, श्लोक 9 से 14 तक।
2. विष्णु पुराण अंश 2 अध्याय 1 तथा विष्णु पुराण अंश 2 अध्याय 1 ।
3. विष्णु पुराण अंश 2 अध्याय 4 ।
4. ठाकुर देशराज जाट इतिहास पृ० 5.


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-26


3. शाल्मली द्वीप 
इसमें शाल के वृक्ष बहुतायत से पैदा होते थे। तब अवश्य ही नेपाल के पश्चिम से आरम्भ होकर यह द्वीप प्लक्षन तक फैला हुआ था। खारे समुद्र को दोनों ओर से स्पर्श करने वाला पर्वत पुराणों में इसे कहा गया है। इससे यह साबित है कि यह दोनों द्वीप पास-पास थे।
4. क्रौंच द्वीप 
यह द्वीप वह भू-भाग हो सकता है जिसमें श्याम, चीन, कम्बोडिया, मलाया आदि प्रदेश अब स्थित हैं। पुराणों के अनुसार यहां रुद्र की पूजा होती थी।
5. कुश द्वीप 
इसमें एक मन्दराचल पहाड़ का वर्णन है। कल्पना से यह वही पहाड़ हो सकता है जिसे सूर्यास्त का पहाड़ कहा करते हैं। तब तो इस द्वीप का भू-भाग अमेरिका के सन्निकट रहा होगा। लेकिन इतिहासकारों ने केवल शाक द्वीप की खोज सफलता से की है।
6. जम्बू द्वीप 
यह सब द्वीपों में सबसे बड़ा था। यदि पुष्कर द्वीप को भी इसी का एक भाग मान लें तो फिर छः द्वीप रह जाते हैं।

जैन ग्रन्थ इन द्वीपों की संख्या 16 तक मानते हैं1। जैन हरिवंश पुराण में जम्बू द्वीप का वर्णन इस तरह है - यह द्वीप लवण समुद्र तक है। इसके बीच में सुमेरु पर्वत है। इसमें सात क्षेत्र (देश-वर्ष आवर्त) हैं2

छः कुल पर्वत और चौदह महानदी हैं। (1) पहिला क्षेत्र (देश) भारतवर्ष सुमेरु की दक्षिण दिशा में है। (2) हेमवत (3) विदेह (4) हरि (5) रम्यक (6) हैरण्यवत (7) ऐरावत - यह सुमेरु के उत्तर में है3। जैन अथवा ब्राह्मण दोनों के पुराणों में यह भूगोलिक वर्णन प्रायः एकसा है।

हरिवर्ष देश को ऐतिहासिक लोग यूरोप मानते हैं4। मानसरोवर के पच्छिम और सुमेरु पर्वत के बीच के देश रम्य और भद्राश्व थे। यह कश्मीर का उत्तरी प्रदेश रहा होगा। केतुमाल देश को एशियाई माइनर समझना चाहिए, यह वर्तमान रूस का दक्षिणी-पूर्वी भाग था, क्योंकि पुराण इसे इलावृत के पच्छिम में बताते हैं5। कुरु देश आज का मध्य एशिया अथवा पूर्वी साइबेरिया था, इसे विष्णु-पुराण ने समुद्र के किनारे और सब देशों के उत्तर में बताया है। किम्पुरुषवर्ष तातारियों का देश समझना चाहिये, इसका पता उसी पुराण में भारत के उत्तर में सबसे पहले के स्थान में बताया है।

इलावृत को सुमेरु के चतुर्दिक फैला हुआ प्रदेश माना गया है।


1. जैन हरिवंश पुराण सर्ग 5 ।
2. हिन्दू पुराण 9 क्षेत्र मानते हैं।
3. जैन हरिवंश पुराण सर्ग 5 ।
4. 'भारतवर्ष का इतिहास' भाई परमानन्द रचित प्रकरण 2.
5. विष्णु पुराण अंश 2 अध्याय 1.


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-27 --

जम्बू द्वीप - यह मंगोलिया से सीरिया तथा साइबेरिया से भारतवर्ष शामिल करके था। इनके बीच में सब देशों को शामिल करके जम्बूद्वीप कहा जाता था1। (जम्बू आदि महाद्वीपों तथा समस्त भूमि के विस्तार का वर्णन देखो, अग्निपुराण अध्याय 118-119 पृ० 211-213)

उत्तरकुरु वर्ष (देश) - यादव वीरों की दिग्विजय गर्ग संहिता (अग्निपुराण) अध्याय 28, पृ० 296 पर लिखा है -

विजय करते हुए महाबाहु सेनापति प्रद्युम्न सुमेरु के उत्तरवर्ती और श्रंगवान् पर्वत के पास बने हुए विचित्र समृद्धिशाली उत्तरकुरु नामक देश में गये। वहां 'भद्रा' नाम की गंगा में स्नान करके वे वाराहीनगरी में जा पहुंचे, जहां कुरुवर्ष (देश) के अधिपति चक्रवर्ती सम्राट् गुणाकर राज्य करते थे। प्रद्युम्न ने उनको भी जीत लिया। (पूरी जानकारी के लिए ऊपरलिखित अग्निपुराण में देखो)

इलावृत वर्ष (देश) - इसी प्रकार भद्राश्व वर्ष पर विजय पाकर भगवान् श्रीकृष्ण इलावृत वर्ष को गए। इस इलावृत वर्ष में ही रत्नमय शिखरों से सुशोभित, देवताओं का निवासस्थान, दीप्तिमान् स्वर्णमय पर्वत गिरिराजधिराज 'सुमेरु' है, जो भूमण्डलरूपी कमल की कर्णिका के समान शोभा पाता है। उसके चारों ओर मन्दर, मरुमन्दर, सुपार्श्व तथा कुमुद - ये चार पर्वत शोभा पाते हैं। इस प्रकार इलावृत वर्ष में जम्बूफल के रस से 'अरुणोदा' नाम की नदी प्रकट हुई है, जिसका जल पीने से इस भूतल पर कोई रोग नहीं होता। वहां कदम्ब वृक्ष से उत्पन्न 'कादम्ब' नामक मधु की पांच धाराएँ प्रवाहित होती हैं, जिनके पीने से मनुष्यों को कभी सर्दी-गर्मी, विवर्णता (कान्ति का फीका पड़ना), थकावट तथा दुर्गन्ध आदि दोष नहीं होते। भगवान् कृष्ण जी ने देवताओं से पूर्ण इलावृत वर्ष को जीतकर वहां से भेंट ग्रहण की। वहां से सारे इलावृतवर्ष के दर्शन करते हुए श्रीकृष्ण जी वेदनगर में गये जो जम्बूद्वीप का एक मनोरम स्थान है। (अग्निपुराण - गर्ग संहिता तेतालीसवां अध्याय पृ० 323-326 देखो)

महाराजा युधिष्ठिर का राजसूय यज्ञ

अर्जुन की दिग्विजय - वीर अर्जुन उत्तर की दिशा में बहुत देशों पर अधिकार करके इलावृतवर्ष में पहुंचे जो जम्बूद्वीप का मध्यवर्ती भूभाग है। वहां अर्जुन ने देवताओं जैसे दिखाई देने वाले देवोपम शक्तिशाली दिव्य पुरुष देखे। वे सबके सब अत्यन्त सौभाग्यशाली और अद्भुत थे। उससे पहले अर्जुन ने कभी ऐसे दिव्य पुरुष नहीं देखे थे। वहां के भवन अत्यन्त उज्ज्वल और भव्य थे तथा स्त्रियां अपसराओं के समान प्रतीत होती थीं। अर्जुन ने उस देश को जीतकर उन पर कर लगाया और उनका राज्य उनको ही दे दिया। इसी तरह अर्जुन ने उत्तर कुरुवर्ष तथा उत्तरी ध्रुव तक सब देश जीत लिए और विशाल चतुरंगिणी सेना सहित इन्द्रप्रस्थ में लौट आए। वहां सारा धन धर्मराज को सौंप दिया। (महाभारत प्रथम खण्ड आदि पर्व 25वां, 26वां, 27वां, 28वां अध्याय के पृ० 743 से 751 पर देखो)


1. Jats the Ancient Rulers (A clan study) by Bhim Singh Dahiya Page 90.


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-28


इसी तरह भीमसेन ने पूर्व दिशा के सब देशों को जीत लिया और सहदेव ने दक्षिण दिशा में लंकापुरी तक सब देशों को जीत लिया और नकुल ने पश्चिम दिशा पंचनद देश (पंजाब) और समुद्र तक के सब देश जीत लिए। (महाभारत प्रथम खण्ड आदि पर्व अध्याय 29-30-31-32 पृ० 751-766 देखो)

इस तरह से आदि सृष्टि से लेकर महाभारत काल (अब से लगभग 5000 वर्ष पूर्व) तक आर्यों का सार्वभौम चक्रवर्ती अर्थात् भूगोल में सर्वोपरि एकमात्र राज्य था। अन्य देशों में माण्डलिक अर्थात् छोटे- छोटे राजा रहते थे, जो कौरव पांडव तक भारत राज्यशासन के अधीन थे। यह मनुस्मृति, जो सृष्टि के आदि में हुई, उसका प्रमाण है।

देखो! चीन का भगदत्त, अमेरिका का बब्रुवाहन, यूरोप देश का बिडालाक्ष अर्थात् मार्जार (बिल्ली) के सदृश आंख वाले, यवन (यूनान) और ईरान का शल्य आदि सब राजा राजसूय यज्ञ और महाभारत युद्ध में आज्ञानुसार आए थे। जब रघुगण राजा थे तब रावण भी यहां के अधीन था। जब रामचन्द्र जी के समय से रावण विरुद्ध हो गया तो उसको रामचन्द्र जी ने मार दिया और उसके राज्य को उसके भाई विभीषण को दे दिया था1

अनेक प्रमाणों से सिद्ध होता है कि सृष्टि से लेकर महाभारत पर्यन्त चक्रवर्ती सार्वभौम राजा आर्यकुल में ही हुए थे। जैसे यहां सद्युम्न, भूरिद्युम्न, कुवलयाश्व, यौवनाश्व, इन्द्रद्युम्न, वध्रयश्व, अश्वपति, शशिविन्दु, हरिश्चन्द्र, अम्बरीश, ननक्तु, सर्याति, ययाति, अनरण्य, अक्षसेन, मरुत और भरत सार्वभौम सब भूमि में प्रसिद्ध चक्रवर्ती राजाओं के नाम लिखे हैं2। वैसे ही स्वायम्भवादि चक्रवर्ती राजाओं के नाम स्पष्ट मनुस्मृति, महाभारत, पुराणों आदि में लिखे हैं। इसको मिथ्या करना अज्ञानी और पक्षपातियों का काम है3

यह निश्चय है कि जितनी विद्या और मत भूगोल में फैले हैं वे सब आर्यावर्त देश ही से प्रचारित हुए हैं। देखो कि एक “जैकालयट” साहब पैरिस अर्थात् फ्रांस देश निवासी अपनी “बाइबिल इन इंडिया” में लिखते हैं कि सब विद्या और भलाइयों का भण्डार आर्यावर्त देश है और सब विद्या और मत इसी देश से फैले हैं और परमात्मा से प्रार्थना करते हैं कि हे ईश्वर! जैसी उन्नति आर्यावर्त देश की पूर्वकाल में थी, वैसे ही हमारे देश की उन्नति कीजिए, ऐसा लिखा है उस ग्रन्थ में देखें4

“दाराशिकोह” बादशाह ने भी यही निश्चय किया था कि जैसी पूरी विद्या संस्कृत में है वैसी किसी भाषा में नहीं। वे ऐसा उपनिषदों के भाषान्तर में लिखते हैं कि मैंने अरबी आदि बहुत सी भाषायें पढ़ीं परन्तु मेरे मन का संदेह छूटकर आनन्द न हुआ। जब संस्कृत पढ़ी और सुनी तब निस्सन्देह होकर मुझको बड़ा आनन्द हुआ है5

ब्रह्मा से लेकर जैमिनि पर्यन्त अर्थात् आदि सृष्टि से लेकर महाभारत काल तक 88 हजार ऊर्ध्वरेता, अखण्ड ब्रह्मचारी ऋषि-महर्षि इस पवित्र देवभूमि भारत में हुए हैं। ये सभी निदोष,



1. सत्यार्थप्रकाश एकादश समुल्लास पृ० 181.
2. मैत्रायण्य उपनिषद (प्र० 1, ख० 4, 2.
3. सत्यार्थप्रकाश एकादश समुल्लास पृ० 182.
4. सत्यार्थप्रकाश एकादश समुल्लास पृ० 183.
5. सत्यार्थप्रकाश एकादश समुल्लास पृ० 183.


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-29


निष्पाप, निष्कामसेवी, देवतुल्य आप्त पुरुष थे। सारी आयु ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए वेद के पवित्र ज्ञान का प्रचार और प्रसार करते रहे। इन्हीं महात्माओं की कृपा से आर्यावर्त देश सारे संसार का गुरु रहा और इसका सम्पूर्ण भूमण्डल पर चक्रवर्ती राज्य रहा1

सबसे पहले इस देश का नाम आर्यावर्त हुआ। दूसरा इसका नाम चक्रवर्ती सम्राट् भरत के नाम पर भारतवर्ष हुआ। तीसरा इस देश का नाम हिन्दुस्तान हुआ और चौथा नाम इण्डिया (India) भी कहा जाने लगा। इसके कारण -

1. आर्यावर्त 
यह पिछले पृष्ठों पर लिख दिया गया है कि आदि सृष्टि में सबसे पहले आर्य लोगों ने इस में वास किया और राज्य स्थापित किया। उनके नाम से इस देश का नाम आर्यावर्त हुआ।
2. भारतवर्ष 
प्रसिद्ध चक्रवर्ती सम्राट भरत के नाम पर भारतवर्ष कहलाया2
3. इण्डिया (India) 
सम्राट् सिकन्दर (एलेक्जेण्डर 356-323 ई० पू) के समय में यूनानी लोग सिन्धु को इंडू (इंडस) और वहां के वासियों को इण्डियन कहते थे। इस शब्द का इतना प्रचलन हुआ कि अन्य यूरोपीय जातियां भी यहां के निवासियों को इंडियन (Indian) और इस देश को इण्डिया कहने लगीं3
4. हिन्दुस्थान 
आर्य शब्द के स्थान पर अब हिन्दू शब्द का प्रयोग होने लगा। विक्रम संवत् की 8वीं शताब्दी से पूर्व के ग्रन्थों में हमें हिन्दू शब्द नहीं मिलता है। फारसी में का उच्चारण की तरह होता है। इससे फारसी सिन्धु नदी के आसपास के निवासियों को हिन्दू कहते थे। इसी कारण बाद में पूरे भारतवर्ष के लोग हिन्दू और इनका देश हिन्दुस्थान कहलाने लगा4। उपदेशमंजरी स्वामी दयानन्द सरस्वती का आठवां प्रवचन पृ० 71 पर स्वामी जी कहते हैं -
“आर्य के नाम पर हमारे देश का नाम 'आर्यस्थान' 'आर्यखण्ड' होना चाहिए था, सो उसे छोड़ न जाने यह हिन्दू शब्द कहां से निकला? भाई श्रोतागण! 'हिन्दू' शब्द का अर्थ काला, काफिर, चोर इत्यादि है और हिन्दुस्थान कहने से काले, काफिर, चोर लोगों की जगह अथवा देश, ऐसा अर्थ होता है। भाई! इस प्रकार का बुरा नाम क्यों ग्रहण करते हो? आज के 'हिन्दू' नाम का त्याग करो और आर्य तथा आर्यावर्त इन नामों का अभिमान करो। गुणभ्रष्ठ हम लोग हुए तो हुए, परन्तु नाम-भ्रष्ट तो हमें नहीं होना चाहिए। आप सबसे मेरी ऐसी प्रार्थना है।”

1. पतञ्जलि व्याकरण महाभाष्य अ० 4 पा० 1 सूक्त 79 ।
2. चन्द्रवंश में महाराजा दुष्यन्त एवं उनकी रानी शकुन्तला के पुत्र भरत चक्रवर्ती सम्राट् के नाम पर भारतवर्ष नाम प्रचलित हुआ।
3, 4. राजस्थान के राजवंशों का इतिहास पृ० 8 लेखक जगदीशसिंह गहलोत।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-30


ब्रह्मा की वंशावली

आदि सृष्टि से आर्यों का चक्रवर्ती राज्य पृथ्वी के सभी द्वीपों और देशों पर था, उनका वर्णन किया है। पीछे यह बता दिया गया है कि इक्षवाकु से लेकर कौरव-पाण्डव तक आर्यों का राज्य आर्यावर्त और सर्व भूगोल में रहा। अब आगे ब्रह्मा जी की वंशावली का वर्णन इस प्रकार है -

ब्रह्मा का पुत्र विराट्, विराट् का मनु, मनु के मरीच्यादि दक्ष, उनके स्वायंभवादि सात राजा और उनके सन्तान इक्ष्वाकु आदि राजा जो आर्यावर्त के प्रथम राजा हुए, उन्होंने यह आर्यावर्त बसाया है। इक्ष्वाकु अयोध्या का प्रथम राजा था। (सत्यार्थप्रकाश समुल्लास अष्टम पृष्ठ 149)। ब्रह्मा का पुत्र विराट्, विराट् का पुत्र स्वायम्भव मनु था जो संसार का सर्वप्रथम राजा था। इनके वंशज का आदि सृष्टि से सारी पृथ्वी पर चक्रवर्ती राज्य रहा जिसका वर्णन पिछले पृष्ठों पर दिया है। इसकी वंशावली इस प्रकार है -

प्राचीनकाल में शिष्यों को भी पुत्र माना जाता था, अतः ब्रह्मा का शिष्य होने से वह दोनों का पुत्र स्वायम्भव मनु था। महर्षि यास्क ने लिखा है कि मनु ने ब्रह्मा से शिक्षा पाकर भृगु, मरीचि आदि ऋषियों को वेद की शिक्षा दी।

(क) वायुपुराण अध्याय 33 के अनुसार वंशावली



जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-31





जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-32


महाभारत शान्तिपर्व 65-105

चाक्षुष मन्वन्तर में वेन के पुत्र पृथु हुए। चाक्षुष मन्वन्तर के बीत जाने पर और वैवस्त मन्वन्तर के आरम्भ में वेन ने इस पृथ्वी को भोगा। देवों ने प्रजापति भगवान् विष्णु से प्रार्थना की कि जो पुरुष सर्वश्रेष्ठ (राजा) पद प्राप्त करने के योग्य हो, उसका नाम बतायें। तब विष्णु महाराज ने अपने मानसपुत्र (शिष्य) विरजा को सौंप दिया। किन्तु उसने सन्यास ले लिया। विरजा का पुत्र कीर्तिमान व उसका पुत्र कर्दम भी सन्यासी बन गये।

प्रजापति कर्दम का पुत्र अनंग राजा बना। अनंग के पुत्र का नाम अतिबल था जो नीतिशास्त्र का विद्वान् था परन्तु इन्द्रियों का दास हो गया। उसका विवाह मृत्यु की कन्या सुनीथा से हुआ था जो तीनों लोकों में प्रख्यात थी। इनके पुत्र का नाम वेन था जो प्रजाओं पर अत्याचार करने लगा। इसी कारण ऋषियों ने इस वेन को मरवा डाला। वेन का पुत्र पृथु हुआ जिसका अभिषेक समस्त ऋषि महर्षि और देवताओं ने मिलकर किया। पृथु के पुत्र शुक्राचार्य हुए, जो वैदिक ज्ञान के भंडार थे। बालखिल्यगण तथा सरस्वती तटवर्ती महर्षियों के समुदाय ने उनके मंत्री के कार्य को सम्भाला। महर्षि गर्ग उनकी राजसभा के ज्योतिषी थे। पृथु के समय तक यह पृथ्वी बहुत उंची-नीची थी, उन्होंने इसको कृषि योग्य बनाया। इनके राजतिलक पर देवराज इन्द्र भी पधारे थे। उन्होंने और कुबेर ने भी इनको काफी धन दिया। इनकी विशाल सेना में घोड़े, रथ, हाथी आदि पर्याप्त संख्या में थे। सभी प्रजा स्वस्थ और सुखी थी। प्रजा को चोर-डाकुओं का भय न था। महाराज पृथु ने ही सर्वप्रथम धनुष का आविष्कार किया। ये वेन, पृथु, अदि उत्तानपाद के पुत्र ध्रुव के वंशज थे। (विष्णु पुराण प्रथम अंश, अध्याय 13 देखो)

सूर्यवंशी राजाओं की वंशावली



जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-33





जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-34





जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-35





जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-36





जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-37





जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-38





जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-39


महाभारत आदि पर्व 66वां अध्याय -

ब्रह्मा जी के दो पुत्र और भी थे - 1. धाता 2. विधाता, जो मनु के साथ रहते थे (श्लोक 50)। लक्ष्मीदेवी उन दोनों की बहन थी।

वरुण ने अपनी ज्येष्ठ पत्नी देवी से पुत्र बल और पुत्री सुरा पैदा किए (श्लोक 51-52)।

अरुण की पत्नी श्येनी से दो महाबली पुत्र सम्पाती और जटायु थे। जटायु बड़ा शक्तिशाली था। सुरसा और कद्रु ने नाग एवं पन्नग जाति के पुत्रों को उत्पन्न किया। विनता के दो ही पुत्र विख्यात हैं - गरुड़ और अरुण (श्लोक 69-70)।

ब्रह्मा जी के पीछे विराट उत्पन्न हुआ, फिर वशिष्ठ, नारद, दक्ष प्रजापति, स्वायम्भव मनु आदि हुए। इन ऋषियों के मन में ईश्वर ने प्रकाश किया। (उपदेशमंजरी 5वां प्रवचन, पृ. 34)

ब्रह्मा के पुत्र पुलस्त्य की वंशावली

वाल्मीकीय रामायण उत्तरकाण्ड द्वितीय सर्ग - 
पुलस्त्य मुनि बड़े बुद्धिमान्, विद्वान्, तेजस्वी थे और अपने उज्जवल गुणों के कारण ही सब लोगों के प्रिय थे। वे मेरुपर्वत के निकट राजर्षि तृणबिन्दु के आश्रम में तपस्या करने लगे। उनका राजर्षि तृणबिन्दु की सुयोग्य कन्या से विवाह हो गया।
तृतीय सर्ग - 
उनका एक विश्रवा नाम का पुत्र हुआ जो अपने पिता के ही समान था। महामुनि भारद्वाज ने अपनी कन्या विश्रवा को ब्याह दी। विश्रवा का एक पुत्र इस पत्नी से हुआ जिसका नाम वैश्रवण था। ब्रह्मा जी ने उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर उनके मांगे गये वर के अनुसार यम, इन्द्र, वरुण की तरह चौथा लोकपाल (लोक की रक्षा) का पद दे दिया। साथ ही पुष्पक विमान सवारी के लिये दिया। वैश्रवण ने अपने रहने का स्थान अपने पिता विश्रवा से पूछा। मुनिवर विश्रवा ने कहा -
“दक्षिणी समुद्र के तट पर एक त्रिकूट नामक पर्वत है। उसके शिखर पर एक विशालपुरी है। उसका नाम लंका है। तुम निःसन्देह वहां जाकर रहो। उसकी चारदीवारी सोने की बनी हुई है। उसके चारों ओर चौड़ी-चौड़ी खाइयां खुदी हुई हैं और वह अनेकानेक यन्त्रों तथा शस्त्रों से सुरक्षित है। उसके फाटक सोने और नीलम के बने हुए हैं। पूर्वकाल में भगवान् विष्णु के भय से पीड़ित हुए समस्त राक्षसों ने उस लंकापुरी को त्याग दिया था। वे समस्त राक्षस रसातल (अमेरिका) को चले गये थे। इसलिये लंकापुरी सूनी हो गयी और अब भी सूनी है, उसका कोई स्वामी नहीं है।” अपने पिता के कहने पर वैश्रवण लंकापुरी में जाकर रहने लगे। उनके जाने पर थोड़े ही दिनों में वह पुरी हृष्ट-पुष्ट राक्षसों से भर गई। वैश्रवण राक्षसों के राजा बने और वहां आनन्दपूर्वक रहने लगे। वे धनपति कुबेर कहलाये।
चतुर्थ सर्ग (राक्षस कौन थे) - 
जब प्रजापति ब्रह्मा ने पूछा कि 'इन जीव-जन्तुओं की रक्षा कौन करेगा' तब जिन्होंने रक्षा का भार संभाला, वे राक्षस कहलाये। यज्ञ करने वाले याज्ञिक लोग यक्ष कहलाये। ब्रह्माजी ने कहा कि तुम में से जिन्होंने यह कहा है कि “हम रक्षा करेंगे” वे राक्षस नाम से प्रसिद्ध हों और जिन्होंने यज्ञ करना स्वीकार किया वे यक्ष नाम से विख्यात हों। इस प्रकार ये दोनों नाम

जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-40


ब्रह्मा जी के ही रक्खे हुए हैं। ये सब ब्रह्मा जी के वंश में ही हुए। राक्षस लोग भारतीय थे। वे सभ्यता और भौतिकी उन्नति में अन्य भारतीय लोगों से न्यून न थे। उनके द्वारा वैदिक सभ्यता का पाताल देश (अमेरिका) में अच्छा प्रचार हुआ। महाभारत आदि पर्व 66-67 - “नरश्रेष्ठ! बुद्धिमान् पुलस्त्य मुनि के पुत्र राक्षस, वानर, किन्नर तथा यक्ष हैं।”

उन राक्षसों में हेति और प्रहति दो भाई थे जो समस्त राक्षसों के अधिपति थे। वे बुद्धिमान् और शक्तिशाली थे। हेति ने काल की कुमारी भगिनी भया के साथ विवाह कर लिया। वह बड़ी भयानक थी। उनके एक पुत्र विद्युतकेश नाम का हुआ। इसका विवाह संध्या की पुत्री से हुआ जिसका नाम सालकटंकटा था। उसने मन्दराचल पर्वत पर एक पुत्र को जन्मा जिसका नाम सुकेश था। नवजात शिशु को वहीं छोड़कर सालकटंकटा अपने पति विद्युतकेश के साथ रमण करने लगी। उस समय भगवान् शंकर जी पार्वती जी के साथ बैल (वायुयान) पर चढ़कर वायुमार्ग (आकाश) से जा रहे थे। उन्होंने उस बालक के रोने की आवाज सुनी। शिवजी महाराज ने उसको नौजवान बना दिया और उसके रहने के लिये एक आकाशचारी नगराकार विमान दे दिया। विद्युतकेश का वह पुत्र सुकेश के नाम से प्रसिद्ध हुआ। वह बड़ा बुद्धिमान् था।
पंचम सर्ग - 
ग्रामणी नामक गन्धर्व ने अपनी कन्या देववती का विवाह राक्षस सुकेश के साथ कर दिया। उनके तीन पुत्र हुए जिनके नाम माल्यवान्, सुमाली, माली थे। वे रावण से बढकर योद्धा थे। इन तीनों ने मेरु पर्वत पर तपस्या की। फिर तीनों सहस्रों अनुचरों के साथ लंकापुरी में चले गये। वहां नर्मदा नाम की गन्धर्वी ने अपनी तीन कन्यायें उन तीनों के साथ ब्याह दीं। उन कन्याओं का नाम सुन्दरी, केतुमती, वसुदा था।
  • (1) माल्यवान् (पत्नी सुन्दरी) → सात पुत्र और एक पुत्री।
  • (2) सुमाली (पत्नी केतुमती) → दस पुत्र और चार पुत्री।
  • (3) माली (पत्नी वसुदा) → चार पुत्र - अनम, अनिल, हर, सम्पाति (ये चारों बाद में विभीषण के मन्त्री बने)।
षष्ठ सर्ग - 
ये राक्षस घमंडी हो गये और देवताओं को बड़ा कष्ट देने लगे। इन्होंने पूरी शक्ति से देवताओं पर आक्रमण कर दिया। देवताओं ने सारा हाल शंकर जी को सुनाया। उन्होंने देवताओं को विष्णु जी के पास भेज दिया। विष्णु जी देवताओं की रक्षा हेतु अपने गरुड़ (विमान) पर चढकर राक्षसों से युद्ध करने चले गये।


दोनों ओर घोर युद्ध हुआ। इस युद्ध में विष्णु जी द्वारा माली और असंख्य राक्षस मारे गये। शेष लंकापुरी में भाग गये।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-41


अष्टम सर्ग - 
राक्षसों का भगवान् विष्णु के साथ अनेक बार युद्ध हुआ परन्तु राक्षस हारते रहे। अतः समस्त निशाचर लंका छोड़कर पाताल (अमेरिका) चले गये और वहां रहने लगे। वहां वे पराक्रमी निशाचर सालकटंकट वंश में विद्यमान राक्षस सुमाली का आश्रय लेकर रहने लगे। इसी बीच धनाध्यक्ष कुबेर वैश्रवण ने लंका को अपना निवास स्थान बनाया जैसा कि पहले वर्णन किया जा चुका है।
नवम सर्ग - 
सालकटंकटा वंश सुमाली की दादी सालकटंकटा के नाम से विख्यात हुआ। अमेरिका में सालकटंकटा के विषय में जो जनश्रुति प्रचलित है उसकी चर्चा “भारतवर्ष का इतिहास” द्वितीय खण्ड के चतुर्थ भाग में 339 पृष्ठ पर आचार्य रामदेव जी ने इस प्रकार की है -
अमेरिकन अनुश्रुति के अनुसार “क्वेट सालकटल” (Quetzalcoatl) नाम का एक शुभ व्यक्ति प्राच्य देशों से उनके देश में आया था। इसकी दाढ़ी बहुत लम्बी थी, कद ऊंचा, बाल काले और रंग शुभ्र था। इसने अमेरिका निवासियों को कृषि की शिक्षा दी, धातुओं का प्रयोग सिखलाया और शासन व्यवस्था की कला में निपुणता प्राप्त कराई। अमेरिकन लोग उसकी देवता के तरह पूजा करने लगे। उस दैवी पुरुष के प्रभाव से अमेरिका में नवीन युग का प्रारम्भ हो गया। परन्तु यह “क्वेट सालकटल” बहुत समय तक अमेरिका में न रह सका, उसे देश छोड़कर जाना पड़ा। जब वह मैक्सिको की खाड़ी के समीप पहुंच गया तब उसने अपने अनुयायियों से विदा ली और समुद्र पार करके वापिस चला गया। यह “क्वेट सालकटल” कौन था? इसमें सन्देह नहीं कि यह आर्य जाति का था। हमारे पास इसके लिये दृढ प्रमाण विद्यमान हैं। वाल्मीकि रामायण उत्तरकाण्ड 6वां व 7वां सर्ग में जो पिछले पृष्ठ पर लिख दिया है, विष्णु से पराजित होकर सालकटंकट वंश के राक्षस लोग जिनका मूल स्थान लंकाद्वीप था, पाताल देश में चले गये थे। उनका नेता

“सुमाली” था। सो, उत्तर साफ है कि यह “क्वेट सालकटल” जिसने अमेरिका के लोगों को कृषि, धातुविद्या तथा शासन व्यवस्था सिखलाई, वह सालकटंकट सुमाली ही था।

सुमाली अपनी पुत्री कैकसी को लेकर रसातल से मर्त्यलोक में विचरने लगा। सुमाली ने कैकसी का विवाह ऋषि विश्रवा से कर दिया। उनसे रावण (दशग्रीव), कुम्भकर्ण, शूर्पणखा और विभीषण उत्पन्न हुए। कुछ काल बीतने पर धन के स्वामी वैश्रवण पुष्पक विमान पर आरूढ होकर अपने पिता विश्रवा से मिलने वहां आये। उसकी मौसी कैकसी ने उसको अपने भाइयों रावण आदि से मिलवाया।
दशम सर्ग - 
रावण अपने दोनों भाइयों सहित तपस्या के लिए गोकर्ण के पवित्र आश्रम पर गये। बहुत समय तक तपस्या की और ब्रह्मा जी से वर लेकर वापिस आ गये।
एकादश सर्ग - 
यह जानकर सुमाली राक्षस अपने अनुचरों सहित भय छोड़कर रसातल से अपने चार मन्त्री मारीच, प्रहस्त, विरूपाक्ष और महोदर को भी साथ लेकर रावण के पास आ गया। सुमाली ने

जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-42



रावण को बताया कि यह लंकापुरी जिसमें तुम्हारे बुद्धिमान् भाई धनाध्यक्ष कुबेर वैश्रवण निवास करते हैं, हम लोगों की है। हम सब आपको इस पुरी का राजा मानते हैं। रावण ने लंकापुरी को लेने के लिए अपने भाई कुबेर वैश्रवण के पास अपने एक दूत प्रहस्त को भेजा। वैश्रवण ने उनके ऐसा कहने पर लंकापुरी छोड़ दी और अपने पिता विश्रवा के कहने पर अपनी स्त्री, पुत्र, मन्त्री, वाहन, धन और अनुचरों सहित कैलाश पर्वत पर चले गये। वहां जाकर वैश्रवण ने 'अलकापुरी' बसाई। खाली हुई लंकापुरी में रावण अपनी सेना, अनुचर तथा भाइयों सहित चला गया। उस समय सब निशाचरों ने रावण का राज्याभिषेक किया। फिर रावण ने इस पुरी को बसाया। देखते-देखते समूची लंकापुरी नील मेघ के समान वर्ण वाले राक्षसों से पूर्णतः भर गयी।
दशम सर्ग - 
रावण ने अपनी बहन शूर्पणखा का विवाह दानवराज विद्युज्जिह्व जो कालका का पुत्र था, के साथ कर दिया। रावण का विवाह मन्दोदरी से हुआ, जिसके पिता दिति के पुत्र मय थे और माता हेमा थी। कुम्भकर्ण का विवाह वज्रज्वाला से हुआ जो विरोचनकुमार बलि की दौहित्री थी। विभीषण का विवाह गन्धर्वराज महात्मा शैलूष की कन्या सरमा से हुआ। रावण का पुत्र मेघनाद हुआ जिसको इन्द्रजीत भी कहते हैं।

वंशावली

पुलस्त्य (पत्नी - तृणबिन्दु की कन्या)
विश्रवा
विश्रवा की दो पत्नियां थीं - (1) पत्नी भारद्वाज की कन्या (2) पत्नी कैकसी (सुमाली की पुत्री)
पत्नी भारद्वाज की कन्या से वैश्रवण (धनपति कुबेर) उत्पन्न हुए। पत्नी कैकसी से उत्पन्न हुए - रावण (पत्नी मन्दोदरी, पुत्र मेघनाद), कुम्भकर्ण (पत्नी वज्रज्वाला), शूर्पणखा (पति विद्युज्जिह्व जिसको रावण ने युद्ध में मार दिया था), विभीषण पत्नी सरमा

राक्षसों के अधिपति दो भाई थे - (1) हेति (पत्नी भया) (2) प्रहेति


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-43


प्रहेति के दो पुत्र - विद्युतकेश (पत्नी सालकटंकटा), और सुकेश (पत्नी देववती)

सुकेश
(1) माल्यवान (पत्नी सुन्दरी), इसके सात पुत्र और एक पुत्री (2) सुमाली (पत्नी केतुमती) (3) माली (पत्नी वसुदा)

सुमाली के दस पुत्र और चार पुत्री। जिनमें से एक पुत्री का नाम कैकसी था जिसका विवाह विश्रवा से हुआ।

माली
माली के चार पुत्र थे - 1. अनल 2. अनिल 3. हर 4. सम्पाति (ये विभीषण के मन्त्री बने)


महाभारत आदिपर्व 66वां अध्याय

ब्रह्मा जी के पुत्र पुलक (पुलह) के शरभ, सिंह, किम्पुरुष, व्याघ्र, रींछ और ईहामृत (भेड़िया) जाति के पुत्र हुए।

ब्रह्मा जी के पुत्र क्रतु (यज्ञ) के पुत्र भी क्रतु के ही समान पवित्र, तीनों लोकों में विख्यात, सत्यवादी, व्रतपरायण तथा भगवान् सूर्य के आगे चलने वाले साठ हजार बालखिल्य ऋषि हुए।

ब्रह्मा जी के पुत्र अंगिरा के तीन पुत्र हुए, जो लोक में सर्वत्र विद्यमान हैं। उनके नाम ये हैं - 1. बृहस्पति 2. उतथ्य 3. संवर्त ।

ब्रह्मा जी के पुत्र भृगु के विद्वान् पुत्र कवि हुए और कवि के पुत्र शुक्राचार्य हुए जो ग्रह होकर तीनों लोकों के जीवन की रक्षा के लिए वृष्टि, अनावृष्टि तथा भय और अभय उत्पन्न करते थे। महाबुद्धिमान् शुक्र ही योग के आचार्य और दैत्यों के गुरु हुए।

भृगु के दूसरे पुत्र का नाम च्यवन था। च्यवन की पत्नी मनु की पुत्री आरुषी मनीषी थी जिसके गर्भ से और्व मुनि का जन्म हुआ। और्व के पुत्र ऋचीक तथा ऋचीक के पुत्र जमदग्नि हुए। जमदग्नि के चार पुत्र थे जिनमें परशुराम जी सबसे छोटे थे किन्तु गुणों में बड़े थे। और्व मुनि के जमदग्नि आदि सौ पुत्र थे। फिर उनके भी सहस्रों पुत्र हुए। इस प्रकार भृगुवंश का विस्तार हुआ।

ब्रह्मा जी के पुत्र दक्ष भी थे। उनकी पत्नी प्रसूति से दक्ष की 50 कन्यायें उत्पन्न हुईं। प्रजापति दक्ष के पुत्र जब नष्ट हो गये, तब उन्होंने अपनी कन्याओं को पुत्र के समान मान लिया। दक्ष ने 10 कन्यायें धर्म को, 27 कन्यायें चन्द्रमा को और 13 कन्यायें महर्षि कश्यप को दिव्य विधि के अनुसार समर्पित कर दीं। चन्द्रमा के वंश में प्रभास हुए जिनका विवाह बृहस्पति की बहिन से हुआ। विश्वकर्मा उन्हीं से पैदा हुए। वे सहस्रों शिल्पों के निर्माता देवताओं के बढई कहे जाते हैं। उन्होंने देवताओं के असंख्य दिव्य विमान बनाये।

सूर्य की धर्मपत्नी का नाम संज्ञा था जो त्वष्टा की पुत्री थी। उन्होंने दोनों अश्विनीकुमारों को जन्म दिया। यह त्वष्टा अदिति के 12 पुत्रों में से एक था। दक्ष की 13 कन्यायें जो महर्षि कश्यप


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-44


की पत्नियां थीं, उनके नाम इस प्रकार हैं -

1. अदिति 2. दिति 3. दनु 4. काला 5. दनायु 6. सिंहिका 7. प्राधा 8. क्रोधा (क्रूरा) 9. विश्वा 10. विनता 11. कपिला 12. मुनि 13. कद्रु ।

इनके पुत्रों का वर्णन -

(1) अदिति से 12 पुत्र आदित्य (देव) उत्पन्न हुए - धाता, मित्र, अर्यमा, इन्द्र, वरुण, अंस, भग, विवस्वान्, पूषा, सविता, त्वष्टा, विष्णु । इन सब आदित्यों में विष्णु छोटे थे परन्तु गुणों में सबसे बढ़कर थे।

(2) दिति का वंश दैत्य (असुर) नाम से प्रसिद्ध हुआ। इन दैत्यों में प्रह्लाद देव माना जाता है।

दिति का एक पुत्र हुआ (हिरण्यकशिपु)
1. प्रह्लाद 2. संह्लाद 3. अनुह्लाद 4. शिवि 5. वाष्कल
------------
प्रह्लाद के तीन पुत्र
1. विरोचन 2. कुम्भ 3. निकुम्भ
------------
विरोचन
बलि (बल या बालान जाट वंश)
महाप्रतापी बाणासुर (महाकाल)
------------

(3) दनु के 34 पुत्र दानव कहलाए। उनमें दानवों का सुप्रसिद्ध और महायशस्वी प्रथम राजा विप्रचित्ति हुआ।

4 से 13 तक जो अन्य काला, दनायु आदि 9 कन्यायें हैं उनकी वंशावली भी महाभारत में अत्यन्त विस्तार से वर्णित है।

इस प्रकार देव और असुर वंश दोनों ही ब्रह्मा की संतान हैं। आज भी जिस प्रकार देव, विद्वान्, श्रेष्ठ और असुर, मूर्ख, दुष्ट प्रकृति की संतान एक ही पिता की देखने को मिलती है, इसी प्रकार देवयुग में और आदि सृष्टि से ही महर्षि ब्रह्मा के वंश में ही देव असुर उत्पन्न हुए। यक्ष और राक्षस भी इसी प्रकार ऋषिकुल में उत्पन्न हुए।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-45





जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-46





जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-47





जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-48





जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-49





जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-50





जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-51





जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-52





जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-53





जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-54





जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-55





जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-56



यह आगे के पृष्ठों पर उदाहरण देकर लिखा गया है कि श्रीकृष्ण महाराज जाट थे। वर्तमान भरतपुर नरेश श्री कृष्ण महाराज के वंशज हैं और वे जाट वंश के प्रसिद्ध क्षत्रिय हैं। “क्षत्रिय वंश” श्री कुंवर रिसालसिंह यादव प्रणीत ग्रन्थ के पृष्ठ 11, 12, 13 पर कृष्ण जी की वंशावली निम्न प्रकार से लिखी है। (जाट इतिहास पृ० 16-18 सम्पादक निरञ्जनसिंह चौधरी) -

  • 1. श्रीकृष्ण जी
  • 2. प्रद्युम्न
  • 3. अनिरुद्ध
  • 4. वज्र
  • 5. कृतभानु
  • 6. चित्रसेन
  • 7. रविसेन
  • 8. विमलदेव
  • 9. त्रिसेन
  • 10. सखनराज
  • 11. सिंहराज
  • 12. धत्वराज
  • 13. बलदेव
  • 14. सावतराय
  • 15. दूग्सेन
  • 16. सांवलभूप
  • 17. सर्वजीत
  • 18. विष्णजीत
  • 19. इन्द्रसेन
  • 20. निखाम
  • 21. द्रोण
  • 22. धीराजीत
  • 23. सवलराम
  • 24. भद्रकसिंह
  • 25. सावन्तरह
  • 26. धनसिंह
  • 27. कृष्णभानु
  • 28. भूधर्म
  • 29. क्षत्रसेन
  • 30. बुद्धवीर
  • 31. सावन्त
  • 32. चन्द्रसेन
  • 33. महासेन
  • 33. अक्षय
  • 35. भीमसेन
  • 36. उग्रसेन
  • 37. धर्मसेन
  • 38. विष्णुकीर्ति
  • 39. भूमिसेन
  • 40. भूरीसिंह
  • 41. कृष्णवाहु
  • 42. अगरराज
  • 43. अनुकूलराज
  • 44. लक्षवीर
  • 45. कृष्णबुध
  • 46. संग्रामजीत
  • 47. बुधरत
  • 48. अंगद
  • 49. अग्निजीत
  • 50. कृष्णदेव
  • 51. अखिलसहाय
  • 52. राजरूप
  • 53. मुद्रासेन
  • 54. नन्दराम
  • 55. वीरसेन
  • 56. सिन्धुपाल
  • 57. जगतपाल
  • 58. विटलपाल (विक्रमपाल)
  • 59. संग्रामपाल
  • 60. कीर्तिपाल (कान्तिपाल)
  • 61. भोजपाल (भूमिपाल)
  • 62. तशपाल (तेजपाल)
  • 63. अक्षपाल
  • 64. ब्रह्मपाल
  • 65. चन्द्रपाल
  • 66. सन्तपाल
  • 67. विजयपाल
  • 68. तहनपाल
  • 69. मदनपाल
  • 70. सूये (सूहेपाल)
  • 71. सूरद
  • 72. लखनसिंह
  • 73. हरिश्चन्द्र
  • 74. बालचन्द्र
  • 75. सूरजे
  • 76. धनधर्म (धर्मपाल)
  • 77. भीम
  • 78. मालूसिंह
  • 79. भोजसिंह (भज्जा)
  • 80. कामदेव
  • 81. भूरेसिंह
  • 82. रौरियासिंह
  • 83. मदुसिंह
  • 84. पृथ्वीराज
  • 85. मकनसिंह
  • 86. खानचन्द
  • 87. ब्रजराज
  • 88. भाऊसिंह (भावसिंह)
  • 89. बदनसिंह
  • 90. सूरजमल
  • 91. जवाहरसिंह
  • 92. रत्नसिंह (जवाहरसिंह के भाई थे)
  • 93. केहरीसिंह (रत्नसिंह के पुत्र)
  • 94. रणजीतसिंह (ये सूरजमल के पुत्र)
  • 95. रणधीरसिंह
  • 96. बलदेवसिंह (रणधीरसिंह के भाई)
  • 97. बलवन्तसिंह
  • 98. यशवन्तसिंह (या जसवन्तसिंह)
  • 99. रामसिंह
  • 100. कृष्णसिंह
  • 101. बृजिन्दरसिंह (1929 से 1948 ई० तक राजा रहा)

जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-57


नोट 1 - 69वीं संख्या वाले मदनपाल से लेकर वर्तमान भरतपुर नरेश बृजिन्दरसिंह की वंशावली बृजेन्द्र वंश भास्कर नामक भरतपुर राज्य के इतिहास के पृष्ठ 3 से 10 तक और सुजान चरित्र आदि पुस्तकों के आधार पर लिखी गई है।

नोट 2 - यह तो अब ज्ञात हो गया है कि भरतपुर राजवंश योगिराज श्रीकृष्ण जी के ही वंशज हैं इसलिए यह जाटवंशीय है और यह जाट ही प्रसिद्ध है।

सम्राट् कनिष्क योगिराज कृष्ण जी के वंशज और जाटवंशीय थे

विदित हो कि महारथी मासिक पत्र (दिल्ली) भाग 1 वर्ष 1 संख्या 6 मास चैत्र संवत् 1982 के पृष्ठ 526 पर अंकित है कि जीवन पादर्श के इतिहास से यह भी स्पष्ट है कि पारदिया में सेंट ग्रगरी के आक्रमण समय Kishna (किशन) कृष्णवंशी भी रहते थे। उन्हीं को अब कुशान (कुषाण) कहते हैं। श्री रा० भरतराम जी प्रणीत गुजराती भाषा के समुद्रगुप्त चरित्र नामक ग्रन्थ के श्री प्रोफेसर रविशंकर B.A. LLB कृत हिन्दी अनुवाद के पृष्ठ 53 पर लिखा है कि गांधार के पुरुषपुर के काबुलीय कुशान राजाओं के नाम पर 'देवपुत्र' की विशेष उपाधि लगाते थे। महान् कुशान नृपति कनिष्कहविष्क (हुष्क व हुक्ष) एवं वासुदेव (वासुष्क]] - इनको 'देवपुत्र' बहुमानार्थ पद दिया हुआ है।

सवानेह उमरी (जीवन चरित) महाराजा पृथ्वीराज, मुसान्निफा (प्रकाशक) वर्मन एण्ड कम्पनी लाहौर के पृष्ठ 9 पर लिखा है कि -

“मुसान्निफ तरीख अजुबेय रोजगार इसी कौम (कुशान) का दूसरा नाम जाट लिखता है। महाराज कनिष्क जो बाद में बड़ा जबरदस्त हुकमरां गुजरा है वह इसी जाट कौम का था जो बाद में बौद्ध मत का मानने वाला हो गया था।” कुशान जाटों में एक गोत्र भी है। इस गोत्र के जाट आजकल ग्राम अगोल में निवास करते हैं। कुशन कृष्ण शब्द का अपभ्रंश है। इस वंश में सम्राट कनिष्क बड़ा प्रतापी शासक हो चुका है। उसकी राजधानी पुरुषपुर अर्थात पेशावर थी। यह बौद्ध धर्म का बड़ा भक्त तथा प्रचण्ड प्रचारक था और कुशान (कृष्ण) वंशीय या जाटवंशीय क्षत्रिय प्रसिद्ध था। सम्राट् कनिष्क का पूरा वर्णन आगे यथास्थान दिया जाएगा।

हिन्द (भारत) के शासक जाटवंशीय महाराज हरबाहु आदि की राजधानी इन्द्रप्रस्थ (दिल्ली) पर कलियुगी सम्वत् 2285 से 3014 तक अर्थात् 729 वर्ष शासन रहा।

वाकात-ए-पंच हजार साला मुसन्निफा मुंशी राधेलाल साहब रईस मुहान मुतलिक्के लखनौ, मतवा मुंशी नवलकिशोर कानपुर ने सन् 1898 ईस्वी में पृष्ठ 17 तथा 24 से 29 तक इन्द्रप्रस्थ (दिल्ली) में राज्य करने वाले जाट राजाओं की सूची लिखी है। फारसी भाषा की प्रसिद्ध तवारीख “सैर उल-मुताखरीन” में भी लगभग ऐसा ही अंकित है कि “वियान वाकयात अहम आलमी वमूजिब सनवात कदीम व जहीद व तहरीर जिदवली यानि बतर्ज नक्शा”।

अब आर्यावर्तदेशीय राजवंश महाराज युधिष्ठिर से महाराज यशपाल पर्यन्त हुए हैं, उनके विषय में लिखते हैं।

महर्षि दयानन्द सरस्वती ने इस विषय को विद्यार्थी सम्मिलित “हरिश्चन्द्रचन्द्रिका” और “मोहनचन्द्रिका” जो श्रीनाथद्वारा से निकलता था, से अनुवाद किया है और अपनी पुस्तक सत्यार्थप्रकाश एकादश समुल्लास पृ० 263-266 पर लिखा है।



जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-58





जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-59





जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-60





जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-61





जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-62


वर्णाश्रम धर्म

(पिछले पृष्ठ से आगे)

का करना, बाहर भीतर की पवित्रता, अपनी ही स्त्री से सन्तुष्ट रहना, ऋतुकाल में केवल सन्तान के लिए अपनी पत्नी को वीर्यदान देना, अग्निहोत्र पूर्वक वेदशास्त्रों का स्वाध्याय करना, किसी भी जीव की हिंसा न करना, मांस मदिरा का सेवन कभी न करना तथा अपनी शक्ति के अनुसार दान देना आदि गृहस्थाश्रम के अभीष्ठ धर्म हैं।

4. वानप्रस्थाश्रम 
यह तीसरा आश्रम है। मनुष्य को 25 वर्ष गृहस्थ जीवन व्यतीत करके 51वें वर्ष में वानप्रस्थाश्रम में चले जाना चाहिए। वन में ही निवास और वन में उत्पन्न आहार पर निर्वाह करना, पृथ्वी पर सोना, प्रतिदिन अग्निहोत्र करना, ब्रह्मचर्य, क्षमा और शौचादि वानप्रस्थ का सनातन धर्म है।
5. संन्यासाश्रम 
यह चौथा आश्रम है। 25 वर्ष वानप्रस्थाश्रम में रहकर मनुष्य संन्यासाश्रम धारण करे। संन्यासी गृह त्यागकर जनता की भलाई के लिए वैदिकधर्म का उपदेश दे। वह अपने पास किसी वस्तु का संग्रह न करे, लोभी न हो। पवित्रता और सत्यता को धारण करे। किसी स्थान में मोह करके न रहे। जनता को कुमार्ग से हटाकर सन्मार्ग पर लगाये और ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए स्वाध्याय और परमात्मा की भक्ति करना ये सब संन्यासी के धर्म हैं। ऐसे अतिथि की सेवा करना सबका कर्त्तव्य है।

वर्ण-व्यवस्था

आदि सृष्टि में ईश्वर ने अनेक मनुष्य उत्पन्न किये। वे सब ही एक मनुष्य जाति के हैं, जिसे मानव जाति भी कहते हैं। आदि सृष्टि में सब ब्राह्मण ही थे। कोई वर्ण विभाग नहीं था1महर्षि भृगु बृहस्तिपुत्र भारद्वाज से कहते हैं - वर्णों की कोई विशेषता नहीं। सारा जगत् ब्रह्मा का है। पहले सब ब्राह्मण थे। धर्म के न्यून होते जाने पर कर्मों के भेद से वर्ण-विभाग हो गया2। जन्म से सभी शूद्र होते हैं किन्तु संस्कारों द्वारा पृथक् वर्णों को प्राप्त होते हैं। क्योंकि अल्पज्ञ मनुष्य अनेक कार्यों में समान रूप से सफलता प्राप्त नहीं कर सकता, न सब मनुष्यों के कार्य ही समान हैं3। वैदिककाल में वेदों के अनुसार मनुष्यमात्र प्रथम दो भागों में विभक्त हुए हैं - आर्य और दस्यु। शुभ कर्म करने वाले आर्य और दुष्ट कर्म करने वाले दस्यु या दास। आर्य और दस्यु दोनों के लिए 'वर्ण' शब्द का प्रयोग वेद में आया है4। वेदों में 'दास' (दस्यु) के साथ वर्ण शब्द का प्रयोग हुआ है,5। वर्ण शब्द का अर्थ 'चुननेवाला' है। अपनी-अपनी मति से मनुष्य अपना-अपना जीविकोपाय चुना करता है। किसी ने अच्छा व्यवसाय चुना तो किसी ने बुरा। इन दोनों प्रकार के मनुष्यों के लिए 'वर्ण' शब्द का प्रयोग वेद में है। परन्तु इनके लिए 'जाति' शब्द का प्रयोग कहीं भी प्रयुक्त नहीं है। अनेक स्थलों में ब्राह्मणादि मनुष्य के लिए 'वर्ण' शब्द का ही प्रयोग आता है, 'जाति' शब्द का नहीं6। लोक में भी चार वर्ण और चार आश्रम कहते हैं। 'चार जाति और 'चार आश्रम' कोई नहीं कहता।

यह पहले लिखा गया है कि आदि सृष्टि से ही आर्यों का पूरे भूगोल पर चक्रवर्ती राज्य रहा। स्वायम्भव मनु जो संसार के विधि-विधान अर्थात् न्याय-नियम के प्रथम निर्माता थे, ने वेद के आधार


1. महाभारत शान्तिपर्व अ० 188 ।
2. शान्तिपर्व अ० 186 ।
3. मनुस्मृति ।
4. ऋग्वेद 3.34.9 ।
5. ऋग्वेद 2.12.4 ।
6. तैत्तिरीय ब्राह्मण 31.2.9.41, महाभारत वनपर्व व शान्तिपर्व 188.10 ।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-63


पर आर्यों के चार वर्ण अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र मनुष्यों के गुण, कर्म, स्वभाव के अनुसार बनाये। यह वर्ण-व्यवस्था सामाजिक संगठन भली-भांति स्थिर रखने हेतु आरम्भ की गई। इसकी विशेषता यही रही कि सामाजिक शक्ति की बागडोर किसी एक वर्ग के हाथ में नहीं दी गई। ब्राह्मणों को सर्वोपरि गौरव तो दिया, किन्तु राज्य सत्ता से परे रखकर, दान पर जीने वाला घोषित किया। क्षत्रियों को राज्य ऐश्वर्य तो दिया किन्तु सम्मान में ब्राह्मणों को ऊंचा रक्खा और धन पर वैश्यों को अधिकार दिया। वैश्य सम्पत्ति उत्पादक-वैभवशाली तो माने गए किन्तु सम्मान ब्राह्मण का और शासन क्षत्रिय का ही रहा।

समाज के इस वर्ण विभाग को यजुर्वेद 31वें अध्याय के 11वें मन्त्र में लिखा है जिसका अर्थ यह है - जो पूर्ण व्यापक परमात्मा की सृष्टि में मुख के समान सब में मुख्य उत्तम हो वह ब्राह्मण, बल वीर्य जिसमें अधिक हो वह क्षत्रिय, जो सब पदार्थों और सब देशों में ऊरु के बल से जावे आवे वह वैश्य और जो पग अर्थात् नीचे के अंग के सदृश मूर्खत्वादि गुणवाला हो वह शूद्र है1। इन चारों वर्णों के कर्त्तव्य और गुण ये हैं2

1. ब्राह्मण 
पढना, पढाना, यज्ञ करना-कराना, दान देना, लेना परन्तु नीच कर्म है। मन में बुरे काम की इच्छा भी न करना और उसको अधर्म में कभी प्रवृत्त न होने देना, ब्रह्मचारी जितेन्द्रिय हो के धर्मानुष्ठान करना। ये सब ब्राह्मण के कर्म और गुण हैं।
2. क्षत्रिय 
न्याय से प्रजा की रक्षा करना, विद्या, धर्म की प्रवृत्ति और सुपात्रों को दान देना, अग्निहोत्रादि यज्ञ करना-कराना, वेद शास्त्रों का पढना तथा पढवाना, विषयों में न फंसकर सदा शरीर और आत्मा से बलवान् रहना, सैंकड़ों सहस्रों से भी युद्ध करने में अकेले को भय न होना, धैर्यवान् होना, राजा और प्रजा सम्बन्धी व्यवहार और सब शास्त्रों में अति चतुर होना, पक्षपातरहित होके सबके साथ यथायोग्य बर्त्तना, ये क्षत्रिय वर्ण के कर्म और गुण हैं।
3. वैश्य 
गाय आदि पशुओं का पालन, विद्या, धर्म की वृद्धि करने कराने के लिये धन व्यय करना, अग्निहोत्रादि यज्ञों का करना, वेदशास्त्रों का पढ़ना, सब प्रकार के व्यापार करना, एक सैंकड़े में चार, छः, आठ, बारह, सोलह व बीस आनों से अधिक ब्याज न लेना और मूल से दूना अर्थात् एक रुपया दिया हो तो सौ वर्ष में भी दो रुपये से अधिक न लेना न देना, खेती करना, ये वैश्य के गुण कर्म हैं।
4. शूद्र 
शूद्र के योग्य है कि निन्दा, ईर्ष्या, अभिमान आदि दोषों को छोड़ के ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य की सेवा यथावत् करना और उसी से अपना जीवन निर्वाह करना यही एक शूद्र का गुण कर्म है।

जिस समय आर्यावर्त्त में वर्ण व्यवस्था गुण, कर्म स्वभाव के अनुसार की जाती थी उस समय वर्ण बदले जा सकते थे। मनुष्य अच्छे कर्म करने से ब्राह्मण और नीच कर्म करने से ब्राह्मण भी शूद्र



1, 2. सत्यार्थप्रकाश चतुर्थ समुल्लास।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-64



बन जाता था। जैसे ऐतरेय दासीपुत्र, जाबालि वेश्यापुत्र, व्यास जी जिसकी माता सत्यवती एक मछुआरे की पुत्री थी, वसिष्ठ वेश्यापुत्र, गार्गी शूद्रपुत्री ये सब ब्राह्मण माने गये।

किसी वंश का व्यक्ति किसी महापुरुष की सन्तान होने के कारण ही बड़ा नहीं माना जाता था। वर्णों के गुण कर्मों के अनुसार ही उस वंश की कीर्ति थी। वंश के प्रत्येक व्यक्ति को उन्नति करने की स्वतन्त्रता थी कि वह ब्राह्मण पद भी हासिल कर लेता था। क्षत्रियों से ब्राह्मण बनते रहने के कारण ही ब्राह्मणों में भी क्षत्रियों के समान वंश पाये जाते हैं।

चतुर्वर्णों में आपसी खान-पान एक था, एक ही वैदिक धर्म सबका था, आपसी घृणा न थी। आज की तरह शूद्र से छूआछूत न थी। अब वर्ण परिवर्तन के कुछ उदाहरण इस प्रकार हैं -

(1) क्षत्रिय सम्राट् मान्धता के पुत्र अम्बरीष का पुत्र हरित हुआ जिसके पुत्र हारित कहलाये। वे अंगिरस ऋषि के शिष्य बनकर ब्राह्मण कहलाये1। (2) बृहत्क्षत्र का पुत्र सुहोत्र, उसका पुत्र हस्ति था जिसने हस्तिनापुर बसाया। हस्ति के पुत्र अजमील का पुत्र कण्व और उसका पुत्र मेधातिथि हुआ। जिससे क्षत्रियों और ब्राह्मणों में काण्वायन वंश चला। अजमील की सन्तानपरम्परा में मुदगल से मौदगल्य ब्राह्मण हुये2। (3) विश्वामित्र क्षत्रिय से ब्राह्मण बने और उसके वंश के कौशिक ब्राह्मण कहलाये3। (4) क्षत्रिय दिवोदास के उत्तराधिकारी मित्रायु से सोम मैत्रायण हुआ, उससे मैत्रेय ब्राह्मण कहलाये।4 (5) क्षत्रिय भरत का पोता मन्यु का पुत्र बृहत्क्षत्र था। उसी मन्यु का पुत्र गर्ग था जिसका पुत्र शिनि था। शिनि के दो पुत्र थे - गार्ग्य और शैन्य, जो दोनों ब्राह्मण हुए5

रामायण युग में परशुराम ब्राह्मण ने शस्त्र सम्भाले और महाभारत में कृप, द्रोण और अश्वत्थामा ने युद्ध किया किन्तु क्षत्रिय नहीं कहलाये, ब्राह्मण ही रहे। रावण की भांति राक्षस न कहलाये। महाभारत युद्ध के बाद ब्राह्मण प्रभुत्व के समय, ब्राह्मणों ने अपना अस्तित्व चारों वर्णों में स्थापित करने के लिए वंशों में गोत्रप्रवर के पुछल्ले और जोड़ दिये और यह लिख दिया कि "सर्वं ब्राह्ममिदं जगत्" अर्थात् सारे वर्ण ब्राह्मणों से ही उत्पन्न हुए हैं। इसको परिपुष्ट करने के लिये लिखा गया कि अंगिरा, कश्यप, वशिष्ठ और भृगु नामक मूलगोत्र चार ही हैं। इसके बाद विश्वामित्र, जमदग्नि भारद्वाज, गौतम, अत्रि, वशिष्ठ, कश्यप, अगस्त्य नामक आठ गोत्रों की कल्पना की गई। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्यों को भी इन्हीं आठ के अन्तर्गत माना गया। किन्तु बौद्ध युग में ब्राह्मणप्रभुता के विरुद्ध आन्दोलन से गोत्रप्रवरों की सत्ता वंशों के साथ कुछ नहीं रह गई। क्षत्रिय वर्ण के वंशों ने उन्हें सर्वथा भुला दिया। जब नवीन हिन्दू धर्म की फिर स्थापना की गई तब फिर ब्राह्मणों को अपनी उच्चता सिद्ध करने के लिये बल लगाना पड़ा। याज्ञवल्य स्मृति पर पण्डित विज्ञानेश्वर (जो 1076 से 1126 ई० के बीच हुआ था) ने अपनी पुस्तक "मिताक्षरा टीका" में लिखा है - याज्ञवल्य 53 - जो कन्या अरोगिणी, भाई वाली, मित्र ऋषि गोत्र की न हो और वर की माता की ओर से पांच पीढी और पिता की ओर से सात पीढ़ी तक का जिससे सम्बन्ध न हो उससे विवाह करना चाहिए। इस पर "मिताक्षरा टीका" पृष्ठ 14 पर लिखा है - क्षत्रिय, वैश्यों में अपने गोत्र और प्रवरों का अभाव होने के कारण, उनके पुरोहितों के गोत्रप्रवर समझने चाहिएं। आश्वलायन भी लिखता है कि राजाओं और वैश्यों के गोत्र वही मानने चाहिएं जो उनके पुरोहितों


1. विष्णु पु० अ० 4 श्लोक 5 ।
2. विष्णु पु० अ० 4, अध्याय 19/10 और वायु पुराण ।
3. महाभारत।
4. महाभारत और विष्णु पुराण ।
5. महाभारत और विष्णु पुराण ।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-65


के हों1। अमरकोश में कहा है - सन्तति, गोत्र, जनन, कुल, अभिजन, अन्ववाय आदि सब शब्दों का एक ही अर्थ है, किन्तु संस्कृत साहित्य में एकदल का बोधक प्राचीनकाल से वंश ही है। उन्हीं का अतीतकाल में आदर एवं महत्त्व था और आज भी है। वैवाहिक सम्बन्धों में वंश का ही ध्यान रखा जाता है। वंश ही सच्चे रूप से इस बात के बोधक हैं कि क्षत्रियों की रगों में आज भी प्राचीनकाल के आर्य महापुरुषों का परम्परागत शुद्ध रक्त बह रहा है। क्षत्रियों में अनेक कारणों से अनेक राज्यवंशों की स्थापना समय-समय पर होती रही है। उन्हीं वंशों में अनेक आचार-विचार के व्यक्तियों ने अनेक विचारधाराओं को स्वीकार करके उनका प्रचार किया। इन्हीं को बाद में धर्म और सम्प्रदाय का नाम दिया गया।

इसी प्रकार समान विचार वाले वंशों को मिलाकर संघों का निर्माण हुआ। कुछ काल बाद उन्हीं को जाति कहने लगे। किन्तु इन सबका मूल आधार वंश है, फिर चाहे वह प्राचीन हो या नवीन। वंश प्रचलन - व्यक्ति, देश या स्थान, काल, उपाधि, भाषा के नाम पर हुए2

व्यक्ति 
वंश प्रचलन का सबसे प्रमुख कारण विशेष महापुरुषों का व्यक्तित्व है। इस रूप में अनेक वंशों का प्रचलन हुआ। भगवान् राम की तुलना में रघु का नाम कुछ भी महत्त्व का नहीं, किन्तु यह वंश, रघु के नाम पर रघुवंश प्रसिद्ध हुआ, रामवंश प्रसिद्ध नहीं हो सका। इस प्रकार चलने वाले व्यक्तिप्रधान वंश इस प्रकार हैं -
यादव, रघुवंशी, पाण्डव, पौरव, कुरुवंशी, तंवर, सलकलान, दहिया, जाखड़, कुशान, बुधवार, देशवाल, दलाल, मान, सीवाग, कादयान, लाम्बा, पूनिया, लल्ल, बालान, नव, तक्षक, काकराणा, चन्द्रवंशी, शिवि, गौर, मद्र, भिम्भरौलिया, सांगवान, गिल, हाला, सूर्यवंशी आदि3
देश या स्थान 
के नाम पर अनेक वंश प्रचलित हैं जैसे - सिन्धु, गांधारी, कुन्तल खुटैल, अहलावत, चेदी, सिनसिनवार, भिण्ड (तोमर), दाहिमा, नेहरा, तेवतिया (भटौनिया), वाहिक (वरिक), बसाति (वैस), मागध (मांगठ), माही (मोहिल), तुषार, मालव (मल्लोई), सिकरवार आदि।
काल 
ज्यों-ज्यों समय बीतता जाता है, त्यों-त्यों एक ही वंश के अपने नामों में भी परिवर्तन हो

1. इसी भांति अन्य ब्राह्मण इतिहासकारों ने ऊपरलिखित बातों का समर्थन किया है। परन्तु वह ब्राह्मणों का रचा हुआ एक बड़ा षड्यन्त्र था, जो अन्य वर्णों के मनुष्यों पर प्रभाव डालने और उनको अपना दास बनाने के उद्देश्य से रचा गया था। इसमें गोत्र, सन्तति, वंश का तो कोई आदर ही नहीं छोड़ा था। (क्षत्रिय जातियों का उत्थान, पतन एवं जाटों का उत्कर्ष पृ० 46-48 लेखक योगेन्द्रपाल शास्त्री), (जाट इतिहास उर्दू पृ० 24-27, लेखक ठा० संसारसिंह। क्षत्रियों का इतिहास पृ० 22-24).
2, 3, 4, 5. क्षत्रिय जातियों का उत्थान, पतन एवं जाटों का उत्कर्ष पृ० 48-49 लेखक योगेन्द्रपाल शास्त्री), (जाट इतिहास उर्दू पृ० 27-28, लेखक ठा० संसारसिंह। क्षत्रियों का इतिहास प्रथम भाग पृ० 24-25 लेखक परमेश शर्मा तथा राजपालसिंह शास्त्री); एवं लेखक।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-66


जाते हैं। जैसे - भगवान् राम का जो वंश सत्ययुग और त्रेता में काकुस्थ, इक्षवाकु और रघु के नाम से प्रसिद्ध था वह आज कलियुग में काकराणा के नाम से प्रसिद्ध है1
उपाधि 
बहुत से वंश केवल उपाधियों (खिताबों) के आधार पर भी संगठित हुए। जैसे - राव, रावत, सहरावत, चौहान, सोलंकी, परमार, परिहार, ठकुरेला, छोंकर, ठेनवा, चापोत्कट, राणा, गोदारा, दीक्षित, मीठे, चट्ठे, खट्टे, जंघारे, भगौर, लोहचब, ठाकुर, आन्तल, मलिक, गठवाले, जटराण2
भाषा 
भाषा भी भेद करने में बड़ा कारण है। जैसे प्राचीन काकुस्थ वंश, दक्षिणी तेलगु में काक, काकतीय, पंजाब कश्मीर में कक्क, कक्कुर, यू. पी. में काकराणा। गान्धार से गन्धीर, गण्डीर, गण्डीला, गण्डासिमा। गिल से गुल, गाला, गोलिया, गालारान। गहलोत से गहलावत, गुहिलोत, गुहिलावत, गहलौट। चापोत्कट से चापू, चाबुक, चावड़ा।

इस तरह से न केवल भारत में ही, अपितु विश्व में वंशों के आधार पर ही आर्यों का तथा जाटों का विस्तार हुआ3



1, 2, 3. क्षत्रिय जातियों का उत्थान, पतन एवं जाटों का उत्कर्ष पृ० 48-49 लेखक योगेन्द्रपाल शास्त्री), (जाट इतिहास उर्दू पृ० 27-28, लेखक ठा० संसारसिंह। क्षत्रियों का इतिहास प्रथम भाग पृ० 24-25 लेखक परमेश शर्मा तथा राजपालसिंह शास्त्री); एवं लेखक।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-67



प्रथम अध्याय समाप्त



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