Jat Prachin Shasak/Manda

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जाट प्राचीन शासक (1982)
लेखक - बी. एस. दहिया (आइ आर एस, रिटायर्ड)

विकिफाईअर : चौ. रेयांश सिंह


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मण्ड

उनका प्रथम ऐतिहासिक साम्राज्य

मंड वैसे तो अति प्राचीन कुल है। ई.पू. तीसरे सहस्राब्द में भी उनका बार-बार ज़िकर सुमेर/बेबीलोन इतिहास में आया है जहां उन्हें उम्मान-मण्ड कहा गया है। C.A.H के अनुसार, उनका एक शासक, 19वीं शती ई.पू. के पश्चिम एशियाई इतिहास में प्रबल भूमिका निबाह रहा था। अतः मण्ड लोग कम-से-कम 4000 वर्ष पुराने हैं।
आज भी भारत में प्राचीन मण्ड, जाटों के एक गोत्र के रूप में विद्यमान है। मण्ड ही वे लोग थे, जिन्होंने ईरान के पश्चिमी पठार में जाटों का सर्वप्रथम ऐतिहासिक साम्राज्य स्थापित किया था। पुराणों में भी उन के नामों का उल्लेख है। 'विष्णु पुराण' में इन का उल्लेख मण्डकों के रूप में किया गया है। मण्डक से यदि हम "क" प्रत्यय हटा दें, तो यह नाम पुरातन काल और वर्तमान में एक ही रूप में मिलेगा अर्थात मण्ड। 'अग्नि पुराण'1 में "माण्डव्य" नाम के एक देश का उल्लेख है। 'सांख्यान आरण्यक' भी इन लोगों का उल्लेख करता है और इसी तरह वराहमिहिर भी उन का उल्लेख करते हुये उन्हें भारत के उत्तर एवं उत्तर पश्चिम में आवासित कहता है। मादय इन का ईरानी नाम है।
ई.पू. आठवीं शताब्दी के अन्तिम चतुर्थाश में अज़रबेइजान (उरूमिया झील के दक्षिण में स्थित) क्षेत्र, सदा की तरह, विभिन्न जाट कबीलों का आवास स्थल था। इन में दो कबीलों के नाम इतिहास में आज तक सुरक्षित हैं और वे है मन्नई तथा मण्ड। इन दोनों कबीलों को आजकल भारत में मान तथा मण्ड कहा जाता है। 720 ई.पू. या इस के आसपास असीरिया के राजा सारगन द्वितीय ने इन पर आक्रमण किया था तथा असीरिया की सेना ने इन के सरदार दयौक्कू को अपना बंदी बना लिया था। दयौक्क मण्ड कबीले का सरदार था और सम्भवतः उस की प्राण रक्षा में प्रकृति ही उस की सहायक बनी क्योंकि असीरियाई प्रथा के ठीक विपरीत, उस को न केवल जीवनदान मिला अपितु उसे उस के परिवार के साथ हमथ भेज दिया गया। ऐसा लगता है कि आठवीं शताब्दी ई.पू. के अन्तिम दशक में मण्ड असीरिया के अधीन थे। इस सम्बन्ध में इस बात का भी उल्लेख मिलता है कि उन के 22 सरदारों ने सारगन द्वितीय के प्रति स्वामी भक्ति की शपथ ली थी। इन सभी कबीलों के प्रमुख सरदार का नाम हैरोडोट्स तथा अन्य यूनानी लेखकों द्वारा "Deokes" अर्थात देवक दिया गया है। देवक फ्रावर्ती का पुत्र था। "History of Persia"1a के अनुसार यह वही प्रमुख सरदार था जिसे असीरिया के लोग दयौक्कू

1. IHQ, IX, p. 476.
1a. by Prof. P. Sykes.

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के नाम से पुकारते थे। उस का शुद्ध नाम देवक हो सकता है क्योंकि यूनानी लोग अपने व्यक्तिगत नामों में स प्रत्यय का प्रयोग करते हैं। देवक ने ही 700 ई.पू. के लगभग मण्ड जाटों का प्रथम साम्राज्य स्थापित किया था। परवर्ती हखमनी साम्राज्य मण्ड साम्राज्य की ही एक शाखा थी क्योंकि खुश महान्‌ (Cyrus, the Great) मण्ड साम्राज्य के अन्तिम सम्राट इष्ट-वेगु की पुत्री मण्डानी का पुत्र था। महारानी का नाम अयनी (संस्कृत रूप आर्याणी) था। मण्डानी उस का व्यक्तिगत नाम नहीं था बल्कि मण्ड गोत्र की पुत्री होने के नाते वह मण्डानी कहलाई।
उन्नीसवीं शताब्दी तक इस महान्‌ साम्राज्य को मीड साम्राज्य कहा जाता रहा। यूनानी लेखकों और ईसाइयों के धर्म ग्रंथ "पुरानी बाइबल" में भी इस साम्राज्य को यही नाम दिया गया। मीडों के देश को मीडिया (Media) कहा गया जो पश्चिम में उन मण्डों का पड़ौसी देश था, जो महान्‌ साम्राज्य के संस्थापक रहे। मीडिया का भी अन्ततः मण्ड साम्राज्य में विलय हो गया। इतिहास की एक बड़ी गलती का सम्भवतः यही एक कारण रहा कि मण्डों एवं मीडों को एक दूसरे के साथ गुड़मुड़ कर दिया गया। मीड यूनानी जाति के व्यापारी थे और यह छोटी छोटी रियासतों में रहा करते थे। इन लोगों का कोई साम्राज्य नहीं रहा। पराक्रमी मण्डो के साथ एक दुर्बलता की मारी जाति मीड को मिला कर देखना इतिहास की एक दुर्भाग्यपूर्ण और भयंकरतम भूल थी। इतिहास की यह भूल इतनी स्थाई रही कि इस के आधार पर अंग्रेज़ी की एक लोकोक्ति प्रसिद्ध हो गई कि अमुक बात इतनी अपरिवर्तनशील है, जितने मीड एवं ईरानियों के नियम। यह भूल पकड़ी कब गई? इस का पता तब लगा, जब नबोनिदस तथा खुश महान्‌ के स्मारकों की खुदाई हुई और यह तथ्य सामने आया कि यह सारी गलती एक भाषा शास्त्री की गलती थी। इस के बाद ही पता चला कि इस साम्राज्य व यहां के लोगों का नाम मण्ड था, मीड नहीं। प्रो. साईस की प्रसिद्ध कृति Ancient-Empires of the East में इस सम्बन्ध में यह शब्द कहे गये हैं। दारा हस्तास्प (Darius Hustaspes) की दो पीढ़ियों बाद इस वंश का उत्तराधिकारी खुश महान्‌, वर्तमान साम्राज्य का संस्थापक हुआ तब मण्डोंमीडों को एक दूसरे के समान रूप मान लिया गया। अष्टक या अष्टवेगु /इष्टवेगु जो खुश का अधिपति था, उसे मीड मान लिया गया और अकबटाना को मीडिया साम्राज्य की राजधानी कह दिया गया। यह भ्रान्ति हमारे अपने युग तक बनी रही। इस परम्परागत, कहानी पर संदेह करने का भी कोई आधार नहीं था। न तो यूनानरोम के लेखकों द्वारा लिखित पृष्ठों में न ही पुरानी बाइबल में और न ही दारा महान्‌ के बेहिस्तुन अभिलेखों में कोई ऐसी बात थी, जिस से किसी तरह का संशय उत्पन्न होता। जब तक नाबोनीदस और खुश महान्‌ के स्मारकों का पता नहीं चला यह भ्रान्ति बनी रही। उन स्मारकों का पता चलते ही अन्ततः सत्य उद्घाटित हुआ और यह तथ्य सामने आया कि जिस इतिहास


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पर हम चिरकाल से विश्वास करते आ रहे थे उस का आधार भाषा विज्ञान की एक गलती पर टिका था। जब इस गलती का पता चल गया तब इस को सुधारने का प्रयत्न शुरू हुआ। Historians History of the World के अनुसार असीरियाईरान स्मारकों से प्राप्त सामग्री के अर्थ स्पष्ट हो जाने के बाद जो नई जानकारी प्राप्त हुई है, वह इतनी चौंकाने वाली तथा क्रान्तिकारी परिवर्तन लाने वाली है, जो ऐतिहासिक पक्ष अब सामने आया है वह समूचे रूप में इतना भिन्न है कि "मीडिया साम्राज्य" का शब्द इतिहासकारों की शब्दावली से सदा सदा के लिये लुप्त हो जायेगा। और प्रो.साइस ने तो अपनी नवीनतम कृति में वास्तव में इसे त्याग ही दिया है।2
Deokes (जिसे अब हम देवक के रूप में ही लिखेंगे) इस साम्राज्य का संस्थापक था और वह अपने साथी ग्रामीणों में न्यायप्रियता के लिये विशेष रूप से इतना लोकप्रिय था कि ये लोग उस का निर्णय सुनने के लिये चल कर आते थे। जब इस तरह निःशुल्क न्याय करने का नाम सामान्य सीमा पार कर गया तो देवक ने इस आधार पर झगड़ों का निपटारा करने से इन्कार कर दिया कि उस के अपने भी कुछ निजी मामले हैं, जिन की ओर उसे ध्यान देना होता है। इस के बाद एक चुनाव हुआ और देवक को विधिवत रूप में राजा चुन लिया गया। देवक एक उत्कृष्ट मनोवैज्ञानिक, घटनाओं एवं व्यक्तियों का पारखी होने के साथ एक कुशल प्रशासक भी था। देवक ने शीघ्र ही एक शक्तिशाली सेना का गठन कर लिया। जब उस का देश सुरक्षित हो गया तो उस ने एक राजधानी निर्मित करने का निश्चय किया। इसके लिये अल्वंद पर्वत की भव्य ग्रेनाइट शृंखला को चुना गया और समुद्र तल से 6000 फुट की ऊंचाई पर स्थित अकबताना राजधानी का निर्माण किया गया। अकबताना का वर्तमान स्थल आधुनिक हमदान का पूर्वी भाग है। इस नगर का निर्माण एक सुनिश्चित योजना के अन्तर्गत हुआ। इस नगर में सात दीवारें थीं जो एक दूसरे के साथ सकेन्द्रित थीं और वे इस तरह से निर्मित की गई थीं कि अपने परकोटे की ऊंचाईयों के बल पर एक दूसरे के ऊपर उठती चली गई थी। शाही महल तथा कोषागार सातवीं दीवार के अन्दर स्थित थे जिस के परकोटे पर सुनहरी रंग किया हुआ था। अन्य छह दीवारें विविध रंगों से चित्रित थीं। इस तैयारी के बाद देवक ने अपने साम्राज्य का विस्तार करना शुरू कर दिया। असीरिया के लोगों ने स्वप्न में भी यह बात नहीं सोची थी कि यह पहाड़ी चरवाहा इतने कम समय में निनेवेह को तबाह कर देगा और विश्व के राष्ट्रों में से असीरिया का नाम-ओ-निशान तक मिटा के रख देगा। आसपास के क्षेत्रों का मण्ड साम्राज्य में विलय कर दिया गया। देवक 53 वर्षों तक अपने साम्राज्य को संगठित करता रहा और फिर उस का बेटा फ्रावर्ती 655 ई.पू. में उस का उत्तराधिकारी बना। सब से पहले ईरान को अधीनस्थ किया गया। अपनी सफलताओं से आशा से अधिक आत्म विश्वास अर्जित करते हुये मण्डों ने असीरिया पर आक्रमण

2. Vol. II, p. 73.

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कर दिया किन्तु मण्ड हार गये और फ्रावर्ती इस युद्ध में मारा गया। उस का उत्तराधिकारी हूक्षात्र (हूक्षात्र संस्कृत का सुक्षात्र हो सकता है) । हूक्षात्र की गणना विश्व के इतिहास मंच पर समय समय पर दिखाई देने वाले उन महान नायकों में होती है जो युद्ध में साधारण नेतृत्व का और शान्ति में एक कुशल प्रशासक होने का परिचय देते हैं। हूक्षात्र बचपन से ही कुशल घुड़सवारी का अभ्यस्त था और घोड़े की पीठ पर सवार वह एक अचूक निषानेबाज भी था। उस ने असीरिया की पद्धति पर अपनी सेना को पुनर्गठित किया। उस ने अपनी अश्वारोही सेना के लिये धनुषों का प्रयोग अनिवार्य रखा। इस तरह अपनी सेना का आधुनिकीकरण करने के बाद असीरिया से प्रतिशोध लेने के लिये उस ने असीरिया पर आक्रमण कर दिया। निनेवेह का घेरा डाला गया और आसपास के क्षेत्रों में बुरी तरह तबाही मचाई गई। हूक्षात्र की विजय इतनी पूर्ण थी और असीरिया की पराजय इतनी भंयकर थीं कि पैगम्बर नहुम ने अपनी पुस्तक में लिखा, "उन के कोड़ों की आवाज़ें, पहियों की खड़खड़ाहट का शोर, नाचते अश्वों की हूँकारें और रथों की गड़गड़ाहट (सुनी) अश्वारोही ने दोनों हाथों में चमकती तलवार और जगमगाता भाला लहराये और लाशों के अम्बार लग गये, शवों के ढेर बिखरे पड़े थे, उन के शवों का कहीं अन्त ही दिखाई नहीं दे रहा था। वे लाशों से ठोकर खाते हुये निकल रहे थे।"3
असुरबेनीपाल की मृत्यु 626 ई.पू. में हुई तथा उस के उत्तराधिकारी सिंहासन के लिये लड़ने झगड़ने लगे। ऐसे अवसर को गंवाया नहीं जा सकता था, अतः निनेवेह पर दूसरा आक्रमण शुरू हुआ। असीरिया के सम्राट ने अपने ही महल में आग लगा ली और वह परिवार सहित जल मरा। पैगम्बर नहुम के शब्दों में, "नदी के पट खुलेंगे और राज महल डूब जायेगा।"4 इस तरह 606 ई.पू. में निनेवेह का पतन हो गया और इस का विनाश इतना भंयकर था कि असीरिया का नाम तक भूल गया तथा उन के साम्राज्य का इतिहास एक कहानी मात्र बन कर रह गया। विवाह बन्धन के बल परबाबल (Babylonia) को भी साथ मिला लिया गया, हूक्षात्र की एक बेटी नेबु-चद-नेज्जर की रानी बनी। अर्मीनिया और कप्पडोसिया को भी मण्ड साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया गया। उस समय पश्चिम में लीडिया एक शक्तिशाली राष्ट्र के रूप में उभर रहा था और यह अपरिहार्य ही था कि इन दोनों शक्तियों में एक दिन टकराव होगा ही। इस तरह दोनों के बीच युद्ध आरम्भ हो गया लेकिन 585 ई.पू. में 6 वर्षों तक जारी रहने के बाद। सूर्य ग्रहण के दिन यह युद्ध बन्द हुआ। लीडिया के सम्राट की एक पुत्री का विवाह मण्ड के युवराज के साथ कर दिया गया और उररतु राज्य को भी मण्ड राज्य में सम्मिलित कर लिया गया। अगले वर्ष 584 ई.पू. में इस महान सम्राट की मृत्यु हो गई। इस प्रकार उस ने मण्डों के एक पराजित राष्ट्र को उस समय का सर्वाधिक शक्तिशाली राष्ट्र बना दिया। उचित रूप में कहा गया है कि जब उस ने शासन शुरू किया तो मध्य पूर्व सामी

3. Nahum, III, 2 and 3.
4. ibid.

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(Semitic) था और उस के शासन के समाप्त होने तक यह पूर्ण रूप से आर्य बन चुका था। मण्ड इतिहास के इस महत्वपूर्ण चरण में इष्टवेगु उस का उत्तराधिकारी बना। यूनानी इतिहासकार इष्टवेगु को Astyages के रूप में लिखते हैं। इष्टवेगु एक योग्य पिता का अयोग्य पुत्र था। उस ने मण्डों की मूल नीति अर्थात्‌ सदा स्वस्थ एवं युद्ध के लिये तत्पर रहना, त्याग दी। हर प्रकार के ऐश्वर्यपूर्ण समारोह दरबार की दिनचर्या बन गये। दरबारियों के लिये आदेश दिये गये कि वे लाल व बैंगनी रंग के खुले परिधान (लबादे) पहने। कालरों के साथ सोने की जंजीरें जोड़ दी गईं। मदिरा पान के लिये स्वर्ण निर्मित प्यालों का प्रयोग होने लगा। इस के परिणामस्वरूप सम्राट अकर्मण्य हो गया। इष्टवेगु अंध विश्वासी भी था। उस का कोई पुत्र नहीं था। उस की एक पुत्री मण्डानी थी जिस का नाम उस के गोत्र पर रखा गया था। उस का विवाह ईलम की एक छोटी सी रियासत के राज कुमार के साथ कर दिया गया। यह विवाह इसलिये किया गया क्योंकि मागी ज्योतिषियों ने यह भविष्यवाणी की थी कि मण्डानी की सन्तान एशिया और यूरोप पर राज्य करेगी। सम्राट ने स्वप्न में यह भी देखा कि मण्डानी से एक बेल उत्पन्न हुई, जिस ने समस्त एशिया को आच्छादित कर लिया। इष्टवेगु इसी भय से अपनी पुत्री का विवाह अपने राज्य के किसी कुलीन व्यक्ति से नहीं करना चाहता था। इस प्रकार वह विधि का विधान टालना चाहता था। परन्तु जैसा कि प्रायः होता है ऐसा संभव नहीं हुआ। मण्डानी की पहली सन्तान खुश के रूप में उत्पन्न हुई जिस ने अपने नाना को कैद कर स्वयं सत्ता संभाल ली और सम्राट बन गया। इस काम में उस ने जनरल हरपग से सहायता प्राप्त की। धूर्त राजा इष्टवेगू ने हरपग के पुत्र को ही पका कर एक रात्रि भोज में परोस दिया था। कलासकीय लेखकों द्वारा सुरक्षित गाथाओं के अनुसार अकबटाना के पतन (550 ई.पू.) से पूर्व तीन लड़ाइयां लड़ी गई थीं। सायरस अथवा खुश स्वयं ईरान का सम्राट था और मण्ड का साम्राज्य उसे विरासत में मिला था, जिसे उस ने और भी विस्तृत किया। लेकिन इस का अर्थ यह नहीं है कि हाथ से छीने साम्राज्य को पुनः प्राप्त करने के प्रयास नहीं किये गये। यह जानकारी भी हमें मिलती है कि सायरस (खुश महान) ने बलख और कैस्पियन सागर के पास में जाटों के विरुद्ध युद्ध किये। दोनों स्थानों पर वह पराजित रहा। बलख कंगों के अधीन रहा और दहियों द्वारा शासित मस्सा जटे का छोटा सा राज्य स्वाधीन एवं स्वतन्त्र ही रहा। मस्सा जटे का राजा अर्मोघ (Armogha) था और उस की रानी को केवल तोमरिस ही कहा जाता था, तोमरिस एक सिथ शब्द तोमुरी से बना है और तोमुरी का अर्थ एक रानी के रूप में लिया जाता है। राजा अर्मोघ का निधन हो गया और इस के बाद मस्सा जटों के शासन की बागडोर स्वयं रानी तोमरिस ने अपने हाथ में ले लीं। तब खुश महान (Cyrus) ने उसे विवाह का निमन्त्रण भेजा। यह अच्छी तरह समझते हुये कि प्रस्ताव उस के जाट राज्य को हड़पने का मात्र बहाना है उस ने इसे घृणित समझते हुये अस्वीकार कर दिया। बेरोसस के अनुसार खुश दहियों के


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साथ एक युद्ध में रत था और 529 ई.पू. में दहियों द्वारा वह मार दिया गया था। (इस खण्ड के अन्त में इस से सम्बन्धित एक टिप्पणी भी देखिए) यहां इस युद्ध से सम्बन्धित कुछ विवरण देना रुचिकर होगा।
जब खुश अरक्ष नदी तक बढ़ आया तो उस ने इसे पार करने के लिये नावों का एक पुल भी तैयार कर लिया तो तोमरिस ने खुश को एक संदेश भेजा :—
"पर्शुओं एवं मण्डों के हे राजन्‌। जो कुछ होगा उस के विषय में आप सम्भवतः निश्चित रूप से कुछ नहीं जानते, अतः हम आप को परामर्श देते हैं कि आप अपने वर्तमान उद्देश्य को पूरा करने का विचार त्याग दें। आप अपने ही राज्य की सीमाओं में सन्तुष्ट रहें और हमें अपने ही हाल पर छोड़ दे, क्योंकि आप यह जानते हैं कि हम अपनी प्रजा पर कैसा शासन करते हैं। यह भी हो सकता है कि आप इस कल्याणकारी परामर्श की ओर ध्यान न दें क्योंकि आप को शांति के अतिरिक्‍त अन्य हर बात प्रिय है। यदि आप वास्तव में ही मस्साजट से भिड़ना चाहते हैं तो आप यह पुल बनाने का श्रम साध्य कार्य छोड़ दे। हम तीन दिन के कूच के साथ अपने क्षेत्र के अन्दर चले जायेंगे और आप अपनी सुविधानुसार नदी पार कर लीजियेगा और यदि आप अपने ही क्षेत्र में हमें देखना चाहते हैं तो फिर ऐसा ही हमारे लिए करें।"5
इस संदेश को पा कर खुश ने इस पर अपने शिविर में विचार किया तथा यह निर्णय लिया गया कि पहला विकल्प ही चुना जाये। यह निर्णय क्रीसस (Craesus) के परामर्श पर लिया गया। क्रीसस ने उस से कहा, "इस संसार में भाग्य सदा किसी का साथ नहीं देता।" यदि खुश शत्रु को अपने देश में आने का अवसर प्रदान करता है तथा भगवान ऐसा न करें, यदि पराजय का मुंह देखना पड़े तो उसे अपना सर्वस्व खो देना पड़ेगा क्योंकि विजयी मस्साजट उस के राज्य में बढ़ आयेंगे।
खुश और उस के परामर्शदाता यह जानते थे कि अच्छा भोजन और शराब जाटों की मौज और मस्ती के साधन हैं। इसलिये प्रचुर मात्रा में इन दोनों वस्तुओं के साथ व विलास का कुछ अन्य सामान भी वहां रख दिया गया और रक्षा के लिये ईरानी सेना की एक नाम मात्र टुकड़ी भी वहां तैनात कर दी गई, यह जानते हुये भी कि वहां इस सेना के टुकड़े टुकड़े हो जायेंगे। खुश का उद्देश्य यह था कि जब इस तैनात सेना की पराजय हो जायेगी तो जाट भोजन व मदिरा पर टूट पड़ेंगे तब खुश अपनी मुख्य सेना के साथ उन पर टूट पड़ेगा। यह योजना सफल हुई। नशे में धुत जाट सेना के टुकड़े टुकड़े कर दिये गये। मस्साजटे के युवराज को बंदी बना लिया गया तथा उस ने अपमान से बचने के लिये आत्महत्या कर ली। जब रानी तोमरिस को इस क्षति का पता चला तो उस ने पुनः खुश को यह संदेश भेजा :—

5. P. Syke, op. cit.

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"हे खुश तुम्हारी रक्‍त पिपासा अदम्य है। वह कभी शान्त नहीं हो सकती। अपनी हाल की सफलता के मद में मत झूमों। जब मदिरा से तुम उन्मत हो जाते हो तो कौन सी मूर्खताएं तुम स्वयं नहीं करते ? जब यह मदिरा तुम्हारे शरीर में प्रवेश करती है तो तुम्हारी भाषा और भी अधिक अभद्र एवं अश्लील हो जाती है। तुम ने इस हथकंडे से मेरे पुत्र पर विजय प्राप्त की है न कि अपनी बुद्धिमत्ता और शौर्य के बल से। अब मैं दूसरी बार तुम्हें अवसर एवं परामर्श प्रदान कर रही हूँ। इस पर अनुकरण करना निश्चित रूप से तुम्हारे अपने हित में होगा। मेरे पुत्र को स्वतन्त्र कर दो और हमारे उस अपमान से को सन्तुष्ट करो, जो तुम ने मस्साजटे के तीसरे भाग पर अधिकार कर किया है। अब तुम यहां से बिना कोई क्षति उठाये चले जाओ। यदि तुम ऐसा नहीं करोगे तो मैं मस्सा जाटों के महान देवता सूर्य की सौगन्ध खा कर कह रही हैं कि तुम्हारी अदम्य रक्‍त पिपासा को मैं भरपूर रक्‍त पिला कर शान्त करूंगी।"
खुश पर इस संदेश का कोई प्रभाव नहीं पड़ा। रानी ने अपनी सेनाओं को इकट्ठा किया तथा जो युद्ध हुआ वह बहुत ही भीषण था। दौनों और जाट ही थे तथा वे अन्तिम दम तक लड़े। हेरोडोटस के अनुसार पुरातन काल के सब युद्धों से यह युद्ध अधिक रक्तमय था। जाटों को पूर्ण तथा अन्तिम विजय प्राप्त हुई। खुश स्वयं मृत्यु को प्राप्त हुआ। उस के शरीर की खोज की गई तथा युद्धभूमि से उसे प्राप्त किया गया। खुश का सिर उस के शरीर से काट कर पृथक्‌ किया गया तथा रक्त से भरे एक बर्तन में उसे रख दिया गया। फिर रानी ने कहा, "मेरी शपथ के अनुसार अब तुम अपनी रक्त पिपासा शान्त कर लो।"
इस प्रकार हम पाते हैं कि उत्तर तथा पूर्व में ऐसे कितने ही जाट राज्य थे, जो ईरानी साम्राज्य जो मण्ड जाट साम्राज्य की एक शाखा थे के प्रभाव से मुक्त थे। खुश महान की पराजय तथा उस की मृत्यु ईरानी साम्राज्य के अधीन जाटों के लिये यह संकेत था कि वे अकबटाना के राज्य सिंहासन पर अधिकार जमा लें। यह उन के नेता गौमत के अधीन पूरा किया गया। इसी समय दारा का आगमन हुआ तथा द्वितीय साम्राज्य केवल 6 मास तक स्थापित रहा क्योंकि गौमत अकबटाना के सोख्यावती महल में उन षड़यन्त्रकारियों द्वारा मारा गया जोकि दारा के वेतनभोगी थे। दारा ने अपने अभिलेख में लिखा है, "अहुरमाजद ने मुझे सम्राट बनाया। हमारे वंश ने साम्राज्य गंवा दिया था किन्तु मैंने पुनः इस को उसी स्थिति पर पहुंचाया। मगों द्वारा नष्ट किये पवित्र स्थानों की मैंने पुनः स्थापना की।"
ये मग जाट सम्राटों के मग पुरोहित थे जो उन के साथ ही इस युद्ध के कारण भारत आये। भारत में उन्हें मग कहा जाता था। यमुना के तट पर बसे तगे ब्राह्मण उन के ही वंशज हैं। वे मसौदी के तगज हैं।6

6. JBBRAS, 1914, p. 563.

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किन्तु ये प्रयत्न यहां पर ही समाप्त नहीं हो गये। 519 ई.पू. में फ्रावर्ती जो कि मग पुरोहितों के सूर्य देवता का एक मण्ड अनुयायी था, ने छिने हुये साम्राज्य की प्राप्ति के लिये युद्ध किया। विर्कों ने हिकार्निया में विद्रोह कर दिया। किन्तु दारा ने, जिसे उपयुक्त रूप से महान कहा जाता है, साम्राज्य की सीमावर्ती भूमि को छोड़ कर शेष सब को दबा दिया। कंग वक्षु दरिया के उत्तर में स्वतन्त्र थे तथा शक जाट जो कि डन्यूब नदी पर थे, स्वतन्त्र थे। वास्तव में दारा ने प्रत्येक प्रकार की भारी तैयारी के पश्चात तथा एक बड़ी विशाल सेना के साथ इन अजेय लोगों पर भी आक्रमण कर दिया। वह आर्मीनिया तथा उत्तर पश्चिम में दूर तक आगे बढ़ आया। सिथियों ने उन्हें आगे बढ़ने का लालच दिया तट उन्हें भीतरी प्रदेश तक ले गये। हताशा में दारा ने राजा को एक संदेश भेजा, "हे शक ! तुम मेरे भय से क्यों भागे जाते हो ? यदि तुम्हारे विचार में तुम मेरे समान हो तो रुक जाओ और मेरे साथ युद्ध करो। यदि तुम अन्यथा सोचते हो तब भी भागने की कोई आवश्यकता नहीं, तुम्हें भूमि तथा जल भेंट करना चाहिये तथा समर्पण की शर्तें बातचीत से निर्धारित की जा सकती हैं।"
सिथिया के राजा की ओर से जो उत्तर दारा को भेजा गया वह ठेठ जाट उत्तर था। जो कुछ उस ने कहा वह इस प्रकार था, "हे ईरानी ! मैं सूर्य देवता के अतिरिक्त और किसी से नहीं डरता ! मैं भागता नहीं तथा भूमि और जल मैं दूंगा नहीं। तथापि तुम्हें शीघ्र ही उपयुक्त उपहार मिलेंगे।"
संदेशवाहक के हाथ जो उपहार भेजे गये वे थे, "एक पक्षी, एक चूहा, एक मेंढ़क तथा पांच बाण।" दारा ने इन उपहारों का अर्थ संदेशवाहक से पूछा तथा संदेशवाहक ने उत्तर दिया, "यदि ईरानी इतने बुद्धिमान है तो वे अपने आप इस का अर्थ समझ जायेंगे।" दारा ने सोचा कि चूहे का अर्थ भूमि से है तथा मेंढ़क का अर्थ जल से है, इस प्रकार सिथियों ने भूमि तथा जल भेंट कर दिया है और अधीनता स्वीकार कर रहे हैं। किन्तु उस का श्वसुर जो कि एक मंजा हुआ सेनापति था उस ने इन शब्दों में दारा को वास्तविक अर्थ बताये, "हे ईरानियो ! यदि तुम पक्षियों में परिवर्तित हों कर आकाश में नहीं उड़ जाते अथवा मूषक बन पृथ्वी में गहरे बिल नहीं खोद लेते अथवा मेंढ़क बन कर पानी में गहरे गोता नहीं लगा जाते, तो ये हमारे बाण तुम्हारे दिलों को छेद देंगे तुम में से कोई भी जीवित वापस नहीं जा पायेगा।"
विवेक को वीरता से श्रेष्ठ समझते हुये दारा ने तुरन्त पीछे हटने का आदेश दिया तथा ईरान को वापस आ गया किन्तु उस की आधी सेना नष्ट हो चुकी थी। यह इन युद्धों के फलस्वरूप ही था कि जाटों का एक और प्रव्रजन हुआ। वे भारत में मण्ड साम्राज्य से तथा मध्य एशिया के अन्य भागों से आये। इस कारण से पाणिनी ने पांचवी शताब्दी ई.पू. में पंजाब के मध्य में उन के कई नगरों का वर्णन किया है। किन्तु स्मृतियां बड़ी कठिनता से साथ छोड़ती हैं। आज भी हमारे गावों के नाम वही हैं जिस नाम के नगर हम


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ने ईरान में गंवायें। एलम, बटाना, सुसाना, बागा खरखोदा। (मण्डों का कुरुकद) आदि अब भी उत्तरी भारत में जाटों के गांवों के नाम हैं। यह वही जाट हैं जिन के विषय में बुद्ध प्रकाश कहता हैं, "विदेशागत तथा देहाती लोग जो भारत में खुश के वंशजों के समय आये6a तथा जिन्हें जोन प्रजी लुस्की (Jean Przy-luski) ईरान तथा मध्य एशिया से आये हुये बहलीकों (Bahlikas) के नाम से पुकारता हैं।7"
एक बड़े ही रोचकतापूर्ण लेख में एच. सी. सेठ (H.C.Seth) ने कई ऋग्वेद के मन्त्रों की इस काल के इतिहास से तुलना की है जो हेरोडोटस तथा अन्य यूनानी लेखकों द्वारा वर्णित किया गया है। उस ने दीनो (Deno) (जिस ने चौथी शताब्दी ई.पू. में लिखा) को उद्धृत करते हुये कहा है कि इष्टवेगु के मग पुरोहित का नाम अंगरिस (संस्कृत में अंगीरस अग्नि पूजकों का एक परिवार) था यह अंगरिस ही था जिस ने खुश तथा इष्टवेगु के भविष्य की भविष्यवाणी की तथा इस के पश्चात खुश का स्वयं पुरोहित बन गया।8
इस के अतिरिक्त शायद यह इष्टवेगु था जिस ने अपने पिता हुवाक्षत्र के अधीन सेना का नेतृत्व किया तथा 606 ई.पू. निनेवेह को नष्ट कर दिया तथा यह लिडियों का राजा अलियेट्टी (Alyattes) था, जिस ने अपनी पुत्री आर्याणी (Aryenis) का विवाह इष्टवेगु से किया न कि इस के विपरीत निनेवेह की तुलना निन्यानवे (Ninyanve) से गई है। अर्थात शम्बर असुर का नगर, जिसे इष्टवेगु ने "इन्द्र" की सहायता से ध्वस्त किया।9
श्री सेठ ने व्यक्तिगत नामों की सादृश्यता निम्न प्रकार दिखाई हैं :—

मण्ड राजा

ईरानी राजा

सुश्रवा खुश
Cyrus हुस्रवा (बाद में कै खुसरो)
इष्टवेगु
Hystaspes विशतास्प


6a. SIH&C, p. 35.
7. JA, 1926, pp. 11-13.
8. ABORI, Vol. XXIII, p. 451.
9. Rig Veda, II, 19/6, VI, 47/2.

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लिडियन राजा

इतस
कुत्स
Alyattes
Croesus


श्री एच.सी.सेठ (H.C. Seth) ने जो विभिन्न स्रोतों से अन्योअन्य संदर्भ दिये हैं उन के द्वारा वह न्याय संगत प्रतीत होते हैं। यदि यह परिकल्पना सही है तो ऋग्वेद का काल, विशेष कर इस के कुछ स्रोतों का, 600 ई.पू. लगता है यदि इस में परवर्ती काल में कुछ जोड़ न दिया गया हो जैसा कि सम्भव है। किन्तु इतिहासकार, सेठ के विचारों की सत्यता पर संदेह करते हैं क्योंकि ऋग्वेद कम-से-कम 3000 वर्ष प्राचीन है। एक हाल ही के लेख The Antiquity of Magas in Ancient India में श्री वी.सी. श्रीवास्तव यह प्रमाणित करते है कि मग पुरोहित जोकि विदेशी थे, भारत में छटी/सातवीं शताब्दी ई.पू. में आये तथा अन्ततोगत्वा उन्हें भारत में ब्राह्मणों के रूप में स्वीकार कर लिया था। वे सूर्य देव के सर्वश्रेष्ठ पुरोहित थे।"10 वास्तव में स्थानीय भारतीय पुरोहित सूर्य की उपासना विधि के उपयुक्त न थे। पौराणिक कथाओं के अनुसार सूर्य उपासना श्री कृष्ण जी के पुत्र साम्बा से आरम्भ होती है जिसे पश्चिम के मग पुरोहितों द्वारा एक कठिन रोग से छुटकारा मिला था। वही प्रथम व्यक्ति था जिसने पश्चिमी भारत में एक सूर्य मंदिर की स्थापना की। 'भविष्य' तथा 'अग्नि पुराण' इन लोगों के विषय में अन्य विवरण देते हैं। इन लोगों पर तथा इन की शाखा हखमनी लोगों पर पूर्ण विचार विमर्श के लिये एस. चट्टोपाध्याय की श्रेष्ठ पुस्तक Тһе Achaemends in India तथा गोपीनाथ राओ की Element of Hindu Iconography का विशेष अध्ययन करना चाहिये।
परवर्ती काल में हम मण्डों को ईसा की छटी/सातवीं शताब्दियों में पंजाब तथा सिंध में आबाद पाते हैं। इब्न हौकल के अनुसार वे काफिर जो सिंध में आबाद हैं उन्हें बुद्ध तथा मण्ड के नाम से जाना जाता है। "मण्ड मिहरान (सिन्धु) दरिया के किनारे पर निवास करते हैं। मुलतान के क्षेत्र से ले कर समुन्द्र तक उनकी बड़ी जनसंख्या है।"11

टिप्पणी I

मस्साजटे लोगों के विशेष कबीले अथवा विशेष अंश जिन के विरुद्ध खुश महान्‌ लड़ता हुआ मारा गया था, के सही नाम को ले कर कहीं तनिक संदेह भी है। बेरोसस (Berossus) के अनुसार वह दहिया लोगों के विरुद्ध लड़ रहा था जबकि कुछ अन्य इतिहासकारों के अनुसार वह दर्बिस/दबीस (Derbices/Debices) कहे जाने वाले लोगों के विरुद्ध लड़ रहा था।12 हम दर्बिस अथवा दबीस को आज कल के जाट गोत्र डबास

10. Indian History Congress, Bhagalpur, 1968, p. 86.
11. Elliot & Dowson, op. cit, Vol. I, p. 38. See also CAH, Vol. IV.
12. See Persica of Otesias, Ed. Gilmore, pp. 133-35.

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(Dabas) के ही रूप में देखते हैं। भाषाई रूप में या अन्य किसी भी प्रकार दबीसों की समानता डबासों के साथ स्थापित करने में कहीं भी विरोधाभास नहीं है। यह समानता इस तथ्य से और भी सम्पुष्ट होती है कि आज भी डबासों को, दहिया गोत्र का ही एक भाग समझा जाता है। यह दोनों एक ही पूर्वज की सन्तानें मानी जाती हैं और यहां तक कि इन दोनों में एक कुल गोत्र के होने के कारण आपस में विवाह नहीं हो सकते। अतः हम इस परिणाम पर पहुंच सकते हैं कि खुश महान जिन लोगों के विरुद्ध लड़ रहा था उन्हें डबास अथवा दहिया कहा जा सकता है। इतिहासकारों के अनुसार गंधार देश से कुछ भारतीय सैनिक दहियों के पक्ष में लड़ रहे थे और वह वाण एक भारतीय सैनिक का ही था जो खुश महान के लिये जानलेवा सिद्ध हुआ। गंधार के ये सैनिक भी उसी मूल जाति के थे और वे एक ही उद्देश्य के लिये युद्ध कर रहे थे और वह था, "उन लोगों की पराजय, जो अवैध रूप से उन के साम्राज्य को हड़प चुके थे।"


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