Jat Prachin Shasak/Porus Aur Maurya

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जाट प्राचीन शासक (1982)
लेखक - बी. एस. दहिया (आइ आर एस, रिटायर्ड)

विकिफाईअर : चौ. रेयांश सिंह


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पोरस और मौर्य

सिकन्दर महान्‌ के प्रतापी प्रतिद्वंदी पोरस के बारे में हम जो कुछ भी जानते हैं, वह हमें यूनानी लेखकों के माध्यम से मिला है। इन यूनानी लेखकों की जानकारी का स्रोत वे वृतान्त रहे हैं, जो सिकन्दर के विजय अभियानों में उस के साथ रहने वाले लोगों द्वारा प्रस्तुत किये गये थे। अपने राष्ट्रीय नायक से सम्बन्धित उन के ये उल्लेख कुछ पक्षपातपूर्ण भी हो सकते हैं, जो क्षम्य समझे जाने चाहिये। इन उल्लेखों में जो भी सामग्री है, हम उसके अनुरूप के अनुसार उस की हर कोण से जांच परख कर प्रयोग में ला सकते हैं। भारतीय लेखक एवं कृतियां केवल पोरस के बारे में ही मौन नहीं हैं अपितु सिकन्दर भी उनकी दृष्टि में पूर्णतया नगण्य रहा। यहां तक कि चाणक्य जिस ने पंजाब में उथल-पुथल का वह नाटक स्वयं अपनी आंखों से देखा (नहीं वह तो इस नाटक में स्वयं एक सशक्त पात्र भी था) और जिसने अपने समय से सम्बन्धित हर उपलब्ध विषय पर कुछ न कुछ लिखा, वह भी सिकन्दर/पोरस के विषय मौन साधे रहे है। चाणक्य ने उन मौर्यों के मूल के बारे में भी कुछ नहीं लिखा, जिन को उसने (जैसा कि कहा जाता है) भारतीय साम्राज्य को एक थाली में रख कर प्रस्तुत कर दिया था। पुराण भी मौर्यवंश के विभिन्न शासकों के काल का उल्लेख करने के अतिरिक्‍त पोरस सिकन्दर के साथ उस के युद्ध और मौर्यों के उद्भव के बारे में कुछ नहीं कहते। मुद्राराक्षस का नाटककार विशाखदत्त उन्हें तिरस्कृत करता हुआ उनके लिये शूद्र, वृषल एवं कुलहीन शब्दों का प्रयोग करता है। युग पुराण में तो उन्हें नितान्त अधर्मी कहा गया है विष्णु पुराण उनका उल्लेख इन शब्दों में करता है, "नंद वंश के पतन के बाद इस पृथ्वी के अधिपति होंगे।" अशोक के राज्यकाल में विश्व की महानतम् धार्मिक क्रान्ति हुई उस के विषय में कुछ भी उपलब्ध न होने के संदर्भ में आर.सी. दत्त लिखते हैं, "ब्राह्मण वृत्ति के कथा वाचकों के लिये अशोक के महान् कार्यों की अपेक्षा षड़यन्त्रकारी चाणक्य के कार्य अधिक महत्वपूर्ण रहे और वह महान्‌ अशोक उन के लिये अधिक महत्वपूर्ण नहीं है जिसने भारत का नाम तथा धर्म अंत्योक (Antioch) तथा मकदूनिया से लेकर कुमारी अन्तरीप (Cap Comorin) और श्रीलंका तक फैलाया।"1
जैन परम्पराएं भी न तो पोरस का उल्लेख करती हैं और न ही सिकन्दर का और मौर्यों के विषय में वे कहती हैं कि वे मोर (पक्षी) पालने वाले थे। मोर पक्षी के साथ

1. R.C. Dutt, A History of Civilization in Ancient India, Vol. II, pp. 36-37.

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मौर्यों का सम्बन्ध काफी प्रचलित है। यहां तक कि बौद्ध आलेखों में इनके बारे में यह कहा गया कि जब शकों की एक शाखा मौर्यों को मगध से खदेड़ दिया गया तो वे एक ऐसे पहाड़ी क्षेत्र में चले गए जहां मोर बहुसंख्या में पाए जाते थे। वहां उन्होंने एक शहर का निर्माण किया, शहर के महलों के निर्माण में जिन ईंटों का प्रयोग किया गया वे मोर की गर्दन का रंग लिये थीं, इसलिये इन लोगों को मौर्य कहा गया। नन्दगढ़ स्तम्भ तथा सांची के स्तूपों आदि पर भी मोरों के चित्र अंकित हैं। ऐसा भी कहा जाता है कि पाटलिपुत्र स्थित मौर्य प्रासाद के उपवनों में मोर रखे जाते थे। इसलिये फाउचर (Foucher) और मार्शल (Marshall) तथा ग्रुन वेडल (Grunwedel) इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि मोर पक्षी मौर्यों के राजवंश का प्रतीक चिन्ह था। महाभारत (जिस का गुप्त काल में पुनर्लेखन हुआ) {में} मौर्य शब्द को संस्कृत रूप देकर मयूरक कर दिया गया जिस का अर्थ था मोरों का, मोर वंश
मोर पक्षी से सम्बन्धित ये सभी धारणाएं केवल कपोल कल्पित गाथाएं हैं और उन में रत्ती भर भी सच्चाई नहीं। मौर्यों का मोर शब्द के साथ किसी प्रकार का कोई सम्बन्ध नहीं है और न ही मोर उनका मन भावन पक्षी था और न ही उनके कुल का प्रतीक चिन्ह और न ही किसी पक्षी से मौर्य नाम का कोई लेन-देन था।
अशोक के राज्यादेशों के एक स्तम्भ लेख (Pillar Edict V) पर उन पशुओं व पक्षियों की एक सूची दी गई है जिन्हें मारना वर्जित था और आश्चर्य की बात है कि मोर का नाम इस सूची में नहीं है। लगता है कि मौर्य, मोरों के रक्षक न होकर उनके भक्षक थे।2 अन्यथा यह कैसे हो सकता था कि मोर सिधाने वाले का पुत्र पाटलिपुत्र से हज़ारों हज़ारों मीलों की दूरी पर स्थित राज-कुमारों की शिक्षा के लिये सुरक्षित तक्षशिला जैसे विश्वविद्यालय में शिक्षा प्राप्त कर रहा था ?
ये कल्पित कथाएं इसलिए प्रचलित हो गई क्योंकि इन लोगों का गोत्र नाम मौर था और संयोग से भारतीय भाषाओं में मोर एक पक्षी का नाम है। अतः जैन, बौद्ध व अन्य लेखकों द्वारा मौर्य और मोर के बीच इस तरह का निरर्थक तादात्म्य स्थापित कर दिया गया। यहां 'मौर' नाम भारतीय है ही नहीं। यह नाम मध्य एशिया का है जिस का अर्थ है शीर्ष अथवा मुकुट। और जाटों के हर कबीले के नाम का अर्थ भी आप को यही मिलेगा। आज भी यह मौर शब्द "मोड" के रूप में प्रयुक्त होता है जिस का अर्थ मुकुट है जो एक दूल्हा विवाह के अवसर पर पहनता है। 'र' शब्द मध्य एशिया के लोगों द्वारा ड़ के रूप में, दबाव देकर बोला जाता है। इस के बाद फिर इस शब्द को गलत रूप में संस्कृत के शब्द "मोद" के साथ जोड़ दिया गया जिस का अर्थ प्रसन्नता, आमोद व प्रमोद {है}। {यहां यह} स्पष्ट होना चाहिये कि मोर/मोड का "मोद" (संस्कृत शब्द) से कोई सम्बन्ध नहीं है।

2. SIH&C, p. 73.

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ब्राह्मणीय लेखक जानते थे कि यह शब्द मोर है, वे इन लोगों को शूद्रों के रूप में घोषित करना चाहते थे। इसलिये इन्होंने एक और ही कहानी गढ़ ली कि चन्द्रगुप्त मौर्य, मुरा नाम की एक स्त्री से पैदा हुआ जो एक शूद्र महिला थी, अतः मुरा का पुत्र होने के कारण उसे मौर्य कहा जाने लगा। ऐसा करते हुए उन्होंने इस तथ्य को समझने का कष्ट ही नहीं किया कि स्त्रीलिंग मुरा जिस के अन्त में दीर्घ आ प्रयुक्त है, से मौर्य शब्द की व्युत्पति असम्भव है, इसकी व्युत्पति केवल मूर से ही सम्भव हो सकती है या मोर से। मौर में "ओ" औ की ध्वनि है तथा ऊ अथवा उ का ध्वनि प्रभाव नहीं देता। इस को अंग्रेज़ी शब्द Poll (पोल) की भान्ति उच्चारित किया जाता है न कि अंग्रेज़ी शब्द पूल (Pool) की तरह। अतः मौर्यों को मोर सिधाने वालों के साथ सम्बन्धित करना मात्र कपोल कल्पनाएं हैं।3 मौर्यों के कुछ स्मारकों पर मोर पक्षी का अंकन केवल एक पक्षी की सुन्दरता के प्रति मानवीय प्रशंसा भाव की ही अभिव्यक्ति है। सिकन्दर भी इन की सुन्दरता से इतना मोहित था कि उस ने घोषणा कर रखी थी कि जो भी व्यक्ति मोर मारने के दोषी पाए जाएंगे उन्हें कठोरतम दण्ड दिया जाएगा।4
अन्य प्रतिपादित सिद्धान्तों के अनुसार मौर्यों का सम्बन्ध नन्दवंश के साथ जोड़ा गया है और मुरा को नन्द वंश के किसी राजा की पत्नी माना गया है और वह प्रथम मौर्य सम्राट की मां अथवा दादी मानी गई है। 'मुद्रा राक्षस' और 'बृहत कथा' भी इसी प्रकार का उल्लेख करती है। नन्द वंश के साथ यह सम्बन्ध स्थापन पूर्ण रूप से निराधार है। बुद्ध प्रकाश इन कथाओं को भ्रामक मानते हैं। यह बात तो सर्वविदित है कि मौर्य लोगों का समाज पितृ-धान था जो अपना नाम अपने पिता से प्राप्त करते थे, न कि माता की ओर से। बौद्ध लेखक भी मौर्यों को मातृ नामक नहीं मानते। वह निरपवाद रूप से उन्हें एक गोत्र के रूप में प्रस्तुत करते हैं जिस के सदस्य बुद्ध के समय से क्षत्रिय थे।5 उन का क्षत्रिय पद अनेक मध्यकालीन अभिलेखों से भी पुष्ट होता है।6 यूनानी आलेख भी चन्द्र गुप्त नन्द वंश में कोई रक्त सम्बन्ध स्थापित नहीं करते। जस्टिन (प्रख्यात इतिहासकार) चन्द्रगुप्त का जन्म एक निर्धन परिवार में मानता है।7 इस से भी यह प्रमाणित होता है कि चन्द्रगुप्त का जन्म नन्दों के राजश्री परिवार में नहीं हुआ था और वह उस राजवंश का वंशज नहीं था जिस को उसने सत्ताच्युत कर दिया था।8
बौद्ध आलेखों पर अब तनिक ध्यान दें। इन आलेखों के अनुसार हम देख चुके हैं कि मौर्यों को शकों अथवा शाक्यों की एक शाखा माना गया है, जो मगध सम्राट के दबाव

3. ibid., p. 77.
4. Arians Indica, XV, p. 218.
5. AN&M, p. 141.
6. EI, Vol. II, p. 222.
7. McCrindle, Invasion, p. 327.
8. op. cit.

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के अन्तर्गत मगध छोड़ने पर विवश हुए और उन्हें उड्डयन में रहना पड़ा। प्रथम मौर्य ने नाग कन्या से विवाह किया और उड्डयन का राज सिंहासन छीन लिया। उसके बाद इस राज्य का राजा उत्तलोसिन (Utlosina) अथवा उत्तर सेन बना। जब वह शिकार के लिये लिये गया हुआ था तो बुद्ध स्वयं उस के घर आए और उन्होंने उसकी मां से कहा कि उस का पुत्र बुद्ध के परिवार से है अतः उसे कुशीनगर से बुद्ध की भस्म (राख) का भाग प्राप्त करना चाहिये। तब उत्तर सेन ने बुद्ध की भस्म पर इस आधार पर अपना दावा जताया कि वह उसी गोत्र का क्षत्रिय है जिस गोत्र से बुद्ध सम्बन्धित थे। अन्य देशों के राजाओं ने उसके साथ घृणा पूर्ण एवं अपमानजनक व्यवहार किया, किन्तु बुद्ध ने पुनः हस्तक्षेप किया और उन्होंने इन शत्रु राजाओं को अपनी इच्छा से अवगत कराया और इस तरह उन्होंने उत्तर सेन को तथागत बुद्ध की भस्म ले जाने की अनुमति प्रदान की।9
यदि इस कथा प्रसंग की आलोचनात्मक विवेचना की जाए तो यह भी कपोल कल्पित कथा ही सिद्ध होगी और यह कथा उस समय गढ़ी गई जब अशोक महान्‌, जौ बौद्ध धर्म का सबसे बड़ा संरक्षक था, के वंश का सम्बन्ध बुद्ध के कुल वंश से स्थापित करने का प्रयास किया गया। यह बात ध्यान में रखी जानी चाहिये कि यह बुद्ध भगवान स्वयं ही थे, जिन्होंने उड्डयन के शासक को उसके गोत्र के विषय में बताया। क्या वह इस बात से अनभिज्ञ था ? दूसरी बात यह कि उपरोक्त कहानी का पौराणिक स्वरूप उस समय और भी अधिक स्पष्ट हो उठता है जबकि भस्म आबंटन का प्रश्न पैदा होता है और तथागत बुद्ध स्वयं इसमें सशरीर हस्तक्षेप करते हैं। अब यह कैसे संभव हो सकता है कि बुद्ध जो उस समय अपने जीवन की इहलीला समाप्त कर चुके थे, एक बार नहीं, अपितु दो बार स्वयं हस्तक्षेप के लिये आएं ? यह बात तो केवल बाल बुद्धि द्वारा विश्वास किसे जाने योग्य है। मौर्यों का सम्बन्ध न तो शकों अथवा शाक्यों से था और न ही मगध से। वे तो उत्तर पश्चिम का एक कुल परिवार था जिस की पृष्ठभूमि की खोज पश्चिमी पंजाब, गंधार और कश्मीर में की जानी चाहिये। ये वही क्षेत्र हैं जिन में चन्द्रगुप्त बाल्यकाल में पाया गया था। वह विश्व विद्यालय तक्षशिला था, जहां उसने शिक्षा-दीक्षा ग्रहण की। यह भारत का वही भूं-क्षेत्र था, जहां वह सिकन्दर को देख सका और यहीं पर से उसने चाणक्य के परामर्श और प्रेरणा से यूनानी सेनाओं को खदेड़ा और अपनी सत्ता को संगठित किया। उसने उन क्षेत्रों को एक करके अपने अधीन कर लिया। हम निश्चित रूप से यह जानते हैं कि जब चन्द्रगुप्त सिकन्दर से मिला तो वह अभी युवा ही था तथा उसके थोड़ा समय बाद और सिकन्दर की मृत्यु के बाद अधिक-से-अधिक 10 वर्षों में, वह मगध के राज सिंहासन पर बैठ चुका था। इस सम्बन्ध में यह भी ध्यान में रखा जाना चाहिये कि मगध पर विजय बाद में प्राप्त की गई। उसकी प्रथम विजय एवं सत्ता का एकीकरण पहले उत्तर पश्चिम भारत अथवा उत्तरापथ में हुआ। बुद्ध प्रकाश ने मोर शब्द

9. BRWW, Vol. I, p.128.

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के विविध पक्षों का विवेचन किया है और वह इस परिणाम पर पहुंचे हैं कि मौर्य मूल रूप से बिहार क्षेत्र से सम्बन्धित थे। वह अपने इस प्रतिपादन के समर्थन में एक ऐसे गांव का उल्लेख करते हैं जिस का नाम मोर है और वह पटना के समीप है। यदि इसे ही एक मान-दण्ड मान लिया जाए तो हमें पंजाबहरियाणा में अनेक ऐसे गांव मिल जाएंगे जिन का नाम मोर है। पंजाब की मोर मण्ड़ी एक समृद्ध नगर है और रोहतक ज़िले में कई गावों के नाम मोर हैं जैसे मोर खेड़ी आदि। यही कारण है कि बी. के. बरुआ और एल. सी. सेठ मौर्यों को उत्तर पश्चिम में अवस्थित बताते हैं।10 के.ए. नीलकण्ठ शास्त्री की मान्यता है कि चन्द्रगुप्त मौर्य पूर्वी भारत से आया था और जिस दीनहीन स्थिति में उसे पाथा गया, वह नन्दों के अधीन मगध की आक्रामक नीतियों का परिणाम थीं।11 इस टिप्पणी के पिछले भाग की पुष्टि के लिये कोई प्रमाण प्रस्तुत नहीं किया गया है। हां चन्द्रगुप्त के मन में नन्द राजाओं के प्रति घृणा को ही एक तरह से प्रमाण मान लिया गया है किन्तु नन्दों के प्रति यह घृणा भाव केवल चन्द्रगुप्त में ही नहीं था। ऐसा लगता है कि नन्द राजाओं ने अपनी अधिकांश प्रजा को अपने से बहुत दूर कर दिया था। ईरानीयों व सिकन्दर के साम्राज्यों को सामने रखते हुए चन्द्रगुप्त ने विशेष रूप से उत्तर पश्चिम भारत व इस के साथ ही शेष भारत की राजनीतिक स्थिति का तीव्र अनुभव किया होगा। यही कारण था कि उस ने उत्तरापथ के पहाड़ी दुस्साहसी योद्धाओं को एकत्रित किया और भारत के लिखित इतिहास में सम्भवतः पहली बार समूचे देश के एकीकरण की नींव रखी।
व्याकरण की दृष्टि से मौर्य शब्द की व्युत्पति मूर अथवा मुर से स्यण12 प्रत्यय लगा कर है। अतः मूल शब्द मोर अथवा मुर है न कि मयूर। अन्तिम मयूर अथवा मयूरक इस कबीले के मूल नाम का संस्कृत अनुवाद है और दुर्भाग्य से यह हिन्दी शब्द मोर का पर्याय भी है जो एक पक्षी का नाम है। यह भी ध्यान देने की बात है कि यूनानी इस शब्द को Moer/Morie के रूप में लिखते हैं।13 यह सर्व विदित है कि यूनानी निजी नामों के पीछे 'स' लगा देते हैं। यदि इन अतिरिक्त प्रत्ययों को हटा दिया जाए तो यह शब्द केवल मोअर (Moer) अथवा मोरीए (Morie) रह जाता है। इस प्रकरण को यहीं समाप्त करते हुए हम अशोक द्वारा स्वयं निर्मित कराए शिला राज्य आदेश क्रम एक का हवाला दे रहे हैं, जहां शब्द मोर अंकित है न कि मौर्य। ऐसा लगता है कि बुद्ध प्रकाश केवल इतना कह कर इस समस्या से बचने की कोशिश कर रहे हैं। "शब्द मोर जो अशोक के उक्त शिलालेख में आया है, उस का अर्थ पूर्ण रूप से स्पष्ट नहीं है।" यह अर्थ तो पूर्ण रूप से स्पष्ट है और यह उस वंश का नाम है, जिससे अशोक सम्बन्धित था। कर्टिस इस शब्द

10. IHQ, Vol. Vlll, pt. 2.
11. AN&M, p. 143.
12. Mahabhashya, VIII, 2,1.
13. Invasion, p. 108 and 225.

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को पाताल (पटल) के राजा की उपाधि बताता है। यह राज्य सिंध में कहीं स्थित था। कर्टिस ऐसा इसलिये मानने पर विवश हुआ क्योंकि यह उपाधि पाताल देश के एक से अधिक राजकीय परिवारों द्वारा प्रयुक्त की गई है क्योंकि यह उपाधि वास्तव में उनके गोत्र का नाम थी।14 आर.के. मुखर्जी15 और नीलकण्ठ शास्त्री16 तथा अन्य इतिहासकार इस तथ्य से सहमत हैं कि यूनानी शब्द मोर (Moer) को मौर्य का पर्याय समझा जा सकता है। बौद्ध कृतियां निर्बाध रूप में इस शब्द को मोर अथवा मोरिया के रूप में प्रयुक्त करती हैं। मोरिया शब्द मोर से बना है। हमें इस बात की ओर भी ध्यान देना चाहिये कि जाटों के अधिकांश गोत्रों के नाम इसी प्रकार बने हैं। जैसे :—

जी.पी. मल्लशेकर द्वारा सम्पादित महावंश के परिवर्धित संस्करण में कहा गया है, "जम्बूद्वीपे नरा सब्बे मोर राजेन अव्हययुं" अर्थात्‌ पूरे जम्बुद्वीप में मोर शब्द प्रचलित था और अशोक एक मोर राजा के रूप में।17 यहां इस बात पर ध्यान दिया जाना चाहिये कि जो अंश बुद्ध प्रकाश द्वारा दिया गया है उस में मोर, मयूरक, मयूर और मोरिया नगर एक साथ आते हैं। इससे यह स्पष्ट होता है कि मोर शब्द मयूर का प्राकृत एवं पाली रूप नहीं है। यहां वंश का लेखक उपरोक्त इन शब्दों को अच्छी तरह जानता था। यदि मोर शब्द भारतीय होता और संस्कृत शब्द मयूर का प्राकृत रूप होता तो इस का प्रयोग उस से अलग कभी नहीं किया जाता। इस तरह पूरी तरह स्पष्ट हो जाता है कि मोर भारतीय शब्द नहीं है। यह तो एक जाट कबीले का नाम है, जो आज भी विद्यमान है। हमें यह भी ध्यान में रखना चाहिये कि मध्य एशिया में यह शब्द बिल्कुल इसी रूप में प्रचलित था, जब जाटों का मोर कबीला विभिन्न दिशाओं में फैल गया था। जो लोग भारत आए और जिन का इस कबीले के साथ सम्बन्ध था उन्होंने इस शब्द को इसी उच्चारण के साथ प्रयोग किया। उन के जो भाई यूरोप और इंग्लैंड की ओर चले गए उन्होंने भी इस शब्द को Mor/Moor के रूप में प्रयोग किया। यदि यह शब्द भारतीय होता और मौर्य एक भारतीय कबीला होते, तो वही कबीला पश्चिमी यूरोप में कदापि न पाया जाता, जहां इस का तथा-कथित मूल नाम रूप मयूर (और इस के साथ मौर्य) सर्वथा अज्ञात था।

14. op. cit., p. 73, note 3.
15. Chandragupta and His time, p. 24.
16. op. cit., p. 142, note 1.
17. SIH&C, p. 71.

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हम जानते हैं कि मौर्य खोतान तुर्किस्तान के अन्य क्षेत्रों व कश्मीर पर शासन करते रहे हैं। बापा रावल से पूर्व मौर्य राजस्थान में चित्तौड़ पर शासन कर रहे थे और अलबरूनी ने शहर का नाम जट्टरौर (जितपुर) आदि कहा है।18 ऐसा इस लिये हुआ क्योंकि मौर जाटों के शासन से पूर्व चित्तौड़ पर शिबिया जाटों का शासन था जिस की पुष्टि इस क्षेत्र में पाए गए इनके असंख्य सिक्कों से होती है। बापा रावल स्वयं अन्तिम मौर राजा की पुत्री का पुत्र था। यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि "चाचनामा" में चित्तौड़ के जिस राजा महरत का उल्लेख किया गया, वह मोर अथवा मोरी कबीले का वंशज था। वह सिंध के रायवंश के राजा साहसी का सम्बन्धी भी था जिसे 640 ई. में चीन का यात्री हियून सांग एक शूद्र के रूप में सम्बोधित करता है।19 मोर और राय जाट कबीले हैं जिन का उल्लेख ईरानी इतिहास में भी हुआ है। एच.सी. रे उचित रूप में मोरी को मौर्य मानते हैं। लेकिन जब वह आगे चल कर यह कहते हैं कि मौर्य अथवा मोरी परमार राजपूत थे20 तो वह गल्त हो जाते हैं। यह इसलिये कि दशवीं शताब्दि21 तक राजपूत शब्द जातीय संदर्भ में प्रयुक्त ही नहीं हुआ था। जाट शब्द भी अपनी चिर प्राचीनता के लिये उस समय तक सुविख्यात हो चूका था। मोर कबीला यदि एक ओर महाराष्ट्र तक गया तो दूसरी ओर सुदूर दक्षिण भाग तक भी पहुंचा। पूर्व बड़ौदा राज्य में बारनम के स्थान पर पाए गए शिलालेख में मोड़ परिवार के एक मन्त्री का उल्लेख मिलता है।22 दक्षिण के कोंकण क्षेत्र में मान राजा (जो एक जाट कबीला है जिसे शक समझा गया) के सिक्के प्राप्त हुए हैं। नागार्जून कोण्डा के अभिलेख में एक शक का उल्लेख है जिस का नाम मोड़ बताया गया है।23 यह और ऐसे कई अन्य प्रमाण मिलते हैं जो शकों के सुदूर दक्षिण तक जा फैलने और वहां बस्तियां बसाने का संकेत देते हैं।24 वहां उत्खन्न के दौरान एक शक योद्धा की मूर्ति को उसके परम्परागत परिधान में पाया गया; यह इस तथ्य का एक और पुष्ट प्रमाण है। नीलकण्ठ शास्त्री और अन्य इतिहासकारों ने कुछ तमिल कृतियों का उल्लेख किया है जिनसे इस बात की पुष्टि होती है कि मौर्यों ने दक्षिण भाग पर भी आक्रमण किया। इन में मौर्यों के रथ एक पर्वतीय सड़क पर दौड़ते कहे गए और यह सड़क बनाई ही इस उद्देश्य के लिये थी।25 कोरिया के यात्री हुई चाओ (8वीं शती) के अनुसार नागार्जुन कौण्डा का बौद्ध परिसर तथा मठ स्वयं नागार्जुन के आदेश पर यक्षों द्वारा निर्मित किये गये थे।26 यह बौद्ध प्रतिष्ठान 700 वर्षों तक निरन्तर बने रहने

18. Elliot and Dawson, op. cit., Vol. I.
19. PHAI, pp. 226-27.
20. DHNI, Vol. I, p. 5 and 6.
21. P. Saran. Studies in Medieval Indian History, p. 25.
22. Inscriptions of Northern India, S. No. 436.
23. EI, XX, p. 37.
24. IHQ, Vol. XXXVIII, 1962, p. 208, note 27.
25. AN&M, p. 252. And JIH, 1975, p. 243.
26. JIH, 1970, p. 415.

पृष्ठ 149 समाप्त

के बाद उसी शताब्दी में शंकराचार्य के अनुयायियों द्वारा नष्ट कर दिये गये।27 नीलगिरी की पहाड़ियों पर उपलब्ध कुछ पुरानी मूर्तियों के सम्बन्ध में फादर मेज़ (F. Metz) का कहना है कि इन्हें तमिल भाषा में, मोरियरी मने (Moriarie Mane) अर्थात्‌ मौर्यों का घराना कहा जाता था। और वह यहां मौर्योंतातारों की पहचान पाते हैं।28 कर्नल कनगरेव (Col. Congrave) इन लोगों व इनके स्तूपों का मूल सम्बन्ध सिथियों से स्थापित करते हैं। चीनी इन्हें यू.ची (Yue-che) कहते हैं, वेदपुराण बौद्ध एवं जैन साहित्य में इनका उल्लेख यक्षों के रूप में हुआ है।29 ए. बैनर्जी तथा शास्त्री, मुरा को अनार्य मानते हैं अर्थात वह भारतीय मूल की नहीं थी।30 प्रजीलुस्की (Przylusky) मौर्य शब्द को प्राकृत भाषा के शब्द मोर से जोड़ते हैं। सम्भवतः ऐसा मानते हुए प्रजीलुस्की भी इस भ्रम से ग्रस्त हो गया कि यह शब्द भारतीय मूल का है।31 मोर जाटों के उद्गम की चर्चा करते हुए Tribes & Castes में कहा गया कि मोर इन को इसलिये कहा गया क्योंकि एक मोर ने इनके पूर्वज को नाग से बचाया था।32 जैसा कि पहले ही कहा जा चुका है कि ये सभी मान्यताएं इसलिये निराधार हैं क्योंकि यह मान्यता कि मोर शब्द मोर पक्षी का प्रतीक है, स्वयं में ही एक निराधार व मिथ्या धारणा है। जब मूलभूत अनुमान ही ठीक न हो तो इसके निष्कर्ष तो गलत निकलेंगे ही।
उपरोक्‍त अध्ययन से यह बात पूर्ण रूप से स्पष्ट होती है कि मोर भारतीय शब्द नहीं है और इसका मोर पक्षी से किसी तरह का कोई सम्बन्ध नहीं है। यह मध्य एशिया के जाटों के एक कबीले का नाम है जिसका अर्थ है शीर्षस्थ मुखिया अथवा मुकुट। इसीलिये "दिव्यअवदान" (श्रीलंका की एक इतिवृताम्क कृति) में कहा गया है कि मौर्य मुकुटधारी क्षत्रिय थे (मूर्धाभिषिक्त क्षत्रियः) आगामी अनुच्छेद में हम यह प्रमाणित करेंगे कि जब मण्डों का जाट साम्राज्य खुस महानदारा के अधीन चला गया तो ये लोग भारत आए। यह भी सर्व विदित है कि जब जनरल हरपग (Harpgus) की सहायता से खुस ने मण्डों के अन्तिम सम्राट इष्टवेगु को बन्दी बना लिया तो मध्य एशिया के कई जाट कबीलों को भारत व अन्य दिशाओं की ओर दौड़ना पड़ा। जिन्होंने खुश की वफादारी कबूल नहीं की उन्हें भागना पड़ा। कई कबीलों को खुश के उत्तराधिकारी दारा के काल में पलायन करना पड़ा। प्रजीलुस्की उन्हें मध्य एशियाईरान के बहलिक मानता

27. ibid, p. 421; R.C. Mitra, The Doctrine of Buddhism in India, 1954, p. 130. L. Joshi, Studies in Buddhist Culture of India, 1967, p. 396.
28. IHQ, XII, p. 340.
29. ibid, p. 341.
30. ibid.
31. ibid.
32. Vol. II, (1970).

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है।33 और बुद्ध प्रकाश उन्हें विदेश से आए लोग मानता है।34 मग पुरोहितों का वर्णन करते हुए श्रीवास्तव लिखते हैं कि ये पुरोहित लोग छठी अथवा आठवी शताब्दी में भारत आए। यह भली-भांति विदित है कि ये मागी (Magas) अकबटाना के मण्ड साम्राज्य के पुरोहित थे।35 जाटों के जिन कबीलों को इन परिस्थितियों में पलायन करना पड़ा वे थे मण्ड, वरिक, मोर अत्री, खत्री कंग और पोर आदि। जाटों के ये सभी गोत्र आज भी भारत में पाए जाते है और उन्हें उपयुक्त रूप में बहलीक कहा गया है अर्थात बल्ख क्षेत्र अथवा वक्षु नदी के क्षेत्र के लोग। साम्राज्य स्थापना का स्वभाव उनके रक्त में था और वे अच्छी तरह जानते थे कि उनका अपना साम्राज्य किस तरह हखंमनियोंसिकन्दर के अधीन चला गया था। दूसरी ओर उन के अपने विभिन्न कबीले इधर-उधर बिखर चुके थे या आपस में युद्धरत थे। पाणिनी ने उन्हीं कबीलों को आयुद्ध जीवी कहा है और उन्हीं के संगठन को उसने "जाट संघ" का नाम दिया है। ये वही लोग थे जिन्होंने उत्तरापथ में विभिन्न नगरों का निर्माण किया था। इन नगरों के नाम के अन्त में कण्ठ आता था और पाणिनी इससे पूर्णरूप से अवगत था।36 इसी स्रोत से हमें पंजाब में बस रहे अन्य जाट कबीलों का भी पता चलता है, उदाहरण स्वरूप महाराजकी, कुण्डू, (कौण्डोपरथ) ढ़ॅाडा (डाण्डकीं), धामा, परस्वाल (पार्श्व) स्याल (साल्व) कठिया अथवा कठवाल (यूनानियों के कठोई) मल्ल अथवा मल्ली (यूनानियों के मल्लोई और भारतीयों के मालव इत्यादि)। पुनः वही लोग थे जिन्होंने पंजाब तथा उत्तर पथ में कई एक सूर्य मंदिरों का निर्माण किया, जिन्हें सिकन्दर के साथ आए यूनानियों ने स्वयं देखा। यह तथ्य भी भली-भान्ति विदित है कि सूर्य उपासना का दायित्व उन पुरोहितों को दिया गया, जिन्हें मग पुरोहित कहा जाता था क्योंकि सूर्य की उपासना विधि के वे ही पूर्ण ज्ञाता थे।37 यूनानियों ने एक राज कुमार का नाम अस्सागत (Assagetes) दिया है। (इस खण्ड के अन्त में टिप्पणी देखें) मुद्राराक्षस में शकों, यवनों बहलीकों व अन्य सेनाओं का उल्लेख हुआ जो चन्द्रगुप्त की मित्र सेनाएं थीं, चाहे वे मगध विजय के समय उस के विरुद्ध हो गई थीं। यूनानी प्रसंगों से पता चलता है कि आरट्ट चन्द गुप्त के पक्ष में थे। इन आरट्टों को यूनानियों ने लुटेरे कहा है और यही चन्द्रगुप्त मौर्य की सेना का हरावल दस्ता था। आरट्ट इन्हें इसलिये कहा जाता था कि शासन पद्धति गणतन्त्रात्मक थी अर्थात्‌ राजा विहीन राज्य। हम इस तथ्य को कैसे स्पष्ट करेंगे कि अशोक के अधीनस्थ उज्जैन के राज्यपाल को ईरानी पदवी क्षत्रप से सम्बोधित किया

33. JA, 1926, p. 11-13.
34. SIH&C, p. 35.
35. Indian History Congress, Bhagalpur Session, 1968, p. 86.
36. V.S. Agarwala, op. cit., p. 68-69.
37. AIS, Sachau, p. 121.
38. AN&M, p. 51.

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गया है।39 अशोक द्वारा सुराष्ट्र के राज्यपाल का पद एक ईरानी तुषास्प को क्यों प्रदान किया गया ?40
इन लोगों के वैदेशिक स्वरूप के उल्लेख पुराणों एवं अन्य भारतीय कृतियों में भी उपलब्ध है। विष्णु पुराण इन्हें शूद्र कहता है, मार्कण्डेय पुराण में मौर्यों को असुर कहा गया है, युग पुराण इन्हें नितान्त अधर्मी लोग मानता है जो सदैव धार्मिक होने का मुखौटा धारण किये रहते हैं। मुद्राराक्षस इन्हें मलेच्छ कहता है और स्वयं चन्द्रगुप्त को कुलहीन कहा गया है। इस नाट्य कृति में चन्द्रगुतमलयकेतु के परिजनों में डिंगराट नाम का एक पात्र आता है। डिंगराट नाम स्पष्ट रूप में भारतीय नहीं है।41
कोई भी व्यक्ति यह सोचने पर विवश हो सकता है कि पुराणकारों द्वारा मौर्यों के प्रति इतना वैमनस्य क्योंकर व्यक्त हुआ। इस प्रश्न के उत्तर में यह तर्क भी उचित नहीं कहा जा सकता कि अशोक बौद्ध धर्म का संरक्षक था क्यों कि चन्द्रगुप्त स्वयं जैन धर्म की ओर आकर्षित था और मौर्य वंश के कई अन्य राजा ब्राह्मण धर्म के प्रति श्रद्धा रखते थे। उपरोक्त वैमनस्य का असल कारण इन लोगों का विदेशी मूल था, इसीलिये इन्हें मलेच्छअसुर आदि कहा गया है। पुराणों में यह भी बताया गया है कि नन्द वंशजों को कैसे जड़ से उखाड़ दिया गया और किस तरह पृथ्वी मौर्यों के अधीन चली गई। यहां पर भी इस उपलब्धि का श्रेय ब्राह्मण कौटिल्य अथवा चाणक्य को ही दिया गया है। यद्यपि कौटिल्य स्वयं ब्राह्मणों की सेना के बारे में बहुत ही हल्की राय रखता था।42 कौटिल्य ही ऐसा प्रथम व्यक्ति था जिसने दोषी के पद और स्तर को एक ओर रख कर किसी अपराध के बराबर दण्ड प्रदान करने की व्यवस्था बनाई। यह उस ब्राह्मणीय नियम के सर्वथा विपरीत था जिसके अन्तर्गत किसी भी अवस्था में किसी ब्राह्मण को मृत्यु का दण्ड नहीं दिया जा सकता था। यह जानना भी रुचिकर होगा कि चाणक्य बृहत कथा कोष43 में पाटलिपुत्र का रहने वाला बताया गया है। चाणक्य को यह नाम इसलिये दिया गया था, क्योंकि वह गंधार के गोला ज़िला में स्थित चानय नामक गांव का रहने वाला था। यदि चाणक्य को मूल रूप से मगध का रहने वाला बताया जा सकता है तो इस में कोई आश्चर्य नहीं कि मौर्यों के बारे में भी ऐसा ही कह दिया गया।
दूसरी ध्यान देने वाली बात है मौर्यों की प्रशासकीय नीति, राज दरबार में समारोहों का आयोजन और मौर्य व्यवस्था के कई अन्य पक्ष, जिन से स्पष्ट रूप से यह सिद्ध होता है कि ये सब व्यवस्थाएं हखमनी सम्राटों से ली गईं थीं।44 प्रायः सभी लेखकों ने मौर्य

39. K.A.N. Sastri, History of India, pt. I, p. 112.
40. Majumdar, The Age of Imperial Unity. p. 61.
41. SIH&C, p. 140.
42. Arthasastra, IX, 2.
43. SIH&C, p. 94.
44. EHI, p. 128; IA, 1905, p. 201-03; PHAI, p. 245.

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प्रशासन, उनकी कला व संस्कृति पर ईरानी तथा यूनानी प्रभाव की बात कही है। कुमार स्वामी अपनी पुस्तक History of India & Indonesian Art में उचित रूप में लिखते हैं, "भारतीय सज्जा कला में भारतीयता विशेष और विशुद्ध रूप में व्यक्त नहीं है अपितु पश्चिम एशिया के साथ इसकी बहुत समानता है।" तक्षशिला के भीर टीले की खुदाई के दौरान प्राप्त एक पंखों वाले हिरण कीं आकृति मिली है जो ईरानी नमूने की है।45 सारनाथ में चमकाई गई बलुआ पत्थर की प्रतिमाएं जिन्होंने मोरवेदार मुकुट पहन रखे हैं बिना कच्छे के कटिबंद्ध पहनने का उनका ढंग जो हमें पटना के भारतीय संग्रहालय में सुरक्षित यक्षों की दो मूर्तियों में दिखाई देता है, जिन में इन्होंने कुण्डलदार बाजूबंद भी पहन रखे हैं अनिवार्य रूप में हमें हखमनी सज्जा कला की याद दिलाते हैं।46 ईरानसंस्कृति के मौर्य दरबार और मौर्य संस्कृति पर विशेष प्रभाव के महत्वपूर्ण प्रमाण हमें यूनानी लेखकों द्वारा पाटलिपुत्र में राज भवनों (शाही महल) से सम्बन्धित लिखित विवरणों व इस नगर के वास्तविक अवशेषों से मिलते हैं। इसके अतिरिक्त वैड्डल (Waddell) और स्पूनर (Spooner) द्वारा महलों की खुदाई में भी इन पर यही प्रभाव सामने आया है। "पाटलिपुत्र के अन्य राज महलों को देख कर मैगस्थनीज को सुसा तथा अकबटाना के राज महलों की याद आनी अकारण नहीं है।"47 हमें यहां तनिक रुक कर अकबटाना नगर को स्मृति में लाना चाहिये, जिसे मण्ड जाटों ने अपने साम्राज्य की राजधानी बनाया था। अतः इसमें तनिक भी आश्चर्य नहीं होना चाहिये कि जब इन लोगों ने पाटलिपुत्र में अपने महल बनाए तो उन्होंने अकबटाना में निर्मित महलों के प्रतिमानों का ही अनुकरण किया। हमें यह भी ध्यान में रखना चाहिये कि भारत में बड़ी मात्रा में पत्थरों का प्रयोग सर्वप्रथम मौर्यों द्वारा ही प्रारम्भ किया गया। मौर्य काल से पूर्व भारत में मकान बनाने के लिये मिट्टी और लकड़ी का ही प्रयोग किया जाता था। पत्थरों का प्रयोग तब तक भारत में नहीं जाना गया था। जबकि दूसरी और ईरानी और मध्य एशिया के अपने साम्राज्यों में ये जाट भवन निर्माण की इस प्रणाली के पूर्ण रूप से अभ्यस्त थे। "पाटलिपुत्र में भवन निर्माण की शैली हखमनी और भारतीय भवन निर्माताओं के परस्पर सम्पर्कों के कारण नहीं अपनाई गई थी अपितु यहां तो मौर्य सम्राटों द्वारा हखमनी दरबारे आम की योजना सप्रयास अपनाई गई थी।"48 इस टिप्पणी से हमारा यह मत और भी पुष्ट होता है कि तत्कालीन भारत में ईरानी कला शिल्प शैली का मात्र अनुकरण ही नहीं किया गया अपितु मौर्य जाट जब अकबटानामध्य एशिया से भारत आए तो उन्होंने अपनी उस कला और शैली को अक्षुण्ण रखा और पूर्ण मन से उसे निरन्तरता के साथ अपनाए रखा। इसी कारण से यह सिद्ध हो चुका है कि मौर्य

45. ASIAR, 1919-20, p. 23, pI. XI, Fig. 2.
46. IHQ, VII, p. 229, quoted AN&M, p. 356.
47 ibid, p. 357.
48. Chanda, ibid., p. 358.

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काल के जो भी अवशेष बचे हैं उन्हें मौर्य सम्राटों ने अपने विशेष आदेशों और अपनी निजी देख-रेख में निर्मित कराया।49 इस लिये यह केवल हखमनी साम्राज्य एवं यूनानियों का प्रभाव ही नहीं था जो उनके अन्तर्मन में अंकित था अपितु वे तो स्वयं ईरानी और यूनानी साम्राज्यों के संस्थापकों के अग्रदूत रहे थे। उन्होंने तो स्वयं प्रशासन विधा, राजनीतिक व्यवस्था व शिल्प शैलियों को जन्म दिया। इसलिये हखमनी सत्ता के समाप्त हो जाने के बाद भी हखमनी कला वस्तुओं का आयात भारत में जारी रहा।50 हम इस टिप्पणी को तनिक संशोधित करना चाहते हैं और वह इस रूप में कि ईरान से इन कला वस्तुओं का आयात नहीं किया गया था अपितु जाटों के सम्भ्रान्त वर्ग द्वारा अपनी निजी देख-रेख में इन्हें बनवाया गया जिन के बारे मैं उन्हें पूर्ण ज्ञान था। "इस बात को स्वीकार कर लिया गया है कि मौर्य प्रशासन ने बड़ी सीमा तक हखमनी तथा यूनानी परम्पराओं को बनाए रखा और चन्द्रगुप्त ने भारत के यूनानीकरण में दमित्रिय तथा मिनेन्दर की अपेक्षा कहीं अधिक योगदान दिया।"51 पाटलिपुत्र के महाकक्ष के स्तम्भों का उल्लेख करते हुए वही इतिहास विशेषज्ञ यह निष्कर्ष प्रस्तुत करते हैं। "यह विशिष्ट एवं सम्पुष्ट स्थापत्य कला शैली बहुत सीमा तक (अनिश्चित मात्रा में) अभारतीय है।"52 अशोक के राजादेश सदा एक की सूत्र से आरम्भ होते है। "देवानाम पिय पियदसी एवमाह" जोकि सेनार्ट (Senort) के अनुसार भारतीय शिलालेख शस्त्र में एक ही विलक्षण उदाहरण है।53 दारा तथा अशोक के शिलालेख एक ही शब्द "दिपी" तथा "लिपि" का प्रयोग आलेख के लिये करते हैं और शब्द का यह भारतीय रूप ईरान से लिया गया।54
इस में कोई संदेह नहीं कि आवश्यक प्रेरणा बाहर से ही आई। अनायास ही पत्थरों का प्रयोग और वह भी बड़े आकारों एवं बृहद परिमाणों वाली स्मारकीय कला में भारी स्तर पर तथा आदिमकालीन असभ्य स्थिति से सचेत सभ्य सम्भ्रांत रूप एवं आकार के विकास की त्वरित प्रक्रिया इन निर्मित स्तम्भों के पूर्ण प्रभाव में स्वतः परिलक्षित होती है। इनमें गणराज्य से साम्राज्य तक के विकास क्रम की प्रक्रिया भी स्पष्ट होती है। ये सब बिना किसी संदेह के बाहर से आई उसी प्रेरणा की ओर संकेत हैं। यह मत भी बार-बार व्यक्त किया गया है और वह अकारण नहीं है कि यह बाह्य प्रेरणा व प्रेरक शक्ति हखमनीं सम्राटों को ईरान से मिली। कइयों का मत यह है कि मौर्यां द्वारा निर्मित ये स्तम्भ हखमनी

49. ibid.
50. ibid.
51. Comp. History of India, Vol. II, p. 54-55.
52. ibid., pp. 90-91.
53. ibid., p. 359.
54. ibid.

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स्तम्भों के भारतीय प्रतिरूप ही है और हुआ यह कि इतना आभार भी स्वीकार न करने के प्रयास बार-बार किये गये। हो सकता है कि इस में तनिक न्यायोचितता का पुट भी हो किन्तु बहुत कम ऐसे लोग होंगे जिन्होंने गम्भीरता से इस पर संदेह किया कि साधारण रूप में पश्चिमी एशियाई कला शैलियां और विशेष रूप से हखमनी कला से प्रेरणा व प्रेरक शक्ति प्रत्यक्ष रूप में इन निर्माण कार्यों के मूल में कार्यरत न रहीं।55 इस संदर्भ में यहां हमें यह भी याद रखना चाहिये कि असीरिया की महान्‌ राजधानी निनेवेह ई.पू. 606 में मण्ड जाटों के अधीन हो गई थी। अकबटाना जिस के प्रतिरूप पर पाटलिपुत्र का निर्माण हुआ, यह मण्ड राजा देवक के अधीन एक सुनिश्चित योजना के साथ जाटों द्वारा ही निर्मित किया गया था। इसमें तनिक भी आश्चर्य नहीं कि उन्होंने यहां भी अपने मूल रूपों का ही अनुकरण किया। जिस ढंग से उनके हाथ से साम्राज्य छिने, उन्हें पुनः प्राप्त करने के लिये उनके लम्बे संघर्ष और 529 ई.पू. में इस संघर्ष के मण्ड राजा गौमत के अधीन उन्हें मिली तनिक अस्थाई सफलता और दारा द्वारा सिंहासन संभाले जाने से पूर्व भारत व अन्य दिशाओं की ओर पलायन करने की उनकी विवशता के बीच उन जाटों के अन्तर्मन में पुरानी स्मृति एक प्रकाश स्तम्भ की तरह निरन्तर आलोकित रही होगी और स्मृतियों के इसी प्रकाश स्तम्भ ने जाटों को तब दिशा दान दिया होगा जब उन्होंने मोर कबीले के नेतृत्व में एक और बड़े राज्य को स्थापित किया। मौर्यों की अपनी तरह ही उनकी प्रशासन विधा, जन कल्याण की नीतियां, उनकी कलाएं व स्थापत्य कला व शैलियां उन के परिधान एवं स्वभाव उनकी सामाजिक मान्यताएं एवं धार्मिक विश्वास सब कुछ भारत में आप्रवासियों की तरह आए।
इसी दिशा में इस के अतिरिक्‍त भी एक और महत्वपूर्ण संकेत है और वह है मौर्यों का सामान्य रूप में अपने समाज और विशेष रूप में ब्राह्मणों के विशिष्ट कर्म काण्डों के प्रति उनका दृष्टिकोण। प्राचीन ऋषि तपस्वी हुआ करते थे, वे इन्द्रीय सुखों से स्वयं को दूर रखते हुए आत्म संयम का पालन करते थे। श्रद्धा जन जो भोजन उन के द्वार पर रख जाते उसी से वे अपना निर्वाह करते थे। उन्हें आदरपूर्ण पद प्राप्त था, उनका मन कोमल एवं ओजमय होता था। वे केवल अपनी साधना में ही रत रहते थे। किन्तु समय व्यतीत होने के साथ-साथ वे राजाओं द्वारा दी जाने वाली दान-दक्षिणा एवं सुख साधनों की अपेक्षा करने लगे। इन सुख साधनों में आभूषणों से अलंकृत महिलाएं, उत्तम घोड़ों से जुड़े रथ भी शामिल थे और वे इन्हें दान में मांगने लगे। इन लाभों को दृष्टि में रखते हुए वे राजा इक्षवाकु के पास गए तथा उन्हें विभिन्न यज्ञ आदि करने के लिये मनाया। और अपने पारिश्रमिक के रूप में उन्होंने राजा से धन, महिलाएं, रथ, घोड़े व गौएं प्राप्त कीं। फिर और भी लालच करते हुए उन्होंने इस राजा को और यज्ञ करने के लिये तैयार किया, जिस में उन्हें गऊएं दान करने के लिये कहा गया। यज्ञ की वेदी से पुरोहित यह आदेश देते सुनाई देते, "यज्ञ की बलि के लिये इतने बैलों का वध हो, इतने बछड़ों को

55. AN&M, p. 367.

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मोरों, इतनी बछड़ियों, इतनी बकरियों व इतनी भेड़ों का वध करो। राजा के चाकर संदेशवाहक तथा कर्मचारी अश्रुपूर्ण आँखों से इन बलि यज्ञों की तैयारी करते, वे इस पाप से दण्डित होने के भय से रोया भी करते।" प्राचीन ऋषियों का कर्मकाण्डी पुरोहितों के रूप में परिवर्तन का यह विवरण बौद्ध कृतियों पर आधारित है। इसकी पुष्टि ब्राह्मणों के श्रोत इतिवृतों से भी होती है।56 पुरोहितों को बड़ी मात्रा से मिलने वाले दान से उनका लालच और भी बढ़ गया होगा फिर यहां तक कि उन्होंने राजसत्ता पाने के भी प्रयत्न किये जो वैदिक साहित्य में ब्राह्मणों के लिये स्पष्ट रूप से वर्जित थी। शतपथ ब्राह्मण में कहा गया है "ब्राह्मण राजत्व के अनुकूल नहीं है।"57 किन्तु आगे चल कर सभी पुरातन नियम एवं मूल्य परिवर्तित कर दिये गये और इन में से कई तो पहले वाले नियमों के सर्वथा विपरीत ही थे। "हम सम्भवतः सही रूप में कभी भी नहीं जान सकेंगे कि किस विधि द्वारा और किस सीमा तक महाकाव्य तथा वैज्ञानिक व्यवस्था काल के वैदिक विधि विधानों को आधुनिक हिन्दुत्व के रीति-रिवाज़ों में बदल दिया गया।" प्राचीन घरेलू एवं अन्य यज्ञों को मंदिरों के उन्हीं पुरोहितों द्वारा बदल दिया गया था जिन्हें मनु घृणा से मांस मदिरा बेचने वालों, दुकानदारों व सूदखोरों के तुल्य रखता है।58
मौर्यों ने ये सभी कर्म-काण्ड़ बन्द कर दिये। दीर्घनिकाय एक ऐसे बौद्ध पुरोहित का उल्लेख करती है जिसमें अपने राजा को बहुमूल्य जीवन एवं धन को नष्ट करने वाले इन अनावश्यक यज्ञों के त्याग देने का परामर्श देते हुए यह भी कहा कि वह उन लोगों को बीज आदि दे जो भूमि को जोतना चाहते है। उन लोगों को पूंजी दे जो कोई व्यवसाय करना चाहते हैं, जो लोग राजकीय सेवा में आना चाहते हैं उन्हें वह नौकरी व उचित वेतन प्रदान करें। दृघनेमी राजा ने अपने पुत्र का आह्वान किया कि वह देश से निर्धनता एवं बेरोजगारी को दूर करने के लिये लोगों में काम तथा धन वितरित करें। विशेष समस्याओं के प्रति धर्म निरपेक्ष दृष्टिकोण जो व्यावहारिक रूप में आधुनिक विचारधारा है और वर्तमान समाज में वह आज भी प्रासंगिक है, उस काल में ऊंच-नीच, जाति-पाति व धर्म के भेदभाव से ऊपर उठ कर व्यवहार में लाया जाता था। राज्य जुताई के विकास के लिये बीज, पशु तथा धन उपलब्ध कराता था।59 भूमि पर केवल उसका अधिकार रहता था जो उसे जोत सकता था और जो जोत नहीं सकता था, उसे उस के भू-अधिकार से वंचित किया जा सकता था।60 कौटिल्य व्यापारियों को उन लोगों के तुल्य समझता

56. AN&M, p. 289-91.
57. Eggling, III, p. 4.
58. From Manu smriti, quoted by R. C. Dutt, A History of Civilization in Ancient India, Vol. II, p. 95.
59. Arthashastra, II, 34, p. 115.
60. ibid.

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था जो वास्तव में चोर थे लेकिन जो स्वयं को भद्र जनों के रूप में प्रस्तुत करने का अभिनय करते थे।61 व्यापारियों के लिये घरेलू निर्मित सामान पर लाभ की दर पांच प्रतिशत निश्चित थी और विदेशी माल पर दस प्रतिशत।62 वर्ण व्यवस्था को बिल्कुल त्याग दिया गया था और इस से सम्बन्धित सभी विशेष अधिकारों की वैधता खत्म कर दी गई थी। ब्राह्मणों को मृत्यु दण्ड से मुक्त नहीं रखा गया था। धर्म का उपयोग भी केवल कहावत के लिये था। कौटिल्य के लिये मंदिरों का प्रयोग केवल राजकोष के लिये धन जुटाने से था, जो वहां लोगों द्वारा चढ़ावे के रूप में दिया जाता था। राज्य ने एक विशेष अधिकारी की नियुक्ति कर रखी थी, जिसे देवताध्यक्ष कहा जाता था और उसे स्पष्ट आदेश था कि वह देवताओं की मूर्तियों की पूजा से तथा लोगों के धार्मिक अन्धविश्वास के उपयोग से धन एकत्रित करें और इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिये वह धर्म स्थानों में उत्सवों व पर्वों का आयोजन करें जिन में चमत्कारी नाग मूर्तियों का प्रदर्शन करें। जिन में नागों के फनों को बदल-बदल कर चमत्कारपूर्ण समाचारों को फैला कर धन एकत्रित किया जाए।63 यहां तक वेद वाक्यों की सत्ता स्वर्ग का प्रलोभन, प्रतिशोध का सिद्धान्त आदि को भी केवल सेना के मनोबल को बढ़ाने के लिये प्रयुक्त किया गया।64 अशोक ने जन्म, विवाह एवं मृत्यु पर विशेष आयोजनों को लेकर सार्वजनिक रूप में अपनी असहमति व्यक्त की तथा उन्हें तुच्छ एवं निरर्थक कहा।65 चाणक्य का अर्थशास्त्र ब्राह्मणों के लिये विधवा विवाह की अनुमति प्रदान करता है।66 तलाक की भी व्यवस्था थी और उसे 'मुक्ति' का नाम दिया गया था।67 ब्राह्मण विधवाओं के लिये नियोग (पति की मृत्यु के बाद संतान प्राप्ति के लिये पर-पुरूष से शारीरिक सम्बन्ध) की अनुमति थी।68 इस प्रकार प्राचीन संभ्रान्त वर्ग और पुरोहितवाद एक हो कर मानवता की सहज धारा में घुल-मिल गए। युग पुराण को घोषणा करनी पड़ी- "उस स्थिति में लोग अपनी कुलीनता एवं धर्म खो बैठेंगे। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, तथा शूद्र एक-जैसा व्यवहार करेंगे और एक जैसे वस्त्र पहनेंगे।"69
अतः हम देखते हैं कि ब्राह्मणों द्वारा स्थापित जातीय भेदभाव रक्‍त-रंजित बलि यज्ञों, जन्म, विवाह और मरण पर विशेष आयोजनों पर व्यर्थ धन व्यय की खुल कर

61. ibid., IV, II, 76, p. 204.
62. ibid., p. 206.
63. ibid., V.
64. ibid., X, 3, p. 153.
65. Asoka's Rock Edict, IX.
66. Arthashastra, 3, 2, 39, 41.
67. ibid.
68. ibid., For further details see R.N. Sharma's Brahmins Through the Ages, 1977.
69. Buddha Prakash, op. cit., p. 200, etc.

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निन्दा की गई। बिना किसी जातीय भेद-भाव के सब पर एक समान लागू होने वाले कानून बनाए गए। ईस्वी काल के आरम्भ में अश्वघोष यह कहता हुआ सुनाई देता है, "ब्राह्मण एक जाति के रूप में लुप्त हो गए थे और चतुर्वर्णों के स्थान पर केवल एक ही वर्ण रह गया था।"70
फिर भी इस बात पर ध्यान देना महत्वपूर्ण है कि ये सब नीतियां भारत की परम्परागत सामाजिक, राजनीतिक एवं धार्मिक व्यवस्था के विपरीत थीं। उस काल में कोई भी भारतीय राजकुल इन भारतीय परम्पराओं के विरूद्ध नहीं चल सकता था। केवल मोर कबीले के आप्रवासी जाट ही ऐसा करने का साहस जुटा सकते थे। सम्भवतः उन के पतन का यह भी एक कारण रहा। पुराण लेखकों द्वारा उनके प्रति व्यक्त तिरस्कारपूर्ण उपेक्षा का तो निश्चित रूप से यही कारण था।
बुद्ध प्रकाश, मसूदी के "कन्द", फिरदौसी के "कैद" और मुजमुल-उत-तबारीख में वर्णित कफन्द को चन्द्रगुप्त मौर्य के समरूप ही देखते हैं।71 इलियट और डासन भी मुजमुल-उत-तबारीख को उद्धृत करते हैं।72 हम ने भी आगे चल कर धारण गुप्त राजवंश का उल्लेख करते हुए उस अंग को उद्धृत किया है। सब से महत्वपूर्ण बात यह है कि कफन्द का उल्लेख एक अहिन्दू और एक अभारतीय के रूप में किया गया है, जो अच्छा भाषण दिया करता था, और जो अपने मधुर शब्दों व सम्मानपूर्ण व्यवहार से भारतीयों के मन मोह लेता था। यदि कथित रूप में कंद और चन्द्रगुप्त मौर्य एक ही व्यक्ति है तो इस तथ्य को स्थापित करने के लिये रास्ता खुल जाता है कि वह (चन्द्रगुप्त मौर्य) भारत में एक विदेशी था।
इस प्रकार हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि चन्द्रगुप्त के कबीले अथवा गोत्र का नाम मोर था। यह वही शब्द है जो आज भी इंग्लैंड में कुछ लोगों का उपनाम है और जो वहां "Morе" के रूप में लिखा जाता है। यूरोपीय Moor भी यही शब्द है। हम इससे पूर्व यह भी देख चुके हैं कि मध्य एशिया से जाट विभिन्न दिशाओं की ओर फैल गए थे तथा उन में से अनेक यूरोप की ओर भी गए जिन्हें वहां गौट तथा जट कहा गया। हम यह भी देख चुके हैं कि जाटों का कबीला सिबी जिसे सिबि अथवा सियवी भी कहा जाता है। सकेंडेनेविया तथा स्पेन की ओर गया। भारत के चवान फ़्रांस में चवान्नीस (Chavanees) बन जाते हैं। फ्रांसीसियों का पुराना नाम गाल (Gauls) वहीं है जो भारतीयों का गाल्लान है। पाणिनी के नियम अनुसार गोत्र के नाम के साथ प्रत्यय "आन" जोड़ा गया है। भारत के रोज वही है जो इंग्लैंड के (Rose) है तथा जर्मनी के हंस /हंज़ वही है जैसे जाट हंस। इसी प्रकार भारत के मोर वही है जोकि यूरोप के मोर

70. Vajra Suchi, p. 195.
71. SIH&C, p. 91.
72. op. cit., Vol. II, p. 108.

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अथवा मूर हैं। हमारा प्रयोजन यहां कोई इतिहास लिखना नहीं परन्तु इन लोगों और इन नामों की समरूपता प्रस्तुत करना है। अब इस बात पर आम सहमति है कि चन्द्रगुप्त द्वारा संस्थापित राजवंश मौर्य का नाम उसकी मां मुरा अथवा पिता मौर्य के नाम से लिये जाने की अपेक्षा यह नाम उसके कबीले के पुराने नाम मोर/मोरिया से लिया जाना कहीं अधिक संतोषजनक व्याख्या लिये हैं।73 पुराण तो इस नामकरण के संदर्भ में मोर पक्षी अथवा मां, मुरा के सिद्धान्त की ओर तनिक भी संकेत नहीं देते। "वे तो केवल इतना ही उल्लेख करते हैं कि नंद वंश का पतन ब्राह्मण कौटिल्य के हाथों हुआ, जिसने चन्द्रगुप्त का राजा के रूप में अभिषेक किया।" यह तो 'विष्णु पुराण' का ही एक भाष्यकार था जिसने सर्वप्रथम सत्रहवीं शताब्दी में चन्द्रगुप्त की उपाधि मौर्य की व्याख्या करते हुए यह तर्क रखा कि उसका जन्म एक निम्न कुल में हुआ तथा उसने मौर्य शब्द को "मुरा" से जोड़ने का प्रयास किया, जोकि नन्द की पत्नी और चन्द्रगुप्त की मां मान ली गई। किन्तु यह भाष्यकार कल्पित इतिहास गढ़ने एवं अशुद्ध व्याकरण दोनों का ही दोषी है। मुरा से व्युत्पत्ति केवल मौरेया ही हो सकती है, मौर्य शब्द की व्युत्पति केवल पुल्लिंग मूर से ही सम्भव है और यह शब्द मूर पाणिनी के गण पाठ में एक "गोत्र" का नाम है। ऐसा लगता है कि उक्त भाष्यकार व्याकरण के नियमों का पालने करने की अपेक्षा चन्द्रगुप्त के लिये एक मां ढूंढने के लिये अधिक व्यग्र था।74
डी.बी. स्पूनर (D.B. Spooner) जिसने पाटलिपुत्र के स्थल की खुदाई की थी, वह अपनी खोजों से स्वयं हत्प्रभ रह गया। इन खोजों के विषय में उसने अपनी सम्मति अपने एक लेख "Zorostrian Period of Indian History" में व्यक्त की है। उसकी इन खोजों के बारे में कुछ विवरण एवं विचार नीचे दिये जा रहे हैं।75
"चन्द्रगुप्त के काल से सम्बन्धित प्रमाण मात्रा में कहीं अधिक और अधिक विस्तृत भी है। ये सभी प्रमाण उस काल में सर्वथा ईरानी रीति-रिवाजों का स्पष्ट अनुकरण करते हुए दिखाई देते हैं, चाहे उनका सम्बन्ध सार्वजनिक कार्यों से हो, सामाजिक समारोहों से हों या दण्ड विधान की व्यवस्था से हो। इन सब पर ईरानी प्रभाव स्पष्ट रूप से विद्यमान दिखाई देता है।"
स्पूनर उचित रूप से मौर्य कला व नगर स्थित राज महलों पर किसी तरह के भी यूनानी प्रभाव की बात को नकारता है। स्पूनर के अनुसार, "ये सभी प्रमाण केवल ईरानी प्रभाव की ओर ही संकेत करते हैं।" ये प्रमाण स्पष्ट रूप से सिद्ध करते हैं कि, "ऐतिहासिक काल के प्रवेश द्वार पर एक ऐसा राजवंश जो विशुद्ध रूप से ईरानी छाप का है।"76 स्पूनर इस बात का भी उल्लेख करता है कि मरव नाम के नगर को मौर भी

73. Majumdar, The Age of Imperial Unity, p. 56.
74. ibid., p. 55.
75. JRAS, 1915, p. 72 and p. 405.
76. ibid., p. 72-73.

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कहा जाता था।77 यह लेखक के.पी. जायसवाल को भी उद्धृत करता है जिन्होंने एक तथ्य की ओर ध्यान दिलाया था कि मौरव शब्द अवेस्ता में भी पाया जाता है। यह लेखक आगे चल कर यह भी लिखता है कि मौर्यों की नाप-तोल की प्रणाली मनु की प्रणाली के नहीं, अपितु ईरानी प्रणाली के समान थी।78 मौर्यकालीन सिक्कों पर सूर्य, एक शाखा एक कुकद वृषभ और चैत्य प्रकार के पर्वत के चिन्ह मिलते हैं। स्पूनर इन सब को ईरानी चिन्ह मानता है किन्तु वास्तव में यह मग सूर्य चिन्ह है। तथाकथित चैत्य का चिन्ह वास्तव में एक ऊंचा पर्वत है जो पृथ्वी का बोध कराता है और इसके गिर्द टेढ़ी-मेढ़ी अनियमित रेखा जल का प्रतीक है। जल, धरती और उस के साध सूर्य के चिन्ह, ये विशिष्ट रूप से सिथिया के जाट लोगों के चिन्ह है। हमें इस संदर्भ में दारा द्वारा कृष्ण सागर के पास सिथियों पर आक्रमण के लिये किये गये प्रयास याद रखने चाहिये। यह भी याद आना चाहिये कि सिथियन राजा सूर्य देवता की शपथ लेते थे और पृथ्वी व जल पर अपना अधिकार छोड़ना उन्हें किसी भी स्थिति में स्वीकार्य नहीं था। धरती और पानी के साथ यह अटूट सम्बन्ध आज के जाटों को प्राचीन काल से धरोहर के रूप में प्राप्त हुआ है। हमें यह भी याद रखना चाहिये कि तोमिरस रानी ने खुश महान्‌ की रक्‍त पिपासा शान्त करने के लिये सूर्य देव की शपथ ली थी। वृक्ष की शाखा धरती की उत्पादकता एवं उर्वरता की प्रतीक है अर्थात्‌ कृषि की, जो इन लोगों का परम्परागत व्यवसाय था। अतः मौर्यकालीन सिक्कों पर ये सभी चिन्ह प्राचीन सिथियाई अथवा मग चिन्ह हैं। ये लोग मग धर्म को मानने वाले सूर्य उपासक थे और निःसंदेह मगों के कई रीति-रिवाज़ एवं परम्पराएं प्राचीन ईरानियों से मिलती थीं किन्तु इनका अपना विशिष्ट अस्तित्व भी था (इस खण्ड के अन्त में टिप्पणी क्रमांक II देखिये) इसीलिये दारा के काल में मग धर्म को जटतुश्ती धर्म (Zoroastrian) से बचाने के लिये स्वतन्त्रता का युद्ध लड़ा गया था।
मग बहुत ही प्राचीन काल से चले आ रहे पुरोहित हैं। उनका उल्लेख यस्न (Yasna) में भी हुआ है। ये लोग आयरलैंड के प्राचीन मगों तथा गोथिक (Gothic) मगों (Magus) का प्रतिनिधित्व करते हैं जिसका शाब्दिक अर्थ है "सहायक" अर्थात्‌ वह व्यक्ति जो किसी भी सहायता एवं किसी के अमंगल को निरस्त करने के लिये श्रम करता है और वास्तव में पुरोहितों का यही तो सर्वश्रेष्ठ कर्म है।79 चाहे कुछ भी हो, इतना तो हम जानते ही हैं कि मग गौमत ने ईरानियों के धर्म स्थलों जिन्हें अयदान कहा जाता था, को नष्ट किया था। बाद में दारा ने इनका पुनः उद्धार किया। अब यदि मग उस काल में जटतुश्त धर्म (Zoroastrian) को मानने वाले होते तो वे अपने ही धार्मिक स्थलों को कदापि नष्ट न करते। इससे यह स्पष्ट होता है कि मग धर्म जटतुश्त धर्म से सर्वथा भिन्न धर्म था। बाद में चल कर पूर्ववर्ती मग जटतुश्त धर्म के प्रचारक भी बन गए थे। हमें यह भी ध्यान में

77. Ency. Brit. XVIII, p. 175; op. cit., p. 409.
78. ibid., p. 411, also JA, 1912, p. 117-132.
79. JRAS, 1915, p. 791.

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रखना चाहिये कि पारसी परम्पराएं यह कहती हैं कि जटतुश्त ने अपने नये धर्म का प्रथम उपदेश अपने तुरानी मित्रों को दिया था।80 राजा गुस्तास्प जो कि इस धर्म में परिवर्तित होने वाला प्रथम राजा था वह सुसा पर नहीं बल्कि बल्ख पर शासन कर रहा था। उस समय का राजकीय शासक वर्ग जिसे अरिजन्तोई (Arizantoi) कहा जाता था उन्हें स्पष्ट रूप से जाट कहा गया है, वे आर्य जाट थे, (जन्तोई, जतोई, जते)।
भारत में सूर्य उपासना की सम्पूर्ण अवधारणा मध्य एशिया के जाटों के मग अथवा मंजूशी पुरोहितों से सम्बन्धित है। इन पुरोहितों को शक दीप के ब्राह्मण कहा गया है। भविष्य पुराण इन के कर्म व धर्म से भरा पड़ा है। यह बात अत्यधिक महत्वपूर्ण है कि भारत के लोग चिरकाल तक वेदों में से पहले तीन वेदों को ही शुद्ध वेद मानते रहे और चौथे वेद को वेद माना ही नहीं जाता था। जब इन मग पुरोहितों को ब्राह्मण के रूप में स्वीकार कर लिया गया तो अथर्व वेद को पूर्ण वेद माना गया और इस तरह वेदों का चतुष्टय बना अर्थात्‌ वेद चार मान लिये गये।81 इस बात के भी प्रमाण मिलते हैं जो स्वयं चाणक्य के मग ब्राह्मण होने की ओर संकेत करते हैं और सम्भवतः इसी कारण से चाणक्य वेदों की अपेक्षा आनविक्षकी को अधिक महत्व प्रदान करता था और यही कारण है कि चाणक्य अथर्वन मंत्री को ही राजा का सर्वोच्च मार्ग-दर्शक मानता था। यहां तक कि अथर्व वेद का पूर्ण नाम अथर्वांगरिस है। हम यह जानते हैं कि अंगिरस निश्चित रूप में भृगुओं की तरह ही सूर्य उपासक हैं। चतुर्थ वेद परम्परागत रूप में भारतीय होने की अपेक्षा ईरानी अधिक है। विष्णु पुराण के अनुसार श्री कृष्ण का पुत्र शम्ब सूर्य मंदिरों में पुरोहितों का कार्य करने के लिये शक द्वीप से मग पुरोहितों के 18 परिवारों को लेकर आया था। इस संदर्भ में हमें इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि ये पुरोहित परिवार ईरान से नहीं अपितु शकद्वीप से लाये गये और शक द्वीप शकों का ही क्षेत्र था। यह बात दूसरी है कि इतिहास में आगे चलकर यह क्षत्र ईरानी साम्राज्य के अधीन हो गया। लेकिन इस से यह क्षेत्र और यहां के लोग ईरानी या जटतुश्ती नहीं हो जाते, वे तो शुद्ध एवं सहज रूप में मग ही थे और यह उनका अपना धर्म था।
भगवान बुद्ध से सम्बन्धित स्पूनर के विचार के साथ हम यद्यपि निश्चय के साथ कुछ नहीं कह सकते, किन्तु हम अन्तर्मन से उसके इस कथन के साथ सहमत हो सकते है कि पर्सीपोलिस (Persipolis) मौर्यों का "पैतृक स्थल" था।82 वे मण्ड साम्राज्य के जन्तोई शासक परिवारों से सम्बन्धित थे।
अब प्रश्न यह उठता है कि मैगस्थनीज़ और चाणक्य द्वारा मौर्यों के विदेशी मूल की बात क्यों नहीं कही गई। इस प्रश्न का उत्तर तो अत्यधिक सरल है। चाणक्य तो स्वयं आप्रवासियों में से एक था। जहां तक मैगस्थनीज़ का सम्बन्ध है, वह यूनानी था और

80. Bulsara, JCOI, 1942, No. 35, p. 84-85.
81. Spooner, op. cit., p. 423.
82. ibid., p. 409.

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उस के काल में ईरान के लोग भारत के शासकीय कबीलों से मिलते-जुलते थे। (इस खण्ड के अन्त में टिप्पणी क्रमांक III भी देखे) और फिर यह भी कि मैगस्थनीज़ के समय तक आते-आते ये लोग "यहां पूरी तरह बस चुके थे और भारतीय समाज के साथ इतने घुल-मिल चुके थे कि उन्हें आज भी परिभाषा में विदेशियों के रूप में देखा ही नहीं गया। उन्हें भारत में रहते हुए शताब्दियां हो चुकी थीं।83 इस संदर्भ में हमें यह भी याद रखना चाहिये कि मौर्य अथवा अन्य जाट मण्ड साम्राज्य के वंशज थे और उन्हें अकबटाना से भागना पड़ा था। अतः जब उन्होंने भारत में साम्राज्य की स्थापना की तो वह अपने मूल नगर अकबटाना का अनुकरण कर रहे थे जहां उन्होंने देवक के नेतृत्व में 7 शताब्दी ई.पू. में अपना साम्राज्य स्थापित किया था। वह ईरान के मध्य में शासन कर रहे थे। खुश तथा दारा के पूर्वज उनकी अधीनता में रहने वाले लोग थे। अतः इसमें कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिये कि कई विद्वानों द्वारा उन्हें व्यावहारिक रूप में ईरानियों की तरह ही देखा गया। इसलिये मौर्यों को उचित रूप में भारत में एक "पादप-गृह" की संज्ञा प्रदान की गई है और अकबटाना से उनके भारत के इस पादप-गृह में प्रत्यारोपण के बाद जाट भारत के सांस्कृतिक वल्लरी पर आरोपित कर दिये गए और इस तरह वे भारतीय मुख्य धारा का ही एक अंग बन गये।
इस संदर्भ में ईरान व इसके पड़ौसी देशों का इतिहास भी स्पष्ट हो जाता है। इसमें यह भी स्पष्ट होता है कि खुश महान ने किस मन्तव्य के साथ कैस्पियन सागर के पास दहियों अथवा मस्सा जाटों के विरुद्ध युद्ध छेड़ा जिसमें उसे अपनी जान से हाथ धोना पड़ा। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि दारा ने विर्क, कंग तथा अन्य जाट कबीलों के साथ अपने साम्राज्य के पूर्वी ओर तथा साथ ही कृष्ण सागर के पास सिथिया के जटों के विरूद्ध भारी तैयारी के साथ आक्रमण क्यों किये। विशेषकर इससे उन साहसिक खोज यात्राओं का उद्देश्य भी स्पष्ट हो जाता है जो दारा के आदेश पर जल सेनापति स्काईलैक्स (Scylex) ने भारत में सिंधु नदी से समुद्र पर्वत तक कीं। इन ईरानी सम्राटों ने अकबटाना का साम्राज्य तो प्राप्त कर ही लिया था लेकिन जब तक सिंधु क्षेत्र से लेकर कृष्ण सागर तक बसे जाटों का दमन न किया जाए तब तक ईरानी सम्राट स्वयं को सुरक्षित नहीं समझते थे। दारा यह अच्छी तरह जानता था कि बहुत से जाट कबीले पंजाब की ओर भाग गये हैं। दारा ने इस बात की भी कड़ी आवश्यकता अनुभव की होंगी कि उनके नये आवास क्षेत्र के सभी विवरण जानने के लिये सिंध के मैदानों, घाटियों एवं नदियों की पूर्ण खोज होनी चाहिये। इस उद्देश्य के लिये स्काईलैक्स को 515 ई. पू. में भेज गया था। यह भी सर्व विदित है कि स्काईलैक्स ने जो कुछ भी वहां देखा, उस का पूरा विवरण दारा को भेजा और उसके बाद ही दारा ने सिंधु के पास अपने पूर्व शत्रुओं पर आक्रमण किया होगा। यही कारण रहा कि भारत के कई भाग, विशेषकर सिंधु के पश्चिम में स्थित

83. ibid., p. 430.

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क्षेत्र, को ईरानी साम्राज्य में मिला लिया गया। स्काईलैक्स के अभियान को किसी वैज्ञानिक उद्देश्य से प्रेरित हो कर नहीं भेजा गया था। इसका उद्देश्य मिला विशुद्ध रूप से राजनैतिक एवं सैनिक था। यह दारा के भारत पर आक्रमण की पूर्व तैयारी थी। (इस खण्ड के अन्त में टिप्पणी IV भी देखें) क्या इससे यह तथ्य भी स्पष्ट होता है कि ईरानी इसलिये भारत में और आगे नहीं बढ़ सके क्योंकि उनके शत्रु केवल सिंधु नदी के पास ही केन्द्रित थे ?
इस सम्बन्ध में कई एक प्रश्नों के उत्तर भी देने आवश्यक हैं। उदाहरण के लिये भारत के मध्य एवं उत्तर पश्चिम क्षेत्रों में ही गणतन्त्र राज्य क्यों स्थापित हुए जहां आज भी जाटों का बाहुल्य है। इस गणतांत्रिक भावना को पूर्वी तथा दक्षिणी भारत के भागों में अभिव्यक्ति क्यों नहीं मिली ? हमें इस बात का भी स्पष्टीकरण देना होगा सप्त सिंधु का क्षेत्र जो वैदिक आर्यों का गौरव था एकाएक कड़ी निन्दा का विषय क्यों बन गया?84 हमें इस बात का भी उत्तर देना होगा कि बिना किसी उच्च नीच के भेदभाव से भारत एक जाति रहित समाज कैसे बन गया? इन प्रश्नों के उत्तर केवल छठी और सातवीं शताब्दी ई.पू. में तथा इसके बाद भी जाटों के उत्तर पश्चिम भारत में आगमन से ही मिल सकते हैं।
अधिकांश ब्राह्मणीय लेखकों द्वारा मौर्यों की निन्दा सर्व विदित है और उसके विषय में पहले भी लिखा जा चुका है। ब्राह्मणों का मौर्यों के प्रती व्यवहार बौद्धों और जैन लेखकों के उनके प्रति व्यवहार से सर्वथा विपरीत है। "मुद्रा राक्षस" में चन्द्रगुप्त के लिये वृषल शब्द का प्रयोग किया गया है जो एक अपमानजनक शब्द है। ऐसा दिखाई देता है कि इस शब्द का प्रयोग पातंजली द्वारा ई.पू. दूसरी शती में आरम्भ किया गया। हेमाद्री की विख्यात चतुवर्ग चिन्तामणि में भी वृषलों को अधर्मी कहा गया है।85 महाभाष्य में पातंजलि ने वृषलों को समाप्त करने के लिये यह आह्वान किया था 'जेयोः वृषल' अर्थात्‌ वृषलों को जीतो। पातंजलि जानता था कि वृषल अत्यधिक शक्तिशाली हैं और उन पर किसी-न-किसी तरह विजय प्राप्त करनी ही होगी। पंडित भगवत दत्त ने पातंजलि के इस आह्वान पर प्रश्न करते हुए कहा है कि गम्भीर मनन की आवश्यकता है।86 पंडित भगवत दत्त इस पर गम्भीर मनन किये बिना ही इस प्रसंग को यहीं छोड़ देते हैं, परन्तु हमें इसका उत्तर ढूंढना होगा। यह आह्वान इसलिये किया गया या क्योंकि मौर्य विदेशी आगन्तुक थे और वे भारत पर शासन कर रहे थे। विशेष रूप में वे हिन्दुवाद के परम्परागत सामाजिक, धार्मिक तथा राजनैतिक विचारों का अनुकरण नहीं कर रहे थे। अतः उक्त आह्वान किया गया, जो उस समय के अनेक भारतीयों के अन्तर्मन में उठ रही भावनाओं की ही प्रति ध्वनि थी। इसका सम्बन्ध आगे

84. V.S. Agarwal, op. cit., 62; Vidyalankar, Bhartiya Itihas, p. 414-515; Buddha Prakash, Political and Social Movement .... , p. 229.
85. III, Sec. 2, p. 771.
86. BBKI, Vol. II, p. 265.

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चल कर परवर्ती काल के इतिहास के साथ भी बैठता है। हम जानते है कि मौर्य सेना के ब्राह्मण सेनापति पुष्यमित्र शुंग ने सेना की परेड़ दिखाने के बहाने मौर्य समाट बृहद्रथ की हत्या कर दी। स्पष्ट रूप से पुष्यमित्र उस आह्वान को मूर्त रूप दे रहा था जो उस के पुरोहित पातंजलि ने किया था क्या युग पुराण में भी ऐसा आह्वान नहीं किया गया था? यह घोषणा करते हुए, कि मौर्य स्वयं को सदाचारी कहते हैं किन्तु वास्तव में वह सदाचार से शून्य हैं तथा उन्होंने "हमारे देश" का क्रूरता के साथ दमन किया है।87 यहां आ कर तो सारी बात पूर्ण रूप से स्पष्ट हो जाती है कि मौर्यों को इस बात के लिये दोषी माना जा रहा है क्योंकि वे उनके देश (जिसे युग पुराण में "हमारा देश" कहा गया है) का दमन कर रहे थे, क्योंकि "हमारा देश" अर्थात्‌ भारत से उनका सम्बन्ध नहीं था।
अकबटाना के राज सिंहासन के उत्तराधिकार पर जो युद्ध लड़ा गया उस के विषय में हमारी की गई टिप्पणियों की पुष्टि निम्न तथ्यों द्वारा भी होती है-
(क) सायरस का पुत्र कम्बीश (Cambyses) गौमत द्वारा सिंहासन छीन लिये जाने का समाचार सुनता है और वह राजधानी अकबटाना में प्रवेश नहीं कर सकता। सीरिया में वह अपनी मृत्यु शैय्या पर से अपने ईरानी अनुयायियों का आह्वान इन शब्दों में करता है, "भगवान के नाम पर.......मैं तुम सब को आदेश देता हूं...... कि तुम निरीह बन कर राज्य को मण्डों के हाथों में न जाने दो.......इसे पुनः प्राप्त करो, किसी भी तरह... शक्ति से या छल से...... ।"88
(ख) "जब स्काईलैक्स का अभियान पूरा हो गया, दारा ने भारतीयों पर विजय प्राप्ति के लिए समुद्री रास्तों का प्रयोग किया।"89 इस से सिद्ध होता है कि स्काईलैक्स का अभियान वास्तव में भारत के जाटों पर हमले की तैयारी था।
(ग) हम जानते हैं कि कम्बीश की मृत्यु के बाद तथा इस से पूर्व कि दारा सिंहासन को पुनः प्राप्त कर सके, साम्राज्य के भिन्न भागो में 19 विद्रोह हुये। इन विद्रोहों के मुख्य केन्द्र थे, अर्मीनिया, मीडिया, आर्कोसिया, सोगर्तिया, पर्थिवा तथा हिर्कीनियाफ्रावर्ती नाम के मण्ड ने इस दावे के साथ विद्रोह किया "मैं हुवाक्षत्र के कुल का क्षत्रिय हूं।" जो मण्ड सेना मेरे साथ थी, उस ने मेरे विरुद्ध विद्रोह कर दिया। वह फ्रावर्ती के साथ जा मिली। वह मेडिया का राजा बन बैठा।" ऐसा दारा कहता है चित्रतख्म ने भी उसी आधार पर विद्रोह किया कि वह भी हुवाक्षत्र का वंशज है। पर्थिया तथा हिर्कीनिया (विरकों के क्षेत्र) ने दारा के विरुद्ध विद्रोह किया और फ्रावर्ती के समर्थन की घोषणा की। वाह्यज दात ने यूतिया में विद्रोह किया तथा वह ईरान के उस भू-भाग का शासक

87. Mankad quotes in SIH&C, p. 198.
88. Herodotus, BK. III, Chap. 65.
89. Rawlinson on Herodotus, Vol. III, p. 31.

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बन बैठा उस ने आर्कोसिया में सेना भेजी। अर्मीनिया ने कम-से-कम पांच युद्ध लड़े और फ्रावर्ती ने कम-से-कम तीन लड़ाइयां लड़ी। यह बात महत्वपूर्ण है कि इन में से अधिकांश विद्रोही मण्ड के शासक हुवाक्षत्र के वंश के समर्थक थे। वाह्यजदात दारा को पूर्वी क्षेत्र से दूर रखते हुये फ्रावर्ती द्वारा शासित क्षेत्रों से सम्पर्क करना चाहता था। दारा के बेहिस्तुन शिलालेख से ये तथ्य लिये गये हैं। इस से हमारी बात और भी अधिक स्पष्ट होती है कि अकबटाना के सिंहासन के लिये ये सभी युद्ध उन नेताओं के नेतृत्व में लड़े जा रहे थे जो मण्ड साम्राज्य के समर्थक थे। वे अन्ततः असफल रहे और इन युद्धों में दारा विजयी रहा।
और अन्त में हम यह भी कह दें कि मौर्य वंशी तो प्राचीन मण्ड साम्राज्य के पूर्व में भी पाये जाते रहे हैं। बहुत समय पूर्व हम उन का उल्लेख मुरू अथवा मोर के रूप में मिस्र-वासियों के शिला लेख और धर्म ग्रन्थों में पाते हैं। वहां इन मोरों को अमरू/अमोर तथा अमोरिट कहा गया है। यहां यह स्पष्ट कर दिया जाए कि "अ" का प्रथम स्वर इन नामों के पूर्व इसलिये लगाया गया ताकि शामियोंa के लिये इस का उच्चारण सरल हो सके।90 अतः इन लोगों के शुद्ध नाम जानने के लिये प्रथम स्वर "अ" की ओर ध्यान नहीं देना चाहिये। यह शुद्ध नाम मूर तथा मोर ही रहता है। यूरोप का मूर (Moor) नाम भी बिल्कुल इसी नाम के अनुरूप है और यही नाम भारतीय जाटों के मोर कबीले का है। जब इन लोगों ने मिश्र की ग्यारहवीं राजवंश के शासक पर हमला किया तो इन लोगों के बारे में मिश्रवासियों ने विशिष्ट रूप में कहा कि ये "जती" (Djati) भूमि के लोग हैं।90(a) हम ने इसी कृति में एक आगामी अभ्यास "जाटों की प्राचीनता" में यह दिखाया है कि यह जती लोगों की भूमि वही है जिसे गुती की भूमि भी कहा गया है जिसका स्पष्ट अर्थ जाटों की भूमि से ही है। अतः मोर अथवा मूर ई.पू. 21वीं शताब्दी में जाटों के रूप में ही वर्णित हैं। (इस खण्ड के अन्त में टिप्पणी क्रमांक V भी देखें) अतः यह स्वाभाविक ही है कि जब ये लोग मध्य एशिया से भारत आये और यहां इन्होंने मौर्य साम्राज्य को स्थापित किया तो इन का मन अभी यहां नहीं लगा था, इसलिये इनको भारत में एक "कांच गृह" की संज्ञा दी गई, जिस के बारे में हम इस अध्याय में पहले ही स्पष्ट कर चुके हैं कि इन्हें यह संज्ञा क्यों कर प्रदान की गई। अतः हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि मोर, मूर, मौर्य वही लोग थे जो ई.पू. 21 वीं शताब्दी में मिश्र पर हमला कर रहे थे और जो मिश्रवासियों व अन्य लोगों द्वारा जाट कहे जाते थे। यही लोग थे जिन्होंने भारत में मौर्य साम्राज्य स्थापित किया और ये ही वे लोग हैं जिन के वंशज वर्तमान में जाटों के कबीले के रूप में पाये जाते हैं।
मध्य एशिया और विशेष रूप में मौर अथवा मौरव (आज का मर्व नगर) के साथ मौर्यों की समरूपता का सम्बन्ध भारतीय साहित्य में उपलब्ध प्रसंगों से और भी पुष्ट

(a). शामी = Semitic.
90. CAH, Vol. III, p. 194.
90(a). CAH, Vol. I, Part. 2, p. 535.

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होता है। "महाभारत" व "पुराणों" में इन लोगों को, और इन के देश को, मुर अथवा मूर कहा गया है। व्यावहारिक रूप में इस शब्द का यही रूप असीरियाई पुरालेखों में भी पाया जाता हैं। भारतीय साहित्य में इन्हें असुर भी कहा गया है जो आर्यों की ही एक शाखा मानी गई है क्योंकि "शतपथ ब्राह्मण" इस प्रसंग में यह कह रहा है "देवाश्च असुराश्च उभये प्रजापत्ये" अर्थात देव तथा असुर दोनों प्रजापति से उत्पन्न हुए।
यह भी कहा गया है कि मूर एक असुर था जो कश्यप प्रजापति का पुत्र था91 तथा वह प्राग्ज्योतिष का संरक्षक था जो कि नरकासुर की राजधानी थी। उस ने राजधानी की रक्षा के लिये उस के गिर्द 6000 रस्सों की बाड़ निर्मित की हुई थी। पुराणों में इसे "मौरवपाश"92 कहा गया है। वह मुर असुर महामेरू पर जाता है महामेरू पर वह यक्षों और गन्धर्वों को युद्ध की चुनौती देता है लेकिन उस की चुनौती कोई स्वीकार नहीं करता। तदोपरान्त मुर असुर इन्द्र के पास जाता है और उसे भी राजधानी में युद्ध करने के लिये ललकारता है। इन्द्र की राजधानी अमरावती है। इन्द्र को वह इन शब्दों से ललकारता है, "या तो मुझ से युद्ध करो या फिर यह जगह छोड़ दो।" इन्द्र ने मुर असुर के साथ युद्ध नहीं किया और वह अमरावती से चला गया और मुर वहां पर लम्बे समय तक शासन करता रहा। अन्ततः मुर अपने स्वामी नरकासुर के साथ श्री कृष्ण के हाथों मारा गया।93 इन्द्र की राजधानी अमरावती पर मुर के आक्रमण की पुष्टि स्कंद पुराण से भी होती है जहां लिखा गया है कि उग्र और मयूर ने इन्द्र की राजधानी पर आक्रमण किया। यहां भी अन्य पुराणों की तरह मुर के नाम का संस्कृत-करण करते हुए मयूर कर दिया गया और ऐसा किया जाने के कारण पहले ही बताये जा चुके हैं। दूसरा नाम उग्र है, यह भी एक कबीले का नाम है, जैसे यूनानी लेखकों के अग्री और सोवियत मध्य एशिया के उईघुरमुर के रस्सों का नाम जिन्हें मौरवपाश कहा गया है, यह भी वही नाम है जो ईरानी पुरालेखों में एक नगर तथा कुल का नाम है अर्थात्‌ मौरव। इस प्रकार असीरिया के पुरालेखों के अनुसार मुर तथा नरक, मुर तथा नैरी के समरूप है जोकि आधुनिक काल के मौर तथा नारा जाटों के कुल हैं यह क्षेत्र निश्चित रूप में भारत के पश्चिम में, बल्कि भारत के उत्तर-पश्चिम में स्थित है। और प्राग्ज्योतिष इस की राजधानी थी। महाभारत काल में इस पर भागदत्त का शासन था, जिसे यवनों तथा असुरों का राजा कहा गया है। वह पाण्डु का मित्र था।94 उस ने युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में भाग लिया था।95 अर्जुन ने उसे उत्तर में पराजित किया।96 इस युद्ध में वह अर्जुन द्वारा मारा

91. Vamana Purana, chap, 6.
92. MBT, Sabha Parvan, chap. 38.
93. Bhagvata, X Skandha.
94. Sabha Parvan, op. cit., 14/14.
95. ibid., 51/14.
96. ibid., 26/7.

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गया।97 भागदत्त का पुत्र वज्रदत्त भी अर्जुन द्वारा मारा गया।98 महाभारत के सभापर्व में मुर तथा नरक दोनों ही पश्चिम क्षेत्र में शासन करते हुए बताये गये हैं।99
इस विचार विमर्श से पूर्ण रूप से यह सिद्ध हो जाता है कि मुरों का देश भारत के उत्तर पश्चिम भाग में स्थित था और आजकल मरवनगर की पहचान उन की प्राचीन राजधानी के रूप में स्थापित की जा सकती है। जैसा कि पहले कहा जा चुका है कि इस को ईरानी साहित्य में मौरव तथा मौर कहा गया है।
परवर्ती काल में हम मौर कबीले को राजस्थान क्षेत्र में शासन करता हुआ देखते हैं। चित्तौड़ के मौर राजाओं के नाम महेश्वर, भीम, भोज तथा मान कहे गये हैं। 8वीं शताब्दी में वह कोटा में भी शासन करते हुये पाये जाते हैं। 738 ईस्वी के एक शिला लेख में वहां के एक राजा का नाम धवल मौर के रूप में पाया गया है।100 एच.सी. राय के अनुसार चित्तौड़ के मौर तथा मौरी शासक राजपूतों की परमार शाखा से सम्बन्धित थे।101 यह तर्क सही नहीं है क्योंकि परमार तथा मोर दो भिन्न कबीले हैं और इन में कोई भी एक दूसरे का भाग नहीं है। यह तर्क तो बिल्कुल वैसा ही है जैसे यह कह दिया जाये कि नेहरू वंश गांधी कुल से सम्बन्धित है। Glossary of Tribes & Castes में मोरों को राजपूत कबीला नहीं कहा गया है। वे विशुद्ध रूप में एक जाट कबीला है।
चितौड़ के परवर्ती मौर्यों के विषय में एच.सी. राय फिर यह धारणा व्यक्त करते हैं कि मौर्य परमारों की एक उप-शाखा थे।102 वह इस सम्बन्ध में यह भी कहते हैं कि परमार राष्ट्रकूटों के अकाल वर्ष कृष्ण राज (888 ई. दक्षिण गुजरात) के माध्यम से वंशज थे।103 यह मत "The Classical Age" के लेखकों द्वारा भी व्यक्त किया गया है।
ये सभी मत निरर्थक हैं और इन के दावे कोरे खोखले इसी तथ्य से स्वतः प्रमाणित हैं कि अत्यन्त प्राचीन मौर्यों के लिये 9वीं या 10वीं शताब्दी के परमारों तथा राष्ट्र कूटों की उप-शाखा बनना असम्भव था। मौर्य तो तब भी शासन कर रहे थे जबकि इन परवर्ती लोगों के नामों ने दिन का प्रकाश भी नहीं देखा था।
ये मत एवं धारणाएं आधुनिक इतिहासकारों की दयनीय स्थिति का परिणाम हैं जिन्हें राजपूतों के अतिरिक्त और कुछ दिखाई ही नहीं देता और वे हर शासकीय परिवार का सम्बन्ध राजपूत शब्द के साथ स्थापित कर देते हैं हालांकि वे यह भी मानते हैं कि

97. Drona Parvan, 29/48.
98. Ashvamedha Parvan, chap. 76.
99. op. cit., 13/13.
100. IA, Vol. XIX, p. 55-57.
101. Dynastic History of North India, I, p. 5-6 (notes).
102. ibid., p. 1154.
103. ibid., p. 842.

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राजपूतों का मूल अभी अपने आप में ही निश्चित नहीं है। हां यह तो हो सकता है कि कुछ मौर्य परिवारों को 9वीं शताब्दी के बाद राजपूत मान लिया गया हो जो परमार शासित क्षेत्र में बसे हुए थे।

टिप्पणी I

इस संदर्भ में यूनानियों द्वारा एक राजकुमार का नाम अस्सगत देना महत्वपूर्ण है क्योंकि अस्सगत एक व्यक्ति का नाम {न} हो कर इस राजकुमार के कुल अथवा कबीले का नाम है। इस शब्द का मूल ईरानी अभिलेखों तथा हेरोडोटस के अनुसार असगर्त है और इसी कुल नाम पर उस देश को सगर्ति (ईरानियों का असिर्गितया) कहा जाता था। यूनानियों ने इन लोगों को सगर्त कहा, ईरानियों द्वारा इन्हें असगर्त कहा गया। इस कुल का नाम दो अक्षरों से मिल कर बना है अर्थात्‌ अस अथवा असीगर्त जिन का अर्थ है असी जाट। वर्तमान काल में इन का नाम असियाग हो गया है। हांसी नगर इन्हीं लोगों द्वारा बसाया गया था, इस नगर का मूल नाम असिका था। इतना हम जान चुके हैं जब असगर्तों ने अकबटाना में जाट साम्राज्य पुनः स्थापित करने के लिये दारा महान्‌ के विरुद्ध विद्रोह किया तो उस का राजा चित्रतखम (संस्कृत रूप चित्रत क्षम) था। यहां शब्द गर्त जिसे यूनानियों ने गत (Gat) के रूप में लिखा और जो संस्कृत में जर्त अथवा गर्त लिखा गया वह वर्तमान शब्द जाट ही है। सिकन्दर महान्‌ के विरुद्ध असगर्तियों ने जो शौर्यपूर्ण युद्ध किया उस का विवरण सुरक्षित है।104 ये असगर्त योद्धा ही थे, जिन के हाथों युद्ध में सिकन्दर घायल हुआ था।
जहां तक असी शब्द का सम्बन्ध है, सभी इस बात को स्वीकार करते है कि यह शब्द सिथियों का प्रतिनिधित्व करता है। मथुरा में कटरा केशव देव में एक बौद्ध प्रतिमा की चौकी पर अभोहा नाम की एक महिला का नाम अंकित पाया गया है जिसे असी भी कहा गया है। इस शब्द कि समरूपता संस्कृत के शब्द ऋषिका अर्षिका से भी बैठाई जा सकती है, जोकि शक लोगों के लिये प्रयुक्त हुआ है। यूनानी शब्द (Asioi/Asaini) असियोई अथवा असियानी भी उसी धातु से निर्मित है।105 गर्त का अर्थ घुड़सवार व रथ सवार भी है।

टिप्पणी II

यह तथ्य कि हखमनी लोग अकबटाना में कला-शैली, राज-काज, वेश भूषा तथा अस्त्रों-शस्त्रों के मूल निर्माता नहीं थे, हेरोडोटस द्वारा पूर्ण रूप से पुष्टि प्राप्त करता है। वास्तविकता तो यह है कि ये सब बातें उन्होंने अपने पूर्व शासकों अर्थात्‌ मण्डों से प्राप्त

104. The Age of Nandas and Mauryas, p. 51.
105. H. W. Bailey, Asica, 1943, p. 2-3; P & SM, p. 96, note-43.

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कीं जिन्होंने राजधानी का निर्माण किया था। हेरोडोटस इस बात का भी उल्लेख करता है कि ईरानियों ने मण्डों का पहनावा अपनाया।106 वह यह भी कहता है कि उन्होंने जाटों से ही अस्त्र-शस्त्र ग्रहण किये।107
परसीपोलिस के खण्ड़हरों से हज़ारों ऐसे पाषाण फूलदानों के टुकड़े मिले हैं, जिन में से कुछ पर बत्तखों तथा हंसों के सिर मण्ड़ित हैं जो निश्चित रूप से शक कला चिन्ह हैं।108

टिप्पणी III

यह बात एक तरह से सुनिश्चित मान ली गई है कि मैगस्थनीज़ पाटलिपुत्र के राजा को एक विदेशी राजा नहीं मानता। क्या वास्तव में सचमुच ही यह बात है ? क्या मैगस्थनीज़ ने स्पष्ट रूप से यह नहीं कहा कि उन्हें प्रसयी कहा जाता था जिस का अर्थ बैठता है "परस या पर्सिया से" ? आइये हम इस बात पर कुछ विचार करें। जो अंश यहां उद्धृत किये गये है, वे मेकक्रिन्ड़ल की कृति Ancient India as described by Megasthenes & Arrian से लिये गये हैं जिन का सम्पादन राम चन्द्र जैन ने किया है।
खण्ड 26 के अनुसार, "भारत में सब से बड़ा नगर महानगर वह है जिसे पलिम बोथरा कहा जाता है, जो प्रसियों के राज्य में स्थित है........ ।109
सट्राबो अरियन तथा पलिनी इस शब्द को प्रसई कहते हैं। प्लूटार्क इसे प्रेसियोई कहता है। यह नाम एलियन तथा निकोलन्स दमस द्वारा भी प्रयुक्त किया गया है।110 अब सन्द्रोकोटस अर्थात चन्द्रगुप्त के राज्य को प्रसी का राज्य भी कहा गया है। इसे इस की राजधानी के नाम पर पलि बोथरा का राज्य भी कहा गया है। खण्ड 56 के अनुसार Jomanas (यमुना) नदी पलिबोथरी (पाटलीपुत्र) से बहती हुई मथोरा (मथुरा) तथा कारिसोबोरा के मध्य गंगा में जा मिलती है।111 करिसोबोरा सम्भवतः कृष्णापुर हो सकता है। यहां पर यमुना नदीमथुरा के बीच के क्षेत्र को पोलीबोथरी कहा है अर्थात्‌ मौर्य के प्रसी राज्य के अन्तर्गत।
इस के अतिरिक्त वही खण्ड आगे फिर कहता है, "सिंध नदी प्रसई की सीमाओं के साथ बहती है।" यहां पर निश्चित रूप से प्रसई राज्य की सीमाओं में सिंधु नदी तक पश्चिमी भाग शामिल किया है।
अब यदि संस्कृत के प्राच्य लोगों को प्रसई मान लिया जाये तो हम इस तथ्य को

106. op. cit., Bk. I, 135.
107. ibid., Bk. VII, 62.
108. R. Ghirshman, Iran, p. 176.
109. Mc Crindles, Ancient India......, p. 68.
110. ibid., p. 57.
111. ibid., p. 139.

पृष्ठ 169 समाप्त

कैसे समझा पायेंगे कि मध्य देश में मथुरा तथा उत्तरापध में सिंधु और पश्चिमी भू-क्षेत्र को भी प्रसई कहा है ? यदि सिंधु को प्राच्य (पूर्वी क्षेत्र) मान लिया जाये तो फिर भारत का पश्चिम छोर कहां हो सकता है और पश्चिमी भू-भाग कहां हो सकता है ? अतः स्पष्ट रहना चाहिये कि प्रसई प्राच्य लोगों अथवा प्राच्य भू-भाग का अर्थ व्यक्त नहीं करता।
कन्निंघम स्पष्ट रूप में इस तरह की जड़ व्याख्या से सन्तुष्ट नहीं था कि प्रसई संस्कृत के शब्द प्राच्य के लिये प्रयुक्त हुआ है। अतः वह इस के लिये एक भिन्न तर्क देता है। कन्निंधम कहता है, "स्ट्राबोपिलेनी इस बात पर अरियन से सहमत हैं कि पलिंबोथ्रा के लोगों को प्रसई कहा जाता था। इस शब्द को आधुनिक काल के इतिहास लेखकों ने एक मत हो कर संस्कृत के प्राच्य अथवा पूर्वीय शब्द के अनुरूप मान लिया। किन्तु मुझे ऐसा प्रतीत होता दिखाई देता है कि प्रसई अथवा प्रसी शब्द पलाश अथवा पराश का यूनानी रूप है जोकि मगध का वास्तविक एवं सर्व विदित नाम है। मगध ने यह नाम पलाश पुष्पों से पाया जो आज भी इस क्षेत्र में उतनी ही प्रचुरता से पाये जाते हैं जैसे कि ह्यूनसांग के काल में पाये जाते थे। इस नाम का सामान्य रूप परास है लेकिन जब इस का जल्दी से उच्चारण किया जाये तो यह प्रास के रूप में उच्चरित होता है और इसे मैं मूल यूनानी शब्द प्रसी के अनुरूप मानता हूं। यह व्याख्या Curtuis (कर्टियस) द्वारा इस शब्द की जो वर्तनी प्रस्तुत की गई है उस से भी पुष्ट होती है। कर्टियस इन लोगों को (फर्रासी) कहता है जोकि भारतीय नाम परासिया का विशुद्ध प्रतिरूप है।"112
हम नहीं जानते कि मगध को कब, कहां और कैसे पराश अथवा पलाश के नाम से जाना गया परन्तु इस से यह बात निश्चित रूप से सिद्ध होती है कि कन्निंघम प्रसी-प्राच्य समरूपता को नकारते हुये भी अंधेरे में ही रहा।
इस सम्बन्ध में कन्निंघम ने जो व्याख्या स्वयं रखी वह उस से बेहतर नहीं थी जिस को उस ने स्वयं रद्द किया था। हम यह कह चुके हैं कि मौर्य मोर जाट थे जो छठी शताब्दी {ई.पू.} के मध्य में सायरस द्वारा मण्ड साम्राज्य हथिया लिये जाने के बाद अन्य लोगों के साथ उत्तरी ईरान से आये थे। हम यह भी बता चुके हैं कि जाटों के कई कबीले आये और वे सायरस और दारा के युद्धों के काल में यहां आ कर सिंधु नदी के क्षेत्र में बस गये। मैगस्थनीज़ हमें समुचित रूप में प्रसियेन कहे जाने वाले देश के मान चित्र से सम्बन्धित पूर्ण जानकारी प्रदान करता है जो सिंधु नदी के मुहाने वाले क्षेत्र में स्थित था और इस ओर इतिहासकारों ने उचित ध्यान ही नहीं दिया। सिंधु और इस की सहायक नदियों का वर्णन करते हुये खण्ड 26 में कहा गया है, "यह एक विशाल द्वीप का निर्माण करता है जिसे प्रसिसन कहा जाता है और जो छोटा द्वीप है उसे पाताल (पटल) कहा जाता है।"113
अब यह सर्व विदित हैं कि पाताल, सिंधु नदी के मुहाने में स्थित था और यूनान

112. ibid., p. 205, note.
113. ibid, p. 141, ABORI (1937) Vol. XVIII, pt. &. II, pp. 158-165.

पृष्ठ 170 समाप्त

इतिहासकार हमें यह जानकारी प्रदान करते हैं कि 326 ई.पू. शताब्दी में पाताल पर एक मोर/मौर्य (Moeros) राजकुमार शासन कर रहा था। इतिहासकार यूले (Yule) प्रसियन क्षेत्र की पहचान उस क्षेत्र से स्थापित करता है जो नारा नदी द्वारा रोहरी के ऊपर से लेकर हैदराबाद तक तथा सिंधु के मुहाने114 तक घेरा हुआ था। ऐसा लगता है कि पातालप्रसियन क्षेत्र आपस में सटे हुये थे। अब यदि मोर जाट पाताल पर शासन कर रहे थे तो क्या यह कहना कोई अतिश्योक्ति होगी कि प्रसियन उन का प्रमुख गढ़ था? यह प्रसियन जो कि मोर कबीले का नया परिवेश गृह था, क्या इसी कारण से मैगस्थनीज़ ने उन्हें प्रसी नहीं कहा ? हमारे दृष्टिकोण में वास्तविक स्थिति यही है। ये लोग पर्शिया (ईरान) से आये। ईरानी शब्दावली में यह शब्द परस है। इसलिये इन के नये परिवेश गृह को प्रसियन कहा गया तथा उन्हें प्रसी जोकि आज के पारसी शब्द का शुद्ध समानांतर रूप है। हमें इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि 1200 वर्ष का लम्बा समय गुज़र जाने जाने पर भी आधुनिक पारसियों ने अपना नाम बराबर सुरक्षित रखा है। अतः इस में कुछ भी अस्वाभाविक नहीं कि मौर्यों के भारत आगमन के 200 वर्षों बाद भी उन्हें पारसी कहा गया और अब हम एक बार फिर कर्टियस (Curtius) का उद्धरण देना चाहेंगे जिस ने इन्हें फर्रसई कहा था। (आजकल के पारसी) जिस से हमारे उपरोक्त दृष्टिकोण की पुष्टि होती है। अतः चन्द्रगुप्त के राज्य को प्रसी कहा गया जोकि सिंधु नदी के मुहाने में मोरों के गढ़ प्रसियन में स्थित था और यह नाम उसे इसलिये दिया गया क्योंकि वे फारस (पर्शिया) से आए थे।
हम चलते चलते इस बात पर भी दृष्टिपात करेंगे कि मैगस्थनीज़ ने अनेक जाट कुलों का उल्लेख किया है। ऐसा दिखाई देता है कि इन कबीलों के नाम लिखते हुये उन के अन्त में पहले से लगी "इ" के साथ एक और "ई" जोड़ दी उदाहरण के रूप में लल्लि (Lalli) से लल्ली (Lallii) इसी प्रकार Prasi (प्रसि) से Prasii प्रासीई। इन खण्डों में वर्णित कुछ जाट कुलों के नाम दिये जा रहे हैं। यूनानी नाम के बराबर भारतीय नाम इस तरह दिये जा रहे हैं।


114. IA, Vol. V, p. 330.

पृष्ठ 171 समाप्त

6. कोसइरी (Kosyri)
खोसर जाट, तमिल साहित्य का कोसर जिस ने मौर्यों के साथ दक्षिण पर आक्रमण किया।
8. मन्डेइ (Mandei)


मण्ड जाट जिन्होंने अकबटाना का साम्राज्य खो दिया तथा सिंधु के क्षेत्र बस गये उन के नाम पर मैगस्थनीज द्वारा उस क्षेत्र को अमन्ड की भूमि कहा गया। वे मौर्यों के साथ मगध गये।
27. बुजै (Bugae)
बोज़दार बलोच, ईरानी बज (बकरी)


115. Tribes and Castes, Vol. III, p. 129.

पृष्ठ 172 समाप्त

31. बोलिंगै (Bolingae)
भुल्लर जाट, संस्कृत साहित्य का भुलिंग
42. सरंगेस (Saranges)
सरांघ/सरांह जाट वैदिक साहित्य के श्रंग्य
44. अस्सकेनोइ (Assakenoi)
असिक असियाठा जाट


यह तो नामों की समरूपता के कुछ सहज उपलब्ध उदाहरण हैं।

टिप्पणी IV

दारा द्वारा आक्रमण से पूर्व की गई तैयारी की पुष्टि हेरोडोटस भी करता है। उसने लिखित रूप में यह सुरक्षित रखा कि सिंधु क्षेत्र का क्षेत्रीय विवरण नदियों सम्बन्धी ज्ञान स्काईलैक्स द्वारा लाया गया था और दारा ने भारत पर आक्रमण करते हुये इस जानकारी का भरपूर प्रयोग किया था।

टिप्पणी V

भारत में इस आशय के कई प्रमाण उपलब्ध हैं जिन से यह पता चलता है कि मोर अथवा मौर्यों को जाट अथवा गुट (Gut) कहा जाता था। बहुत-सी कृतियों में चन्द्रगुप्त मौर्य को चन्द्रगुट्ट कहा गया है।118 अब तक निश्चित रूप से यह माना जाता रहा कि

116. ibid., Vol. III, p. 427.
117. ibid., p. 423; see also Vayu Purana, 47/14; and Matsya Purana, 121/45.
118. Mahavamsa, V, 16-17 and Vamsatthappakasini, I, p. 180.

पृष्ठ 173 समाप्त

यहां गुट्ट शब्द गुप्त का प्राकृत रूप है। क्या वास्तव में ऐसा ही है? हमें यह बात भी ध्यान में रखनी चाहिये कि कई मुद्राओं पर भी गुट शब्द अंकित है। गाट भी एक स्वतन्त्र जाट कुल का नाम है। कई अभिलेखों में शब्द गोटी पुत्र अंकित है अर्थात्‌ गोट, गुट, जाट का पुत्र।119 यहां जिस व्यक्ति को गोटी पुत्र कहा गया है और जो गोट अथवा गोत भी कहा गया है उसे कोदिन कुल का बताया गया है। यह कोदिन शब्द कादयान ही है जो बलोचिस्तान में एक स्थान का नाम है और आजकल का जाटों का कादियान कुल भी इसी शब्द से नाम पाता है। इसलिये हम यहां पर सुझाव देना चाहेंगे कि गुट्ट और गुप्त के सम्बन्ध में पुनः अध्ययन एवं अनुसंधान होना चाहिये।120

टिप्पणी VI

एच.सी.राय चौधरी अपनी पुस्तक Political History of Ancient India में कुछ तथ्यों का वर्णन मौर्यों के विषय में करते हैं उन से भी हमारे सिद्धान्त की पुष्टि होती है जो इस प्रकार है :—
"आदि पर्व में महाराज अशोक का उल्लेख एक महासुर अथवा एक बड़े राक्षस के अवतार के रूप में किया गया है तथा उसे "महावीर्यों पराजितः" बहुत शक्तिशाली एवं अजेय कहा गया है।"121
"मार्कण्डेय पुराण" के देवामहात्मय में मौर्य एक असुर जाति का नाम है। "कालक दौर्हृत मौर्य तथा काल्केय असुर मेरी आज्ञा का पालन करते हुये युद्ध के लिये तत्पर हो जाएं।"122 यहां पर मौर्यों को सुनिश्चित रूप से असुर कहा गया है जिससे उन के अभारतीय होने का संकेत होता है। इस के अतिरिक्त कालकेय की तुलना उस कलकल कुल से की जा सकती है जिस से वाकाटक राजवंश का संस्थापक विन्ध्य शक्ति से सम्बन्धित था। पुनः यह प्रश्न केवल प्रत्यय का ही है। परम्परागत रूप से "अल" प्रत्यय का ही प्रयोग वंशों के नाम के अन्त में किया जाता है किन्तु संस्कृत रूप में यहां पर "इय" प्रत्यय का प्रयोग किया गया है। पूर्व प्रत्यय के अनुसार नाम कलकल बन जायेगा। पुराणों में भी इसी शब्द का यही रूप ग्रहण किया गया है तथा कलकल एक जाट कुल का नाम भी है जोकि यू.पी. राज्य के मेरठ क्षेत्र में आज भी विद्यमान है।

पोरस

भारत के मौर्य-पूर्व इतिहास में पोरस का नाम एक किंवदन्ति का रूप बन चुका है। स्पितमा जो कि कंगों, वरिकों तथा दहियों का नेता था, जिस ने यूनानी सेना के पूर्ण

119. CII, Vol. III, p. 51.
120. See, Essays in Honour of Dr. Ganda Singh, 1976, p. 27. According to this study the Mauryas were from Punjab.
121. op. cit., p. 4.
122. ibid., 4, note 4.

पृष्ठ 174 समाप्त

खण्ड को ध्वस्त कर दिया था तथा अपना सिर सिकन्दर के आगे न झुकाने के कारण अपने ही लोगों द्वारा जिस का सिर मुंडा दिया गया था, इस स्पितमा के अतिरिक्त पोरस ही एक ऐसा दूसरा शासक था, जो न केवल सिकन्दर महान्‌ के विरुद्ध लड़ा अपितु जिस ने उस से पराजित होना भी स्वीकार नहीं किया और अन्ततः जिस ने सिकन्दर के साथ एक सम्मानजनक संधि की। "लम्बा कद राजसी चाल - ढ़ाल, साहस और शौर्य से ओत-प्रोत अन्तस, शत्रुओं को अपने भाले से प्रहार करने में सब से अग्रणी, और युद्ध क्षेत्र में भयावह आतंक....।" इसी महान्‌ योद्धा के जेहलम के युद्ध (326 ई.पू.) में प्रदर्शित साहसिक कारनामों को ताम्बे के पत्रों पर अंकित करवाया गया तथा उन्हें तक्षशिला के मंदिर में दीवारों पर सजाया गया।123 और बिड़म्बना यह कि भारतीय कृतियां अपने देश के इस महान वीर सपूत के प्रति मौन साधे हुये हैं।
जैसा कि सर्व विदित है "स" अथवा "एस" अथवा "ओस" अथवा "अस" प्रत्यय यूनानियों द्वारा अपने निजी नामों के साथ लगाये जाते हैं जैसे-भारतीय लेखकों के द्वारा कुल के नामों के साथ "क" का प्रत्यय लगाया गया है। इस "स" प्रत्यय की यदि अवहेलना कर दी जाये तो उस शूरवीर का नाम "पोर" हो जाता है। यही वह नाम है, जो यूनानी लेखकों द्वारा दिया गया है तथा सर्वसम्मति से यह निजी नाम न हो कर एक कुल का नाम है। यूनानी लेखकों द्वारा पोरस के भतीजे को भी पोरस ही कहा गया तथा स्ट्राबो से हमें इस बात का पता चलता है कि पोरस नाम के भारत के की एक अन्य राजा ने रोमन सम्राट आगस्तस सीज़र के दरबार में एक दूत भेजा था। इसी लिये यूनानी आलेखों के अनुसार न ही यह एक निजी नाम है, न ही एक राजवंश का नाम है। यह एक कुल का नाम है तथा यह कुल भारतीय जाटों में अब भी विद्यमान है तथा इसे पोर अथवा फोर कहा जाता है। उदाहरण के लिये वे हरियाणा राज्य के करनाल ज़िले में पाये जाते हैं।
ऐसा सम्भव है कि पोर कुल, पुरू नाम के वैदिक कुल से सम्बन्धित है, जिस में से पौरव शब्द की व्युत्पति हुई। वैदिक साहित्य के अनुसार पुरू भी ययाति का पुत्र था तथा उस के भाग में भारत आया जब जम्बू द्वीप में ययाति का साम्राज्य उस के पुत्रों में बांटा गया। हमें यह भी विदित है कि दश राजाओं की लड़ाई के पश्चात्‌ अनु, द्रुहयु, पुरू आदि। पश्चिमी देशों को चले गये तथा वहां पर राज्यों की स्थापना की। ईरानियों की अवेस्ता में कुल का नाम पौरू कहा गया है।124 क्या पुरू तथा पौर/पोर एक ही है, हम इस विषय में निश्चित रूप से कुछ नहीं कह सकते हैं कि यह बात पूर्णतः सम्भव है। उदाहरणार्थ सिद्धुओं को सिद्ध भी कहा जाता है। इसी प्रकार पोर को पोरू अथवा पुरू रूप भी दिया

123. R. C. Majumdar, Classical Accounts of India, p. 388; quoted SIH & C, 69.
124. SIH & C, p. 28.

पृष्ठ 175 समाप्त

जा सकता है। वराहमिहिर, "बृहत् संहिता" में तक्षशिला, पुष्कलावती, ऐलावत, कण्ठधाना, अम्बर, मद्र, मालव, पौर्व, कुच्छार, डण्डा तथा पिंगल लोगों का वर्णन करता है।125 {यह} सब लोग पंजाब अथवा उत्तरापथ क्षेत्र के हैं तथा किन्हीं विशेष नगरों अथवा देशों के लोगों के अतिरिक्‍त इस में जाटों के कुलों को नामांकित किया गया है ; अर्थात्‌ ऐलावत, अम्बाल, मल्ली, मदान, पौर, ढांडा तथा पंगालबुद्ध प्रकाश का यह मत कि राज कुमार पुरुरवर्श ऐल (जो रामायण के अनुसार मध्य एशिया में बुखारा से प्रव्रजन कर आया था) का सम्बन्ध पौरवों से है, सही नहीं जान पड़ता, क्योंकि उस राजकुमार के विषय में यह बात विशेषकर वर्णन की गई है कि वह ऐल कुल से सम्बद्ध है, जो वराहमिहिर द्वारा वर्णित ऐलावत है तथा आज के ऐलावत जाट। किन्तु प्रमाणों से यह सिद्ध होता है कि ऐलावत मध्य एशिया से प्रव्रजन करके आये। इस से हमारे इस सिद्धान्त की पुष्टि होती है कि समस्त जाट भारत में उस प्रदेश तथा साथ वाले क्षेत्रों से भिन्न-भिन्न समय तथा समूहों में प्रव्रजन कर आये। पोरस के सम्बन्ध में पर्वतक नाम के लोगों का वर्णन किया जाता है हेरोडोटस यह उल्लेख करता है कि ये पर्वतक एक पवर्तीय क्षेत्र जोकि मीडियों (मण्डों) का था उस पर निवास कर रहे थे।126 ये लोग द्रंगियाना, अर्कोसिया, सोदियाना तथा पूर्वी बक्तरा में भी बसे हुये थे।127 ये समस्त क्षेत्र जाटों के पारम्परिक देश थे तथा इस में आश्चर्य का कोई कारण नहीं कि पोर भारत में इन्हीं क्षेत्रों से आये। महाभारत में पौर्वों के प्रदेश का वर्णन "घोड़ों से घिरा" हुआ प्रदेश के रूप में किया गया है।128 यह उसी क्षेत्र की ओर संकेत है जो इन लोगों का प्राचीन निवास स्थान था क्योंकि घोड़ा अनादि काल से जाटों का एक अभिन्न अंग रहा है। यहां तक कि तैमूरलंग ने भी कहा है कि "एक जाट घोड़े के बिना शक्तिहीन है।"
"विष्णु पुराण" में यह वर्णन है कि मुण्ड कुल के तेरह राजाओं तथा मौन कुल के ग्यारह राजाओं के शासन के पश्चात, पौर कुल के ग्यारह राजा भारत पर शासन करेंगे।129 "वायु पुराण" में यह वर्णन है कि ग्यारह मलेच्छ तीन शताब्दियों तक पृथ्वी पर शासन करेंगे।130 इतिहास जोकि आजकल हमें उपलब्ध है, इन कुलों के किसी राजा का वर्णन नहीं करता। वह पौर राजा, जिस ने आगस्तस सीज़र के दरबार में दूत भेजा (स्ट्राबो के अनुसार) इन ग्यारह पौर राजाओं में से एक होगा। बी. उपाध्याय की А Study of Ancient Indian Inscriptions में यह कहा गया है "पौर जनपदम् जनान्‌" अर्थात्‌ पौर देश के लोग। इस से यह भी पता चलता है पौर/पोर भारत पर

125. op. cit., IV, 26-27.
126. op. cit. Bk. 1, 101.
127. SIH & C, p. 30-31.
128. MBT. II, 27, 14-15.
129. H. H. Wilson, op. cit., 380.
130. ibid., note 65.

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पहली शताब्दी ई. के लगभग राज्य कर रहे थे। एक अन्य महत्वपूर्ण तथ्य पर विचार करने की आवश्यकता है, वह यह कि उपरोक्त कृति में कुल का नाम "पौर" दिया गया है न कि "पौर्व"।
मुसलमान इतिहासकारों ने भी नाम पोर ही दिया है।131 दहल द्वारा देहली नगर की स्थापना किये जाने के पश्चात्‌ का वर्णन करते हुये फरिश्ता कहता है, "उस पर राजाफुर ने आक्रमण कर दिया जो कुमाऊं का राजा था जिसने सिकन्दर का रास्ता रोका था तथा दहल को बन्दी बनाने के विवरण ब्राह्मणी तथा अन्य इतिहासकारों के अनुसार हैं। फुर की मृत्यु के पश्चात्‌ संसार चन्द (चन्द्रगुप्त) ने अपने आप को भारत का अधिपति बना लिया। फुर के भतीजे जूना ने अपने सिंहासन को पुनः प्राप्त कर लिया तथा कन्नौज पर राज्य किया।"132 यहां पर हमें इस तथ्य पर ध्यान देने की आवश्यकता है कि डाहल अथवा ढ़िल, फुर, जूना तथा निस्संदेह चन्द्रगुप्त मौर्य, ये सब ढिल्लों, पोर/फोर जून तथा मौर्य कुलों के जाट हैं। यह भी सम्भव है कि मुसलमान लेखकों का जून कल्हण की राजतरंगिनी का "जलौक" हो जिस में स्पष्ट रूप से कहा है कि जलौक (जोकि कश्मीर में अशोक का उत्तराधिकारी था) ने कन्नौज (कान्यकुब्ज) तक देश को विजय कर लिया।133 "इस का यह तात्पर्य है कि मगध के पाटलिपुत्र में, अशोक के उत्तराधिकारी ने, भारत के पश्चिमी भाग, कान्यकुब्ज तक, अपना राज्य खो दिया।" कल्हण की इस टिप्पणी से यह स्पष्ट हो जाता है कि कान्यकुब्ज, कश्मीर तथा मगध के मध्य अशोक के उत्तराधिकारी के लिये साम्राज्य की विभाजक रेखा थी।134 अशोक के पश्चात्‌ जून/जलौक द्वारा कनौज विजय के तथ्यों की पुष्टि दो स्रोतों, फरिश्ता तथा कल्हण, द्वारा हो जाती है। तीसरी पुष्टि हेम चन्द्र की परिशिष्ट पर्वन से होती है जिस के अनुसार सम्प्रति जोकि अशोक का मगध में उत्तराधिकारी था, ने भारत के आधे, पूर्वी भाग, जिस में दकाण भी सम्मिलित था राज्य किया। अशोक मौर्य के उत्तराधिकारी के विषय में फैली अनेक भ्रान्तियां इस से दूर हो सकती हैं।
हमारा अभिप्राय इतिहास का लेखन नहीं है किन्तु उस जातीय वर्ग का पता लगाना है जिस से विभिन्न भारतीय शासक तथा कुल सम्बन्धित थे तथा इस तथ्य का पता लगाना कि क्या उन के वंशज अब भी विद्यमान है। हमारी यह मान्यता है कि इस पृथ्वी से किसी वस्तु का समूल नाश कभी नहीं होता तथा यह सिद्धान्त दोनों, पदार्थों तथा मनुष्यों, पर एक समान लागू होता है, वास्तव में मनुष्यों पर पदार्थों से भी अधिक। प्राचीन शासकीय कुलों के वर्तमान वंशजों को ढूँढने के प्रयत्न होने चाहिये। ऐसा प्रायः बहुत कम मिलेगा जब किसी राजकीय कुल का पूर्ण रूप से ही नाश हो गया हो और उस

131. Elliot and Dawson, op. cit., Vol. I, p. 19.
132. Tribes and Castes, Vol. I, p. 25.
133. Rajat., 1. 117.
134. SIH & C, Appendix.

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का कोई अवशेष बचा ही न हो। प्रकृति के इस नियमानुसार, प्राचीन लोगों का अस्तित्व, अब भी अच्छी अथवा खस्ता हालत में कहीं-न-कहीं पाया जा सकता है। वर्तमान पोर जाट पुरातन पौरस के वंशज हैं तथा उसी कुल से सम्बन्धित हैं जिस कुल से महान् सिकन्दर का महान् प्रतिद्वंद्वी पोरस स्वयं सम्बन्धित था तथा पुराणों एवं स्ट्राबो के अनुसार वह एक पौर राजा था। यह दायित्व इतिहासकारों का है कि वे उन के वास्तविक इतिहास की खोज करें। मुस्लिम रूपान्तर फुर शब्द के सम्बन्ध में हमें इस बात को स्मरण रखना चाहिये कि अरबी लिपि में "प" को "फ" लिखा जाता है।135 बुद्ध प्रकाश ने शाहनामा तथा दूसरे अन्य स्रोतों से पोरस तथा दारा तृतीय में सम्बन्ध होने के प्रमाण दिये हैं। दारा ने किस प्रकार पोरस से उसे हिन्द के लोगों का शासक, बुद्धिमान व्यक्ति, ओजपूर्ण तथा उद्धीप्त आत्मा कह कर सहायता के लिये प्रार्थना की; जिस पर पोरस ने सिकन्दर के विरुद्ध दारा को सहायता भेजी किन्तु देर से। इस सब का वर्णन विद्वान लेखक ने किया है, यहां पर इस की पुनरावृत्ति की आवश्यकता नहीं।136 इस अध्याय का अन्त हम पोरस की पहचान स्थापित करते हुये Mc Crindle लिखित Invasion of India के इस उद्धरण के साथ करते हैं "पौरस का नाम...... पौर अथवा पौरव से बना है...... यूनानी अन्त्याक्षर "स" जोड़ने पर।"137 पोर/फोर जाट अब भी विद्यमान हैं तथा पोरस के इस कुलीन कुल से सम्बन्धित हैं।

पुनश्च

पुनश्च :- कुछ विद्वानों ने यह मत व्यक्त किया है कि पोरस नाम पौरव से व्युत्पन्न नहीं है तथा इस प्राचीन नाम के साथ इस की समरूपता नहीं हो सकती। "यह अनुमान कि पोरस पौरव हो सकता है आश्वस्त करने वाला नहीं है"138 "पौरस की पौरव से समरूपता स्थापित नहीं की जा सकती किन्तु पाणिनी के गण पाठ के एक व्युत्पन्न शब्द पुर से की जा सकती है।"139 जायसवाल का यह सुझाव कि पोरस पाणिनी के गण पाठ के पुर से सम्बन्धित है सही प्रतीत होता है क्योंकि आज कल भी जाटों का यह कुल पोरिया अथवा फोर (फोर रूप मुसलमान इतिहासकारों द्वारा दिया गया है) के नाम से जाना जाता है। पोरिया/पुरिया तथा फ़ेर/पोर केवल एक ही कुल है चाहे आजकल जाटों में दोनों रूपों में भी विद्यमान है। मूल नाम पोर है, या प्रत्यय से पौरिया; और उच्चारण भेद से फोर हो जाता है।

135. ibid. p. 39.
136. Buddha Prakash, ibid., p. 38 ff.
137. Invasion, p. 402.
138. V. Smith, EHI, p. 56.
139. K.P. Jayaswal, Hindu Polity, p. 67, note.60

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