Jat Prachin Shasak/Jaton Ka Astitva — Prachinta Ke Garbh Me

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जाट प्राचीन शासक (1982)
लेखक - बी. एस. दहिया (आइ आर एस, रिटायर्ड)

विकिफाईअर : चौ. रेयांश सिंह


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"जाटों का अस्तित्व — प्राचीनता के गर्भ में"

"देव संहिता" स्पष्ट रूप से इस बात का उल्लेख करती है कि जाट विश्व के सर्वप्रथम शासक थे। चीनियों के ऐतिहासिक आख्यान भी इस बात की ओर संकेत करते हैं कि "दई" (Di) (अन्य लेखकों द्वारा प्रयुक्त दही (Dahi)) तथा हूण उतने ही पुरातन हैं जितना ई.पू. 26वीं शताब्दी का इतिहास। "इन लोगों का इतिहास चीनी ऐतिहासिक काल चक्र के अनुसार 2600 ई.पू. अथवा इस से भी पूर्व काल तक फैला हुआ है।"1 इस संदर्भ में हमें यह भी ध्यान में रखना चाहिये कि चीनी लोग इन्हें गुटी कह कर पूकारते हैं।
पश्चिम एशिया में भी हम इसी समय के आसपास इन गुटी लोगों के अस्तित्व के बारे में जानकारी प्राप्त करते हैं। उस काल में हम ऐसे अनेक देशों, शहरों एवं लोगों के नाम पाते हैं, जो आज भी पाये जाते हैं। उदाहरणस्वरूप गुटियम नाम का एक ऐसा देश था, जिसे गुटियों का क्षेत्र कहा जाता था। एक अन्य देश अबिर्नियम था जो अबरों का क्षेत्र था, आधुनिक काल में अबरा जाटों का ही एक कुल है। लार्सा के एक राजा का नाम अबिसरे था।2 हम यह भी जानते हैं कि सिकन्दर के आक्रमण के समय पोरस के एक साथी राजा का नाम अभिसार था। ईरान के प्राचीन इतिहास में जवूल नाम के एक देश का उल्लेख मिलता है।3 एक जगह का नाम गसूर कहा गया है और गसूर जाटों में एक कुल का नाम है। इसी तरह एक पर्वत का नाम निसिर है और नासिर एक कुल का नाम ही है। हम एक नाम अन्दरिया भी सुनते हैं और अन्दर एक जाट कुल का नाम भी है।
"Cambridge Ancient History" के अनुसार गुटी अथवा गुटियन नाम के लोगों ने नरमसिन के शासन काल (2291-2255 ई.पू.) के अन्त में सुमेर तथा अक्कड़ पर आक्रमण किया। इन लोगों को "बर्बर लोगों को दिये जाने वाले नाम उम्मान-मण्ड" के नाम से सम्बोधित किया जाता था।4 उन के देशों के क्षेत्र मीडिया, आर्मीनिया तथा एशिया माईनर कहे गये हैं।5 इन्हीं पर्वतीय लोगों द्वारा अकद (Agade) के महान वंश को पूर्ण रूप से सत्ता विहीन कर दिया गया था।6 इन गुटियों को किसी मानचित्र पर

1. U. Thakur, op. cit., p. 35.
2. CAH, Vol. 1 (2), p. 628.
3. PED, p. 607.
4. op. cit., p. 454.
5. ibid., p. 117.
6. ibid., p. 456.

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स्थापित करना कठिन है वे लुल्लुओं के निकट पड़ौसी थे। उन का विशेषण युक्त नाम था "दूर-दूर तक फैला हुआ"। तथा ऐसा लगता है कि उनका आवास क्षेत्र, लेसरजाब के पश्चिम में सुलेमानियाह के उत्तर में तथा सुविख्यात निसिर पर्वत क्षेत्रों के बीच स्थित था।7
इन लोगों को पर्वतीय तथा एशियाई कहा जाता है जिन से यह पता चलता है कि वे मध्य एशिया तथा एशिया के उत्तरी क्षेत्रों में रहने वाले थे राजा शाही की परम्परा उन में नहीं थी, कम-से-कम उन में वंशगत राजा नहीं होते थे। इसीलिये सुमेरिया के राजाओं को सूची बद्ध करने वाले लेखक ने इन लोगों के बारे में यह प्रश्न किया था, "कौन राजा है और कौन राजा नहीं है ?" यह प्रश्न ही इन लोगों के लोकतांत्रिक चरित्र का प्रमाण है। राजाओं का चुनाव इन लोगों द्वारा अपने बीच से ही किया जाता था। इन गुटियों जो सुमेर अक्कड़ तथा बेबीलोनिया के अधिपति बन गये थे, ने 125 वर्ष तथा 40 दिन तक शासन किया। इन के बीस या इक्कीस राजाओं के नाम सूचीबद्ध हैं। इन के पहले राजा का नाम मुरूत है। (संस्कृत शब्द मुरुत) तथा इन के अन्तिम राजा का नाम त्रिगन कहा गया है। इन के नामों से पता चलता है कि ये लोग आर्य थे। इन लोगों को तथा इनके बाद जो लोग इसी तरह से पश्चिमी एशिया के क्षेत्रों में आए, उम्मान मण्ड नाम से पुकारा गया इन शब्दों में हम दो कबीलों का संसर्ग पाते हैं मान तथा मण्ड जोकि जाटों के कुल नाम हैं। आगे चल कर सातवीं शताब्दी में इन लोगों को मण्ड-दधिक कहा गया। मण्ड-दधिक में भी दो कुल नामों की संधि पाई जाती है, मण्ड तथा दही। ये दोनों नाम जाट कुलों के नाम हैं। इतिहास के इस काल में इन लोगों द्वारा जो साम्राज्य स्थापित किया गया उसे ईरानी अभिलेखों के अनुसार मदेय्या कहा गया है। यही नाम भारतीय पुराणों में मान्डव्य के रूप में प्रयुक्त हुआ है जिन के अनुसार यह देश तथा उस के वासी, भारत के उत्तर पश्चिम में रहते थे। यूनानियों ने इन्हें मीडियन (Median) कहा और दारा कालीन ईरानी अभिलेखों में इन्हें मद कहा गया। इस सम्भावना पर भी विचार किया गया था कि ये वही लोग हैं जिन्हें संस्कृत में मद्र कहा गया तथा प्राकृत भाषा में मदद। किन्तु यह मद अथवा मदद आधुनिक काल के मदान तथा मधान ही हैं जो एक जाट कुल है। जैसा कि मण्ड साम्राज्य की चर्चा करते हुए इससे पूर्व यह कहा जा चुका है कि नबोननीदस के अभिलेखों के माध्यम से जो पुरातत्व सम्बन्धी जानकारी मिली है उस से उक्त संभावना रद्द होती है। इन पुरातत्व खोजों से यह पता चलता है कि इन लोगों का नाम मण्ड था। इन मण्डों को "उम्मान मण्ड" शब्द में प्रयुक्त किया गया दिखाई देता है।
हम यह भी पाते हैं कि इन के अन्तिम शासक को एक विर्क उतखेगल ने सत्ता विहीन

7. ibid., p. 444.

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कर दिया था। इतिहास के उस चरण में इन विर्क लोगों को वर्क (Warka) अथवा उर्क (Uruk) कहा जाता था और आधुनिक काल में यह विर्क जाटों का एक महत्वपूर्ण कबीला है।
एल.ए. वैड्डेल अपनी कृति The Makers of Civilization in Race and History में इन गुटी लोगों का उल्लेख करता है। वैड्डेल यह भी लिखता है कि परवर्ती काल के सुमेरी लोग, बृहस्पति ग्रह को "उदू , एतिल (स्वामी) तथा गुट" कहते थे।8 यहां एतिल (Etil) शब्द की तुलना अन्तिल शब्द से करनी होगी जो एक जाट कुल का नाम है। वैड्डेल यह भी लिखता है कि "Her" (हेर) का अर्थ गौथिक में स्वामी अथवा मालिक से होता है और यह हेर इन गुटी लोगों की एक उपाधि थीं और यह 'हेर' अब एक जाट कुल के रूप में भी विद्यमान है। गुट्‌ अथवा गुट शब्द के अर्थ महान्‌ तथा भव्य हैं।9 हम ने भी अन्यत्र इस बात की चर्चा की है कि भारत में भी यह शब्द एक राजा के अर्थ में तथा बाद में चल कर युद्ध-प्रिय कुलों के एक संघ के रूप में प्रयुक्त होता रहा है।
वैड्डेल ने सिंधु घाटी से उपलब्ध कुछ मुहरों पर गुट नाम अंकित पाया है और उस ने गुट को प्राचीन सुमेरियों की एक उपाधि के रूप में ग्रहण किया है। इन मुहरों पर अंकित कुछ मुहरों का पाठ वे इस तरह करते हैं :—

1. राजा के मित्र (की मुद्रा) अगद्रु लैंड में अहमेन गुट।10
2. गुट नाम का अधिपति शासक।11
3. तसिया, प्रभु गुट। (Tasia, The Lord Gut)
4. राज मित्र मरू, स्वामी, गुट पुत्र अर का पुत्र (की मुद्रा)।12

"गुटी देश के 'गुटी लोगों की सेनाओं' जिन्होंने मेसोपोटामिया में अब राजकीय सत्ता प्राप्त कर ली ...... अत्यधिक ऐतिहासिक महत्वपूर्ण (तथ्य) है...... उत्तरीय आर्यों, विशिष्ट नार्डिक जाति के आधुनिक नाम का, प्राचीन इतिहास में यह सर्वप्रथम उल्लेख है ; और यह भी उल्लेखनीय है कि हम उन्हें सुमेरी सभ्यता का नेतृत्व करते हुए पाते हैं।"13 राष्ट्रीय तथा कबीले का नाम, "गुटी-गुटी सैनिक जिन्होंने 2495 ई.पू. में शाही राजधानी इरेक (Erech) को जीत कर मेसोपोटामिया के शाही वंश" को अपने अधीन कर लिया......प्रो.सचील (Schiel) ने 1911 में इसी नाम को प्रकटतः गोथ के रूप में पहचाना।14 CAH इस बात को स्वीकार करती है कि हित्ती

8. op. cit., p. 132.
9. See PED, p. 1074.
10. op. cit., p. 266.
11. ibid., p. 366.
12. ibid., p. 307.
13. ibid., p. 357.
14. ibid., 358.

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(खत्ती) गुटियों में विद्यमान थे।15 किसी अन्य स्थल पर वैड्डेल (Waddel) यह उल्लेख करता है कि भारतीय जाट भी वही लोग है जो कि यूरोपीय गोट, गोथ तथा ये प्राचीन गुटी। जहां तक खत्री का सम्बन्ध है वे स्पष्ट रूप से खत्री हैं जिन्हें संस्कृत में क्षत्रिय कहा गया है। इस सम्बन्ध में यह भी उल्लेखनीय है कि ई.पू. छटी शताब्दी में फ्रवार्तेश मण्ड ने दारा महान के विरूद्ध यह कहते हुए विद्रोह किया था "मैं हूवाक्षत्र की जाति का क्षत्रिय हूं।" यह दावा बिल्कुल उस मौर्य राजा के दावे के समान है जिस ने भगवान बुद्ध की अस्थियों में अपना भाग प्राप्त करना चाहा था। ऐसा कहा जाता है कि उसने यह दावा इस आधार पर किया था क्योंकि वह क्षत्रिय था तथा भगवान बुद्ध भी स्वयं एक क्षत्रिय थे।
रालिन्सन (Rawlinson) बीरोसस का हवाला देते हुए यह कहते हैं कि ईसा से 2000 वर्ष पूर्व मेड वंश बेबीलोनिया पर शासन कर रहा था।16 हम मिश्र इतिहास के माध्यम से यह भी जानते हैं कि ईसा के 2100 वर्ष पूर्व मिश्र के राजाओं की 11वीं पीढ़ी ने जटी के अमूर अथवा अमूरू कहे जाने वाले लोगों के साथ युद्ध किया था। इस जटी प्रदेश के बारे में इससे अधिक जानकारी प्राप्त नहीं है।17 CAH यह मानती है कि जटी प्रदेश मिश्र के उत्तर पूर्व में कहीं स्थित था। हम यह भी जानते हैं कि अमूरू कहे जाने वाले लोग अमोर तथा अमोराइट भी कहलाते थे तथा मोर आज भी विद्यमान एक जाट कुल है। जटी प्रदेश के साथ इन लोगों के सम्बन्ध स्वयं सिद्ध है, ये वहीं हैं जो यूरोप में मूर, इंग्लैंड में मोर तथा भारत के मौर्य कहलाये। इस तरह गुटियों का प्रदेश जिसे गुटियम कहा जाता है, वह जटी प्रदेश ही है। C.A.H ने इसे लघुजाब पर्वतमाला के दक्षिण में स्थित बताया है। जहां तक अमोर, अमरू तथा अमोराइट का सम्बन्ध है हमें आरम्भिक शब्द "अ" को अनदेखा करना होगा क्योंकि प्रथम स्वर का प्रयोग इसलिये किया जाता है ताकि शामियों के लिये उच्चारण सरल हो सके।18

वान वंश

वान, वेन अथवा बेन भारत में जाटों का एक महत्वपूर्ण कुल है। आजकल इसे बेन्वाल या बेनहवाल कहा जाता है। उन का राजा बेन अथवा वेन चक्रवर्ती था (ऐतिहासिक गाथाओं में चकवाबेन के रूप में चर्चित), जो भारत में पंजाब से लेकर बंगाल तक विख्यात रहा किन्तु इतिहास में उसे फिर भी कोई स्थान नहीं मिला।
यह विदित है कि इन वेन वंशियों ने प्राचीन काल से ही मध्य एशिया के इतिहास

15. Vol. I, p. 423.
16. Rawlinson, op. cit., Vol. I, p. 319.
17. CAH, Vol. I (2), p. 535.
18. ibid., Vol. III, p. 194.

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में महत्वपूर्ण योगदान दिया। किन्तु आर्मीनिया के वेन राज्य का अस्तित्व "कीलाक्षर लिपी लेखों के अर्थ स्पष्ट होने से पूर्व तक सर्वथा अज्ञात था।"19 असीरी तथा बेबीलोनिया के लोग इस राज्य को उरत कहते थे तथा हिब्रू में अरारतबेबीलोनिया के एक पुराने पर्यटन नक्शे में उरर्तू नगर को असीरिया के उत्तर में स्थित दिखाया गया है तथा एक शब्द कोष पट्टी से हमें यह पता चलता है कि ऊर्तु टीला को कहते हैं।20 भारत के जाट क्षेत्रों में टिल्ला शब्द आज भी खूब प्रचलित है और ऊंची भूमि का अर्थ लिए है। अतः उररतु का अर्थ है उर लोगों का ऊंचा नगर। उर एक जाट वंश है।
इस वंश का संस्थापक लुतिप्रिस था किन्तु इस राजवंश का सर्वाधिक महत्वपूर्ण राजा सर्दुरिस (ई.पू. 859 के आसपास) था। उस के लिये "राजाधिराज, जगतराज, नेरे का राजा अथवा बानों का राजा" की उपाधियां प्रयुक्त की गई हैं। इन उपाधियों से पता चलता है कि उस के राज्य में वेन अथवा बाणों के अतिरिक्त नेरी (नारा) आदि के क्षेत्र भी सम्मिलित थे। उन के प्रमुख नगरों में एक नगर आर्दिनी अर्थात्‌ सूर्य देव का नगर भी था। इस नगर को मुसासिर (Musasir) भी कहा गया है। राजा सर्दुरिस के पौत्र मीनो (800 ई.पू.) ने अन्य जाट कुलों को भी अपने अधीन कर लिया था। इस्पुनिस (Ispunis) ने पहले ही पर्सुओं (आधुनिक काल के परसवाल) पर आक्रमण कर रखा था, मीनो अब उर्मिया झील21 के दक्षिण किनारे पर स्थित मन्नों को पराजित करने के लिये पूर्व की ओर बढ़ा। उसने असीरियाई दादिया अथवा दैयेनी (आज के दहिया जाट) को फरात नदी के किनारे अपने अधीन किया तथा उसे राज्य की पश्चिमी सीमा {को} निश्चित कर दिया गया। मीनो ने पर्वतों को काट कर कई नहरें बनवाई। इन में से एक को आजकल शमिरस सू कहा जाता है। उसने मेनुस्जेर्त (Menuasgert) (मनुगर्त) नाम का एक नगर भी निर्मित करवाया। उस के पुत्र अर्गिस्टिस I (Argistis I) ने इटियस तथा दैयेनी के क्षेत्रों को अपने अधीन कर लिया। इसी तरह मिलद (हेरोडोटस के मर्द) लोगों को अधीनस्थ किया गया। उस के पुत्र सर्दुरिस द्वितीय ने असीरिया के साथ कई युद्ध किये तथा जीते। उसने असुरनिरारी V पर अपनी विजय की घोषणा की। बाद में चल कर तिगलथ पिलेसर III के नेतृत्व में असीरिया ने इन पराजयों का बदला लिया तथा असीरिया के सरगौन ने सर्दुरिस के एक नगर रियार को भूमिसात करने का दावा किया।
अब हमें यहां रुक कर इस स्थिति का आंकलन करना चाहिये। हमारा उद्देश्य इतिहास लेखन नहीं है, हमें तो केवल जाटों के जातीय इतिहास की खोज करनी है। हम अब तक देख चुके हैं कि व्यावहारिक रूप में सभी प्राचीन वंशनाम जाट कुलों के ही हैं। यहां तक कि शहरों के नाम भी उन्हीं के नाम पर रखे गये मिलते हैं। वेनवंशियों को

19. ibid., Vol. IlI, p. 173.
20. ibid., p. 169.
21. ibid., p. 174.
§. Note: The names are not correctly read/written in the text. Lutipris may be Pritapriya ; Sarduris may be Saraduri, Menuas may be Manu, and so on.

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लेकर स्पष्ट किया जा चुका है कि यह वेन अथवा बेन ही है। हम यह भी देख चुके हैं कि बेन राजा नारा तथा बैंस कुलों पर भी शासन कर रहे थे। इस के अतिरिक्त मन्नई अथवा मन्न को मानों का प्रदेश कहा गया।22 और मान एक जाट कुल है। इसी तरह परसूओं की एकरूपता परसवाल के कुल से स्थापित की जा सकती है। मिलेद भी वहीं है जिन्हें हेरोडोटस ने मर्दिक कहा है अर्थात मर्दा जाट। इसी तरह इति उस ईरानी अभिलेखों में अंकित योतीय हैं और उन्हें भारतीय साहित्य में यौधेय कहा गया है। दई अथवा दैयेनी वहीं हैं जिन का ईरानी अभिलेखों में दही के रूप में उल्लेख हुआ है। यूनानी लेखकों ने इन्हें दहे कहा है तथा आज के भारत में यह जाटों का प्रख्यात दहिया कुल है। रियार शहर का नामकरण रियार कुल पर हुआ। इसी तरह तरेर वही हैं जो दरर तथा तरर कुल के लोग हैं, भारतीय पुराणों में इन्हें ही दर्द कहा गया है। सुमेरिया के गिमरि/गोमर की तुलना गुमर कुल के लोगों से की जा सकती है।23 673 ई.पू. में दहिया तथा गुमरों का नेता, जब वे असीरिया के राजा इसरहद्दोन के विरूद्ध युद्ध लड़ रहे थे, का नाम दैवस्प (अथवा संस्कृत में देवाश्व) था।24 इसके पश्चात्‌ वे दुग दामी तथा उसके पुत्र सन्दक्षात्र के अधीन हो गये।25 जेरमिया कहता है कि मीडों ने अरारत के राज्य, मन्नई तथा अश्केनज लोगों (भारत के असीकनी) को बेबीलोनियों को लूटने का आह्वान किया था।26 इससे उनकी आपसी जाति-बन्धुता तथा आपात् काल में उन की एकजुटता का प्रमाण मिलता है। CAH के खण्ड 3 में पृष्ठ 185 पर दिये गये आर्मीनीया के मान चित्र में हम कुछ अन्य कबीलों (कुल गोत्रों) के नाम इस तरह पते हैं। :-

खलबी
कर
खरब/खरप
खर (कुरू ?)

वेनवंशी सूर्य के उपासक थे और उन्हें सूर्य की सन्तान (जैसे भारत में सूर्यवंशी) कहा जाता है। उनकी देवी का नाम सरिस था, जैसे भारत में श्री तथा ये लोग पृथ्वी तथा जल की भी पूजा करते थे। सिथियनों की एक देवी का नाम तबिती है। (तेवती

22. ibid., p. 188.
23. ibid., p. 182.
24. ibid., p. 83.
25. ibid., p. 117.
26. Chapter L, 1.

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कुल की देवी) इस देवी को हस्तिया भी कहा गया है।27 हस्तिया शब्द जाटों की एक पुरातन देवी "पष्ठी" के नाम का आधार हो सकता है। जाट आज भी उस के इसी नाम "छटी" से उस की पूजा करते है। इसी नाम पर ही यह प्रसिद्ध लोकोक्ति "छटी का दूध याद आना" आधारित है। ऐसा माना जाता है कि बच्चे के जन्म के छटे दिन यह देवी उस के भाग्य को लिखने के लिये आती है और इस समारोह के लिये विशेष आयोजन किये जाते हैं। यौधेय सिक्कों पर छह सिरों वाली देवी पाई जाती है।28
सिथियोई/शक, "सम्भवतः एक कबीले का नाम है जो एक क्षेत्र के सभी लोगों के लिये प्रयुक्त हुआ है।"29 यह बात पूर्ण रूप से ठीक है और हमें याद रखना चाहिये कि इन शकों की उत्पत्ति एक पौराणिक राजा तुगर्त से मानी गई है और तुर्गतो नाम ऋग्वेद में भी मिलता है।
अब पुनः बेन वंशियों की ओर मुड़ते हैं। 714 ई.पू. में असीरिया के राजा सर्गोन (क्या सह शब्द श्री गण नहीं हो सकता ?) ने सूर्य नगरी मुसासिर को बर्बरतापूर्ण ढंग से लूटा तथा ध्वंस किया और इस नगर का राजा उस समय उर्जन था। (उर्जन, अर्जन अथवा भारतीय अर्जुन) यह अर्जुन बेन राजाओं के अधीन स्थानीय राजा था तथा उसे भागना पड़ा। इस आक्रमण के दौरान स्वर्ण, चांदी, हाथी दांत, सोने की तलवार तथा चांदी से निर्मित रथ, पूर्व राजाओं की प्रतिमाएं, देवी देवताओं की मूर्तियां लूटी गई, मंदिरों को जलाया गया। रूस (उर्स), जो उस समय बेन महाराजा था, ने जब इस त्रासदी के बारे में सुना तो उस ने अपनी तलवार से आत्महत्या कर ली।30
C.A.H के लेखक, इसी तरह की एक अन्य घटना जब मण्डों ने अष्टवेगू के नेतृत्व में, खुल्लखुल नाम के एक मंदिर को ध्वंस कर दिया, पर टिप्पणी करते हुए उस की निन्दा इन शब्दों में करते हैं, "इन बर्बरों ने दूसरों के प्राचीन मंदिरों, मूर्तियों तथा देवताओं की तनिक भी परवाह नहीं की।"31 किन्तु यही लेखक तथाकथित सभ्य असीरियों के आक्रमण का उल्लेख करते हुए, जिस तरह विस्तार से सरगोन द्वारा की गई लूटपाट, सूर्य देव32 की प्रतिमा, उन के पुरखों की मूर्तियों, मन्दिरों के खण्डित किये जाने का वर्णन करता है, तो ऐसा लगता है यह लेखक जैसे बड़े चाव से उन का शौर्य गान कर रहा है। सम्भवतः "बर्बरों" के मंदिरों तथा देवताओं व सभ्य कहे जाने वाले लोगों के मंदिरों तथा देवताओं में कोई अन्तर होता है।

27. CAH, p. 195.
28. JNSI, V, p. 29.
29. CAH, p. 194.
30. ibid., 181.
31. ibid., Vol. III, p. 220.
32. ibid., p. 180.

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वेन राजाओं की वंशावली इस प्रकार उपलब्ध होती है।

1. लुती प्रिस
2. सर्दुरिस प्रथम (859 ई.पू.)
3. इस्यूनिस (संस्थापक)
4. मिनौस/मिनौ (810 ई.पू.)
5. अर्जिस्ती I
6. सर्दुरिस II
7. रूसा (असीरियाई पाठ में उर्स)
8. अर्जिस्ति II (714 ई.पू.)
9. रूसा II
10. सर्दुरिस III

हमने Van को वेन के समान लिया है और ऋग्वेद के पृथू बैन्स के कुल से इसको मिलाकर, वेन्यवाल/बेन्हवाल जाटों से समरूपता कही है। सम्भव है कि शब्द वान रूप में उच्चरित हो, तब इसका समीकरण वान/बाण कुल से बैठाना होगा।
658 ई.पू. में हम पाते है कि असीरिया पर अन्दरिया नाम के एक व्यक्ति ने आक्रमण किया जो सम्भवतः एक सिथ नेता था।33 असुरबेनिपाल उस समय असीरिया का शासक था। हमें यहां इस बात का ध्यान रखना चाहिये कि अन्दरिया का कुल गोत्र अन्दर ही हो सकता है। आगे चल कर हम पुनः देखते हैं कि मान भी असीरिसा पर आक्रमण कर रहे थे। वास्तव में "मान असीरिया के वंशगत शत्रु थे।"34 मान राजा अखश्री ने अन्य जाट कुलों से सहायता मांगी तथा उस ने असीरियों को बहुत आतंकित किया और अन्ततः हुवक्षात्र34A के नेतृत्व में असीरिया को पूर्णतया नष्ट कर दिया गया। हुवक्षात्र ने इस उद्देश्य की पूर्ति के लिये शकों को भी आमंत्रित किया। इस तरह उस समय का सर्वाधिक शक्तिशाली साम्राज्य, 614 ई.पू. में अपनी प्रख्यात निनेवेह राजधानी सहित मण्डों के अधीन आ गया तथा इस के बाद तो इस का नाम भी नहीं सुना गया। असीरिया के राजा ने आत्मदाह कर लिया और इस तरह ठीक 100 वर्ष पश्चात्‌ उर्स, जिस ने अपनी तलवार से आत्महत्या कर ली थी, का बदला लिया गया।

हेरोडोटस काल में

इस काल से हमारा अर्थ नौवीं शताब्दी ई.पू. से चौथी शताब्दी ई.पू. तक {है} और यही समय मण्डों तथा वेन वंशियों के साम्राज्यों तथा सिकन्दर के आक्रमण काल के बीच का समय रहा। इस काल में भी हम होरोडोटस के तथा अन्यों के इतिहास में, जाटों के अनेकों

33. ibid., p. 118.
34. ibid., p. 128.
34.A. Huva Kshatra = Su-Kshatra (good warrior) in Sanskrit.

पृष्ठ 310 समाप्त

कबीलों के नामों का उल्लेख पाते हैं। मीड के कबीलों में हम बसेई (Busai) आधुनिक काल के बस्सी {तथा} बुदी आधुनिक काल के बोधी तथा बुधवार, आदि का उल्लेख पाते हैं। शासक कुल का नाम अरिजन्तद अथवा अरिजतोई था। अरि शब्द आर्य का ही एक रूप हैं और जंती अथवा जतोई निस्संदेह जाट है। (पाकिस्तान में सिंध प्रदेश में जतोई एक प्रमुख जाट कुल है। पाकिस्तान के प्रधानमंत्रियों में एक नाम गुलाम मुस्तफा जताई भी है।) जंती अथवा जतोई वैसे ही जाट हैं जैसे प्राचीन मिश्र के जटी थे तथा सुमेर तथा चीन के गुटी अथवा गुती थे। सगरतियों की समानता सगरवारों के साथ हो सकती है। अलरीडियों की तुलना आज के अरोडों से हो सकती है। आज के सपरों की तुलना तत्कालीन सपीरियों से हो सकती है, इसी तरह हिर्कनियन आज के वर्कन अथवा विर्क हो सकते हैं, पेओनिया आज के पौनिया अथवा पूनिया हो सकते हैं। इसी प्रक्रिया में, सारंगियों की आज के सरांघों से, उतियों की आज के उत्तारों अथवा ईरान के येतिओं से समानता सिद्ध की जा सकती है। इस क्रम से पक्‍तयन (Pactyans) की समानता आज के अफगानिस्तान के पख्तूनों से हो सकती है। इस बात का उल्लेख पुनः किया जा रहा है कि इन पख्तूनों अथवा पश्तूनों का उल्लेख अकद के सर्गोन के काल में भी किया गया है। CAH में कप्पोंडोसिया में केसरी के समीप पुरूषखण्ड नाम के एक नगर का उल्लेख मिलता है, जहां सर्गोन उत्तर पश्तून प्रदेश {के} विरूद्ध युद्ध करने के लिये गया था।35 C.A.H इस नाम के सम्बन्ध में आवासित नहीं है। हम ने अन्यत्र कहीं इस बात का संकेत दिया है कि यह शब्द, उत्तर तथा पश्तून के लिये प्रयुक्त हो सकता है। अधिक तर्क संगत तो यह है कि यहां प्रयुक्त शब्द उत्तर, उत्तर दिशा की ओर संकेत करता है और इस क्षेत्र के लोगों को "उत्तरीय पश्तून" कहा जाना चाहिये। यह बिल्कुल उसी तरह है जैसे कुरूओं की उत्तरी तथा दक्षिणी तथा मद्रों की उत्तरी तथा दक्षिणी शाखाएं। उत्तरी कुरू जिन्हें "महाभारत" में उत्तर कुरू कहा गया है, केस्पियन सागर के पश्चिमी क्षेत्र में, जहां कुरू नदी है आवासित थे। दक्षिणी कुछ निस्संदेह भारत में यमुना नदी के किनारे आवासित थे। इसी प्रकार उत्तरी मद्र उसी केस्पियन सागर के क्षेत्र में तथा दक्षिणी मद्र पंजाब में आवासित थे। इस आधार पर उत्तर पश्तूनों का क्षेत्र आर्मेनिया तथा दक्षिणी पश्तूनों का क्षेत्र निस्संदेह अफगानिस्तान में होना चाहिये। जो बात उल्लेखनीय है वह यह है कि इन लोगों के नाम तथा जिस नगर का उल्लेख ऊपर किया गया है वह विशुद्ध संस्कृत रूप लिये है। इससे पूर्ण रूप से स्पष्ट होता है कि ये लोग आर्य थे। मण्डों को "प्राचीन काल में सभी लोगों द्वारा अर्यिन कह कर पुकारा जाता था।"36
पुनः हेरोडोटस जिन्हें इगिली Aegli तथा अन्य इतिहासकार जिन्हें गिली कहते हैं वह आधुनिक काल के गिलों के ही समरूप है ; मध्य एशिया में रहने वाले इन के भाई

35. Vol. I (2), p. 428.
36. Herodotus, Bk. VII, p. 62.

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बन्धुओं को आज भी गिल्ली कहा जाता है जैसे भारत के जाटों के शेरगिल कुल को मध्य एशिया में आज भी सिरीगिल्ली कहा जाता है। दहि लोगों को वर्तमान काल के दहियों, सिंदियों को वर्तमान काल के सिधुओं से सम्बद्ध किया जा सकता है। इसी तरह टयूकरियों को तोखरियों तथा वर्तमान काल के तखर/तोखर कुल से सम्बद्ध किया जा सकता है।
यद्यपि इस तरह और भी कई ऐसे कुलों को चिन्हित किया जा सकता है, किन्तु अब हम जाटों के दो वर्गों की ओर अपना ध्यान केन्द्रित करते हैं। मण्डों ने ईरानियों को37 अपनी वेशभूषा भी दी तथा अपने शस्त्र अस्त्र भी।38 अतः यह ईरानी हैं, जिन्होंने मण्डों से उन की वेशभूषा तथा शस्त्र अस्त्र प्राप्त किये नाकि मण्डों ने ईरानियों से। जाटों के दो प्रमुख वर्गों का उल्लेख हेरोडोटस ने भी किया है और चीनी इतिहासकार भी करते हैं। इन्हें मस्साजटी तथा थिस्साजटी कहा गया है। मस्सा शब्द का अर्थ पेहलवी भाषा में महान्‌ होता है। अतः मस्सा जटे का अर्थ है महान्‌ जाटचीनी भाषा के ता-यू-ची (Ta-Yue-chi) अथवा ता-गुती का अर्थ भी यही है। चीनी भाषा में ता (Ta) का अर्थ महान्‌ है, अतः ता-यू-ची का अर्थ भी मस्सा जटी अर्थात महान्‌ जाट ही है। दूसरा वर्ग छोटा या लघु था, अतः उसे थिस्सा जटे कहा गया। थिस्सा शब्द का अर्थ है लघु या छोटा।39 यह भी सम्भव है कि थिस्सा शब्द की मूल धातु भी वही हो जो संस्कृत शब्द तुच्छ या तुस की है जिस का अर्थ भी लघु तथा छोटा अथवा कमतर होता है। चीनी लोग इन्हें सिआओ यू-ची कहते थे तथा उनकी भाषा में भी सियाओ (Siao) शब्द का अर्थ छोटा ही है। अतः जाटों के इन दोनों वर्गों का हेरोडोटस तथा चीनियों को पता था तथा ये दोनों अधिकारिक स्रोत इन वर्गों को एक ही नाम देते हैं। मण्डों की तरह मस्सा जटी भी आर्य ही थे।40 मस्सा जटी के एक राजा का नाम स्पर्गपिसि कहा गया है। रावलिंसन ने इस नाम का अर्थ "स्वर्ग का स्वामी" के रूप में लिया है। संस्कृत में इसे "स्वर्ग पति" कहा जाता है। दहियों के एक अन्य राजा को अर्षक (Arsaces) कहा गया है। स्ट्राबो के अनुसार उस ने पर्थिया पर विजय प्राप्त की तथा अर्षक साम्राज्य की नींव रखी। हेरोडोटस द्वारा जाटों को विशेष रूप में "थ्रेस के कबीलों में से, सर्वाधिक महान्‌ एवं न्याय प्रिय" कहा गया है।41 सगर्तियों, जिन्होंने दारा के विरुद्ध विद्रोह किया था, के नेता का नाम चित्रतख्म था। जिस मग ने दारा के ही विरुद्ध विद्रोह किया तथा सिंहासन पर अधिकार किया का नाम गौमत है। इन सभी नामों से यह बात सिद्ध होती है कि ये लोग जाति तथा भाषा से मूल रूप में आर्य ही थे।

37. ibid., bk. 1, p. 135.
38. ibid., bk. VII, p. 62.
39. Rawlinson, op. cit., Vol. III, p. 175, note A.
40. ibid., p. 170.
41. ibid, bk. lV, 93.

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रावलिंसन इस बात का उल्लेख करता है कि बेबीलोनिया में (मण्डों) के कुल के 8 राजाओं ने 224 वर्ष शासन किया। इस के पश्चात्‌ अगले राज वंश ने 258 वर्ष तक शासन किया तथा इस वंश के प्रथम राजा का नाम उरूक अथवा वरक कहा गया हैं। उस ने अपने मंदिर सूर्य तथा चन्द्र को समर्पित किये। (सूर्य तथा चन्द्र को क्रमशः बल तथा बलित कहा गया है।)42 उस राजा की उपाधि हर अथवा हेर थी। इसके अतिरिक्त सूसा के राजा की खाक थी और उसे तीरखाक कहा जाता था। जासेफस के अनुसार खाक का अर्थ राजा है।43 हेर तथा काक आजकल जाटों के दो कुलों के नाम भी हैं। "आर्मीनिया के लोग जार्जिया के लोगों को अब भी विर्क नाम से ही सम्बोधित्त करतें हैं।"44 इससे यह पता चलता है कि जार्जिया नाम का देश चिरकाल तक विर्कों के अधीन रहा। जहां तक आर्मीनिया का सम्बन्ध है, इसकी व्युत्पत्ति अरिमन अथवा आर्यमान से हो सकती है। यह तो हम देख चुके हैं कि बल्गेरिया का नाम बल या बलहर (Ball) पर पड़ा। इसी तरह स्पष्ट रूप से हंगरी का नाम हेंगा कुल के नाम पर पड़ा। इन देशों के नाम में "गरी" शब्द का अर्थ उन गाड़ियों के लिए हुआ है, जिन में ये लोग यात्राएं किया करते थे। यह शब्द भारत में प्रयुक्त शब्द गाड़ी का ही अर्थ रखता है। अवेस्ता में कोरसिमिया का नाम खैरीजाओ है तथा यह नामकरण स्पष्ट रूप में खैर अथवा खेर कुल के जाटों के नाम पर हुआ है।
हेरोडोटस द्वारा वर्णित् अन्य कुलों के नाम इस प्रकार चिन्हित किये जा सकते हैं :—

लुल्ल = लाली अथवा लुल्ला
निसिर (Nisir) = नासिर
समरिन (Samurin) = समरा
मर्दी (Mardi) = मर्धा/मिर्धा
डर्बिसेस (Derbices) = डबास

और अन्त में इस बात का भी उल्लेख करना चाहेंगे कि बेबीलोनिया का प्रख्यात हैंगिग गार्ड़न (झूला बाग) नेबुचंद नेज़र ने अपनी पत्नी अमितिस जोकि एक मद अथवा मण्ड राजकुमारी थी, के सम्मान में बनवाया था। भारतीय साहित्य के माध्यम से हमें यह भी जानने को मिलता है कि पंजाब के मद्र लोगों की महिलाएं अपनी सुन्दरता के लिये विशेष रूप से प्रख्यात थीं और सुदूर देशों के राजा उन्हें अपनी पत्नियां बनाने के लिये विशेष रूप से उत्सुक रहते थे। इस सम्बन्ध में पाण्डु की पत्नी माद्री तथा सावित्री

42. ibid., vol. 1, p. 347.
43. ibid., p. 348.
44. ibid., p. 530, note 4.

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के नाम उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किये जा सकते हैं। और फिर हीर-रांझा की प्रेमगाथा तो हर भारतीय की ज़ुबान पर रची बसी रही है। ये सभी जाट महिलाएं "महाभारत" में अपनी सुन्दरता, गरिमा, संगीत एवं नृत्य-प्रियता के लिये वर्णित् हैं।
इस संदर्भ में यह भी उल्लेखनीय है कि पाण्डु की पत्नी माद्री को बाल्हीकि भी कहा गया है क्योंकि स्पष्ट रूप में वह बल्ख क्षेत्र की थी।45 यह भी उल्लेखनीय है कि वह कुरूओं तथा पाण्डुओं के कुल की एक मात्र ऐसी महिला थी जो अपने पति की चिता के साथ ही सती हो गई थी। यही वह प्रथा थी जिसको तदांतर काल में गरिमा मण्डित किया गया और बाद की शताब्दियों में राजपूतों में इसका विशेष रूप से प्रचलन रहा।
हमें यहां इस बात का भी ध्यान रखना होगा कि पुरातन काल में इन लोगों को विशेष रूप में गुटी/गुती, जटी अथवा जतोई कहा गया है। हम जर्त शब्द का उल्लेख गर्त के रूप में भी करते हैं। हम इस बात का भी उल्लेख कर चुके हैं कि दारा के अभिलेखों में असीर्गता (सगर्तियों) का शब्द पाया गया है। हम यह भी देख चुके हैं कि गुत/गुट शब्द से वृषभ का अर्थ लिया गया है। PED में गुत्‌ अथवा गुट शब्द का अर्थ महान्‌ तथा भव्य रूप में दिया गया है।46 हम ने भारतीय साहित्य से कई ऐसे उदाहरण भी दिये हैं कि जिन से पता चलता है कि जाट शब्द का अर्थ राजा था तथा बाद में चल कर इस का अर्थ योद्धाओं के संघ से भी लिया गया। जाट शब्द का अर्थ बालों से भी लिया गया क्योंकि ये लोग लम्बे-लम्बे बाल रखते थे। हम यह भी देख चुके हैं कि प्राचीन ईरान के शासक वर्गों को अरिजतोई कहा जाता था अर्थात्‌ आर्य जाटजाटों के अस्तित्व का ठोस प्रमाण अर्मेनिया के वान राज्य के विवरणों से प्राप्त होता हैं। इस राज्य का हर नाम, चाहे वह नगरों का है या विभिन्न कुलों का, की समरूपता जाटों के विभिन्न कुलों के साथ स्थापित की जा सकती है। ई.पू. नौवीं शताब्दी में वेन (आज के बेनिवाल) के साम्राज्य के बाद हम अगला राज्य मान कुल का पाते हैं, जिसे मन्नई राज्य कहा जाता था और जो उर्मिया झील के पास था। उर्मिया झील का क्षेत्र नौंवी शताब्दी {ई.पू.} में {जाटों का केंद्र था} तथा इसी क्षेत्र से कुशान अभिलेखों में वर्णित् उर्मिय वंशी मोईक, भारत आये थे, यह काल प्रथम शताब्दी का काल था। यह उर्मिया झील, ईरान के पश्चिमी भाग में, तुर्की की सीमा के साथ स्थित है। यह जोरतुश्त की जन्म भूमि के रूप में भी विख्यात है।47 उर्मिया झील क्षेत्र में स्थित मान राज्य और इस के पूर्व वान झील क्षेत्र में स्थित बाण राज्य सातवीं शताब्दी में आकर मण्ड राज्य में सम्मिलित हो गये थे, उस समय मण्ड कुल का राज्य हुवक्षात्र के अधीन था। फिर मण्ड राज्य पर खुश महान्‌ का आधिपत्य हो गया और उस काल में कई जाटों ने इस सत्ता परिवर्तन को स्वीकार करने से इन्कार कर दिया तथा वे विभिन्न दिशाओं की ओर प्रस्थान कर गये। उन में से कई भारत की ओर आ गये तथा कुछ यूरोप

45. MBT, I, 125, 21.
46. PED, p. 1074.
47. P. Sykes, op. cit., vol. 1, p. 23.

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में फैल गये जहां उन्हें गोट अथवा गौथ कहा गया। जो जाट अपने क्षेत्र में रहे और जिन्होंने दारा के प्रति अपनी निष्ठा व्यक्त कर के राजवंश के परिवर्तन को स्वीकार कर लिया उन्हें यूएर जटे (Euer Gatae) कहा जाने लगा जिस का अर्थ था "हिलकारी जाट," निस्संदेह ये जाट ईरान के लिये हितकारी थे, न कि अपने लिये।
भारत में उन्होंने सर्वप्रथम गंधार में अपना राज्य स्थापित किया जिस के राजा नग्नजीत का जैन लेखकों ने प्रमुख रूप से उल्लेख किया है। भारत में एक अन्य राज्य नन्दल कुल द्वारा स्थापित किया गया तथा उसे नन्दों के मगध राज्य के नाम से पुकारा गया। यहां यह उल्लेखनीय है कि पुराण स्थानीय (देशीय) शासन के विदेशी शासन में परिवर्तित होने का उल्लेख विशेष रूप में यह कहते हुए करते हैं कि नन्द शूद्र थे। पुराण कहते हैं, "भविष्य में पृथ्वी पर केवल शूद्रों का ही राज्य होगा।" तथा यह भी एक वास्तविकता है कि शुंग47A तथा कण्व के शासन को छोड़कर नंदों से लेकर हर्ष वर्धन तक तथा उस के पश्चात्‌ भी, भारत पर जाटों का ही राज्य रहा। जहां तक ईरान का अपना सम्बन्ध है जाटों ने अपनी सहायता हखमनियों को प्रदान की किन्तु यूनानियों को सत्ताच्युत करने के बाद, दहिया कुल ने अपने नेता अर्षक (संस्कृत ऋषिक) के अधीन राजवंश की नींव ई.पू. तीसरी शताब्दी में रखी तथा इस वंश ने 224 ई. तक, 500 वर्ष शासन किया। तदोपरान्त सासानियों ने इन को अपने आधिपत्य में ले लिया।
जाटों के पश्चिम या मध्य एशिया से सम्बन्ध संयोगवश नहीं थे। आर.जी. हर्षे ने यह दिखाया है कि कई वेदकालीन कबीलों के नाम पुरातन ईरानी क्षेत्रों के हैं। वह वृक शब्द का उदाहरण देते हैं जो वरक अर्था उरूक शब्द पर आधारित है। इस तरह वह मान तथा मण्डार्य का सम्बन्ध मण्ड कबीलों से स्थापित करते हैं।48 यहां मान नाम स्पष्ट रूप से जाटों के मान कुल का ही नाम है जबकि दूसरा शब्द मण्डार्य शब्द मण्ड+आर्य के तुल्य है जोकि उस समय अपने राजा हुवक्षात्र तथा इष्टवेगु के नेतृत्व में एक साम्राज्य बना कर शासन कर रहे थे। हमें इस संदर्भ में यह भी ध्यान में रखना चाहिये कि हेरोडोटस के अनुसार सभी मण्डों को प्राचीनकाल में आर्य ही कहा जाता था तथा विर्क जाट संस्कृत साहित्य में वर्णित 'वृक' ही हैं। यह भी कम उल्लेखनीय नहीं है कि मध्य पूर्व के शासकों के प्राचीन असीरियाई लिपि में लिखित अभिलेखों में इन्द्रोत नाम पाया गया है।49 यह इन्द्रोत वैदिक शब्द इन्द्रौत के तुल्य ही है तथा बर्रो (Burrow) का विचार है कि आर्यों का आक्रमण का काकेसस के रास्ते से दक्षिणी रूस की ओर से किया गया।50 उस काल में पश्चिम एशिया में अन्दर नाम उपलब्ध होता है तथा अंदर एक जाट कुल ही है। यहां तक कि आर्यों के देवता इन्द्र को व्यंस का पुत्र बताया गया है जिस की उसने बाद में

47.A. Sunga rulers are not taken as Brahmans by D.D. Kosambi. So, there's, possibly, they may be the present Sang Van Jats.
48. "Vedic Names in Assyrian Records", Adyar Library Bulletin, May 1957, Vol. XXI, pt. I-II. Also, "Trails of Vedic Civilization in Middle East". K.P.B. Commemoration Volume, Kanpur, 1961, pp. 163-176.
49. T. Burrow, The Sanskrit Language, p. 27, quoted in P&SM, p. 31.
50. ibid., p. 30.

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हत्या कर दी थी।51 क्या व्यंस शब्द की समरूपता वैन्स अथवा बैंस के साथ संयोग मात्र ही है? हमें इस बात की ओर भी ध्यान देना चाहिये कि जाटों का सारान्घ/सरान्ह कुल वही है जिसे हेरोडोटस सारांगई का नाम देता है तथा जो हखमनियों के अभिलेखों में सरांक के रूप में विद्यमान हैं। यही शब्द इलम विवरणों में सिरंक, एरियनों में सरागई के रूप में पाया जाता है और इन के देश को सरंगियाना कहा जाता था। बुद्ध प्रकाश, जिन के हम अत्यधिक आभारी हैं, पांच लोगों की पहचान भारत के पांचाल चिन्हित् करते हैं जिनमें सम्मिलित हैं, कशु, सरांगई, तूर तथा सिथ52 उस के साथ मुख्यतः सहमत होते हुए हम यह भी स्पष्ट करना चाहेंगे कि कशु लोगों के सम्बन्ध, न केवल भारत के केश्नि अपितु परवर्ती काल के कशवान के साथ भी स्थापित करना होगा। इसी प्रकार तूरों का भी जिन की समरूपता प्राचीन भारत के तुवर्शों के साथ स्थापित की जा चुकी है, सम्बन्ध तूर कुल अथवा गोत्र से हो सकता है। ईरान के एक क्षेत्र का नाम तूर था और बलोचिस्तान में एक अन्य क्षेत्र को तूरान कहा जाता था। जहां तक बुद्ध प्रकाश द्वारा उल्लेखित सिथियों का प्रश्न है हम इस विशेष कुल के जाटों को विरक कुल के रूप में लेंगे। बुद्ध प्रकाश उचित रूप में संस्कृत साहित्य में प्रयुक्त वृकों की समरूपता विरक जाटों से करते है।53 आर.एन. डांडेकर के अनुसार वेदों की मूल रूप में रचना 2400 से 2000 ई.पू. में बलख क्षेत्र में हुई तथा परवर्ती काल में "सप्त सिंधु" देशों की भूमि अर्थात् अफगानिस्तान तथा पंजाब के बीच के भू-क्षेत्र में इन को पुनः संशोधित किया गया तथा इन्हें धार्मिक कर्म-काण्ड़ों के अनुकूल बनाया गया। वैदिक द्रुह्यु उत्तर पश्चिम क्षेत्र से सम्बन्धित थे।54 मत्सय पुराण तथा वायु पुराण के अनुसार द्रुह्युों के वंशज गांधार के शासक थे। "महाभारत" में इस बात का उल्लेख है कि प्रहलाद नाम का एक राजा बल्ख का शासक था और इस बात के भी प्रमाण हैं कि गांधार नरेश नग्ननजिन प्रहलाद का ही एक शिष्य था।
आइए, अब हम भारतीय धर्म ग्रन्थों की ओर मुड़ें। भारतीय परस्परा के अनुसार प्रजापति की कई पत्नियां थीं। उस की पत्नी दिति से उत्पन्न पुत्रों को दैत्य कहा गया, उस की पत्नी अदिति से उत्पन्न पुत्रों को आदित्य, तथा तदांतर काल में देव, कहा गया। उस की पत्नी दनु से उत्पन्न पुत्रों को दानव कहा गया जिन का पश्चिम एशिया के प्राचीन इतिहास में विशेष रूप से वर्णन मिलता है। इन दानवों को बाद में असुर कहा गया यह बात अर्थ पूर्ण है कि भारत की असुर कथाओं में अनेक जाट गोत्रों का वर्णन आता है। उदाहरणस्वरूप बलासुर जाटों के बल कुल के लिये प्रयुक्त है अथवा उस कुल

51. Rig Veda, IV, 18, 9.
52. P&SM, p. 76.
53. ibid., p. 102.
54. Mc-Donnell and Keith, Vedic Index, Vol. I, p. 385.

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के किसी एक राजा के लिये वृकासुर उसी प्रकार वृक गोत्र के लिये अथवा उसी गोत्र के किसी राजा के लिये प्रयुक्त है। जटासुर नाम ही लें यानि कि जाट असुर तो इस का उल्लेख भी महाभारत तथा वराहमिहिर ने किया हैं। ये केवल कुछ उदाहरण है तथा बेबीलोनिया के नामों के समान हैं जो कि असुरबेनीपाल, असुर नेजर पाल आदि। यहां तक आर्य देवता वरुण को भी असुर वरूण कहा गया है।55 बौद्धायन धर्म सूत्र में काश्यप कुल की असुर शाखा को बताया गया है।56
हम इस से पूर्व यह भी देख चुके हैं कि मौरों को अमोर अथवा अमूर कहा जाता था। हम ने यह भी देखा है कि तीसरी सहस्राब्दि ई.पू. जाटों (गुती) के प्रथम राजा को मरूत कहा जाता था। अब मरूत आर्यों का देवता भी है जिसे वायु तथा वर्षा का देवता कहा जाता है। किन्तु मरुत के अन्य अर्थ भी हैं तथा समूचे रूप से यह स्पष्ट है कि मरुत केवल एक देवता ही नहीं है अपितु एक समुदाय के लोग भी हैं जिन की एक विशिष्ट जीवन शैली है, विशिष्ट वेशभूषा, शत्रास्त्र तया मानवीय समानता का जीवन दर्शन है तथा जिन की राजा-विहीन अथवा गणतन्त्रात्मक शासन प्रणाली है। निम्नलिखित उदाहरण दैवत संहिता से लिये गये हैं जिस का सम्पादन श्रीपद दमोदर सतवलेकर ने (1941 संस्करण) किया है। मरुत के जो अर्थ दिये गये हैं वे निम्न प्रकार से हैं :-

1. वह जो बिना अश्रु बहाये युद्ध करता है (मारूद)।
2. वह जो उठ खड़ा होता है तथा मृत्यु पर्यन्त युद्ध करता है (मर उत)।
3. वह जो अल्पभाषी है (मारूत)।
4. जो वर्गों में रहते हैं (गणशो हि मरूतः, तान्द्रय ब्राह्मण 19/14/2)।
5. वे जो कृषक हैं।
6. वे जो इन्द्र के सैनिक हैं।

उन की विशेषताएं :—

1. वे शारीरिक सूख में विश्वास नहीं रखते। (तनुषु न किः येतिरे, ऋग्वेद 8/22/12)
2. वे अपने शरीरों को विलक्षण भूषणों से अलंकृत करते हैं (चित्रै अंज्जिभि, ऋग्वेद 1/64/4)
3. वे अपने कंधों पर भाले धारण करते हैं।
4. (अपने शरीर पर) वे गतिमान धनुष रखते हैं तथा रथों पर स्थिर धनुष रखते हैं।57 इन रथों को अश्व अथवा हरिण खींचते हैं।58 (रथेषु पूषतीः) उन के रथ बाणों
55. ABORI, 1940, Vol. XXI, pp. 157-191.
56. Bibliotheca Indica, Vol. III, p. 450.
57. Rig Veda, 8/20/12.
58. ibid., 1/85/4.

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तथा भोजन से भरे होते हैं।
5. वे सिरों पर स्वर्णिम पगड़ियां अथवा शिरो वस्त्र धारण करते हैं। (शिप्रा शीर्षन्‌ हरिण्ययीः ऋग्वेद 8/7/25)
6. उन के हाथों में (आवाज़ पैदा करते) कोड़े हैं (हस्तेषु कशावदान्‌ ऋग्वेद 1/37/3)
7. युद्ध से उन्हें प्रसन्नता प्राप्त होती है। (विदथेषु मदन्ति ऋग्वेद 1/85/4)
8. वे रूद्र की सन्तान हैं (रुद्रस्य सूनवः)
9. इन्द्र मरूतों से घिरा है।59
10. वे मानवीय समानता/समता में विश्वास करते हैं। उन में न कोई उच्च है तथा न कोई नीच। सभी समान हैं तथा अपने समूह शक्ति में भ्रमण करते हैं।
11. वे श्रेष्ठ कुल के हैं (सु-जातसः) तथा पृथ्वी को अपनी माता कहते हैं।
12. मनुष्यों में वे शूरवीर है।60
13. वे एक दूसरे को भ्राता कहते हैं।61
14. समस्त संसार उन से भयभीत है (मरूद्रभय विश्वा भुवनानि भयन्ते)
15. वे राजाओं के समान हैं (राजानः इव) किन्तु राजा विहीन (अराजिनः)
16. उन में न कोई बड़ा है, न मध्यम तथा न ही छोटा है, फिर भी वे ज्येष्ठ है। (ज्यिष्ठासः)
17. वे किसी के सम्मुख नहीं झुकते | (अत्‌ आनतः)
18. वे अश्व रखते हैं (अश्व युजः) विशेष कर लाल रंग के अश्व। (अरूणाश्वः रोहितः)
19. वे अजेय तथा अविनाशी हैं। (न सः जीयले, न हन्यते)
20. वे भयंकर दिखाई देते हैं।62 (त्वेष सृंदश नरः ऋग्वेद 1/85/8)

अब ये वीर, निड़र, राजा विहीन किन्तु राजाओं सृदृश, अश्वों के स्वामी योद्धा, शिकारी, जिन्होंने शिरो वस्त्र भाले तथा धनुष धारण किये हुये हैं, अश्वों अथवा हरिणों से खींचे जाने वाले रथों में गतिशील, इन्द्र के सैनिक, रूद्र की सन्तान, जिन में न कई उच्च है तथा न कोई नीच, जो अपने एक दूसरे को भ्राता कह कर सम्बोधित करते हैं, जो विशाल समूहों में जीवन यापन तथा युद्ध करते हैं तथा जो पृथ्वी को अपनी "माता" कहते हैं कौन हैं वे भारत के निवासी नहीं हो सकते क्योंकि हरिणों द्वारा खींची जाने वाली रथ गाड़ियां भारतीय संदर्भ में कल्पना से परे की बात है तथा यह अकेला तथ्य

59. ibid., VI, 5/6/2.
60. ibid., 5/59/6.
61. ibid., 1/60/5.
62. ibid., 1/85/8.

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ही सुस्पष्ट रूप से साईबेरिया के मैदानों की ओर संकेत करता है। यह बात भली भान्ति विदित है कि सिथिया के लोग अपनी गाड़ियों को खींचने के लिये हरिणों का प्रयोग करते थे तथा इस्कीमों तो अब तक भी करते हैं। शाल्व नाम का अर्थ एक हरिण अथवा गज़ेले से है तथा यह सिथिया मूल का63 एक जाट कुल है जैसा कि आज के स्यालरूसविद्वान निकोलस मर्र इस विचार का था कि अश्वों के प्रयोग से पूर्व हरिण सवारी के काम आते थे तथा उस का यह विचार पुरातत्व-वत्ताओं द्वारा सही सिद्ध हुआ है।64 उपर्युक्त प्रत्येक विशेषता केवल एक ही दिशा की ओर संकेत करती है कि वे सीथिया के लोग हैं, एशिया के उत्तरी मैदानों के जटे हैं। उन का संघात्मक अथवा साम्यवादी जीवन तथा युद्ध करने का ढंग, उन की लोकतांत्रिक राजा विहीन शासन प्रणाली, उनकी उपस्थिति से विश्व में भय, संचार, पूर्ण रूप में वास्तविक चित्रण है। यह भी अर्थपूर्ण है कि यहां पर उन्हें सुजात तथा ज्येष्ठ कहा गया है क्योंकि ये दोनों नाम पुराणों में जाटों के उद्भव के साथ जुड़े हुए हैं।
वे इन्द्र के सैनिक हैं, वे आर्य हैं, वे गुत हैं जिन के विषय में सुमेरिया की राजाओं की सूची के लेखक प्रश्न करते हैं, कौन राजा था? कौन राजा न था ? क्योंकि वे राजा विहीन (अराजिनः) थे ; सभी राजा थे तथा कोई भी राजा न था।
रुद्र के इन पुत्रों, मरूतों की सीथिया के जटों के साथ सादृश्यता की पुष्टि वैदिक साहित्य से भी हो जाती है। 'शतपथ ब्राह्मण' में एक मरूत नामक राजा का उल्लेख है जोकि अश्वमेध यज्ञ कर रहा था जिसमें मरूत उस के अंगरक्षक है, अग्नि उस की प्रमुख विश्वासपात्रा है तथा समस्त देवता (विश्वः देवा) उस के दरबारी हैं। उपरोक्त विवरण में हम मरूत नाम के राजा का उल्लेख पाते हैं तथा निस्संदेह मरूत अंगरक्षक उस के सैनिक हैं तथा अश्वमेध यज्ञ एक मध्य एशियाई रीति है जिसका अनुकरण मण्डों, सीथियों तथा हूणों द्वारा किया गया है। इन मरूतों को "रुद्र की सन्तान" कहा गया है तथा रुद्र की परिभाषा इस प्रकार की गई है, "जो अपने शत्रुओं को रुला देता है।" किन्तु अथर्ववेद में हम एक अर्थ पूर्ण उल्लेख पाते हैं जिस में कहा गया है कि रुद्र "गर्त" अथवा गर्तसद लोगों का राजा था।65

सतुहि श्रुतं गर्त सदं जनानाम्‌ राजानं भीम मुपहत्नुमुग्रम।
मृडा जरित्रे रुद्र स्तवानों अन्य मस्मत्तेनि वपन्तु सेनयेम्‌॥ (18/1/40)

यहां पर रुद्र को "गर्त सद॑ जनानाम राजानम्‌" कहा गया है। एस.डी. सातवलेकर गर्तसद शब्द का अनुवाद इस प्रकार करता है। वह जो सब के शरीर में निवास करता है।66 किन्तु यह नितान्त गलत है क्योंकि लोगों का राजा जो सब के अन्दर रहता है

63. JA, 1929, pp. 312-325.
64. American Journal of Archaeology, Vol. 37, p. 30.
65. Satapatha Brahmana, XIII, 5/4-6.
66. Daivata Samhita, Vol. II, pt. 7, p. 6.

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अर्थ-हीन है। सातवलेकर इस तथ्य के प्रति सजग हैं तथा कहते हैं कि ये शब्द "जनानाम्‌ राजानं रुद्रम है।" इतना कहते हुए भी वह असन्तुष्ट दिखाई देते हैं तथा कहते हैं कि शब्द "गर्त सद" पर अन्य शब्दों के संदर्भ में विचार किया जाना चाहिये तथा अन्त में वह "गर्त" को गुफा (गुहा) का समानार्थक लेते हैं। किन्तु "गर्त" वही हैं जैसे कि ईरान के असि गर्त हैं। यूनानियों के सगर्तदारा महान्‌ के विरोधी चित्रतख्म को एक असगर्त कहा गया है। असि लोगों का नाम है जिस का अर्थ अश्व से है तथा गर्त जाट के लिये प्रयुक्त किया गया है इस लिये असगर्त का अर्थ {है} वह जाट जो एक अश्व का स्वामी है अथवा जाट अश्व, उसी प्रकार जिस प्रकार भारतीय बरतानवी सेना का भाग — "स्किन्नर का अश्व।" (Skinnar's Horse of the British Army) इस गर्तसद का अर्थ रथ में बैठने वाले भी होता है।
हेरोडोटस के अनुसार हूणों का पुराना नाम अरिमस्प था जिस का अर्थ है अरिम+अस्प = प्रथम घोड़ा, अर्थात्‌ प्रथम घोड़ा (अश्व) यह बात अर्थपूर्ण है कि जालन्धर/कांगड़ा के आस पास के क्षेत्र को पुराणों में "त्रि गर्त" कहा गया है जिस में कि जाट निवास करते थे। स्पष्टतयः इस को जाटों के तीन कुलों के नाम पर ऐसा कहा गया है यद्यपि पाणिनी के समय में ये कुल तीन से बढ़ कर 6 हो गये।67 अब ऐत्रेय ब्राह्मण में शुनहशेप नाम के व्यक्ति का उल्लेख है जोकि अजिगर्त का पुत्र है। यहां पर अजिगर्त की तुलना असिगर्त/असगर्त से करनी पड़ेगी। इस शुनहशेप को जो विशेषकर एक ईरानी नाम है, विश्वमित्र द्वारा दत्तक पुत्र बनाया गया था तथा विश्वमित्र स्वयं गाथी अथवा गथिनों का पुत्र था। इस घटना के विषय में आर.एस. शर्मा का कथन है कि यह पुरोहितों द्वारा वंशावली घड़ने की चतुराई का प्राचीन उदाहरण है जोकि वे विदेशियों के विषय में घड़ते थे।68 स्पष्ट रूप से अजिगर्त तथा उसका पुत्र भारतीय नहीं थे।
अथर्ववेद की ऊपर उद्भूत सूक्ति, का वर्णन साम्य ऋग्वेद में भी है किन्तु वाक्यांश "गर्त सदं जनानाम्‌ राजानम्‌" को किंचित परिवर्तन कर "गर्त सदं युवानाम मृगम् न" कर दिया गया है। इससे पूर्व ऋग्वेद की ऋचा (2/33/10) रुद्र के अस्त्रों शस्त्रों का उल्लेख करने के पश्चात् कहती है, "है रुद्र तुम से अधिक बलवान्‌ अन्य कोई नहीं है।" (त्वत ओजीयो न वा अस्ति)69
जी.डी. उपाध्याय (G.D. Upadhyaya) शतपथ ब्राह्मण भाग I के अपने हिन्दी अनुवाद में सद्दिन शब्द का अनुवाद अश्वारोही के रूप में करते हैं। असद शब्द का उल्लेख पैदल के रूप में किया गया है; प्रकट रूप से, असद के विपरीतार्थक सद का अर्थ होगा,

67. See also Sukumar Sen, Old Persian Inscriptions (1941).
68. Sudras in Ancient India, p. 65.
69. SED, p. 1139.

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वह जो पैदल नहीं है अर्थात्‌ एक अश्व अथवा रथ आरोही। संस्कृत आंग्ल शब्द कोष SED में सद की परिभाषा अश्व पर बैठना/सवारी करना है। सदित की परिभाषा अश्वारोही के रूप में दी गई है। सद्य की परिभाषा चढ़ने वाले घोड़े (सवारी के लिये) के रूप में की गई है। गर्त की परिभाषा एक उच्च स्थान अथवा सिंहासन के रूप में की गई है अथवा रथ में बैठने का स्थान।70 इस प्रकार गर्तसद जिसे किन्हीं लोगों के लिये प्रयुक्त किया गया है, उसे एक रथ अथवा अश्वारूढ़ लोगों के रूप में भी लिया जा सकता है। यह परिभाषा पूर्ण रूप से सीथिया के लोगों अथवा मस्साजटे पर सटीक बैठती है।
ऋग्वेद उन हरिणों का उल्लेख पृषदश्व के रूप में करता है जिन्हें अश्वों के स्थान पर प्रयुक्त किया गया है। मरूत उन्हें कहा जाता है जो हरिणों का प्रयोग अश्वों के स्थान पर करते है।71 अश्वालयन सूत्र में सद्य का उल्लेख सवारी के योग्य अश्व के रूप में किया गया है। ऋग्वेद में 'सुजात' लोगों की एक उपाधि बताई गई है।
पुराणों ने जाट शब्द की व्युत्पत्ति सुजात से की है। हम इस से पूर्व देख चुके हैं कि उणादि वृत्ति के अनुसार शब्द जाट का अर्थ राजा, एक उपाधि से है। Vedic Index में यद्यपि ऐसा कहा गया है कि "यह बात तर्क संगत नहीं होगी कि सुजात को साधारण लोगों के प्रतिकूल राजकीय एवं विशिष्ट लोग कहा जाए।"72 बुद्ध प्रकाश ने भारतीय शब्द मशक को मस्साजटे का समानार्थक बताया है।73 शकद्वीप में मशक एक देश का नाम है जहां क्षत्रिय निवास करते हैं।74 पाणिनी मशकावती नाम की एक नदी का उल्लेख करता है जोकि प्रकटतया उसी क्षेत्र में होगी तथापि मस्साजटों तथा सीथियों में अधिक भेद नहीं था चाहे वे प्रायः आपस में लड़ते भी रहते थे। किन्तु इस प्रकार के झगड़े तो निचले साइबेरिया के मैदानों में नियमित रूप से होते रहते थे तथा शान्तिमय अस्तित्व में यह व्यवधान, एशिया तथा यूरोप के इतिहास पर प्रभाव डालने वाले सिद्ध हुए। ऐसा आर्यों की गतिविधियों से लेकर मुगलों की गतिविधियों तक निरन्तर होता रहा। हेरोडोटस के अनुसार वेश-भूषा तथा रहन-सहन के ढ़ंग में मस्साजटे सीथियों से मिलते जुलते थे। वे या तो अश्व की पीठ पर आरूढ़ हो कर अथवा पैदल युद्ध करते हैं। उन के शस्त्र या तो स्वर्ण के होते हैं अथवा पीतल के।75
अब हम एक परिकल्पना प्रस्तुत करते हैं.....शब्द गर्त सद वही है जैसा कि गर्त सीथ अथवा जाट सीथियन अथवा यूनानी लेखकों के सीथियों जटे। यहां पर हमें इस

70. ibid., p. 349.
71. HVI, Vol. II, p. 22.
72. ibid., Vol. II, p. 501.
73. P&SM, p. 40.
74. SED, p. 793.
75. op. cit., Bk. 1, p. 215.

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बात को स्मरण रखना चाहिये कि आर्मीनिया के राजा मनुआ ने जो कि वेन/बेन राजवंश का था, अपने नाम पर एक नगर की स्थापना की और उसे मनवश गर्त कहा, जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया है। हम दूसरे शब्द सद अथवा सद्‌ के विषय में पूर्ण रूप से विश्वस्त नहीं हैं किन्तु इस की समानता सीथ से करना क्या असम्भव हैं ? निस्संदेह हम यहां ऋचाओं का ऐतिहासिक पक्ष ही ले रहे हैं। यजुर्वेद के अनुसार पृथ्वी पर ये रुद्र असंख्य (गिनती में) हैं (असंख्याताः सहस्राणि ये रुद्र अधि भूभ्याम्‌)।
रुद्र मरुतों के विषय में उनकी असंख्य गिनती के बारे में टिप्पणी को, यूनानी लेखों की सिथिया के जटे के बारे में इस टिप्पणी से तुलना करनी होगी। ये लेखक टिप्पणी करते हैं कि जटे इतने भयंकर तथा असंख्य थे कि यदि उनमें एकता होती तो पृथ्वी की कोई शक्ति उन्हें रोक नहीं सकती थी।
हम असीरियों, ईरानियों तथा सिकन्दर के अधीन यूनानियों के साथ उन के युद्धों के विषय में जान ही चुके हैं। जिस प्रकार मौरों ने भारत में अपना साम्राज्य स्थापित किया, जाटों ने कैस्पियन सागर के दक्षिण में अपने साम्राज्य की स्थापना की। अर्षक (ईरानियों के अशक) के नेतृत्व में उन्होंने 256 ई.पू. में सेल्यूसिद यूनानियों का तख्ता पलट दिया तथा पर्थियों अथवा अर्षक के साम्राज्य की नींव रखी। इस मत के समर्थन में कि यह अर्षक, दहि/दहिया कुल से थे, हम इससे पूर्व 'Maki' को उद्धृत कर चुके हैं। अन्य इतिहासकार भी इस तथ्य को स्वीकारते हैं किन्तु कइयों का यह विचार है कि अर्षक का लालन पालन दहि लोगों के मध्य में हुआ।76 ईरानियों की बज़ाये उन्हें तुरानी स्वीकार किया जाता है। यह बात अर्थपूर्ण है कि शाहनामा में फिरदौसी ने उन्हें मुलुक-अत-तवई, जिस का अर्थ है कबीलों के बादशाह, कहा है। निस्संदेह वे ईरानकबीले के न थे अपितु तुरानी अथवा सिथियन जटे कुलों के थे। फिर यह बात भी अर्थपूर्ण है कि उन की राजकीय कार्य की भाषा यूनानी थी न कि फारसी। उनका राजा वॉलोगस प्रथम, प्रथम राजा था जो पूर्ण रूप से जुरश्त धर्म में परिवर्तित हुआ था उन के धर्म-ग्रन्थों को उस ने वर्गीकृत किया एवं संकलित करवाया। मित्रदात समाट I (171—136 ई.पू.) ने ईरान के मूल क्षेत्र को विजित किया। ने वही लोग थे जोकि सूर्य देवता के उपासक थे तथा जिन्होंने कर्रहे की लड़ाई में जनरल क्रासस के नेतृत्व में 53 ई.पू. रोम की सेनाओं को पराजित किया था। यही पर रोम निवासियों ने प्रथम बार रेशमी तथा रंगीन पताकाएं देखीं। इस के बाद में भी वे रोम की सेनाओं के साथ बार-बार युद्ध करते रहे जिन में विख्यात मार्क एंटोनी के नेतृत्व में रोम की सेनाओं के साथ उन का युद्ध भी सम्मिलित है। उन का अन्तिम राजा आर्तबनु {चतुर्थ} 224 ई. में तीन युद्धों के पश्चात्‌ सासानी राजवंश के ईरानी राजा आर्दशीर द्वारा पराजित किया गया। इस प्रकार 480 वर्षों के शासन के पश्चात्‌ दहियों जाटों के राज्य का अन्त हो गया। अर्रियन के अनुसार मित्रदात ने सिंधु

76. Stein Konow, CII, Vol. II, pt. I, footnote.

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नदी तक क्षेत्र विजित किया तथा सिंधु नदी एवं जेहलम नदी के मध्य के क्षेत्र को अपने अधीन कर लिया। अजेस, गोन्दोपर्ण आदि भारतीय-पर्थियन राजा केस्पियन सागर के दक्षिण में अपने सम्राटों के प्रतिनिधि के रूप में इन क्षेत्रों पर राज्य करते थे।77
अब यहां तनिक महाभारत की पुनः चर्चा करें। इस महाकाव्य में हम अनेक जाट कुलों का उल्लेख पाते हैं। जहां तक बहु-पति प्रथा का सम्बन्ध है, इस पर आम सहमति यही है कि यह भारत की एक देशीय प्रथा नहीं थी जबकि दूसरी और मध्य एशियाई लोगों में यह प्रथा आम प्रचलित थी। हैरोडोटस के अनुसार मस्साजटे में यह एक प्रथा थी कि सभी भाई अपनी पत्नियों का मिल कर भोग करते थे।78 अनेक मध्य एशियाई लोगों में भी यह प्रथा पाए जाने के उल्लेख मिलते है। हिमालयी क्षेत्र के लोगों में तो यह प्रथा आज भी पाई जाती है। हम महाभारत के माध्यम से यह भी जानते हैं कि द्रोपदी पांच पांडवों से संयुक्त रूप में विवाही गई। उस के पिता ने नैतिकता के आधार पर इस पर आपत्ति की तथा युधिष्ठिर ने इस आधार पर इसे उचित ठहराया कि यह उन की एक नितान्त पुरानी प्रथा है। तथा नैतिकता के सूक्ष्म पक्षों के बावज़ूद, उसे इस प्रथा का अनुकरण करना ही होगा।79

सूक्ष्मो धर्मो महाराज नास्य विदनों वयं गतिम् ।
पूर्वेषामनुपूर्वेण यातं वर्त्मानु यामहे ॥

प्रश्न इस श्लोक में प्रथम पंक्ति का अंतिम शब्द 'गतिम्‌' क्या सही रूप में प्रयुक्त किया गया है? क्या यह 'वयं' से जुड़ा हुआ नहीं है, जिस का अर्थ है "हम गुत"। अर्थात्, “महाराज, हम गुत, सूक्ष्म धर्म नहीं जानते ; हम तो वही करेंगे जो प्राचीन काल से हमारे पुरखा करते आए हैं।" युधिष्ठिर के वे कौन से पुरखे थे जो बहुपति प्रथा का पालन करते थे ?
बुद्ध प्रकाश तर्क प्रस्तुत करते हैं कि अर्जुन, जो पाण्डव वीर नायक है, वह शक/यू.ची का प्रतीक है, भीम वृकों का प्रतीक है, युधिष्ठिर यौध्येयों का प्रतीक है तथा नकुल एवं सहदेव मद्र के प्रतीक हैं।80
यहां पर यू.ची निस्संदेह गुती अर्थात्‌ जाट हैं, वृक एक जाट कुल है। इसी प्रकार योध्य (जोहिया जाट कुल) है तथा मद्र (मदान/मधान गाट कुल) है। क्या इससे यह बात सिद्ध नहीं होती कि पाण्डव जाट थे ? हम इस टिप्पणी की पुष्टि इस तथ्य में पाते हैं। धूमकारी जातक (नं 413) यह कहता है, इन्दपट्ट (इन्द्रप्रस्थ) पर युद्धिथिल (युधिष्ठिर) गोत्त का शासन था। अब प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि युधिष्ठिर को गोट/गोट्ट क्यों कहा गया है ? उत्तर स्पष्ट है : पाण्डव जाट थे। इस से उन की विलक्षण प्रथाओं की

77. P.C. Davar, Iran and its Culture, p. 172.
78. op. cit., Bk. I, 216.
79. MBT, 1/20/29.
80. P&SM, p. 90.

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व्याख्या मिलती है। उन की बहुपति प्रथा, उन की रक्त रंजित शपथें, अपने शत्रुओं के वक्ष स्थल से रक्त का पीना तथा अपने शत्रुओं के रक्त से द्रौपदी का अपने केशों को धोना। ये सब पूर्णतयः अभारतीय प्रथायें हैं। हमें यहां इस पर भी ध्यान देना चाहिये कि मद्र का राजा शल्य, वधु का मूल्य इस आधार पर लेना उचित ठहराता है क्योंकि यह उन लोगों की एक पुरानी प्रथा थी। उत्तरी ईरान में तो यह प्रथा आज भी प्रचलित है। सम्भवतः इन्हीं कारणों से प्रख्यात इतिहासकार टायन्बी (Toynbee) का यह मत था कि "महाभारत" सिथियों की देन है।81 सिकन्दर के आक्रमण काल में उत्तर पश्चिम भारत के लोगों का उल्लेख करते हुए टायन्बी कहते हैं, "इस कल्पना का लोभ संवरण करना कठिन है कि सिंधु धाटी में ई.पू. 327-324 में सिकन्दर महान्‌ को जिन युद्ध प्रिय समुदायों से जूझना पड़ा वे यूरेशियन यायावरों के वंशज थे जिन्हें आर्यों के बाद के किसी निकटवर्ती काल में (वाल्केर बांडर रंग) महान्‌ जबन निसर्जन लहर द्वारा वहां ला कर बसाया गया था। बाद का यह निकटवर्ती काल जिस में, स्टेपे Steppes के क्षेत्र में मरुस्थल एवं भूमि से उबाल उठने की स्थिति देखी गई है, वह ई.पू. 825 से लेकर 525 तक का समय रहा होगा। यह समय आंशिक रूप से बेबीलोनिया के बहुचर्तित विपत्तिकाल (1000-600 ई.पू.) तथा सीरिया के बहुचर्चित विपत्तिकाल (925-525 ई.पू.) के समकालीन ठहरता है।82 टायन्बी जैसे लब्ध प्रतिष्ठित इतिहासकार का हमारे मत की ओर झुकाव देखना निश्चित रूप से संतोषप्रद है।
इससे पूर्व काल में भी इस तरह के स्थानांतरणों, प्रव्रजनों एवं गतिविधियों का उल्लेख करते हुए बुद्ध प्रकाश लिखते हैं, "वैदिक काल में, आक्रमणों तथा प्रव्रजनों के जो रेले आए, उन में सशक्त ईरानी तथा बकतेरियाई धाराएं प्रभावी थीं, जो पंजाब में बहुविध कबीलों के अथाह संगम के बीच एकाकार हो गई और उस के बाद वह पूर्व दिशा की ओर बढ़ीं।"83 पुरातन इतिहास का वही यह काल है अर्थात्‌ आदि ऐतिहासिक काल से लेकर सिकन्दर तथा मौर्यों के युद्धों के काल तक (जिसमें हमें अपने इतिहास के वास्तविक स्वरूप की खोज करनी होगी तथा अध्ययन की इस प्रक्रिया को केवल भारतीय दृष्टिकोण के अनुसार शुरू नहीं करना होगा, किन्तु समग्र एशियाई दृष्टिकोण से मानवता कभी भी चहूं ओर से बन्द अंधी गुफाओं में सिमट सिकुड़ कर नहीं रहती और न ही अप्राकृतिक राष्ट्रीय सीमाएं इस का चक्रवाती प्रवाह रोकने में कभी सफल होती हैं। ना तो चीन की प्रख्यात दीवार ने चीनियों को बचाया, और न ही संकल्पबद्ध जाटों से रोमनों की दीवार रोमनों को सुरक्षित रख सकी। जहां तक स्वयं भारत का सम्बन्ध है हम देख चुके है कि किस तरह निरन्तर संघर्षरत रहते हुए जाटों ने नन्दल, मोर, कुश्वान अथवा कुशान, धारण अथवा गुप्त, कलिकल अथवा वाकाटक, विर्क अथवा बैंस कुलों के नेतृत्व

81. A.J. Toynbee, A Study of History, Vol. V, pp. 605-606.
82. ibid., p. 274.
83. op cit., p. 79.

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में हज़ारों से अधिक समय तक, एक के बाद एक साम्राज्य स्थापित किये। सर्वप्रथम वे अपने आर्य कुल के साथ आये, फिर अपने कुरु (कुर आज के कर/खर) कुल के साथ आये, फिर उस के पश्चात्‌ वे अपने विर्क, मंड, मधान, मौर, कश्वान, गुस्सर कुलों के नेतृत्व में भारत में प्रव्रजन करते रहे।
मसौदी ने भी भारत यात्रा की थी। वह 947 ई. की अपनी प्रख्यात कृति Golden Meadows में जाट वंशों पर इस प्रकार कुछ प्रकाश डालता है, "फोरों का वंश, जो सिकन्दर के अधीन आ गया, ने लगभग 140 वर्ष तक शासन किया। इस के बाद दबसकलिम का वंश आया जिस ने 120 वर्षों तक शासन किया। फिर आया यल्छित (बल्हित) जिन्होंने 80 वर्ष तक शासन किया। कुछ लोग इसे 130 वर्ष का काल कहते हैं।"
"अगला वंश कुरू वंश अथवा कुरूश वंश था जिस ने 120 वर्षों तक शासन किया।"
"इस के पश्चात्‌ भारतीय लोग विभक्त हो गये और उन्होंने अनेक राज्य बना लिए। सिंध देश में एक राजा था, एक राजा कन्नौज का था। एक कश्मीर में था तथा चौथा मन्कीर नगर में तथा जिस राजा का शासन वहां था उस की उपाधि बल्हार थी।"84
यहां इस प्रश्न का उत्तर पाना अनिवार्य है कि इस क्रम में फोर के बाद मौर्यों का वर्णन क्यों नहीं हुआ, दबसकलिम कौन थे? क्या परवर्ती पौर राज्य को सिकन्दर के प्रतिद्वंदी प्रख्यात पोरस के साथ उलझा दिया गया है? हम इतिहासकार स्ट्राबो (Strabo) के हवाले से जानते हैं कि पोरस (फोर/पौर) जिस के अधीनस्थ 600 राजा थे, ने रोम के सम्राट्‌ आगस्टस के दरबार में अपना दूत भेजा था।85 जहां तक बल्हारों का सम्बन्ध है 'कर्पूर मन्जरी' भी उन का उल्लेख बलहर के रूप में ही करती है। वे बल्लभीपुर के शासक थे। कन्निंघम के अनुसार, मण्डली तथा मैगस्थनीज़ द्वारा वर्णित मोनदी एक ही लोग थे।86 और यही लोग प्राचीन काल के मण्ड भी हैं।

84. Asiatic Researches, Vol. IX, p. 181.
85. Strabo, Geography, bk. XV, ch. 1, p. 73.
86. op. cit., pp. 508-509.

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