Jat Prachin Shasak/Bharat Me Jat Kul
विकिफाईअर : चौ. रेयांश सिंह
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भारत में जाट कुल
भारत में जाट कुल
हम यहां पर भारत में आज कल विद्यमान जाट कुलों के नाम दे रहे हैं इन में से कुछ नामों के अन्त में 'आन्' प्रत्यय लगाया गया है। ऐसा पाणिनी के निम्न नियम के अनुसार हुआ है।1
इस का अर्थ यह है कि 'अन्' प्रत्यय शब्द के पश्चात् वंशज के रूप में आता है, जोकि देश तथा क्षत्रिय कुल दोनों का ही नाम है। यही स्थिति 'ल/र' प्रत्यय को लेकर भी है। 'या' प्रत्यय का 'आ' के साथ परिवर्तित हो सकता है। जैसे पुनिया/पुनिआ, गुलिआ/गुलिया, तेवतिआ/तेवतिया, दहिआ/दहिया इत्यादि। दोनों रूप समान रूप में शुद्ध हैं किन्तु यहां पर प्रायः द्वितीय रूप का ही प्रयोग किया गया है। इसी तरह 'न' और 'ण' प्रत्यय भी आपस में परिवर्तनीय हैं। भारतीय कृतियों में प्रायः 'क' प्रत्यय का प्रयोग भी कई बार किया गया है। अन्त में 'क' का प्रयोग एक सामान्य संस्कृत प्रत्यय के रूप में किया जाता है। इसे जातीय नामों के साथ स्वेच्छा से जोड़ दिया जाता है या हटा लिया जाता है।2 उदाहरणस्वरूप मद्र (मद्रक), लिच्छवी (लिच्छविक), खोखर (खोखरक), मान (मानक), इत्यादि। इसलिये पौराणिक नामों के साथ तुलना करते हुए 'क' प्रत्यय को छोड़ देना चाहिये। यह देख कर वास्तव में आश्चर्य होता है कि इन समस्त नामों को प्राचीन स्वरूप तथा गौरव सहित सुरक्षित रखा गया है।
कालकाचार्य की जैन परम्पराओं के अनुसार प्रथम शताब्दी ई.पू. में 95 अथवा 96 कुल प्रमुख थे,3 अब इन कुलों की संख्या 400 से अधिक है। व्यावहारिक रूप में उन सब का उल्लेख इब्बटसन तथा अन्य इतिहासकारों ने A Glossary of Tribes and Castes in N.W. Frontier and the Punjab में किया है।4
वी.एस. अग्रवाल के अनुसार, "यदि किसी जनपद में सत्तारूढ़ क्षत्रिय जाति के अतिरिक्त अन्य जातियां भी रहती हों तो भी राजनीतिक प्रभुसत्ता उस प्रमुख क्षत्रिय के हाथ में ही रहती थी जिसने इस जनपद की स्थापना की थी"।5 अतः यदि किसी
- 1. Ashtadhyayi, IV, 1, 68.
- 2. Justin, op. cit., p. 351.
- 3. JBORS, 1930, Vol. XVI, p. 233/34.
- 4. Compiled by A.C. Rose, 1970. Rose, or Roj is a Jat clan.
- 5. op. cit., p. 425.
जनपद का नाम ब्राह्मण आदि के नाम पर लगे तो इस का अर्थ यह नहीं लिया जाना चाहिये कि यह जनपद किसी ब्राह्मण द्वारा स्थापित किया गया था। क्योंकि निर्विवाद रूप में सभी जनपदों के नाम क्षत्रिय कुलों के नाम पर ही रखे गये हैं। उदाहरणस्वरूप 'अत्री' ब्राह्मणों की ओर संकेत नहीं करता बल्कि इस का सम्बन्ध अत्री जाटों से है, क्योंकि उन्हें स्पष्ट रूप में मलेच्छ कहा गया है। ब्राह्मणों के उपनाम पुरातन ऋषियों के नामों पर या फिर उन नदियों या प्रदेशों के नामों पर हैं, जहां के वे रहने वाले थे; जैसे सारस्वत सरस्वती नदी से, चाणक्य चणक गांव से, गौड़ उत्तर बंगाल में स्थित गौड़ से जो पंजाब के शाकल के राजा द्वारा स्थापित किया गया था।6
हम ने यहां इन सभी कुल नामों को एकत्रित करने का हर सम्भव प्रयास किया है फिर भी यह हो सकता है कि कुछ नाम छूट गये हों। इन नामों को इन के शुद्ध उच्चारण में साथ प्रस्तुत करने के लिये उन्हें अंग्रेज़ी व हिन्दी दोनों भाषाओं में दिया जा रहा है। पाठकों के सहज संदर्भ में लिये इसे अंग्रेज़ी वर्णमाला के क्रमानुसार प्रस्तुत किया जा रहा है। यह कितनी लज्जा की बात है कि भारतीय कृतियों में जाटों के नाम इतनी प्रचुरता से उपलब्ध हैं किन्तु भारतीय इतिहासकार इस सत्य से साक्षात्कार करने में पूर्ण रूप से असफल रहे। उन की यह असफलता उस समय और भी अधिक आघातपूर्ण हो जाती है जब हम इन कुल नामों को आज भी उन के मूल एवं शुद्ध रूप में प्रयुक्त होता देखते हैं तथा प्रतिदिन समाचारों में एवं समाचार पत्रों में इन नामों को पढ़ते, सुनते हैं। यह स्थिति किस अज्ञानता के कारण बनी, यह पूर्ण सत्य नहीं है, पूर्ण सत्य तो यह है कि हमारे देश का बौद्धिक वातावरण इस सीमा तक प्रदूषित एवं दुराग्रही हो चुका है6a कि डॉक्टर जायसवाल, दशरथ शर्मा यह सिद्ध कर चुके हैं कि तथाकथित गुप्त सम्राट् वास्तव में धारण कुल के जाट थे, किन्तु मजूमदार व अल्टेकर आदि अब भी इसे 'गम्भीर इतिहास' न मानते हुए नकार रहे हैं। देखिये, उन द्वारा लिखित "वाकाटक गुप्त काल (Vakataka Gupta Age)" नामक कृति। शायद इन के लिये भ्रान्त धारणाएं और झूठ को चिरस्थायी करना ही गम्भीर इतिहास है। छठी शताब्दी में व्याकरणाचार्य चन्द्र गोमन यह लिखते हैं, "अजेय जाटों ने हूणों को पराजित किया।" किन्तु वर्तमान शताब्दी में रहने वाले एस.के. बेल्वेलकर यह चाहते हैं कि जाट शब्द को गुप्त में परिवर्तित किया जाना चाहिये। इस जाट शब्द के प्रति इतनी घृणा क्यों? बामियान से लेकर बनारस तक, मकरान से लेकर मालवा तक, कश्मीर से लेकर कच्छ तक, जाट आज भी पाये जाते हैं, किन्तु इतिहास बार-बार निरन्तरता से एक ही रट लगाये चला जा रहा है कि क्षहरात, कुषाणों, किदारों तथा हूणों सभी को पवित्र भारत से खदेड़ दिया गया था और बिड़म्बना यह कि जिन
- 6. Tribes and Castes, Vol. I, p. 22, note 3.
- 6a. For a refreshing change, see "The Classical Age", p. 174.
- 7. System of Sanskrit Grammar, p. 58.
लोगों द्वारा ये खदेड़े गये कहे गये वे सब भारशिव, विरक, विष्णु वर्धन, धारण/गुप्त, गणतन्त्र कबीले जाट ही थे।
हमें इस बात के लिये यूरोपीय विद्वानों का आभारी होना चाहिये कि उन्होंने 19वीं तथा 20वीं शती में पुरातन इतिहास को निष्क्रियता की स्थिति से उभारा और तब यह खोज आरम्भ हुई कि भारतीय इतिहास के किस काल को "स्वर्णिम युग" की संज्ञा दी जाये। मौर्यों का तो प्रश्न ही नहीं उठता था क्योंकि वे शूद्र थे और "युग पुराण" ने उन्हें "नितान्त अधार्मिक" माना था। (स्वराष्ट्रम् मर्दन्ते घोर धर्मवादी अधार्मिक)।
अतः गुप्त काल को "स्वर्णिम युग" का सम्मान देने के प्रयत्न होने लगे। किन्तु डा. जायसवाल इतना जान चुके थे कि गुप्त सम्राट भी जाट ही थे इसलिये उन की पूर्ण प्रशंसा कैसे की जा सकती है ? अतः एक नाटक कृति में चण्ड़सेन नाम के एक पात्र को खोज निकाला गया जो अपने दत्तक पिता का हत्यारा था तथा जिस ने अवैध रूप से सत्ता हथिया ली थी। यह केवल यह दिखाने के लिये किया गया कि गुप्त लोग कितने बुरे थे और किस तरह वह भारतीय जनमत के नैतिक दबाव के अन्तर्गत बुरे से अच्छे हुए। क्या यह दबाव, जिस ने उन्हें रातों रात बुरे से अच्छा बना दिया, स्वयं में इतना सशक्त नहीं था कि उन्हें सिंहासन से उतार फेंकता ?
अब वह समय आ गया है जबकि देश के इतिहास को उस के विशुद्ध रूप में प्रस्तुत किया जाये तथा उन वीर जाटों के साथ न्याय किया जाये जो देश के गौरव हैं। एक कहावत है "न्याय में देरी अर्थात् न्याय से इन्कार"। और ऐसा इन्कार निश्चय ही महत्वपूर्ण ऐतिहासिक विषयों पर लागू नहीं होना चाहिये।
"महाभारत" में यह उल्लेख मिलता है कि कंगों (कनक) तथा तुषारों ने युधिष्ठिर को उपहार में अश्व दिये। इस में यह भी लिखा है कि चीना (छीना), हूण, शक, ओद्रान हिमालय पर्वतमाला के पार रहते थे।
शिबी (सिबिया जाटों) को तो यूनानी भी जानते हैं और भारतीय भी पंजाब में तथा चित्तौड़ (मेवाड़), जहां खुदाई के दौरान इन के सिक्के उपलब्ध हुए हैं, में भी जाने जाते थे। 'विष्णु पुराण' मण्ड़ों, तोखरों, तोमरों, सिद्धों (सिदुओं), सुकंदों, कोकरों/कोखरों आदि का उल्लेख करता है।8 'वायु पुराण' में अत्रियों, हंसों, तोमरों, कुन्दुओं का उल्लेख मिलता है। 'महाभारत' में मुण्डों, जाखड़ों व कई अन्य कुलों का वर्णन है, सभापर्व में कुण्ड, मान, पौर, हंस तथा शिवि का उल्लेख हुआ है।9 वराहमिहिर, पंघालों, खटकलों, ऐलावतों, जटासरों का उल्लेख करता है। कल्हण की राजतरंगिनी में ढांचों, ढोंचकों, ब्रिन्ग, लोहरों, कुलारों, गोंदलों, तुक्खरों से सम्बन्धित कई संदर्भ हैं। चेचिगदेव
- 8. Visnu Purana, pp. 157-162.
- 9. Sabha Parva, 52, 13-18.
का सुण्डाहिल (जोधपुर) का शिलालेख शल्यों (स्यालों) संधों तथा नहरों आदि का पता देता है।10 ऐसे कई विवरण सुरक्षित हैं जिन से पता चलता है कि तक्खरों, गोंदलों, बलहारों तथा लोहरों (मथुरा के लोहरिया जाट) ने कश्मीर के इतिहास में एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। स्यालों तथा विरकों के विषय में पंजाब तथा मथुरा क्षेत्रों से उन के राजाओं के अभिलेखों से पता चलता है। दक्षिणी महाराष्ट्र से उपलब्ध सिक्कों से हम मानों का परिचय प्राप्त करते हैं, इसी तरह टांकों का पता हम उड़ीसा तथा बंगाल से प्राप्त सिक्कों से पाते हैं। इसी प्रकार जोहलों का परिचय उन के राजाओं तथा भारत के उत्तर पश्चिमी राज्यों से उन के सिक्कों से प्राप्त करते हैं। कटारिया, पीरू तथा घन्गस का पता उन के राजाओं के माध्यम से, कुश्वानों का उन के साम्राज्य तथा महाराजा कनिष्क से, सहरवातों का उन के 400 वर्ष के पश्चिमी क्षत्रपों के रुप में शासन काल से, और कई अन्य कुल अपने गणराज्यों के माध्यम से जाने जाते हैं। काकों, खरपरों, सनकनिकों का परिचय हमें समुद्र गुप्त धारण के इलाहाबाद स्तम्भ लेख से मिलता है। क्या ये वही नहीं हैं जो काकरान/काक खरप तथा सलकलान हैं ?
डी.आर. भण्डारकर बतिहागढ़ अभिलेख (ज़िला दमोह म. प्र.) में अंकित खरपर नाम के एक कबीले का उल्लेख करते हैं।11 उदयगिरि (भीलसा के समीप एक गुफा अभिलेख 402 ई.) सनकानिक कुल के एक राजा का उल्लेख करता है और सलकलान जाट तो आज भी विद्यमान हैं। जहां केवल 'क' को 'न' में बदला गया है, उष्म वर्णों का प्रयोग तो उन की विशेष रुचि रही है। बुद्ध प्रकाश The age of Mricchakatika में इस नाट्य कृति के अंक. 6 में प्रयुक्त शब्द 'खेरखान' पर विचार करते हुए लिखते हैं, उस (अंगरक्षक) ने विदेशी कबीलों के नामों को एक लम्बी सूची दी जिसमें कई विलक्षण एवं अविख्यात नाम भी हैं और जिन के स्रोतों का पता नहीं हैं। इनमें एक नाम खेरखान भी है।12
बुद्ध प्रकाश एक प्रबुद्ध इतिहासकार हैं जो अपने विषय का सम्पूर्णता एवं पूर्ण गहराई से अध्ययन करते हैं। यदि उन्होंने ज़िला होशियारपुर (पंजाब) तथा सहारनपुर (उत्तर प्रदेश) के जाट कबीलों के नामों का अध्ययन किया होता तो वह कदापि इतने विवश अनुभव न करते। (बुद्ध प्रकाश यहीं रह कर अपना लेखन कार्य करते रहे थे) खेर एक जाट कबीले का नाम है। इस कुल के लोगों को खेर भी कहा जाता है और खान तो मध्य एशिया की एक विख्यात उपाधि है ही जो एक राजा को प्रदान की जाती है, जैसे प्राचीन खाकान तथा मध्य युगीन खान। इस पूर्ण सूची में जिन नामों को दिया गया है
- 10. EI, Vol. IX, p. 74 ff.
- 11. IHQ, Vol. I, p. 258.
- 12. SIH&C, p. 405, ff.
उन में खस, खत्ती, खदोविलय, कन्नड़, कन्नपवरण, द्रविड़, चीना, चोल, बब्बर, खेरखान आदि शामिल हैं।
इसमें खस हिमालय के क्षेत्र में रहने वाले पूर्णतया परिचित लोग हैं, खत्ती क्षत्रिय हैं, जो एक जाट कुल है। खदोविलय में यदि मूल शब्द में 'व' के स्थान पर 'क' हो तो यह खटकल कुल हो सकता है, शेष तीनों नाम दक्षिण भारत में पाये जाने वाले विख्यात नाम हैं। चीना, छीना जाटों के लिये, चोल, चाहल जाटों के लिये हो सकते हैं। (चोल मध्य एशिया में भी थे और चोल दक्षिण भारतीय भी है) बब्बर भी एक जाट कुल का नाम है और खेरखान के बारे में तो ऊपर चर्चा हो ही चुकी है।
यहां यह भी महत्वपूर्ण है कि इन लोगों को म्लेच्छ भी कहा गया है। इन लोगों की पहचान के लिये यह शब्द एक सहज कसौटी है। यदि इन लोगों को म्लेच्छ, शूद्र अथवा वृषल, असुर कहा गया है तो यह बात पूर्ण रूप से निश्चित है कि उपरोक्त नाम विदेशी हैं और अधिक सम्भावना यह है कि ये लोग मध्य एशिया के जाट हैं। इन लोगों के लिये ऐसे शब्दों का प्रयोग (शूद्र, असुर) उस उदण्डता पूर्ण दृष्टिकोण का सीधा परिणाम है जिस की ओर पर्जीतिर (Pargitar) ने विशेष रूप से ध्यान दिलाया कि सभी पंजाबियों को म्लेच्छ अथवा शूद्र कह दिया गया। इतिहासकार हेक्टेयस (Hecataeus) भी सिथियाई राष्ट्र के उन लोगों का उल्लेख करता है जिन्हें मेलन्चेलनी (Melanchhaeni) कहा जाता था सम्भवत इसलिये कि ये लोग काले कपड़े पहनते थे। प्लिनी (Pliny) अपनी कृति "ज्योग्राफी (Geography)" में भी इन लोगों का उल्लेख करता है।13 इतिहासकार टालेमी (Ptolemy) उन्हें बोल्गा के पास स्थित बताता है।14 "भगवद पुराण" स्पष्ट रूप से सात्वाहन वंश के प्रथम राजा सिमुक को "वृषालोबली" कहता है। पातंजलि ने तो सदा ही वृषल शब्द का प्रयोग ब्राह्मण विरोधी अर्थ दे कर किया है।15
अब पहचान सिद्ध करने के लिये कुछ और प्रयास।
समुद्रगुप्त का इलाहाबाद स्थित स्तम्भ आलेख मालवों, आर्जुनायनों, यौधेयों, मद्रों, आभीरों, प्रार्जूनों, सनकनिकों, काकों तथा खरपरिकों का उल्लेख करता है। हम इन में सभी अन्य कुलों की विशद् चर्चा कर चुके हैं, अब हम केवल प्रार्जूण की चर्चा तक ही सीमित रहेंगे। क्या यह एक नाम है? हम जानते हैं कि आर्जुनायनों का पृथक् रूप में वर्णन हुआ है और यह शब्द प्रार्जूण है न कि पराअर्जुन यह उस तरह भी नहीं जैसे कि कम्बोज तथा परा-कम्बोज, तंगण और परातंगण हैं।16 कहने का तात्पर्य इतना ही है
- 13. Pliny, op. cit., VI, 5.
- 14. Quoted by Rawlinson, in his Herodotus, Vol. III, p. 78.
- 15. Patanjali Kalina Bharat (in Hindi), p. 95.
- 16. MBT, VI, 9, 64-65.
कि यह शब्द एक ही कुल के समीपी या दूरस्थ वर्ग का द्योतक नहीं है। हमारा मत यह है कि यह शब्द एक नहीं बल्कि दो कुलों का उल्लेख करता है। प्रार (वर्तमान ब्रार/बरार) तथा जून (वर्तमान जूण कुल) अतः धारण कुल के उस जाट सम्राट् का यह स्तम्भ अभिलेख अन्य जाट कुलों के नाम का ही उल्लेख लिये है।17
- 1. मालव = मल्ल/मल्ली (यूनानियों के मल्लोई)
- 2. आर्जुनायन = अर्जुन/अर्झुन
- 4. मद्र = मद/मदान/मधान18
- 5. अभीर = अबर
- 6. प्रार = ब्रार (अर्थ शास्र का प्राज्जूणक)
- 7. जून = जूण (अर्थ शास्र का प्राज्जूणक)
तथा हमारे मतानुसार कुरू की पहचान वर्तमान खर कबीले के साथ स्थापित हो सकती है, क्योंकि कुरू दरिया को कुर कहा जाता है तथा ईरानी नगर कुरकथा (कुर्कदा) के समानांतर नाम के दो नगर खरखोदा ज़िला रोहतक तथा ज़िला मेरठ में आज भी विद्यमान हैं।
मध्य भारत का डाहल राज्य डाहल जाटों का था। यह नाम जर्मनी के डहल (मन्न) के रूप में पाया जाता है। 'महाभारत' में हम देखते हैं कि विदर्भों का उत्तर के लोगों के साथ, जिन्हें ऋषिक काक तंगण उत्तरा आदि कहा गया है, के साथ उल्लेख आता है।19 अब नागपुर क्षेत्र के 'विदर्भ' लोग उत्तर में क्या कर रहे हैं? क्या वास्तव में वे विदर्भ हैं ? यह सम्भव हो सकता है कि वे जाटों का एक कुल भिण्डर हो तथा उन का नाम बिदर/बिन्दरी से संस्कृतिकरण द्वारा विदर(भ) हो गया हो? यह सम्भव हो सकता है क्योंकि समस्त अन्य नाम, जाट कुलों के हैं। यानी ऋषिक=आर्सिक=असिक=असियाक, काक=काक, तंगणा=तंगन तथा उत्तरा=उतार। अब हम कुल नामों की तालिका प्रस्तुत करते हैं।
- 17. CII, Vol. III, No. 1.
- 18. JRASB, 1925, p. 205.
- 19. MBT, VI, 9, 64-65.
- A
- 1. अबरा
- 2. ऐलावत
- 3. अन्दर
- 4. आन्तल
- 5. आर्य
- 6. अरब/अर्व
- 7. असिआक/सियाग
- 8. अटवाल
- 9. अत्री
- 10. औलख/ओळख
- 11. असरा
- B
- 12. बब्बर
- 13. बगदावत
- 14. बजाड़
- 15. बाजवा
- 16. बल/बाल
- 17. बल्लान
- 18. बलहारा
- 19. बाण
- 20. बैन्स/बेन्स
- 21. बस्सी/वशी
- 22. बाठ
- 23. बेलारी
- 24. बेन्हवाल/बेनीवाल
- 25. भम्बु
- 26. भन्गु/भन्गल
- 27. भिंडर
- 28. भट्टी
- 29. भोपाराय
- 30. भुल्लर
- 31. बरिंग
- 32. बिसला
- 33. ब्रार (बरार)
- 34. बुधवार
- 35. बूरा
- C
- 36. चहल
- 37. चट्ठा
- 38. चौहान/चवान
- 39. चेबुक
- 40. चीमा
- 41. छिल्लर
- 42. छिकारा
- 43. छोंकर
- 44. छीना
- 45. चिमनी
- D
- 46. डबास/डवास
- 47. डागर/डागुर
- 48. दहिया
- 49. दहिमा
- 50. दलाल
- 51. डल/ढल
- 52. दौलता
- 53. डांगी
- 54. दराल
- 55. दशवाल
- 56. देओल/देवल
- 57. धामा/धामी
- 58. धालीवाल/धारिवाल
- 59. ढाका
- 60. धन्खड़
- 61. ढांच
- 62. ढान्डा
- 63. धनोया
- 64. धारण
- 65. ढिल्लों
- 66. ढिन्डसा
- 67. ढिन्डवाल
- 68. ढोंचक
- 69. धूल
- 70. दोहन
- 71. दोसांझ
- E,F,G
- 72. गाल्लान
- 73. गठवाल
- 74. गोर/गौरी
- 75. गौराया
- 76. गजवा
- 77. गजबा
- 78. घन्गस/खन्गस
- 79. घूमन
- 80. गिल
- 81. गोधा
- 82. गोदारा
- 83. ग्रेवाल
- 84. गुलिया
- 85. गुहिल/गेहलावत
- 86. गूमड/गूमर
- 87. गुरलावत
- 88. गोन्दल
- 89. गुस्सर
- H
- 90. हाल/हाला
- 91. हंस
- 92. हेर
- 93. हुडा
- 94. हेन्गा
- I,J
- 95. जाखड़
- 96. जागलेन
- 97. जलौटा
- 98. जन्जुआ
- 99. जोहल
- 100. जनवार
- 101. जटासरा
- 102. जटराना
- 103. झाजरिया
- 104. जोहिया
- 105. जूण
- K
- 106. काद्यान/काद्दान
- 107. काजला
- 108. काक
- 109. काकर/काकरान
- 110. कठिया
- 111. कल्लान
- 112. कोहलों
- 113. कलकिल
- 114. कांग
- 115. कटारिया
- 116. कुश्वान
- 117. खर
- 118. खेर/खेरे
- 119. खरप/खरब
- 120. खत्री
- 121. खटकल
- 122. खोखर
- 123. कलेर
- 124. कोहाड़
- 125. कुलार
- 126. कुन्डु
- 127. कुन्टेल/कुन्तल
- L
- 128. लल्ली/लल्ल
- 129. लखनपाल
- 130. लम्बा
- 131. लाठर
- 132. लठवाल
- 133. लोचब
- 134. लोहान
- 135. लोहारिया
- M
- 136. माछर/माठर
- 137. मदेरना
- 138. मधान
- 139. माहिल
- 140. मलिक
- 141. मल्ली/मल्ल
- 142. मान
- 143. मान्गट
- 144. मण्ड
- 145. मन्डेर
- 146. मावला
- 147. महला(वत)
- 148. मिन्हास
- 149. मिर्धा
- 150. मीठा
- 151. मोखर/मोखल
- 152. मौर/मौड़
- 153. मुन्ड
- N
- 154. नहाल
- 155. नलवा
- 156. नान्दल/नान्दर
- 157. नैन/नयन
- 158. नैपाल
- 159. नरवाल
- 160. नौबर/नौबार
- 161. नासिर
- 162. नहरा/नारा
- 163. निज्जर
- 164. नूनिया/नून
- O
- 165. ओहलान
- 166. ओझलान
- 167. ओजला
- 168. ओड्रान/ओढ्रान
- P
- 169. पाहल
- 169.A. पतर
- 170. पल्लवाल
- 171. पन्गाल
- 172. पनेसर
- 173. पनाइच
- 174. पन्नु
- 175. पन्याग
- 176. परिहार
- 177. परोदा
- 178. पवार
- 179. परसवाल
- 180. फोर/पोर
- 181. फार्वे/पारवे
- 182. फोगाट
- 183. फुल्का
- 184. पीरू
- 185. पोटलिया
- 186. पुनिया/पौनिआ
- Q, R
- 187. राय
- 188. राणा
- 189. रांझा
- 190. राठी
- 191. रत्तोल/रठौल
- 192. राठोड़
- 193. रणधावा
- 194. रापड़िया
- 195. रावत
- 196. रेढू
- 197. रिआर/रियाड
- 198. रोज़
- 199. रूहिल/रोहेले
- S
- 200. सहोता
- 201. सहरौत/सहरावत
- 202. सालार
- 203. सलकलान
- 204. शमिल
- 205. समरा
- 206. संघा
- 207. सन्घेड़ा
- 208. सांगवान
- 209. सिनसिनवार
- 210. सन्धू/सिन्धू
- 211. सपरा
- 212. सारण
- 213. सरोहा/सरोही
- 214. सरान्ह/सरान्घ
- 215. सासी
- 216. सेखों
- 217. सिवाच
- 218. स्योकन्द
- 219. स्योराण
- 220. शाही
- 221. शेरगिल
- 222. सिबिआ
- 223. सिंहमार
- 224. सिंगरूट
- 225. सिद्धू
- 226. सिकरवार/सगरवार
- 227. सोहल
- 228. सोल्गी/सोलंकी
- 229. सुहाग
- 230. स्याल
- T
- 231. तक्खर
- 232. ताह्लान
- 233. टांक/टाक
- 233A. तोखर
- 234. तन्वर
- 235. तातरान/तातर
- 236. ठिन्ड
- 237. तेवठिया/तेवटिया
- 238. ठाकरान
- 239. टिवाना
- 240. तूर/तुराण
- 241. तुसार/तुसीर
- 242. तोमर
- U, V
- 243. उटार
- 244. उल्हान
- 245. विर्क/वृक
- 246. वराईच/भराइच
- 247. वाटधान
इन कुलों का इतिहास
ऐलावत
ये जम्बूद्वीप के सम्राट ययाति ऐल के वंशज हैं। रामायण में पूरूर्वश ऐल के नाम का उल्लेख है जोकि एक शासक का पुत्र था जो मध्य एशिया में बाहली (बलख) से मध्य भारत में प्रव्रजन कर अपनी पत्नी उर्वशी के साथ आया था तया नन्दन नाम के एक स्थान पर निवास करने लगा था। ए.स्टीन (A. Stein) ने इस क्षेत्र को पंजाब में दरिया-जेहलम के किनारे साल्ट रेंज में चिन्हित किया है।20 वराहमिहिर ऐलावतों का वर्णन तक्षशिला पुष्कलवति पौर्वों (पोर जाटों) तथा पिंगलकों (पंघल जाटों) के साथ करता है।21 ऐहलावत आजकल रोहतक तथा हरियाणा के साथ लगते क्षेत्रों में तथा यू. पी. में हैं।
अटवाल
इन का वर्णन महाभारत के सभा पर्व तथा मार्कण्डेय पुराण, वायु पुराण में किया गया है। इन का वर्णन समुद्र गुप्त के इलाहाबाद स्तम्म आलेख में आटविकों के रूप में किया गया है।22 'क' प्रत्यय को 'अल' में बदल कर हमें असली नाम आटवाल प्राप्त होता है। ये केवल पंजाब में ही मिलते हैं तथा गुरू नानक देव जी के अनुयायी हैं।
अत्री
मार्कण्डेय पुराण में इनका उल्लेख लम्पाकों के साथ किया गया है।23 इस नाम के ब्राह्मणों से वे पृथक हैं क्योंकि महाभारत में उन्हें म्लेच्छ कहा गया है।24 अलीगढ़ (यू. पी.) की खैर तथा टप्पल तहसीलों में अब भी उन के 60 गांव हैं।
- 20. Ramayana, VIII, 90, 21 to 234.
- 21. Brihat Samhita, IV, 26-27; quoted in SIH&C, pp. 29-30.
- 22. Sabha Parva, 31/15; Vayu Purana, 1/45/126; Markandeya Purana, 54/57.
- 23. op. cit., 57/39.
- 24. MBT, Bhisma Parva, 10/67.
औलख
महाभारत में उन का उल्लेख उलूक के रूप में किया गया है।25 व्याकरण के नियमों के अनुसार औलक नाम उलूक से निकाला गया है जो इस नाम का एक देश है,26 शायद ईरानी उरूक, भारतीय उर्ग उन का देश था। औलख आजकल पंजाब तथा पश्चिमी यू. पी. क्षेत्रों में पाये जाते हैं।
बब्बर
इन का संस्कृत कृत नाम बर्बर है। अर्थशास्त्र में सौतशी नदी का उल्लेख है जोकि बर्बर कुल के पास थी।27
- बर्बर कूले समूदैकदेशे श्रीघण्टो नाम हृदः
जैसा कि नाम से ज्ञात होता है वे सागर (केस्पिसन? अर्ल?) के समीप थे। यूनानियों में यह देश बर्बिके (Barbika) के नाम से जाना जाता था।
भम्बू
कन्निंघम द्वारा सिंध में भम्बूर नाम के नगर का उल्लेख किया गया है जोकि दशम शताब्दी में भम्बू राज नाम के राजा की राजधानी थी।28
बल्हारा
इस गोत्र का भी अत्यधिक वर्णन मिलता है। जुर्ज (गुजर) देश के संलग्र नाम, बल्हारा नाम का एक देश पश्चिमी सागर के किनारे पर, सुन्दर स्त्रियों की जाति की स्थिति के सम्बन्ध में वर्णित है।29 अबूज़ैद (916 ई.) तथा अल-मसूदी (943 ई.) नाम के मुस्लिम इतिहासकार दो साम्राज्यों के विषय में बताते हैं। जिन के नाम जुज्र तथा बलहारा थे। जुज्र को सही रूप से गुजर राज्य से सम्बन्ध किया गया है। किन्तु बलहारों का राष्ट्रकूटों से कोई साम्य नहीं बैठता।30 राष्ट्रकूट एक पृथक् कुल (प्राचीन राष्ट्रिक वर्तमान राठी) है जब कि बल्लभीपुर के शासक बल जाट थे जिन्हीने धारण (गुप्त) साम्राज्य के छिन्न-भिन्न हो जाने के पश्चात् एक स्वतन्त्र राज्य का निर्माण किया। कर्नल टॉड शत्रुजंय {को} उद्धृत करता है जिस में लेखक धनेश्वर सूरी जोकि सिलादित्य सप्तम् का गुरु था ने लिखा, "बल लोग बल्लभी से अन्य देशों में स्थापित हो गये।"31 हमारे पास बलहारा नाम है तथा यह सर्व विदित है कि उन्होंने कश्मीर तथा अन्य क्षेत्रों में बड़ी महत्वपूर्ण राजनीतिक/सैनिक भूमिका अदा की है। महाभारत में बाहलीकों के साथ बल्लभीकानों का भी उल्लेख किया गया है। जिस में उन का निवास स्थान उत्तर में बतलासा गया है।32
- 25. ibid., Sabha Parva, 27/58 and 27/11.
- 26. Y. P. Sastri, JKI, p. 481
- 27. Arthashastra, pt. p. 179 (Ganapathi Shastri edition).
- 28. Ancient Geography of India, p. 248.
- 29. JRAS, 1904, p. 163.
- 30. ibid., R. Hoernle, p. 641.
- 31. op. cit.. Vol. 1, p. 253.
- 32. MBT, II, 47/19.
कल्हण की राजतरंगिनी से हमें कश्मीर में तेजस बलहारा के सपुत्र राजवदाल बलहारा के विषय में ज्ञान होता है।33 स्टीन के अनुसार बलहारा स्पष्टतय एक पारिवारिक अथवा गोत्र नाम है। यह जय सिंह का काल 1128-1149 ई. था तथा कल्हण सामयिक घटनाओं का द्रष्टा था क्योंकि उस ने राजतरंगिनी 1149 ई. में लिखी {थी}।
राजवदान बलहारा एवेशक तथा अन्य ज़िलों का गवर्नर था। षड्यन्त्र तथा विरोधी षड्यन्त्र हो रहे थे, नैतिक तथा सैनिक चरित्रों का पतन हो चुका था किन्तु बलहारा के सम्बन्ध में स्वयं कल्हण का कथन है।34
"बलहारा के पास संकल्प की तथा चरित्र की प्रकृति प्रदत्त परिपक्वता थी जोकि आजकल वीर पुरूषों में भी असामान्य है। इसलिये उस ने धन्यू के साथ कपटपूर्ण व्यवहार नहीं किया जोकि उस के सम्मुख बेमुशैबती से आया था न ही भोज के साध उस ने ऐसा किया जोकि वह लोभ के वशीभूत हो कर ऐसा कर सकता था।" इलियट तथा डावसन द्वारा लिखित भारत का इतिहास बलहारों के कारनामों से अटा पड़ा है जिस के राजा को भारत का एक छत्र शासक कहा गया है।35
बैंस
हेयोर्नल तथा कन्निंघम के अनुसार हर्षवर्धन इस गोत्र से सम्बन्धित था। उस का सम्बन्ध श्रीमाहलपुर से था जोकि होशियारपुर तथा जालन्धर ज़िलों की सीमाओं पर एक गांव था जिसे आजकल माहलपुर कहा जाता है। आज भी बैंस जाट यहां रहते हैं (खटकलों तथा हर्ष पर अध्याय देखें)।
बेन्हवाल/वैनिवाल
इन का उल्लेख प्लिनी द्वारा ब्रीसई के साथ बेनई के रूप में किया गया है।36 ये वर्तमान बेनवाल तथा वरेश जाट हैं ये अत्यन्त प्राचीन लोग भी हैं, क्योंकि मध्य एशिया में इन्हें वेन अथवा बेन कहा जाता है। वाल एक प्रत्यय है जोकि नाम के साथ लगाया गया है। क्योंकि उन का उल्लेख बहुधा मध्य एशिया के पुरातन इतिहास में आया है इसलिये किसी परिचय की आवश्यकता नहीं है। किन्तु हम इस अवसर पर प्रयोग हरियाणा में प्रचलित एक कथा का वर्णन करके करेंगे। शेरशाह सूरी मार्ग कोई 16 किलोमीटर दूर सोनीपत के समीप गन्नोर की दिशा में एक स्थान है जिस का नाम मीना माजरा है। इस में प्राचीन खण्डहर हैं जिन में बहू मंजिले भवन भी हैं जोकि अब पूर्णतया
- 33. op. cit., VIII, 2695/2696.
- 34. ibid., p. 2993.
- 35. HIOH, Vol. I.
- 36. op. cit., Vol. VI, 11.
भूमि के तल के नीचे है। लम्बे समय से निकटस्थ ग्रामों के लोग इन खण्डहरों से पक्की ईंटों को उठा रहे हैं। ये इंटे 8इंच चौड़ी, 2 इंच मोटी तथा 16 इंच लम्बी हैं। ग्रामीण लोग रस्सों की सहायता से 30 फुट तक नीचे जाते हैं तथा दीवारों से ईंटें उखाड़ने के पश्चात् उन्हें अपने निर्माण कार्यों में प्रयोग करते हैं। कई लोग अपने जीवन से हाथ धो बैठते है जब ऊपर के तल से मिट्टी गिरती है। उस स्थान के समीप कुछ प्राचीन मंदिर है तथा बड़ा ताल है, जोकि हज़ारों एकड़ भूमि को घेरे हुए है। देवी तथा देवताओं की पुरानी प्रतिमाएं वहां से प्राप्त हुई हैं। इस प्राचीन नगर के विषय में प्रचलित दन्त कथा यह है कि यह एक समय राजा चकवांबेन की राजधानी थी। उस की एक संत से तकरार हो गई क्योंकि अवरोक्त ने उस की शर्तें मानने से इन्कार कर दिया था। उसे चकवाबेन साम्राज्य की सीमा से दूर चले जाने का आदेश दिया गया। ऐसा प्रसिद्ध है कि अनेक वर्षों के पश्चात् संत राजधानी को वापिस आया तथा वर्णन किया कि वह उत्तर दक्षिण पूर्व तथा पश्चिम में सागर तथा पर्वतों की सीमाओं तक हो आया है तथा प्रत्येक स्थान पर उसे लोगों ने बताया कि यह चकवाबेन के साम्राज्य का भाग है। इसलिये वह उस के साम्राज्य की सीमाओं से बाहर जाने में असमर्थ है।
इस सब से यह विदित होता है कि यह स्थान एक प्राचीन स्थान है तथा इस का प्रयोग यदि राजधानी के रूप में नहीं, तो कम से कम यह एक महत्वपूर्ण केन्द्र अवश्य होगा। इस चकवाबेन के विषय में इतिहास को कोई ज्ञान नहीं तथापि ह्सून-त्सांग एक ऐसे स्तूप का उल्लेख करता है जोकि केसरिया के समीप राजा बेन चक्रवर्ती के स्मारक रूप में जाना जाता है तथा चक्रवर्ती राजा का स्मारक है।37 कार्लेयल विराट (जयपुर) में इसी प्रकार की स्थानीय परम्परा का उल्लेख करता है वहां भी नाम चक्रवर्ती बेन ही है।38 क्या बिहार के स्तूप निर्माता चक्रवर्ती बेन तथा उपर्युक्त आख्यानों के चकवाबेन में कोई सम्बन्ध है ? केवल खुदाई से यह बात ज्ञात हो सकती है कि क्या चकबावेन भारतीय इतिहास का कोई महत्वपूर्ण राजा था। कन्निंघम इसी प्रकार के चक्रवर्ती बेन के आख्यानों का वर्णन बिहार, अवध तथा रूहेलखण्ड में भी करता है।39 कार्लेयल (Carllayle) के अनुसार वह एक भारतीय शक राजा था।40 वह सही है। राजा का सम्बन्ध बेनवाल कुल से था।
बोध/बोधा/बुधवार
ये बेबीलोन के शिलालेखों के बुदाई, हेरोडोटस के बुदाई ईरानियों के पुतिया तथा धर्म ग्रन्थों के फुत हैं।41
- 37. V. A. Smith, JRAS, 1902, p. 271.
- 38. ASI, Vol. VI, p. 84.
- 39. op. cit.
- 40. op. cit., p. 85.
- 41. Genesis, X, 36.
इन का उल्लेख वायु पुराण, ब्रह्माण्ड पुराण तथा पातंजलि द्वारा किया गया है।42 सातवीं/आठवीं शती के वे सिंध/बलोचिस्तान के बोधी हैं। वर्तमान बुधवार जाट उन का प्रतिनिधित्व करते हैं। सभापर्व43 तथा भीष्म पर्व में भी इन का उल्लेख किया गया है।44
बरिंग
यह यूरोप के वरिंग हैं तथा कश्मीर में इन के नाम पर एक ज़िला (बरिंग के रूप में) है।45
चहल
चौथी शताब्दी ई. में श्वेत हूणों का एक भाग, चहल (यूरोपीय इतिहासकारों के चोल) केस्पियन सागर के पूर्व में निवास करते थे। यह वह काल था जब गज़नी के क्षेत्र में जौवल/जोहल जुबलिस्तान पर आधिपत्य जमाये हुए थे। 438/439 ई. में ईरानी सम्राट् यज्दगिर्द द्वितीय ने गुरर्गन के उत्तर में चहलों के विरुद्ध एक अभियान छेड़ा। दहिस्तान के घास के मैदानों में प्रज्दिगिर्द गुरर्गन के स्थान पर जाटों द्वारा 420 ई. में अपने ही सैनिक शिविर जोकि वास्तव में गुर्गन उस समय था, में मारा गया।46 चाहल भारत में अवश्य ही पांचवीं शताब्दी में आए होंगे। इनको चहल तथा चहर दोनों रूप में लिखा जाता है।
चौहान/चवान
इन का इतिहास जगत् प्रसिद्ध है इसलिये यहां पर इस की पुनरावृत्ति की आवश्यकता नहीं है। वायु पुराण में 'चाहुक' नाम के लोगों का वर्णन है। पाणिनी के नियम के अनुसार 'क' प्रत्यय हटाने से तथा 'अन' लगाने से जो नाम हमें प्राप्त होता है वह है चाहुआन जोकि सही मूल शब्द है। संस्कृत कृत नाम चाहमान अग्नि यज्ञ के समय दिया गया होगा। डी.सी. सिरकार पौराणिक प्रमाण उद्धृत करते हुए कहता है47 :-
- 42. Mahabhashya, 4/1/7.
- 43. Sabha Parva, XIII, 590.
- 44. Bhisma Parva, IX, 347.
- 45. Rajatarangini, IV, 193 note.
- 46. See Erashahr by J. Harquart, p. 56.
- 47. Studies in Geography of Ancient and Mediaeval India, 1963.
अर्थात् कलूतों, चाहूकों, ऊर्णों तथा दर्विसों के देश में उत्तर से तात्पर्य है पूर्वीय देश। क्यों ? क्योंकि वे स्वयं सुदूर उत्तर पश्चिम में थे तथा उन के देश में भारत का उत्तर, उन का पूर्व बन जाता है। चाहुक तो चौहान ही हैं। यह केवल इस बात पर निर्भर करता है कि किस प्रत्यय को अधिमान दिया जाता है। यदि 'क' तो गोत्र नाम चाहुक हुआ, नहीं तो प्रत्यय 'अन' लगा कर सही नाम चाहुआन बनता है यानि वर्तमान चौहान।
धोलपुर पर शासन कर रहे चाहुवानों की 842 तिथि की प्रशस्ति के अनुसार48 "चाहवानवर भूपति चारूवंशा" अर्थात् विख्यात अधिपति चाहुवान की श्रेष्ठ जाति।49 वाई.बी. चवान (चौहान उच्चारित) भारत के पूर्व रक्षा मंत्री इसी कुल से थे।
छीना/चीना
इससे पूर्व उन का उल्लेख किया जा चूका है। ह्सून-त्सांग चीन भुक्ति नाम के एक राज्य का, जो पूर्वी पंजाब में था, उल्लेख करता है।50 छीना आजकल जालन्धर के समीप मिलते हैं तथा यही यह स्थान है जहां पर कुशाण शासकों द्वारा चीनी लोग बंदी रखे गये थे। मार्कण्डेय पुराण51 तथा महाभारत52 उन्हें कम्बोजों का समकालीन बताते हैं। महावस्तु उनकी सभा का उल्लेख करता है, जिस के निर्णय सर्वोपरि थे।53 भारतीय प्रशासनिक सेवा के एच.एस. छीना जोकि 1978 में पंजाब के मुख्य सचिव थे, इसी कुल के वंशज हैं।
डागर/डागुर/डागोर
पलिनी सर्वप्रथम "टेगोर" के रूप में इस जाट गोत्र का मध्य एशिया में उल्लेख करता है जो दूसरी शताब्दी ई. पू. यू.ची झुंडों के साथ पश्चिम की ओर गये। एम. हेल्फन उन का तदातम्य असी तया तोक्खरों के साथ बैठाता है।54 एस.पी. टाल्सटोय तुर्की कबीले डुकर का तदातम्य तोक्खरों के साथ बैठाता है। डिगोर का उल्लेख उन चार कबीलों में से एक के रूप में किया गया है जो कि ओसेटों (भारतीय रचनाओं के वसाती) के थे वे अपने देश का नाम उरूख नदी के समीप, डिगुर अथवा डिगोर जो नाम खोरेन के Geography of Moses के अस-डिगोर है, मानते थे। ये डिगोर डागर जाटों के पूर्वज थे। पी.सी. बागची का यह विश्वास है कि डोगर तथा तुक्खर एक ही थे।55 ओरच्छा टीकमगढ़ के शासक परिवार को डिगोर के नाम से पुकारा जाता था।56
- 48. EI, V, No. 12, JGOS, XI, 39.
- 49. JRAS, 1905, p. 21.
- 50. A. Cunningham, op. cit., p. 230.
- 51. Chapter 57, verse 39.
- 52. MBT, Bhisma, IX.
- 53. Vol. I, p. 171.
- 54. JOAS, Vol. LXV, 1945, p. 79.
- 55. Indian History Congress, 1943, p. 36.
- 56. EI, XXX, part III, p. 89.
दहिया
जाटों का यह एक मुख्य गोत्र है तथा इस की प्राचीनता कम से कम छब्बीस शताब्दी ई. पूर्व तक जाती है। मूलतः वे केस्पियन के तट के निवासी थे तथा बाद में उत्तरी ईरान तथा वक्षु घाटी तक फैल गये थे। बलख चीनी नाम दहिया उन के नाम पर रखा गया था तथा बहुत पहले समय से ही वहां स्थापित हो गये थे। दूसरी शताब्दी ई. पूर्व अन्य जाट गोत्र जिन्हें यू.ची (उच्चारण जटी) कहा जाता था जब हूणों के दबाव के कारण उन के पास आये तो व्यावहारिक रूप से उन का स्वागत किया गया।
कानूनगो के अनुसार, दही भारतीय जाटों के पूर्वज माने जाते हैं।57 किन्तु नहीं क्योंकि दहिया जाटों का एक गोत्र है। विल्सन के अनुसार विष्णु पुराण में दहे ही शकों के दही58 थे। वे वही दही हैं जो कंगों तथा अन्य जाट गोत्रों के साथ वक्षु दरिया के उत्तर में अपने नेता सपितामा (Spitama) के नेतृत्व में सिकन्दर महान से लड़े। यूनानी सेना के एक सम्पूर्ण डिवीज़न (भाग) को समरकंद में जेरोफशान की घाटी में गाज़र मूली की तरह काट दिया था। जब सिकन्दर "मकदूनिया की प्रथम तबाही" का प्रतिशोध लेने के लिये वहीं पहुंचा, उसे केवल दफ़नाने के लिये अपने मृतक सैनिकों के शव ही मिले। उसे वापस मुड़ना पड़ा तथा अपना पड़ाव जरीअस्पा के स्थान पर डालना पड़ा। किन्तु वीर जाटों ने स्पितामा के नेतृत्व में उस के मुख्य पड़ाव पर ही आक्रमण कर दिया। सिकन्दर उन्हें पराजित करने में असफल रहा, इसलिये वह विश्व विजेता, स्त्रियों तथा अन्य शान्तिमय जनों पर अत्याचार करने लगा। यह अत्यन्त अनुचित था। घोर निराशा में लोगों ने स्वयं स्पितामा का सिर कलम कर दिया तथा उसे सिकन्दर के समक्ष प्रस्तुत किया। तब जाकर उस ने आम जनता का उत्पीड़न बन्द किया। जाटों की एक बड़ी संख्या ने तब यूनानी सेना में भर्ती ले ली तथा जब उसके मकदूनिया के सैनिकों ने पंजाब में लड़ने से इन्कार कर दिया तो सिकन्दर ने अपने जाट (बेक्ट्रा) के सैनिकों के साथ ही आगे बढ़ने की धमकी दी। यूनानी लेखकों के अनुसार सिकन्दर के अधीन दही प्रथम लोग थे जिन्होंने 325ई.पू. पोरस की सेना पर आक्रमण किया। यह प्रथम अथवा अन्तिम बार नहीं था कि जाटों का रक्त दोनों ओर से बहा।
अवेस्ता की सूक्ति दहिनाम दहयुनाम तथा की क्षीराक्ष (xerxas) का पर्सीपोलिस का शिलालेख केस्पियन पार के दही लोगों का उल्लेख करता है। आर.जी. केण्ट (R.G. Kent) के अनुसार दहिस्तान दहियों का देश था।59 राज कुमार हिबिल जिवा (मण्डों की एक मूल गाथा) की कथा, जोकि जूडस थामस की सीरियक एक्ट्स में दी गई है, उसे
ई.एस. ड्रावर द्वारा संक्षेप में दोहराया गया है।60 हिबिल जिवा के पिता मण्ड दहिया दिया गया है। शायद यह दहियों का प्रथम वर्णन है तथा मण्ड भी जाटों का एक कुल है।
यूनानियों ने इन्हें दही नाम दिया है जोकि ईरानियों का दहि है तथा आधुनिक दहिया है। दही, पारसियों के फर्वरदीन यश्त61 के दहिनाम दहयुनाम के दहि ही लगते हैं। जिस में कि उस समय के ज्ञात विश्व के पांच ज्ञात देशों के बारे में कहा गया है।62 वे ही इ. ब्लोच63 के "दिहया" हैं। यह दिहियों के नाम पर ही था कि ईरानियों ने देश को दहिस्तान का नाम दिया। स्टीनगेस के फारसी आंगल शब्द कोष के अनुसार आधुनिक रूस का दघिस्तान, जिस का अर्थ उच्च अथवा पर्वतीय देश है, उसी भूमि पर है। डी.पी. सिंघल का 500 ई.पू. का64 मानचित्र दहियों को केस्पियन सागर पर दर्शाता है।
वे सिकन्दर की सेना के भी साथ भारत आये होंगे किन्तु ऐसा लगता है कि मुख्य भाग कुश्वानों (कुशानों) के साथ आ गया होगा क्योंकि उस काल का एक अभिलेख हिप्पिआ दहिया का उल्लेख करता है। हिप्पीया का अर्थ है घोड़ों का स्वामी (अश्वपति)।
राहुल सांकृत्यायन का कहना है कि दही वही हैं जो चीन के असी हैं। उन का उल्लेख श्रेष्ठ अश्वारोहियों तथा निशानेबाज़ों के रूप में किया गया है। वह आगे कहते हैं कि ईरानी पार्थी, एक दही कबीला था।65 पी. साईकस इसी प्रकार की ही टिप्पणी करता है जिस का आशय यह है कि पार्थी भी दही कहे जाने वाले लोगों का भाग था जिन का निवास स्थान केस्पियन सागर के पूर्व में वर्तमान यमूत तुर्कोमान, केस्पियन सागर के पूर्व में था तथा जो अर्बेला (Arbela) के स्थान पर ईरानी सेना के बायें विंग (गुठ) में लड़े। अखल के शाद्धल में अत्रेक दरिया के उत्तर में एक ज़िला है जिसे कि दशम शताब्दी ईस्वी में तथा शायद इस से भी पूर्व काल में दहिस्तान कहा जाता था।66 अनबासिस (Anabasis) के द्वारा ईरान के साथ दहियों के सम्बन्ध का और समर्थन किया जाता है जो कहता है कि दहि ईरान के मुख्य कबीलों में से एक कबीला था।67 उसी विशेषज्ञ ने अर्बेला के स्थान पर 331 ई.पू. में उन के सिकन्दर के विरुद्ध युद्ध का भी उल्लेख किया है।68 यह भली भान्ति ज्ञात है कि खुश महान की मृत्यु मस्साजटे के विरुद्ध युद्ध में, जो उन्होंने अपनी रानी तोमरिस (Tomyris) के नेतृत्व में लड़ा, हुई थी। बेरोसस इस के
- 60. JRAS, 1954, p. 153.
- 61. Yasht, XIII, p. 144.
- 62. J.J. Modi, JBBRAS, Vol. XXIV, 1914, p. 548.
- 63. JRAS, 1915, p. 306.
- 64. D.P. Singhal, Map of Asia.
- 65. MAKI, Vol. I, p. 74.
- 66. A History of Persia, Vol. I, p. 307.
- 67. Chapter XIII.
- 68. Chapter III/2.
अतिरिक्त भी सूचना देता है कि खुश जब मारा गया तब वह दहियों के विरूद्ध युद्ध कर रहा था।69 हेरोडोटस उन का उल्लेख ददीक (संस्कृत दधिक) के रूप में करता है तथा वे क्षीराक्ष के अधीन यूनान में लड़े।70 एक समय था जब दहिये सिंध तथा सतलुज दरियाओं के संगम पर बसे हुए थे। कर्नल टाड के अनुसार, यह दहिया एक प्राचीन कबीला है जिस का निवास सिंध दरिया के किनारे सतलुज के संगम के समीप था, सद्यपि छत्तीस शाही जातियों में उन का स्थान है किन्तु उन के वर्तमान अस्तित्व के विषय में हमें कोई ज्ञान नहीं है। जैसलमेर के भट्टियों के इतिवृत में उनका उल्लेख मिलता है। उन के नाम तथा स्थिति से यह परिणाम निकाला जा सकता है कि ने सिकन्दर के काल के दहे थे।71 कर्नल टाड को यह ज्ञात नहीं था कि अब भी यह जाटों का एक अत्यन्त विशाल गोत्र है तथा वे हरियाणा, यू. पी. तथा राजस्थान में मिलते हैं। पारम्परिक रूप से ऐसा कहा जाता है कि केवल रोहतक ज़िले में ही दहियों के 40 गांव हैं किन्तु अब संख्या इस से भी अधिक होगी। परमवीर चक (युद्ध भूमि में शौर्य का सर्वोच्च भारतीय पुरस्कार) मेज़र होशियार सिंह द्वारा जीता गया है जोकि हरियाणा राज्य के सोनीपत ज़िले के सुसाना गांव का एक दहिया जाट है। ऐसा कभी कभार ही होता है कि जब इस प्रकार का सर्वोच्च पुरस्कार दिया जाता है तथा वह भी एक जीवित वीर को।
दही, केस्पियन सागर से लेकर फारस की खाड़ी तथा टिग्रिस तक सारे देश (ईरान) में फैले हुए थे। उन का उल्लेख धर्म ग्रन्थों में, सुमेरिया के उपनिवेशकों में किया जाता है तथा उन का वर्गीकरण बाबिल के लोगों सुसा तथा इलम के लोगों के साथ किया जाता है।71A
स्ट्रेबो (Strabo) के अनुसार अर्षक नामक दहि राजा ने पार्थिया पर विजय प्राप्त की। 224 ई. में सस्सनिदों ने उस द्वारा स्थापित ईरान के अर्षक साम्राज्य पर अधिकार कर लिया। यहां पर ओर्कन वहीं हैं जोकि वर्कन अथवा विर्क हैं। "अर्मीनिया के लोग जार्जिया के लोगों को अब भी विर्क कहते हैं जिस का उच्चारण कण्ठय के साथ होता है।"
संस्कृत आंग्ल शब्द कोश दधिक नामक लोगों को एक शाही जाति प्रभाषित करता है। उन का वर्णन वैसे ही है जिन दहा (लोगों का) का एक नाम वायु पुराण71B में वैदेह के स्थान पर देता है, वे वही दहि लोग है। दहे के सागर (दधि सागर) को दधिमण्डोद के नाम से भी उल्लेख किया गया है जोकि शकद्वीप के पास एक सागर (केस्पियन) है। दूसरी शताब्दी पूर्व अर्मीनिया में राजा वालरसकौ की छत्र छाया में जोकि अर्षक (दहिया)
- 69. P. Sykes, op. cit., p. 153.
- 70. op. cit., VII, 66; IV 178; II, 401; I, 338.
- 71. Col. Tod, op. cit., Vol. I, p. 98. See also Ptolemy's Geography, VI, 19.
- 71A. Rawlinson, op. cit., p. 520.
- 72B. ibid., p. 477.
वंश से था, एक हिन्दू बस्ती की स्थापना की गई। भगवान कृष्ण के मंदिर जो इन हिन्दुओं द्वारा बनाए गए थे उन्हें सेंट ग्रेगरी द्वारा चौथी शताब्दी में ध्वस्त किया गया।71C
ढिल्लों/ढिल्लन
प्राचीन इतिहास का यह एक अन्य महत्वपूर्ण गोत्र है। यह तथ्य कि वे यूरोपियन जातियों (डिल्लन) में पाये जाते हैं इस बात को दर्शाता है कि वे ईस्वी सन से भी पूर्व काल के हैं।
इतिहासकार कानूनगो के अनुसार, देहली नगर उन के नाम पर बसा है तथा बाद में इसे चौहानों द्वारा हस्तगत कर लिया गया था। फरिश्ता के अनुसार किदर की मृत्यु के पश्चात्, जयचन्द कन्नौज के सिंहासन पर आरूढ़ हुआ तथा इस के पश्चात् उस का भाई डिल अथवा डहल सिंहासन पर बैठा जिस ने देहली को स्थापित किया।72 यह घटना चौथी शताब्दी ई.पू. की है यानि कि पोरस तथा सिकन्दर के काल से पूर्व की। इस का पुरातन नाम जैसा कि वि.स. 1226 (1169 ई.) के सोमेश्वर चौहान के आलेख में दिया गया है,73 ढिलिल्का था। तत्पश्चात् प्रत्यय 'का' को हटा दिया गया तथा नगर का नाम ढिल्ली रख दिया गया। 1337 हिज़री के बोहर (रोहतक) में मिले अभिलेख इस बात को दर्शाते है कि हर्याणक (हरियाणा) नाम के देश पर पहले तोमरों का शासन था तथा इस के बाद चौहानों का था तथा इस के पश्चात् घोरी सुलतानों का।74 भारतीय लोक सभा का भूतपूर्व अध्यक्ष गुरदियाल सिंह ढ़िल्लों इस वंश का पुत्र है। पंजाब का भूतपूर्व मुख्यमंत्री तथा अकाली दल का नेता प्रकाश सिंह बादल भी ढिल्लों ही है क्योंकि बादल का प्रत्यय उस के पैतृक गांव के नाम से है।
गिल/गिलान
वे हेरोडोटस के इग्ली हैं, गिलई स्ट्रेबो के तथा अन्य के, तथा आधुनिक मध्य एशिया के गिली हैं। अम्मीयनस मर्सील्लिनस के एक अनुच्छेद में गेलानियों का वर्णन मिलता है।75 जे. मर्कवार्ट (J. Marquart) ने गिलन के स्थान पर सेजेस्टियन प्रतिस्थापित करने का प्रयत्न किया है। शायद यह सिद्ध करने के लिये कि शकस्थान (यूनानियों का शकस्तीन) 350 ई. तक स्वतंत्र था। गिल्लों के स्वर्ण काल में केस्पियन सागर को गिलन सागर कहा जाता था। गिल अपने नाम के साथ 'अन' प्रत्यय नहीं लगाते। वे पंजाब तथा हरियाणा में मिलते हैं।76
गठवाल/कठवाल/कठिया
जाटों के इस महत्वपूर्ण कुल ने अब "मलिक" उपाधि नाम रख लिया है यद्यपि सामाजिक समारोहों विवाहों आदि में वे अपना गोत्र अब भी गठवाल बताते हैं।
- 71C. Indo-Asian Culture, oct. 1958, pp. 120-21.
- 72. Brigg's edition, quoted by Tribes and Castes, Vol. I, p. 23.
- 73. EI, Vol. XX, S. No. 344 of Inscriptions of Northern India.
- 74. S. No. 598, op. cit., JASB, vol. XLIl, pt. VI; p. 108.
- 75. XVII, 5, 1.
- 76. op, cit., p. 36-50.
यूनानी इस शब्द के दो रूप बताते हैं यानि कठाइन तथा कठोई तथा डाक्टर जौली, एस. विद्यालंकार तथा के.पी. जायसवाल के अनुसार कठिया शब्द उन के देश के लिये प्रयुक्त हुआ है तथा कठिओई लोगों के लिये। वर्ण ओ, व की ध्वनि देता है इसलिये यह निश्चित है कि वे कठवाल अथवा आधुनिक गठवाल थे। वे बड़े विकट योद्धा थे तथा एक सैनिक युद्ध योजना शक्ट व्यूह द्वारा उन्होंने सिकन्दर का सामना किया जब इन के 17000 के लगभग योद्धा शहीद हुए। राजकीय अधिकारियों के चयन तक में सुन्दरता पर अधिकतम ध्यान दिया जाता था। वे सती की प्रथा में विश्वास रखते थे। ट्राइब्ज़ एण्ड कास्टस् में उन्हें कठिया अथवा रावी जाट कहा गया है तथा ये वही लोग समझे जाते हैं जो सिकन्दर के विरुद्ध लड़े।77
गजवा
कुछ पुरातन सिक्के जयपुर/मालवा क्षेत्र में मिले हैं जिन पर "गजवा" का वृतान्त है। ये सिक्के गजवाल/गजवा जाटों के हैं न कि, जैसा समझा जाता था मालवों के। मार्कण्डेय पुराण में गजह्वया लोगों का उल्लेख है जो कि वहीं हे।78
घन्गस/खन्गस
वास्तव में यह असाधारण नाम है किन्तु भाग्यवश प्रिस्कस ने श्वेत हूणों के एक राजा कोंगखस (Kongkhas) का उल्लेख किया है जिस ने 356 ई. में अपने आप को सोग्दियाना का अधिपति बनाया तथा जिस के गोत्र भाईयों ने 374/375 ई. में, जर्मन विद्वान फ्रांज़ अल्थीम के अनुसार, डान नदी को पार किया।79 यह राजा कंग्खस निश्चित रूप से खन्गस जाट था। कंग्खस किदार का पुत्र था जोकि गलत है। पुत्र का गोत्र पिता के गोत्र से भिन्न नहीं हैं जब तक कि दोनों पिता पुत्र अलग-अलग गोत्रों के निर्माता न हों। ईरान के सास्सानी सम्राट् पिरोज़ ने अपनी बहन का विवाह कंग्खस से करने का वचन दिया था।80 किन्तु उस ने अपने वचन को न निभाया तथा उस का परिणाम युद्ध के रुप में निकला जिसमें ईरानियों की पूर्ण रूप में पराजय हुई। पिरोज़ को बंदी बना लिया गया तथा उस को तभी मुक्त किया गया जब उस के बेटे कवध को उस के स्थान पर बंधक बनाया गया तथा खिराज के रूप में एक बहुत बड़ी स्वर्ण मुद्राओं की राशि देनी पड़ी। कंग्खस ने इन खिराज में दिये गये सिक्कों को पुनः अपने नाम से जारी किया, अन्य वस्तुओं के साथ ये सिक्के भी चौथी शताब्दी में खंगस सम्राट् पर प्रकाश डालते हैं। ये जाट अब पंजाब तथा हरियाणा में मिलते हैं। Tribes and Castes में उन्हें खुन्गस कहा गया है।81
- 77. Vol. II, p. 482.
- 78. LVIII, 9.
- 79. Geschite der Hunnen.
- 80. ibid.
- 81. Vol. II, p. 377.
गोधा
उन्हें ब्रह्माण्ड पुराण में उसी नाम से स्मरण किया गया है।
गुस्सर
वे अब एक छोटा गोत्र है किन्तु आलेखीय प्रमाण इस गोत्र के दो व्यक्तियों को प्रदर्शित करता है। एक सफ़र का पुत्र मक तथा दूसरा है सांची विहार लेख का स्वामी सिंहबल गुस्सर।82 ऐसा सम्भव हो सकता है कि गुस्सर गुजरों के लिये प्रयोग किया गया हो।
गोराया/गौर/घोर/गौरू
इस गोत्र को तीसरी शती ई.पू. देखा जा सकता है। टालेमी ने गोरूए नाम के देश तथा गोरया नामक नगर का वर्णन किया है। स्ट्रेबो ने भी इस का उल्लेख किया है।83 यह देश पामीर पर्वत/घाटी में बदखशां तथा खोट के मध्य एशिया में स्थित था। डब्ल्यू.डब्ल्यू. तार्न (W.W. Tarn) के अनुसार गोरूए दूसरी शताब्दी ई.पू. में मनैन्दर के साम्राज्य का एक भाग था।84 भारत में आने पर जाटों के इस गोरया गोत्र के लोगों ने लुधियाना तथा जालन्धर के मध्य शेरशाह सूरी मार्ग पर अपने मध्य एशिया के नगर के नाम पर गोराया नाम का एक नगर स्थापित किया। ये लोग उसी क्षेत्र में अब भी निवास कर रहे हैं। सम्भवतयः गौर/गौरू/गौरी जाट वही हैं जो गौरिया थे क्योंकि टालेमी के अनुसार क्षेत्र को गौरयु नदी (गौर) नदी सींचती थी, पौराणिक नाम गौरा/घौर नदी है।85 मार्कण्डेय पुराण में घोर तथा गोरूह को पृथक्-पृथक् दिया हुआ है।86
गोन्दल
ये वे लोग हैं जो कश्मीर के इतिहास में गोनन्द के नाम से जाने जाते हैं। उनका इतिहास विख्यात है तथा यहां पर उस की पुनरावृत्ति की आवश्यकता नहीं है। वे कश्मीर पर शताब्दियों तक राज्य करते रहे। गोनद नाम के साथ "अल" प्रत्यय लगाने से बह गोन्दल बन गया तथा इस का संस्कृतकरण गोनन्द के रूप में कर दिया गया। इस बात की ओर ध्यान देना श्रेयस्कर है कि नन्द जाटों (मौर्यों से पूर्व) को अब नान्दल/नान्दर कहा जाता है।
हाल/हाला
रिपु शल्य नामक राजा के सिक्के मिले हैं जिन पर अग्नि वेदिका अंकित है।87 वी.एस. अग्रवाल के अनुसार वे बलोचिस्तान तथा सिंध के मार्ग से पश्चिम से प्रव्रजन
- 82. ASI, Vol. X, p. 62 ff.
- 83. XV, p. 567.
- 84. The Greeks in Bactria and India, p. 226.
- 85. Majumdar, Ancient India, pp. 109-110.
- 86. LVIII, 36.
- 87. JRAS, 1901, p. 97 ff.
करके आये जहां पर साल्वक गिरि (पाणिनी द्वारा वर्णित) जो कि वर्तमान में हाल पर्वत है, जो अपने नाम के चिन्ह छोड़ गये तथा तब उत्तर सौवीर की ओर बढ़ते हुए सरस्वती के साथ-साथ अन्त में वे उत्तरी राजस्थान में बस गये।88 सत्यवान एक शाल्व (हाल) राजकुमार था तथा सावित्री एक मद्र (मदेर्न) राजकुमारी। मद्र शिबि के पुत्र मुद्रक के वंशज थे। उन की पैदल सेना को शल्व पदाती कहा जाता था। ऐसा हो सकता है कि वर्तमान हाल जाटों को प्राचीन काल के पूर्वज शाल्व कहते हों किन्तु साल/स्थाल एक पृथक् जाट गोत्र भी है। इल्पिट, सिकन्दर के समकालीन एक राजा हाल का उल्लेख करता है।89 क्षीर द्वारा 'अमर कोष' की टीका में कहा गया है 'हाल स्यात सालवाहनः।' विश्व प्रकाश कोश में कहा गया है कि 'शालो हाल नृपोः।' सिद्धान्त सार्वभौम में मध्य मधीकर सालीवाहन का वर्णन करता है जोकि प्राकृत सप्तशती का लेखक है तथा आगे कहता है तदीयशकः। बृहत् संहिता के हाल हूणान, हाल ही है। शाल्व असुर अजक का अवतार है जिस से शायद उन का अभारतीय मूल सिद्ध होता है।90 कासिका कहता है कि साल्व क्षत्रिय था जिस के वंशजों को साल्व/स्याल कहा जाता है।
हंस
वे भी यूरोप में मिलते हैं (जर्मन हंस/हंज)। पुराणों में मूल रूप से मध्य एशिया में नलिनी नदी के तट पर उन का आवास बताया गया है, साथ में तोमरों का भी उल्लेख है।91 वायुपुराण के अनुसार यह एक पवर्तीय क्षेत्र था92 तथा महाभारत के अनुसार यह एक म्लेच्छ देश था।93 ऐसा कहा जाता है कि नलिनी नदी का उद्गम स्थल बिन्दु सरोवर था तथा एस.मुज़फ्फर अली द्वारा इसी की एक रूपता अलिंग कांगड़ी शृंखला से स्थापित की गई है।94 वहीं विद्वान सही रूप से नलिनी की एक रूपता यांगत्सी नदी से स्थापित करता है। सभा पर्व में उन का उल्लेख पौर कुन्दमान तथा सिबियों के साथ किया गया है।95
हेन्गा/हेन्ग
ये चीनियों के हियूंग नू हैं तथा इस से पूर्व उन की चर्चा {पृ. 51 पर} की जा चुकी है। पौराणिक
- 88. op. cit., p. 55.
- 89. op. cit., pt. I, p. 108/109.
- 90. P&SM, p. 109.
- 91. Vayu Purana, 47/56.
- 92. ibid., 45/35.
- 93. MBT, Bhishma Parva.
- 94. The Geography of the Puranas, 1973, p. 69.
- 95. Sabha Parva, 52/13-18.
साहित्य में "हींग" का अर्थ है बाहल्कि अथवा इस के उलट भी जो मध्य एशिया के साथ इनका सम्बन्ध दर्शाता है।96
हेर
घिर्शमान के अनुसार 20वीं ई. पू. सोग्दियाना के राजा का नाम हेरोस (सिकरवार के अन्तर्गत देखें) था। Kushan Studies in U.S.S.R में हेरैओस को कुशानों का एक कबीला कहा गया है।97
यह जाटों का हेर गोत्र है तथा उस/इओस प्रत्यय को दृष्टि अवगत कर हमें सही नाम प्राप्त हो जाता है। हेर जाटों में से "मूल" (असली) जाट हैं। हेर का अर्थ "गौथिक" में स्वामी अथवा मालिक है।
जाखड़
महाभारत में उन का जागुड के रूप में उल्लेख मिलता है। मार्कण्डेय पुराण भी उनका उत्तर में स्थित होने का उल्लेख करता है।98
जटासरा
वृहत् संहिता में पोटलों, छीनों, भल्लों आदि के साथ जटासर के रूप में उनका उल्लेख आया है। महाभारत में इस घटना का वर्णन आया है कि कृष्ण का अपहरण एक जटासुर द्वारा किया गया था तथा सभा पर्व में यह उल्लेख है कि जटासुर तथा मद्रक पाण्डवों के लिये उपहार लाये थे। अब उन्हें आसरा कहा जाता है क्योंकि महाभारत के समय का उपसर्ग 'जाट' हटा दिया गया है जिस प्रकार कि जटराणों को आजकल केवल राणा ही कहा जाता है।99
जून/जौण
शायद ये वही हैं जो बौद्धों के तथा संस्कृत कृतियों के यौन हैं तथा सम्भवतः अर्थशास्त्र के प्रार्जुनों के साथ उन का तदात्म्य स्थापित किया जा सकता है। बी. स्मिथ का कथन है कि 226-241 ई. में सरहिन्द के एक जून राजा के ईरान के सास्सानी राजा अर्द शिर
- 96. Markandeya Purana, 58/52.
- 97. B. Gafurov, op. cit., p. 179.
- 98. Markandeya Purana, LVII, 40.
- 99. See Tribes and Castes, Vol. II.
के साथ राजनीतिक सम्बन्ध थे।100 इससे इस बात का पता चलता है कि वे भारत में जंजुवानों के हलचल से पूर्व ही आ गये थे, जिन्हें जंजुआ जाटों तथा राजपूतों के साथ रखा जा सकता है।
काक
इन का उल्लेख वायु पुराण में मिलता है।101 इन का वर्णन समुद्र गुप्त के इलाहाबाद {स्तम्भ} आलेखों में खरपों, सल्कलानों आदि के साथ जोकि सभी जाट कुल हैं, मिलता है।102
कांग
संस्कृत रचनाओं में इन्हें कन्क कहा गया है। इन का मध्य एशियाई मूल इससे पूर्व विचार विमर्श का विषय बन चुका है। विष्णु पुराण तथा ब्रह्माण्ड पुराण में कंगों का उल्लेख दक्षिण महाराष्ट्र तथा भोज क्षेत्रों पर शासकों के रूप में किया है। फ्लीट के अनुसार वे हैदराबाद के समीप तथा दक्षिण (दक्कन) में मूसा दरिया के पास राज्य कर रहे थे।103 उन का उल्लेख अबन यष्ट में किया गया है, जहां पर वैसक के वीरहूणा (हूण,सुनु ?) उच्च तथा पवित्र कांग के खस्थ्रोसोक के दुर्ग उत्तंग प्रवेश द्वार पर देवी अर्दविसुरा का आह्वान करते थे।104 फिरदौसी कंगो के दुर्ग को चीन105 से एक मास के पैदल सफर की दूरी पर बताता है। मोदी भी एक ख्योन अरेजतस्प106 का उल्लेख करता है। चीनियों ने सोग्दियाना का कंग नाम इस प्रकार नामकरण किया है क्योंकि वहां पर कंग-नू नाम के शासक थे।
कटारिया/कटार
पेईशी नाम की चीनी कृति ता-यू-ची (अर्थात् महान् जाट) के की-तो-लो नामक राजा का उल्लेख करती है। जिस की अभिव्यक्ति किदर के रूप में की है। शायद इसी लिये कि चीनी भाषा में "त" को "त", "ट", "ठ", "थ" तथा "द" आदि के रूप में प्रयुक्त किया जाता है। किन्तु शी-की-लो के चीनी नाम का अनुवाद शाकल में दिया जाता है, जहां "की" तथा "लो", दोनों को, "क" तथा "ल" में व्यक्त किया जाता है। इसलिये पूर्ण रूपेण
- 100. EHI, 4th Edition, p. 289 note.
- 101. 4/2/14.
- 102. See also IA, Vol. II.
- 103. JRAS, 1905, p. 293.
- 104. J.J. Modi, ABORI, commemorative Volume, 1977, p. 70.
- 105. ibid., p. 69.
- 106. ibid., p. 75.
न्याय के साथ की-तो-लो का अनुवाद कटार भी हो सकता है। वास्तव में वृहत कल्प सूत्र भाष्य के अनुसार, केदर शब्द पूर्वी भारत में केटर के रूप में लिया जाता107 है। पाल पेल्लियट ने यह अनुमान लगाया कि वे (किदर) तुक्खरों (तक्खरों) का एक कुल था, शायद इसलिये क्योंकि वे तुखारिस्तान के क्षेत्र में बसे हुए थे।108 यह प्रायः स्वीकृत तथ्य है कि की-तो-लो एक वंश का नाम है। वास्तव में यह एक कुल का नाम है तथा कटारिया जाट आज भी रोहतक ज़िले में अर्थात् समचाना गांव में मिलते हैं। यह चीनी इतिवृत पेई शी (Pei She) द्वारा भी सिद्ध होता है जैसा कि यह संकेत देता है कि राजा की-तो-लो पर जुंजवानों द्वारा आक्रमण किया गया था। इस के अतिरिक्त यह भी कहती है कि हियुन्ग नू (हेंग जाटों) द्वारा एक अन्य की-तो-लो को पश्चिम की ओर भगा दिया था। पुनः वेई शू (Wei Shu) के अनुसार की-तो-लो एक देश का नाम है जिस के दूत ने 477 ई. में चीन की यात्रा की। यह फिर वही कहानी है जबकि राजा के लिये उस की प्रजा के लिये तथा उस के देश के लिये जिस पर वह शासन करता था, एक कुल के नाम का प्रयोग किया गया। ऐसा कुश्वाणों (कुशानों) गोरायों, तक्खरों आदि के विषय में {भी} घटित हुआ। किन्तु एक महत्वपूर्ण बात जिस पर ध्यान देने की आवश्यकता है वह यह है कि इस कुल के नाम कटार/किदार को बड़े लम्बे समय तक कश्मीर में तोरमाण के पुत्र राजा प्रवरसेन द्वारा अपने सिक्कों पर प्रयोग किया जाता रहा तथा पंजाब में भी भस्वन, कुसल, प्रकाश, सिलादित्य, कृत-वीर्य आदि राजाओं द्वारा, जिन के विषय में हमें और कुछ ज्ञात नहीं, प्रयोग किया जाता रहा। केवल उन के सिक्के यह प्रदर्शित करते हैं कि वे किदार अथवा कटारिया जाट थे। प्रथम जाट राजा जिस का नाम केटार/किदार था जब एक अन्य जाट कबीले जन्जूअन द्वारा (जुजवान चीनियों के) उन का दबाव डाला गया, बल्ख आया तथा वहां से भारत पर आक्रमण किया, गन्धार पर विजय प्राप्त की तथा अन्य चार राज्यों को भी अधीन किया जबकि उस के पुत्र ने 436 ई. तक पुरुषपुर अर्थात् पेशावर पर विजय प्राप्त की। अल्तेकर तथापि मुद्रा शास्त्रीय प्रमाण पर स्थिर रहते हुए विश्वास करता है कि किदारों की शक्ति का उत्थान 340 ई. के लगभग हुआ। 356-57 ई. में ईरान के शाहपुह्र {द्वितीय} ने उन पर गंधार में आक्रमण कर दिया तथा कटारिया जाटों ने समुद्र गुप्त के अधीन धारण जाटों से सहायता मांगी तथा एक भयंकर लड़ाई में उन्होंने 367-68 ई. में ईरानी राजा की शक्ति को कुचल दिया। 367 ई. में प्रथम किदार/किटार राजा का पुत्र, जिस का नाम पीरू था, उस के सिंहासन का उत्तराधिकारी बना। उस ने अपनी शक्ति को भारत में बढ़ाया तथा पुनः पीरू एक जाट कुल है। उस के पश्चात् वराहरन सिंहासन पर बैठा। रोहतक ज़िले में बरहाना नामक गांव लगता है उसी वराहरन राजा के नाम पर है। आजकल पीरू तथा केदार कई
- 107. VIJ, Vol. XVI, pt. I, p. 86; and JNSI, 1950, 12, p. 199.
- 108. JA, 1934, p. 42.
जाटों के निजी नाम है। अतः हम कह सकते हैं कि जुन्जुवान तथा हेन्गा कुलों द्वारा दबाव पड़ने पर, किटार कुल भारत में आया, फिर पीरू तथा बराण वंशों के राजा शासक बने।
खत्री
यूनानियों द्वारा एक प्राचीन कबीले जिस का नाम "क्षत्रोई" है तथा संस्कृत क्षत्री के अनुरूप है का उल्लेख किया गया है। कौटिल्य के अनुसार उनका "वार्ताशास्त्रोपजीवित" जैसा संघ शासन था। जायसवाल उन्हें वर्तमान सिंधी खत्रियों के ही रूप में समझता है। पंजाबी खत्री तथा खत्री जाटों के साथ भी क्यों नहीं ? इस बात को स्मरण करना चाहिये कि ईरानियों का प्रथम राजा "क्षात्र" था तथा तुर्की के प्राचीन 'हिती' (Hittites) वास्तव में मिश्रवासियों द्वारा "खत्ती" यानि "खत्री" के रूप में जाने जाते थे। खत्री जाट आजकल रोहतक/सोनीपत क्षेत्रों में मिलते हैं।
खटकल/बैंस
महाभारत में इन का करस्कर महीषक कर्कन तथा विर्क के साथ उन के संस्कृतकृत नाम कटकलिक के रूप में उल्लेख है।109 "क" प्रत्यय को हटाने से हमें उनका वास्तविक नाम कटकल (अथवा खटकल जैसा उन्हें पंजाब में कहा जाता है) मिलता है। हरियाणा में उन्हें खटकर के नाम से जाना जाता है। इस बात का ध्यान करना चाहिये कि ककर वरिक आदि जिन का यहां उल्लेख किया गया है वे सब जाट कुल हैं। (गुप्तों के अन्तर्गत भी देखो, जिन्हें कभी-कभी कारस्कर भी कहा जाता है) जहां तक महिषों के विषय में है वे बैंस का एक संस्कृत कृत रूप हो सकता है। जोकि भारतीय भाषाओं में भैंस (संस्कृत महीषः) की ध्वनि देता है।110 नौशेरवान् (531—579 ई.) के काल में, (ईरान का सासानी सम्राट जोकि स्वयं तूर कुल की एक जाट महिला के गर्भ से उत्पन्न हुआ था जिस से उस के पिता कवध ने 498 ई. में विवाह किया था जब वह स्वयं बनवास में था तथा {जब उसे} अपने जाट सम्बन्धियों की सहायता की आवश्यकता थी) हम पाते हैं कि उन का मुखिया खकान, बल्ख में ईरानियों के साथ शान्ति का इच्छुक था। किन्तु अपलत (हेतल) जोकि अब गटकल कुल के अधीन थे, शान्ति नहीं चाहते थे, इसलिये इस आशय के लिये भेजे दूत की उन्होंने हत्या कर दी। परिणामस्वरूप जाटों में गृह युद्ध आरम्भ हो गया। सेनापति फेंज़ (यह बेंस होना चाहिये- एक जाट कुल यूरोपियन बेन्स अनुरूप) के अधीन खकान की सेना ने, गटकलों (खटकलों) पर आक्रमण कर उन्हें पराजित कर दिया तथा उन के राजा की हत्या कर दी। खटकलों ने अपने गुरुजनों की बैठक बुलाई तथा फगने बगनी को अपना नया नेता चुन लिया किन्तु नौशेरवान् बल्ख के खकान की बढ़ रही
- 109. MBT, Karna Parva, 37/54.
- 110. A.C.L. Carlleyle, ASI, Vol. VI, p. 47.
शक्ति से भयभीत था इसलिये वह खटकलों के साथ आ मिला। परिणाम शान्ति सन्धि में निकला तथा सम्बन्धों को सशक्त बनाने के लिये खकान ने अपनी एक पुत्री का विवाह नौशेरवान् से कर दिया। उस का उत्तराधिकारी हैर्मुज़्द इस विवाह से उत्पन्न हुआ था। हमारा आशय यह प्रदर्शित करना है कि खटकल जाट उस क्षेत्र में छटी शती ई. में भी विद्यमान थे। हमारे स्वतन्त्रता आन्दोलन के विख्यात शहीद सरदार भगत सिंह एक खटकल जाट ही थे।111
खरब
उनका उल्लेख इलाहाबाद स्तम्भ आलेख में खरपारिकों के रूप में किया गया है। पदम पुराण उन्हें म्लेच्छ कहता है जो इस बात का प्रमाण है कि वे विदेशी थे। वे प्राचीन कालीन क्रव्य हैं और पश्चिम एशिया में उनके वंशज खलब कहलाते थे।112
खोखर
उन का उल्लेख वायु पुराण तथा विष्णु पुराण में कोकरक के रूप में मिलता है। प्रत्यय 'क' हटाने के पश्चात कोकर बन जाता है जोकि वही है जैसा कि खोखर।113
कुण्डू
पाणिनी ने कौन्डूप्रथ को जालन्धर राज्य के त्रीगर्त का भाग बताया है। पाणिनी द्वारा वर्णित कुलून, काहलों जाट हैं, पुराणों के कुलूत, कालान कृष्ण हिमाचल प्रदेश कुल्लु, के निवासी तथापि कुनिन्द, कुण्डू है। उन के राजा अमोघ भूति (कुण्डूओं का राजा) के सिक्के पंजाब में ज़िला होशियारपुर के तप्पमेव स्थान पर मिलते हैं। वायु पुराण के अनुसार कुण्डू मध्य एशिया में सीता नदी के किनारे निवास करते थे। इस की पहचान तरिम नदी के रूप में की गई है।114 जे.सी. विद्यालंकार के अनुसार यह यर्कन्द अथवा जरफशान नदी है जिसे चीनी अब भी सीतो कहते हैं।115 पामीर पर एक नगर कुण्डू उन के नाम पर बसा हुआ है।116 सभा पर्व में हंसों शिवियों तथा पौरों के साथ कुण्डमान कहे जाने वाले लोगों का भी उल्लेख मिलता है।117
- 111. JBBRAS, 1914, Vol. XXIII/XXIV, p. 577 ff.
- 112. A.B.L. Avasthi, Prachin Bharatiya Bhugol, Lucknow, 1972, p. 202.
- 113. See Elliot and Dawson, op. cit., and Tribes and Castes, Vol. II.
- 114. S.M. Ali, op. cit., p. 105.
- 115. Bharat Bhumi, 123.
- 116. Through the Pamirs, p. 209.
- 117. Sabha Parva, 52/13-8.
लाम्बा
भारतीय साहित्य में उन्हें लाम्पाक अथवा लम्पा कहा गया है। गरुड़ पुराण में उन्हें लाम्बा कहा गया है। मार्कण्डेय पुराण में उन का वर्णन उत्तर के लोगों कुसेरू, चूलीक आदि के साथ किया है जो क्रमशः कसेरू तथा चुलिक वंश हैं।118 मत्स्य पुराण में भी उन का उल्लेख है। महाभारत उन का उल्लेख उन की भयंकर सामरिक विशेषताओं सहित बताता प्रतीत होता है।119 यूनानियों ने उन का उल्लेख लम्बागई के रूप में किया है। लासेन ने उन के आवास स्थान को लम्बागई का क्षेत्र जोकि हिन्दु कुश के दक्षिण में आज के लम्घान के समीप है, बताया है। हेमचन्द्र की अभिदान चिन्तामणि के अनुसार "लम्पकास्तु मुरुन्दुःस्यूह" जो यह दर्शाता है कि उन्हें शक समझा जाता था। मुरून्ड एक शक/सिथिया की उपाधि है जिसका अर्थ है मुख्य/प्रमुख। डी.एस. लाम्बा पंजाब तथा हरियाणा उच्च न्यायालय के न्यायाधीश इसी गोत्र के वंशज थे।
लोहान
इन का सिंध के इतिहास में प्रायः उल्लेख मिलता है। महाभारत ने उन्हें कम्बोजों तथा ऋषिकों (अर्सिकों/असिकों) के साथ उत्तर के लोग बताया है।120 उन के नाम का रूप स्वतः ही लोहान है। लोहान जोकि प्रकट रूप से जाट थे ऊंच नीच का कोई भेद नहीं जानते थे। उन्हीं के नाम पर काबुल क्षेत्र कभी लोह कहलाता था।121
लोहरिया/लोहर/लोवर
यह गोत्र कश्मीर के इतिहास में प्रसिद्ध है तथा इस ने सम्पूर्ण एक लोहर वंश दिया। भारत में उन की बस्ती पीर पंतसाल की शृंखला, लोहारिन थी। लोहर कोट लोहरों का किला, इन के नाम पर ही था। प्रसिद्ध रानी दिद्दा जिस का विवाह क्षेम गुप्त से हुआ, वह लोहर राजा सिंह राज की पुत्री थी जब कि वह स्वयं एक लल्ली (जाट गोत्र) शाही राजा भीम (जोकि काबुल तथा उदभण्ड उण्ड वर्तमान अटक के निकट का था) की पुत्री से विवाहित था।
इस प्रकार दिद्दा एक लोहरिया जाट वंशज थी तथा काबुल के लल्ली जाटों की पौती थी जिन्हें गलत रूप से ब्राह्मण कहा गया। उन के शाही घराने के वंशजों को अब भी शाही जाट कहा जाता है।
महारानी दिद्दा ने किसी संग्राम राज को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर
- 118. Chapter LVII.
- 119. MBT, Drona Parva, 121/42-43.
- 120. MBT, II, 27, 22-26.
- 121. Elliot, EHI, Vol. 1.
दिया। वह उस के भाई उदय राज का पुत्र था उस की मृत्यु 1028 ई. में हुई।122 लोहर कोट विग्रह राज के पास ही रहा।123
अलबेरूनी इस लोहर कोट के किले को लोह कोट कहता है। तथा लोहर कोट पर महमूद गज़नी का आक्रमण उसके लिए एक असुखद पराजय सिद्ध हुई। फरिश्ता के अनुसार महमूद इसलिये असफल रहा क्योंकि क़िला "अपनी ऊंचाई तथा मज़बूती के कारण अद्वितीय था।"124 लोहरिया जाट आजकल मथुरा तथा अन्य क्षेत्रों में लगभग 6 गांवों में बसे हुए हैं।
माच्छर/मत्स्य
महाभारत में इन का उल्लेख है तथा इन्हें पश्चिम के निवासी बताया गया है।125 कनिष्क का माठर नाम का एक मन्त्री था।126 उन के नाम का संस्कृत कृत नाम मत्स्य (मच्छ प्राकृत में मच्छली को कहते हैं) बना दिया गया। अलवर के समीप मच्छरी नगर उन के नाम पर रखा गया।127 वे दारा के माचीय हैं। मार्कण्डेय पुराण में उन्हें माठर कहा गया है।128
मत्स्यों की सादृश्यता माच्छर गोत्र से महाभारत द्वारा भी अनुमोदित की गई है जिस में माचेल्ल महारथी राजा विराट का वर्णन किया गया है जिससे यह तथ्य सामने आता है कि ये लोग जयपुर/मथुरा/अलवर क्षेत्र के निकट पाये जाते थे। माचेल तथा माच्छर में केवल "ल" अथवा "र" प्रत्यय का ही भेद है। अलवर जयपुर क्षेत्र में माच्छरी नाम का स्थान उन का पारम्परिक नगर समझा जाता है।
मान
वायु पुराण इन का उल्लेख मौनिक अथवा मौन के रूप में करता है। विष्णु पुराण में इन का उल्लेख गन्धर्वों के एक कबीले मौन के रूप में किया गया है जिन्होंने नागाओं को नष्ट कर दिया (विल्सन का संस्करण)। वे यही हैं जोकि अंग्रेजों/जर्मन में मान हैं। उन के सिक्के गोवा तथा कोंकन क्षेत्रों में मिले हैं। शायद पश्चिमी केस्पियन के तट के वे मन्नई हैं जिन के राज्य को आठवीं शताब्दी ई. पूर्व मन्नई (Mannai) कहा जाता था। आजकल आर्मेनिया (अरी-मान) वे तिगलथ पिलेसर IV के आधिपत्य में थे तथा यह उन के राज्य के स्थान पर ही था कि देवक मण्ड ने अपने साम्राज्य की स्थापना की।
- 122. RAJAT, VI, 355, and VII, 1284.
- 123. For details see, RAJAT, Vol. II, p. 293; Steins, note E.
- 124. See "The Castle of Lohar", lA, 1897.
- 125. MBT, Sabha, XXXI, 1195; Vana, LI, 1991; Shanti, LXI, 2430.
- 126. AIU, p. 147.
- 127. ASI, Vol. VI, p. 84 ff.
- 128. LVII, 37.
मल्ल/मल्ली
शायद ये वही हैं जिन का वर्णन यूनानियों ने मलवईयों (अथवा Malloi) के रूप में किया है। चौथी शती ई.पू. वे रावी के पश्चिमी किनारे पर चेनाव जेहलम के संगम के दक्षिण की ओर स्थित थे। उन का वर्णन विशेष रूप से बलवान् तथा वीरों के रूप में किया गया है। क्षुद्रक् (Oxydra-Kai) के साथ-साथ उन के एक लाख आदमी शस्त्रों से सज्जित थे। यूनानी उन से अत्यन्त भयभीत थे तथा बड़ी मुश्किल से सिकन्दर ने उन को मल्लों के विरुद्ध युद्ध करने के लिये मनाया। इस युद्ध में सिकन्दर बाल-बाल बचा। जैसा कि आशा थी "मालव" अपने पड़ोसी आक्सीड़ा काई से बैर रखते थे तथा सिकन्दर का सामना करने के लिये उन्होंने शान्ति संधि की तथा प्रत्येक अविवाहित मालव युवक तथा युवती का क्षुद्रक् (Oxydra-Kai) युवक युवती से विवाह कर दिया गया। यद्यपि यूनानी यह दावा करते हैं कि वे विजय रहे किन्तु संधि की शर्तों के दृश्य से पराजित मलवईयों का आभास नहीं होता। पंजाब के मालवा से वे राजस्थान गये तथा अन्त में मध्य भारत में तथा इसे भी "मालवा" का नाम दिया। उन की प्रजातांत्रिक शासन पद्धति थी तथा उन के सिक्का पर "मालवानम् जयः" "मालव गणस्य जयेः" आदि का आख्यान है। वर्तमान मल्ल जाट उन के वंशज हैं। संयोग वंश सौभूति (अथवा सोफाइट यूनानियों के) वर्तमान सोबती (सौफट) हैं तथा अगीरी अथवा अग्री भी अग्रे नामक वंश है। यह उल्लेखनीय है कि "नीति प्रकाशिका" में उन्हें धर्म विहीन कहा गया है। मैगस्थनीज़ के अनुसार वे पंजाब में डासोनिसियस (Dionysius, "दानवेश") के समय में बसे।129 पाणिनी तथा चन्द्र के अनुसार वे न तो ब्राह्मण थे तथा न ही क्षत्रिय ; "वे अपने मृतकों को दबाते थे तथा उन पर टीले बनाते थे। जैसा आज भी हैं।" मल/महलावत130 एक ही प्रतीत होते हैं। पातंजलि द्वारा मालवों का उल्लेख भी किया गया है।
मान्गट
चीनी इतिहास के तांग काल में चीनी लोग मंगोलों को मेंगू जिस का उच्चारण मुंग-गुत था, के नाम से पुकारते थे।131
यही शब्द मुंग-गुट अब रूस में मोंगेट (Mongait) लिखा जाता है उदाहरण ए.एल. मोंगेट (A.L. Mongait, Archaeology in U.S.S.R.) का लेखक तथा भारत में मांगट (एक जाट गोत्र) के नाम से लिखा जाता है। बी.एस. मांगेट आई. जी. पुलिस पंजाब इसी गोत्र का वंशज है। महाभारत में इस गोत्र के नाम का वर्णन मनोन्गात् पामीर
- 129. Fragments, XLVI, 7.
- 130. Fragments, XXXVIII.
- 131. JA, 1920, I, 146, quoted by SIH&C, p.409.
के पूर्व में क्रोञ्च् द्वीप् में एक देश में मिलता है।132 इस की चीनी रूप के साथ लगभग पूर्ण समानता है।
मावला
महाभारत में इन का उल्लेख मावल्लक के रूप में हुआ है और ये लोग आज के मावला जाट हैं।133
मद्र/मधान/मदेर्ण
इन का प्रायः वर्णन महाकाव्यों तथा पुराणों में आया है। उन के राजा शल्य ने युद्ध में भाग लिया। माद्री, नकुल तथा सहदेव की माता मद्र देश की राजकुमारी थी। सभा पर्व में यह वर्णन है कि "जटासुर मद्राकनाम्" (असरा तथा मद्र जाट) पाण्डवों जोकि उन के सम्बन्धी थे के लिये उपहार लाये। आजकल उन्हें मद अथवा मध (मधान) तथा मदेर्ण भी कहा जाता है। अकेले कुरूक्षेत्र में ही उन के बारह गांव हैं।134 अनेक मधान जाट आजकल मुसलमान भी हैं। बाईबल में उन्हें मदई के रूप में लिखा गया है।135 प्राकृत में मद्र नाम मड्ड बन जाता है। शाकल में उन के देवता का नाम खरापोस्त है जोकि एक ईरानी नाम रूप है। वे सूअर तथा गाय का मांस खाते थे तथा दूध के साथ रम पीते थे।136 वे ईरान की ओर से आये थे। उनकी विलक्षण वेशभूषा, पताकाओं तथा रथों का भी वर्णन है।137
मुण्ड
विष्णु पुराण में वर्णन है कि मुण्ड गोत्र के 13 राजा भारत वर्ष पर 200 वर्ष तक शासन करेंगे। किन्तु जो इतिहास हमें आज उपलब्ध है उस में इस प्रकार के राज्य का कोई अस्तित्व ही नहीं मिलता। दोष इतिहास का है न कि मुण्डों का जिन्होंने 200 वर्ष तक भारत पर राज्य किया। जे. एलन (J. Allan) के अनुसार "यह सिद्ध करने के लिये कि ईसा के पूर्व काल में मुरूण्ड (मुण्ड) राज्य एक शक्तिशाली राज्य था, जिस ने गंगा की घाटी के अधिकांश भाग पर अपना आधिपत्य स्थापित किया हुआ था तथा यह वंश एक विदेशी वंश था, के यथेष्ट प्रमाण हैं।"138 हमारी यह धारणा है कि सम्पूर्ण जाट,
- 132. Bhishma Parva, 12/21.
- 133. MBT, VII, 4, 46.
- 134. ibid., II, 2, 12-13.
- 135. Genesis, X, 2.
- 136. MBT, VII, 44, 28, 36.
- 137. ibid., IV, 8, 3-4.
- 138. B.N. Puri, India under the Kusanas, p. 51.
गुजर, अहीर (बाद के राजपूत) विभिन्न समूहों में बाहर से आए। इस में कोई आश्चर्य नहीं कि मगध पर राज्य करने वाले मुण्ड विदेशी मूल के राजा सिद्ध हुए।
नूनिया/नून
एल.ए. वड्डेल (L.A. Waddel) द्वारा नून अथवा नून्न को फीनीशिया के राजाओं की एक उपाधि बताई गई है।139 उन का उल्लेख राजतरंगिनी में लावण्य, जोकि नून (नमक) का संस्कृत कृत रूप है, से किया गया है तथा उनका वर्णन भयंकर योद्धाओं के रूप में किया गया है। रोहतक के एक नून का विशेष उल्लेख कल्हण ने किया है।140 पाकिस्तान के भूतपूर्व मंत्री सर फेरोज़ खान नून इसी गोत्र के वंशज थे।
नहरा/संघा/नारा
इन दोनों गोत्रों (नहरा तथा संघा) का उल्लेख चेचीगदेव चौहान के सुंडा पहाड़ी (जोधपुर) के शिलालेख में मिलता है।141 नहरा प्राचीन यूनानियों के नेयूरी अथवा मिश्री शासकों के नहरीचे हो सकते हैं। नारा, संस्कृत नर (निता) से व्युत्पन्न है।
मार्कण्डेय पुराण में उन का वर्णन निहारों के रूप में किया गया।
ओडरान/औडरान
पुराण इन का उल्लेख 'शकानोड्रान' के रूप में करते है अर्थात् शक ओडरान। "महाभारत" के सभा पर्व142 में भी उन का उल्लेख हुआ है। इन का प्रथम कुल-पिता ओड्र था और उस के वंशज ओड्रान कहलाए। विष्णु पुराण में भी इन का उल्लेख हुआ है।
पंगाल
मार्कण्डेय पुराण तथा वराहमिहिर द्वारा भी इन का उल्लेख पिंगलक के रूप में किया गया है।143 प्रत्यय 'क' को हटाने के पश्चात सही गोत्र का नाम पिंगल अथवा पंगल बनता है। जैसा इब्बेत्सन द्वारा सुझाव दिया गया है, उन का किसी पक्षी के पंखों के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है।144 अब वे हरियाणा के मोहिन्द्रगढ़ ज़िले में मिलते हैं। शतपथ ब्राह्मण में इन्हें पैन्ग्य कहा गया है। यह पिंग से लिया गया है जोकि पिंगल
- 139. op. cit., p. 163.
- 140. RAJAT, IV, ii.
- 141. EI, Vol. lX, p. 74.
- 142. MBT, Chapter. 47.
- 143. Brihat Samhita, IV, 26-27.
- 144. Tribes & Castes, Vol. II.
अथवा पंगाल गोत्र का वास्तविक शब्द है। वृहत् संहिता में ऐलावतों के साथ उन का पिंगलकों के रूप में वर्णन किया गया है।
पुल्का
इन का वर्णन भगवत पुराण में कीरातों, हूणों, पुलिन्दों, कणकों आदि के साथ मिलता है। वहां पर उन का नाम पूल्कस के रूप में दिया गया है।
परोदा/परोता/पर्वताः
पर्जीटर इन के बारे में उचित रूप में यह कहता है कि ये लोग उत्तर पश्चिम में रहने वाले थे।145 महाभारत में भी इन का उल्लेख है।146 यहां इन का उल्लेख परोदा शकों के रूप में किया गया है। इन्हें पलद भी कहा गया है तथा यह चौथी एवं पांचवीं शताब्दी में अत्यधिक महत्वपूर्ण लोग कहे गये है।147 ईरानी इतिहास के परौतई हैं, तथा मुद्राराक्षस के पर्वतक।
पुनिया/पोनिया
पौनिक (पौन) कहे जाने वाले लोगों का वर्णन वायु पुराण में मिलता है। ये यमुना नदी के किनारे जगाधरी के समीप शासन करते थे तथा इन का शिलालेख देहरादून ज़िले में चूहरपुर के समीप जगत ग्राम में मिला है।148 हेरोडोटस पेयोनिया नाम के लोगों का उल्लेख करता है जो तुकरियों की एक बस्ती थी।149 पेयोनियों को महान् दारा के आदेशों के अनुसार हेल्लसपांट से एशिया में स्थानांतरित किया गया था। छटी शती ई. पूर्व यूरोप में पूनिया तथा तोखर जाट इस प्रकार मिलते हैं। पूनी लोगों ने 138 ई.पू. बैक्ट्रा के यूनानी राज्य को ध्वस्त किया था।
पोटलया/पोटल
कश्मीर के एक संस्कृत अभिलेख में पोटल देव शाही नाम के राजा का वर्णन है अर्थात् नव सुरेन्द्रादित्य नंदिन। यहां पर पोटल इस अज्ञात राजा का गोत्र है। देव शाही उपाधि है जोकि सम्पूर्ण जाट राजा धारण करते थे। यह वैसे ही है जैसा कि कश्वान जाटों का देव पुत्र शाही। पोटलों का उल्लेख वराहमिहिर ने भी "जटासुर" (वीर जाट) छीनों भल्लों आदि के साथ किया है।
राठी/राष्ट्री
भारतीय साहित्य में इन का उल्लेख राष्ट्रीकों/रठीकों के रूप में किया गया है।
- 145. Ancient Indian Historical Traditions, p. 206 and 268.
- 146. Sabha Parva, 50/1832.
- 147. For details see JBORS, XVIII, 209.
- 148. SIH&C, p. 263.
- 149. V. 12-27.
प्रत्यय "क" की ओर यदि हम ध्यान न दे तो हमें वर्तमान नाम राठी ही प्राप्त होता है। इन का राष्ट्रीकों से साम्य बिठाना सूक्ति युक्त है क्योंकि गोत्र का जर्मन अनुरूप अब भी रास्टर/राष्ट्र है। पीटर रास्टर (Peter Raster) नामक एक जर्मन अब भी देहली विश्व विद्यालय में भाषा विभाग में अध्यापन कार्य कर रहा है। उन का उल्लेख भोजों के साथ किया गया है तथा दोनों की ही एक कार्यकारिणी निर्वाचित समिति है। सौराष्ट्र नाम उन पर ही रखा गया है, ऐसा जायसवाल का मत है। अर्थ शास्त्र में सुराष्ट्र तथा राष्ट्रिक सरकार का वर्णन मिलता है। किन्तु सोराष्ट्र तो सोरोट वंश का संस्कृत रूप है।
अशोक के शिलालेखों में उनका उल्लेख राष्ट्रिकों के रूप में गिरनार में, राठीकों के रूप में शाहवाज़गढ़ी में, तथा राठकों के रूप में मनसेहरा अभिलेख में (राठिक शब्द के प्रयोग के लिये बरूआ की Old Brahmin Inscription भी देखिये।)
हाथी गुम्फा अभिलेख में यह वर्णित है कि उड़ीसा के राजा खाडवेल ने राठिकों तथा भोजकों को पराजित किया अर्थात् अपने शासन के चौथे वर्ष में राठिकों तथा भोजों को परास्त किया। उन का शाही निशान छतरी था। उस समय वे मध्य भारत (पूर्वी मालवा ?) में थे। यह बात महत्त्वपूर्ण है कि खाड़वेल का अभिलेख बताता है कि राठियों तथा भोजो को अच्छे ब्राह्मणों द्वारा त्याग किया गया था। क्यों ? स्पष्टतयः क्योंकि वे विजेता थे तथा उन्होंने उन पुरोहितों के रूढ़िवादी असमानता के तथा व्यर्थ के विचारों को स्वीकार नहीं किया था। जब वे भोज देश में बस गये तो उन के अपने पुरोहित थे। जिन्हें मग अथवा भोज कहा जाता था।
आजकल गुजरात राज्य में राठी एक व्यापारिक तथा व्यावसायिक सम्प्रदाय है तथा निस्संदेह हरियाणा तथा राजस्थान क्षेत्रों में वे एक जाट गोत्र हैं। श्री प्रीत सिंह राठी, हरियाणा के एक भूतपूर्व मन्त्री इस गोत्र के है।
सहोता
पौराणिक अभिव्यंजना "हूणा दर्वा सहूदका" में इन का नाम सहूद अथवा सहूत दिया गया है। इन का हूणों से सम्बन्ध इन के विदेशी मूल का परिचायक है।
समरा
एक समय यह गोत्र भी निम्न सिंध में बसा हुआ था। इन का उल्लेख फारिश्ता द्वारा किया गया है जो प्राचीन प्रामाणिकता के आधार पर कहता है कि सिंध में समरों का एक राज्य था तथा वास्तव में सिंध के दो प्रमुख ज़मींदार थे एवं 1380 ई. में उन में
से अनेकों ने मुस्लिम धर्म ग्रहण कर लिया।150 शेष समरे अब सिख धर्म के अनुयायी हैं।151
संधू/सिन्धु
प्राचीन यूनानियों ने इन का उल्लेख सिंदी (हेरोडोटस के सिन्दीकर) के रूप में किया है तथा इन्हें बासफोर्स क्षेत्र पर बताया है। भारतीय साहित्य में इन्हें सिंधू अथवा सैन्धव कहा है तथा सौवीर, सिंधू सौबीरा अभिव्यक्ति, के साथ इन्हें जोड़ा गया है। कूर्म तथा विष्णु पुराण में इन्हें हूणों के साथ वर्णित किया है। "सौवीराः सैन्धवाहूणान्ः" जोकि साकल (स्यालकोट) के वासी थे। पाणिनी ने जेहज़म तथा सिंध नदियों के मध्य सिंधुओं के एक जनपद (गणतन्त्र) का वर्णन किया है।152 महाभारत के युद्ध में वे कौरवों के पक्ष में लड़े।153 गुजरात की तांबे की प्लेट के लेख में चालूकिय पूलकेसी राजा ताजिक (अरब) का वर्णन करता है जिन्होंने संधुओं तथा अन्य कबीलों को पश्चिमी भारत में पराजित किया। इस से पूर्व 739 ई. में उन्होंने अपने राजा पुण्यदेव के अधीन अरबों को पराजित किया था। 756 तथा 778 ई. में उन्होंने दो बार अरबों के सामुद्रिक आक्रमण को खदेड़ा।
सिद्धू
विष्णु पुराण में इन का उल्लेख किया गया है।154 पटियाला आदि के शाही वंश इसी कुल से हैं। बरार नाम का अन्य गोत्र सिद्धूओं से पृथक् हो गया है। इसलिये बरार भी सिद्धू कहे जाते हैं। हरियाणा के भूतपूर्व राज्यपाल एच.एस. बरार इसी गोत्र के वंशज हैं।
सरान्ह/सरान्घ
कश्मीर में मिले एक अभिलेख में जोकि सातवीं शताब्दी ई. से सम्बन्धित है, मकर सिंह नाम के एक मन्त्री के विषय में कहा गया है जिसे सरान्ह कहा गया है। ऐसा बताया गया है कि उस ने कश्मीर में एक नगर का निर्माण किया। इस वर्णन में इस जाट गोत्र का सब से प्राचीन उल्लेख है। शायद हेरोडोटस (Herodotus), के ये सरन्गई हैं जो मण्डों के साथ मिलकर थर्मोप्लाई के युद्ध में लड़े थे।155
- 150. Briggs' Edition, Vol. IV, p. 422.
- 151. See chapter on Sindh.
- 152. V.S. Agrawala, op. cit., p. 50.
- 153. Bhisma Parva, p. 882.
- 154. Wilson's Edition. p. 158.
- 155. VII. 67.
स्योकन्द
विष्णु पुराण में इन का उल्लेख सुकन्द के रूप में किया गया है।156
सोल्गी/सोलंकी/सुलिका/चुलिक
पुराणों में उनका वर्णन सुलिकों तथा चुलिकों के रूप में किया गया है। मत्स्य पुराण में यह वर्णन है कि ये वे लोग थे जिन के देश से वक्षु157 नदी बहती थी। पर्जीतर के अनुसार चक्षु को वक्षु लिया जा सकता है तथा आगे कहता है कि उस दशा में सुलिक तुर्किस्तान में वक्षु के किनारे बसे लोग हो सकते।158 वृहत संहिता में इन लोगों को गंधारों तथा वोक्कनों (वर्तमान बखन में बसे) से सम्बद्ध किया गया है। तिब्बत के एक बौद्ध इतिहासकार तारा नाथ के अनुसार सुलिकों का राज्य तोगर के पार स्थित था। जिस की सादृश्यता तोखरों के देश से ही की जा सकती है159 कइयों के अनुसार तोगर को वर्तमान तेर से मिलाया जा सकता है जोकि दक्षिण भारत में है, किन्तु यह सही प्रतीत नहीं होता। पी.सी. बागची अपनी कृति, "भारत और मध्य एशिया" में कहते हैं कि सूलिक मूल रूप से मध्य एशिया में सोग्दियाना के रहने वाले थे जो भारत में बसने के लिये आए।160 उस के अनुसार शाहपुर ज़िले के सूल्की राजपूत, मुल्तान क्षेत्र के सोल्गी तथा सोलखी जाट पंजाब के अमृतसर, लुधियाना ज़िलों के सूद, दक्कन के चालुक्य तथा प्राचीन काल में गुजरात के सोलंकी सोग्दियों के अवशिष्ट अंश लगते हैं। बुद्ध प्रकाश के अनुसार चुलिक शब्द सुलिक जोकि चीनी सूली का पर्याय है का परिवर्तित रूप लगता है।161 मार्कण्डेय पुराण में उन दोनों को दो भिन्न लोग बताया गया है जोकि उत्तर में थे।162
छटी शताब्दी ई. में सुलिकों का वर्णन ईशान वर्मन मौखरी के हरहा अभिलेख में किया गया है जिस ने उन्हें पराजित किया लगता है। डाक्टर राय चौधरी की यह धारणा है कि सुलिकों को चालूक्यों का रूप ही समझना चाहिये जिन का वर्णन महाकुट स्तम्भ अभिलेख में किया गया मिलता है।163
इस प्रकार उत्तर काल के सोलंकी तथा चालुक्य एक ही हैं। मूल शब्द सुलिक हैं। जिसे चुलिक के समान समझा गया है जिस का अर्थ ब्राह्मण पुरोहितों द्वारा माउंट आबू
- 156. op. cit., 157.
- 157. Chapter XX, 45, 46.
- 158. Markandeya Purana, p. 342, note.
- 159. See also IA. IV, 364.
- 160. op. cit., p. 146.
- 161. SIH&C, p. 258.
- 162. Quoted by B. C. Law, op. cit., p. 384.
- 163. ibid.
अग्नि यज्ञ के समय हथेली से लिया गया। इसलिये यह प्रचलित कर दिया गया कि चालुक्यों का जन्म ब्रह्मा की हथेली (चुलु) से हुआ। वल्लभी के धारसेन के एक अनुदान में सौलिक्कों का वर्णन प्रतिसारकों तथा चौरोद्यरणिकों के साध किसा गया है। अन्तिम दो शब्द प्रतिहार तथा चौधरी (दो उपाधियां) के पूर्ववर्ती हो सकते हैं। जे.एस. फ्लीट (J.S. Fleet) द्वारा सम्पादित यह अभिलेख गुप्त काल के 252वें वर्ष का है।164 उपेन्द्र ठाकुर सही रूप से उन्हें हूणों के साथ मिलाता है जिन के वे एक भाग थे।165 चुलिक कहे जाने वाले लोग अब भी मध्य एशिया में मिलते हैं।
सिकरवार/सगरवार/सकरवार
ये पुराणों के सकरवाक ही हैं। मथुरा में ये अपने आप को सगरवार कहते हैं जोकि एक ही शब्द हैं। यूनानियों द्वारा उन्हें सकरकई, कहा जाता है तथा यह पौराणिक नाम ही है। 100 ई.पू. के आसपास सकरवार ईरान की राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने लगे। फ्राति-II तथा अर्तबान की मृत्यु में उन की भूमिका अर्थ पूर्ण है तथा व्यावहारिक रूप से उन्होंने 77 ई.पू. सिन्तरोक को ईरान का राजा नियुक्त किया। 27/26 ई.पू. जब फ्राति अपने शत्रु तिरिदात से जूझ रहा था सिकरवारों की भूमिका निर्णायक सिद्ध हुई।166 ए. गार्डीनर की पुस्तक The Coins of Greeks and Scythian Kings of Bactria and India in the British Museum, Plate XXXIV, 8; से हमें यह पता चलता है कि सिकरवार गोत्र के दोनों राजाओं के नाम आर्तदर तथा उस का पुत्र वांरकोद बक्तृयाना पर राज्य कर रहे थे। घिर्शमान के अनुसार कुशान राजा हैरोस (हेर गोत्र का) 20 ई.पू. के लगभग सिंहासन आरूढ़ हुआ। यह काल कुश्वां जाटों के उत्थान का था तथा उन के मित्र कंगों (चीनियों के कंगनू अथवा कंग-क्यू तथा भारतीय ग्रंथो के कंक) ने बुखारा पर अधिकार कर लिया। इन के सिक्के समरकन्द के समीप तली वर्गू में मिले हैं।167 आर. घिर्शमान ने उन का साम्य यूनानी लेखकों के सकरबई तथा सिक्कों के सकरव अथवा सकर से बिठाया है। ओ.जी.वॉन बेजनडाक ने सही रूप से उनकी एकरूपता पुराणों के सकरवाकों से बिठाई है।168 जे. मार्कवार्ट के अनुसार ये वही लोग हैं जिन्हें दारा के अभिलेख में वर्णित किया गया है तथा शक हौम वर्क169 कहा गया किन्तु यद्यपि सकरवार तथा विर्क दोनों जाट थे किन्तु दारा द्वारा विर्क लोगों का नाम लिया गया। निस्संदेह विर्कों के शाही कुल के अधीन सिकरवार तथा अन्य कुल उस समय राज्य में भागीदार भी थे किन्तु यह छठी शती ई.पू. की बात
- 164. IA, January 1886, p. 187.
- 165. The Hunas in India, pp. 191-194.
- 166. Albert Hermann, Sacaraucae in Pauly .., Vol. I, pp. 1161-1620.
- 167. J. De Morgan, op. cit., pp. 536-544.
- 168. Kusan, Chioniten and Hephthalites, 1933, p. 337.
- 169. op. cit., p. 43.
है। अन्ततोगत्वा इन के राज्य को कनिष्क द्वारा कुशान साम्राज्य में मिला लिया गया जैसा कि शाहपुत्रपुहर प्रथम के काबा जराथुस्ट्रा अभिलेख से पता लगता है कि सोग्दियाना के साथ बुखारा, समरकन्द, ताशकन्द आदि के नगर भी साम्राज्य के अन्तर्गत थे।170 इस प्रकार सिकरवार भारत में प्रथम शताब्दी में अथवा इस से पूर्व आए। शायद वे हेरोडोटस के तथा बेहीस्तान अभिलेख के सर्गीतियन हैं।
तक्खर/तोखर/तुषार
मार्कण्डेय पुराण में इन का उल्लेख काम्बोजों बरबरों तथा छीनों के साथ किया गया है। तथा इन्हें वाह्मतोनराः अर्थात बाह्य लोग171 कहा है। इससे यह बात स्पष्ट होती है कि मार्कण्डेय पुराण के काल तक भी उन्हें भारतीय नहीं समझा जाता था। महाभारत में तुखार तथा तुषार दोनों का उल्लेख है। वायु पुराण में भी तुषारों का वर्णन मिलता है।172 उस में यह बात स्पष्ट है कि तुखार तथा तुषार भिन्न थे। इसीलिये जाटों में तोक्खर तथा तुसार दोनों गोत्र मिलते हैं। "महाभारत" में सही रूप से उन्हें हिमालय के पार के बताया गया है। "हरिवंश" में उन का उल्लेख शक, पहलवों तथा अन्य के साथ किया गया है तथा उन्हें म्लेच्छ कहा गया है जोकि इस बात का एक और प्रमाण है कि वे मध्य एशिया से सम्बन्धित थे तथा विजेता थे। किन्तु यूनानी लेखक स्ट्राबो (स्पष्टतयः हरिवंश के लेखक से अधिक न्याय संगत) के पास उन के लिये पर्याप्त प्रशंसा है, चाहे उन्होंने बुखारे के यूनानी साम्राज्य को नष्ट कर दिया था। उस के अनुसार "असी, पश्यिनी, तोक्री तथा शक्रौली आदि यायावर कबीले जो सिरदरिया की दूसरी ओर से आए थे तथा जिन्होंने बुखारा से यूनानियों को खदेड़ दिया था, सब से अधिक विख्यात हैं।173
यहां असी शकों (असिआक जाट, असीक संस्कृत अर्षिक) का एक अन्य नाम है। पासिआनी को सही रूप से कुसियानी (कुषाणों) का रूप दिया गया है तथा तोकरी ही तौक्खर/तक्खर है तथा सकरौली ही पुराणों के सकरवाक हैं। लासेन (Lassen) तोकरों को तुक्खर मानता है तथा उन्हें पूर्वी हिन्दु कुश में स्थापित करता है।174 नौबीं/दसवीं शती में कश्मीर के इतिहास में उन की भूमिका महत्वपूर्ण है। तोखर एक महत्वपूर्ण गोत्र है जिस का अतीत अत्यन्त उज्ज्वल है। उन के कबीले के नाम पर एक भाषा (तोखरी) का नाम पड़ा, एक देश (तोखरिस्तान) का नाम पड़ा। उन के विषय में अनेक पुस्तकें, लेख लिखे गये जैसे पी. पेल्लियट का तोखरियन व कूचियन175 और (A Propos Due
- 170. See American Journal of Semetic Languages and Literature, 1940, p. 354.
- 171. LVII, 39.
- 172. XIV, 118.
- 173. Strabo, XI, 151.
- 174. B. C. Law, op. cit., p. 396.
- 175. JA, 1934.
To Kharim),176 डब्ल्यू.बी. हेनिंग की अर्गी तथा तोखरियन, डब्ल्यू.एम. मक्गर्वन की The Early Empire of Central Asia सिलवेन लेवी की Le Tokhrian177 आदि। ऐसा लगता है कि ये भारत में दूसरी शताब्दी ई.पू. से दूसरी शती के बीच आए। किन्तु ऋग्वेद के समय भी इनका एक भाग भारत में था जिन्हें शिग्रु/शिगरवार कहा गया है।
टांक/टाक
टांक अथवा टाक का उल्लेख छत्तीस भारतीय राजघरानों में से एक के रूप में किया गया है किन्तु कर्नल टाड के अनुसार जैसा कि वह अपने वृतान्त में बताता है वे इतिहास से इसलिये आलोप हो गये क्योंकि तेरहवीं शती में वे मुसलमान बना लिये गये। पूर्ण रूप से नहीं, यद्यपि अनेक टांक अब भी ईस्लाम धर्म के अनुयायी हैं, हिन्दू जाटों में अब भी बहुत से टांक विद्यमान हैं।
ह्यून त्सांग (631-643 ई.) द्वारा एक टांक राज्य का उल्लेख किया गया है। इस की स्थिति गन्धार के पूर्व में बताई गई है। ह्यून त्सांग इसे तक्क नाम से कहता है तथा सिंध का इतिहास, चचनामा, इस की चर्चा टाक के नाम से करता है। इस की राजधानी शकिलों (शाकल, वर्तमान स्यालकोट) थी तथा पूर्व काल में इस स्थान से मिहिरकूल शासन करता था। सातवीं शताब्दी ई. में वे लोग मुख्य रूप से बौद्ध ही नहीं थे किन्तु वे सूर्य की उपासना भी करते थे। अभिधान चिन्तामणि के अनुसार टक्का एक वाहिक देश (पंजाब) का नाम है। इस के पश्चात् जो वर्णन है उस जानकारी के लिये हम चन्द्र शेखर गुप्ता के, उन के भारतीय सिक्कों पर लेख के लिये, आभारी हैं।178 टांक चौथी शती से पूर्व भारत आए होंगे। कुशाणों के साथ ही वे बंगाल तथा उड़ीसा तक फैल गए होंगे, मानों तथा कंगों के सदृश जोकि दक्षिण महाराष्ट्र तथा दक्कन तक फैल गये थे। उड़ीसा में टांकों का राज्य, उड़ीसा मयूरभंज, सिंघ भूमि, गन्जम तथा बलसोर के ज़िलों में था। इतिहासकारों द्वारा उन्हें "पुरी कुशान" कहा जाता है। इन के सिक्के भंजकिया तथा बलसोर (छोटा नागपुर) में मिले हैं तथा इन सिक्कों पर चौथी शती ई. की ब्राह्मी लिपि में टंकाओं का वृत लिखा हुआ है। एलन ने इन सिक्कों के आलेख में टंक कबीले का वृतान्त बताया179 तथा प्रायः/अन्यों ने इस लिखाई को टंक ही सही स्वीकार कर लिया।180 एलन ने उन्हें तीसरी अथवा चौथी शताब्दी के पूर्व के बताया है जबकि वी.ए. स्मिथ उन्हें चौथी अथवा पांचवीं शती का बताता है। आर.डी. बेनर्जी ने उन्हें "पुरी कुशणों" के नाम से पुकारा।
- 176. La Haute Asie.
- 177. JA, 1933.
- 178. VIJ, Vol. XVI, pt. I, p. 92 ff.
- 179. Ancient India, Plate XII, fig. 3.
- 180. JNSI, 12, 1950, p. 72.
इस बात के प्रमाण कि वे जाट थे के लिए हम इस बात की ओर ध्यान आकर्षित करना चाहते हैं कि वे अब भी जाटों में विद्यमान हैं। कुशानों (कश्वान जाटों) के साथ उन के सम्बन्धों से इस तथ्य को और बल प्राप्त होता है। उन का मध्य एशियाई मूल इस तथ्य से सिद्ध होता है कि निया-ख्रोष्टी मध्य एशिया प्रालेखों में टण्गमूल्य/मूलय सिक्कों के वर्ग अर्थ में हैं।181 यहां पर शब्द टण्ग वही है जैसा कि टण्क तथा मध्य एशिया में मूली का अर्थ है मूल्य।
जैन साहित्य में भी टण्कों की चर्चा है तथा यह तथ्य कि उन्हें "म्लेच्छ" कहा गया है उन के विदेशी मूल का द्योतक है। जैन कृतियों के अनुसार टण्क अजेय थे। (चन्द्र गोमिन जाटों के लिये, तथा थूसीडाइड जटै के लिये यही टिप्पणी करते हैं।) वे उत्तरापथ अर्थात् उत्तर पश्चिम भारत के निवासी थे, तथा दक्षिण पथ (दक्षिणी भारत) के साथ मूल्यवान वस्तुओं जैसा कि स्वर्ण तथा हाथी दांत का व्यापार करते थे।182
सी.एस. गुप्ता के शब्दों में समाप्त करते हुए, "टण्क के आख्यान की इस के अतिरिक्त और कोई व्याख्या नहीं हो सकती कि ये सिक्के टन्कन (टक्का) कबीले द्वारा बनाए गए थे। अपने समुदाय के नाम पर, उसी प्रकार जिस प्रकार योधेयों तथा मालवों ने बनाए। ऐसा लगता है कि इन लोगों द्वारा अपने सिक्कों पर खुदवाया नाम कालान्तर में सिक्के का पर्याय बन गया।"183
यह टका की मूल कथा है और अब भी सिक्के को टका कहा जाता है। महमूद गज़नी के सिक्कों पर संस्कृत आख्यान है।
अल्ला-उ-दहीन खिलज़ी तथा अक़बर ने भी बाद में टक्के चलाये। मलय सिंह के रवा शिला आलेख (1193 ई.) से पता चलता है कि खिलज़ी ने रेवा के समीप एक पानी का तालाब बनाने के लिये 1500 टक्कों का व्यय किया। राजतरंगिनी में इस बात का उल्लेख है कि कश्मीर के राजा अनन्त ने टक्कों का प्रचालन किया।184 टाण्क सिक्कों का उल्लेख दक्षिण में भी मिलता है।185 बोल चाल में टाण्क सरोहों की चर्चा इकट्ठी (दहिया ड़बास तथा सिद्धू ब्रार की भान्ति) की जाती है। टांक तथा सिरोही के नगर उन के नाम पर हैं। एक समय सम्पूर्ण पंजाब को टांक देश कहा जाता था। चीनी यात्रियों के वृतान्त इस तथ्य की पुष्टि करते हैं। वे सांपों का हार गले में डाले, शिव के उपासक थे। अतः उन्हें नाग भी कहा गया।186
- 181. ibid, 16, 1954, p. 220, f.n. 4.
- 182. J.C. Jain, Jain Agama Sahitya men Bhartiya Samaj, pp. 173-74 & 480.
- 183. VIJ, Vol. XVI, pt. 1, p. 93.
- 184. Cunningham, Coins of Medieval India, p. 34.
- 185. JNSI, 30, (1968), p. 129.
- 186. cf. Jayaswal's views on Bhara-Sivas.
तोमर
इन्हें वायु पुराण ब्रह्माण्ड पुराण तथा विष्णु पुराण में वर्णित किया गया है।187 1337 विक्रम सम्वत् के बोहर अभिलेख के अनुसार वे चौहानों से पूर्व देहली के शासक थे।188 पहेवा अभिलेख में जौल राजा के वंशज के रूप में एक तोमर परिवार का उल्लेख है। वायु पुराण के अनुसार मध्य एशिया में नलिनी नदी के किनारे (जिस का उद्गम बिन्दुसरोवर है तथा जो पूर्व की ओर बहती है इन नदियों की पहचान के लिये हंस के अन्तर्गत देखें) के मूल निवासी थे। उन का उल्लेख महाभारत में भी किया गया है।189
तेवठी/तेवटिया
उज्जैन के स्थान पर कुछ सिक्के मिले हैं तथा के.पी. जायसवाल द्वारा उन का वर्णन किया गया है।190 सिक्के पर एक ओर नदी के साथ मच्छली है, ब्राह्मी लिपि के सब से पुराने रूप में, एक आख्यान है जिसे तुबर्था अथवा तुरबटी पढ़ा गया है। सम्भवतः इस का संस्कृत पर्याय तुर्वष्ठि है। ये सिक्के मौर्य पूर्व काल के लगते हैं। तुर्वश वंश से सम्बन्धित लगता हैं। दूसरी ओर भूमि पर एक वृक्ष वर्ग से चिन्हित है।
ये टिप्पणियां दिवंगत डाक्टर जायसवाल की हैं। उन का इस नाम को तुवथी के रूप में पढ़ना कतिपय सही है इसे तेवठी/तुवठी होना चाहिये। किन्तु यह स्थान का नाम नहीं है अपितु जाटों का गोत्र नाम है। पानी (मच्छली के साथ) तथा भूमि (वृक्ष के साथ) जाटों के पारम्परिक प्रतीक हैं शायद यह मौर्य काल से भी अधिक प्राचीन है। तबिती सिथियों की अग्नि देवी का नाम है। ईसा से 700 वर्ष पूर्व, पश्चिमी एशिया में तेवठी नाम पाया गया है।191
यदि ये अटकलें सही हैं तो इससे यह पता चलता है कि तेवठिया जाट भारत में हखमनी गड़बड़ के समय आए। भारत के भूतपूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह इस गोत्र के वंशज थे तथा इसी प्रकार पंजाब तथा हरियाणा उच्च न्यायालय के न्यायाधीश तेवटिया हैं। अनेक तेवटिया आजकल हज़रत मुहम्मद के अनुयायी हैं।
उटार
हेरोडोटस ने इन का उल्लेख सरंगियन (सारांघ) तथा पक्तीयन (पख्तूनों)192 के साथ, उटियों के रूप में किया है। पुराणों में इन्हें उत्तरा कहा गया है। "महाभारत" इन का उल्लेख लोहानों ऋषिकों तथा कम्बोजों के साथ करती है।193 छठी शताब्दी में ये
- 187. Wilson's Edition, p. 162.
- 188. JASB, Vol. XLIII, pt. 1, p. 108.
- 189. VI, 9, 69.
- 190. JBORS, 1936, Vol. XVII, p. 65.
- 191. Rawlinson's Herodotus, Vol. I, p. 16.
- 192. Book VII, ch. 68.
- 193. op. cit., II, 27, 22-26.
लोग रोमन साम्राज्य के विरुद्ध युद्धरत रहे। यह युद्ध उन्होंने बल तथा कुलार कुलों के साथ मिल कर लड़ा। उन्हें वहां उत्तरग उहार भी कहा गया है। गरी भारतीय शब्द गाड़ी की और संकेत करता है। CAH के अनुसार अकद का राजा, सारगौन (2371-2316 ई.पू.) ने कायोडसिया में कैसरी के समीप स्थित पुरुष खण्ड नगर के व्यापारियों की शिकायतें सुनीं। अतः वह उत्तरपश्तुम194 के देश के विरुद्ध लड़ाई के लिये चला गया। САН इस शब्द के बारे में निश्चित नहीं है195 क्योंकि शब्द को गलत रूप से विभाजित कर दिया गया है। इस शब्द का शुद्ध रूप है उत्तर पातुम अर्थात् उत्तरों व पश्तूनों की भूमि। ये दोनों वर्गों के लोग हेरोडोटस द्वारा कहे गये उटियन तथा पक्तीयन ही हैं। R.N. Frye उन्हें अर्मेनिया के उटी लोग मानते हैं।196 बुद्ध प्रकाश का कथन है "यौद्धेय कुल, निश्चित रूप से बिना किसी भ्रान्ति के लारिस्तान के यौतीय, ट्रांसकास्सिया के औटिओई तथा किरमान के जटों से पूर्ण मेल खाता है।"197
स्पष्ट रूप में उटियन, CAH के उत्तर पुराणों के उत्तर तथा आज के उटार जाट ही हैं। अन्तर केवल र प्रत्यय का है ; उत्त/उट+र = उत्तर/उटार/ ई प्रत्यय से उटी बनता है। यौद्धेय जाटों के साथ उन की समरूपता हो अथवा न हो, यह सम्भव अवश्य है। पश्तुम (पक्तीयन) निस्संदेह आज के अफगानिस्तान के पख्तून ही हैं। हेरोडोटस ने भी इन का उल्लेख पश्चिम के लोगों के रूप में किया है। "महाभारत" में उत्तर देश का उल्लेख है तथा उस देश के राजा का नाम उत्तर कहा गया है।198
विर्क/वृक
यह एक अत्यन्त महत्वपूर्ण गोत्र है। इस का उल्लेख पाणिनी ने भी किया है तथा वी.एस. अग्रवाल द्वारा विर्क जाटों के साथ साम्यता का उल्लेख इस से पूर्व किया जा चुका है। वही साम्यता बुद्ध प्रकाश द्वारा भी वर्णित है।199 महाभाष्य वृक तथा इस के व्युत्पतिक वर्कन्य का भी उल्लेख करता है जो ईरानियों के वर्कन हैं तथा यूनानियों के हयर्कन। केस्पियन सागर को एक समय वृकन सागर भी कहा जाता था। रालिन्सन ने भी ह्यर्कन का वकर्नों के साथ साम्य का उल्लेख किया है।200 वह उल्लेख करता है कि तेरहवीं शती में भी मध्य एशिया में उन के देश को याकूत में उर्कनीक कहा जाता था। हेरोडोटस के अनुसार वे थर्मोप्लाई के युद्ध में अपने नेता मजपेनस, जोकि बाद में बाबिल का क्षत्रप बना, के अधीन लड़े।201 भारत में प्रवेश करने वाले वे सर्व प्रथम कुलों में थे तथा
- 194. Vol. I, pt. II; p. 426 ff.
- 195. ibid., p. 428, note 3.
- 196. MBT, VI, 9, 65.
- 197. The Heritage of Persia, 1962, p. 50.
- 198. P&SM, p. 105.
- 199. ibid., p. 251.
- 200. Vol. IV, p. 163.
- 201. ibid., bk. VII, ch. 62.
छटी शताब्दी ई. तक वे कम से कम मालवे में अपने राजा विष्णु वर्धन विर्क के अधीन शासन कर रहे थे। इस इतिहास का वर्णन हर्ष के अध्याय के अधीन किया गया है, तथा यहां इस की पुनरावृत्ति नहीं की जा रही। वृकों का स्मरण ब्रह्म, वामन तथा मार्कण्डेय पुराणों में भी किया जाता रहा है। उन की प्राचीनता विगत के गहन अन्तर तक जाती है। सुमेरि में गुटीयम देश के साथ उरूक/वर्क देश का वर्णन है। वास्तव में 22वीं शताब्दी ई. पूर्व त्रिगण नामक अन्तिम गुत्तीय राजा, वर्क देश के शासक उतू खेगल द्वारा परास्त किया गया था। ऐसा सम्भव है कि इस वर्क देश का नामकरण उन के नाम पर हुआ हों। संस्कृत में वृक का अर्थ भेड़िये से है जैसा कि रूसी में वोल्क जिस का वही अर्थ है। वोल्गा नाम की नदी का नाम उन के नाम पर ही रखा गया है।202 के.पी. जायसवाल के अनुसार बीम कदफिशों का एक अधिकारी वृक था।203
द्वितीय खण्ड
अत्री
अत्री
"शपथथ ब्राह्मण" में उन का उल्लेख मिलता है। महाभारत भी इन का उल्लेख करता है। एक अत्री राजा इन्द्र दमन का उल्लेख हुआ है जो ब्राह्मणों को कई तरह की दान दक्षिणाएं दिया करता था।204
आटविक/अटवाल
"महाभारत" में इन का वर्णन मिलता है।205 "पृथ्वी सर्वः समलेच्छाटिवकः" से पता चलता है कि ये लोग पश्चिम के म्लेच्छों से सम्बन्धित थे।206
अबरा
अबरूनियम नाम के एक देश का उल्लेख गुतियम देश के साथ मिलता है। यह दोनों देश सुमेर तथा बेबीलोनिया में स्थित थे। अबर/अवर मध्य एशिया में जाने जाते हैं। भारत में उन का देश अबरिया था। मुल्तान (पाकिस्तान) के अबरा लोग अब इस्लाम धर्म ग्रहण कर चुके हैं।
अंदर
"गण भृषादि" में अन्दर नाम के एक कबीले का वर्णन है। ये लोग असीरिया
- 202. P&SM, p. 102.
- 203. JBORS, Vol. XVI, p. 258.
- 204. MBT, 12/234/18; 13/137/3.
- 205. ibid., 9/32/4.
- 206. ibid., Ram Kumar Rai, part I (Hindi).
(पश्चिम एशिया) के अन्दर और आजकल पाकिस्तान में जाटों के रूप में विद्यमान हैं। इन्हीं को आन्ध्र कहा गया है तथा आन्ध्र प्रदेश भी इन्हीं के नाम पर है।
ओहलान/औलान
ऋग्वेद में यह उपनाम "शान्तनु" का है जहां उसे औलान बताया गया है, जो उल का वंशज था। मध्य एशिया में आज विद्यमान ओघलान कुल के लोग भारत में पाए जाने वाले ओहलान जाट ही हैं।
औलख/औलुक्य
ये उलुक के वंशज हैं।207 महाभारत में उलुक नाम के एक देश का उल्लेख हुआ है। उलूक से औलुक/औलख बनता है।
औझलान/औझ
"पाणिनी" के अनुसार ये उज्जिहान के वंशज हैं208 इन की तुलना जाटों के औझलान कुल के लोगों से हो सकती है। मूल नाम उझ है, दोहरा प्रत्यय ल + आन् लगाकर उझलान/औझलान होता है।
भन्गल/भन्गू
इस गोत्र का प्रथम उल्लेख सिकन्दर के धावे के समय यूनानियों द्वारा किया गया है तथा इन का वर्णन फेगल/फेगु के रूप में किया गया है। यह ज्ञात है कि भारतीय "ब" को यूनानी "प" बना देते थे तथा प्रत्यय "स" को यूनानी विशेषता समझ कर दृष्टि अवगत कर दिया जाना चाहिये। इन तथ्यों को मन में रखते हुए जो नाम सामने आता है वह है भंगू अथवा भंगल। इन दोनों रूपों के अन्तर्गत इस गोत्र को अब भी जाना जाता है। पाणिनी इन का उल्लेख भगल नाम के अन्तर्गत करता है। वे एक स्वशासी कुल था जिस पर कुलतन्त्र का शासन था जो न्याय तथा संयम पर आधारित था।209 जब अरबों ने सिंध पर आक्रमण किया उस समय भन्जर्गू भन्गू का पोता तथा कोतल का पुत्र काक, सिवीस्तान पर राज्य कर रहा था।210 भन्गू एक दानव तथा एक पर्वत दोनों का नाम है। संस्कृत आंग्ल शब्द कोश भी किसी भंगासुर का उल्लेख करता है।211
बाण
बाणासुर के अनुयाइयों के लिये बाणेय उपनाम का प्रयोग किया जाता है।212
- 207. Panini, IV, I, 105.
- 208. op. cit., 2/27/5-11; 8/54/1.
- 209. Mc Crindle, op. cit., p. 121.
- 210. Elliot and Dowson, Vol. I.
- 211. p. 744. See also Levi, in JA, 1890, p. 239.
- 212. See Sanskrit English Dictionary, M. Williams, 1960.
वर्तमान बाण गोत्र का साम्य उन से बिठाया जा सकता है। तुर्की स्थित बान झील उनके सगोत्रीय भाइयों का क्रीड़ा स्थल रहा है और बाण लोग मैसूर क्षेत्र में भी शासक थे।
बस्सी
ऐतरेय ब्राह्मण, टाराइन इन लोगों का वंश कहा गया है।213 ये वही हैं जो हेरोडोटस के बसई (Basae) तथा असीरिया के वैसी (Vaisi) जोकि मीडयन कबीलों में से एक हैं। बस्सी आज जाट तथा खत्री दोनों कुल हैं। ऐतरेय ब्राह्मण उन्हें मध्य देश के बताता है। कौशितकी उपनिषद उन्हें मत्स्यों के साथ जोड़ता है। गोपथ ब्राह्मण उन्हें उशीनरों (सीबियों) के साथ रखता है। वशी/बस्सी दोनों रूपों में विद्यमान हैं।
चेबुक
पर्जितर मार्कण्डेय पुराण के अपने अनुवाद में उत्तर भारत में चिबुक नाम के लोगों का उल्लेख करता है।214 यही लोग आज के चेबुक जाट हैं। महाभारत में भी इन का उल्लेख हुआ है।215
डबास
सम्भवतः ये लोग हेरोडोटस द्वारा वर्णित् ड्रोपाइस लोग ही हैं। अन्य इतिहासकारों द्वारा "डरबाईस" डबिस के रूप में भी वर्णित हुए हैं। ये लोग छटी शताब्दी में केस्मियन सागर के दक्षिण पूर्व में आवासित थे। सम्भवतः ये लोग भारतीय साहित्य के दरवास भी हो सकते हैं।
दहिमा
ये लोग दहिया कुल के साथ बहुत ही निकटता से जुड़े हुए हैं तथा इन का उल्लेख एक साथ ही हुआ है। राजस्थान में वे अधिकतर राजपूत हैं। दहिमा जाट आज कल खेकड़ा तथा मेरठ ज़िला उत्तर प्रदेश के आसपास के गांवों में बसे हुए हैं। वे बैस, सालार आदि 36 राजकीय जातियों में से एक हैं।
ढल
ये लोग भारतीय इतिहास व साहित्य के डाहल हैं। उन के राजा डाहलाधीव का उल्लेख बिल्हन कृत "विक्रमांक देव चरित" में हुआ है।216
- 213. ibid.
- 214. op. cit., p. 378 note 44.
- 215. See, SED, p. 398.
- 216. XVIII, 93-95.
"सुश्रुत" के एक विख्यात व्याख्याकार का नाम ढल्लान था।217 दिल्ली को सम्राट की राजधानी कहा गया है। (शकाधीप राजधानी218 ; ढिल्लों देखिये।)
गौड/गौर
जी.एच. ओझा ने छोटी सादरी (उदयपुर) के पास एक देवी मंदिर में एक अभिलेख का पता लगाया है। इस अभिलेख का काल माघसुदी 10 सम्वत् 547 दिया गया है। इस पर यशवपुश गौर का नाम अंकित है जो राज्यवर्धन का पौत्र है तथा यह मंदिर उस ने अपने माता-पिता की स्मृति में निर्मित कराया।219
वराहमिहिर कृत बृहत् संहिता में गौड़ एक कुल का नाम है। महाभारत में इन का उल्लेख "घोरक" नाम के अन्तर्गत हुआ। घोरी तथा गौरी भी इसी नाम से सम्बन्धित हैं।220 मुहम्मद गौरी का नाम भी इस गौरी शब्द को लिये है।
गबर
मार्कण्डेय पुराण में इनका उल्लेख गबल के रूप में हुआ है।221 गबर अथवा जबर फारसी में "उच्च तथा वरिष्ठ" अर्थ रखते हैं।
गाल्लान
मार्कण्डेय पुराण में इन का उल्लेख गाल्वों के रूप में हुआ है। मूल नाम गाल है। आन तथा "ब" इस में प्रत्यय के रूप में प्रयुक्त होते हैं। फ्रान्स का पुराना नाम, गाल इसी कुल ने दिया है।
गुलिया
ये लोग पुराणों में वर्णित कुल्य/कुलिया की तरह ही हैं। मार्कण्डेय पुराण इन का उल्लेख मध्य भारत में आवासित मत्स्यों के साथ करता है। "मत्स्य पुराण" में कुलिया नाम के लोगों का उल्लेख है।
- 217. See SED, p. 430.
- 218. ibid., p. 1045.
- 219. Nagari Pracharini Patrika, Vol. XIII, pt. I.
- 220. MBT, II, 1870.
- 221. op. cit., LVII, 36.
घूमन/गूमर
"मत्स्य पुराण" में कूमन नाम के लोगों का वर्णन है। किन्तु उन्हें, सम्भवतः किसी भूल के कारण दक्षिण में दिखाया गया है।
कुषाण कालीन एक अभिलेख में गूमन नाम के एक शिल्पी टाल्मी (Architect) को अंकित किया गया है।222 Ptolemy खूमर/खोमर नाम के लोगों का उल्लेख करता है। उन के देश को खोमरोई कहा गया है।223
ये लोग प्राचीन काल के गूमर/गिमरी आदि ही हैं। यूनानियों ने इन्हें ही किम्मर कहा है। ऐसा दिखाई देता है कि गूमर तथा घूमन एक ही लोग हैं।
जांगलान
"वायु पुराण" में इस कुल को जांगल कहा गया है तथा इस का उल्लेख बोधों तथा भद्रकों के साथ हुआ है।224 मत्स्य पुराण में वर्णित है कि सिंधु नदी जांगलों के देश से हो कर बहती है। महाभारत में भी इन का उल्लेख हुआ है।
जागुड़/जाखड़
"महाभारत" के अनुसार यह केसर उगाने वाले लोग थे।225 इससे यह पता चलता है कि {ये} कश्मीर के उत्तर तथा उस के पार अर्थात मध्य एशिया के बल्ख क्षेत्र में रहने वाले थे, जो पुरातन काल से केसर के लिये विख्यात हैं। ये जाखड़ कुल के लोग हैं।
जेन्जुआ
ये लोग चीनियों के जुजुआन (Jujuan) हैं। ई.पू. पहली शताब्दी में उत्तरीय हूण राज्य के एक सम्राट को चीनियों के द्वारा जीजी कहा गया है। हियांग (हेंगा जाट) महान यू.ची का एक वर्ग, इस काल से पूर्व जेन्जुओं के अधीनस्थ था। मंगोलिया से इन लोगों ने अन्य कबीलों को कैसे खदेड़ा भगाया, चीन से लेकर रोम तक श्वेत हूणों के नाम कैसी तबाही मची, यह सब इतिहास का एक मुंह बोलता भाग है, इसे यहां दोहराए जाने की आवश्यकता नहीं है। ये लोग आजकल स्वयं को जेन्जी अथवा जेन्जुआ के रूप में प्रस्तुत करते हैं तथा ये जाटों और राजपूतों में पाए जाते हैं।
- 222. CII, Vol. II, pt. I, p. 151.
- 223. Ptolemy, Outline of Geography, pp. II, p. 6-9. See also, Ancient India as described by Ptolemy, pp. 268-69.
- 224. XLV, 109, 110.
- 225. MBT, III, 1991.
खुन्टल
"मार्कण्डेय पुराण" में इन का उल्लेख मिलता है। "महाभारत" इन को पश्चिम में स्थित कहता है। उपेन्द्र ठाकुर एक विशेषज्ञ के माध्यम से हूणों के साथ खुन्टली उल्लेख करते हैं।226 डी.सी. सरकार इन का उल्लेख कुन्तलहूणा के रूप में करते हैं।227 जे. म्यूर (J. Muir) के संस्कृत पाठों में इन का देश पिशाच कहा गया है म्यूर का कथन ठीक ही है। पुराणों में जिन लोगों का उल्लेख कुन्तलों के रूप में हुआ है, वे आज के खुण्टेल जाट ही हैं। यह बात हूणों के साथ उन की सम्बद्धता तथा म्यूर के पाठों से भी प्रमाणित होती है। महाभारत तथा 'SED' में इन का उल्लेख कुन्टक के रूप में हुआ है।
जोहल
इनका उल्लेख पहले खण्ड में भी हो चुका है। सम्भवतः इन लोगों का उल्लेख महाभारत में खस, कुण्डू, तंगण कुलों के साथ ज्योह नाम के अन्तर्गत हुआ है।228 परवर्ती काल के जोह्ल/जोहल जाट जयोहों के ही वंशज हैं। ये लोग मेरू तथा मंदार पर्वत शृंखला के बीच बहने वाली नदी के दोनों किनारों पर आवासित थे। इस क्षेत्र में बांस प्रचुर मात्रा में होते हैं। इससे भी इन लोगों की पहचान सिद्ध होती है।
खेर
ये लोग प्राचीन काल के लेखकों के (कोरशमी) तथा अवेस्ता में वर्णित खेरसाओ हैं। मृच्छकटिका में इन के राजा का नाम खेरखान कहा गया है। इन का उल्लेख इस अध्याय के प्रारम्भ {पृष्ठ 248-249} में भी किया जा चुका है। यहां खेरसाओ और खेरखान का एक ही अर्थ है — खेर लोगों का राजा।
कलकिल
यह भी जाटों का एक अन्य महत्वपूर्ण कुल हैं, जिस ने मध्य भारत में अपना साम्राज्य स्थापित किया था, जिसे परवर्ती काल में 'वाकाटक' का नाम दिया गया जो बोकाट नामक जाट कुल है। प्रवरसेन प्रथम के अधीन ये लोग बुन्देल खण्ड से लेकर दक्षिण में हैदराबाद तक के क्षेत्र पर शासन कर रहे थे। कुछ इतिहासकारों का मत है कि विध्य शक्ति के ब्राह्मण होने के कारण यह एक ब्राह्मण वंश था।229 यह बात पूर्ण रूप से गलत है। पुराणों में प्राप्य प्रमाण इस मत का पूर्ण विरोध करते हैं। भाऊ दाजी ने यह सिद्ध किया है कि वाकाटक लोग विदेशी थे।230 "विष्णु पुराण" स्पष्ट रूप से
- 226. The Hunas in India, p. 55, note 2.
- 227. Studies in Geography ... , p. 71.
- 228. Sabha Parva, 48/2-3.
- 229. R.C. Majumdar, Ancient India, 1962, Hindi Edition, p. 253.
- 230. JBBRAS, Vol. VII, p. 69.
कहता है जब उन (पौर) का नाश होगा तो कलकिल यवन राजा होंगे जिन का प्रमुख विध्य शक्ति होगा।231 ब्रह्माण्ड पुराण कहता है, "ततः किलकिलाध्यक्षः विंध्य शक्ति भविष्यति।"
यहां "पौर" जाटों का पोर कुल है। इन के विषय में पुराणों में वर्णित है कि ये भारत में शासन कर रहे थे। ये दोनों पुराण स्पष्ट रूप में कहते हैं कि विंध्य शक्ति किलकिल अथवा कलकिल कुल से सम्बन्धित था। वायु तथा मत्स्य पुराण के अनुसार ये लोग अपने रीति रिवाजों तथा जीवन यापन के ढंग से "यवन" थे। यह इसलिये था कि बक्तरिया पर 200 वर्षों तक यूनानियों का शासन रहा। इस के अतिरिक्त यवन शब्द पश्चिम से आने वाले लोगों के लिये प्रयुक्त होता है।232 अतः कलकित वंशी विन्ध्य शक्ति, तथा वाकाटक वंश दोनों, जाट कुल थे जिन्हें आजकल कलकिल तथा वोकाट कहा जाता है।
यह तथ्य कि विंध्य शक्ति की जाति जाटों की थी, इस बात से पुष्ट होता है कि इन लोगों के वैवाहिक सम्बन्ध धारण/गुप्त कुलों तथा भारशिवों तथा टांक जाटों से थे। यह बात कि लोग परम्परागत हिन्दूवाद के समर्थक थे तथा अश्वमेध यज्ञ किया करते थे, कुछ भी सिद्ध नहीं करती। हम यह भी जानते हैं कि विदेशिय ही ऐसे पहले लोग थे जिन्होंने अपने अभिलेखों में संस्कृत भाषा का प्रयोग किया। अश्व बलि की प्रथा भी केवल भारत की विशेष प्रथा नहीं कही जा सकती। क्योंकि तातारों तक मध्य एशिया के लोगों की यह विशेष प्रथा रही है यहां तक कि चंगेज़ खां ने भी इस का नियमतापूर्ण पालन किया। मध्य एशिया के इन कबीलों का दूसरा रिवाज़ था तलवार की पूजा। विशेष पर्वों जैसे दशहरा पर शस्त्र पूजन, विशेषतः परवर्ती काल के राजपूतों एवं क्षत्रियों द्वारा वही पूर्वकालीन शस्त्र पूजन की प्रथा ही है।
मेरठ में यादनगर नाम की एक छोटी सी रियासत कलकिल जाटों की ही थी। महाभारत में दक्षिण क्षेत्र में स्थित एक देश तथा उस के लोगों का नाम कलकिल कहा गया है।233
काले/कालों/काहलों
यह कुल आज भी अपने इन तीनों नामों के साथ जाना जाता है। महाभारत में इन का उल्लेख कालेय234 के रूप में हुआ है। "कालेय इति विख्यातों गणः परम दारूणः"
- 231. Wilson, Edition, p. 380.
- 232. D.P. Singhal, India and World Civilization, Vol. I, p. 385.
- 233. SED, p. 262.
- 234. MBT, 3/103/7.
अर्थात कालेय नाम से विख्यात एक भयंकर गण जन। आठ राजाओं के साथ इन्हें एक असुर जाति कहा गया है।235 और उन्होंने देवताओं को परास्त किया था।236 महाभारत स्पष्ट रूप में यह भविष्यवाणी करता है, कि कम्बोज देश के म्लेच्छ यहां (भारत में) कलियुग में राज्य करेंगे।237
काक(राणा)
महाभारत में (6/9/64) में काक नाम के एक देश का उल्लेख है। काक/काकराण वंश ही काकुस्थ भी कहलाये।
कंठ/कठिया/गठवाल
यह सम्भव हो सकता है कि ये दोनों कुल एक न हो कर भिन्न हो। कठिया कुल के बारे में Tribes and Castes में लिखा है, "इस विषय पर काफी खोज करने के बाद मैं इस परिणाम पर पहुंचा हूँ कि वर्तमान काल के कठिया पूरे ज़ोर के साथ यह आग्रह कर सकते हैं कि वे उस प्रख्यात कुल "कठओई" (Kathaioe) के वंशज हैं जिन्होंने अपूर्व शौर्य के साथ मक्दूनिया के सम्राट सिकन्दर का प्रतिरोध किया था।"238 इन लोगों का अपने मूल के बारे में अपना कथन सर्वथा भिन्न है। बहुत से अन्य जाटों की तरह ये भी अपनी वंशावली अकबर के काल के समय एक राजपूत राजकुमार से मानते हैं। तब ये लोग इस्लाम धर्म में परिवर्तित हो गए थे। इस कथित वंशबेल का गहन अध्ययन करने के बाद इस तरह की अन्य लोकप्रिय परम्पराओं की तरह उन के मूल की यह कथा भी कपोल कल्पित है।
दूसरी तरफ गठवाल पूर्व कुषाण तथा प्रारम्भिक कुषाण काल के गड अथवा गडवाहर लोग हो सकते हैं। गडवाहर या गडवार आसानी से अन्तिम "र" को "ल" में बदल कर गडवाल अथवा गठवाल हो सकते हैं।
कोहाड
ये लोग कोहाड़ के वंशज हैं। "वंश ब्राह्मण" में मित्र विंद कोहाड239 नाम के एक व्यक्ति का उल्लेख मिलता है। श्रवण दत्त को भी कोहाड़ कहा गया है जब कि गोभिल गृह सूत्र कोहाड़ों की एक प्रथा का उल्लेख करता है।240 कोहाड़ अब एक जाट कुल है।
- 235. ibid., 1/67/47.
- 236. ibid., 3/101/6.
- 237. ibid., 3/188/36.
- 238. op. cit., Vol. II. p. 482.
- 239. Weber, Indische Studien, 4, 372, 332.
- 240. HVI, (R.K. Rai), Vol. I, p. 216.
मलिक/मलक
"मार्कण्डेय पुराण" में इन लोगों का उल्लेख भारत के केन्द्रीय क्षेत्र के निवासियों के रूप में किया गया है।241 गठवाल अपने आप को अब मलिक कहने लगे है जोकि एक उपाधि है।
मान तथा काहलों
"मार्कण्डेय पुराण" में इन का उल्लेख मान, कालः, कोहलक तथा माण्डव्यों के साथ हुआ है।242 मूल नाम काह्ल है जो जर्मनी में कोहल के रूप में प्रचलित है। काल, कोहल, काहलों एक ही हैं और माण्डव्य केवल संस्कृत रूप है मन्ड का।
मान/हाल
वराहमिहिर अपनी 'वृहत् संहिता' में इन का उल्लेख एक साथ करता है।243 किन्तु ये दोनों भिन्न-भिन्न कुल हैं। मान तथा हाल अथवा हाला। मार्कण्डेय पुराण में मानों का उल्लेख अलग रूप में हुआ है, हालों का भी उल्लेख अलग रूप में हुआ है। इन्हें उत्तर में आवसित कहा गया है।244 मान अगस्तय ऋषि के पिता का नाम भी कहा गया है, जिस के परिणामस्वरूप उस के परिवार को "मान" कहा गया।245 किन्तु ऐसा कहना नितान्त संदेहास्पद है। ऋग्वेद एक व्यक्ति मान तथा मान के पुत्रों का उल्लेख करता है।246 (सूनवे मानेन मानस्य सुनवः) अर्थात् मान के वंशज।
मल्ल
इस का उल्लेख "हरिवंश पुराण" में किया गया है तथा परम्परागत रूप में एक मल्लासुर (एक असुर का नाम) का नाम आता है।247 अमरकोष असुर की परिभाषा एक पूर्व देव में करता है। यह बात आर्यों के बीच विभाजन से पूर्व की होगी।248 पूर्व देव का अर्थ है जो पूर्व काल में देवता वत् पूज्य थे।
- 241. LVII, 33.
- 242. ibid., LVIII, 46.
- 243. SED, p. 806.
- 244. ibid., p. 809 and p. 1293.
- 245. ibid.
- 246. Rig Veda, 1/117/11.
- 247. See SED, p. 793.
- 248. cf. Rig Veda, VIII, 35, 4.
मन्डेर/मन्डार्य
ऋग्वेद मन्डार्य नाम के एक व्यक्ति का उल्लेख करता है। उसी की व्युत्पत्ति से मन्डार वर्तमान जाटों का मन्डेर कुल है।249 महाभारत में मन्दार नाम के एक पर्वत का वर्णन है जो इन लोगों के वंश नाम पर मन्दार कहलाया होगा।
मिर्धा/मर्धा
ये लोग हेरोडोटस के मर्दी तथा स्ट्राबो द्वारा प्रयुक्त अमर्दी ही हैं। मर्दी शब्द का अर्थ है वीर नायक। सिकन्दर ने इन्हें 330 ई.पू. परसीपोलिस और फारस की खाड़ी में परास्त250 किया था। इन की तुलना एक व्यक्ति मृदी से भी की जाती है, जिस के नाम पर एक नगर का नाम मार्देय पुरा पड़ा।251 महाभारत में अमर्थ का उल्लेख एक जनपद के रूप में हुआ है।252
महल
संस्कृत इंगलिश शब्द कोश (SED) में इसे एक गोत्र के रूप में दिया गया है।253 महाभारत में माहिक तथा माहेय कहे जाने वाले लोगों का वर्णन है। आज भी इन्हें माहत/माहे दोनों रूप में जाना जाता है।
मोर/मौर
इस सम्बन्ध में मौर्यों का अध्याय देखिए। राजस्थान में चित्तौड़ के मोर वंशी राजाओं को महेश्वर, भीम, भोज तथा मान मोर के नामों से जाना गया है। आठवीं शती में यह कोटा पर भी शासन कर रहे थे। 738 ई. में एक शिलालेख में धवल मौर नाम के एक शासक का उल्लेख है। बापारावल, जो राजा मान मोर का दौहित्र था, ने अपने नाना से चित्तौड़ का शासन छीना और गुहिल/गहलौत वंश की नींव डाली।254
मोर/नारा
इन का उल्लेख मुर तथा नरक दो शक्तिशाली यवन राजाओं के रूप में हुआ है जो वरूण के समान पश्चिमी देश में मुर तथा नरक देशों पर शासन कर रहे थे।255 इन की तुलना असीरिया के अभिलेखों में अंकित मरू तथा नैरी के साथ भी हो सकती हैं।
- 249. SED, p. 810.
- 250. Rawlinson, op. cit., vol. I, p. 338.
- 251. Panini, VI, 2, 101.
- 252. MBT, 6/9/94.
- 253. p. 815; Bhishma Parva, IX/46, 49.
- 254. IA, Vol. XIX, pp. 55-57.
- 255. MBT, Sabha Parva, 13/13.
माछर/मत्स्य
माछरों के साथ मत्स्यों की समरूपता की पुष्टि महाभारत द्वारा होती है। जिस में एक महान रथी राजा माछेल्ल का उल्लेख हुआ है, जिस का नाम विराट है, जिससे यह जिससे यह पता चलता है कि ये लोग जयपुर मथुरा अलवर क्षेत्रों में आसपास बसे हुए हैं।256 माछेल्ल तथा माछर में केवल "ल" तथा "र" के प्रत्यय का अन्तर है। अलवर जयपुर क्षेत्र में माछरी नाम की एक जगह इन की पुरानी परम्परागत नगरी मानी जाती है।
नाहरा/नारा
'मार्कण्डेय पुराण' में इन का उल्लेख निहारों के रूप में हुआ है।257 नाहरा तथा नारा का भिन्न-भिन्न कुलों के रूप में उल्लेख हुआ है। ये दोनों एक कुल भी हो सकते हैं।
नासिर
इस की परिभाषा सेना के 'अग्र भाग' के रूप में की गई है, एक ऐसा महारधी जो सेना की पंक्ति से पहले चलता है।258 यह एक जाट कुल है। असीरियों का निसिर पर्वत भी इन्हीं के नाम पर प्रसिद्ध था। मिश्र के दिवंगत राष्ट्रपति जमाल अब्दुल नासिर इसी कुल से थे।
नाहल
SED (संस्कृत आंग्ल शब्द कोश) के अनुसार यह एक बर्बर कबीले का नाम है।259 नाहल आज भी एक जाट वंश है।
पल्लवाल
साहित्य में ये "पल्लव" के रूप में वर्णित हैं, आधुनिक ईरान के ये पहलवी हैं। भारतीय इतिहास के ये पल्लव हैं। यह एक जाट कुल है।
पंघाल
शतपथ ब्राह्मण में इन का उल्लेख पैंगय (Paingya) के रूप में हुआ है।260 यह शब्द पिंग से बना है जिस का मूल सम्बन्ध पिंगल अथवा पंगाल कुल से है। "वृहत् संहिता" इन का उल्लेख एलावतों के साथ पिंगल के रूप में करती है।
- 256. Sabha Parva, 31/13.
- 257. op. cit., p. 534.
- 258. SED, p. 538.
- 259. ibid.
- 260. See G.P. Upadhyaya's Edition, Vol. I, p. 33.
फोर/पोर
ऋग्वेद में पौर को पुरू का वंशज बताया गया है।261 इस का उल्लेख पोरस तथा मौर्यां के अन्तर्गत भी देखें।
सपरा
ये लोग हेरोडोटस के सपीरी ही है।262 इन का उल्लेख अलरोडियनों (आज के अरोड़ा खत्रियों) के साथ किया गया है। यह भी उल्लेखनीय है कि जब ये लोग भारत आए तथा सिंध में आवासित हुए तो इन्होंने अपने नगर का नाम अलरोर रखा। इस नगर पर 712 ई. में महमूद बिन कासिम ने विजय प्राप्त की। अरोड़ा लोग आजकल एक खत्री कुल है तथा सपरा लोग जाटों तथा खत्रियों दोनों में ही पाये जाते हैं।
शिबिया
जैसा कि पहले ही लिखा जा चुका है बौद्ध शिबि जातक (नं. 499) में इन का इतिहास तथा आख्यान संगृहीत है। बेस्सतर जातक का नाम जट्टरौर (चित्तौड़) के शिबिया राजा के नाम पर रखा गया है। पंजाब में उन की राजधानी शिबिपुरा (वर्तमान शरकोट) थी।263 ऋग्वेद में इन का उल्लेख है तथा बौधायन श्रौत सूत्र इन के राजा उशीनर का उल्लेख करता है, जिसे इन्द्र ने विदेशी अतिक्रमण से बचाया था। ये लोग अर्रियन के सिबिई हैं तथा डियोडोरस ने इन्हें सिबोई कहा है।264
सालार
PED के अनुसार सालार शब्द का अर्थ है राजकुमार, मुखिया, नेता।265 भारतीय इतिहास में सालार वंश एक विख्यात वंश है।266 इन का राज्य उड़ीसा तथा कोणकन क्षेत्र में था।
श्योराण
ये भारतीय इतिहास267 के शूर हैं तथा वर्तमान में मध्य एशिया के शोर हैं।
- 261. HVI, Vol. II, p. 29.
- 262. Rawlinson, op. cit., p. 534.
- 263. EI, 1921, p. 16; also Panini, IV/2/109.
- 264. Indica, 5, 12.
- 265. Persian-English Dictionary, p. 642.
- 266. See Tod's Annals.
- 267. MBT, 2/13/26.
महाभारत में इन का उल्लेख सूर्यासूर के रूप में हुआ है। इस का सम्बन्ध सूर्य से नहीं है अपितु सूर/शूर लोगों के लिये है268 बाहिल्कों का एक राजा दरद (दरर कुल के लोग) सूर्य से उत्पन्न बताया गया है।269 शूर राजा युधिष्ठिर के यज्ञ में शामिल हुए।
सहोता/सहोद
महाभारत में शाल्व, बौध, मद्र (मद्र), शूर लोगों के साथ सहोद नाम के लोगों का उल्लेख है।270 ऐसा कहा जाता है कि इन लोगों ने मगध के जरासंध से आतंकित हो कर पश्चिम में जा कर शरण ली थी। सुहोत एक विख्यात राजा का नाम भी है जो भरत का पौत्र कहा गया है। यही आजकल सहोता कहलाते हैं और मध्य एशिया में इन्हें सुहुद/सूगुद/सोग्दियन कहा गया है। अन्तर वही ग तथा ह का है।
संघेड़ा
इन की तुलना "महाभारत" के सांकेतों (उत्सव) से की जा सकती है।271 जब अर्जुन ने सुह्मों तथा चोलों के साथ उत्तर में उन पर विजय प्राप्त की थी। सुह्म अरब आक्रमण के समय सिंध में सुम्मा के रूप में जाने जाते थे तथा चोल भी चाहल कुल का नाम है। सांकेत पश्चिम में भि आवासित थे।272 SED में सांकेत लोगों के एक वर्ग को भी कहा गया।
सरांघ/सरान्ह
'शतपथ ब्राह्मण' में इन का वर्णन शृंगय तथा शृंजय नामों के अन्तर्गत किया गया है। पहला नाम अधिक सही प्रतीत होता है।273 इस सम्बन्ध में यह जानना भी रुचिकर होगा कि एक व्यक्ति सुल्पन सारंजय का उल्लेख हुआ है जिस ने एक यज्ञ के बाद अपना नाम सहदेव सरांजय रख लिया था। शृंजय शब्द रूप वही है जैसा कि सरान्घ तथा अवेस्ता में प्रयुक्त ज्रयान्ह भी सरांह ही है।274 'शतपथ ब्राह्मण' शृंगयों के एक राज्य का वर्णन करता है जोकि दस पीड़ियों तक रहा। फिर इस शासक पीढ़ी को सत्ताच्युत् कर दिया गया तथा इस के बाद बल्ख के राजा प्रातिपेय के विरोध के बावजूद सरान्घ राजा दुष्टरितू के एक मंत्री चक्र शथपति ने पुनः वहां उनकी सत्ता स्थापित की। दैववत नाम का सरन्गयों का एक राजा तुर्वशों तथा वृचिवंतों पर विजयी हुआ।275 सोमक,
- 268. ibid., 1/67/58.
- 269. ibid., 2/44/8.
- 270. ibid., 2/13/26.
- 271. ibid., Sabha Parva, 24/15.
- 272. ibid., 2/29/8.
- 273. XII, 9, 3, 8, 2, 3, 13.
- 274. HVI, Vol. II, p. 519/520.
- 275. Rig Veda, 6/27/7.
सहदेव (सुल्पन) का पुत्र था और नारद तथा पर्वत मुनियों ने उस का राज्याभिषेक किया था।276 ऋग्वेद में एक प्रस्तोक शृंग्य और उस की दान वीरता का वर्णन है। अथर्ववेद के अनुसार शृंग्यों ने भृगुओं को कुपित किया इसलिये उन्हें कष्ट झेलने पड़े यह संकेत सम्भवतः दुष्टरितू के सत्ताच्युत होने की ओर है। लेकिन यह पतन काल अस्थाई था, राज्य को जल्द ही पुनः प्राप्त कर लिया गया था।277 मुगल सेनाओं में सरांग एक सेना-नायक की पदवी थी।
तंगल
पुराणों में इन का उल्लेख तंगण के रूप में हुआ है। 'मार्कण्डेय पुराण' तथा 'विष्णु पुराण' में इन का वर्णन है। महाभारत के सभा पर्व में इन का उल्लेख तंगण तथा परातंगन के रूप में हुआ है/ अर्थात् समीप स्थित तथा दूर स्थित इन लोगों के वर्ग।
टांडी
आजकल इन्हें ढांडी कहा जाता है। यह एक जाट कुल है। सम्विधान ब्राह्मण {में} टांडी कुल का उल्लेख है।278
तातरान
ये लोग मध्य एशिया के तातार हैं (जर्मन में तातरेन) और सम्भवतः महाभारत में वर्णित तित्तर जिन्होंने पाण्डवों के पक्ष में युद्ध किया था।279
उझलान
मध्य एशिया में इन्हें आज भी उझ ही कहा जाता है। 'मार्कण्डेय पुराण' में उज्जिहान नाम के लोगों का वर्णन है। सम्भवतः इन दोनों लोगों में कुछ सम्बन्ध है। उज्ज + ल + आन् = उझलान ; तथा उज + आन् = उझान/उज्जहान !
वाटधान
जाटों में यह भी एक अत्यन्त प्राचीन कुल है। यद्यपि इस का वर्णन प्राचीन काल में हुआ है किन्तु इस के पश्चात् उन का इतिहास अज्ञात है। अठारहवीं शताब्दी में इस कुल के सिख जाटों ने रसूलपुर के राज्य की स्थापना की। सरदार बहादुर सर जोगिन्द्र सिंह जो वायसराय की देहली परिषद् के सदस्य थे तथा पंजाब के मंत्रिमंडल में 1926 से 1935 तक एक मंत्री रहे इसी कुल से थे। इस कुल को वाट/बाठ भी कहते हैं।
- 276. Ait. Br., 7/34/9.
- 277. HVI, Vol. II, p. 519-20; Also see, 196.
- 278. ibid., Vol. I, p. 340.
- 279. MBT, 6/50/51; 6/90/95.
वैन/वैन्या
वेन नामक यह राजा पृथी/पृथु वैन्य का पूर्वज है जिसे पृथ्वी का प्रथम प्रतिष्ठित राजा कहा जाता है। तैत्तीरीय ब्राह्मण तथा शतपथ एवं काठक संहिता इस दावे को दोहराते हैं। अथर्ववेद के अनुसार यह कृषि का प्रथम अन्वेषक था।280 मनु उस को अधार्मिक कह कर निन्दा करता है तथा उसे ब्राह्मणों के प्रति आदर तथा नम्रता से विहीन बताता है।281 उस पर यह भी दोष लगाया जाता है कि उसने जातियों में संभ्रम का सूत्रपात किया, स्पष्टतयः क्योंकि उसने जातियों को एक दूसरे से मिला कर एक करने का प्रयत्न किया होगा। वर्तमान मध्य एशिया के वैंक/वेनक तथा वेन्हवाल/बेन्हीवाल जाट उन के ही वंशज हैं।
बराइच/बराइश
'महाभारत' में उन का वर्णन छीनों, ओढरानों, हार हूणों आदि के साथ वार्षेय लोगों के रूप में किया गया है।282 शतपथ ब्राह्मण में उन का उल्लेख वर्श्ण के रूप में किया गया है। उन का उल्लेख वरीशा के रूप में भी किया गया है। सभा पर्व में वरीश देश के समीप एक सागर का उल्लेख किया गया है। हम ने वराइश तथा वराइच को एक गोत्र माना है। यद्यपि "Tribes and Castes" में उन का पृथक से उल्लेख है। अथर्ववेद उन का उल्लेख एक समूह के रूप में करता है तथा छान्दोग्य उपनिषद् के अनुसार रैक्कपर्ण नाम का एक स्थान महावृशों की भूमि में स्थित है। जैमिनीय उपनिषद् ब्राह्मण में महावृशों के राजा के रूप में राजा हृतस्वशय का उल्लेख है। ऋग्वेद में सारंज्ञ गोत्र के एक दैववत राजा का उल्लेख है जिसने बरिची (वन्तों) पर विजय प्राप्त की। वरिच/वृचिवन्त ही आज कल वराइच कहलाते हैं। और वृष/वार्षय आजकल वराइश कहलाते हैं।
शासी
ऐसा माना जाता है कि महाराजा रणजीत सिंह का सम्बन्ध इस कुल से था। "महाभारत" में शासिक नाम के एक देश तथा लोगों का उल्लेख है, जोकि उत्तर में आवासित थे।283
- 280. HVI, Vol. II, p. 19.
- 281. Manu Smriti. VII, 41; IX, 66, 67.
- 282. MBT, 2/47/19.
- 283. ibid., Bhisma Parva, IX, 46.