Jat Prachin Shasak/Dharan Jaton Ka Samrajya

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जाट प्राचीन शासक (1982)
लेखक - बी. एस. दहिया (आइ आर एस, रिटायर्ड)

विकिफाईअर : चौ. रेयांश सिंह


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धारण जाटों का साम्राज्य
(तथाकथित गुप्त साम्राज्य गुप्त सम्राटों का
)

हम ने इससे पहले भी देखा है कि किस तरह वीर मण्डों के साम्राज्य को उन मीडों का साम्राज्य मान लिया गया जो व्यापारी थे और दुकानदारी का व्यवसाय करते थे और ये लोग छोटे-छोटे उपनगरों एवं छोटी-छोटी जागीरों में रहते थे। यह तो प्रकृति का ही एक वरदान सिद्ध हुआ कि जो गलती भाषा-शस्त्र के कारण हुई थी, वह दूर कर दी गई तथा दारा महान्‌ और नबोनीदस के प्राचीन स्थलों की खुदाई के साथ इस साम्राज्य के मण्डों के साम्राज्य होने के प्रमाण जुटाये गये। इस तरह ऐतिहासिक कृतियों में जो भूल निरन्तर दोहराई जा रही थी, उसे ठीक किया गया और जाटों के साथ उचित न्याय किया गया।
बिल्कुल इसी प्रकार की एक और गलती धारण कुल के जाटों के साम्राज्य की पहचान स्थापित करते हुए भी की गई है और इसे गलती से इतिहासकारों द्वारा गुप्तों का साम्राज्य मान लिया गया। मीडों की ही तरह गुप्त लोग भी (शायद अभी तक भी) एक व्यापारिक एवं दुकानदारी का धंधा करने वाला समुदाय है जिन्होंने कभी किसी साम्राज्य की स्थापना नहीं की और न ही वास्तव में उन्होंने कभी ऐसा करने का प्रयास ही किया। जैसा कि मीड़ों के संदर्भ में हुआ था, इस बार भी गलती गुप्त नाम को लेकर अज्ञानतावश हुई क्योंकि गुप्त नाम इस (धारण) कुल के प्रायः सभी समाटों के नाम का अभिन्न भाग था। वर्तमान भारत में चूंकि वैश्य जाति के लोग गुप्त कहे जाते हैं, अतः उनके आधार पर यह सुनिश्चित मान लिया गया कि जिन सम्राटों के नाम में शब्द गुप्त जुड़ा है वे भी वैश्य ही रहे होंगे। किन्तु इसके पश्चात्‌ विभिन्न रूपों में ये प्रमाण सामने आने लगे जिस से यह सिद्ध होने लगा कि गुप्त सम्राट वैश्य वर्ग से नहीं थे क्योंकि विशिष्ट रूप में उन्हें "क्षत्रिय अग्रणी" कहा गया है। ये प्रमाण तो पहले भी इस कुल के प्रायः सभी सम्राटों के सिक्‍कों में विद्यमान थे और इन सिक्कों पर मध्य एशिया के सभी चिन्ह जैसे कोट, पतलून तथा टोपी आदि अंकित थे। किन्तु इन विदेशी चिन्हों को लेकर स्वाभाविक रूप से कुछ ऐतिहासिक प्रश्न तो उठाये गये लेकिन उनका उत्तर ढूंढने का प्रयास नहीं किया गया और यह मान लिया गया कि सब शक कुशानों की वेश-भूषा की नकल करने के प्रयास स्वरूप ही हुआ।


पृष्ठ 179 समाप्त

गुप्त शब्द

आगे बढ़ने से पहले गुप्त शब्द पर कुछ विचार कर लिया जाये। इस शब्द की ओर सर्वप्रथम ध्यान पाणिनि द्वारा दिया गया उपलब्ध होता है जिसने ई.पू. पांचवीं शताब्दी में दो शब्दों का उल्लेख किया और वे हैं "गोपत्री" तथा "गुप्ती"।1 वी.एस. अग्रवाल गुप्ती शब्द का अर्थ सुरक्षा से लेते हैं और गोपत्री शब्द की व्याख्या वह सैनिक प्रबन्ध की कला या विज्ञान के रूप में करते हैं। इस आधार पर जिस व्यक्ति पर सुरक्षा का दायित्व होता था, उसे "गुप्त" तथा गोप्त कहते हैं। गोप्त एक जाट कुल भी है।
कल्हण की "राज तरंगिनी" में यह शब्द गोपत्री के रूप में लिखा गया है और इसकी परिभाषा "पृथ्वी के रक्षक" तथा "राज्य के रक्षक" के रूप में की गई है।1(a) अठाहरवीं शताब्दी में भी इस शब्द से यही अर्थ ग्रहण किया जाता रहा। उसका प्रमाण हमें उस पुस्तक से मिलता है, जिसमें उन सभी पदों एवं उपाधियों के समानांतर शब्द दिये गये है जो मुगलकाल में प्रयुक्त होते थे। इस पुस्तक का नाम 'यवन परिपाटी' है और इसके लेखक हैं दलपति राय। यह पुस्तक जयपुर के राज कुमार माधव सिंह के संरक्षण में 1764 में लिखी गई। इस पुस्तक में दो उपाधियों का उल्लेख है, एक नगर गौप्तिक जिस का अनुवाद "शहर कोतवाल" के रूप में किया गया है, और दूसरी उपाधि है सीमा गुप्तिक जिस का अनुवाद फ़ौज़दार के रूप में किया गया है। गुप्त काल में भी यह शब्द एक सैनिक राज्यपाल के लिये प्रयुक्त होता था। स्कंदगुप्त के एक अभिलेख में यह लिखा गया है कि उसने सभी "प्रान्तों में सैनिक राज्यपाल नियुक्‍त कर दिये है।"2

"सर्वेषु देशेषु विधाय गोप्त्रीन"

बंधुवर्मन के मंदसोर अभिलेख में उस के पूर्वज, विश्व वर्मन को "गोप्त" कहा गया है जिसका अर्थ स्कंदगुप्त के जूनागढ़ शिलालेख के अनुसार एक सैनिक राज्यपाल है।З अतः यह शब्द पांचवीं शताब्दी ई.पू. से लेकर 18वीं शताब्दी तक इसी अर्थ के साथ प्रयुक्त होता रहा और स्वयं तथाकथित "गुप्त लोगों" ने भी इस शब्द का इसी अर्थ में प्रयोग किया। केवल इस तथ्य को सामने रखते हुए कि गुप्त शब्द कुछ सम्राटों के नामों का अभिन्न अंग रहा, इस शब्द के न तो कोई और अर्थ हो सकते हैं और न ही इसके और अर्थ किये जाने चाहिये। यह बात भी सदा ध्यान में रखी जानी चाहिये कि गुप्त शब्द किसी उपाधि के रूप में प्रयुक्त नहीं किया गया वरन्‌ यह तो एक निजी नाम का एक

1. India as Known to Panini.
1.a. Rajat., VIII, 341 and 339. Stein's Edition.
2. J. P. Fleet, CII, Vol. III, No. 14.
3. SIH & C, p. 405.

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भाग रहा है। यदि हम गुप्त शब्द को वैश्य जाति के एक उपनाम के रूप में लेते हैं तो इस रूप में चाणक्य भी वैश्य हो जायेगा क्योंकि उस का नाम विष्णु गुप्त है। ऐसे अन्य सैकड़ों नाम हैं जिन के अन्त में गुप्त शब्द आता है। उदाहरण के रूप में चन्द्रगुप्त मौर्य तथा क्षेमगुप्त जोकि कश्मीर की प्रख्यात महारानी दिद्दा का पति था, के नाम प्रस्तुत किये जा सकते हैं। कई विख्यात ब्राह्मणों एवं क्षत्रियों के नामों में गुप्त शब्द पाया जाता है, इससे वे सब वैश्य नहीं बन जाते।
अतः हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि गुप्त शब्द का एक ही अर्थ है सैनिक राज्यपाल और इसे एक उपनाम या किसी कुल के नाम के रूप में प्रयोग नहीं किया गया। यहां तक "महाभारत" में भी यह शब्द गुप्त "सैनिक सुरक्षा" के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है।4

गुप्त जाट थे

यह तो सर्व विदित है कि गुप्त सम्राट विख्यात कुषाण साम्राज्य के उत्तराधिकारी थे। यह हो सकता है कि उन्होंने यह उत्तराधिकार समय के कुछ अन्तराल के पश्चात्‌ प्राप्त किया हो लेकिन यह तो सम्भव हो ही सकता है कि कुषाणों के अधीन वे सैनिक राज्यपाल रहे हों। एक समय यह भी तर्क दिसा गया कि कुषाणों को भारत बाहर निकाल दिया गया था और कुछ इतिहासकारों ने यह जानने का प्रयत्न किन लोगों ने कुषाणों को भारत से बाहर निकाला होगा। कुषाण सत्ता को निरस्त करने का श्रेय एक बार गुप्तों को भी दिया गया।5 लेकिन अब इस मत को स्वीकार नहीं किया जा सकता।6 डाक्टर जायसवाल ने यह मत रखा कि नागों तथा भारशिवों ने कुषाण साम्राज्य का अन्त किया7 और इस साम्राज्य को पूर्ण रूप से समाप्त किया वाकाटक राजा प्रवर सेन ने। लेकिन इस मत को भी अस्वीकार कर दिया गया है।8 वाकाटक तो कभी भी कुशानों के साथ संघर्षरत नहीं रहे। इस बात की प्रबल सम्भावना है कि नाग स्वयं जाट थे।9 हम यह पहले ही सिद्ध कर चुके हैं कि भारशिव शब्द तुरानी शब्द फ्रासिआव का संस्कृत रूप है और फिरदौसी के अनुसार तुरानी फ्रासिआव सम्राट तूर का वंशज था जिससे तूर तुर्क वंश अस्तित्व में आये। जायसवाल स्वयं यह स्वीकार करते हैं कि मथुरा के नाग यदु थे और यह वही वंशावली है जिसमें मध्य एशिया के कई अप्रवासी कुलों को प्रविष्ट किया गया। आज भी गुज्जर, अहीर और कई राजपूत यदु वंशावली से सम्बन्धित होने का दावा करते हैं और यह यदु जाति कर्नल टाड व अन्य इतिहासकारों

4. Adi Parvan, chap. 96, verse, 108.
5. Banerji, The Age of Imperial Guptas, p. 05.
6. VGA, p. 26.
7. See Note I at the end of this section.
8. JNSI, V, pp. 111-134.
9. See Note II at the end of this section.

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के अनुसार चीनियों की येठा अथवा यू.ची ही हैं। पद्मावती के नागों को जायसवाल टक्क वंशी कहता है। टाक अथवा टांक आजकल भी जाटों के कबीलों के रूप में विद्यमान है। उन का तथाकथित गोत्र करपटि कहा गया है, जो इलाहाबाद स्तम्भ अभिलेख में अंकित शब्द खरपरी का ही एक रूप हो सकता है और खरप आज भी विद्यमान जाटों का एक गोत्र है।
मजूमदार तथा अलतेकर, कुशान साम्राज्य के अन्त का श्रेय गणतंत्रीय कबीलों को देते हैं।10 किन्तु ये सभी कबीले कुशान साम्राज्य के टूट बिखर जाने के बाद स्वतन्त्र हुए और ये कुशान साम्राज्य के पतन का कारण नहीं थे।11
"इन तथाकथित कबीलों में अधिकांश स्वयं जाट कबीले थे। यौद्धेय, कुनिन्द (कुण्डू), पौन (पुनिया), अटवाल, काक, खरप तथा सल्कलान आदि कबीले तो आज भी विद्यमान हैं। पहला नाम यौद्धेय एक सामान्य शब्द था और यदि इसे एक कबीले का नाम मान भी लिया जाये तो (जैसा कि माना जाता है) इस की समानता जोहिया/जौधा कबीले के साथ स्थापित होती है। हमारा निजी दृष्टिकोण इन दोनों स्थितियों में प्रभावित नहीं होता क्योंकि जोहिया आज भी एक जाट कबीला है। इसलिये यह लगभग निश्चित है कि कुशान साम्राज्य के विच्छिन्न होने के पश्चात्‌ बहुत से स्थानीय कुल कबीलों ने स्थानीय राज्यों (गणतन्त्रों) को स्थापित कर लिया और वे स्वतन्त्र हो गये ऐसा केवल मध्य एवं उत्तर पश्चिम भारत में ही नहीं हुआ अपितु मगध में भी हुआ। यह तथ्य इस क्षेत्र में हुए खनन कार्यों एवं अन्य शोध कार्यों से भी प्रमाणित होता है। वैशाली से प्राप्त एक मुद्रा के अनुसार प्रभुदामा रुद्रसेन की बहिन थी, उसे महारानी कहा गया है और उस का विवाह वहां हुआ था।12 "यह असम्भव नहीं है कि प्रभुदामा का पति हिन्दू धर्म अपना चुका एक कुशान राजा ही हो, जो उस समय मगध की छोटी-सी रियासत पर शासन कर रहा था, जो कुशान साम्राज्य के पतन के बाद किसी तरह बची रही हो।"13 इसके अतिरिक्त मगध में दो योद्धाओं की मूर्तियां भी मिली हैं, जिन्होंने कुशानों की विशिष्ट पोशाक पहन रखी है।14 इस साक्षी से यह सिद्ध होता है कि स्थानीय जाटों ने मगध में भी अपने छोटे-छोटे राज्य स्थापित कर लिये थे। मथुरा पर तो ई.पू. पहली शताब्दी से ही जाटों का राज्य था और यह बात हम पहले भी कह चूके हैं कि तथाकथित भारशिव लोग स्वयं तुर तथा टाक कुलों से थे। अतः मथुरा के ही जाटों के धारण कुल ने एक संयुक्त प्रशासन के अन्तर्गत भारत को पुनः संगठित करने की बात सोची। इस उद्देश्य के लिये मगध के समीप लिच्छवियों के महत्वपूर्ण राज्य, जिसकी राजधानी वैशाली थी, के साथ वैवाहिक सम्बन्ध

10. op. cit.
11. See Note III at the end of this section.
12. ASIAR, 1913-14, p. 136.
13. VGA, p. 51.
14. EI, XX, p. 37.

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स्थापित किये गये। इस महत्वपूर्ण खोज का श्रेय डाक्टर जायसवाल को जाता है क्योंकि उन्होंने-ही सर्वप्रथम यह प्रमाणित किया है कि तथा कथित गुप्त वंश जाटों का वंश था।15 डाक्टर जायसवाल के इस मत की पुष्टि दशरथ शर्मा व अन्य कई इतिहासकार भी करते हैं।
डा. जायसवाल के इस मत की पुष्टि कि गुप्त लोग जाट ही थे, 8वीं शताब्दी में संस्कृत एवं तिब्बती भाषा में लिखे, भारत का इतिहास "आर्य मन्जू श्री मूलकल्प" से भी होती है। इस कृति के श्लोक 759 में यह कहा गया है, "उस देश में निस्संदेह (तब) एक राजा होगा.... महान्‌ राजा होगा जोकि मथुरा के जात (जाट) राज परिवार का होगा जो वैशाली की एक महिला से जन्म लेगा, वह ही मगधवासियों का राजा बनेगा।"16

भविष्यन्ति न् संदेहः तब्मिन्‌ देशो नराधिपाः ।
मधुरायाम्‌ जातवंशाढ्यः वणिक सूर्वो नृपोवरः ॥

उपरोक्त श्लोक में संकेत समुद्र गुप्त की ओर है जो एक वैशाली महिला से उत्पन्न हुआ और वह अपने सिक्कों पर इस बात की गर्व के साथ घोषणा करता है कि बह "लिच्छवियों का नाती है।" वैशाली लिच्छवियों की राजधानी थी तथा लिच्छवियों को वैशाली भी कहा जाता था। वैश्य शब्द को आधुनिक काल के वैश्य अर्थात्‌ बनिया शब्द के अर्थ में नहीं लेना चाहिये। वैश्य शब्द तो कृषि व्यवसाय के लोगों के लिये प्रयुक्त होता था तथा जाट तो कृषकों के रूप में सर्व विख्यात हैं ही जोकि सदा ही उनका प्रमुख व्यवसाय रहा है। वैश्य शब्द तो नागों के लिये भी प्रयुक्त हुआ है। अल्बेरूनी भी लिखता है, "वैश्य का यह कर्तव्य है कि वह भूमि को जोते, कृषि का व्यवसाय अपनाए और पशुओं को पाले....... ।" वैदिक काल से ही वैश्य शब्द विशेष रूप में कृषकों के लिये ही प्रयुक्त हुआ है। अतः वैश्य शब्द का प्रयोग व्यवसाय के लिये हुआ है और इसलिये डाक्टर जायसवाल यह टिप्पणी करते हैं, "गुप्त नाम के कारण AMMK के लेखक द्वारा मूल वंश को वैश्य मान लिया गया। किन्तु यह लेखक (AMMK) दूसरे ही पद में इस तथ्य को भी ध्यान से लिखा रहा है कि उसको इन लोगों की जानकारी अग्रणी क्षत्रिय के रूप में दी गई थी।"17
(1). अतः आर्य मन्जू श्री मूलकल्प के आधार पर हम यह ग्रहण करते हैं कि चन्द्रगुप्त प्रथम मथुरा का जाट था, उसने एक लिच्छवी महिला से विवाह किया। इस बात की पुष्टि परवर्ती काल के इतिहासकार द्वारा भी होती है। जिस महिला से उसने विवाह

15. JRAS, 1901, p. 99; 1905, p. 814; ABORI XX, p. 50; JBORS, XIX, p. 113-116; Vol. XXI, p. 77, and Vol. XXI, p. 275.
16. Imperial History of India, p. 52.
17. ibid.

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किया, उस का नाम कुमार देवी था और चन्द्रगुप्त के सिक्कों पर वह अपने पति के साथ विवाह मण्ड़प में खड़ी दिखाई गई है जिसे चन्द्रगुप्त अंगूठी या कड़ा पहना रहा है।
(2). यह बात भी कम रोचक नहीं कि इस कुल के कुछ पूर्ववर्ती सिक्कों पर गुतस्य शब्द अंकित पाया गया है, जिस का अर्थ है गुत की मुद्रा। हम जानते ही हैं कि गुत शब्द जाट शब्द का ही एक रूप है। इस परिपेक्ष्य में गुप्त मुद्राओं पर इस शब्द का पाया जाना महत्वपूर्ण जानकारी का प्रचुर प्रकाश लिये है। पुराणों में गुप्त शब्द का प्रयोग कभी एक अर्थ में नहीं किया गया और कभी तो इस का उल्लेख गुह्य के रूप में किया गया अर्थात जो अज्ञात अथवा छिपा हुआ हो। यह सम्भवतः इसलिये हुआ कि उस विशेष पुराण के लेखक को इस कुल के नाम का ही पता नहीं था और इसलिये उसने इसे "छिपा हुआ" या अज्ञात मान लिया।
(3). राईट18 (Wright) तथा लेवी (Levi)19 तथा इलाहाबाद के समुद्र गुप्त स्तम्भ शिलालेख के माध्यम से हम जानते है कि नेपाल उनके राज्य का भाग था और मगध में उनके शासन का पतन होने के पश्चात्‌ भी, कई गुप्त राजा नेपाल में शासन करते रहे। नेपाली इतिहास के अनुसार इन गुप्त शासकों को गवाला अर्थात्‌ गउएं चराने वाले कहा गया है। उन्हें अहीर भी कहा गया है इससे भी पता चलता है कि गुप्त लोग मूल रूप में पशुओं के स्वामी तथा कृषक थे जो साधारण जाटों के मुख्य व्यवसाय है।20
(4). व्याकरण काल के प्रयोग की चर्चा करते हुए, व्याकरण आचार्य चन्द्र गोमिन इस तरह उल्लेख करता है, "अजेय जाटों ने हूणों को परास्त किया।" वह इस घटनाक्रम का समकालीन था और हम इतिहास के बल पर यह भी भली-भांति जानते हैं कि गुप्त ही वे लोग थे, जिन्होंने हूणों को परास्त किया था। इसको उपयुक्त रूप में इस बात का प्रमाण माना जाना चाहिये कि गुप्त लोग जाट ही थे। एस.के. बेलवेल्कर का यह सुझाव नितान्त रूप से गलत है कि जर्ता/जाट को गुप्त में परिवर्तित कर देना चाहिये।21 यह गलत प्रयास परोक्ष रूप में यह भी व्यक्त कर रहा है कि तथाकथित गुप्तों जो जाट थे, ने हूणों को परास्त किया।
(5). मजूमदार और अल्तेकर उस तथ्य का उल्लेख करते हैं कि चन्द्रगुप्त द्वितीय की पुत्री प्रभावती गुप्त के विवाह के समय उन के गोत्र का नाम धारण दिया गया है।22 प्रभावती गुप्त की पूना प्लेट पर वह स्वयं अपने गोत्र का नाम धारण कहती है।23 दशरथ

18. History of Nepal, p. 108.
19. Nepal II, pp. 157, 172.
20. JBORS, XXII, p. 109.
21. Systems of Sanskrit Grammar, p. 58.
22. VGA, p. 131.
23. EI, Vol. XV, p. 39.

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शर्मा इसकी समरूपता बीकानेर क्षेत्र के पंजाब के आस-पास के क्षेत्रों में आज बसे धारण जाटों के कुल के साथ स्थापित करते हैं।24 इस वंश के सम्राटों के इस कुल गोत्र का एक और प्रमाण तिपराह ताम्बे की प्लेट जो बंगाल के एक छोटे-से राज्य के राजा लोकनाथ के अनुदान से निर्मित है, से भी मिलता है। ताम्बे की यह प्लेट 650 ईस्वी में निर्मित की गई जबकि परवर्ती गुप्त बंगाल आदि क्षेत्रों में शासन कर रहे थे। इस प्लेट में लोकनाथ अपने संरक्षक राजा का नाम श्री जीव धारण के रूप में देता है, जिसने लोकनाथ को यह राज्य प्रदान किया। जीव धारण, जीवित गुप्त भी माना जाता है। यह एक दस्तावेज़ी प्रमाण है, जिस की वैधता को झुठलाया नहीं जा सकता और जिससे यह पता चलता है कि जाट सम्राटों के धारण गोत्र का आम लोगों को भी पता था।25
(6). इसके अतिरिक्त एक और प्रमाण जो अपने आप में पूर्ण है हमें तथाकथित गुप्त सम्राटों की पोशाक से प्राप्त होता है जो उनके सिक्कों में देखने को मिलती है। इन सभी सम्राटों के सिक्कों से यह देखने को मिलता है कि प्रायः सभी शासक, कोट, पतलून, बूट, टोपी एवं मध्य एशिया की पोशाक ही पहनने का शौक रखते थे। ये सभी परिधान कुषाणों द्वारा विख्यात बनाये गये थे। समुद्रगुप्त, चन्द्रगुप्त प्रथम (कुमार देवी शैली), काच, चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य, कुमार गुप्त प्रथम, स्कंद गुप्त आदि सबके सिक्कों पर पोशाक के रूप में लम्बा कोट पतलून बूट तथा लम्बी तलवार साथ देखने को मिलती है। यह अत्यधिक महत्वपूर्ण प्रमाण है, जो यह सिद्ध करता है कि गुप्त लोग वास्तव में मध्य एशिया से आए हुए जाट थे, जो परवर्ती काल में भारत में दाखिल हुए और फिर अफगानिस्तान से लेकर मथुरा व मध्य भारत के क्षेत्रों में बस गये। वे अपने साथ केवल अपनी विशेष पोशाक ही नहीं लाए अपितु आती बार अपनी कलायें एवं वास्तु शैली भी साथ लेकर आए। यह तो बाद में जब सम्राटों के रूप में उनका राज्य अभिषेक हुआ तो उन्होंने (धारण सम्राटों ने) विशेष समारोहों पर भारतीय परिधान धोती आदि पहनना शुरू किया। ऐसा उन्होंने स्थानीय प्रभाव को ग्रहण करते हुए ही किया क्योंकि यह वेश-भूषा प्रमुख रूप से हिन्दुओं की थी। पुनः इसी प्रभाव के अन्तर्गत, मध्य एशिया के इन जाटों ने अश्वमेध आदि यज्ञ करने शुरू किये। इसके साथ ही इस बात की ओर भी ध्यान देने की आवश्यकता है कि अश्व बलि की प्रथा, विशेष रूप में सफेद अश्व की बलि देना, मध्य एशिया के लोगों शकों, हूणों आदि में भी बहुत प्रचलित थी। हेरोडोटस व अन्य इतिहासकारों के अनुसार, विशेष महत्वपूर्ण तथा स्मरणीय समारोहों पर एक सफेद अश्व की बलि दी जाती थी और इसके रक्त के साथ, आवश्यकतानुसार, परस्पर सम्बन्धों

24. JBORS, Vol. XXII, p. 227.
25. IHQ, 1935, Vol. XI, pp. 326-27.

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को सुदृढ़ किया जाता था मूर्तियों तथा देवताओं की प्रतिमाओं के संदर्भ में भी गुप्त लोग पूर्ववर्ती जाटों की परम्पराओं का ही पालन कर रहे थे। कला की तथाकथित गुप्त शैली, गांधार, मथुरा एवं सांची शैलियों का ही विकसित रूप थी। हम उनके सर्वाधिक महत्वपूर्ण सूर्य देवता की मूर्तियों के प्रतीक का उल्लेख कर चुके हैं और यह भी सिद्ध कर चुके हैं कि मध्य एशिया के लोगों का सब से बड़ा देवता सूर्य था, भारत में भी इस देवता ने अपना वही रूप सुरक्षित रखा, यहां भी सूर्य देवता की मूर्तियां उसी रूप व परिधान में बनाई गई जो परिधान ये लोग स्वयं पहनते थे। एक लम्बा अथवा छोटा कोट, तलवार, बूट तथा सूर्यमुखी का फूल (जबकि ब्राह्मणों का परम्परागत अराध्य पुष्प कमल था) आदि का प्रयोग इन मूर्तियों में किया गया है। ऐसी कई मूर्तियां मथुरा से लेकर बंगाल तक के क्षेत्र में मिली हैं। गुप्त सम्राटों का भूमरा मंदिर तो सर्व विख्यात है,26 वहां भी सूर्य की मूर्ति में "विदेशी" प्रतीक अंकित हैं।27
(7). तथाकथित गुप्तकालीन सिक्कों के विदेशी स्वरूप के बारे में प्रायः सभी इतिहासकारों को पता है परन्तु वे इस तथ्य से आंखें मूंदे रखना ही पसन्द करते हैं और जो सत्य है उसकी ओर देखना नहीं चाहते। इन सिक्कों पर, मग पुरोहितों की अग्नि वेदी को तुलसी का पौधा कह कर बात आई गई कर दी गई है। इस बात को तर्क सिद्ध करने के लिये विशेषतः जनसाधारण के लिये, कुछ उदाहरण देना अनिवार्य है। इस तथ्य को स्थापित करने के लिये हम ए.एस. अल्तेकर की कृति से उदाहरण लेते हैं।27(a) कोष्टकों (Brackets) में टिप्पणियां हमारी हैं।
"आरम्भिक चरणों में गुप्तकालीन स्वर्ण मुद्राओं पर कुछ विदेशी प्रभाव दिखाई देता है किन्तु यह प्रभाव रोमन न होकर कुषाणों का अधिक है।"28 (यहां संकेत इतिहासकार स्मिथ की ओर है, जिस के अनुसार यह प्रभाव रोमन है।)29 यहां तक कि चन्द्रगुप्त प्रथम के विवाह दृश्य से सम्बन्धित सिक्के (प्लेट 1-13) गुप्त सम्राट को कुषाण कोट व पतलून पहने दिखाते हैं। ध्वज प्रकार के सिक्कों पर भी, वह नैवेद्य अर्पित करते हुए इसी परिधान में दिखाई देता है।30 प्रारम्भिक काल के सिक्कों के दूसरी ओर जिस देवी की मूर्ति अंकित है वह विशुद्ध रूप में अर्दक्षो (Ardoxsho) की है जो हाथ में पूर्ण शृंग पकड़े हुए एक ऊंची पीठ वाले सिंहासन पर आसीन है। इन सिक्कों में केवल उस का नाम नहीं दिया गया है।31 हिन्दुओं के परम्परागत मान दण्डों के विरुद्ध, समुद्र गुप्त

26. Plate No. 14, MASI, No. 16.
27. IHQ, p. 202.
27(a). The coinage of Gupta Empire.
28. op. cit., p. 15.
29. JRAS, 1889, p. 24.
30. op. cit., Plate I, pp. 14-15.
31. ibid.

पृष्ठ 186 समाप्त

को स्वयं ही अपना ध्वज वाहक दिखाया गया है।32 यह केवल इसलिये कि कुशान सम्राटों के सिक्को पर भी ऐसा ही दिखाया गया है।33 (यह तथ्य भारतीय तथा हिन्दू राज धर्म की परम्परा के सर्वथा विपरीत है। हिन्दू सम्राट अपना ध्वज स्वयं कभी नहीं उठाते। अतः यह भिन्नता इस विषय के संदर्भ में नितान्त महत्वपूर्ण है।)
"फिर भी गुप्तकालीन कलाकार इन विदेशी प्रतीकों का भारतीयकरण करने पर तुले हुए थे...... शुरूआत कुशानों की नोकदार टोपी के स्थान पर हिन्दुओं द्वारा सिर पर बांधने वाले वस्त्र ला कर की गई।34 लेकिन कई दशकों तक कुछ शैली के सिक्कों पर लम्बा कोट व पतलून चलती रही।"35 इस वक्तव्य के पहले भाग में तंग टोपी मध्य एशिया की पोशाक का एक भाग है। टोपी जिसे कुल्ली कहा गया, का प्रयोग भारत में ई.पू. पहली शताब्दी के पश्चात्‌ शकों के आगमन के साथ शुरू हुआ। "तीसरी शताब्दी (ईस्वी) में यह टोपी केवल विदेशियों द्वारा पहनी जाती थी, जो कुशान एवं गुप्त काल तक भी इस का प्रयोग करते रहे।"36 (इस काल के सिक्कों पर देवी या रानी की जो स्कर्ट अथवा गाऊन जैसी पोशाक दिखाई गई है वह मध्य एशिया की है। सोवियत उज़बेक तथा उइघर महिलाएं आज भी वैसा ही गाऊन पहनती हैं। मध्य एशिया के लोगों द्वारा पहना जाने वाला लम्बा अथवा छोटा कोट व पतलून "चलते" नहीं रहे, 320 ई. से लेकर 461 ई. तक सभी महान्‌ धारण सम्राट इसे पहनते रहे। प्रथम धारण सम्राट चन्द्रगुप्त प्रथम तथा अन्तिम महान्‌ सम्राट स्कंदगुप्त तक इस पोशाक के विशेष रूप से शौकीन रहे।) देवी "अर्दक्षो" को सिंह पर आसीन दुर्गा के रूप में परिवर्तित कर दिया गया।37 (यह स्वेच्छापूर्ण है क्योंकि हम निश्चित रूप में यह नहीं कह सकते कि यह दुर्गा ही है। एक अन्य स्थान पर अल्तेकर इसकी समरूपता गंगा के साथ स्थापित करने का प्रयास करता है।38 और हम यह भी जानते हैं कि कुशान राजा कनिष्क तृतीय के सिक्कों पर वह सिंह पर आसीन दिखाई देती है।39 "हुविष्क के एक सिक्के पर नाना40 देवी को सिंह पर सवार देखते हैं।"41 कुशानों की देवी अर्दक्षो को, पहले एक ऊंची पीठ वाले सिंहासन पर बैठा दिखाया जाता था, तथा बाद में खपची के बने एक छोटे-से स्टूल पर।) पीठ के सिंहासन का लुप्त हो जाना "भारतीयकरण" की दिशा में एक और कदम

32. ibid., Plate II, pp. 1-7.
33. ibid., p. 15.
34. ibid., p. 8-15.
35. ibid., p. 15-16.
36. IHQ, 1962, p. 31; Moti Chandra, Ancient Indian Dresses, pp. 77, 109.
37. op. cit., p. 16.
38. ibid., p. 21. 1 & 7, p. 28.
39. ibid., Plate 1 & 7, p. 28.
40. See Note IV at the end of this section.
41. op. cit. Plates 1-6, p. 31.

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दिखाई देता है।"42 कहीं वह खड़ी है, कहीं वह चलती हुई43 और कहीं वह मोर को दाना डालते हुए दिखाई देती है।44 कमल का सिंहासन निस्संदेह उसे भारतीय रूप देने के लिये अपनाया गया तथा अन्ततः उसे लक्ष्मी का रूप दे दिया गया। महमूद बिन साम तथा अलाऊदीन खिलजी के सिक्कों पर भी इसे देखा गया है।
अगले सम्राट समुद्र गुप्त के सिक्कों में उसे कोट, पतलून व बूट पहने दिखाया गया है। ध्वज शैली के सिक्कों की पिछली ओर, "राजा को वेदी पर नैवेद्य अर्पित करते हुए दिखाया गया है। निस्संदेह यह मूल धारणा कुषाणकालीन सिक्कों से ली गई।45 इस संदर्भ में यह देखना और भी रुचिकर होगा कि इस मूल धारणा का आगे चल कर धीरे-धीरे किस तरह भारतीयकरण होता चला गया।"46 किसी राजा का कोट तथा पतलून पहन कर नैवेद्य अर्पण करना हिन्दू परम्परा के एकदम उलट है।47 (क्या यह इसलिये नहीं था कि क्योंकि राजा स्वयं ही विदेशी था? जहां तक भारतीय अथवा हिन्दू धर्म परम्परा की बात है कोई भी भारतीय, पूजा करने की तो बात ही क्या, जूता पहन कर रसोई घर में नहीं जाता। यह मूल भाव (Motif), कुमार गुप्त प्रथम के शासनकाल तक चलता रहा। इस के लिये देखिए उस के खड़गधारी सिक्के।)
अगला सम्राट काच था (उत्तराधिकार का क्रम और उस की पहचान भी विवादास्पद है) ने भी कोट तथा पतलून वाली स्वर्ण मुद्रा ही चलाई। उसके उत्तराधिकारी चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य अपने धनुषधारी चिन्ह के सिक्कों पर कुषाण कोट व पतलून पहने दिखाई देता है।48 अन्य सिक्कों पर "वह कोट तथा आधी पतलून (निक्कर) पहने हुए है।49 अश्वारोही चिन्ह वाले सिक्के, जो उस ने नये-नये ही चलाये थे, में भी उसे उसी कोट, पतलून बूटों में दिखाया गया है।"
कुमार गुप्त प्रथम भी अपनी इसी वंशागत वेश-भूषा कोट, पतलून व बूटों में दिखाई देता है50 तथा अगला सम्राट स्कंदगुप्त भी "कोट, पतलून, बूट तथा मूर्की पहने हुए दिखाई देता है।"51

42. ibid., p. 43.
43. ibid., p. 23.
44. ibid., p. 24.
45. ibid., Plate 1, pp. 3-5.
46. ibid., p. 43.
47. ibid., p. 53.
48. ibid., p. 93.
49. ibid., p. 115.
50. ibid., pp. 169, 177.
51. ibid., p. 243.

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अतः हम देखते हैं कि महान्‌ धारण सम्राटों ने अपनी मध्य एशियाई वेश-भूषा का कभी त्याग नहीं किया। भारतीय धोती का प्रयोग तो लोक चर्चित भारत की ग्रीष्म ऋतु के कारण किया गया होगा और एक राजा को तो हम जांघिया पहने हुए भी देखते हैं।52 यहां तक धार्मिक पूजा विधि विधान भी मध्य एशियाई ही था ; हां शनैः शनैः उस का भारतीयकरण होता रहा। यही स्थिति गुप्त कही जाने वाली कला तथा वास्तु कला की भी है। अतः हम यह आग्रह करना चाहेंगे कि उनके सिक्कों, आख्यानों, मूर्तियों आदि पर नये सिरे से पुनः विचार किया जाना चाहिये।
(8). इसके अतिरिक्त एक और भी महत्वपूर्ण तथ्य है और वह है इन सम्राटों द्वारा देव उपाधि का अधिग्रहण। हम जानते हैं कि कुषाण राजा देव तथा देव पुत्र शब्दों का प्रयोग एक उपाधि के रूप में करते रहे हैं। हम यह भी देखते हैं कि यह परम्परा धारण जाट सम्राटों द्वारा भी निरन्तर अपनाई गई। समुद्र गुप्त के विषय में उसके सिक्कों पर कहा गया कि "लोगों के मध्य, देव (के सिक्के)"53 लोक धामनों देव (स्य) चन्द्रगुप्त द्वितीय के सिक्कों में देव राज तथा देवाश्रम की उपाधि प्रदान की गई है, देवाश्रम अर्थात्‌ देवताओं के रहने के लिये आश्रय स्थल।54 स्कंद गुप्त ने भी देवराज, स्वर्ग अथवा देवताओं का राजा, की उपाधि ग्रहण की। इन उपाधियों को ग्रहण करते हुए क्या ये सम्राट, अपने पूर्ववर्ती कुषाण जाटों का सभी रूपों में केवल मात्र अनुकरण ही कर रहे थे, कई बार निश्चित रूप से हिन्दु सिद्धान्तों के सर्वथा विपरीत जा कर ? इस का उत्तर निश्चित रूप में है "नहीं" क्योंकि ये सभी सम्राट तो केवल अपनी प्राचीन मध्य एशियाई परम्पराओं का पालन कर रहे थे, मात्र अनुकरण नहीं।
(9). इन के सिक्कों का भार भी महत्वपूर्ण है, जिन्हें दीनार कहा जाता था। प्रारम्भ में इन सिक्कों का भार (वजन) वही था, जो पूर्ववर्ती शकों एवं कुशानकालीन सिक्कों का था किन्तु धीरे-धीरे इन का भारतीयकरण होता चला गया और फिर अन्ततः प्राचीन भारतीय मानक भार "स्वर्ण" जो कि 156 ग्राम का था, अपना लिया गया। अतः ये सिक्के उन लोगों को स्पष्ट रूप में झूठा सिद्ध कर रहे हैं, जो इन सम्राटों को भारतीय भूमि के ही मूल निवासी मानते हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि धीरे-धीरे उनका भारतीयकरण होता रहा और उनके धार्मिक विचार, वेश-भूषा, सिक्कों का भार आदि पूर्ण रूप से भारतीय ही हो गये। देवी अर्दोक्षो (Adroxsho) को कमल के सिंहासन पर आसीन कर के लक्ष्मी का रूप दे दिया गया। संस्कृत भाषा को लोकप्रिय बनाया गया और उसे संरक्षण प्रदान किया गया किन्तु यह प्रक्रिया भी लाट (गुजरात) के शक क्षत्रपों के साथ शुरू हुई। महान्‌ क्षत्रप रुद्र दमन ने अपने जूनागढ़ अभिलेख में सर्वप्रथम

52. ibid., p. 189.
53. CII, Vol. III, p. 8.
54. Altekar, op. cit., p. 99.

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कवितामय संस्कृत का प्रयोग किया। वे पुष्य मित्र जो कट्टरता से रूढ़िवादी धर्म का पालन कर रहे थे, उन्होंने भी अपने अभिलेखों में संस्कृत का प्रयोग नहीं किया न ही उन सातवाहनों ने जो अपने आप को "एको-ब्राह्मण" कहते थे। इनके कनहेरी तथा कार्ले अभिलेख प्राकृत भाषा में हैं।55 संस्कृत को संरक्षण प्रदान करने का दायित्व तो केवल इन आप्रवासियों शकों, कुशानों, धारणों के लिये छोड़ दिया गया।
(10). ज्येष्ठाधिकार का विधान जिस के अनुसार परिवार का ज्येष्ठ पुत्र अपने पिता के पश्चात उस के सिंहासन पर आसीन होता है और जो प्राचीनकालीन हिन्दू समाज में एक दैवी आदेश के रूप में माना जाता रहा है और जिसे दाशरथी राम के अनुज भ्राता भरत ने एक आदर्श के रूप में प्रतिष्ठित किया, इस हिन्दू विधान का धारणों ने कभी पालन नहीं किया और कटु आलोचक पुरोहितों का मुंह बन्द करने के लिये ही चन्द्रगुप्त द्वितीय ने खुले दरबार के बीच अपने पुत्र स्कंदगुप्त को आर्य कह कर सम्बोधित किया। यह एक तरह से उन लोगों को मुंह तोड़ ज़बाब था, जो इन वीर लोगों को शूद्रों तथा पतित क्षत्रियों से अधिक कोई सामाजिक स्तर प्रदान करना नहीं चाहते थे। संस्कृत बाङ्मय में यही एक अकेला उदाहरण है जहां एक पिता अपने पुत्र को "आर्य" कह कर सम्बोधित कर रहा है जो कि एक अति सम्मान तथा आदर पूर्ण शब्द समझा जाता था।56 इस के अतिरिक्त स्कंदगुप्त के भिटारी अभिलेख में एक आलेख उपलब्ध है। "गीतैश्च स्तुतिभिश्च वन्दकजनो यं प्रापत्याय्यताम्‌ ।" फ्लीट (Fleet) ने इस पंक्ति का अनुवाद इस रूप में किया है, "जिस को चारणों ने अपनी प्रशस्तियों एवं गीतों द्वारा विशिष्टता तक उठाया।" लेकिन ऐसा लगता है कि फ्लीट यह अनुवाद करते हुए इस आलेख में प्रयुक्त शब्द "आर्य्यताम्‌" का वास्तविक महत्व ही नहीं समझ सका। वास्तव में इस का अर्थ है आर्य की पदवी जिस के अनुरूप इन चारणों ने अपनी प्रशस्तियों के बल पर स्कंदगुप्त को गाया। स्कंदगुप्त की माता महादेवी नहीं थी हालांकि इस बात की कहीं पुष्टि नहीं होती कि वह कोई रखैल थी। हो सकता है कि वह किसी अवरवर्ण परिवार से सम्बन्धित रही हो। इस से यह पता चलता है कि उसके पुत्र स्कंदगुप्त को कुछ कट्टर-पंथियों द्वारा अनार्य जन्म का क्यों मान लिया गया। स्कंदगुप्त के निम्न मातृ कुल में जन्म लेने की धारणा को चारणों की प्रशस्तियों के बल पर निरस्त किया गया।57
अतः स्कंदगुप्त को आर्य न मानना इसलिए नहीं था क्योंकि उस की माता का सामाजिक स्तर निम्न था,58 अपितु इसलिये कि रूढ़िवादी हिन्दुओं की दृष्टि में वह स्वयं एक व्रात्य (जो अपवित्र तथा विदेशी हो) था। और इन व्रात्यों ने अपने बाहुबल तथा शौर्यपूर्ण कृत्यों से अपने लिये न केवल "अग्रणी क्षत्रिय" का पद प्राप्त किया अपितु

55. Dr. V. Upadhyaya, Gupta Abhilekha, 1974, p. 85.
56. VIJ, XVI, pt. I, p. 78.
57. ibid., p. 78.
58. ibid.

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उन्होंने इतिहासकारों को भी यह लिखने के लिये विवश किया कि उनका काल भारतीय इतिहास का स्वर्णिम काल था। इस लिये ही उपरोक्त घटनाओं में धारणों को बार-बार यह कहना पड़ा कि वे "आर्य" तथा "क्षत्रिय" हैं। मध्य भारत के एक राजा महाशिवगुप्त ने अपनी सिरपुर प्रशस्ति में इस तथ्य का उल्लेख किया है।59
(11). जहां तक गुत अथवा गेत अथवा गोत (Gut or Get/Got) नामों का सम्बन्ध है, हमें इन के विषय में गुप्तकालीन अभिलेखों में ऐसे प्रमाण प्राप्त होते हैं कि जाटों के लिये यह नाम राट के साथ अन्त होने वाले नामों में उन्मुक्त रूप से प्रयोग होता रहा है जिस के विषय में पहले ही कहा जा चुका है कि यह राट एक विदेशी नाम है। गिल्लीगित नगर, गोती/गोटी पुत्र, धारवाड के गुट्टल राजा आदि ये सब एक ही जातीय नाम के विभिन्न रूप हैं।
जे.एफ. फलीट (J.F. Feet) सांची के समीप60 अंधेरी में स्तूप क्रमांक 2 में प्राप्त, सेलखड़ी की एक शवपेटी के ढक्कन के ऊपर वर्णित आलेख का विवरण देते हुए कहता है कि उसे "स्पष्ट रूप से" इस तरह पढ़ा जाना चाहिये। "सपूरीसस गोती-पूतस काकनाद पभासंनस कोदिन गोतस।" फ्लीट ने उस का अनुवाद इस प्रकार किया है। "सच्चरित्र प्रभासन काकनाद वासी, कोण्डिन गोत्री, गोटीपुत्र के अवशेष।" फ्लीट द्वारा गोटी पुत्र शब्द की कोई व्याख्या नहीं दी गई। यहां गोटी पुत्र शब्द राजपुत्र के समानार्थ ही है जोकि तोरमान के कुरा अभिलेख में पाया गया है तथा इस का केवल एक ही अर्थ है जाट का पुत्र। यह गोत्र भी जिसे फ्लीट कोण्डिन्य के रूप में परिवर्तित कर रहा है कादिन और आज भी विद्यमान काद्यान/कादान हो सकता है।61 हम उक्त अभिलेख का शुद्ध अनुवाद इस रूप में करेंगे, "काकनाद वासी प्रभासन गोती पुत्र कादयान गोत्री सपुरिस के अवशेष।"
सांची प्रस्तर शिलालेख (वर्ष 93 क्रमांक 5 फ्लीट III बी) देवराज चन्द्रगुप्त द्वितीय के राजकुल के तीन व्यक्तियों का उल्लेख करता है।62 इन तीन व्यक्तियों के नाम दिये गये हैं मज, सरभंग तथा अम्रराट निश्चित रूप से इन तीनों को राज कुल से सम्बन्धित बताया गया है। रुचिकर बात तो यह है कि ये तीनों नाम विशुद्ध भारतीय नहीं है।
यह भी एक सर्व विदित तथ्य है कि गुज्जर लोग पांचवीं अथवा छठी शताब्दी में मध्य एशिया से हूणों के साथ आए थे।63 इस तथ्य से यह सिद्ध होता है कि भारत में आगमन के समय इन के नाम विदेशी थे। हम एक ऐसे व्यक्ति के बारे में जानते हैं जिस

59. Majumdar, AI, Vol. II, p. 190.
60. Bhilsa Tope, p. 347; and Plate XXIX, No. 7.
61. CII, Vol. III, p. 31.
62. ibid., pp. 32-33.
63. R.C. Sharma, Indian Feudalism, pp.106-107; and P.C. Bagchi, India and Central Asia, p. 17.

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का नाम शपहर था जो किसी मक का पुत्र था और वह गुसुर गोत्र का सदस्य था। यह जानकारी एक अभिलेख64 से प्राप्त की गई है जिस में यह विवरण दिया गया है। गुसर और गुज्जर में समरूपता न मानने का प्रयास करते हुए, उपेन्द्र ठाकुर कहते हैं कि गुसर शब्द संस्कृत तथा प्राकृत के किसी भी मानक शब्द कोष में प्राप्य नहीं है।65 ऐसा हो सकता है किन्तु यह शब्द विचाराधीन काल के एक अभिलेख में अवश्य प्राप्य है, सांची शिला स्तम्भ अभिलेख नं. 73 प्लेट नं. XLII A में एक ऐसे व्यक्ति का उल्लेख है जिस का नाम गोसुर सिंहबल कहा गया है। यहां शब्द गोसुर गुज्जर शब्द का एक पूर्ववर्ती है। दोनों अभिलेखों से पता चलता है कि मध्य एशिया के गोसुरों का किस प्रकार भारतीयकरण किया गया और यह भारतीयकरण की प्रक्रिया उसी काल में हुई जब धारण वंशी जाटों का भारतीयकरण हो रहा था। गुसर/गुस्सल नाम का वंश आधुनिक काल में एक जाट वंश के रूप में पाया जाता है। श्री उपेन्द्र ठाकुर भूल गये कि गुज्जर नाम पातंजलि और अमरकोश में भी नहीं मिलता। ऐसा इसलिये है क्योकि गुज्जर लोग तब तक भारत से बाहर ही थे।
इसके अतिरिक्त इसी काल से सम्बन्धित एक और अभिलेख में ग्वालियर झांसी क्षेत्र के एक जाट राज वंश का उल्लेख मिलता है। यह अभिलेख विजयगढ़ स्तम्भ लेख नं. 59 PL XXX. VI C66 पर अंकित है। यहां राजा का नाम वरिक गोत्र कुल के विष्णु वर्धन के रूप में दिया गया है। इस अभिलेख में वर्ष 428 का भी उल्लेख है तथा यह वर्ष शक सम्वत के रूप में लिया जाना चाहिये न कि मालव सम्वत से। इस अभिलेख के कुछ अन्य पक्षों पर हम अगले अध्याय में विशद रूप में विचार करेंगे। यहां पर तो हमारा मन्तव्य केवल यह दिखाना है कि वरिक गोत्र कुल का यह राजा 428 शक सम्वत में उस क्षेत्र में शासन कर रहा था और उसके दादा का नाम यशोराट था तथा उसके परदादा का नाम व्याघ्रराट {था}। जिन नामों के अन्त में राट आता है वे नाम निश्चित रूप से भारतीय लोगों के लिये विदेशी से हैं। इस उदाहरण से यह भी पता चलता है कि किस तरह व्यक्तिगत नामों का भारतीयकरण हो रहा था।

साहित्यिक तथा पौराणिक प्रमाण

हम उपरोक्‍त अभिलेखीय प्रमाणों के माध्यम से यह जान चुके हैं कि कुशान साम्राज्य के विघटन के बाद काबुल से लेकर कटक तक उत्तर भारत में विभिन्न जाट शासक राज्य कर रहे थे तथा कई अन्य कबीले यहां रह रहे थे। विशेष रूप में मगध क्षेत्र का शासन उन लोगों के अधीन था जिन्हें मुरण्ड उपाधि प्राप्त थी। उन्हें शक अथवा सिथ

64. EI, Vol. XXX, p. 61.
65. op. cit., p. 253.
66. ClI, Vol. III, p. 252.

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माला गया है। यहां भी कई इतिहासकार उन्हें शकों से पृथक्‌ रूप में देखना चाहते हैं लेकिन इस प्रयास में वे असफल ही रहते हैं।67
टालमी द्वारा लिखित भूगोल के अनुसार 140 ई. में मुरण्ड लोग सरबो अर्थात्‌ सरयू नदी की घाटी में बसे हुए थे।68 इसके आधी शताब्दी बाद ओपियन मुरण्ड लोगों का उल्लेख गंगा की वादी में बसे हुए लोगों के रूप में करता हैं।69 एस.आर. गोयल कई जैन विद्वानों को उद्धृत करते हुए यह सिद्ध करते हैं कि विशेष रूप में पाटलिपुत्र तथा इसके साथ ही कान्यकुब्ज पर, मुरण्डों का शासन था। जैन साधु पदलिप्त सूरी ने पाटलिपुत्र के मुरण्ड राजा की भयंकर शिरोवेदना का उपचार किया था और उसे जैन धर्म में दीक्षित कर लिया था।70 पी.सी. बागची के अनुसार चीन के वू (Wu) राजवंश (220-227 ई.) के शासनकाल में कम्बोडिया के राजा फान-चेन ने पाटलिपुत्र के भारतीय नरेश के पास अपना राजदूत भेजा था। इस राजदूत का हार्दिक स्वागत किया गया और प्रत्युतर में सद्भावना के रूप में भारतीय राजा ने अपने दो व्यक्ति राजदूत के रूप में तथा यू.ची, देश के चार घोड़े, कम्बोडिया के राजा को उपहार के रूप में भेजे थे। इस विवरण के अनुसार उस समय मगध में बौद्ध धर्म खूब फल-फूल रहा था तथा राजा को मूलुन उपाधि प्राप्त थी। इस उपाधि की समरूपता मुरण्ड के साथ स्थापित की गई है और इससे यह पता चलता है कि तीसरी शताब्दी ई. के मध्य में पाटलिपुत्र पर मुरण्डों का शासन था।71 पाटलिपुत्र के इन मुरण्ड राजाओं के पेशावर के शासकों के साथ विशेष सम्बन्ध थे।72 ऐसा होना प्राकृतिक ही था क्योंकि मुरण्ड तथा कुशान दोनों एक ही शक मूल से सम्बन्धित थे।73
इस से स्पष्ट होता है कि जातीय रूप में, तीसरी शती ईस्वी के मगध शासक उस समय अफगानिस्तान में शासन कर रहे कुशानों के ही समरूप थे। पुराणों में उनका उल्लेख तुखारों (तखर जाट) के बाद भारत पर शासन कर्ताओं के रूप में हुआ है।
इस सम्बन्ध में पुराण यह भी कहते हैं कि मुरण्ड कुल के 13 राजाओं ने भारत पर शासन किया। इस सम्बन्ध में यह भी उल्लेखनीय है कि पुराण इनके सम्बन्ध में यह भी कहते हैं कि इन मुरण्ड शासकों ने जाति प्रथा को समाप्त किया। पुराणों की भाषा में, उन्होंने 'निम्न जाति के लोगों को' ऊंचे पदों पर आसीन किया तथा ये सब लोग "मलेच्छ मूल" के थे। विष्णु पुराण उचित रूप में इन लोगों के कुल गोत्र का नाम मुण्ड देता है

67. P.C. Bagchi, op. cit., p. 133.
68. Vol. VIII, 2.14.
69. EHNI, p. 117.
70. S.R. Goyal, A History of Imperial Guptas, p. 57.
71. P.C. Bagchi, op. cit., p. 134.
72. S.R. Goyal, op. cit., p. 57. See also Note V at the end of this section.
73. ibid.

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जोकि आज भी विद्यमान एक जाट कुल है। मुरण्ड उपाधि का अर्थ शक भाषा में 'स्टेन-कोनो' के अनुसार "स्वामी" है। जाटों द्वारा यह मुरण्ड शब्द आज भी प्रयुक्त होता है जिस का अर्थ शीर्षस्थ अथवा सिर, विशेष रूप में इसे लैम्प की बत्ती के ऊपरी सिरे के रूप में लिया जाता है।
अतः साहित्यिक तथा पौराणिक प्रमाणों के आधार पर यह स्पष्ट होता है कि गुप्त लोगों के सत्ता में आने से तत्काल पूर्व, मुण्ड लोग मगध पर शासन कर रहे थे और यदि एक शासक को पन्द्रह वर्ष का समय दिया जाए तो मगध पर इन का शासन लगभग दो शताब्दियों तक रहा। यह बात अत्यधिक दुर्भाग्यपूर्ण है कि भारतीय इतिहास में इन 13 शासकों में से किसी एक का भी नामोल्लेख नहीं मिलता। भारतीय इतिहासकारों के लिये यह कितनी लज्जाजनक बात है। लगता है कि ऐसा जानबूझ कर किया गया। {ताकी} उस जाट शासन के, जो कई शताब्दियों तक भारत के प्रायः सभी भागों में रहा, सभी अवशेष मिटाए जा सकें। यह भी एक सम्भावना हो सकती है कि जब गुप्तकाल में (या उसके बाद) पुराणों का पुनः संशोधन हुआ तो तब इन शासकों के विवरण उनसे निकाल दिये गये हों। इस विषय पर एक अन्य अध्याय में सविस्तार चर्चा करेंगे। इस समय तो हमारा उद्देश्य केवल इतना ही कहना है कि किसी भी पुराण में किसी भी गुप्त शासक का नामोल्लेख नहीं मिलता। विविध पुराणों में केवल इतनी ही बात कही गई है कि, "गुप्त जाति से उत्पन्न राजा समस्त क्षेत्रों को भोगेंगे।"74 इस खेदजनक स्थिति के क्या कारण रहे, यह जानना भी आवश्यक हो जाता है और यह कारण स्पष्ट रूप से यही हो सकता है कि ये सभी शासक विदेशी मूल के थे। इसलिये ही भारतीय संस्कृति के स्वयं घोषित इन ठेकेदारों ने अल्बेरूनी से यह कहा कि गुप्त शासक शक्तिशाली तो थे किन्तु ये बुरे लोग थे और भारतीयों ने गुप्त काल के अन्त होने पर नया सम्वत्‌ जारी कर के अपनी प्रसन्नता व्यक्त की।
आइये हम एक बार पुनः गुप्तकाल से पूर्व जाट शासकों से सम्बन्धित साहित्यिक तथा अन्य प्रमाणों की चर्चा करें। इस से पूर्व उद्धृत प्रमाण एक नितान्त भिन्न चित्र को सामने लाते हैं। एस.आर. गोयल के शब्दों में ऊपर दिए उद्धरणों के प्रकाश में, इधर-उधर बिखरे तथ्य एक नया महत्व प्राप्त करते हैं।75 पहली बात तो यह ध्यान में रखी जानी चाहिये कि बहुत खण्ड़ित, संस्कृत का एक अभिलेख मिर्ज़ा पुर में पाया गया जो इस समय संस्कृत विश्वविद्यालय वाराणसी में सुरक्षित है। इस में किसी एक राजा रुद्रदामश्री का उल्लेख है। पुरा लिपि (Palaeographically) के अनुसार इस का समय तीसरी — चौथी शताब्दी ठहरता है।76 राजा का यह नाम शुद्ध रूप में शक है; अतः यह राजा कुषाणोत्तर काल में एक मुरण्ड शासक हो सकता है दूसरा प्रमाण वैशाली में स्पूनर द्वारा खोजी गई मुद्राओं में से

74. Pargitar, DKA, p. 73.
75. S.R. Goyal, op. cit., p. 59.
76. AI, 1959-60, p. 65.

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एक मुद्रा है जिस से एक शक महारानी महादेवी प्रभु दामा का भी पता चला है। इस महारानी को महाक्षत्रप स्वामी रुद्र सिंह की पुत्री, तथा महाक्षत्रप स्वामी रुद्र सेन की बहन बताया गया है।77 दुर्भाग्य से उस के पति के नाम का उल्लेख नहीं मिला लेकिन उपरोक्त तथ्यों के प्रकाश में यह महिला मगध के मुरण्ड शासक की महारानी प्रतीत होती है।78 दशरथ शर्मा यह अनुमान लगाते हैं कि प्रभु दामा, समुद्र गुप्त की रानियों में से एक थी तथा रुद्र सिंह द्वितीय (305-316 ई.) ने सम्राट की नीति के अन्तर्गत उसे कन्योपायनदान के रूप में समुद्र गुप्त को भेंट किया था। किन्तु रुद्र सिंह द्वितीय के पुत्र का नाम यशोदामन द्वितीय (316-32 ई. के लगभग) था, न कि रुद्रसेन79 रुद्रसेन तृतीय, जिससे श्री शर्मा प्रभू दामा के भाई के रूप में देखते हैं, वह रुद्रदमन द्वितीय का पुत्र था न कि रूद्र सिंह का।80 हम अल्तेकर81 तथा एस. चट्टोपाध्याय82 के मत को अधिक उचित मानते हैं। ये दोनों इतिहासकार यह मानते हैं कि प्रभु दामा रुद्र सिंह प्रथम (181-88 तथा 191-97 ई.) की पुत्री थी तथा रुद्र सेन प्रथम (200-22 ई.) की बहिन थी।
इस प्रकार अभिलेखीय साहित्यिक एवं पुराणों से उपलब्ध प्रमाणों से यह सिद्ध होता है कि उस समय उत्तर भारत में कई जाट कुल शासन कर रहे थे। उन में से कुशान, वरिक, मौर्य, मुण्ड तथा टांक आदि प्रमुख जाट कुल हैं। समुद्र गुप्त के इलाहाबाद स्तम्भ अभिलेख में ऐसे कई अन्य कुलों का आलेख है जिनका शासन गणतांत्रिक था; वे सभी कुल आज भी जाट कुलों के रूप में विद्यमान हैं। यह स्पष्ट चित्र कि विभिन्न जाट वंश उत्तरी भारत के भिन्न-भिन्न भागों पर शासन कर रहे थे, कम महत्वपूर्ण नहीं है और भारतीय इतिहास के लेखक द्वारा किसी भी रूप में इस की अवहेलना नहीं की जा सकती। तो क्या हम यह निष्कर्ष नहीं निकाल सकते कि अपने अधीनस्थ अधिकांश सामंतों की तरह, उन के संरक्षक शासक भी जाट जाति से ही सम्बन्धित थे।

एस.आर. गोयल का ब्राह्मण जातिगत मत

श्री एस.आर. गोयल ने बड़े ही अनमने ढंग से यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि गुप्त सम्राटों की जाति ब्राह्मण थी।83 यह आग्रह करते हुए उन्होंने कहा कि स्कंद पुराण में धारण गोत्र का उल्लेख हुआ है। उन्होंने इस सम्बन्ध में डा. दशरथ शर्मा के इस

77. ASIAR, 1913-14, p. 136.
78. D. Sharma, PIHC, 1956, pp. 146-48.
79. NHIP, p. 57.
80. ibid., p. 61.
81. op. cit., p. 51.
82. EHNI, p. 126.
83. op. cit., p. 74.

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मत का भी उल्लेख किया है, "इन सम्राटों के नाम में प्रयुक्त शब्द गुप्त, इन की जाति का परिचायक नहीं है। यह नाम उन के राज कुल के प्रथम शासक का नाम था और जब चन्द्रगुप्त प्रथम के राज्यकाल में यह नाम सुविख्यात हो गया तो इस वंश के अन्य सदस्यों ने इसे एक उपनाम के रूप में अपना लिया।"84 श्री एस.आर. गोयल इस सम्बन्ध में अन्य विद्वानों जैसे जी.एस. ओझा, एस. चट्टोपाध्याय, जी.पी. मेहता, वी. उपाध्याय85 आदि द्वारा व्यक्त विचारों के विरुद गये हैं। श्री गोयल ने इस तथ्य को भी अनदेखा कर दिया कि धारवाड़ के गुट्टल राजाओं ने स्वयं को क्षत्रिय तथा चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के उत्तराधिकारी होने का दावा किया था।
अपने ब्राह्मण जातिगत मत के प्रतिपादन के लिये उन्होंने विवाह सम्बन्धों का सहारा लिया है तथा प्रतिलोमा विवाह पद्धति के विपरीत अनुलोमा पद्धति से अधिक प्रेरणा लिया है। अनुलोमा पद्धति में ब्राह्मण को अपने से नीच जाति की स्त्री से विवाह करने की अनुमति है किन्तु इस के उल्ट नहीं हो सकता। अतः श्री गोयल ने यह मत व्यक्त किया कि नाग कन्या कुबेर नागा का विवाह चन्द्रगुप्त द्वितीय से हुआ। प्रभावती गुप्त का विवाह ब्राह्मण राजा वाकाटक रुद्रसेन द्वितीय से हुआ, एक कदम्ब कन्या भी गुप्त परिवार में व्याही गई। ये सब अनुलोमा विवाह ही हैं, अतः गुप्त सम्राट ब्राह्मण होने चाहिये। उन्होंने यह भी कहा कि प्रतिलोमा विवाह पद्धति का कोई भी ठोस प्रमाण उपलब्ध नहीं है।86 ऐसा मत व्यक्त करते हुए श्री गोयल निस्संदेह सभी अन्य प्रमाणों को अनदेखा कर जाते हैं, जैसे इन लोगों में ज्येष्ठ अधिकार की पूर्ण अवहेलना, इन के विदेशी धार्मिक प्रतीक, इन के राजाओं की अभारतीय प्रकृति, जिस के अनुसार वह खड़े हो कर एवं बूट पहन कर पूजा बन्दना करते हैं, अपने ध्वजवाहक आप/स्वयं होते हैं आदि-आदि। श्री गोयल ने AMMK (आर्य मंजू श्री मूलकल्प) तथा अन्य कृतियों का भी उल्लेख नहीं किया और उन्होंने यह सुनिश्चित मान लिया कि भारशिव वाकाटक कदम्ब आदि सब ब्राह्मण थे।87 कुछ इतिहासकार वाकटकों को यवन मानते है अर्थात्‌ विदेशी। यह धारणा पुराणों से ग्रहण की गई है।88 विष्णु पुराण के अनुसार, "जब पौरों का विनाश होगा तो कलकिल यवन राजा होंगे जिनका प्रमुख विन्ध्यशक्ति होगा"।89 वायु तथा मत्स्य पुराण के अनुसार वे लोग अपने आचार व्यवहार नीति एवं व्यवस्थाओं में यवन थे। जब विन्ध्य जाति विलुप्त हो जाएगी तो तीन बाहलीक राजा सुप्रतिक, नाभीर तथा शाक्य मानव सत्तारूढ़ होंगे। विल्सन शाक्यमानव शब्द की ओर हमारा ध्यान दिलाते

84. JRAS, XXXIX, p. 265.
85. ibid., p. 76. Note VI.
86. See Note V at the end of this section.
87. See Note VI at the end of this section.
88. Bhan Daji, JBBRAS, Vol. VII, p. 69.
89. Wilson's Edition, p. 380.

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हैं और कहते हैं कि स्पष्ट रूप से यह नाम शक मूल के मान हैं। विल्सन इस बात पर भी आश्चर्य व्यक्त करते है कि बाहलीकों अथवा बल्ख का राज कुमार भारत के इस भाग में उस समय क्या कर रहा था।90
यदि विल्सन इस विषय पर तनिक गहराई से विचार करते तो उन्हें केवल इन तीन गजकुमारों के विषय में ही न पता चलता अपितु वह यह भी जान पाते कि नन्द वंश से लेकर मौर्य काल तक और मौर्य काल से लेकर हर्ष वर्धन और यहां तक कि यूरोपीय सत्ता के आगमन तक भी इनमें से अधिकांश शासक बल्ख तथा इसके आसपास के क्षेत्रों से सम्बन्धित थे। मण्डों को बिल्फोर्ड हूणों का ही एक कुल मानता है तथा मत्स्य पुराण मलेच्छ मूल (मलेच्छ सम्भवः) का कहता है और यह लोग वायु पुराण में आर्य मलेच्छ कहे गये हैं। इनके बारे में ही विल्सन पुनः यह प्रश्न करता है कि कहीं इस शब्द का अर्थ आरियाना के बर्बरों (Barbarians of Ariana) से तो नहीं है? विल्सन की इस विषय में यह शंका उचित है क्योंकि ये लोग वास्तव में इसी क्षेत्र से सम्बन्धित थे। हरिति, वंश और मानव्य गोत्र जो धर्म परिवर्तित कदम्बों को प्रदान किया गया था, वहीं अग्निकुल के कुछ राजपूतों को भी प्रदान किया गया था। स्पष्टतः यह उन के ब्राह्मण धर्म में परिवर्तित होने के परिणामस्वरूप हुआ, किन्तु इससे ये सब लोग ब्राह्मण नहीं बन गये थे। तथाकथित नाग कहे जाने वाले विभिन्न कुलों के लोग अब भी जाटों में पाये जाते हैं। जहां तक प्रतिलोमा विवाह के ठोस प्रमाणों का सम्बन्ध है, हमें कल्हण की 'राजतरंगिनी' से इस बात का पता चलता है कि तोरमाण नाम के एक हूण शासक ने ईक्ष्वाकु कुल की एक महिला के साथ विवाह किया था तथा इस सम्बन्ध के परिणामस्वरूप, प्रवरसेन का जन्म हुआ था। परवर्ती काल में जा कर हम देखते है कि चाच नाम का एक ब्राह्मण सिंध की एक शूद्र महिला से विवाह कर रहा था, जोकि एक विधवा भी थी। चाचनामा में एक अन्य प्रसंग का भी उल्लेख है जिस में चाच परिवार की एक कन्या ने एक लोहान वंशी जाट, सरबंदा, से विवाह किया था तथा उसी ब्राह्मण परिवार की एक अन्य बाला का विवाह विधिवत रूप में एक भट्टी राजा रामल (Ramal) से हुआ था। हमें यह भी याद रखना चाहिये कि अशोक मौर्य जो निश्चिय रूप से एक क्षत्रिय था और जिसे कुछ ब्राह्मणवादी लेखकों द्वारा "शूद्र" कहा गया था, का विवाह, "दिव्यावदान" के अनुसार, चम्पा के एक ब्राह्मण की पुत्री सुभद्रांगी के साथ हुआ था। अशोक मौर्य ने उज्जयिनी के एक व्यापारी की पुत्री देवी से भी विवाह किया था। इस प्रकार के कई उदाहरण पूर्व गुप्त काल तथा उत्तर गुप्त काल से जमा किये जा सकते हैं। श्री गोयल के मृत मत पर अन्तिम प्रहार इस लोक-विख्यात सत्य से होता है कि चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य ने अपने भाई रामगुप्त की विधवा से विवाह किया था। रूढ़िवाद के उस काल में न कोई ब्राह्मण, न कोई वैश्य, इस तरह के विधवा विवाह की बात सोच भी सकता था जबकि दूसरी ओर जाटों में तो यह सर्व साधारण बात थी जो आज भी प्रचलित है।
एस.आर. गोयल यवन रक्तबाहु द्वारा कलिंग पर किये गये आक्रमण का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि महावंश के अनुसार राज कुमारी हेममाला को अपना देश छोड़

90. ibid., note 68.

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कर श्रीलंका भाग जाना पड़ा तथा वह जाते समय अपने साथ भगवान बुद्ध का एक दंत अवशेष, स्मृति चिन्ह के रूप में ले गई थी।91 गोयल इस यवन का तादात्म्य समुद्रगुप्त से स्थापित करते हैं और वह इस आक्रमण का काल 359-60 ई. मानते हैं, किन्तु ऐसा करते हुए इस तादात्म्य के बीच में पाए जाने वाले व्यवधान के प्रति भी सजग हैं। पृष्ठ 160 पर एक टिप्पणी में वह सभी पक्षों से यवन शब्द की व्याख्या करने का प्रयास करते हैं। प्रथम तो यह कि बौद्ध धर्म के अनुयायी समुद्रगुप्त से अप्रसन्न थे तथा वे उस को यवन कह कर सम्बोधित करते थे। गोयल द्वारा दूसरी सम्भावना यह व्यक्त की गई है कि कलिंग की ओर सेना एक यवन सेनापति के नेतृत्व में भेजी गई और अन्ततः इन दोनों तर्कों को बचकाना मानते हुए वह जल्दी में यह भी कह देते हैं कि आक्रमणकर्ता का सही नाम उन्हें नहीं मिल सका है।
इस तरह गोयल अपने तादात्म्य स्थापित करने वाले तर्कों की जटिलता का सामना नहीं कर पाए अर्थात कि गुप्त कहे जाने वाले लोग यवन कहलाते थे क्योंकि सम्भवतः वह पश्चिम से आए थे और उस भू-भाग को यवनों का क्षेत्र कहा जाता था। हम उतना भी जानते है कि उड़ीसा व उस के आसपास के क्षेत्र बहुत लम्बे समय तक जाटों के शासन {के} अधीन रहे। खनन कार्यों के दौरान जाटों के टांक कबीले के जो सिक्के मिले है, इतिहासकारों ने उन्हें पुरी कुशानों के सिक्के माना है। 592 ई. केसरी राजा ययाति ने उड़ीसा में जाटकुल के टांक शासक को अपने अधीन कर लिया।92 कुछ लोगों ने गुप्तवंशियों को कारस्कर भी कहा है और यह उनके कुल का नाम भी समझा गया। वास्तव में यह एक देश का नाम था। महाभाष्य में औषिधियों में प्रयुक्त होने वाले एक ऐसे पौधे का उल्लेख हुआ है जिसे कारस्कर कहा गया है। इस पौधे को यह नाम देश के कारण मिला।93 "वायु पुराण" कहता है कि कलिंग तथा सिंधु नदी के उत्तर के देशों में रहने वाले लोग आश्रम धर्म (हिन्दू की वर्ण विभाजन व्यवस्था) में विश्वास रखने वाले लोग नहीं थे।94 यह इस तथ्य का एक और प्रमाण है कि गुप्त लोग मूल रूप से भारतीय नहीं थे क्योंकि कारस्कर कहे जाने वाले ये लोग जाति प्रथा को नहीं मानते थे। "महाभारत" में कारस्कर महिषक, करम्भ कटकलिक, कर्कर तथा विरक का उल्लेख पाया जाता है।95 यह बात पुनः स्पष्ट होती है कि खटकल, काकरान, विरक की तरह कारस्कर भी जाट ही थे। यह सम्भव है कि माहिष्क बैंस शब्द का संस्कृत रूप हो जो कि भारतीय भाषा में भैंस के समान ध्वनित होता है और भैंस को संस्कृत में महिष कहते हैं।96 कारस्कर जाट वंश को आजकल कस्कर कहते हैं।

91. S.R. Goyal, History of the Imperial Guptas, pp. 159-60.
92. JBORS, 1930, Vol. XVI, p. 460.
93. P.D. Agnihotri, op. cit., p. 277.
94. Vayu Purana, 78/23.
95. MBT, Karna Parva, 37/54.
96. ASI, 1971-73, Vol. VI, P. 47.

पृष्ठ 198 समाप्त

मालवा की लोक कथाओं में उज्जैन के राजा विक्रम के पिता गन्धर्व सेन का वर्णन मिलता है।97
"पुरातन प्रबन्ध संग्रह" में संग्रहीत विक्रमार्क प्रबन्ध इस सम्बन्ध में यह उल्लेख किये है।

अकार्षीद नृणामुर्वी विक्रमादित्य भूपतिः ।
स्वर्णे प्रप्ते तु हैरकंस्तुरष्क कुलितां व्याधात्‌ ॥
हूणवंशे समुत्पन्नो विक्रमादित्य भूपतिः ।
गन्धर्व सैन तनयः पृथ्वीम्‌ नृणाम्‌ व्याधात्‌ ॥

यहां गन्धर्व सेन के पुत्र विक्रमादित्य को हूण वंश में उत्पन्न कहा गया है जिसने पृथ्वी के शासकों को करारी चोर दी।
इसी संग्रह में प्रभावक चरित के अन्तर्गत वृद्ध वादी चरित (177-79) तथा उसी में सम्मिलित जीव सूरी चरित (71-75) भी देखना चाहिये। विक्रमादित्य को हूण तथा गन्धर्व सेन का पुत्र कहने का क्या तात्पर्य हो सकता है ? यह बात ध्यान में रखनी चाहिये कि समुद्रगुप्त संगीत के विविध वाद्य को बजाने में बड़ा दक्ष था, तो इस में कोई आश्चर्य नहीं कि उसे गन्धर्व सेन भी कह दिया गया हो, क्योंकि यह कला गन्धर्वों के साथ विशेष रूप से सम्बन्धित है और यह बात माननी भी प्रायः असंभव है कि कोई भी भारतीय लेखक अपने इतिहास से स्वर्ण काल के राष्ट्रीय नायक को हूण जाति से सम्बन्धित कहे, जब तक कि यह बात वास्तविक रूप में ही सत्य न हो।
इलियट तथा डासन ने 'मुज मुलत तवारीख' से एक उद्धरण दिया है जिस के अनुसार सिकन्दर के समकालीन एक भारतीय राजा का नाम कफन्द दिया गया है।98 बुद्ध प्रकाश कफन्द की तादात्म्यता चन्द्रगुप्त मौर्य से स्थापित करते हैं। सम्भवतः इसलिये कि चन्द्रगुप्त को सिकन्दर का समकालीन कहा गया है किन्तु उस के पुत्र का नाम आयन्द और आयन्द के पुत्र का नाम रासल दिया गया है। रासल के दो पुत्र कहे गये हैं— रावल तथा वर्कमरीस। अब रावल तथा वर्कमरीस की समरूपता रामगुप्त तथा चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के साथ स्थापित की गई है। यह इस कथा के आधार पर माना गया जिस में कहा गया है कि विक्रमादित्य ने अपने भाई रामगुप्त की हत्या कर दी थी तथा उस की विधवा पत्नी ध्रुव देवी से विवाह किया। इस कहानी का आलेख उक्त "तवारीख" में भी हुआ है।
इस तरह सिकन्दर के प्रसंग में यह राजा कफन्द चन्द्रगुप्त मौर्य होना चाहिये किन्तु रावल तथा बर्कमरीस के प्रसंग को ध्यान में रखते हुए यदि देखा जाए तो यह कफन्द

97. ASI, 1871-73, Vol. VI, p. 139.
98. Elliot & Dawson, op. cit., Vol. I, p. 108.

पृष्ठ 199 समाप्त

धारण कुल के सम्राट, चन्द्रगुप्त प्रथम का ही रूप होना चाहिये। ऐसा दिखाई देता है कि "तवारीख" का लेखक कहीं तथ्यों में गड़बड़ कर गया है। हमारा प्रयास तो केवल यह दिखाना ही है कि चाहे कैसे भी हो, यह राजा कफन्द (तवारीख के हवाले से) एक विदेशी था तथा वह पंजाब सिंध से शुरू हो कर भारत में शासन करने आया था। "तवारीख" का यह उद्धरण इसी कफन्द के बारे में है, "यह कंद हिन्दू नहीं था किन्तु उसके दयालु स्वभाव एवं एक समान व्यवहार के कारण सब लोग उस के निष्ठावान बन गये। वह बहुत अच्छे भाषण देता था तथा हिन्दुओं व उन के देश की प्रशंसा करता था। अपने सद्गुणों से उसने मन में कई आशाओं का संचार किया और अपने कृत्यों से उन्हें मूर्त रूप दिया।"99
यद्यपि हमारा विचार है कि इस कफन्द को चन्द्रगुप्त मौर्य ही समझा जाना चाहिये तथा मौर्यों का वर्णन करते हुए हम ने इस प्रमाण पर प्रकाश डाला था। यह बात महत्वपूर्ण है कि उसे स्पष्ट रूप में अभारतीय एवं अहिन्दू कहा गया है। यह प्रमाण हमारे इस दृष्टिकोण का समर्थन करता है कि चन्द्रगुप्त मौर्य की तरह ही ये गुप्त कहे जाने वाले लोग भी विदेशी थे, जो भारत में विजेताओं के रूप में प्रविष्ट हुए और उन्होंने यहां अपने साम्राज्य स्थापित किया।
निम्नलिखित उद्धरण आर.एस. शर्मा द्वारा लिखित एक लेख से लिये गये हैं। ये भी कुशान एवं गुप्त राजाओं के विदेशी मूल की ही पुष्टि करते है।
इस लेख के अनुसार, "कुशान कुशल एवं निपुण घुड़सवार थे और घुड़सवारी करते हुए वह लगामों, काठियों और सम्भवतः रकाबों का भी प्रयोग करते थे। घुड़सवारी का प्रचलन चीन में इस से पूर्व हो चुका था तथा इसे सुविधाजनक बनाने के लिये 122 ई. पू. में एक विशेष कानून बनाया गया जिस के अनुसार घुड़सवारों के लिये पतलून पहननी अनिवार्य थी। कुषाण सिक्कों एवं मूर्तियों से यह स्पष्ट पता चलता है कि बूट, बंद गले का छोटा कोट एवं पतलून इन घुड़सवारों की वेशभूषा विशेष थी और ये घुड़सवार बहुत अच्छे धनुर्धर भी थे। उन के अश्वों के प्रति विशेष प्रेम का पता हमें मोग, सोतर मेगास (Soter Megas), कनिष्क प्रथम, हुविषक तथा वासुदेव के सिक्कों से चलता है। कुषाणों ने क्योंकि समूचे उत्तर भारत पर दो शताब्दियों तक शासन किया अतः उन्होंने घुड़सवारों के उपयोग को लोकप्रिय बनाया। उनके काल से शुरू हो कर उत्तरोत्तर भारत में सुरक्षा व्यवस्था में अश्वारोही सेना अपने लिये एक महत्वपूर्ण भूमिका अर्जित करती चली गई ...! सिक्कों से पता चलता है कि गुप्त अश्वारोही छोटे कोट जिन पर पेटियां बंधी होती थीं, सिरों पर विशेष सुरक्षात्मक टोपियां (Helmets), पतलून एवं बटन बन्द बूट प्रयोग करते थे। ये परिधान मध्य एशिया से आए थे। गुप्त सैनिकों ने सम्भवतः म्यानों में सुरक्षित तलवारों का प्रयोग कुशानों से सीखा। गुप्त विशेष कवचों से सुसज्जित उन

99. ibid.

पृष्ठ 200 समाप्त

घोड़ों का भी प्रयोग करते थे जो एक तरह की रकाबों से लैस होते थे, अश्वारोहण की यह कला उन्होंने मध्य एशिया के अपने पूर्वजों से ग्रहण की थी। उन के सिक्कों व अभिलेखों में अश्वपति महाश्वपति तथा भटाश्वपति जैसे पदों का उल्लेख है, इससे इस काल में अश्वारोही सेना के बढ़ रहे महत्व की पुष्टि होती है।"100
यहां आर.एस. शर्मा भी उसी घिसी-पिटी परिपाटी पर चलते हुए दिखाई देते हैं और यह तथ्य देखने में असमर्थ रहते हैं कि जो प्रमाण उन्होने स्वयं प्रस्तुत किये हैं उन से भी यही सिद्ध होता है कि गुप्त कहे जाने वाले लोग मध्य एशिया के जाट थे और यह सब क्रियाकलाप करते हुए वे किसी का अनुकरण नहीं कर रहे थे किन्तु उन की सभी गतिविधियां, उन की वेश-भूषा, उनके सिक्के, उन की कलाएं, उन की वास्तु कला, उन के धार्मिक रीति-रिवाज, इन सम्राटों द्वारा मध्य एशिया से लाये गये थे। अश्वपति तथा महाश्वपति जैसे नाम जो इस काल के सिक्कों में पाये गये हैं, भी विदेशी नाम हैं। इसीलिये शर्मा कहते हैं, "लेटी हुई छोटी मूर्तियां, ढोलची, दोहरी गुमटी वाले शिर वस्त्र धारण किये हुए महिलाएं, ऊंची नोकदार टोपियां पहने पुरुष, उभरे उभरे वक्षों वाली देवी मां और देवी मां के मंदिरों में खड़े श्रद्धालु ये सब भारतीय परम्पराओं की दृष्टि से सर्वथा विदेशी हैं। इन छोटी मूर्तियों की वेश-भूषा तथा सज्जा तथा सिक्कों पर जो प्रतीक अंकित हैं, ये सब भारत की सांस्कृतिक परम्पराओं में आये परिवर्तन की ओर संकेत करते हैं और हम देखते हैं कि किस तरह भारतीय वेश-भूषा का धोती व उत्तरीय का स्थान कंचुक तथा Himation (लवादा) ने ले लिया था।"101
जे.एन. बैनजी के अनुसार, "आधुनिक काल में उत्तर भारत में जो सूर्य प्रतिमाएं उपलब्ध हुई हैं और जो विशेष रूप से पूर्व काल से सम्बन्धित है, वे कुछ अभारतीय रूप रेखा लिये हुए है। इन अभारतीय अर्थात्‌ विदेशी रूप-रेखा में जौ सर्वाधिक महत्वपूर्ण बात है वह उन का उदीच्य वेश (उत्तरी लोगों की वेश-भूषा) है। यह वेश-भूषा एक भारी-भरकम लवादा लिये है जो सारे शरीर को ढांपे रहता है, इसमें एक तरह के बूट अथवा Leggings (लम्बी पट्टीदार ज़ुराबें) भी शामिल हैं। इस तरह का परिधान यद्यपि पुरातन भारतीयों में प्रचलित नहीं था किन्तु शक पहल्व तथा कुशान मूल के पूर्ववर्ती राजाओं द्वारा खूब प्रयोग में लाया जाता था। मथुरा के संग्रहालय में महाराजाधिराज देव पुत्र कनिष्क की शीर्ष रहित अभिलेख लिये प्रतिमा, इस प्रकार की वेश-भूषा का प्रदर्शन करती है, जिन के प्रतिरूप गुप्त काल की हाल ही में उपलब्ध सूर्य प्रतिमाओं के भी देखे जा सकते हैं। कलकत्ता स्थित भारतीय संग्रहालय में भूमरा सूर्य प्रतिमा ऐसा ही एक उदाहरण है।102

100. R.S. Sharma, Central Asia, 1971, p. 175.
101. ibid., p. 115.
102. IHQ, Vol. XXVIII, p. 1.

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सिक्कों का साक्ष्य

आर्य मञ्जूश्रीमूल कल्प का साक्ष्य हम पहले ही लिख चुके हैं जिसमें चन्द्रगुप्त प्रथम के बारे में कहा गया है कि वह मथुरा के जाट वंश से था और वह वैशाली की राजकुमारी (कुमारदेवी) से विवाह करके मगध का शासक बना। अब देखना यह है कि क्या चन्द्रगुप्त आदि के सिक्के भी ऐसा कोई आभास देते हैं जिससे यह कहा जा सके कि गुप्त सम्राट जाट वंशी थे? उनके कोट पैंट और ऊंचे जूते, खड़े होकर जूते पहन कर अग्नि पूजा करना, अपने ध्वज को स्वयं अपने हाथ में उठाना, आदि ऐसे साक्ष्य हैं जो सिद्ध करते हैं कि आरम्भिक गुप्त सम्राट पूर्णरूप से भारतीय धर्म और आचार-विचार में रंगे हुए नहीं थे। चन्द्रगुप्त कुमारदेवी विवाह (स्मारक) सिक्कों पर दोनों पेन्ट पहने लगते हैं। (दिखिये, अल्तेकर, 1954,§ फ्लक 1 न. 8) इसी प्रकार देवी भी जूते पहने हुये है और खड़ी हुई देवी की दोनों टांगे अलग-अलग स्पष्ट हैं (वही, फ्लक 13, न. 7, 8, 9 आदि) इसका अर्थ यह है कि देवी का परिधान भी भारतीय नहीं है। देवी के बायें हाथ में "कल्प शृंग" (Horn of cornu copia) है, जो अभारतीय और मध्य एशिया/ईरान का चिन्ह है। और दायें हाथ में पाश भी वैसा ही है और अश्वमेध यूप के नीचे सीढ़ियों वाला चबूतरा शस्त्र विरुद्ध है।
अब सिक्कों पर लिखे लेख की ओर ध्यान देते हैं। एक लेख है :-
(1). "समरशत वितत विजयो जित, रिपुरजितो दिंव जयति" इसका सीधा अर्थ है "दूर-दूर तक सैंकड़ों युद्धों में विजय जित, शत्रु को जीत कर स्वर्ग को जीतता है" यहां "विजयो जित", चन्द्रगुप्त प्रथम के जाट होने का स्पष्ट उल्लेख कर रहा है। राजस्थान में अभी भी जाटों को जित कहते हैं। ए.स. अल्तेकर सम्भवतः जित का अर्थ राजा करते हैं। (वही पृ. 33)
(2). इसी प्रकार का एक अन्य लेख है :-
"कृतान्त परशुर्ज यत्य जित राज जेताऽजितः" अर्थात्‌ कृतान्त का पर्श धारण करने वाला, अजित राजाओं को जीतने वाला (अजित राज जेता) जित विजयी है। {पृष्ठ. 50}
(3). एक अन्य लेख :-
"जयति अजेयो जितमेहन्द्र" अर्थात्‌ "अजेय जित, महेन्द्र विजयी है" {p. xcix; Introduction; & p. 248. Also see, Kumaragupta I, p. 258, s. n. 1544, p. 252, s. n. 1485.}
(4). बहुत से सिक्कों पर "क्षितिपति रजितो विजयी कुमार गुप्त जयत्यजितः" अंकित है। {Introduction, p. "c".} ऐसे मुद्रा लेखों में "अजित" शब्द का दो बार आना अटपटा-सा लगता है। वास्तव में मूल लेख में शब्द "जत" है और इतिहासकार इसको "जित" और "अजित" रूप में तथाकथित शुद्धि करते हैं। जैसे "जत रप" को "जित रिप"। (वही पृ. 34, 36) "राजजतजत" को "राज जेताजित" में परिवर्तित करते है (पृष्ठ. 42) प्रश्न यह है

{§. अल्तेकर, 1954 = Catalogue of the Gupta gold coins in the Bayana Hoard, Numismatic Society of India.}

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कि क्या कतिपय लेखों में ज और त अक्षरों के साथ केवल "इ"/ए की मात्रायें ही लगती हैं ? क्या शुद्ध शब्द "जात" असम्भव है ? स्कन्दगुप्त के कुछ सिक्कों में उसका नाम "क्रमजित" लिखा है, (वास्तव में "क्रमजत") {Introduction, p. cxvi.} उसे "क्रमादित्य" भी कहते थे। यहां भी ऐसा संकेत हो सकता है कि स्कंदगुप्त अपने को "क्रमजात" कहता है। यहां जेता/अजित सम्भव नहीं है।

निष्कर्ष

अतः किसी भी दृष्टिकोण से जांच परख की जाए हम इस परिणाम पर ही पहुंचते हैं कि गुप्त कहे जाने वाले लोग मथुरा के धारण कुल के जाट ही थे। इतिहासकारों के पास इस दृष्टिकोण का प्रतिवाद करता कोई प्रमाण नहीं है। इस के प्रतिकूल केवल एक विचार है कि जो वास्तव में प्रतिकूल नहीं कहा जा सकता वह है "कौमदी महोत्सव" का लेखनकाल। इस कृति में यह कहा गया है और इस का पूर्णरूप से खण्ड़न भी हो चुका हैं कि इस नाटक का खलनायक चन्द्र सेन, चन्द्रगुप्त प्रथम103 हो सकता है। वास्तव में इस साहित्यिक कृति का इतिहास के साथ किसी भी तरह का सम्बन्ध नहीं है और जायसवाल का चन्द्रगुप्त प्रथम को धूमिल छवि के रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास ताकि उस के उत्तराधिकारी को उज्ज्वल छवि के साध प्रस्तुत किया जा सके, पूर्णरूप से निराधार है।104 इस तथ्य के विरूद्ध एक अन्य प्रतिकूल विचार तथाकथित भविष्योतर पुराण105 पर आधारित है तथा यह सिद्ध हो चुका है कि यह पुराण जालसाज़ी पर आधारित है तथा अनेक पक्षों से इसे झूठा एवं जाली प्रमाणित किया जा चुका है।106
अतः प्रमाण का हर अंश चाहे वह दस्ताबेज़ी है, अभिलेखीय है, ऐतिहासिक है, साहित्यिक है, अथवा सिक्कों से सम्बन्धित है तथा इस के साथ उनकी वेश-भूषा उन की प्रकृति एवं उन के रीति-रिवाज़, ये सब {न} केवल एक {हैं}, एक ही निष्कर्ष {भी} प्रस्तुत करते हैं और वह है कि गुप्त कहे जाने वाले लोग जाट थे और उन का मूल स्थान मध्य एशिया था, जहां से वे आए थे वे अपने राजनीतिक विवेक तथा बाहुबल पर मगध के शासक बने और फिर तीन शताब्दियों तक यहां शासन करते रहे। इसलिये अब यह कर्तव्य इतिहासकारों का है, कम-से-कम उन का जो सत्यता तथा न्याय में आस्था रखते हैं कि वे इन मिथ्या धारणाओं एवं लेखन का परिष्कार करें और जो वास्तव में श्रेय के अधिकारी है, उन को दें।

103. IHQ, Vol. XIV, p. 582.
104. See N.N. Laws, IHQ, Vol. II, pt. 2 and 3; and IHQ, 1935, Vol. XX, pp. 145-46.
105. JBRS, Vol. XXX, p. 01.
106. R.C. Majumdar (IHQ, XX, p. 345); D.C. Sircar (JNSI, VI, p. 24 ff.); H.N. Dasgupta (IHQ, XX, p. 351). have proved that the Bhavisayottara Purana is "a palpable modern forgery". Even P.L. Gupta, who earlier accepted its authenticity (JNSI, II, pp. 33-36) later declined to accept its testimony (IHQ. XXII, p. 60).

पृष्ठ 203 समाप्त

टिप्पणी—1

वे मत कि भारत में कुशान सत्ता का अन्त भारशिवों के हाथों हुआ तथा वाराणसी के प्रख्यात दशाश्वमेध घाट का यह नाम इसलिये पड़ा कि वहां भारशिवों ने दस अश्वमेध यज्ञ किए थे नितान्त कोरी कल्पना समझी जानी चाहिये।107

टिप्पणी—2

विदिशा के नाग शासक सदचन्द्र को द्वितीय नहपाण कहा गया है तचा शकों के साथ उसे सम्बद्ध किया गया है अतः नाग शासक भी शकों की भांति आगन्तुक थे।108

टिप्पणी—3

कुशान सत्ता के पतन का वास्तविक कारण है, "संयुक्त शासकों के बीच सत्ता का विभाजन तथा कनिष्क के उत्तराधिकारियों की बाह्य प्रदेशों पर नियंत्रण रखने कीं व्यक्तिगत अक्षमता।"109

टिप्पणी—4

देवी नना/निना/नैना/ननई लगभग 4000 वर्ष पुरानी है तथा यह मूल रूप से बेबीलोनिया के लोगों की देवी थी। उस की प्रतिमा उरक के एक मंदिर में प्रस्थापित की गई थी। (उरक पुराणों में वर्णित उर्ग देश भी हो सकता है ?) 2287 ई. पू. में बेबीलोनिया की पराजय के बाद इस देवी प्रतिमा को सुसा ले जाया गया, इस के 1635 वर्षों बाद अर्थात्‌ 652 ई.पू. में असुरबेनिपाल ने सुसा का विनाश किया तथा वह उसे (दैवी की प्रतिमा) पुनः उरक ले गया और वहां इसे एक मंदिर में पुनः प्रतिष्ठित किया।
यह देवी प्रतिमा जाटों के साथ भारत आई। और अब यह हिमाचल प्रदेश में स्थित एक मंदिर में प्रतिष्ठित है। यहां भी उस का नाम नैना देवी ही है।110

टिप्पणी—5

जे.एलन Gupta Coins Intro (p. XXIX) के अनुसार, हमारे पास ऐसे यथेष्ट

107. Majumdar & Pusalkar, AIU, p. 169.
108. ibid., p. 169.
109. ibid, p. 168, note.
110. ibid.

पृष्ठ 204 समाप्त

प्रमाण है जिन से यह सिद्ध होता है कि ईसा की आरम्भिक शताब्दियों में मुरण्ड राज्य एक शक्तिशाली राज्य था, जिस के अधीन गंगा का अधिकांश क्षेत्र था और ये शासक वंश विदेशी था।111

टिप्पणी—6

जूनागढ़ के अभिलेख के अनुसार रुद्रदमन ने कई स्वयंवरों (जिस में एक राजबाला अपने वर का स्वयं चयन करती है।) में भाग लिया। उस ने कई राजकुमारियों का मन मोह कर उन का वरण किया।112 क्या उसने केवल विदेशियों की ही पुत्रियों के ही दिल जीते ? ह्यून त्सांग के अनुसार मिहिरकुल ने मगध नरेश बालादित्य की एक पुत्री से विवाह किया। स्पष्टः, इन शासकों के लिये अनुलोमा/प्रतिलोमा नियम अज्ञात थे।

टिप्पणी—7

हम यह भी देखते हैं कि कर्किल या कलकिल एक जाट कुल है और कर्दमक अथवा कर्दम का नामकरण बक्ट्रिया की एक नदी कर्दम पर हुआ।113
1118 ई. के एक अभिलेख (एपी ग्राफिका कर्नाअटका, शिकर पुर 117) के अनुसार, "हर के उन्नत ललाट के एक स्वेद बिन्दु कदम्ब वृक्ष के नीचे की भूमि पर गिरा तथा उसी से एक दूसरे पुरारि (शिव) के समान चार लम्बी भुजाएं तथा भाल के मध्य में एक नेत्र लिये हुए कदम्ब उत्पन्न हुआ। उस से राजा मयूर वर्मन जिसे मयूर शर्मन भी कहा जाता है (अर्थात्‌ वह ब्राह्मण एवं क्षत्रिय दोनों ही था), की उत्पत्ति हुई।114 अतः कदम्ब शासक भी भारतीयकरण प्रक्रिया से गुज़रे थे।

टिप्पणी—8

कई इतिहासकार श्री गुत्त जिसे संस्कृत में श्री गुप्त रूप दिया गया, को गुप्त सम्राटों का जनक मानते हैं किन्तु चीनतुर्किस्तान में हम श्री गुत एक व्यक्ति के नाम के रूप में पाते हैं।115 यह भी यही दर्शाता है कि 'गुप्त' लोग चीनतुर्किस्तान क्षेत्रों से सम्बन्धित थे।

111. B.N. Puri, India Under the Kusanas, p. 51.
112. AIU, p. 185.
113. PHAI, p. 363, note 3.
114. D.D. Kosambi, Indica, 1953, Silver Jubilee issue, p. 202.
115. T. Barrow, op. cit., p. 23, S.N., 130.

पृष्ठ 205 समाप्त

|| पाठ 5 समाप्त ||