Jat Prachin Shasak/Harshavardhana

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जाट प्राचीन शासक (1982)
लेखक - बी. एस. दहिया (आइ आर एस, रिटायर्ड)

विकिफाईअर : चौ. रेयांश सिंह


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हर्षवर्धन

वंशावाली तथा पहचान

उत्तर भारत का अन्तिम सम्राट हर्षवर्धन 606 ई. में थानेसर तथा कन्नौज के सिंहासन पर आसीन हुआ और जैसा कि कहा जाता है इस के साथ ही उस ने अपने नाम एक नया सम्वत्‌ भी शुरू किया। उस के शासन से सम्बन्धित ऐतिहासिक प्रमाणों की कोई कमी नहीं है। ह्यून-त्सांग तथा उस के राजकवि बाणभट्ट ने उस के काल से प्रमाण प्रचुर मात्रा में छोड़े हैं किन्तु उस की वंशावली का पूर्ण परिचय कहीं भी नहीं दिया गया है। हर्ष चरित के अनुसार, "स्थानीश्वर देश में पुष्प भूति1 नाम का एक सम्राट था। वह शक्तिशाली राजाओं की वंशावली का संस्थापक सम्राट था।2 इस पुष्प भूति से राजाओं की एक शृंखला चली .....जिस में अनेक राजा हुये जिन की सेनाओं से यह क्षेत्र भर गया......और इतने शक्तिशाली कि सम्पूर्ण संसार का भार वहन कर सकें। इस वंशावली के बढ़ते-बढ़ते, समय आने पर राजाओं के भी महाराजाधिराज प्रभाकर वर्धन का जन्म हुआ।"3 इस प्रकार हर्ष वर्धन का राजकवि बाण, हर्ष के पिता प्रभाकर वर्धन तथा एक मिथकीय पूर्वज पुष्प भूति का ही उल्लेख करता है। हर्षवर्धन स्वयं अपने कई अभिलेख एवं सुरक्षित आलेखों में किसी पुष्प भूति का उल्लेख नहीं करता। हर्षवर्धन काल की सोनीपत ताम्र मुद्रा4 में हर्षवर्धन के कुल का इस प्रकार उल्लेख मिलता है।

राज्य, हर्ष एवं राज्यश्री नामक दो पुत्र और एक पुत्री।

मधुवन अभिलेख5 तथा बांस खेड़ा अभिलेखों6 से हर्षवर्धन के एक अन्य पूर्वज का नाम भी प्राप्त होता है, नर वर्धन जिस का विवाह वज्रणी देवी से हुआ और जिस से

1. IHQ, XXIX, 191 ff, 72 ff, and XXVII, 321 ff.
2. D. Devahuti, Harsha: a political study, p. 57.
3. ibid., p. 59.
4. No. 52, CII, Vol. III, p. 231 ff.
5. EI, Vol. I, p. 67.
6. EI, Vol. IV, p. 208.

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राज्य वर्धन प्रथम का जन्म हुआ। इन अभिलेखों के अनुसार राज्य वर्धन की रानी का नाम अपसरो देवी है जब कि सोनीपत ताम्र मुद्रा पर यह महादेवी के रूप में मिलता है। अतः हमें इन अभिलेखों के माध्यम से हर्ष के चार पूर्वजों के नाम तो मिलते हैं, किन्तु पुष्प भूति का उल्लेख इन प्रमाणों में कहीं भी नहीं मिलता। सम्भवतः पुष्प भूति बाण की अपनी काव्य कल्पना की देन है। इस कवि कल्पना की पुष्टि इस तथ्य से भी होती है कि पुष्प भूति को शैव यज्ञ करते दिखाया गया है।7 इस यज्ञ के दौरान एक नाग राजा के साथ युद्ध का भी वर्णन है, जिसे एक अलौकिक प्राणी के रूप में प्रस्तुत किया गया है।8 अधिक सम्भावना इस बात की है कि नाग राजाओं की तरह पुष्प भूति भी एक अलौकिक व्यक्ति हो सकता है। हर्षकालीन सोनीपत अभिलेखों से हम निश्चित रूप से यह जान पाते हैं कि हर्ष के तीन निकटतम पूर्वज सूर्य के उपासक थे तथा वह ईरान/मध्य एशिया के मग पुरोहितों के अनुयायी थे। हम इस विषय पर इसी अध्याय में आगे चल कर कुछ और प्रकाश डालेंगे। यहां तो केवल इतनी बात ग्रहण की जानी चाहिये कि पुष्प भूति का नाग राजा के साध युद्ध इस बात का परिचायक हो सकता है कि हर्ष के पूर्वजों के हाथों मथुरा तथा आस-पास के क्षेत्रों के नाग राजा पराजित हुये होंगे। हम गुप्त पूर्व काल से ही इन क्षेत्रों के टांक शासकों के बारे में यह जानते हैं कि वह नागों के उपासक थे।9 हमारे दृष्टिकोण में यह कथा इस बात की परिचायक है कि मध्य भारत में झांसी मालवा क्षेत्र से वर्धन उत्तर दिशा में मथुरा क्षेत्र तक फैल चुके थे। इस प्रसंग में हमे वरिक् कुल10 के विष्णु वर्धन का विजयगढ़ का शिला स्तम्भ एक महत्वपूर्ण अभिलेख के रूप में प्राप्त है। यह अभिलेख पूर्ववर्ती भरत पुर रियासत में स्थित बयाना के समीप सर्वप्रथम कारलायल द्वारा खोजा गया तथा ASI में प्रकाशित हुआ था।11 फ्लीट के अनुसार इस अभिलेख पर मुद्रित विवरण के अनुसार इसे एक योगी ने प्राप्य स्थान पर 951—952 ई. में ला कर रखा था। अतः यह स्तम्भ इस स्थल पर बाद में ला कर रखा गया था लेकिन यह मानना भी युक्ति संगत होगा कि इस स्तम्भ को किसी समीपी जगह से ही लाया गया होगा। सम्भवतः एक बार गिर जाने के बाद उसे पुनः 951 ई. में खड़ा किया गया होगा। इस का अनुमोदन इस बात से होता है कि स्तम्भ के शिखर पर एक शीर्ष था जो इस के गिरने से टूट गया होगा। लोहे के कील अब भी इस स्तम्भ के शिखर भाग पर लगे हुए हैं। इस सम्बन्ध में यह बात ध्यान में रखी जानी चाहिये कि शीर्ष चिन्हों (शेर आदि) के साथ ये प्रस्तर स्तम्भ अकबटाना, हखमनी एवं यूनानी वास्तु कला के विशिष्ट लक्षण हैं। भारत में इन का प्रचलन पाटलिपुत्र के मौर्यों द्वारा किया गया। इन का प्रचलन

7. Harsha Charita, p. 109 ff.
8. Devahuti, op. cit., p. 58.
9. B.C. Law, Historical Geography of India, p. 109.
10. No. 59, CII, Vol. III, p. 252 ff.
11. Vol. VI, p. 59 ff.

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कुशान काल में भी था।12 शीर्ष सहित विजयगढ़ का यह स्तम्भ मौर्य तथा कुशान कला के ही अनुरूप था।
इस अभिलेख पर वर्ष 428 दिया गया हुआ है। फ्लीट इसे विक्रमी सम्वत्‌ के रूप में लेते हैं हालांकि इस का कोई पुष्ट प्रमाण उन के पास नहीं है। इस में कोई संदेह नहीं है कि स्तम्भ पर शब्द गुप्त काल के हैं तथा इन में 'म' अक्षर भारतीय सिथियन शैली के रूप में विद्यमान है। इस से इस बात का संकेत मिलता है कि यह अभिलेख भारतीय सिथियन लोगों का है तथा हम ने यह तथ्य एक राजा के नाम से भी प्रमाणित कर दिया है जिस के विषय में स्पष्ट रूप में बताया गया है कि वह राजा वरिक कुल (आधुनिक काल के वरिक तथा विर्क जाट) से सम्बन्धित था। आम धारणा यह है कि ये भारतीय सिथियन लोग शक सम्वत्‌ का प्रयोग करते थे और इस की पुष्टि अनेक दृष्टांतों द्वारा भी होती है। यही सम्भावना फ्लीट (Fleet) के विचार में भी आई जिस ने इस सम्बन्ध में लिखा "यदि हम इस तिथि को शक सम्वत्‌ के अनुरूप देखते हैं तो यह काल 506/7 ई. ठहरता है और इस काल का प्रयोग इस विष्णु वर्धन का, इसी नाम के उस राजा के साथ तादात्म्य स्थापित करने के लिये किया जा सकता है जिस का उल्लेख शक सम्वत्‌ 598 अर्थात्‌ 532-33 की मंदसौर अभिलेख में किया गया है। इस समरूपता के विषय में संकोच का केवल एक ही आधार हो सकता है और वह यह कि मंदसौर अभिलेख का विष्णु वर्धन राजाधिराज की उपाधि से विभूषित था जबकि यह विरक राजा इतना शक्तिशाली दिखाई नहीं देता।"13 लेकिन हमें इस के साथ ही यह बात भी ध्यान में रखनी चाहिये कि पहले अभिलेख का काल 506 ई. है जबकि मंदसौर अभिलेख का काल 532 ई. है और इस में एक चौथाई शताब्दी अर्थात्‌ 25 वर्ष का अन्तर है। मंदसौर अभिलेख से यह स्पष्ट होता है कि विष्णु वर्धन इस काल में अभी-अभी ही शक्तिशाली बना था और वह भी अपने बल से। अतः यह नितान्त सम्भव है कि इस अन्तराल में वरिक कुल के विष्णु वर्धन ने आस-पास के क्षेत्रों को जीत लिया और वह राजाधिराज की उपाधि रखने वाला एक महान्‌ शासक बन गया हो।
विष्ण वर्धन वरिक तथा मंदसौर अभिलेख में वर्णित विष्णु वर्धन की समरूपता पर विचार करते हुये हमें यह भी ध्यान में रखना चाहिये कि इन दोनों के अपने नाम एक थे और इनके पिताओं के नाम भी एक समान थे। कुछ इतिहासकारों का यह मत कि यशोधर्मन अथवा यशोवर्धन, विष्णु वर्धन हो सकता है, ठोस आधार नहीं लिये है। यशोवर्धन मंदसौर अभिलेख से सम्बन्धित विष्णु वर्धन का पूर्ववर्ती शासक था। अतः यशोवर्धन तथा विष्णु वर्धन एक नहीं अपितु दो व्यक्ति हैं। एक ही काल में एक ही क्षेत्र में एक ही नाम के दो राजाओं जिन के निकटलम पूर्वजों के नाम भी एक समान थे, के

12. Kushana Studies in USSR, p. 173.
13. ibid., p. 253, Note I.

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विद्यमान होने की सम्भावना बहुत क्षीण है। इस के लिये चाहे कितना भी जोड़-तोड़ बैठा लें।
यह जानना भी महत्वपूर्ण है कि हम मंदसौर अभिलेख के विष्णु वर्धन का उल्लेख 532-33 ई. के बाद बिल्कुल नहीं पाते और न ही हम उस के उत्तराधिकारी के विषय में कोई उल्लेख पाते हैं। इस संदर्भ में विभिन्न सम्बन्ध स्थापित करने व अनुमान लगाने के प्रयास किये गये हैं। न हमें उन की कहीं पुष्टि मिलती है और न प्रमाण। उस काल की अस्थिर राजनीतिक स्थिति में यह तो सम्भव हो सकता है कि वह (विष्णु वर्धन) तत्कालीन गुप्त शासक अथवा उस के अधीनस्थ शक्तियों के हाथों पराजित हो गया हो, इस तरह उत्तर की ओर चले आने की विवशता हुई हो। यह भी ध्यान में रखना कम महत्वपूर्ण नहीं है कि पंजाब क्षेत्र में स्थित कई जाट यह दावा करते हैं कि वे मध्य भारत तथा पंजाब की दक्षिणी सीमाओं के पार के क्षेत्रों में मूल रूप में रहने वाले थे। पीछे की ओर मुड़ने की यह प्रक्रिया, धारण कुल के गुप्त सम्राटों के साम्राज्य के पतन के साथ शुरू हुई होगी। हम उड़ीसा तथा बंगाल में टांक राजाओं का केसरी राजाओं के हाथों पराजित होना भी पाते हैं। जाट भारत के दक्षिणी तथा पूर्वीय भागों में क्यों नहीं पाये जाते इस का स्पष्टीकरण केवल इस आधार पर ही दिया जा सकता है कि इन जाटों में से अधिकांश ऐसे थे जिन्होंने औपचारिक रूप में धर्म परिवर्तित होना स्वीकार नहीं किया। वे यमुना पार पश्चिम में अपने पुराने गढ़ों की ओर लौट आये। जो लोग वहां रह गये उन को औपचारिक रूप में परिवर्तित कर दिया गया और वे परवर्ती काल में राजपूत और क्षत्रिय कहलाए जाने लगे।
आइये अब हम इस बात पर विचार करें कि यदि विष्णु वर्धन वरिक का काल 506 ई. है तो उस का सम्बन्ध तत्कालीन विख्यात वंशों से कैसे स्थापित हो सकता है। एक पीढ़ी के लिये 25 वर्ष का समय सुनिश्चित करते हुये हम विष्णु वर्धन के चार पूर्वजों का काल निर्धारण इस तरह प्राप्त कर सकते हैं।

व्याघ्रराट
यशोराट
यशोवर्धन
विष्णु वर्धन
420 ई. के लगभग
455 ई. के लगभग
480 ई. के लगभग
506 ई. के लगभग

यहां हमें इस बात का भी ध्यान रखना चाहिये कि अन्य प्रमाणों के अतिरिक्त उपरोक्त वंशावली में पहले दो नाम जिन के अन्त में राट आया है, वे भारतीय नहीं हैं अपितु निश्चित रूप में मध्य एशिया मूल के हैं और उन का आंशिक रूप में भारतीयकरण हो चुका था। हमें यह भी ध्यान में रखना चाहिये कि विचाराधीन स्तम्भ अभिलेख का निर्माण पौण्ड्रिक यज्ञ के स्मारक के रूप में कराया गया था। यह यज्ञ पुत्र की उत्पति के अवसर पर आयोजित किया गया था। ऐसा लगता है कि 506 ई. तक विष्णु वर्धन को


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प्राप्ति नहीं हुई थी फिर उस की यह कामना पूरी हुई और नर वर्धन के रूप में 507 ई. में एक पुत्र ने जन्म लिया। इस प्रकार उस के कुल का विस्तार एक ओर हिमालय से ले कर महेन्द्रगिरि तक तथा दूसरी ओर लोहित्य से ले कर अरब सागर तक हुआ। विजयगढ़ स्तम्भ आलेख में वरिक राजा यह प्रार्थना कर रहा है, "सफलता हो, समृद्धि हो, शान्ति हो, पुत्र प्राप्ति हो, पुत्र दीर्घ आयु हो। सभी अभीष्ट मनोकामनायें पूर्ण हों।"14 ऐसा लगता है कि उस की सभी कामनाएं पूरी हुईं।
अब हम देवाहुति का एक उद्धरण प्रस्तुत करते हैं, "यदि हम 606 ई. में हर्ष के सिंहासन पर आसीन होने के समय से काल गणना आरम्भ करें और हर शासक के लिये 25 वर्ष तक का समय निश्चित करें तो हम नर वर्धन का शासन काल 505 ई. से 530 ई. के बीच मान सकते हैं और सम्भवतः उस के शासनकाल के उत्तरार्द्ध में उस के पुत्र राज्य वर्धन प्रथम ने 530 ई. से ले कर 555 ई. तक शासन किया होगा जबकि फिर उस के पुत्र आदित्य वर्धन ने 555 ई. से ले कर 580 ई. तक सत्ता संभाली होगी। यहां पर शासन काल की अवधियों तथा शासकों के नामों का एक समान होना इतना महत्वपूर्ण है कि इसे केवल संयोग मात्र ही नहीं माना जा सकता। दोनों ही वंशों के नामों के अन्त में वर्धन आता है और वरिक वंश का अन्तिम राजा (शासनकाल 506 ई. में हर्ष वंश के प्रथम राजा का निकटतम पूर्वज नरवर्धन बन जाता है, शासनकाल 504 ई. से 530 ई. तक) यह काल अनुक्रम हर्ष के ज्ञात जन्म काल 590 ई. से भी मेल खाता है।" इस प्रकार हम देखते हैं कि जितने भी प्राप्य प्रमाण हैं वे अपने सभी अंशों सहित एक स्पष्ट काल अनुक्रम के अनुरूप बैठते हैं। हम इस निष्कर्ष पर पहुंच सकते हैं कि हर्ष के पूर्वज उत्तर पश्चिमी मालवा झांसी क्षेत्र के वरिक शासक थे। हमें यहां यह भी याद रखना चाहिये कि इलाहाबाद व अन्य अभिलेखों में, व्याघ्रराज नाम के एक राजा का उल्लेख मिलता है।15 उन का काल अनुक्रम अभी विवादास्पद है। यह व्याघ्रराट 420 ई. से पूर्व हुआ होगा।

(1).उपरोक्त विचार विमर्श से यह स्पष्ट होता है कि थानेसर का वर्धन राजवंश वरिक कबीले के उन राजाओं से विस्तृत हुआ, जो पूर्ववर्ती काल में मंदसौर के शासक थे।
(2).इस विचार के समर्थन में हमें सोनीपत ताम्र मुद्रा अभिलेख का आलेख भी प्राप्त है, जिस के अनुसार हर्ष के तीन पूर्वज सूर्य के उपासक थे। हर्ष परिवार में सूर्य उपासना की यह परम्परा अपने आप में पूर्ण प्रमाण नहीं कही जा सकती क्योंकि भारत में रहने वाले कई मूल लोग भी तो सूर्य उपासक थे, किन्तु जैसा कि हम इस कृति में इस से पूर्व अन्यत्र यह दिखाने का प्रयास
14. Fleet, ibid.
15. S.R. Goyal, op. cit., p. 164, note 4.

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कर चुके हैं कि दोनों में अन्तर, सूर्य उपासना की विधि का है तथा सूर्य मूर्तियों के रूप आकारों का है। हर्ष कुल में सूर्य उपासना की विधि से सम्बन्धित हमें बाण भट्ट से बहुत ही महत्वपूर्ण जानकारी प्राप्त होती है। अपने पूर्वज विष्णु वर्धन वरिक की तरह प्रभाकर वर्धन भी प्रातः उषाकाल फिर मध्यान्ह तथा फिर सांध्य काल में संतान प्राप्ति के लिये विधिवत सूर्य देवता की पूजा किया करता था।16 इस में भी महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि प्रभाकर वर्धन प्रातः सूर्योदय के समय स्नान करता था फिर शुभ्र रेशम के वस्त्र धारण कर तथा सिर पर सफेद रंग का कपड़ा लपेट कर, वह पूर्व दिशा की ओर मुंह कर के घुटने के बल पृथ्वी पर झुक कर प्राचीन मस्सा ज़टों के समान सूर्य की वन्दना करता था।17 देवाहुति अन्य लेखकों की तरह (प्रभाकर वर्धन की) इस सूर्य उपासना विधि से अवश्य ही अचम्भित हुई होंगी। इसलिये वह यह कहने पर विवश भी हुई कि इस विचार विमर्श के परवर्ती अंश पर विदेशी प्रभाव, सम्भवतः ईरानी प्रभाव स्पष्ट रूप में दिखाई देता है।18 देवाहुति का इस परिणाम पर पहुंचना पूरी तरह उचित है कि यह प्रभाव विदेशी है तथा सम्भवतः ईरानी था, किन्तु वास्तविक निष्कर्ष तो यह है कि प्रभाकर वर्धन स्वयं भी मध्य एशिया के मूल का ही था जिस के पूर्वज कुशान काल के समय या इस से पूर्व भारत आये होंगे या उन्होंने मध्य एशिया के अपने पूर्वजों की सूर्य उपासना की विधि को निरन्तरता के साध अपनाए रखा होगा, यही कारण है कि सूर्य उपासना की उन की विधि भारतीय नहीं थी। सिर पर सफेद कपड़े का लपेटना, शरीर पर सफेद कपड़े को धारण करना तथा साफ भूमि पर घुटनों के बल झुक कर वन्दना की मुद्रा, विशिष्ट रूप में उत्तर ईरानी परम्परा के अनुसार है, यही मुद्रा आगे चल कर मुसलमानों की प्रार्थना का ढ़ंग भी बनी। केवल एक यही तथ्य इस परिणाम पर पहुंचने के लिये यथेष्ट है कि हर्ष का कुल मूल रूप से मध्य एशिया से था तथा वह जाट जाति से सम्बन्धित था। वे भारत के मूलवासी नहीं थे।
(3).इसी दिशा में एक अन्य महत्वपूर्ण संकेत स्वयं बाण द्वारा ही दिया गया है। हर्ष के जन्म का उल्लेख करते हुये बाण लिखता है कि नवजात हर्ष का भविष्य कैसा है, यह जानने के लिये प्रभाकर वर्धन ने ज्योतिषी से विचार विमर्श किया। जिस ज्योतिषी को बुलाया गया वह कोई भारतीय ब्राह्मण नहीं था अपितु वह मध्य एशियाई मूल का एक मग पुरोहित था। हमें इस प्रश्न का उत्तर देना होगा कि हर्ष का भविष्य जानने के लिए प्रभाकर वर्धन ने एक
16. HC {Harsha Charita} Text, p. 125; Devahuti, op. cit., p. 64.
17. ibid.
18. ibid.

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मग ज्योतिषी को ही क्यों बुलाया। इस का उत्तर स्पष्ट है कि उस ने ऐसा इसलिये किया क्योंकि उस की जाति में यह परम्परा अनादि काल से चली आ रही थी तथा प्रभाकर भी अपनी उस पुरातन परम्परा का ही पालन कर रहा था। भारतीय ब्राह्मणों में अभी उन का विश्वास स्थिर नहीं हो पाया था। क्या इसी तथ्य के कारण ब्राह्मणों द्वारा उकसाये जाने पर हर्ष की हत्या का प्रयास किया गया ? हम यह भी जानते है कि आगे चल कर हर्ष स्वयं भी बौद्ध धर्म का अनुयायी बन गया। स्वाभाविक ही है कि उस ने ब्राह्मण रूढ़िवाद द्वारा मानव समाज के निम्न, निम्नतर और उच्च एवं उच्चतर खेमों में विभाजन पर विचार किया होगा, तथा उसे अस्वीकार कर दिया होगा।
(4).हमारे इस मत के समर्थन में एक और महत्वपूर्ण प्रमाण प्रख्यात यद्यपि विवादास्पद औलीकर चिन्ह से प्राप्त होता है। अर्ध चन्द्राकार का यह चिन्ह जहां मंदसौर के यशोवर्धन के परिवार में पाया जाता है वहां हर्ष और मौखरियों के सिक्कों में भी पाया जाता है। इस अर्ध चन्द्राकार चिन्ह का इतिहास मध्य एशिया से जुड़ा हुआ है। कुशान कालीन एवं गुप्तकालीन सिक्कों में भी यह विद्यमान है। यह अर्ध चन्द्र चिन्ह भगवान शिव के भाल पर भी स्थिर रहता है, भगवान शिव, जोकि इन मध्य एशियाई लोगों के प्रिय देवता थे और निस्संदेह यह अर्ध चन्द्राकार चिन्ह अरब देशों के मुसलमानों का धार्मिक चिन्ह भी है। इस चिन्ह से, यदि प्रस्तावित मत उपस्थापन में सीधी सहायता नहीं मिलती, फिर भी इस के विपरीत संभावना को तो यह निरस्त करता ही है।19
(5).छोटे भाई के रूप में हर्ष के सिंहासन पर आसीन होने व बड़े भाई राज्य वर्धन की मृत्यु से पूर्व20 की परिस्थितियों की जानकारी हमें ह्यून-त्सांग द्वारा प्रस्तुत प्रमाण से भी उपलब्ध है। ह्यून-त्सांग के अनुसार हर्ष वैश्य वर्ग से था। गुप्त लोगों की तरह ही यहां वैश्य व्यवसाय अर्थात्‌ कृषि का बोध कराता है जोकि जाटों, जब वे युद्धरत नहीं होते थे, का परम्परागत व्यवसाय था। चीनी आलेख इस सम्बन्ध में केवल इतना ही कहते हैं कि हर्ष Fei-She कुल से था। कन्निंघम इस संकेत को राजपूतों के बैस (Bais) अथवा बैंस (Bains) के संदर्भ में ग्रहण किया। दोनों शब्दों में इस प्रकार का कोई वास्तविक सम्बन्ध हो सकता है; यद्यपि बैंस जाटों का एक महत्वपूर्ण कुल है और इन में से कई परवर्ती काल में राजपूत भी हो गये थे। जैसा कि गुप्त वंश से सम्बन्धित अध्याय में स्पष्ट किया जा चुका है। वैश्य शब्द यहां भी कृषकों के व्यवसाय
19. For details see Devahuti, op. cit., p. 241.
20. ibid., p. 70 ff.

पृष्ठ 212 समाप्त

की ओर ही इंगित करता है, जिस के प्रति ये लोग समर्पण भावना से सम्बद्ध थे। जैसा कि देवाहुति ने लिखा है कि व्यावसायिक रूप में ये लोग क्षत्रिय थे, किन्तु लेखिका इस से आगे नहीं जा पाती और वह कन्निंघम के मत को अस्वीकार कर देती है।21
(6).कुछ ऐसे भी सिक्के मिले हैं जिन के मुख भाग पर एक अश्वारोही की आकृति है और हर्ष देव का नाम अंकित है। इस सिक्के की पिछली ओर एक देवी की आकृति है जो एक सिंहासन पर आसीन है और उस के बाये हाथ में एक शृंग पकड़ा हुआ है।22 ए. एफ.आर. होर्नल (A.F.R. Hoernle) के अनुसार इन सिक्कों पर भाला पकड़े जो अश्वारोही है, वह राजपूतों का प्रतीक है और हर्ष भी राजपूत ही था।23 होर्नल केवल इस सीमा तक सही है क्योंकि बहुत से राजपूत और कोई नहीं अपितु गुज्जर तथा जाट ही हैं, किन्तु उन्हें उस समय राजपूत नहीं कहा जाता था क्योंकि राजपूत शब्द बाद में चल कर प्रचलित हुआ। किन्तु यहां महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि एक देवी को सिंहासन पर आसीन दिखाया गया है और उस के बायें हाथ में एक पूर्ण शृंग है। यह देवी निस्संदेह मध्य एशिया की देवी अर्दक्षो (Ardoxo) है और विशेष रूप से यह ईरानियों की देवी रही है तथा समृद्धि का पुरातन प्रतीक, पूर्ण शृंग, निश्चित रूप से अभारतीय कल्पना है। भारत में तो इस कल्पना के प्रतीक कल्पतरु वृक्ष तथा काम धेनु गाय हैं, जिन से सभी इच्छाओं की पूर्ति होती है। पुरातन ईरानियों अथवा सिथियाई अर्थात्‌ शक लोगों की इस भारतीय कल्पतरु के समानांतर कल्पना पूर्ण शृंग अर्थात्‌ समृद्धि का शृंग {है} जो उचित रूप में हर्ष के सिक्कों पर अपना स्थान सुनिश्चित किये हुये है।
(7).और अन्त में इस परिवार तथा कुल के वैवाहिक सम्बन्धों पर दृष्टिपात करते हैं। महासेना गुप्त का विवाह आदित्यवर्धन से हुआ और हम पहले ही स्पष्ट कर चुके हैं कि गुप्त कहे जाने वाले लोग धारण कुल के जाट थे। कल्हण के अनुसार हर्ष की मुख्य रानी (पटरानी) वसन्त लेखा काबुल के शाही राजवंश से सम्बन्धित थी और शाही भी एक जाट कुल है। प्रभाकर वर्धन की मुख्य रानी यशोमती के पितृ कुल का पता नहीं चलता किन्तु उस के एक भाई के पुत्र का नाम भण्डी के रूप में अवश्य मिलता है जोकि कुछ इतिहासकारों के अनुसार एक विदेशी व्यक्ति था। ह्यून-त्सांग{24} उस का
21. ibid., pp. 72, 109, 238.
22. A. Cunningham, Coins of Medieval India, Plate No. 5, No. 21, pp. 36-47 and 46.
23. JRAS, 1903, p. 547.
24. BRWW, Vol. I, p. 210.

पृष्ठ 213 समाप्त

नाम पोनी (Poni) के रूप में लिखता है। "कुछ इतिहासकार पोनी को भण्डी के रूप में ही देखते हैं जबकि कुछ अन्य उसे एक भिन्न व्यक्ति मानते हैं। यदि हम पोनी नाम ही लें तो यह नाम जाटों के पोनिया कुल का संकेत देता है। इस तरह भण्डी पोनिया कुल का जाट हो सकता है।
अतः हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि हर्षवर्धन एक वरिक जाट था, जो उत्तर भारत का अन्तिम महान्‌ राजा था। उस के वंश वृक्ष तथा काल को निम्न रूप में देखा जा सकता है।
व्याघ्रराट
यशोराट
यशोवर्धन
विष्णु वर्धन
420 ई. के लगभग
455 ई. के लगभग
480 ई. के लगभग
506 ई. के लगभग
राज्य, हर्ष, राज्य श्री
(जन्म 586, 590, 592 ई. क्रमशः)
(8).हम जानते हैं कि हर्ष के एक महत्वपूर्ण मंत्री का नाम भण्डी था जोकि रिश्ते में हर्षवर्धन की पत्नी का भाई था। भण्डी स्वयं में एक हूण नाम लगता है न कि एक संस्कृत नाम।25 होर्नल भी इस सम्बन्ध में कहता है कि भण्डी जिस का अर्थ मसखरा लिया जाता है, एक राज कुमार के लिये यह नाम अजीब-सा लगता है।26 होर्नल की गलती यह है कि वह भण्डी को एक भारतीय या संस्कृत नाम समझता है जबकि वास्तव में यह मध्य एशिया का है। यह नाम भी संघिल नाम के समान ही है जोकि गुप्तकालीन एक अभिलेख में अश्वपति के रूप में वर्णित है।27 इस संघिल ने अपने नाम को भारतीय रूप दे कर शंकर कर लिया और अश्वपति एक उपाधि है। संघिल का जन्म उस उत्तर क्षेत्र में हुआ था, "जो एक सर्वोत्तम देश, उत्तर कुरुओं की भूमि के समान है।" महाभारत के माध्यम से हमें पता चलता है कि उत्तर कुरु, मेरु पर्वत (पामिर पर्वत शृंखला) के उत्तर में स्थित थे।28 वह भण्डी राजकुमार भी
25. R.K. Mukerji, HC, p. 61.
26. JRAS, 1903, p. 560.
27. CII, Vol. III, p. 258.
28. Bhisma Parva, 7/2.

पृष्ठ 214 समाप्त

इस क्षेत्र से सम्बन्धित था और इस में आश्चर्य की कोई बात नहीं है कि ये रिश्ते में हर्ष की महारानी का भाई हो, क्योंकि हर्ष के अपने पूर्वज भी तो मूल रूप से उसी क्षेत्र से आये थे।29
(9).इस तरह यह पूर्ण रूप से स्पष्ट हो जाता है कि हर्ष मध्य एशिया के आप्रवासियों से सम्बन्धित था। इस में विचारणीय बात केवल इतनी है कि उस का सम्बन्ध बैंस कुल से था या कि वरिक कुल से। हर्ष का नाम श्रीमालपुर गांव से सम्बद्ध मिलता है। यह गांव थानेसर के वर्धनों का जन्म स्थान माना जाता है। यह गांव आज भी बैंस कुल के जाटों का गांव है। अब यदि वर्धनों की इस गांव श्रीमालपुर के साथ सम्बद्धता को सही मान लिया जाये तो हर्ष परिवार बैंस कुल के जाटों से सम्बन्धित होना चाहिये। इस प्रकार बैंस शब्द ह्युन-त्सांग द्वारा प्रयुक्त Fei-Shi ही है। दूसरी ओर यदि हर्ष को मंदसौर के वर्धन परिवार का वंशज जाये तो हर्ष वरिक कुल का जाट होना चाहिये जैसा कि हम पहले भी कह चुके हैं वरिक का बहुवचन रूप वरकन्न होता है। महाभाष्य में भी वरिक अथवा वारकन्य का उल्लेख मिलता है। मंदसौर नरेश विष्णु वर्धन जो यशोवर्धन अथवा यशोधर्मन, भी इसी कुल से सम्बन्धित था। 532-33 के मंदसौर अभिलेख में इस आशय का एक वाक्यांश भी है और वह वाक्यांश है - "वीर्या वरकन्न राज्ञः" जिस का अर्थ है वीर वरकन्नों (अथवा वरिकों) का राजा। विष्णु वर्धन के विजयगढ़ अभिलेख में भी यह दर्ज़ है कि राजा वरिक कुल का है। इतिहास गुरु खालसा के अनुसार गुरु गोविंद सिंह 1761 ई. में मालवा क्षेत्र के एक गांव दीना में ठहरे थे। उस समय भी मालवा के एक क्षेत्र पर वरिकों का शासन था। पातंजलि के महाभाष्य, पाणिनि तथा कशिका{वृत्ती} के अनुसार वरिकों के 12 मुख्य किले थे। जिन में साकल (स्पालकोट), वरिकगढ़ तथा दशपुर (मंदसौर) आदि किले प्रमुख थे। अतः यह पूर्ण रूप से स्पष्ट हो जाता है कि विजयगढ़ तथा मंदसौर अभिलेख में वर्णित विष्णु वर्धन एक ही व्यक्ति है और उस का सम्बन्ध जाटों के वरिक कुल से है।
(10).ए.सी.एल. कारलाइल विष्णु वर्धन को थानेसर के हर्षवर्धन के साथ सम्बद्ध करने के लिये उसे बैंस (Bains) मानते हैं।30 यह ठीक नहीं है। उस के विजयगढ़ अभिलेख का अनुवाद भी किया है जिस का अर्थ है, "उस के पुत्र जीवित रहे।" फ्लीट द्वारा इस वाक्यांश का अनुवाद इस प्रकार किया गया,
29. U. Thakur, op. cit., p. 203.
30. ASI, 1871-73, Vol. VI, p. 60.

पृष्ठ 215 समाप्त

"उसे एक पुत्र प्राप्त हो, जो दीर्घायु वाला हो।" यदि कारलाइल का अनुवाद सही है तो इस से यह पता चलता है कि 506 ई. में विष्णु वर्धन के कई पुत्र थे जिन की दीर्घ आयु की वह कामना कर रहा था और नर वर्धन उन में से एक हो सकता है और यह धारणा उस वंश वृक्ष के अनुकूल बैठती है जो हम ने ऊपर प्रस्तुत किया है।
(11).हम देख चुके हैं कि व्याघ्रराट मंदसौर के वरिक राजाओं का पूर्वज था। इस व्याघ्रदेव ने अपने दान से एक मंदिर भी बनवाया था।31 उस समय वह वाकाटक राजवंश के राजा पृथ्वी सेन के अधीन था तथा यह अभिलेख भी बुंदेलखण्ड के उसी क्षेत्र से पाया गया है। ऐसा कहा गया है कि समुद्रगुप्त ने यहां कांतार के व्याघ्रराज को पराजित किया था और इसी व्याघ्रराज को बुंदेलखण्ड का व्याघ्रदेव भी माना गया है।32 जिस प्रकार तथाकथित गुप्त सम्राटों के मंत्री तथा सेनापति विदेशी नामों वाले व्यक्ति थे (जैसे उनदान33 का पुत्र आम्रकदव, छगलस का पुत्र संकानिक महाराज34) इसी प्रकार यशोवर्धन/यशोवर्मन/यशोधर्मन भी विदेशियों को अपनी सेवाओं के लिये नियुक्त करता था, जैसे मालद, जिस का पिता मार्गपति (उदीची पति) तथा प्रतित तिकन (प्रख्यात तेगिन) ये सब नाम अभारतीय मध्य एशियाई नाम तथा उपाधियां हैं।35 जब मन्त्री तथा जनरल तक विदेशी हो सकते हैं तो उन के राजा विदेशी क्यों नहीं हो सकते ? ऐसा ही मुगल काल तक होता रहा है।
(12).बाण कृत हर्ष चरित में कहा गया है कि प्रभाकर वर्धन की मृत्यु होने के बाद उस के अवशेषों पर ईंटों या पत्थर का एक बड़ा चबूतरा बनाया गया था। यह प्रथा मध्य एशियाई जाटों की विशिष्ट प्रथा है और मल्लोई (मल्ली जाटों) के प्रसंग में मैगस्थनीज़ ने भी इस का उल्लेख किया है। पूर्वजों की इन स्मारक समाधियों को "जठेर" कहा जाता है तथा इन की पूजा आज भी होती है (इस का विवरण मल्ली कुल के अन्तर्गत भी देखें।)

निष्कर्ष

अतः हम इस परिणाम पर पहुंच सकते हैं कि हर्षवर्धन का परिवार मूल रूप से भारतीय नहीं था। जैसा कि हर्षवर्धन के तीन पूर्वजों की सूर्य उपासना की विधि एवं

31. CII, Vol. III, S. No. 54.
32. ABORI, 1924, Vol. V, pp. 31-34.
33. CII, Vol. III, No. 5.
34. ibid., No. 2.
35. EI, Vol. XX, p. 37 ff.

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अन्य साक्ष्यों, जिन का उल्लेख किया जा चुका है, से प्रमाणित होता है कि हर्षवर्धन के पूर्वज मध्य एशिया से आये थे। यह बात हर्ष के सिक्कों पर पाये जाने वाले अर्ध चन्द्राकार प्रतीक चिन्ह से भी स्पष्ट होती है क्योंकि यह मध्य एशियाई है। यही चिन्ह महाक्षत्रप चस्टन के सिक्कों पर {भी} पाया जाता है।36 यह भी उल्लेखनीय है कि वे सब राजवंश जिन के सिक्कों पर अर्ध चन्द्राकार का चिन्ह है, वे सब जाट कुलों से ही सम्बन्धित पाये गये हैं। सम्भवतः मौखरी भी जाट कुल ही हो तथा इन्हें आजकल मौखर/मोखल (अशोक काल के मोखली) कहा जाता है। रोहतक ज़िले में एक महत्वपूर्ण गांव का नाम मोखरा है तथा ऐसा लगता है कि यह गांव मोखरियों से सम्बन्धित रहा हो। अतः हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि हर्षवर्धन वरिक कुल से था न कि कन्निंघम तथा कारलाइल के मतानुसार बैंस कुल से। इस मत के विरोध में दो मुख्य कारण हैं। एक तो समस्त उत्तरी भारत का नाम बैंसवाड़ा होना। यह तभी सम्भव है जब हर्ष का वंश बैंस हो। वरना हर्ष के राज्य का नाम बैंसवाड़ा कैसे पड़ सकता था? और यदि हर्ष का सम्बन्ध बैंस कुल से था तो वह मंदसौर के वरिक कुल से नहीं हो सकता। हर्ष का श्रीमालपुर जो आज भी बैंस जाटों का गांव है, से सम्बन्ध भी उसे बैंस कुल से जोड़ता है। अतः कन्निंघम तथा कारलाइल का मत ठीक लगता है।
दूसरी बात यह है कि बैंस लोग अति प्राचीन काल से ही भारत में हैं और आर्यों की मुख्य शाखाओं के साथ ऋग्वेद काल में भारत आ चुके थे। ऐसा इस लिये है कि ऋग्वेद में इन्द्र का सम्बन्ध एक बैंस नामक व्यक्ति अथवा कुल से किया गया है। किन्तु मध्य एशिया मूल की धारणा को इस से आंच नहीं आती क्योंकि बैंस कुल के बहुत लोग पश्चिम एशिया और यूरोप में भी इस्वीं सन से हज़ारों वर्ष पहले पहुंच चुके थे। पश्चिम एशिया के वान झील पर स्थापित साम्राज्य में बैंस, मंड, नारा आदि जाट कुल थे और यह साम्राज्य इस्वीं पूर्व 700 में स्थापित हो चुका था। वहां पर इन लोगों को Bains कहा जाता था। यूरोप में इन को Baynce या Vance भी कहते हैं। अतः बैंस कुल का कुछ भाग ऋग्वेद काल में ही भारत आ चुका था और सूर्य पूजा की अपनी प्राचीन विधि को हर्षवर्धन काल तक बनाये रखा। घुटने टेक कर पूजा/उपासना करना ऋग्वेद में भी, पांच जाटों (पंचजाताः) की थी, जो सरस्वती नदी पर बसे थे। अधिक जानकारी के लिये देखिये लेखक की शोध पुस्तक, "The Aryan Tribes and Rigveda — A Search for Identity. (in Press)"

36. Majumdar & Pusalkar, op. cit. p. 183.

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अरब विजय के समय सिंध

भारतीय इतिहास के इस काल का हम कुछ संक्षिप्त उल्लेख पहले ही कर चुके हैं और यह कह चुके हैं कि सिंध के शासक परिवार को किस तरह छल-कपट के बल पर खत्म किया गया। अब हम उस काल की कुछ घटनाओं की सविस्तार चर्चा करेंगे ताकि यह दिखाया जा सके कि यह सब कैसे हुआ। विभिन्न जाट कुल पहले चच के विरुद्ध और फिर अरबों के विरुद्ध कैसे लड़े, किस तरह जाट कुलों के साथ अमानवीय व्यवहार कर के उन लोगों की वफादारियों को रौंदा गया। इन घटनाओं से सम्बन्धित सभी विवरण हम इलियट तथा डासन द्वारा लिखित इतिहास से ले रहे हैं। चचनामा तथा तारीख-ए-सिंध में सिंध के प्रथम शासक का नाम दिवैज दिया गया है। दिवैज के पुत्र का नाम राय सिहरस था तथा सिहरस के पुत्र का नाम राय साहसी था। वे रायवंश के राजा थे। जैसा कि सर्व विदित है कि राय जाटों का एक कुल है तथा इस राजवंश का नाम एक उपाधि पर पड़ा। राय का अर्थ राजा है। मुसलमान इतिहासकारों ने इन्हें शाही की उपाधि दी। पर्सीसाइकस (Percisykes) के अनुसार राय कुल ईरान में भी एक महत्वपूर्ण कुल था।37
राय दिवैज एक शक्तिशाली राजा था, जिस के शासन की सीमाएं पूर्व में कश्मीर तथा कन्नौज राज्यों, पश्चिम में अरब सागर, दक्षिण में सौराष्ट्र तथा उत्तर में कांधार सिस्तान और सुलेमान की पहाड़ियों तक फैली हुई थी। उस ने हिन्द (हिन्दुस्तान) के बहुत से शासकों के साथ संधियां कर रखी थीं। उसके समस्त राज्य में व्यापारियों के कारवां पूर्ण सुरक्षा में यात्रा करते थे।
उस के पुत्र का नाम राय सिहरस था जो अपने पिता के पद चिन्हों पर चला तथा अपने लम्बे शासनकाल में इसी स्थिति को बनाए रखा। उस का पुत्र राय साहसी था जिस ने अपने पूर्वजों की परम्पराओं का अनुकरण किया तथा अपनी सभी इच्छाओं की पूर्ति की। उस के पुत्र का नाम राय सिहरस द्वितीय था जिस के शासन काल में ईरान के राजा निमरोज ने सिंध पर आक्रमण किया। सिहरस द्वितीय बड़ी बहादुरी से लड़ा और युद्ध में वीर गति को प्राप्त हुआ। सिहरस द्वितीय की सेना ने तत्काल इकट्ठे हो कर उस के पुत्र साहसी द्वितीय को सिंहासन पर बैठाया। साहसी द्वितीय इस राजवंश का सब से महत्वपूर्ण राजा सिद्ध हुआ। उस ने बहुत ही थोड़े समय में युद्ध में क्षत-विक्षत अपने देश को पुनः स्थिरता प्रदान की तथा देश की सुरक्षा के लिये उस ने इस शर्त पर अपनी प्रजा के सभी कर माफ कर दिये कि वह उस के छः किलों की मुरम्मत के लिये मिट्टी जुटाने की जिम्मेदारी लेगी।38 पृथ्वी पर उस के न्याय की धाक थी और उस की उदारता विश्व विख्यात थी। इस प्रकार सारा देश पूर्णरूप से सुरक्षित था तथा लोग उस

37. A History of Persia, Vol. I, p. 226 note.
38. ibid., p. 405-406.

पृष्ठ 218 समाप्त

के न्यायपूर्ण एवं अपक्षपाती शासन में प्रसन्नतापूर्वक जीवन-यापन करते थे।39 उस के शासन के किलों के नाम इस प्रकार हैं :— देबल, निरून, लोहान, लाखा तथा सम्मा। इन सभी किलों के नाम कुलों के नाम पर आधारित हैं। जैसे - देवल, निरैन, लोहान, लाखा तथा समरा ये सब जाटों के कुल नाम ही हैं।

ब्राह्मण मतावलम्बी चच का प्रवेश

इस तरह राय परिवार लगभग 137 वर्ष तक शासन कर चुका था जब सिलैजा का पुत्र चच प्रवेश करता है। वह राज्य के प्रबन्धक, राम के पास जाता है, उस से सुरक्षा तथा नौकरी की मांग करता है। राजा साहसी राय द्वितीय से विचार विमर्श के उपरान्त उसे संरक्षण भी प्राप्त होता है तथा नौकरी भी। चच के षड्यन्त्र का प्रथम शिकार, राज्य प्रबन्धक राम ही बनता है और चच राज्य प्रबन्धक का महत्वपूर्ण पद प्राप्त कर लेता है। इसी के साथ छल-कपट धोखाधड़ी विश्वासघात तथा दोहरी चालों का सिलसिला शुरू हो जाता है राज्य प्रबन्धक के पद पर पहुंच कर चच, साहसी राय की पत्नी को अपने वश में कर लेता है और फिर साहसी राय का वध कर के उस की विधवा पत्नी से विवाह भी करता है तथा अलोर राजधानी में राजा बन जाता है।40
किन्तु राज्य के अन्य मुखियों तथा दुर्ग पतियों के लिये यह सब असहनीय सिद्ध हो रहा था तथा यह सब एक के बाद एक विद्रोह करने लगे। तोरमान की विख्यात राजधानी, पबिया41 के राज्यपाल छत्र का वध एक गुप्तचर द्वारा करवाया गया जिसे इसी काम के लिये चच ने भेजा था। इस के बाद सिक्का तथा मुलतान की बारी आई क्योंकि इन का शासक बझरा साहसी राय का सम्बन्धी था। चच ने व्यास नदी पर तीन मास तक डेरा डाले रखा, फिर उस ने अवसर पा कर नदी पार की और सिक्का में युद्ध किया। सिक्का का राज्यपाल (गवर्नर) सूहेवल (सोवल वंशी) मुलतान किले में पलट गया तथा इस तरह चच ने सिक्का पर अधिकार कर लिया। बझरा ने कश्मीर के शासक को चच ब्राह्मण के विरुद्ध युद्ध सहायता भेजने के लिये पत्र लिखे किन्तु स्थानीय कठिनाइयों के कारण वहां से कोई सहायता उपलब्ध नहीं हो सकी और अन्ततः बझरा अपनी सेना तथा लोगों के साथ कश्मीर की पहाड़ियों की ओर पीछे हट गया। इस तरह चच मुलतान का भी शासक बन गया। इस के उपरान्त सिविस्तान के शासक मट्टा पर आक्रमण किया जाना था। मट्टा को भट्टी राजा के पास भागने के लिये विवश कर दिया गया। उस समय ब्राह्मणवाद का शासक अखम लोहान था। उस ने इससे पूर्व मट्टा की सहायता करने का प्रयास किया था लेकिन वह असफल रहा था। चच ने अखम

39. ibid., p. 139.
40. See Note I at the end of this section.
41. See Note II at the end of this section.

पृष्ठ 219 समाप्त

लोहान को पत्र भेजा जिस में उस ने लोहान को सम्बोधित करते हुए लिखा, "तुम अपनी शक्ति, वैभव एवं वंश के बल पर स्वयं को समय का शासक समझते हो.... यद्यपि तुम यह भी सोचते हो कि तुम ने अपने साहस तथा निर्भीकता से अपने फुर्तीलेपन तथा शान से, इस सारी शक्ति तथा सत्ता को प्राप्त किया है तुम को इन सब से वंचित होना ही पड़ेगा और तुम्हारी जान लेना न्यायोचित होगा।"42 इस के बाद दोनों में युद्ध लड़ा गया जिस में दोनों पक्षों के योद्धा बड़ी संख्या में मारे गये। अखम लोहान की सेना को एक दुर्ग में शरण लेनी पड़ी। चच ने एक वर्ष तक इस दुर्ग का घेरा डाले रखा जिस के परिणामस्वरूप लोहानचच में एक संधि हुई। चच ने इस संधि के तहत अपने भतीजे की पुत्री धरसिया बाई का विवाह अखम के पुत्र के साथ कर दिया। अतः इस वैवाहिक सम्बन्ध के बल पर ब्राह्मणवाद में भी चच ने अपनी स्थिति सुनिश्चित कर ली। इस वैवाहिक सम्बन्ध पर आधारित मैत्री का भी पालन नहीं किया गया और चच के भाई चन्द्र के राज्य काल में, ब्राह्मणवाद पर उस के पुत्र, राज ने अधिकार कर लिया।
अपनी स्थिति को और अधिक सुदृढ़ करने के लिये चच के पुत्र धरसिंह ने भट्टी राजा रमल के साथ वैवाहिक मैत्री सम्बन्ध स्थापित करने चाहे तथा उस ने अपनी बहिन, बाई को, अपने छोटे भाई दाहिर के पास भेजा ताकि उस का विवाह रमल भट्टी के साथ हो जाए। ऐसा कहा जाता है कि दाहिर को एक ज्योतिषी ने यह बताया था कि बाई का पति एक महान्‌ शासक होगा इसलिये दाहिर ने बाई के साथ स्वयं ही विवाह कर लिया। यह एक ऐसी घटना थी जिस की कल्पना तक नहीं की जा सकती और कम-से-कम भारतीय इतिहास में तो बिल्कुल ही नहीं। किन्तु इस घटना की सत्यता पर केवल इस आधार पर संदेह किया जा सकता है क्योंकि दाहिर स्वयं एक ब्राह्मण था। इतना होने पर भी उस ने अपने एक सम्बन्धी का विवाह लोहान कुल के एक जाट अखम लोहान के पुत्र सरबन्द से कर दिया था। वह अपनी एक बहिन का विवाह एक जाट शासक भट्टी से करने पर भी विचार कर रहा था।
इस तरह अपनी स्थिति सुदृढ़ कर लेने के बाद दाहिर के अधीन आतंक का राज्य आरम्भ हो गया। उसने जाट शासकों को अपमानित करना शुरू कर दिया तथा इन शासकों में से कइयों को बन्धक बना कर ब्राह्मणवाद के किले में बन्द कर रखा। उस ने निम्नलिखिल अन्य शर्तें भी रखीं - जैसे उन्हें शाल, मखमल अथवा रेशम के अन्तरीय वस्त्र नहीं पहनने होंगे ; ऊपर ओढ़ने वाले वस्त्र विशेष रंगों जैसे लाल अथवा काले रंग के होंगे ; उन्हें अपने घोड़ों पर काठी रखने की अनुमति नहीं है ; वे सिरवस्त्र तथा जूते भी नहीं पहन सकते ; उन्हें यह आदेश भी दिया गया कि वे "ब्राह्मण" शासकों के रसोई घरों के लिये ईंधन ले कर जाएंगे और जब भी वे बाहर जाएं, अपने कुत्ते साथ ले कर जाएं। जब भी आवश्यकता होगी उन्हें मार्ग दर्शक एवं गुप्तचर भी जुटाने होंगे।

42. HIOH, Vol. I, p. 46.

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उस समय यही स्थिति थी जब रमल भट्टी के सरदारों ने इन अपमानों को और अधिक सहन न करते हुए बुद्धिया43 तथा शबर के किलों पर धावा बोल कर उन्हें अपने अधिकार में ले लिया। इस के बाद अलोर44 की ओर बढ़े। मुहम्मद अल्लाफी के नेतृत्व में अरबों ने दाहिर की सहायता की और इस आक्रमण को पछाड़ दिया। इस घटना के पश्चात अरबों का प्रमुख आक्रमण शुरू हुआ अतः इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है कि जाटों ने विशेष रूप में पश्चिमी सीमा के जाटों ने दाहिर के विरुद्ध अरबों का साथ दिया। सिवीस्तान के बौद्ध शासकों ने मुहम्मद बिन कासिम के साथ शान्ति संधि कर ली तथा दाहिर को पराजित कर दिया। उस समय उन का शासक काक था जो कोतल का पुत्र तथा भण्डारगू भण्गु का पौत्र था। यह परिवार भण्गु जाटों के कुल से था। कासिम ने तब काक से पूछा, "ओ हिन्द के मुखिया ! किसी को सम्मानित करने की आप की रीति क्या है ?" काक ने उत्तर दिया "हमारे यहां बैठने के लिये यथोचित स्थान दे कर, रेशम का वस्त्र तथा सिर पर पगड़ी बांध कर सम्मानित किया जाता है। किसी को सम्मानित करने की यह परम्परा हमारे पूर्वज जाट समनियों की है।" (यहां प्रयुक्त शब्द समानी का अर्थ बौद्ध अनुयायी है, जिस से पता चलता है कि उस समय जाट बौद्ध धर्म अपना चुके थे।) एक अन्य जाट बानना जो हंजल का पुत्र था वह भी कासिम के पक्ष में आ मिला। बिशिया के पुत्र मोक के नेतृत्व में तक्कर जाट भी। मुहम्मद बिन कासिम इन लोगों के साथ बड़े ही दयापूर्ण एवं सम्मानजनक ढंग से मिला। मोक को उस ने एक भव्य छत्र, जिस पर मोर चित्रित था एक आसन तथा सम्मान की सूचक एक शाल भेंट के रूप में दी। कासिम ने उस के साथ आये सभी तककर जाटों को काठियों से सज्जित घोड़े तथा वस्त्र उपहार के रूप में दिये। इतिहासकारों के अनुसार राणगी का प्रतीक छत्र प्रथम बार मोक को प्रदान किया गया था।45 यहां यह बात ध्यान में रखी जानी चाहिये कि राय के समान राणा भी एक पदवी है जिस का अर्थ मुखिया, सरदार अथवा राजा होता है। यहां यह भी ध्यान में रखा जाना चाहिये कि कासिम द्वारा तक्कर जाटों को पूर्ण सम्मान के साथ काठी वाले घोड़े दिये गये। यह ब्राह्मण शासकों द्वारा इन लोगों के साथ अपमानजनक व्यवहार का प्रतिकार करने के लिये किया गया, क्योंकि इन ब्राह्मण शासकों का उक्त व्यवहार मानवीय प्रकृति एवं भावनाओं तथा भारतीय ग्रंथों में राजाओं के कर्तव्य की पूर्ण अवहेलना थी।
इस के बाद तो दाहिर तथा उस के सम्बन्धियों की हार का एक लम्बा सिलसिला चला। यह पराजय इस तथ्य के बावजूद हुई कि उस की सेना जिस में अधिकांश जाट तथा मेड़ थे, बड़ी बहादुरी से लड़ी थी। कुछ मेड़ मुहम्मद बिन कासिम के पक्ष में भी चले

43. See Note II at the end of this section.
44. See Note I at the end of this section.
45. HIOH, Vol. I, p. 165.

पृष्ठ 221 समाप्त

गये हो। यह धर्म परिवर्तन भी उस को उस अन्त से न बचा सका, जो उसे देखना पड़ा। दाहिर की रानी लाडी, उस की दो पुत्रियों के साथ बंदी बना ली गई 1000 ब्राह्मणों ने लाडी के साथ विश्वासघात किया और वे अपने सिर एवं दाढ़ियां मुंड़वा कर मुहम्मद बिन कासिम के समक्ष उपस्थित हुए।
अन्त में एक स्पष्टीकरण देना आवश्यक है। चचनामा में चच को ब्राह्मण लिखा है ठीक ऐसे ही जैसे काबुल के लल्लिय शाही को भी ब्राह्मण लिखा है। यहां पर ब्राह्मण का अर्थ ब्राह्मण जाति के व्यक्ति से नहीं है वरन एक ऐसे क्षत्रिय (जाट) व्यक्ति/वंश से है जो ब्राह्मणों द्वारा "शुद्ध" हो कर धर्म परिवर्तन कर चुका था। यह काल सातवीं/आठवीं शती का है, जब ब्राह्मण धर्म का येन-केन प्रकारेण बौद्धों को नष्ट कर के पुनरुत्थान किया जा रहा था। इसी काल में अन्तिम सम्राट हर्षवर्धन की ब्राह्मणों द्वारा हत्या के प्रयास हुए और हर्ष की मृत्यु के पश्चात, उस के एक मन्त्री अर्जुन को ब्राह्मणों ने बरगला कर चीनी यात्री ह्यून-त्सांग पर आक्रमण करवा दिया और उस का सारा सामान लूट लिया। नेपाल और तिब्बत से सेना लेकर चीनी यात्री पुनः भारत आया और गंगा नदी पर हुए युद्ध में अर्जुन को हराया।
पुनः इसी काल में शंकराचार्य हुए और शंकर देग्विजय नामक ग्रन्थ में {लिखा है} नये-नये "शुद्ध" किये राजाओं द्वारा यह आदेश जारी किया गया "कि हिमालय से लेकर कन्या कुमारी तक बालक अथवा वृद्ध जो बौद्ध हैं उनको मार दो। जो व्यक्ति बौद्धों को नहीं मारता उस को भी मार दो, यह राजाज्ञा है।"
इसी काल में आबू पर्वत पर यज्ञ हुआ और अग्नि यज्ञ में चार जाट वंशों के राजाओं को "शुद्ध" कर के "राज पुत्र" बनाया गया। यह वंश थे चालुक्य, चौहान, परमार और परहार (पतिहार)। यहीं अग्नि कुल कहलाने वाले राजपूत नामक क्षत्रिय संगठन के आदि पुरुष बने और इन का घोषित कर्तव्य था बौद्धों को जीतना "जित्वा बौद्धानः" जैसा कि पुराणों में लिखा है। इन ब्राह्मण धर्म राजाओं को "ब्रह्म-क्षात्र" अथवा ब्राह्मण क्षत्रिय कहा गया क्योंकि इस से पूर्व के सभी क्षत्रिय बौद्ध थे। चित्तौड़ का राज्य ऐसे ही बप्पा नामक ब्रह्म-क्षात्र ने अपने नाना मौर्य वंशी राजा मान को मार कर प्राप्त किया और क्योंकि बप्पा रावल गहलोत वंश से था, इस नये वंश का नाम गहलोत/गुहिलोत पड़ा।
चच भी इसी मेवाड़ राज्य से गया हुआ एक ब्रह्म-क्षात्र था और मुस्लिम इतिहासकारों ने उसे ब्राह्मण इसलिये लिखा क्योंकि वह ब्राह्मण धर्मावलम्बी था, बौद्ध नहीं था। चच अथवा चचरा जाटों का ही एक वंश है और इसीलिये चच को एक विधवा से विवाह करने पर कोई आपत्ति नहीं थी, न ही उसे आपत्ति थी अपनी बहन तथा पुत्रियों का विवाह जाट गवर्नरों (सिंध) के घर में करने पर। दाहिर भी चच का कोई रिश्तेदार हो सकता


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है, पुत्र अथवा भाई नहीं क्योंकि दाहिर भी एक स्वतन्त्र वंश है — जाटों का। अतः राय, सौवल, मट्ट, लेहान, भट्टी, भंगू आदि सभी जाट वंश के थे।
यहां इस बात का भी उल्लेख किया जाना चाहिये कि मुहम्मद बिन कासिम सच्चे अर्थों में एक अरब था, वह अपने जातिगत धार्मिक उत्साह से ओत-प्रोत था, शाही इस के साथ वह एक निर्भीक एवं साहसी नवयुवक भी था जो मानवीय भावनाओं के प्रति भी संदेवनशील था। उस ने किसी धार्मिक स्थल को नहीं तोड़ा। उस के यह स्पष्ट आदेश थे कि जो समर्पण करने के बाद, कर देने पर सहमत हो, उन्हें कुछ और देने के लिये नहीं कहा जा सकता। वे हमारे संरक्षण में आ गये हैं ; अतः अब हम उन के जीवन तथा सम्पति पर हाथ नहीं डाल सकते। उन्हें उन के देवताओं की पूजा करने की अनुमति दी जाती है। किसी को भी अपने धर्म के अनुसार आचरण करने से रोका न जाए। वे अपने घरों में अपनी इच्छानुसार जीवन-यापन कर सकते हैं।46 जहां तक कार्यों का प्रश्न है मुहम्मद बिन कासिम ने अपने अधिकारियों को ये आदेश दे रखे थे कि "देने वाले के सामर्थ्य के अनुसार लगान निश्चित करो। आपस में सहयोग भावना के साथ रहो। एक दूसरे का विरोध न करो ताकि देशवासियों को कष्ट न हो।"
ये सब आदेश एक शासक के कर्तव्यों की सुन्दर झलक प्रस्तुत करते हैं यदि चच वंश के शासकों ने इन आदर्श नियमों का पालन किया होता तो सम्भवतः भारत का इतिहास कुछ भिन्न ही होता। चचनामा47 के अनुसार 636 ई. (15-16 हिजरी) में मुघैर के नेतृत्व में समुद्र के रास्ते भारत पर आक्रमण किया गया। किन्तु वह पराजित रहा तथा इस युद्ध में मारा गया। इस पराजय के बाद खलीफा उमर ने यह आदेश दिये कि भारत पर किसी भी रूप में आक्रमण न किया जाए क्योंकि उसे इस नौ-सैनिक अभियान का भयावह अनुभव हुआ था। इस के बाद एक और सैनिक अभियान भी किया गया, यह अभियान कैकनी अथवा किकन के विरुद्ध था। इस अभियान को भी इसी तरह पराजय का मुंह देखना पड़ा और अरब सेना को मक्रान की और पीछे हटना पड़ा। इन किकनों को तुर्क तथा जाट भी कहा गया है। तुर्क तथा जाट इन दोनों शब्दों का एक ही अर्थ लिया जाना चाहिए क्योंकि तुर तथा तुर्क जाटों के ही कुल थे। कुछ वर्ष पश्चात मेड़ों (अथवा मेरों) पर एक बार फिर आक्रमण किया गया। इस बार अरब सेना का नेतृत्व रशीद बिन अमरू कर रहा था, जो इस युद्ध में मेरों के हाथों मारा गया।48 रशीद के बाद अरब का राज्यपाल सिनान सत्तारूढ़ हुआ उस ने भी केकनों अथवा किकनों पर आक्रमण किया। किकन भी एक जाट वंश ही है सिनान भी बुद्ध के स्थान पर किकनों के हाथों मारा गया।49 आठवीं शताब्दी के पहले दशक में खलीफा बालिद (प्रथम) 705-

46. ibid., Vol. I, p. 186.
47. ibid., Vol. I, p. 416.
48. ibid., p. 425.
49. See Note III at the end of this section.

पृष्ठ 223 समाप्त

715 ई. के शासन काल में सिंध पर दो बार आक्रमण हुए। पहला आक्रमण अब्दुल्ल बिन नभन के नेतृत्व में देवल पर हुआ। नभन भी पराजित हुआ और मारा गया। दूसरा आक्रमण बुदेल ने मुहम्मद हारून तथा अन्य लोगों की मदद के साथ किया। इस युद्ध में बुदेल बहादुरी से लड़ते हुए युद्ध भूमि में अपने घोड़े पर से गिर गया। शत्रुओं में घिर जाने के कारण वह मारा गया, तथा कई मुसलमान बंदी बना लिये गये।50 यही वीर जाटों की परम्परा थी जिसने शताब्दियों तक भारत को सुरक्षित रखा।
इन निरन्तर पराजयों के पश्चात मुहम्मद बिन कासिम के हमले आरम्भ हुए तथा जहां अन्य लोग असफल रहे वह सफल सिद्ध हुआ और उस की सफलता में स्थानीय जनता बौद्धों, जाटों एवं मेरों का योगदान उल्लेखनीय रहा। यदि दमन अत्यधिक हो तो उस से विद्रोह पनपता है तथा अनिष्ठा जन्म लेती है।
हम आगे चल कर यह देखते हैं कि इस विजेता की प्रथम विजय के बाद अरब लोग भी अपनी मित्र शक्तियों की सद्भावना बनाए रखने के प्रति उदासीन हो गये। उन्होंने भी जाटों पर वही शर्तें थोपनी शुरू कर दीं जो इस से पूर्व ब्राह्मण शासकों द्वारा थोपी जाती रही थी।51 इस का परिणाम भी वही हुआ जब यह अपमान असहनीय हो गया तो जाटों के एक कुल सुमरा अथवा समरा ने मुसलमानों को खदेड़ कर अपने राज्य पुनः स्थापित कर लिये। यह समरा कुल आज भी विद्यमान है तथा "आइन-ए-अकबरी" के अनुसार,52 समरा कुल के 36 राजा 500 वर्षों तक निरन्तर शासन करते रहे हैं। फिर जाटों के एक अन्य कुल, सम्मा ने इन के राज्य को अपने अधिकार में ले लिया। एक अन्य इतिहास सूत्र इस काल को 550 वर्ष बताता है।53 सम्मा लोग आरम्भ में अब्बासी खलीफे के साधारण सामंत थे और उन्हें अपने आंतरिक मामलों में पूर्ण स्वतन्त्रता प्राप्त थी। 1351 ई. में सम्मा सत्ता में आ गए और इस तरह समरा जाटों के शासन का अन्त हुआ किन्तु 1521 ई. में सम्मों को भी सत्ता विहीन कर दिया गया। सम्म शासक जाम की उपाधि धारण करते थे। परवर्ती काल में सम्म और समरा कुल के कई लोग मुसलमान बन गये। राजपूतों की भांति ही उनकी वंशावली भी गढ़ ली गई और उन को हजरत मुहम्मद साहब तथा अरब के अन्य उच्च कुलों के साथ वंशगत रूप में सम्बन्धित दिखाया जाने लगा। किन्तु तारीख-ए-तहीरी उन्हें स्पष्ट रूप से हिन्दू कहती है।
इन समरा लोगों की पहचान को लेकर कुछ विवाद पैदा हुआ है। क्योंकि वह परवर्ती काल में मुसलमान बन गये थे। अतः उन्हें कई बार अरब मूल के कह दिया जाता है। यह

50. ibid., {HIOH} Vol. I, p. 432.
51. ibid., p. 435.
52. ibid., Vol. II, p. 120.
53. ibid., p. 485.

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बात पूर्णरूप से निरर्थक एवं हास्यास्पद है। उन के अधिकांश राजाओं के नाम निश्चित रूप से हिन्दू हैं। उन के एक प्रख्यात राजा का नाम दलू राय अथवा देव राय था। 694 हिज़री में दुदा की मृत्यु के पश्चात, सिंहासन के दो दावेदारी के नामों का उल्लेख मिलता है और उन के नाम हैं खीरमल तथा उरकमलएलफिन्सटन के विचार में वे राजपूत थे, किन्तु राजपूत नाम तब तक कहीं सुना ही नहीं गया था। हां, बाद में चल कर सुमरा कुल के कुछ लोगों ने राजपूत पदवी पाने का दावा अवश्य किया। लेकिन उन में से अधिकांश जाट ही रहे जो वे मूल रूप में थे। आज भी यह लोग जैसलमेर के मरुस्थलों तथा सिंध प्रदेशों के ऊपरी घाट के क्षेत्रों में रह रहे हैं। कई समरा लोग आज सिक्ख बन चुके हैं और यह तो सर्व विदित ही है कि व्यावहारिक रूप में कोई भी राजपूत कभी सिक्ख नहीं बना।
जहां तक सम्मों का सम्बन्ध है उन्हें स्पष्ट छप में, लाखों सहित लोहानों की एक शाखा माना गया है।54 लोहान तो आज भी जाटों के एक कुल के रूप में पाये जाते हैं और लाखा भी आजकल उत्तर प्रदेश के बिजनौर ज़िला में लखनपाल जाटों के रूप में रह रहे हैं। वास्तव में जब मुसलमान सिंध में आए उस काल में वहां रह रही दो प्रमुख जातियों का उल्लेख मिलता है। इन जातियों के नाम जाट (जिन में लोहान तथा अन्य कुल भी शामिल हैं) तथा मण्ड हैं।55 इस संदर्भ में हम यह भूल जाते हैं कि मण्ड तो आज भी एक जाट कुल के रूप में विद्यमान हैं और उन का इतिहास तो 700 ई.पू. तक फैला हुआ है। इन मण्डों का तो ईरान के खुश महान्‌ से पहले अपना एक साम्राज्य था। इलियट तथा डासन (Elliot & Dawson) ने मण्ड तथा मैड को एक समान समझा। इन इतिहासकारों ने जहां कहीं भी मण्ड शब्द का उल्लेख किया उस के पीछे कोष्ठकों में मेड़ लिख दिया। यह भी लगभग उसी भ्रान्ति के कारण हुआ जिस के कारण उस काल के मण्ड साम्राज्य को मेड़ साम्राज्य कह दिया गया था। किन्तु यहां के लोग मण्ड तथा मेर थे न कि मेड़। ये मेर आज भी राजपूतों के रूप में विद्यमान हैं और क्योंकि ये लोग भी मूल रूप में मध्य एशिया से ही आए थे, इस कुल के जो लोग यूरोप चले गये उन्हें Meir अथवा Meyor कहा गया। जब ये लोग मध्य एशिया में एक-दूसरे से अलग हुए, एक शाखा भारत की ओर आ गई तथा दूसरी शाखा यूरोप की ओर चली गई तो तब ये लोग मेर गोट अथवा मेर जाट कहे जाते हैं। राजपूत शब्द तो उस समय तक रचा ही नहीं गया था। यह तो परवर्ती काल का घटनाक्रम है जब बौद्ध धर्म के अवसान के बाद हिन्दू मत का पुनरुत्थान हुआ और ब्राह्मणों को एक क्षत्रिय जाति की आवश्यकता अनुभव हुई। जिन लोगों ने औपचारिक रूप में ब्राह्मण मत को स्वीकार कर लिया उन्हें एक सम्मान सूचक नाम राजपूत प्रदान किया गया। इसी कारण इलियट तथा डासन

54. ibid., Vol. I, p. 187.
55. ibid., p. 79.

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तक्करों को ठाकुर समझ बैठे हैं।56 राजपूत सूत्रों की इस मनोरोगात्मक खोज को मुगल इतिहास के संदर्भ में समझने का प्रयत्न होना चाहिये जिस के बारे में इन यूरोपीय इतिहासकारों को पूर्ण जानकारी थी। वे इस बात को जानते थे कि मुगल साम्राज्य राजपूतों के सहयोग के आधार पर टिका हुआ था। अतः उन्होंने तब भी राजपूतों के अस्तित्व की कल्पना करने का प्रयास किया जब कि राजपूत शब्द अस्तित्व में नहीं आया था। वास्तविकता तो यह है कि कम-से-कम सातवीं शताब्दी से पूर्व इन सभी लोगों को जाट ही कहा जाता था, राजपूत नहीं। सम्भवतः इसी कारण मुजमलूत तवारीख में यह कहा गया है कि जाट अथवा मेर लोग हैम (Ham) के वंशज थे, जो नूह का पुत्र था। इस वंशावली के वर्णन में कोई सच्चाई नहीं है, सिवाय इस के यह लोग एक ही जातीय रक्त के थे तथा उन के अलग-अलग कुल थे।57 जनरल कन्निंघम अपनी रिपोर्ट 1863-1864 में इन शब्दों के साथ यह उल्लेख करता है, "मेड अथवा मण्ड निश्चित छप में मण्डर्यूनी (Mandrueni) के प्रतिनिधि हैं जोकि वक्षु नदी के दक्षिण में एक नदी मण्डरूस के तटीय क्षेत्र में आवासित थे और क्योंकि ईस्वी शताब्दी के प्रारम्भ में और इस के आगे उन का नाम पंजाब में मिलता है, इस काल से पूर्व नहीं। अतः मैं इस परिणाम पर पहुंचा हूं कि ये लोग बलात प्रव्रजन तया स्थानांतरण के अन्तर्गत, अपने पड़ौसियों जोकि यति तथा जाट थे के साथ एरियाना तथा भारत आए होंगे। क्लासकीय यूनान रचनाओं में यह नाम मेड़ी तथा मण्डूनी के रूप में मिलता है। मुसलमान इतिहासकारों की कृतियों में यह नाम मेड़ तथा मण्ड के रूप में पाया जाता है।58 इब्न हौकल अपने समय (977 ई. के आसपास) उन्हें मण्ड कहता है जो सिंध के किनारे मुलतान से ले कर समुद्र तक तथा मक्रान से लेकर फामल के बीच मरुस्थल क्षेत्र में बसे हुए थे। मसूदी, जो भारत में 915-16 ई. में आया, उन्हें मिण्ड कहता है जो सिंध की एक जाति है।59
इब्न हौकल उल्लेख करता है, "जो काफर सिंध में रहते हैं उन्हें बुद्ध (Budh) तथा मण्ड (Маnd) कहा जाता है।"60 यहां प्रयुक्त बुद्ध और बौद्ध राजपूत जाटों का एक कबीला है और मण्ड विशुद्ध रूप में एक जाट कबीला है, जो आज भी विद्यमान है। उन के आप्रवासी होने की पुष्टि उन की वेष-भूषा, कोट, पतलून व बूटों से होती है। इस सम्बन्ध में यही इतिहासकार इब्न होकल यह कहता है, "इस देश के राजाओं की वेश-भूषा पतलून व बन्द गले का छोटा कोट हिन्द के राजाओं द्वारा पहनी जाने वाली वेश-भूषा से मिलती-जुलती है।"61

56. ibid., p. 164 footnote.
57. See also pp. 523 and 526, {HIOH} Vol. I.
58. ibid., p. 528.
59. ibid., p. 529.
60. ibid., p. 38.
61. ibid., p. 35.

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अन्य कुल अथवा कबीलों जैसे वराइसी (बराईच) तथा भट्टी एवं सोधा कुल तो अब भी विद्यमान है। बराइस तो शुद्ध रूप से जाट कुल है जबकि भट्टी जाटराजपूतों में भी पाये जाते हैं। सोधा विशुद्ध रूप में राजपूत कबीला है और निस्संदेह इन तीनों में से इस्लाम में धर्म परिवर्तन भी हुआ।62

टिप्पणी—1

अलोर नाम की राजधानी को अलरोर भी कहा जाता है। इस राजधानी का यह नाम हेरोडोटस के पूर्व ईरान के अरोड़ों तथा ईराक के अलरोड़ियों के नाम पर पड़ा। यह भी उल्लेखनीय है कि यह कबीला जब भारत आया, तो इस ने अपने नाम पर एक नगर बसाया। इस शहर को अलरोड़ अथवा अलूर कहा। आधुनिक काल के अरोड़े सिंध के इतिहास में विशिष्ट रूप में व्यापारिक तथा युद्ध प्रिय समुदाय के रूप में उल्लेख पाते हैं। वे भारतीय इतिहास में वर्णित प्राचीन आरट्ट हैं।

टिप्पणी—2

सिंध राज्य के चार प्रान्तों अथवा खण्ड़ों में से प्रथम की राजधानी पबिया थी। जब जयद्रथ तथा दस्सल सिंध पर शासन करते थे तो इसे मेड़ की राजधानी समझा जाता था। मुहम्मद बिन कासिम ने अपना शिविर पबिया63 के पास स्थापित किया। इस काल से पूर्व यह जौहल सम्राट तोरमान की राजधानी था। यह विदित था कि स्यालकोट मिहिरकुल् की राजधानी थी किन्तु इतिहासकार तोरमान की राजधानी के विषय में अनभिज्ञ थे। हमें केवल उद्योतन सूरी नाम के जैन लेखक की कुवलयमाला नामक रचना से, जो कि 777-78 ई. में संकलित की गई तोरमान की राजधानी के विषय में ज्ञात होता है। इस राजधानी को जो चनाब नदी के किनारे स्थित थी पब्बैया कहा जाता है। यह पब्बैया अथवा पबिया चीनी यात्री ह्यून-त्सांग द्वारा वर्णित पेपतो (Pepato) नगर है। उपेन्द्र ठाकुर जिन्होंने जैन रचना को उद्धृत किया है, उल्लेख करते हैं कि "पंजाब के किसी निश्चित स्थान से सादृश्यता बैठा सकें ऐसा अभी भी सम्भव नहीं है। सम्भवतः यह कहीं शाकल के आस-पास ही स्थित था।"64

62. For other details about the heroic defence of North West India from 636 to 1206 A.D. see Dr. A.L. Srivastva's article in JIH, Vol. XLIII, Aug. 65 pp. 349-368, criticism by Dr. A.D. Majumdar, JIH, Vol. XLIV, p. 475 ff. And rejoinder by Dr. Srivastava in JIH, (1967, Vol. XLV. p. 181 ff) Irfan Habid, "Jatts of Punjab & Sindh" in "Essays in Honour of Dr. Ganda Singh" (1976), p. 92 ff.
63. HIOH, Vol. I, pp. 366, 138, 140.
64. U. Thakur, The Hunas in India, pp. 109-110.

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टिप्पणी—3

बुधिया अथवा बुद्ध का नगर, बुध/बोध कुलों के नाम पर है जो कि आधुनिक बुधवार, जाट हैं।

काबुल के लल्लिय शाही जाट

काबुल तथा गन्धार में यह महत्वपूर्ण वंश बलख के राजा हफतल (द्वितीय) द्वारा 477 ई. में चलाया गया था। हफतल (द्वितीय) के काल के सिक्के उपलब्ध हुए है और उन से पता चलता है कि बलख उस की राजधानी थी क्योंकि इन सिक्कों पर पिछली ओर तोखरी लिपि में जो आलेख है उसमें बलख नगर का उल्लेख है। 456 ई. ईरानी सम्राट यज़्दगिर्द (Yezdegird) उस समय जाटों से लड़ रहा था जाटों ने चीनी सम्राट वेई (Wei) के दरबार में अपना दूत भेजा। इस से भी यह सिद्ध होता है कि हफतल (द्वितीय) एक प्रभुसत्ता सम्पन्न सम्राट था। 457 ई. में जाटों ने सासानी सम्राटों की सत्ता को रौंद डाला तथा यज़्दगिर्द मारा गया। यह इसी काल की बात है कि इस कुल के जौल नाम के एक व्यक्ति ने गज़नी व उस के आस-पास के क्षेत्रों को अपने अधिकार में ले लिया। 477 ई. में उन्होंने गंधार पर भी अपना आधिपत्य जमा लिया। 478 ई. में कश्मीर पर कब्जा किया गया तथा 479 ई. में सोग्दियाना पर। 500 ई. तक यह लोग तुर्फान तथा करा शहर पर भी अधिकार कर चुके थे।
गंधार पर 477 ई. में कब्ज़ा किये जाने के काल की पुष्टि चीनी तीर्थ यात्री सुंग-युन (Sung-Yun) द्वारा भी होती है जिस ने 520 ई. में इस बात का उल्लेख किया है कि जेटा (Yetha) ने दो पीढ़ियां पूर्व ये-पी-लो पर विजय प्राप्त की थी। यहां पर जी-पी-लो, जौवल तथा जबुल का समरूप है तथा येथा तो निश्चित रूप में जाट के लिये ही प्रयुक्त है। चीनी शब्द Ye हिन्दी शब्द ('ज') तथा अंग्रेज़ी शब्द (J) की तरह ध्वनित/उच्चारित होता है। इसी संदर्भ में यह जानना भी रुचिकर होगा कि हफतल तृतीय, जिस ने यज़्दगिर्द के बाद अगले राजा पिरोज को परास्त करके मार दिया था (यह निर्णायक युद्ध 484 ई. में हुआ था) इस हेफतल को चीनियों द्वारा येटालिटो कहा गया है अर्थात्‌ जटलाट जिस का अर्थ जाटों का राजा है।65 जैसा कि इस से पूर्व स्पष्ट किया जा चुका है जेथा अथवा जेता (Yeta) जाट शब्द का ही लिप्यान्तर है तथा लाट एवं राट शब्द जिसका अर्थ राजा ही है। बुद्ध प्रकाश इस शब्द को स्पष्ट रूप से अभारतीय मानते हैं और उन के अनुसार राट विदेशी नाम के साथ लगने वाला एक प्रत्यय है।66

65. See Note I at the end of this section.
66. SIH&C, p. 140.

पृष्ठ 228 समाप्त

इस के पश्चात्‌ चीनी स्रोतों के अनुसार येथा (Yatha) (जाट) द्वारा एक लल्लिह (Laelih) अथवा लाली को गंधार का शासक बनाया गया। अब यह नाम लाली न तो सिक्कों के रूप में उपलब्ध है और न ही साहित्यिक कृतियों में। फिर भी एक राजा जिस का नाम रमनील है उस के कुछ सिक्के उपलब्ध हुए हैं जो इस काल से सम्बन्धित हैं। हम यह भी जानते हैं कि उस काल का सर्वोच्च सत्ताधारी कुल, जौल ही था, जो तोरमान तथा मिहिरकुल का भी गोत्र था। यह भी जाना जा चुका है कि गंधार का शासक एक तेगिन था जो एक अधीनस्थ पद, राज्यपाल, का अर्थ लिये है। इन तथ्यों से इस परिणाम पर सुगमता से पहुंचा जा सकता है कि सर्वोच्च शासकों ने लाली कुल के एक जाट रमनील को गंधार का राज्यपाल बनाया था। लाली शब्द को चीनी लाइलीह के रूप में उच्चरित करते हैं। अतः हम पाते हैं कि गंधार शासक का नाम देने में चीनी यात्री सही था किन्तु जैसा कि प्रायः होता रहा है उसने व्यक्तिगत नाम न देकर कुल का नाम दे दिया। वह व्यक्तिगत नाम उपरोक्त सिक्कों से सम्बन्धित रमनील है। इस का कदापि यह अर्थ भी नहीं है कि गंधार काबुल तथा गज़नी इससे पहले जाटों के अधीन नहीं थे। हम जानते हैं कि ई.पू. पहली शताब्दी तक ये क्षेत्र निरन्तर जाटों द्वारा शासित रहे तथा कुश्वानों अथवा किदार कुशानों का ही स्थान केवल जौलों ने लिया।67
तथापि ऐसा दिखाई देता है कि मिहिरकुल तथा उस के पुत्र अजितन्जय की मृत्यु के बाद जब उन का भारतीय साम्राज्य विखण्ड़ित हो रहा था तो जौलों ने अपने लिये जुबलिस्तान बना लिया जैसा कि इस से पूर्व बताया जा चुका है। जौवलों की भूमि को जुबलिस्तान नाम अरबों68 द्वारा दिया गया था। फिर भी जब ह्यून-त्सांग 644-45 ई. में इस क्षेत्र में आया तो उस ने पाया कि जुबलितान का राजा कई राजाओं की लम्बी शृंखला के बाद सिंहासन पर बैठा था और वह सूर्य भगवान का उपासक था।69 इस कुल के राजा वकभ के सिक्के पाये गये हैं और इन पर अंकित आलेखों से पता चलता है कि उस समय तक उनका ययेष्ट रूप से भारतीयकरण हो चुका था।70

अरबों के साथ उन के युद्ध

इन जाटों को इस्लाम की नवोदित शक्ति के साथ ह्यून-त्सांग की यात्रा के 10 वर्ष बाद, 654-55 ई. में लड़ना पड़ा। इस आक्रमण का मुंह तोड़ दिया गया। एक अन्य युद्ध तथा उस में आक्रमणकर्ता की पराजय का उल्लेख "खोलाऊ-सुल-उल अकबर" में मिलता

67. See Note II at the end of this section.
68. See Note III at the end of this section.
69. BRWW, Vol. II, p. 285/86.
70. R. Ghirshman, La Chionites-Hephthalites, p. 45.

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है।71 ओबद्ल्ला/अब्दुल्ला को उस के उच्चाधिकारी खुरासान के राज्यपाल हेजाज द्वारा काबुल पर आक्रमण करने का आदेश दिया गया। अब्दुल्ला उस समय सीस्तान का राज्यपाल था। काबुल के तात्कालीन शासक का नाम रतपल (Retpeil) यानि रपपाल था। यह युद्ध 697 ई. से लड़ा गया तथा रथपाल "बड़ी चतुरता से पीछे हटते हुए मुसलमान सेना को एक संकीर्ण स्थल तक ले आया और इस तरह उन के पीछे का मार्ग अवरुद्ध कर के उस के पीछे की ओर भागने का मार्ग काट दिया। अब्दुल्ला को अपनी मुक्ति के लिये सात लाख दिरहम का मूल्य चुकाना पड़ा।" अरबों के एक के बाद एक आक्रमण इस तरह पछाड़ दिये जाते रहे तथा जब उन्हें सहायता की आवश्यकता पड़ी तो उन्होंने पाया कि उन का परम्परागत तथा समीपी मददगार देश ईरान उस समय अरबों के कब्ज़े में आ चुका था, अतः उस ओर से सहायता का प्रश्न ही पैदा नहीं होता था। एक और स्रोत चीन था तथा चीनियों को जाटों ने बार-बार 755 ई. तक सहायता पराप्त करने के लिये अपने विशेष दूत भेजे। किन्तु वहां से भी कोई सहायता प्राप्त न हो सकी और उन्हें केवल अपने ही बल पर युद्ध करना पड़ा। भारतीय राष्ट्र इन जाटों का आभारी रहेगा कि इन जाटों ने 654 ई. से लेकर 870 ई. तक लगातार अरबों को काबुल में प्रवेश करने से रोके रखा। 870-71 ई. में अरब जनरल याकूब बिन लेथ ने काबूल के इस राज्य का कपट से अन्त कर दिया। 1232 ई. में लिखित फारसी की कृति "जया अल हिकायात-वा-लवामाअल स्वायात" के अनुसार जब याकूब ने देखा कि उस की सैना जुबलिस्तान के जाटों की सेना के सामने कोई बराबरी नहीं रखती और वह इन जाटों को युद्ध भूमि में नहीं हरा सकता तो याकूब ने जाट राजा को एक मित्र के रूप में मिलने के लिये आमंत्रित किया। इस मुलाकात में तकिया का बहाना लेकर राजा को धोखे से मार दिया। इस तरह 871 ई. में काबुल उन के हाथ से छिन गया किन्तु गंधार तथा पेशावर क्षेत्र 1027 ई तक इन के अधिकार में रहे। इस का यह अर्थ भी नहीं लिया जाना चाहिये कि काबुल तथा गज़नी को पुनः प्राप्त करने के प्रयास नहीं किये गये। बाबर गज़नी पर "हिन्द के एक राय" द्वारा आक्रमण का उल्लेख करता है। उस समय वहां सुबक तेगिन शासक था, उस ने उन के पानी के स्रोत में 'मृत मांस' (स्पष्टतः गौ मास) तथा अन्य अपवित्र चीज़ें मिला दीं तथा 'राय' को पीछे हटना पड़ा।72

871 ई. के बाद वंश का नाम

इस नये वंश के लल्लियों के हिन्दू अथवा ब्राह्मण वंश के अलग रखते हुए, शाही अथवा तुर्की शाही का नाम दिया गया है। शाही निस्संदेह एक उपाधि है जो सभी जाटों

71. Col. Tod, op. cit. Vol. II, p. 244.
72. ibid., p. 244 note.

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के लिये प्रयुक्त होती रही है, आज भी उन्हें शाही और विशेष रूप से दहियों को 'बादशाह' कहा जाता है। यह उपाधि मध्य एशियाई मूल की है, अगली उपाधि ब्राह्मण लल्लिय शाही की ओर विशेष ध्यान दिये जाने की आवश्यकता है। यह अलबेरूनी था जिस पर इतिहास को विकृत रूप में पेश करने की जिम्मेदारी आती है। वह अपनी कृति "इंडिया" में लिखता है कि इस जाति का अन्तिम राजा लग-तुर्माण था जिस के ब्राह्मण वजीर कल्लर ने उस से राज्य हथिया लिया और उसने तथाकथित हिन्दू शाही वंश की शुरूआत की।73 इस साक्ष्य के आधार पर ही भारतीय इतिहासकारों ने इस वंश को ब्राह्मण वंश कहना शुरू कर दिया।74 किन्तु यह तो तथ्यों का पूर्ण रूप से विकृतीकरण है। इस वंश के प्रथम राजा को अलबेरूनी ने कल्लर कहा है जबकि अन्य ने इसे लल्लिय कहा है। लल्लिय के पुत्र तथा उत्तराधिकारी का नाम तोरमान था। एक अन्य राजा को कमलुक तथा कल्ला कहा गया है। ये सभी नाम अभारतीय हैं। लल्लिय आज भी जाटों के एक कुल का नाम है तथा तोरमान भारत के विख्यात हूण सम्राट का नाम था। यह तो कल्पना भी नहीं की जा सकती कि एक भारतीय, फिर एक ब्राह्मण, अपने पुत्र का नाम तोरमान कमलुक आदि रखेगा। यह लाली कुल का जाट वंश था जिस ने जौल कुल के राज्य पर अधिकार कर लिया था। इन के सभी सम्बन्ध तथा विवाह जाट परिवारों में हुए। कश्मीर के लोहर आजकल लौहारिया जाट कहलाते हैं तथा वे मथुरा के समीप पाये जाते हैं। अलबेरूनी स्वयं विविध जाट कुलों का उल्लेख करता है जिन्हें वह तुर्की कबीले कहता है। बोलोर (भुल्लर), भट्ट (वर्तमान भट्टी) का उल्लेख अलबेरूनी द्वारा किया गया है।75 कुल्लारों के नाम पर एक पर्वतीय चोटी का नाम भी रखा गया है। राज तरंगिनी में हम बरिंग नाम के एक ज़िले का उल्लेख पाते हैं।76 ऐला (आज के ऐलावत) तथा बाणों का उल्लेख द्वार रक्षकों के रूप में मिलता है। दर्वा भिसार के एक मंत्री का नाम जट्ट रूप में मिलता है। पोटल देवशाही से सम्बन्धित एक अभिलेखीय प्रमाण मिलता है ये सभी नाम जाट कुलों के हैं। "राज तरंगिनी" के अनुसार कन्नौज के राजा यशोवर्मन को पराजित करने के बाद राजा ललि तादित्य मुक्तपीड़ ने कोष से सम्बन्धित पांच नये उच्च पद स्थापित किये तथा इन पदों पर शाही राजकुमारों को आसीन किया।77 शाही एक जाट वंश है। दणचक (आज के ढान्चक) नामक एक सेनापति भी था।78 एक अन्य जाट, जो तोखार कुल का था, और जिस का नाम चणकुण था, ललितादित्य का मुख्यमंत्री था।79 इस तरह यह कैसे सम्भव हुआ कि ये सब जाट इतने उच्च पदों पर

73. AIS, p. 13.
74. R.C. Majumdar, Ancient India (Hindi Ed. 1962), p. 285.
75. AIS, p. 207.
76. op. cit., IV/l93.
77. ibid., IV/142, 143.
78. ibid., VIII/I77.
79. ibid., IV/2 1-25.

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आसीन। यह इसलिये सम्भव हुआ क्योंकि शासक स्वयं जाट थे और वे लोहर तथा अन्य जाट कुलों से सम्बन्धित थे।
इस विचार विमर्श से यह स्पष्ट होता है कि अलबेरूनी की उपरोक्त टिप्पणियां तथ्यों पर आधारित नहीं है। यहां तक कहना भी उचित होगा कि अलबेरूनी ने ऐसी भूलें अन्य जगहों पर भी की हैं। उदाहरण स्वरूप जब वह श्री कृष्ण के माता पिता के विषय में टिप्पणी करता है तो वह यह लिखता है, "वह एक जाट परिवार था, पशु रखते थे तथा निम्न जाति के शूद्र थे।"80 इसी तरह वह "महाभारत" के कुरु के विषय में लिखता है कि कुरु एक कृषक था तथा वह एक दयावान एवं पवित्र व्यक्ति था, जो दैवी शक्ति से चमत्कार किया करता था।81 ये दोनों तथ्य अलबेरूनी के ब्राह्मण वंश से सम्बन्धित मत को निराधार तथा तथ्यात्मक रूप से गलत सिद्ध करने के लिए काफी है। ये इस बात का भी प्रमाण हैं कि नये ब्राह्मण मतावलम्बी दूसरों को नीच कह कर उन पर अत्याचार करते थे। अलबेरूनी को यह मनघड़ण्त बातें इन्होंने ही बताई होगी।
दूसरी और "राजतरंगिनी" का रचनाकार कल्हण स्वयं एक ब्राह्मण था और यदि गंधार का वंश ब्राह्मणों से सम्बन्धित होता तो कल्हण इस बात का उल्लेख अवश्य करता। हम पाते यह हैं कि वह स्पष्ट रूप से उन्हें क्षत्रिय लिखता है। कल्हण द्वारा शाहियों की जो भरपूर प्रशंसा की गई है उस के बारे में हम पहले ही लिख चुके हैं। कल्हण यह भी लिखता है कि इन शाहियों के वंशज 12वीं शताब्दी में कश्मीर के बाहर भी शाही राजपुत्रों के रूप में विख्यात थे। अतः हम देखते हैं कि लल्लिय शाही वंश जाटों का था, उनके कुल का नाम उन के राजाओं के नाम तथा "राजतंरगिनी" के माध्यम से उपलब्ध प्रमाण इस तथ्य को सिद्ध करते हैं।

871 ई. से लेकर 1027 तक उन के हाथों भारत की सुरक्षा

हम चीनी स्रोतों के माध्यम से यह जानते हैं कि उन की ग्रीष्मकालीन राजधानी काबुल थी, शरद ऋतु में उन की राजधानी उदभण्ड (आजकल अटक के समीप उण्ड) थी। काबुल के छिन जाने के बाद उदभण्ड़ उन की स्थाई राजधानी बन गई। उन्होंने अपनी इस राजधानी पर बार-बार हो रहे अरब आक्रमणों से रक्षा की। 712 ई. में अरबों ने सिंध को जीत लिया था, उस के कुछ ही समय बाद मुलतान पर भी उन का अधिकार हो गया। ऊपरी पंजाब, कश्मीर तथा गंधार सर्व पश्चात्‌ उन के अधिकार में आए। गंधार के राजा अपने कश्मीरी भाइयों के साथ वैवाहिक सम्बन्धों से सम्बद्ध थे। इसीलिये जब भी अरबों की और से अत्यधिक दबाव पड़ता तो ये राजा कश्मीर को अपने पृष्ठ प्रदेश के रूप में प्रयोग करते। विस्तृत इतिहास को न दोहराते हुए हम श्री एस.आर. शर्मा के एक

80. AIS, p. 401.
81. ibid., Vol. II. 147.

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लेख के हवाले से लोहर कोट पर हुए दो आक्रमणों का उल्लेख अवश्य कर रहे हैं।82 यह विवरण गिरदिज़ी के 'ज़ैनुल अखबार' से लिया गया है जो 1092 ई. में लिखा गया था जो महमूद गज़नी के भारत आक्रमण के प्रायः समकालीन ही है।

(1).404 हिज़री (1014 ई.) में जब महमूद ने नन्दा पर अधिकार करने का निश्चय किया तो भारत के राजा, बड़ा जयपाल ने इस का पता चलने पर अपने अनुभवी सैनिक इस दुर्ग की रक्षा के लिये भेजे तथा वह स्वयं कश्मीर के दर्रों की ओर चला गया। इस का वहां तक पीछा किया गया किन्तु वह कश्मीर के आंतरिक क्षेत्र में और भी पीछे हट गया। महमूद ने आदेश दिया "हिन्दुओं के धर्म परिवर्तन के लिये नियुक्त अधिकारी उन्हें मुसलमान बनाएं।"
(2).जब 407 हिजरी (1016ई.) शुरू हुआ, महमूद ने कश्मीर पर आक्रमण करने का निश्चय किया। वह गज़नी से कश्मीर की ओर चल पड़ा। जब वह दर्रे के पास पहुंचा तो शीत ऋतु शुरू हो चुकी थी। दर्रे के पार लोहकोट (लोहारिन) दुर्ग था, लोहे की भान्ति मज़बूत। इस दुर्ग को घेर लिया गया। जब इस घेराबंदी को सफलता मिलने ही वाली थी, तब शीत एवं हिमपात की तीव्रता तथा इस बीच दुर्ग की रक्षा के लिये कश्मीर में नई कुमक आने से दुर्ग रक्षकों को सहायता मिली। वह (महमूद) बसन्त काल में गज़नी लौट गया, पीछे हटने में ही सुरक्षा थी।83
(3).जब 412 हिज़री (1021 ई.) शुरू हुआ तो महमूद ने कश्मीर पर पुनः आक्रमण का निर्णय लिया। लोहकोट के दुर्ग की घेराबंदी कर दी गई। दुर्ग का घेराव एक मास तक जारी रहा। यह दुर्ग इतना मज़बूत था कि उस पर अधिकार नहीं किया जा सका। जब गढ़ विजय न हो सका तो महमूद बड़े दर्रे से बाहर, लाहौर तथा तकेशर की ओर आ गया। उस ने अपनी सेना यहां फैला दी। जब बसन्त काल आया तो महमूद पुनः गज़नी लौट आया।84
(4).1022-23 ई. में सोमनाथ का मंदिर लूटने के बाद महमूद जब लौटने लगा तो उस ने हिन्दू राजा परमदेव को राह रोके हुए देखा। अतः महमूद ने सीधे रास्ते को छोड़ कर गज़नी पहुंचने का निश्चय किया ताकि उस की जीत हार में न बदल जाये। वह मंसूरा के रास्ते मुलतान की और बढ़ा। उस के सैनिकों को कुछ तो पानी के अभाव के कारण और कुछ सिंध के जाटों के कारण बहुत कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। इस्लाम के अनेक सैनिक रास्ते में ही
82. IHQ, 1933, IX, p. 934.
83. Giridizi, op. cit., pp. 12-13.
84. ibid., p. 39.

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अपनी जान से हाथ धो बैठे अन्ततः मुलतान दिखाई दिया और वहां से महमूद गज़नी पहुंचा।85

इस तरह हम देखते हैं कि जाट कश्मीर में तथा पंजाबसिंध में महमूद गज़नी का कितना बड़ा प्रतिरोध कर रहे थे। महमूद की सेना पर उन के गुरिल्ला हमले इतने भयंकर थे कि सोमनाथ के मंदिर से लूटी गई सम्पत्ति का एक विशाल भाग जाटों ने वापस ले लिया। अरब इतिहासकार लिखते हैं कि इस गुरिल्ला युद्ध के बाद महमूद बहुत व्याकुल रहने लगा। रात को वह सो नहीं पाता था और न दिन को शान्ति अनुभव करता था। जाटों के खतरे खत्म करने के लिये उस ने विशेष तैयारी के आदेश दिये। 1027 ई. में एक बहुत ही विशाल तथा श्रेष्ठ सेना के साथ वह मुलतान पहुंचा और जाटों को दण्ड देने के लिये उस ने 1400 नावें तैयार कीं। प्रत्येक नाव के बाहर हर ओर लम्बी नुकीली लोहे की छड़ें लगाई गई। जाटों ने खुले में युद्ध लड़ने का निश्चय किया। उन के पास 800 नावें थीं। (कुछ इतिहासकारों के अनुसार इन की संख्या 4000 थी) जाटों ने अपने परिवार तथा बच्चे सिंध नदी में स्थित सुरक्षित द्वीप में भेज दिये। बहुत घमासान युद्ध हुआ किन्तु महमूद की नावों के साथ लगी लम्बी छड़ों ने जाटों को उन तक पहुंचने नहीं दिया। जाटों की पराजय हुई, हज़ारों जाट मारे गये या बंदी बना लिये गये।
इस प्रकार हम देखते हैं कि शाही जाटों ने भारत के प्रवेश द्वारों की शताब्दियों तक रक्षा की। उन के सम्बन्धियों द्वारा सुरक्षित कश्मीर तो भारत के शेष भागों की अपेक्षा बहुत देर के बाद मुसलमानों के हाथ आ सका। त्रिलोचन पाल शाही की 1021 ई. में तथा उस के पुत्र भीम की मृत्यु 1027 ई. में हुई। इन लल्लिय शाही जाटों के बारे में अलबेरूनी यह प्रमाण पत्र देता है।
"हमें यह कहना पड़ता है कि वे (शाही शासक) अपने समस्त गौरव के साथ कर्तव्य पालन की अपनी उत्कृष्ट इच्छा से कभी पीछे नहीं हटे। वे उदात भावनाओं तथा प्रशंसनीय व्यक्तित्व के स्वामी थे।"86

टिप्पणी-1

वास्तव में चीनियों ने इन शासकों के लिये दो शब्दों का प्रयोग किया है। जेटालिटो (Yetalito) तथा यू-ची वांग (Yue Che Wang)। प्रथम शब्द तो जटराट का अक्षरसः लिप्पान्तर है तथा दूसरा उसी शब्द का अनुवाद अर्थात्‌ जटी वांग अथवा जटी राजा। वांग का अर्थ राजा है।

85. ibid., pp. 84, 85.
86. AIS, Vol. II, p. 13.

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टिप्पणी-2

चौथी बौद्ध परिषद् की कार्यवाही से सम्बन्धित खोज अत्यधिक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक खोज सिद्ध हो सकती है। इस कारवाई का विवरण कुशान राजा कनिष्क ने ताम्रपत्रों पर अंकित करवा कर तथा उन्हें लोहे की पेटियों में बन्द कर के, कश्मीर में कहीं दफना दिया था। यदि हमें यह ऐतिहासिक निधि किसी तरह उपलब्ध हो सके तो इससे भारत तथा मध्य एशिया के इतिहास में एक क्रान्तिकारी करवट आ जाएगी। पहलगाम (कश्मीर) में हुई एक खुदाई के विषय में "हिन्दुस्तान टाईम्ज़" (नई दिल्ली) 26/27-7-1978 के प्रकाशन में यह लिखता है :—
"पहलगाम के गांव होईनर के समीप चंद्राकार रूप में उपलब्ध टाईलों में शिकार के जो दृश्य दो खण्डों में दिये गये हैं, जिन में एक शिकारी जिस ने कुशानों जैसी वेश-भूषा पहन रखी है, अपने भाले से एक हिरण को मार रहा है। आकाश की ओर अपने हाथ उठाये यह शिकारी हर्षो आनन्द की मूर्ति है।"
कुछ टाईलों के दायें कोने पर आठ अरों वाले चक को दिखाया गया है जोकि बौद्धों का धर्म चिन्ह है। पुरातत्व विभाग के निदेशक एफ.एम. हसनैन के अनुसार, "टाईलों पर खरोष्टी लिपि में अंक कश्मीर के इतिहास को उस काल में ले जाते हैं जब यह घाटी कुशान साम्राज्य का भाग थीं तथा उस के उन क्षेत्रों के साथ घनिष्ट राजनीतिक तथा सांस्कृतिक सम्बन्ध थे जो आजकल मध्य एशिया के भाग हैं।"

टिप्पणी-3

विंसेट स्मिथ जौल शब्द को हूण जाति की एक उपाधि के रूप में लेता है।87 किन्तु होर्नल का यह मानना अधिक उचित है कि जौल एक कुल अथवा कबीले का नाम था।88 इब्बटसन जौल नाम के किसी कबीले का अस्तित्व ही नहीं मानते,89 सम्भवतः इस लिये कि उस ने पंजाब में जौल अथवा जौहल कबीले का नाम नहीं सूना था। क्योंकि वसुदेव90 के सिक्कों में जौलिस्तान का वर्णन मिलता है इस लिये जौल कुशानों के साथ ही प्रथम शताब्दी ई. में भारत में आये होंगे। निश्चय ही, जौलिस्तान क्षेत्र कुशान साम्राज्य का भाग था। "कन्निंधम द्वारा जौलिस्तान को जुबलिस्तान के रूप में लेना एक अकाट्य तथ्य है तथा भण्डारकर द्वारा भी जौलिस्तान को जुबलिस्तान के समरूप देखना किसी भी रूप में विवादास्पद नहीं माना जा सकता।"91

87. JRAS, 1909, p. 268.
88. JRAS, 1905, p. 3.
89. Tribes and Castes, p. 40.
90. ibid., p. 40.
91. ibid.

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