Jat Prachin Shasak/Ye Jat

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जाट प्राचीन शासक (1982)
लेखक - बी. एस. दहिया (आइ आर एस, रिटायर्ड)

विकिफाईअर : चौ. रेयांश सिंह


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ये जाट

जाट ! यह मात्र एक शब्द ही शौर्य, कर्मशीलता और निरन्तर आगे ही आगे बढ़ते रहने का प्रतीक है। एक कोडे की छपाक की तरह ध्वनित होता हुआ यह शब्द तत्काल निर्णय, उस पर तुरन्त क्रियान्वयन और फिर एक बार हाथ में लिये काम को तुरत-फुरत निपटाने का बोध कराता है। इन शूरवीर जाटों ने, जो तलवार के धारण और हलो के वाहन में समान सिद्धहस्तता का परिचय देते रहे है, एशिया और यूरोप की धरती पर अपने नुकीले तीरों व हलो के फालों के साध अपने नाम अंकित किये हैं और कहां-कहां किये, पूर्व मे मंगोलिया और चीन तक, पश्चिम में स्पेन से इंग्लैंड तक, उत्तर में स्कैण्डीनेविया से नोबोगोर्ड लक, दक्षिण में भारत, ईरान और मिश्र तक। ये वीर जाट इन देशों के इतिहास के काल पट पर अपने ही नाम के हस्ताक्षर छोड़ते चले गए और वह नाम है जाट, जो विश्व के विभिन्‍न भू-खण्डौ में भिन्न-भिन्न रूप में उच्चारित होता रहा, जैसे भारत, ईरान तथा सोवियत संघ में जाट अथवा जिट, अफगानिस्तान तथा पाकिस्तान में जाट अथवा जट्ट, तुर्कीमिश्र में जट्ट, अरब देशों में जोट या जाट, परवर्ती मंगोलो में यही शब्द जातः, स्वीडनडेनमार्क में गात, जर्मनी तथा यूरोपीय देशों में गोध /गोट, तथा चीनियों के विशिष्ट उच्चारण में सही शब्द यू-ची (गुट-टी) का स्वरूप धारण कर लेता है | पुरातन सूमेरों द्वारा गुटी, मिश्र की भाषा में जटी, प्राचीन यूनानी इसे गटे, पलाइनी एवं टाल्मी इसे जट्टी और कई अन्य जातियां इसे गट, जित कहती रही हैं। ये लोग कहीं भी रहे, इन्होने अपना नाम कभी नहीं बदला वह जाट ही हैं। इन लोगों को अपने पुराने नामकरण पर सदा ही गर्व रहा है जिस का अर्थ है “राजा" । यद्यपि इतिहासकारों ने अपनी अज्ञानता या फिर किन्हीं अन्य कारणों से इतिहास के छात्रों को सदा ही भ्रांति एवं दुविधा में डाले रखा | लेकिन जाटों ने स्वयं को जाट नाम के अतिरिक्त किसी अन्य नाम से नहीं जाना या फिर वह जाने गए अपने असंख्य कबीलो के नामों से जैसे, नान्दल/नान्दर, मोर, कश्वान्‌, बैंस, तुखर, जौहल, मान, बल, मुखल, कांग, दहिया, घन्गस, गिल, शिविया आदि | इन्हीं लोगो ने दहिस्तान, तुखरिस्तान, जबुलिस्तान, पोलैण्ड, शकस्थान, गोरिया (यूनान) हिरकानिया, खैरिजाओ, मन्नाई, गिलान, मण्ड आदि एशिया तथा यूरोप में फैले हुए इन भूखण्डों पर अपने पदचिन्ह छोड़े हैं। प्रातः की बेला में सूर्य, रात्रि को चन्द्र और इस के बीच के समय में यह लोग शिव के उपासक रहे है और इन उपासको ने मुलतान, मधुरा, गांधार तथा ग्वालियर के सूर्य मंदिरों का निर्माण किया। पेशावर में उन्हीं के हाथों से निर्मित


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कनिष्क का भव्य स्तम्भ विश्व के आश्चर्यों में एक कहा गया। अलबेरुनी के शाब्दो में, “जन्म सै ही रक्‍त एवं लोहबल में विश्वास रखने वाले ये हूण एशिया तथा यूरोप के मुस्कराते हुए मैदानों पर झपटते चले गए और जहां भी झपटे, अपने साथ महाविनाश और मृत्यु को लेकर झपटे। अपने अश्वों पर सवार हो कर, एक शक्तिशाली सेना तथा पूरे दलबल के साथ वह तूफान की तरह आए और फिर बादलों की तरह बिभिन्न भु-क्षेत्रों को ढकते चले गए। मानव जाति के इतिहास में उनका हिंसक विस्फोट एक ज्वालामुखी के फटने की तरह था। वे अपने गृह राज्यों से लावे की भयावहता के साथ निकले और यूरोपएशिया पर छा गए। इनके भीषण अट्टहास जहां कहीं भी सुनाई दिये वहां त्राहि-त्राहि मच गई। उन्होंने विश्व की प्रायः सभी सभ्य जातियों को प्रलयकारी युद्धो की विभीषका में उलझाया।"1
भारत में महाजन-पर्दो का, ईरान में सासानी साम्राज्य का, रोम में रोमन साम्राज्य का पतन जिन हाथों से हुआ, उन्हीं हाथों ने खलीफाबीजेनटाइन की पवित्र भूमियों को भी तबाह किया। विश्व इतिहास में सम्भवतः ऐसा कोई याद रखने लायक युद्ध नहीं होगा जिस में इन जाटों ने घरती माँ को अपने रक्‍त से न सींचा हो। हेरोडोटस व अन्य यूनानी इतिहासकारों के अनुसार विश्व भर में जाटों (यदि वे संगठित हों) के समान अन्य कोई वीर जाति नहीं रही ।
वेन, एक्बटाना, मुसासिर, दिल्ली व अन्य नगरों के निर्माता, गुटी साम्राज्य के संस्थापक, सुमेर के शासक, बाबुल, अक्कद और लगश के भाग्यविधाता, असीरिया तथा नाईनवेह के विध्वंसक, इन्हीं के प्रथम शासक कबीले विर्क, मोर, वेन, मान, मंड और दहिया रहे। कृषि विशेषज्ञ तो यह थे ही, इन्होंने ही सर्वप्रथम वेन और कांग कबीलों के शासनकाल में आर्मेनिया से आर्कोसिया तक नहरें बनाई। बेबेलोनिया में झूलते उद्यान एक नज्जर (नेबूचंद नेजर) ने अपनी पत्नी अमिथिया के लिये बनवाए। अमिथिया एक मद्र नारी थी। भारत के राजकीय शक सम्वत और विक्रमी सम्वत प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप में जाटों से ही जुड़े है | मोर, कशवान्‌, धारण तथा बैंस (अथवा विर्क) आदि कबीलों ने अरबों के पूर्व, इतिहास के उस काल में भारत को चार बार स्थिर एवं केन्द्रीयकृत सरकारें प्रदान कीं। यौध्येय, शिबियों, खाको, सलकलानो, मल्लोंमालवो के नेतृत्त्व में वे भारत में गणतंत्रीस व्यवस्था के अग्रदूत बने।
इतिहासकार हेविट्ट के अनुसार, हेरोडोटस के शब्दों में, "बलकान के गटई, थ्रेसियनों में सब से अधिक वीर एवं सर्वाधिक न्यायप्रिय कहे जाते है। जैसे कि नार्डिक जातियां भूमि के निजी स्वामित्व की परम्परा लिये हैं, इन थ्रेसियन गटइयों ने अपने ग्रामों में अपने अधिकारों को सदैव अक्षुण्ण रखा लेकिन इस के साथ ही वे अपने पुरखो के युद्ध कौशल से दूर नहीं हटे, जैसे कि जाट, जो पंजाब में सिखों के रूप में उभरे, आज

1. Upendra Thakur, The Hunas in India.

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की भारतीय सेना के सर्वश्रेष्ठ एवं सर्वाधिक विक्वसनीय सैनिक माने जाते हैं।2
अपनी अप्रतिरोध्य शक्ति के बल पर उन्होंने पुरातन यूनानियों से "मस्सा जटी" और चीनियों से "ता-यू-ची" जैसे विशेषण प्राप्त किये। पहलवी भाषा में मस्सा का अर्थ होता है "महान्‌" और चीनी भाषा का "ता" भी यही अर्थ व्यक्त करता है। यही लोग थे, जो खुश महान्‌ के विध्वंसक सिद्ध हुए, और जो चीन के हान सम्राटों के लिये महाकाल, जिन से सुरक्षित रहने के लिये ये चीनी सम्राट्‌ अपनी सीमा पर विश्व प्रसिद्ध महान्‌ दीवार बनाने के लिये विवश हुए। वे एक सादा व्यावहारिक एवं विशुद्ध रूप में सांसारिक जीवन जीने के अभ्यस्त थे। अश्व उन के जीवन का अविभाज्य अंग थे, जिन पर वह सोते और जागते सवार रहते और ये लोग ही वह प्रथम धनुर्धारी थे जिन्होंने अपने घोड़ों पर सवारी करले हुए अचूक निशाने साधे, जिन्होंने महान्‌ कहे जाने वाले तैमूरलेन (तैमूर लंग) को पराजित किया और फिर उसे अपने राज कुमार, खोजा ओझलान जो ओझलान कबीले का ही एक जाट था, का परामर्शदाता भी बनने पर विवश किया। ये लोग जन्मजात शासक हुआ करते थे, पराधीनता से घृणा करने वाले उग्र स्वभाव के, जिस में एक उन्मुक्तता एवं एक क्रूरता का भी समिश्रण रहता, इन्होंने अपने लिये केवल राजसी नाम ही अपनाए। उनके सभी कबीलों के नाम केवल एक ही अर्थ लिये हैं, राजसी, राजकुमार, मुखिया, उच्च या फिर प्रमुख। उनके जीवन का हर पल युद्धों और लड़ाइयों में ही सांस लेते बीतता, अपने मृतको का शोक मनाने के लिये उन के पास समय ही नहीं था। वे जानबूझ कर अपने राजाओं की कब्रे छुपा दिया करते थे, उन्हें ढांप दिया करते थे ताकि जहां वे दफनाए गए है उन स्थलों का किसी को कभी पता न चल सके और इसी उद्देश्य से वे कभी-कभी कब्र खोदने वालों को भी मार दिया करते थे और अपने राजाओं की पाक कब्रों पर दरिया बहा दिया करते थे। महान्‌ पांडव राजकुमार भीम (जिस ने दुशासन के रक्‍तपान की प्रतिज्ञा की थी और वह रक़्तपान किया भी था) की तरह ये लोग भी अपने शत्रुओं की खोपड़ियों से निर्मित प्यालो मे उनके रक्‍तपान की शपथ लिया करते थे और अपनी शपथ को निरन्तर साद रखने के लिये वह उन के साथ अपना खून मिलाते भी रहे, जौ उन के हाथों मारे जाते थे। ये लोग विश्व भर में सर्वाधिक खुले मन के, सभी पूर्वाग्रहों से मुक्‍त, सर्वाधिक धर्म निरपेक्ष थे। वे धार्मिक उन्माद से सर्वधा मुक्‍त थे इसलिये उन्होने बड़ी सहजता से मिथर/मित्रमत, जोरोस्तर धर्म, बौद्ध मत, हिन्दू धर्म, इस्लामसिखमत और ईसाइयत को अपनाया। उनके सिक्के विश्व के लगभग सभी धर्मों के प्रतीक चिन्ह व्यक्त करते है। अष्टवेगू से अटिला, अकुन से इल्लोक, बलमीर से बसना, माओदून से मिहिरकुल, हफथल कटारिया से तोरमान जौहल, घन्गस से कश्वान्, एशिया और यूरोप का इतिहास, जाट सम्राटों तथा उन के कबीलों के नामों से भरा पड़ा है।

2. F. Hewitt, The Ruling Races of Pre-Historic Times, p. 482.

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जाटों की भिन्‍न नामावली

इस बात को ले कर संदेह भी उठ खड़े हो सकते हैं और कइयों की भौहे (भृकुटियां) भी तन सकती हैं कि हम विभिन्न जातियों को एक ही शीर्षक के तहत रख रहे हैं — शक, कुशाण, हूण, किदार, खियोनी, तुखर, यह सब भिन्न जातियां थीं और इन सब को जाट नहीं कहा जा सकता । निस्संदेह इतिहास ने अब तक इन को भिन्न-भिन्न जातियां ही माना है, चाहे कभी-कभी उन्हें विशाल एशियाई मैदानों मे पास-पास रहने वाले पड़ोसी भी कहा गया है। इन सभी प्रश्नों का एक सहज उत्तर है और वह यह है कि उन की जाति केवल एक ही थी और वह थी जाट । इन में तो उन्होंने अपने नाम अपने कबीलों के अनुसार रखे और इतिहासकारों को केवल उन के कबीलों के नामों का पता था, जैसे मण्ड, मौर्य, कुशाण, किदार, तुखर आदि | एशिया के मैदानों को निरन्तरता से कभी एक जाट कबीले या कभी दूसरे कबीले का नाम दिया जाता रहा है। जब अष्टवेगू के नेतृत्व में उन के मण्ड कबीले ने इन विशाल मैदानों को एक ही राज्य के अधीन संगठित किया तो तब इन मैंदानों को मण्ड साम्राज्य कहा गया । (जैसा कि अब सर्वविदित है मेड साम्राज्य एक अशुद्ध नाम है)
जब दहिया कबीलों के अधीन विस्तृत क्षेत्र थे तो इन्हें दहिस्तान या दहिया नाम से जाना गया । जब कश्वान्‌ कबीला प्रभावी हुआ तो एशिया के इन मैदानों को कुशाण साम्राज्य कहा गया । ये जाट कबीले ही थे, जिन्होंने इतिहास को घन्गस, गोराइया, तुखर, किटार आदि नाम दिये । तुर कबीले के प्रभुत्व के समय इस विशाल भू-क्षेत्र को तुर्रानतुर्कस्तान कहा गया । लेकिन जब उन की जगह तातरान कबीले ने ले ली, इस क्षेत्र में रहने वाले तातार कहलाए । अन्ततः जब किसी भी कबीले का प्रभुत्व नहीं रहा तो इन भू-क्षेत्रों को जाटों का राष्ट्र कहा जाने लगा । चाहे वह मस्सा अथवा महान्‌ या छोटे जाट थे, इससे कोई अन्तर नहीं पड़ता । उन का तो केवल एक ही नाम है जाट अथवा जट और ये लोग इतिहास के उदय काल में मध्य एशिया में पूर्व मै मंगोलिया से लेकर पश्चिम में सिधिया तक के मैदानो में रचे बसे थे । यूनानी इतिहासकार होरोहोटस इस संदर्भ में यह लिखता है कि गटी कैस्पियन सागर के पश्चिमी किनारे की ओर रह रहे थे, जबकि चीनी श्रोत3 यह कहते हैं कि वह बाह्य मंगोलिया जौकि आज के चीन का कांसु प्रान्त है, में रह रहे थे।
एकवचन में यह शब्द जट्ट है और बहुवचन में यह जट्टे हो जाता है। यह शब्द जट्ट आर्य या भारत-यूरोपीय भाषाओं में प्रथम अक्षर "J" की बजाये "G" में लिखा जाता है, ऐसा भाषा वैज्ञानिकों के अनुसार "Grimm's Law of Variation" के कारण हुआ है। यह वही नियम है जिस के अनुसार संस्कृत का "श" या "स" फारसी

3. Sau-Ma-Chien-Sse-Ki (Historical records) completed before 91 BC.

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भाषा में "ह" बन जाता है । जर्मन भाषा का "F" (फ) लेटिन में "P" (प) का रूप धारण कर लेता है । संस्कृत का "ह" (हंस) जर्मन भाषा में "ग" के रूप में उच्चारित होता हुआ Gans बन जाता है । यही कारण है कि चीनी लोग इन लोगों को गुट्टिया, यूनानी गटई (Getae) कहते है और जर्मन लोगों के लिये यही लोग गोट (Got) और गोथ (Goth) बन जाते हैं डेनमार्क के लोगों ने इस नाम को जूट (Jute) के रूप में ही सुरक्षित रखा है और वह उन की भूमि को जटलैंड (Jut land) ही कहते हैं | आक्सफोर्ड इंग्लिश डिक्शनरी में जूट (Jute) शब्द को इसी रूप में पाया जाता है जिस की परिभाषा करते हुए कहा गया है कि वह एक जर्मन मूल का कबीला रहा जिसने पांचवीं और छठी शताब्दियो में ब्रिटेन पर बार-बार आक्रमण किये । जर्मन नाम के ही अनुरूप गोट (Got) अथवा गट (Gut) के अन्तर्गत ही उन्होंने भारत में गुप्त साम्राज्य कहे जाने वाले राज्य की स्थापना की । क्योंकि उन के बहुत से राजाओं ने ऐसे नाम धारण किये जिन के अन्त में गुप्त आता था, इसलिये इतिहासकारों ने गलती से इसे एक उपनाम समझ लिया नाकि एक व्यैक्तिक नाम, "गुप्त" जिस का एक भाग था । इसके अतिरिक्त यह लोग गर्व के साथ अपनी राजकीय मुद्राओ में अपनी जाट जाति की घोषणा करते है । ये राजकीय मुद्राएं गुत्सय का उल्लेख करती हैं अर्थात गुत (Gut) की मुद्रा । जब चन्द्रगुप्त द्वितीय, विक्रमादित्य ने अपनी सुपुत्री का विवाह वाकाटक राजकुमार से किया तो उसने अपने कबीले का नाम "धारण" बताया जो कि एक जाट कबीला है और जो आज भी विद्यमान है । स्कंद गुप्त ने स्वयं अपने जूनागढ़ आलेख में यह कहा है कि गुप्त एक उपाधि है, जिस का अर्थ है सैनिक गवर्नर या सेनापति ।4 यदि हम अपने देश की ओर तनिक मुड़ें तो गित (Git) शब्द को और भी अधिक समीप पाते है । कश्मीर में एक नगर गिलगित्त के रूप में है | गिलगित का प्राचीन नाम गिलीगित है अर्थात्‌ गिल जाटों का नगर । बुद्ध प्रकाश ने सातवीं शताब्दी के एक संस्कृत आलेख का उल्लेख किया है जोकि राजा पोटल देव शाही काल का कहा गया है । इस राजा का एक मंत्री मकर सिंह गिल्लीगित्ता को सरान्घ बताया गया है।5 ध्यान रहे कि पोटल और सरान्घ जाट कबीलो के ही नाम हैं जिन्हें क्रमशः पोटल (पोटलिया) तथा सरान्ह कहा जाता है। सरान्घ और सरान्ह में वही अन्तर है जोकि सिंघ और सिंह में है, बोले गए एक ही शब्द को लिखने का भिन्न रूप । यह शब्द जिस का अर्थ शेर है, बिहारी इसे सिन्हा लिखते हैं, लेकिन अन्य लोग इसे सिंह ही लिखते हैं । सरान्ह लिखते हुए जाट इस शब्द का शुद्ध उच्चारण करते है । आइए अब हम देखें कि कैसे गित्त (Gitt) का त गिट्ट (Gitta) का 'ट' बन जाता है । प्राकृत भाषा में दंत्य अघोष का मूर्धन्य मे परिवर्तित हो जाना एक सामान्य बात है। हर कोई जानता है कि अनहिल्ल पाट्टन नाम से पत्तन कैसे पाटन बन जाता है। व्याकरण आचार्य वररूचि ने प्राकृत प्रकाश में त के ट के रूप में परिवर्तन होने से सम्बन्धित एक विशेष नियम का सूत्रपात किया था।

4. Buddha Prakash, Sources іп Ancient Indian History and Civilizations, p. 405.
5, ibid, p. 357.

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(III, 23) हेमचन्द्र भी दंतोष्ठ को मूर्धन्य में बदलने के कई उदाहरण प्रस्तुत करता है जैसे तगर-टगर, त्रसर-टसर, तुबर-टुर्वर।6 बिल्कुल इसी ढंग से जात-जाट बनता है और यह भी स्पष्ट है कि गिलगित इस परिवर्तन नियम से प्रभावित नहीं हुआ।

भाषाई विषमतायें

विभिन्न कबीलों अथवा पुरुषों के नाम का शुद्ध रूप जानने के लिये कतिपय भाषाओं की विशेषता जानना आवश्यक है | ग्रीक भाषा में नाम के अन्त में 'स' लगाया जाता है । जैसे पोर के आगे 'स' लगने से पोरस लिखा जाता है । तक्षल के आगे 'स' लगने से Taxila लिखा जाता है । चन्दगुप्त को Sandro-kottas लिखा जाता है। शब्द के अन्त में 'ae' आने पर अन्तिम अक्षर का उच्चारण 'ई' से होता है। जैसे Dahae = दही | चीनी भाषा में त थ द/ट ठ ड में फर्क नहीं रखा जाता और यह सभी ध्वनियां एक ही अक्षर से लिखी जाती हैं। जैसे Ta-hi-a लिखा जाता है दहिया के लिये और फिर दही लोगों को दई (Dai/Di) भी लिखा जाता है । चीनी भाषा की विभिन्न शाखाओ में एक ही तरह से लिखे शब्द का उच्चारण भी कई भिन्न प्रकार का होता था। अभी कुछ वर्ष पहले उच्चारण विधि को शुद्ध किया गया है। इसलिए चीन की राजधानी का, जो पहले पिकिंग (Peking) कहलाती थी, अब Bei-jing (बेईजिंग) से उच्चारण होता है।
सोगदियन भाषा में भी स्वरों का अभाव था जैसे उत्तरी भारत में आजकल व्यापारी वर्ग की भाषा लण्डे अथवा महाजनी में है । इसीलिए कशवान् शब्द को मध्य एशिया में XWN लिखा जाता था।
मूल गोत्र नाम, बहुवचन में प्रायः आ/या, आन्/अन्, ई, र/ल, वत/वाल आदि प्रत्ययों से जुड़ जाता है । यही प्रत्यय, कई बार, भाषाई भेद से एक ही कुल नाम को भिन्न-भिन्न रूप दे देते है। जैसे : गिल ईरान में गिलान, लेकिन रूसी मध्य एशिया में गिली, शूर/शौरान अथवा शूरी लिखा जाता है। जर्मन जातिय शब्द टयुट (आन् प्रत्यय से टयुटोन (Tueton) जर्मनी में तथा भारत में ई/या प्रत्यय लगने से टेवटिया हो जाता है। इस प्रकार कई बार दो प्रत्यय भी लग जाते है और वंशजों के लिए मूल शब्द का व्युत्पन्न भी होता है। जैसे यदु के वंशज यादव, कुरु के वंशज कौरव, कृवी के वंशज क्रव्य कहलायेंगे।

जाट शब्द का उद्भव

जाट शब्द की व्युत्पति सम्भवतः संस्कृत के शब्द योद्धा (युद्ध करने वाला) से हुई है। अब भी बहुत बड़ी संख्या ऐसे जाटों की है जिन के नाम योद्धा अथवा गोधा है और यह दोनों शब्द योद्धा से ही व्युत्पन्न हुए है । इसी प्रकार जाट तथा गोत की भी व्युत्पति

6. Ibid., 259.

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एक समान है । पाणिनी नें इन्हें ही आयुद्ध जीवी (व्यावसायिक योद्धा) कहा है । महाभारत में भी योद्धों का उल्लेख बोधों के साथ मिलता है। सही कारण है कि चीनी इस नाम को येथा (Yetha) तथा जेता (Jeta) के रूप में लिखते है।7 हालांकि इन राजसी लोगों का केवल यही नाम था किन्तु इतिहास इन्हें इन के अनेक कबीलों के नाम से भी जानता है। इसीलिये अष्टवेगु का महान्‌ साम्राज्य छटी एवं सातवी ईसा पूर्व शताब्दी में मंड साम्राज्य के नाम से जाना गया और जिसे गलत रूप में अथवा भूल से मीडियन साम्राज्य का नाम भी दिया गया । इस भूल को हम आगे चल कर सिद्ध करेंगे और जो प्रोफेसर साईस की कृति Ancient Empires of the East में भी प्रमाणित हो चुकी है । इस लेखक की यह कृति नबोनिदस और साइरस (खुश महान) के स्मारकों की खुदाई के समय प्राप्त तथ्यों पर आधारित है । अब देखिये, मण्ड, जाटों का ही एक कबीला है और इस कबीले के लोग अब भी भारत में अपना अस्तित्व सुरक्षित रखे हुए हैं और स्वयं को मण्ड जाट कहते हैं । जौहल जाटों के साथ भी लगभग ऐसा ही हुआ ये लोग तोरमान एवं मिहिरगुल के कबीलो से सम्बन्धित थे । इतिहासकार इन के नामों को लेकर असमंजस में पड़ते रहे हालांकि उन्हे ऐसा महसूस करने की कोई आवश्यकता नहीं थी । उन्हें तो केवल अपने आस-पास दृष्टिपात करने से यह तर्क सिद्ध हो जाएगा कि तोरमान तथा मिहिरगुल कबिलों के लोगों ने अपने कई सिक्‍को पर, शिलालेखों पर अपने कबीलों का नाम जौवल (Jauvla) ही लिखा । मण्ड साम्राज्य के बारे में हमारी टिप्पणियों की और भी अधिक पुष्टि अग्नि पुराण से भी होती है, जिसमें एक ऐसे देश के लोगो का उल्लेख मिलता है जो भारत के उत्तर पश्चिम में रहते थे, और जिन्है माण्डवीय कहा जाता था । यह वर्णित दिशा पूर्ण रूप से मण्ड साम्राज्य की स्थिति से मेल खाती है, जिस की राजधानी एक्बटाना थी और जो आजकल हमदान (ईरान में) के नाम से जानी जाती है । यह जानकर भी संतोष होता है कि ताल, हालतुखरों के साथ मण्डों का भी उल्लेख होता है।8 जाटों के ये चारों कबीले आज भी विद्यमान हैं और इन्हे मण्ड, ताह्लान, हालतुखर के नाम से पुकारा जाता है । इस संदर्भ में यह जानना अत्यधिक महत्वपूर्ण है कि अन्‌, या वत आदि प्रत्यय मूल धातु के लिये प्रयुक्त किये जाते है, जैसे योद्धा के लिये यौधेय, दहि के लिए दहिया, गुल से गुलिया, ताहल अथवा ताल से ताह्लान आदि । अब हम सम्राट स्कंद गुप्त के प्रख्यात भितारी स्तम्भ आलेख की ओर आते हैं । दुर्भाग्यवष इस आलेख की तिथि अंकित नहीं है । लेकिन साधारण रूप में यह मान लिया गया है कि इस का समय लगभंग 455/467 ईस्वी रहा होगा। इस आलेख के अनुसार, इस समय गुप्त साम्राज्य पर आक्रमण किया गया, कुछ उन लोगों द्वारा जिन्हें (इस आलेख पर) "पुष्य मित्र" के रूप में पढ़ा गया । इन पुष्य मित्रों ने गुप्तो को इतना तंग किया कि सम्राट् तक को

7. Mahabharata, ii, 14-25
8. Indian Historical Quarterly, Vol. IX, p. 476, quoted by Dг. S.B. Chowdhri, in "Ethnic Settlements in Ancient India."

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नंगी भूमि पर सोना पड़ा, क्योंकि गुप्त वंश के विनाश का ही खतरा पैदा हो गया था (विलुभाम्‌ वंश लक्ष्मी, विचलित कुल लक्ष्मी) इस आलेख में पुष्य शब्द बिल्कुल ही स्पष्ट नही है और हाल ही में अनेक विद्वानों ने शब्द के इस पाठ को चुनौती दी है।9 एल.के. दिवाकर, जिन की पुष्टि ए.एल. बाशम भी करते हैं, ने सिद्ध करने का प्रयास किया है कि शब्द पुष्य न हो कर युद्धय होना चाहिये।10 लेकिन कठिनाई यहां आती है कि शब्द "युद्धया मित्रानश्च" है और इस में च शब्द होने का अर्थ है और, अतः यह पूर्व अनुमान लगाया जा सकता है कि शत्रु कोई एक न हो कर एक से अधिक थे । अतः इस शब्द का वास्तविक अर्थ है "युद्धय और उनके मित्र।” इन्हीं को चीनी येथा अथवा जेटा कहते है । यह शब्द श्वेत हूणो व उनके यह कबीलों का भी द्योतक है । यह उल्लेखनीय है और सर्वविदित भी कि जाट पहलवियों व श्वेत हूणो के साथ मध्य भारत पर आक्रमण कर रहे थे। प्रमुख रूप में तीन आक्रमणकारी एक साथ मिल गए थे । बुद्ध प्रकाश इन्हें कुशाण, और हूणों11 के रूप में लेते हैं। तिब्बती इतिहासकार बसटन अपनी कृति "History of Buddhist Doctrines" में एक भारतीय विशेषज्ञ का हवाला देता हुआ इस बात का समर्थन करता है कि यह आक्रमण पहलिक (पहलवों), सकनोंयवनो द्वारा किये गए थे। के.पी. जायसवाल बिल्कुल सही लिखते हैं कि यौन अशुद्ध रूप में यवन लिख दिए गए हैं और यौन शब्द हूणों का ही एक नाम है । किन्तु जायसवाल इस से आगे बढ़ कर यह जानने का प्रयास नहीं करते हैं कि यौनजौन” शब्द का संस्कृत कृत रूप है और जौन जाटों का ही एक कबीला है । पहलव तो निस्संदेह आधुनिक काल के पहलवी ही है। ईरान का पूर्व शाह सम्राट् रजा शाह पहलवी है और आर्यमिहिर की उपाधि रखते थे - अर्थात्‌ "आर्यों के सूर्य" । यहां तनिक रुक कर अब जरा यूनानी पौराणिक कथाओं की ओर मुडें। ऐसी एक कथा के अनुसार साइथ के दो पुत्रों में एक का नाम पाला था और आगे चल कर उस के वंशज पलियन कहलाए । पलियन शब्द की व्युत्पति पाला शब्द से हुई, जिस का अर्थ है पाला के वंशज । लेकिन यह व्युत्पत्ति अंग्रेज़ी के अनुसार है, जो एक यूरोपीय भाषा है । भारत में संस्कृतईरानी भाषाओ में पाला से पल्लव की अथवा पहलव की व्युत्पति हो सकती है । अतः अब यह स्पष्ट हो जाना चाहिये कि मिशरी आलेख में स्कंद गुप्त की जिन लोगों से लड़ाई हुई वह पुष्य मित्र नहीं थे बल्कि वे (पल्लव) आदि लोग ही थे। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि इस काल के पूर्व अथवा पश्चात्‌ भारत के इतिहास में पुष्य मित्र के रूप मे किसी भी शक्तिशाली कबीले के अस्तित्व का उल्लेख नेही है। यह बात बिल्कुल असंभव है कि कुछ महान्‌ लोग, जिन्हें पुष्य मित्र कह दिया गया, रातों रात अस्तित्व में आए और देखते ही देखते इतनी शक्ति बटोर लें की गुप्तों

9. Indian History Quarterly. 1961.
10. ABORI. 1920, pp. 99, ff.
11. op. cit., p. 374.

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पर उन के प्रदेश के अन्दर घुस कर आक्रमण कर दे । अतः यह आलेख योद्धाओं से सम्बन्धित पूर्व संदर्थों में से एक है और योद्धाओं से जाट ही का अर्थ निकलता है और सम्भवतः स्कंद गुप्त द्वारा 455 से 467 ईस्वी तक के समय में सामूहिक रूप मैं इन को यह नाम दिया गया हो । आलेख के एक अन्य खण्ड में इन्हें हूण कहा गया है, जिन के युद्ध भूमि में आते धरती कांप जाती थी ।12 (हुणैर्यस्प समागतस्य समरे दौर्भयाम धरा कम्पिता) अतः एकवचन मैं यह शब्द जट्ट है और बहुवचन में जट्टा...... जट्टान, जट्टें। इस तर्क के समर्थन में दो प्रसिद्ध गीतों की प॑क्तियां दी जा रही हैं, जो पंजाबी जाटों में अत्यधिक लोकप्रिय है :—

  1. पगड़ी सम्भाल जट्टा
  2. जट्टा आई बैसाखी

इन दोनों गीतों में जट्ट शब्द है, जिस का स्त्रीलिंग जट्टी (एकवचन) और जट्टियां (बहुवचन) है । एक और लोकगीत इस तरह से है :—

मैं माझे दी जट्टी, गुलाबू निक्का जिहा
(मैं माझे की जट्टी हूं और मेरा प्रियतम छोटे कद का है)

आगामी अध्याय में हम यह सिद्ध करने का प्रयास करेंगे कि किदार और कंग जैसे हपथलाइट कहे जाने वाले राजाओं ने यह नाम अपने कबीलों से लिये और इतिहास में वह अपने कबीले के नामों से ही जाने गए। इस का अर्थ यह नहीं लिया जाना चाहिए कि वे जाट नहीं थे क्योकि यह आज भी भारत के जाटों में अपना अस्तित्व बनाए रखे हुए है | हम ने कुछ जाट कबीलो के नाम भारत के पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, उत्तर प्रदेश, व मध्य प्रदेश से ही लिये है । यह केवल सम्भव ही नहीं अपितु निस्संदेह प्रमाणित भी हो चुका का है कि इन में कई कबीले आज भी सोवियत मध्य एशिया, अफगानिस्तान, पाकिस्तान, ईरान, तुर्की, ईराक, जर्मनी, इंग्लैंड तथा अन्य यूरोपीय जातियों में व उन की आबादियों में विद्यमान है । मांगट, चवान, मान, गिल, मण्ड, मोर, भुल्लर, ढिल्लों और अन्य ऐसे कई नाम पश्चिमी समाचार-पत्रो में यदा-कदा प्रकाशित होते रहते है ।
अब कुछ सिधियों (अथवा शक जैसा कि वे भारत तथा ईरान में जाने जाते थे) के सम्बन्द में यूनानी इतिहासकार इन्हे अपने इतिहास के पौराणिक पात्रो के साथ सम्बद्ध करते है । यूनान के पुरातन क्लासीकल लेखकों द्वारा जो कहानी कही गई है, वह इस तरह से है; हरक्यूलीस (एक पौराणिक महानायक) एक बार अपनी घोड़ियां खो बैठा । जब वह इन घोड़ियों की तलाश में निकला तो वे उसे एक गुफा में मिलीं, जहाँ मानवीय शरीर में एक परी भी रहती थी, जिस के शरीर के नीचे की संरचना एक सर्पणी के समान थी। उस परी ने यह स्वीकार किया कि घोडियां उस के पास ही हैं। फिर उस ने हरक्युलीस को वचन दिया कि यदि वह उस की यौन इच्छा की पूर्ति करे तो वह उसे उसकी घोड़ियाँ

12. D.C. Sircar, Select Inscriptions, Vol. l p. 312 ff.

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मुझे खेद है की अभी प्रष्ठ क्रमांक 10 एवं 11 उपलब्ध नहीं है। अपितु जल्द ही इन्हें उपलब्ध कराया जाएगा।

— चौ. रेयांश सिंह{Talk}


पृष्ठ 10-11 अनुपलब्ध

तब ऋग्वेद में उन स्तोत्रों में यह कहा गया :—
"हे इन्द ! आप ने श्रुत कवश, वृद्ध तथा द्रुहयु नाम के व्यक्तियों को जल समाधियाँ प्रदान की हैं। अब आप को मित्र के रूप में लिया जाता है, आप हमारे मित्र हो गये है।"
"हे इन्द्र तथा वरुण ; वरुण, दस्यू, वृत्त तथा सुदाक्ष के आर्य शत्रुओं का नाश करो, कृपया सुदास राजा की सुरक्षा के लिये आओ।"
इन्द्र का "पक्ष परिवर्तन" ऐलों (जो आर्यों का ही एक पुराना नाम है) की पराजय का मुख्य कारण बना लगता है।
किन्तु इस के परिणाम बहुत ही दूरगामी सिद्ध हुए । यदु विनध्य पर्वत शृंखला को पार कर दक्षिण की ओर प्रस्थान कर गये और वहाँ उन्होंने विदर्भ की स्थापना की। भगवान कृष्ण, महाभारत में इस घटना का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि यदु अपने पुराने प्रदेश, मध्यदेश, (जो गंगा और यमुना के बीच का क्षेत्र है) लोटने के इच्छुक हैं। द्रुहयु और अनु पश्चिम की ओर बढ़ गए और उन्होंने वहां नये राज्य स्थापित किये । ययाति द्वारा अपने साम्राज्य के विभाजन के अन्तर्गत द्रुहयु को पश्चिम भाग प्राप्त हुआ (वायु, पद्म, हरि, एवं ब्रह्म पुराण के अनुसार) और यदुओं को दक्षिण पश्चिमी भाग और अनुओं को उत्तरी भाग मिला। इस लिये हम उन का पता मध्य एशिया और सप्त सिंधु के भू-क्षेत्रों में पाते हैं। निस्संदेह बहुत से यदु पश्चिम भी गये होंगे, क्योंकि हम यह भी पाते हैं कि यदु के चार पुत्रों में से एक का नाम क्रोष्टि था और सम्भव है की अशोक मौर्य के काल में प्रयुक्त खारोष्टि लिपि उसी के नाम पर हो। इन्हीं दक्षिणी यदुओं के वंश कार्तवीर्य अर्जुन नाम का एक राजा भी हुआ, जिस के बारे में कहा जाता है कि उसने रावण को बंदी बना लिया था और उस ने परशुराम के साथ युद्ध किया। भागवत् पुराण के अनुसार उस के 100 पुत्रों में से एक उर्ज्जित तथा दूसरा जयध्वज अंवतिका का राजा था, जिस का पुत्र तालजंघ था और जिस के पुत्र उस के नाम पर तालजन्घ कहलाये। ताल/तालान गोत्रीय जाट इस के ही वंशज हैं।
आइए अब देखे कि श्री विल्सन, विष्णु पुराण पर टिप्पणी करते हुये क्या कहते है13:—
"इस का मूल पाठ एक पुरखों से विकसित हुए सजातीय कबीलों के बारे में कोई उल्लेख नहीं करता , हालांकि इस ओर ध्यान दिया जाना आवश्यक है। इस विषय पर पूर्ण अधिकार रखने वाले अन्य स्रोत जयध्वज के पुत्रों का उल्लेख करते हुए यह कहते हैं कि उन से ही आगे चल कर हैहेय कबीला पांच बड़े भागों में विभाजित हुआ, वायु पुराण इन पांचों का उल्लेख तालजन्घ, वितिहोत्र, आवन्तय, तुंदीकेर और जात के रूप में करता है। मत्स्य और अग्नि पुराण प्रथम को छोड़ कर, इस के स्थान पर भोज का समावेश करते हैं और शेष को ब्रह्म, पद्म, लिंग, एवं हरि पुराण की सूचियों में अंकित किया गया है।

13. H. Wilson, Ariana Antiqua, 1841, p. 335, note 20.

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जातों के लिये सन्जात अथवा सुजात का पाठ प्रयुक्त किया गया है। ब्रह्मपुराण में भरतो का भी उल्लेख है लेकिन सुजातों के साथ इन पर विशद्‌ चर्चा नहीं की गई। ऐसा कहा जाता है की सम्भवतः उन की संख्या की बहुलता के कारण ऐसा नहीं हो पाया। इस बात की सम्भावना अधिक है की संकलनकर्त्ताओं के मूलपाठ के भारत सुजात नामों से इन नामों को कल्पित कर लिया होगा। इन कबीलों को मध्य भारत में स्थित बताया गया है, क्योंकि तालजन्घों की राजधानी महिषयति अथवा चुली - महेश्वर और इतिहासकार टौड के अनुसार इसे सहस्त्रबाहु की बस्ती कहा जाता है। सहस्त्रबाहु कार्तवीर्य का ही उपनाम है।14 तुदीकेरोंवितिहोत्रों को भौगोलिक रूप में विन्ध्य पर्वतमाला के पिछले भाग मे स्थित बताया गया है। अन्त में प्रयुक्त होने वाला शब्द, केर, नर्मदा घाटी में आज भी सामान्य रूप में प्रचलित है, जैसे बैरकैरा आदि । तासी क्षेत्र में तुन्दीकेर किस रूप में तुन्दरी बन गये है । आवन्तय उज्जैयन में तथा उस के पड़ौस मे, भोज, मालवा के धार खण्ड मे स्थित बताये गये है। यह सब कबीले राठौर, चौहान, पवार, गेहलोत तथा अन्य राजपूत कबीलों के पूर्ववर्ती रहे होंगे और जिन प्रदेशों में आजकल यह राजपूत रह रहे है उन प्रदेशों में पूर्ववर्ती कबीलो के अब भी कुछ अवशेष मौजूद है क्योंकि हयीहयों का एक कबीला आज भी विद्यमान है और यह कबीला बघेलखण्ड15 में स्थित सुहाग पुर की घाटी के शिखर पर बसा हुआ है और यह लोग अपनी प्राचीन वंशावली से पूर्ण रूप से अवगत हैं, इन की संख्या चाहे कम है लेकिन यह अपने शौर्य के लिये विख्यात है। यदि हम इन लोगों की परम्पराओं की परिसीमाओं पर जाएं तो ऐसे संकेत भी मिल सकते हैं कि उन्होंने सगर16 के पूर्वकाल में कभी इस देश को शकों व अन्य कबीलों के साथ मिल कर जीता होगा और इस से ही इन के विदेशी मूल होने का आभास भी ही सकता है । यदि हम मौखिक समानताओं पर विश्वास करें तो हम यह संदेह भी कर सकते हैं कि हिन्दुओं के हय तथा हैहय का सम्बन्ध हिया, हाई, होईहू, जिन का उल्लेख चीन के इतिहास17 में भी मिलता है, के साथ भी रहा होगा । इस के साथ ही हमें यह भी ध्यान में रखना होगा कि ये कबीले ईसा पूर्व कुछ शताब्दियो तक हमें अपना अता-पता नहीं देते और इन के अभियानों का क्षेत्र भारत की सीमाओं से कही बहुत दूर रहा होगा । इन के नामों में समानता भी संयोगवश हो सकती है। हय शब्द, जिस का वास्तविक अर्थ अश्व है; को देखते हुए यह असम्भव भी दिखाई नहीं देता। फिर भी हमारे पास ऐसे पृष्ट प्रमाण हैं कि हैहियो की उत्पत्ति सिथियन मूल की ही थी और जैसा कि टौड ने अनुमान लगाया (हालांकि हम ऐसा नहीं मानते) कि अश्व (Horse) की व्युत्पत्ति हय से हुई होगी।18

14. Col. Tod, Аnnаls and Antiquities of Rajasthan, 139.
15. ibid.
16. ibid., Bk. IV. Chapter III.
17. Des Guignes, Histoire des Huns, 17, 55, 231, & H. 253, c.
18. op. cit, 1, 76.

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और यहां (पौराणिक संदर्भ में) ऐसा दिखाई देता है कि कम-से-कम दो जाट कबीलों की ओर अवश्य ध्यान दिलाया गया है और वह ताल तथा थण्डी और यह शब्द तालजन्घों तथा तुंदीकेरों से आए हैं। जहां तक जाट शब्द का सम्बन्ध है, यह भरत के पुत्र सुजात से जुड़ा है। किन्तु जैसा की विल्सन ने कहा, "मूल पाठ में वर्णित नामों में से सब नाम संकलनकर्त्ताओं द्वारा अपनी कल्पना के आधार पर घड़ लिये होंगे।" फिर आगे चल कर विल्सन यह भी कहता है कि इन कबीलों का आगमन राठौर, चौहान, पवार, गेहलोत आदि राजपूत कबीलों से पूर्व हुआ किन्तु ऐसा मानते हुए विल्सन सम्भवतः यह नहीं जानता था कि उपरोक्त चारों कबीले जाट राजपूत ही हैं, जो उस समय सत्तारूढ़ थे और उन्हें बाद में राजपूत कहा जाने लगा था। राजपूत शब्द की व्युत्पत्ति पहलवी शब्द विसपुहर (Vispuhr) से हुई और जिस का अर्थ राजा का पुत्र ही है। संस्कृत में राजपूत शब्द पहलवी शब्द विसपुहर का ही शुद्ध अनुरूप है । इसे भी संयोग ही कहा जा सकता है कि दूसरी महत्वपूर्ण उपाधि “सरदार" जो सिख जाटों एवं गुजरात के लोगों ने अपनाई, वह भी ईरानी मूल लिये है। ईरान में इन्हें शहरदार कहा जाता था अर्थात शहर का स्वामी या कोई बहुत बड़ा भूपति। ईरान के इन शहरदारों व विसपुहरों ने 309 ईस्वी में सम्राट् हरमिज्द की मृत्यु के बाद विद्रोह किया। यह सब लोग जाट ही थे और उन्होंने भारत आने के पश्चात् राजपुत्रों एवं सरदारों के रूप में अपने पुराने नाम ही अनूदित एवं संशोधित रूप में अपने साथ रखे। वास्तविकता तो यह है कि शब्द हिन्दू भी भारतीय एवं संस्कृत मूल का अपितु यह तो सिंधु नदी को इरानियों द्वारा गया नाम है ईरानी लोग सिंधु नदी के पूर्व में बसने वालों को हिन्दू कहा करते थे। यह भी ध्यान में रखा जाना चाहिए कि सिंधु नदी को भी यह नाम सिन्धु जाटों ने दिया था।
श्री विल्सन उचित रूप में यह उल्लेख करते हैं कि लोग विदेशी मूल के थे जिन्होंने शकों एवं अन्य कबीलों के साथ भारत पर विजय प्राप्त की। श्री विल्सन का यह मानना भी औचित्यपूर्ण है कि भारतीय हैहियों एवं मध्य एशिया के लोगों में जिन्हें चीनी हय कहते थे, एक समरूपता है। हय शब्द ही केवल अश्व का बोध नहीं कराता, अन्य भी कई शब्द हैं जो यही अर्थ रखते है। जाटों के कई ऐसे कबीले हैं जिन के नाम अश्वों के साथ दीर्घकालीन एवं गहरे सम्बन्धों के कारण अश्व के पर्याय ही बन गए। उदाहरण के रूप में तुर/तुर्क/तुखर/तोखर इन सभी शब्दों का अर्थ अश्व (घोड़ा) ही है, जैसे कि दमिश्क शब्द रेशम का प्रतीक है और चायना का अर्थ चीन की मिट्टी से बने बर्तनों से लिया जाता है। संयोगवश कुशान जाटों के राज्यकाल में इन व्यापारियों ने ही पांचवी सदी में चीन में कांच व मिट्टी के बर्तन पहुंचाए। जब यह व्यापारी (424-451 ईस्वी) सम्राट् ताईवी के चीनी दरबार में पहुंचे तो उन्होंने ही चीनी दरबार को बताया कि


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ता-यू-ची (महान् जाटों) ने की-तो-लो (उनके राजा किदार) के नेतृत्व में पेशावर और गांधार आदि पर आधिपत्य जमा लिया है।19 किटार/कटारिया आज भी एक जाट वंश के रूप में विद्यमान है और पांचवीं शताब्दी में उन्हें महान् जाटों के रूप में वर्णित किया गया है।

उद्भव के कुछ अन्य उल्लेख

यास्क मुनि (4/5 शताब्दी ईसा पूर्व) अपनी कृति "निरुक्त" में एक शब्द "जाट्य आटणारः" का प्रयोग करता है और यह शब्द "निरुक्त" के प्रथम अध्याय में ही मिलता है। ऐसे लगता है कि जाटों को लम्बे वालों वाला व्यक्ति के रूप में वर्णित किया गया है। यद्यपि "जाट्य आटणारः" की पूर्ण व्याख्या उपलब्ध नहीं है, किन्तु हम इतना जानते हैं कि सिथियों के पुरातन काल के लोग लम्बे बाल और दाढ़ियां रखते थे। यह तथ्य क्रिमीया तथा अन्य नगरों की खुदाई के दौरान भी स्पष्ट हुये हैं।
जैसा कि हम पहले भी कह चुके हैं, जाट शब्द की व्युत्पत्ति Gut और Get से हुई है। इन में से पहले शब्द से गाथ, गोट, जुट (Goth, Got, Jut) विकसित हुए और दूसरे शब्द Get से क्रमशः गित, जित, जत (Git, Jit, Jat) । जहां तक इन की प्राचीनता का सम्बन्ध है, चीनी पूर्व कथाओ में चीन के उत्तर में रहने वाले ऐसे लोगों का उल्लेख मिलता है, जो असभ्य थे और यह तीन मुख्य वर्गों में बंटे हुए थे, रंग, दई, तथा हुनयू एक दूसरे से परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध रकते थे और इनका मूल एक ही जातीय वर्ग था। इनमें पहला शब्द रंग सामान्य रूप में प्रयुक्त होता है और इसे भिन्न-भिन्न लोगों की बड़ी संख्या20 के लिये एक समान पद के रूप में लिया जाता था। इनमे दई और हुनयू एक दूसरे से परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध रखते थे और इन का मूल एक ही जातीय वर्ग था। यहां जिन लोगों को दई कहा गया है उन्हें ईरान के दही और यूनान के दहे लोगों के साथ एक समान रूप में देखा जाना चाहिए। ये दही वही लोग थे, जिन के बारे में यह सामान्य रूप से माना जाता है कि वे ही महान् हूण साम्राज्य के प्रथम संस्थापक थे। चीनी इतिहासकारों के अनुसार इन का इतिहास 2600 ई.पू. और सम्भवतः इस से भी पूर्व काल तक बिखरा हुआ है।21
और यहां यह जानना भी रूचिकर होगा कि पी. साईकस (ईरानी इतिहास का एक विशेषज्ञ) लैस्सरजाव के पूर्व में स्थित एक गुटी नाम के साम्राज्य का उल्लेख करता है। ये लोग बर्बर रूप में वर्णित किये गये हैं, जिन्होंने अपने बाहुबल से उत्तरी एवं दक्षिणी बेनीलोनियाइलम को अपने अधीन कर लिया था और इन प्रदेशों के शासकों ने गुट्टियों का प्रभुत्व स्वीकार कर लिया था। उन को नितान्त उत्साही पहाड़ी लोगों के रूप में वर्णित किया गया है और उन्हे Semitic कहा गया है, सम्भवतः उन की धार्मिक मान्यताओं के

19. Paul Peliot, op. cit., pp. 42-43.
20. A. Stein, quoted by Upendra Thakur in The Huns of India, p. 35.
21. op. cit., p. 35

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कारण।22 उन के राजा का नाम तिरिकन कहा गया है और 2500 ई.पू. तक पश्चिमी एशिया पर उन का ही शासन रहा। डी. मार्गन यह मानता है कि 2000 ई.पू. पश्चिमी ईरान के पठारों पर मण्डों का आधिपत्य था और बकट्रिया पर 2500 ई.पू. उनका कब्ज़ा23 हो गया। पी. साईक्स के अनुसार विर्क अथवा हिरकेनियन इन के पीछे-पीछे चले आ रहे थे।24 यह मात्र संयोग की बात नहीं है कि दई और हूण इतिहास 26000 ई.पू. के छोर को जा छूता है और और जिन लोगों को गुट्टि कहा जाता है, उन्होंने वास्तव में इतिहास के उस चरण में बेबीलोनियासुमेर आदि का अधिग्रहण किया था। इस संदर्भ में यह भी रखा जाना चाहिए कि जिन को हम हूण तथा दही कह रहे हैं वह वास्तव में जाट ही थे, चाहे बाद में उन्हें इस नाम से जाना गया और इस शब्द का तत्कालीन एक रूप गुत (Gut) था जैसा कि पहले कहा जा चुका है चीनी भाषा में यही शब्द गुत्ती (Gutti) या कुछ साधारण विभिन्नताओं के कारण जर्मनी में तथा यूरोप में यह लोग गोथ और गोट कहलाये थे। इन के नामों का रूप भारत में भी मिलता है और गिलगित शब्द में तो यह रूप पूर्ण रूप से विद्यमान है ही। भारतीय ऐतिहासिक कृतियों गिलगित शब्द गिल्लिगित रूप में पाया जाता है अर्थात् गिल जाटों का नगर। बहुत से भारतीय आलेखों में भी गुती पुत्रों का नाम आता है जिस का स्पष्ट अर्थ है जाटों के पुत्र। इसी कारण से भारत, मध्य एशियायूरोप में कई कबीलों के नाम एक समान हैं। इतिहासकार विभिन्न कालों में विभिन्न कबीलों के शासन का उल्लेख तो करते रहते हैं, लेकिन इस तथ्य को भूल कर कि ये लोग वास्तव में एक ही थे। इसी भूल के कारण वह इन कबीलों की विभिन्नताओं के कारण भी बताते हैं। इसलिये डॉक्टर बेनदस्की25 ने पाया कि अलान तथा अन्तस एक ही हैं। यह अलान तथा अन्तस आज के ओलन तथा आंतल ही हैं। इसी तरह प्रोसिपिसस ने पाया कि सकरव तथा अन्तई एक ही हैं। वहीं सकरव आज के सिकरवार कहलाते हैं। स्टेन कोनो (Sten Konow) का कहना है कुशाण वास्तव में शक26 ही थे। सब से बड़ी वास्तविकता तो यह है कि प्राचीनतम काल से ही यह सब कबीले एक ही जाट जाति से सम्बद्ध थे।
जे. एफ़. हेविट्ट (Hewitt) गुट शब्द का अर्थ सांड (Bull) के रूप में लेता है और उस की यह धारणा है कि गुती नाम के यही लोग गोथों की प्रथम महान् निर्माता जाति के विजयी दल थे। हेरोडोटस इन्हें जटे (Gete) कहता है और यही लोग भारत के जाट भी

22. P. Sykes, The History of Persia, Vol. 1, p. 69.
23. De Morgan, Et Unde......, p. 314.
24. op. cit. p. 98
25. MAKI. p. 101.
26. IHQ. Vol. XIV, p. 148.

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थे।27 नंदों तथा मौर्यों के काल में हमे एक ऐसा शब्द मिलता है जो आर्य शब्दावली का नहीं है। इस शब्द की व्युत्पति भी हमें मालूम नहीं, यह शब्द "घोट" (Ghota) है, जिस का अर्थ अश्व या घोड़ा लिया गया है। चूंकि यह शब्द अश्व तथा घोड़े से सम्बन्धित है इस के मूल स्रोत के बारे में हम कुछ नहीं जानते । लेकिन पांचवीं शती (ई.पू.) में रचित अष्टाध्यायी व्याकरण भवादिगण के अन्तर्गत एक धातु (परस्मैपद धातु) का परिचय इस रूप में देती है। "जट झट संधाते" अर्थात्‌ जट अथवा झट एक गणतंत्रीय संघ एवं संगठन का सूचक है। अतः इस से यह अर्थ ग्रहण होता है कि जाट उस संघ का नाम है जिस से विभिन्न कबीले और जिस के द्वारा विभिन्न शक्तियां संगठित होती हैं।
बहुत से अन्य लेखक इन लोगों का उद्गम विभिन्न रूपो में ढूंढते है। ब्राह्मणवाद के विशिष्ट मतानुसार जब परशुराम ने इस पृथ्वी पर क्षत्रियों का पूर्णतया नाश कर दिया और क्षत्रियों का नाश उसने एक बार नहीं 21 बार किया, तब क्षत्रिय महिलाएं अपने वंश को चलाये रखने की प्रार्थना लेकर ब्राह्मणों के पास गईं और इस तरह ब्राह्मणों के शारीरिक संसर्ग से इन महिलाओं के जठर (कोख) से पैदा हुए वे जठर अर्थात्‌ जाट कहलाए। पंडित अंगद शास्त्री द्वारा प्रतिपादित यह मत स्पष्ट रूप में केवल सारहीन ही नहीं विवेक शून्य एवं मूर्खतापूर्ण है। पहली बात तो यह कि यह पृथ्वी क्षत्रियों से कभी रहित हुई ही नहीं और जहां तक उस परशुराम28 का सम्बन्ध है, उसे अयोध्या के क्षत्रिय वंशी राम और लक्ष्मण के सम्मुख नतमस्तक होना पड़ा और उन के प्रति अपने शस्त्र तक समर्पित करने पड़े।28a
इससे भी बड़ा सत्य यह कि क्षत्रिय जाति कभी अस्तित्व विहीन हुई ही नहीं और विशेष रूप में यदु एवं उन की हैहय बिरादरियां सततः उत्तराधिकारियों की श्रंखला से जुड़ी रही हैं, जिस की पुष्टि पुराण एवं अन्य स्रोत करते हैं। अंगद शास्त्री दारा प्रस्तुत् तर्क के सर्वथा विपरीत मुझे यह जानने को मिला है कि महाराष्ट्र मे अब भी जठर ब्राह्मण के रूप में पाए जाते हैं न कि जाटों के रूप में। जाटों ने तो कभी भी हीन हो कर स्वयं को ब्राह्मण मूल से सम्बद्ध करने अथवा कोई ब्राह्मण पद प्राप्त करने की लालसा व्यक्त नहीं की। वह अपुष्ट मत केवल कुछ भारतीय लेखको के पूर्वाग्रह और अज्ञान को दर्शाता है। कुछ अन्य स्थानों पर भी यही अज्ञान हमें नजर आता है।
भारतीय न केवल अपने इतिहास को, वरन अपनी ब्राह्मीलिपि को भी भूल चूके थे। जहां तक कि गुप्त काल की लिपि भी भारतीय विद्वानों के लिये लुप्त हो चूकि थी। चौदहवीं शती में फिरोज़शाह तुगलक, तोपरा और मेरठ के अशोक स्तम्भों को

27. J. F. Hewitt, op. cit., p. XXIX.
28. op. cit., p. 319.
28a. Referring to this incident, D.D. Kosambi says "This is merely overcompensation in poetic imagination for the reverse phenomenon, slaughter of the ancestors of the Brahmins by the warriors". ("The Study of Indian Tradition", Indica, 1953, Silver Jubilee Issue, p. 212).

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निकलवा कर दिल्ली ले आया और संस्कृत के विद्वानों को उन्हें पढ़ने के लिये आमंत्रित किया। लेकिन कोई भी नहीं पढ़ सका। सोलहवीं शती में अकबर महान्‌ ने भी इन स्तम्भों की भाषा पढ़वानी चाही किन्तु असफल रहा।
अन्य कई विषयों की भान्ति इस लिपि के विषय में भी यूरोपीय विद्वान ही पथद्रष्टा बने। 1795 ईस्वी पर एलोरा की गुफाओ के ब्राह्मी लेख मिल्लट द्वारा विलियम जोन्स और बिलफोर्ड को भेजे गये। बिलफोई ने एक संस्कृत पंडित की सहायता ली और परिणाम हुआ एक अनाप-शनाप मनघडन्त रूपान्तर। प्रथम बार श्री लासन ने बैकट्रिया के ग्रीक शासकों के द्विभाषी सिक्कों के द्वारा ब्राह्मी लिपि को पढ़ा। यह सिक्के यूनानी और ब्राह्मी लिपि में लिखे थे। सन् 1836 ईस्वी ग्रीक राजा अगाथोक्लिस के सिक्कों पर लासन ने ब्राह्मी अक्षरों को ठीक से पढ़ा। फिर जेम्स प्रिन्सेप ने सांची स्तूपों के लेख पढ़े और यह सही निष्कर्ष निकाला कि उन लेखों का अन्तिम शब्द "दान" है। प्रिन्सेप के विचारों की पुष्टि और संवर्धन किया श्री व्यूहलर और ग्रियरसन ने। संसार के महानतम सम्राटों मे से एक देवनाम - प्रिय प्रियदर्शी अशोक मौर्य को भी अतीत के विस्मृत गर्भ से निकाला था इन्हीं युरोपियन विद्वानों ने। भारतीय पंडित तो मौर्य शब्द का अर्थ भी नहीं जानते थे और सतरहवी शती में दक्षिण के एक ब्राह्मण पुराण टीकाकार ने अपनी अज्ञानतावश मौर्य को मूरा (स्त्रीलिंग) से निकालने का व्यर्थ और असफल प्रयत्न किया। मौर शब्द का अर्थ है "मुकुट"। मौर अर्थात् उच्चतम आभूषण, शीर्षस्थ।
दूसरी ओर हम आज भी देखते हैं कि एक जाट वंश विशेष के क्षेत्र में बसने वाले ब्राह्मण आदि अन्य सभी जातियां, उस वंश का आदर करते हैं। एक ब्राह्मण यदि एक दहिया जाटों के गांव में निवास करता है तो वह अपनी संतान का विवाह किसी दूसरे ब्राह्मण परिवार में, जो दहिया जाटों के दूसरे गांव में बसे हो, नहीं कर सकता। यह इसीलिये है कि विभिन्न गांवों के वासी, यदि वे गांव एक ही गोत्र/वंश के हों, आपस में भाई समझे जाते हैं और विवाह सम्बन्ध नहीं हो सकते। इस व्यवहार का प्रथम कारण यही हो सकता है कि वे ब्राह्मण वास्तव में दहिया वंश के पुरोहित थे और अपने यजमानों के क्षेत्र में शादी विवाह नहीं कर सकते थे। इस के लिये उन्हें यजमान वंश के क्षेत्र से बाहर जा कर विवाह सम्बन्ध जोड़ने होते हैं।29
कुछ अन्य विद्वान जाटों का उद्भाव भगवान् कृष्ण की यदु जाति से मानते हैं। यह भी कहा जाता है कि श्री कृष्ण यट राजा की 38वीं पीढ़ी में उत्पन्न हुये थे और यह नाम के अनुरूप यदु यट और जट भी कहे जाते थे। तीसरे मत के अनुसार जाट अथवा जट, यदु शब्द का ही भिन्न रूप है। एक अन्य लेखक यह मानते हैं कि भगवान् श्री कृष्ण के जीवनकाल में ही यदु कबीला दो भागों में बंट गया था, एक आस्था लोकतांत्रिक

29. About the Brahmin origins, the same authority states. "Certainly the early development of Sanskrit grammar as a systematised logical study would indicate the presence among Brahmins of an intelligent, cultured section to whom Sanskrit was a foreign language." (ibid., p. 2I3).

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व्यवस्था में थी तो दूसरे की राजशाही में। श्री कृष्ण के अधीनस्थ भाग लोकतांत्रिक व्यवस्था में विश्वास रखता था और यह भाग ज्ञाती के नाम से जाना जाने लगा और तदनन्तर जाट शब्द यहीं से विकसित हुआ। एक पौराणिक कथा का पहले ही उल्लेख किया जा चुका है जिस के अनुसार जाट शब्द "सुजात” से विकसित हुआ और सुजात एक यदुवंशीय ही था।
जहां तक उपरोक्त अन्तिम मत का सम्बन्ध है, ऐतिहासिक तथ्य इस बात की पुष्टि नहीं करते कि यदु, ज्ञाति आदि वर्गों मे विभाजित हुये थे, बल्कि अधिक इतिहास सम्मत तो यह है कि यदु जिन धड़ों में विभाजित हुये उन के नाम अन्धक एवं वृष्णी थे। ज्ञाति शब्द से जाट शब्द की उत्पत्ति असम्भव दिखाई देती है और फिर जहां तक जाटों और यदुओ के अन्य सम्बन्धो का प्रश्न है, हमें महाभारत युद्ध के पश्चात्‌ यदुओं के भारत से बाहर स्थानांतरित होने के कूछ परम्परागत उल्लेख मिलते हैं, लेकिन ऐसे ही परम्परागत उललेख तो हमें ययाति पुत्रो, अनुओं, द्रहयुओं और पुरूओ के बारे में भी मिलते हैं कि वह ऋग्वेद में चर्चित प्रख्यात दस राजाओं के महायुद्ध के बाद भारत से बाहर चले गये थे। इस में संदेह नहीं है कि हमें भारतीय संस्कृति नामों व लोगों के बारे में कुछ विशिष्ठ किन्तु कभी कभार ऐसे प्रमाण प्राग्‌ ऐतिहासिक एवं ऐतिहासिक काल में कहीं कहीं मिलते हैं थे और वह केवल खोतान (चीनी तुर्किस्तान) में ही नहीं यूनान के उत्तरी भागों में भी मिलते हैं। भ्रिगियन एवं फ्रिगियन (Bharigian/Phrygians) को भारत के भृगु वंशी ही माना जाता है यह छिटपुट प्रमाण चाहे भारतीयों के तत्कालीन स्थानांतरण के मत को पुष्ट करते हों, लेकिन हम उन्हें साक्षियों पर आधारित पूर्ण पुष्ट प्रमाण नहीं मान सकते। जब तक हमें इस सम्बन्ध में तर्क सिद्ध प्रमाण नहीं मिलते, तब तक हमें यही मानना होगा कि ये लोग एशिया के मुख्य भू-भाग के उत्तरीय एवं केन्द्रीय भागों से ही आये होंगे।
इस के अतिरिक्त एक और मत भी व्यक्त किया जाता है, जिस के अनुसार राजसूय यज्ञ में युधिष्ठिर को ज्येष्ठ अथवा उच्चतम स्थान दिया गया, अतः उस के वंशज ज्येष्ठ अथवा बड़े अर्थात्‌ जाट कहलाए। किन्तु इस मत की पुष्टि में भी कोई प्रमाण नहीं मिलता, चाहे हम महाभारत काल के पांडवो के कतिपय प्रसंगों, जैसे द्रौपदी एवं भीम की रक्‍तरंजित शपथ, बहु-पतिवाद एवं सन्तान प्राप्ति के लिये नियोग आदि की सामाजिक मान्यताओं, से हम आज तक जुड़े हुये हैं, लेकिन इस संदर्भ में भी अधिक ध्यान देने की बात यह है कि यह सभी मान्यताएं भारतीय परम्परा से कहीं अधिक मध्य एशिया के कबीलों की परम्पराएं रही हैं।
उपरोक्त इन सभी मतों में से अष्टाध्यायी व्याकरण के माध्यम से प्राप्य मत स्वीकार्य सत्य के सर्वाधिक समीप पहुंचता है। इस कृति से इस बात की भी पुष्टि होती है कि ये सभी कबीले (इधर उधर फैली शक्तियां) व्यावसायिक रूप में योद्धा थीं और इन में से अधिकांश को व्रात्य (अर्थात्‌ विदेशी) का उपनाम भी दिया गया है। इस शब्द का उद्भव


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चाहे कहीं से भी रहा हो, लेकिन पाणिनी एवं पातन्जलि आदि के काल में शासक जाटों का एक संघ अवश्य ही विद्यमान था। यही कारण है कि प्राचीन भारत के सभी राजसी परिवार इस जाति से सम्बन्धित थे। मण्ड, मौर्य (मोर) पुरू/पौरस, पौर, कंग, वरिक, बलहारा, कुश्वान, धारण आदि सभी इसी जाट संघ से जुड़े थे जब पुराण यह कहते हैं कि 1300 वर्षों तक भारत में 7 आभीर, 10 गंदर्भ (खर), 14 तुषार (तुखर) , 16या 18 शक (कांग, क्षहरात्र) 13 मुंड, 11 मौन (मान) और 11 पुरू (पोर) राजा हुये तो पुराण ऐसा कहते हुये केवल जाट कबीलों का ही उल्लेख कर रहे हैं। किन्तु सातवीं ईस्वी शती में रूढ़िवादी ब्राह्मणवाद के पुनरूत्थान काल में अवश्य ही कुछ ऐसा हुआ होगा कि इन रूढ़िग्रस्त ब्राह्मणवादियों ने उन्हें अवांछनीय व्यक्ति समझ लिया होगा। यही कारण है कि जब पुराणों को पुनः संशोधित किया गया तो इन वंशों के ऐतिहासिक विवरण और यहां तक कि उन के नाम भी उन में से निकाल दिये गये। सम्भवतः देव संहिता ऐसे ही किसी घटनाक्रम की ओर संकेत करती है, जब वह यह कहती है कि "किसी के भी जाट जाति के उद्भव और उस की गतिविधियों के सम्बन्ध में सत्य को प्रकाशित नहीं किया। ये जाट अत्यधिक शक्तिशाली, परमवीर एवं निष्ठुर योद्धा है। अपनी बचनबद्धताओं में ये लोग देवताओं के तुल्य हैं और सभी क्षत्रियों में से ये जाट पृथ्वी के सर्वप्रथम शासक थे। यह लोग दक्ष प्रजापति की पुत्रियो की संतान हैं, उन का देदीप्यमान अतीत देवों तथा ब्राह्मणों के मिध्या अभिमान को चूर चूर करता है। केवल इसी कारण से पुराणों ने इन के इतिहास को गुप्त रखा।30

शृणुदेवि जगद्वन्देसत्य॑ सत्यं वदामिते ।
जट्टानां जन्मकर्माणि यन्न पूर्व प्रकाशित्तम्‌ ॥
महाबला, महावीर्या महासत्व पराक्रमा ।
सर्वाग्रे क्षौत्रिया जट्टा देवकल्पा दृढ़ व्रताः ॥
सृष्टेरादौमहामायेवीर भद्रस्यशकृितः ।
कन्यानोहि दक्षस्यगर्भे जाता जट्टा महेश्वरी ॥
गर्व खर्वोत्र विप्राणा देवानां चमहेश्वरी ।
विचित्र विस्मयं सत्य पौराणिकै संगोपितम् ॥

मार्केण्डेय पुराण सूर्य के पुत्र रैवन्त के जन्म का वर्णन करते हुये कहता है कि यह पुत्र उसे अपनी रानी संजना, जो एक घोड़ी के रूप में धी, के संसर्ग से प्राप्त हुआ। उस का जन्म क्षेत्र उत्तर-कुरु बताया गया है। यह सूर्य पुत्र हाथ मे तलवार और धनुष लिये हुये कवच धारण किये हुये, अश्व पर सवार बाण एवं तुणीर लिये हुये पैदा हुआ।31 पुनः

30. JKI, p. 41.
31. E, E. Pargiter's translation, p, 575.

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सूर्य का एक और पुत्र और महाभारत का एक महायोद्धा, कर्ण भी कवच और कुण्डल धारण किये हुये उत्पन्न हुआ था, जिन के कारण वह अपराजेय सिद्ध हुआ।32
पौराणिक कथाओं के रूप में वर्णित यह दोनों दृष्टांत मध्य एशिया के जाटों की सम्पूर्ण चारित्रिक विशेषताओं को उद्घाटित करते हैं। वह सूर्य का उपासक है, अतः सूर्य ही उस का पिता है। क्योंकि वह शरीर पर कवच धारण किये पैदा हुआ, अतः वह एक अद्वितीय योद्धा है। क्योंकि वह अपने अश्व के साथ ही उत्पन्न हुआ, अतः एक अद्भुत अश्वारोही भी है। उस के पास तलवार तथा धनुष भी है, जो उस के अभिन्न शस्त्र हैं। उस का अपना उत्तरीय वेश है और वह कुण्डल (जाट भाषा में मुर्की) धारण करता है और अन्ततः वह जम्बूद्वीप के उत्तर कुरु (साइबेरिया) क्षेत्र में उत्पन्न हुआ हैं, अतः यही इसका मूल जन्म देश है। मार्केण्डेय पुराण और देव संहिता के ये दो उद्धरण सत्य के चरम मर्म को स्पर्श करते दिखाई देते है।
उन का मूल निवास (इस के बहुत ही अकाट्य प्रमाण उपलब्ध है) वक्षु (Oxus) घाटी है। जिसका उल्लेख वायु पुराण (43, 44) और मत्स्य पुराण (21, 45) में भी वर्णित है,
"सान्धान्‌ स्तुरवारान्‌ लम्पकान्‌ पह्लवान्‌, दरदानछकान्‌ एतां जनपदां चक्षु प्लावयंती गतोदधिम्‌"
अर्थात्‌ चक्षु अथवा वक्षु नदी सान्धानो (जाटों) तुखारों, (तुखर जाटों) लम्पाक (लाम्बा जाटों) पह्लवो (पहलवी जाटों), दरदो (तरर जाटों) और छकानो (छकान्‌ जाटों) के जनपदो को सींचती हुई सागर की ओर जाती है। कोष्ठको में दिये हुये नाम मध्य एशिया के लोगों की वर्तमान पहचान के सूचक हैं। उनकी लम्बी दूरी की यात्राएं और अश्वो पर सवार हो कर उन के देशांतरण के कई प्रंसग महाभारत33 में उपलब्ध है। महाभारत में यह वर्णित है कि शक, तुखार, कनक (कांग जाट) और रोमश (सम्भवतः यूनानी जाट) घोड़ों पर बड़ी और लम्बी दूरी की यात्राये करने वाले लोग हैं।

(महागमान्‌ दुरगमान्‌ गणितान्‌ अर्बुद हयान्‌)

उन के भारत में बस जाने के बाद पुराण उन के कुछ कबीलो के निवास स्थानो का बोध34 इस प्रकार कराते हैं।

मरुका मालवाश्चैव परियात्र निवासिनः।
सौवीरा सैन्धवा हूणाः शाल्वाः शाकल वासिनः॥

मरुस्थल वासी तथा मालवा निवासी परियात्र (जयपुर क्षेत्र) के तथा सौवीर

32. MBT, III. 307, 4-5.
33. ibid., 2, 26, 47.
34. Vishnu Purana, II, 3, 41-44; Kurma Purana, I, 41-44, 46-47, Brahma Purana, 21,15-17.

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(सौवल जाट), सैन्धव (सिंधु जाट), हूण एवं शाल्व (स्याल जाट), शाकल (सियालकोट) क्षेत्र के निवासी है। सौवीर का सौहल एवं सौवल के साथ एकरूपता इस तथ्य पर आधारित है कि ल तथा र परस्पर अन्तर परिवर्तित है। शकों का शंकार प्रेम तो लोकोक्तियों के रूप मे विख्यात है। जैसे जोहल शब्द जौवल से है, वैसे ही सोहल नाम की व्युत्पत्ति सौवल और सौवीर से हुई है। वैसे भी सौवीरों का उल्लेख पंजाब एवं सिंध क्षेत्र में सदा ही होता रहा है।

विभिन्न सिद्धान्तों का पुर्नांकलन

अंगद शर्मा एवं लहरी सिंह की यह मान्यता कि परशु राम द्वारा क्षत्रियों के पश्चात्‌ जाट क्षत्रिय माताओं एवं ब्राह्मण पिताओ के संसर्ग से उत्पन्न हुये पूर्णरूप से अर्थहीन हैं।35 तथाकथित जठर अब भी दक्षिण भारत में ब्राह्मणो के रूप में पाये जाते हैं और उन का जाटों के साथ दूर का भी सम्बन्ध नहीं है।36 इसी तरह यह मान्यता भी कि जाटों ने यह नाम यदु या यादव राजा सुजात से पाया, कल्पित ही है। यह सब मान्यताएं ब्राह्मणों के उस विशिष्ट प्रयास के अनुरूप हैं, जिन के माध्यम से वह आप्रवासी जाटों को पारस्परिक भारतीय वर्णों में स्थापित करना चाहते हैं। इस प्रयास में पौराणिक वंशावलियो की खोज करते हुये उन्होंने पाया कि सुजात शब्द जाटों के उद्भव के लिये एक स्रोत बन सकता है। इस लिये उन्होंने जाटों को सुजात राजा से उत्पन्न मान लिया। यट के नाम पर जाटों के नामकरण की मान्यता भी इस तरह की तर्कहीन मान्यता है। भारतीय इतिहास एवं पौराणिक साहित्य मे यट नामक किसी भी राजा का उल्लेख नहीं है। हां ययाति एवं यती नाम के सम्राट्‌ अवश्य हुये है। इसी तरह एन.एन.वसु और बी.एन.वसु भी अंधेरे में ही भटक रहे थे, उन्होंने जब यह सिद्ध करना चाहा कि जाटों की उत्पत्ति राजपूतोंगुज्जरों के संसर्ग37 से हुई। ऐतिहासिक रूप में और वैसे भी यह मान्यता पूर्ण रूप से खोखली है। गुज्जरों का नाम तो पहली बार 6वीं शताव्दी के अंत में थानेसर के प्रभाकर वर्धन के आलेखो मे मिलता है और राजपूत भी इस शताब्दी के पूर्ववर्ती नहीं हैं। यह भी ध्यान रहे कि गुजर गुर्जर, शब्द पाणिनी, पातजंलि और अमरकोष में भी कहीं नहीं मिलता। हां, जाटों के गुरज और गुस्सर नाम के दो वंश है और प्रथम कुल से ही गुर्जर बना है। डाक्टर पी. सरण के अनुसार राजपूतों का एक जाति के रूप में उल्लेख दसवीं शताब्दी38 तक नहीं पाया गया। जाटों का उल्लेख तो इस से बहुत ही पहले पाया गया है। पी. साइकस गुती नाम के लोगों का उल्लेख करता है,

35. JKI, p. 40; Qanungo, op. cit., p. 14-17.
36. Qanungo, op. cit., p. 17.
37. Hindi Vishwakosa, Vol. VIII, p. 193.
38. P. Saran, Studies in Medieval Indian History, p. 23.

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जो 2600 ई.पू. सुमेर तथा असीरिया आदि के शासक बने।39 चीनी स्रोत भी इस बात का उल्लेख करते हैं कि दही लोगों का इतिहास 2600 ई.पू. तक जाता है। जैसा कि हम आगे आने वाले अध्यायों में सिद्ध करेंगे कि चीनी दई (Dai) वही लोग हैं, जो ईरान के दही (Dahi) और यूनान के दहे (Dahae) लोग हैं और यही आधुनिक काल के दहिया जाट हैं। उपयुक्‍त एवं शुद्ध सिद्धान्त यही है कि भारतीय जाट वहीं हैं, जो पश्चिम एशिया के इतिहास में गुटी तथा चीन के यू-ची (गुट्टी के रूप में उच्चारित) के नाम से विख्यात रहे हैं और उन का मूल निवास स्थल उत्तरी चीन की सीमाओं से ले कर कृष्ण सागर (Black Sea) के पश्चिम तक फैले हुये मध्य एशिया के विस्तृत मैदान रहे हें। यूनानी लोगों को, जैसे हेरोडोट्स, गटई और मस्सा गटई अर्थात्‌ महान्‌ जाट कहते रहे।
मध्य एशिया का यह क्षेत्र ही आर्यों का मूल स्थान है। इसीलिये यह क्षेत्र भारतीय परम्पराओं पुराणों आदि मे विशेष रूप से पवित्र एवं पूजनीय रहा। वैदिक वांग्मय से ले कर लगभग सम्पूर्ण भारतीय ग्रंथ, उत्तर को देव भूमि मानता रहा है। मत्स्य पुराण का यह कहना पूर्ण रूप से उचित है कि "इलावर्त का विशाल भूखण्ड देवताओं की जन्म स्थली है और जो तीनों लोकों में विख्यात है।"40
ऐतरेय ब्राह्मण इसी भूखण्ड का उलेख उत्तर कुरुओं की भूमि के रूप में करता है, जो हिमवंत के पार स्थित है। अर्थात हिमालय पार उत्तर में, जहां राजाओं का अभिषेक देवताओ के कृत्यों के अनुसार किया जाता है।41 भारतीय पौराणिक गाथाओं में उत्तरी भू-क्षेत्र का सम्बन्ध इतना विख्यात है कि उस के और उद्धरण जुटाने की आवश्यकता हीं है। यह देव भी तो देव (ल) वंश के जाट ही हो सकते हैं।
पुराणों तथा महाभारत में वक्षु (आक्सस) नदी की घाटी में बसे अनेक कबीलों का वर्णन मिलता है। ऐसे द्दष्टांतों को प्रस्तुत कृति में कई जगह उद्धारित किया गया है।
जब जाट भारत में आए तो उन्होने अपने कबीलो के नाम पर राज्य स्थापित किये, जिन्हें भारतीय साहित्य में जनपद का नाम दिया गया। ईसा पूर्व पांचवीं शती के प्रख्यात के व्याकरण आचार्य पाणिनी कई जाट कबीलों का उल्लेख करते हुये उन्हें पंजाब और उत्तर पश्चिम क्षेत्रों में बसा बताते हैं। प्रायः सभी कबीलों के नामों में जाट शब्द एक ही अर्थ में प्रयुक्त होता है, राजा अथवा नेता। उणादि वृत्ति में हेम चन्द्र के अनुसार जाट शब्द का अर्थ राजा है और था भी ऐसा ही क्योंकि देव संहिता के अनुसार जाट विशाल मध्य एशियाई मेदानों पर शासन करने वाले पहले शासक थे। उणादि सूत्र के भाष्य में (V. 52) जर्त शब्द का अर्थ रोम अर्थात्‌ बाल के रूप में दिया गया है। दुर्ग (सातवीं शती) एक स्थान पर लिखता है, "जर्ताः दीर्घ रोमाः" अर्थात्‌ जाट लम्बे बाल रखते हैं। स्पष्ट रूप में यह अर्थ इसलिये लिया गया है क्योंकि परम्परागत रूप में जाट लम्बे बाल व

39. P. Sykes, History of Persia, Vol. 1.
40. Matsya Purana, 153,2-3.
41. Aitereya Brahmana, VIII, 14.

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दाढ़ियां रखते थे। सम्भवतः इसी कारण जाट शब्द भगवान्‌ शिव की लम्बी जटाओं से सम्बन्धित हो गया। इस संदर्भ में यास्क मुनि द्वारा प्रयुक्त "जाट्य आटणारः" शब्द स्वतः ही स्पष्ट हो जाता है। इस से पता चलता है कि लम्बे बाल रखना जाटों की एक विशिष्ट पहचान थी। यह भी उल्लेखनीय है कि पंजाब में बालों के गुच्छे को आजकल भी गुत्त और जत कहा जाता है गुत्त तथा जत शब्द के आधार पर ही इन के नाम भी रखे जाते हैं। अतः महाभारत जब यह कहता है, "शकाश्तुरवाराः कन्काश्च रोमशाः श्रृंगिणोनराः" महाभारत की यह उक्ति दूर दूर तक यात्रा करने वाले जाटों को पामीर की उचच पर्वत श्रृंखला पर स्थित स्थापित42 करती है। इस उक्ति में अन्य जो भी नाम हैं, वे सभी जाट कबीलो के हैं। जैसे तुखर कंग आदि। इस उक्ति में प्रयुक्त शब्द "रोमशः" ने विष्णु पुराण के टीकाकार विल्सन को उलझा दिया। उस ने सोचा कि यह शब्द सम्भवत यूनानियों के लिये प्रयुक्त किया गया है लेकिन वास्तव में यह इस रूप मे प्रयुक्त नहीं हुआ अपितु उन लोगो कै लिये प्रयुक्त हुआ है, जिन के बाल लम्बे है अर्थात्‌ जाट जैसा कि ऊपर स्पष्ट किया गया है। जैन लेखक वर्धमान (1197) विक्रमी सम्बत्‌ अथवा 1139-40 ईस्वी शको तथा जाटों का उल्लेख करता है।43 इसलिये चन्द्र गोमिन जब यह कहता है तो कोई गलती नहीं करता कि अजेय जाटों ने हूणों को पराजित किया था। यशो धर्मन तथा "गुप्त" कहे जाने वाले लोग जाट ही थे और यह केवल वही लोग हैं, जिन के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने पांचवी/छटी शताब्दी में हूणो को पराजित किया था, यद्यपि यह हूण भी परवर्ती जाट ही थे। तोरमाण और मिहिरकुल के कबीले का नाम, जौवल, आज भी भारतीय जाटों में उपलब्ध है, जिन्हे आज कल जौहल कहा जाता है। मजूमदार और बेलवेलकर आदि को अपने संशोधनो को पुनः संशोधित करना होगा।44 जर्त शब्द को गुप्त शब्द में परिवर्तित करने की कोई आवश्यकता नहीं है। इसकी मूल परिभाषा बिल्कुल शुद्ध एवं सही है और समकालीन लेखकों ने इस का उल्लेख सही किया था।
जाट शब्द जर्त का उपभ्रंश नहीं है। जर्त तो स्वयं जाट शब्द का संस्कृत-कृत रूप है, बिल्कुल ऐसे ही जैसे मध्य एशिया के गुजर, संस्कृत में गुर्जर और मुण्ड को मुरण्ड बना दिया गया। इन दोनों शब्दों में "र" अक्षर को उसी तरह जोड़ा गया है जैसे जर्त में जोड़ा गया था। सम्भवतः संस्कृत व्याकरण के संधि नियमों के अनुसार विसर्ग को "र" होता है, इसीलिये जःत को जर्त रूप दे दिया गया होगा।
इन लोगों को इन के देश बल्ख के नाम पर वह्लीक भी कहा गया। शतपथ ब्राह्मण (12,9,3,3) प्रतिपीय बाह्लीक नाम के एक राजा का उल्लेख करता है, जिसे कुरुओं के राजा की पदवी दी गई और यह कुरु उत्तर कुरु थे, कुरुक्षेत्र के कुरु नहीं। प्रतिपीय बाह्लिक

42. MBT, Sabhaparvan, 47/26.
43. Ganaratna Mahadadhi, Karika 201.
44. A New History of Indian People, Vol. VI, p. 197.

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का पुत्र महाभारत युद्ध में भीम के हाथों मारा गया था।45 आदिपर्व में (61, 28) एक बाह्लीक राजा का उल्लेख मिलता है, जिस का नाम प्रह्लाद था, जिस का शिष्य नग्नजीत गंधार देश का राजा था।46 यह बल्ही, वास्तव में बलहर वंश का द्योतक है, जिन्हेंने अपने कुल नाम पर बल्हीक अथवा बलख नगर बसाया। यूरोप में इन्हें बलगर का जाता है।
इन लोगों के विदेशी मूल की बात तो भारतीय लेखकों के वर्णन से और भी सुस्पष्ट होती है। प्रायः इन सभी लोगो को असुर, शूद्र, मलेच्छ आदि नामों से सम्बोधित किर गया है। मार्केण्डेय पुराण (58, 45) मालवो को असुर पदनाम प्रदान करता है। यह मालव सिकन्दर के मल्लोई थे और यही आज के मल्ली जाट भी हैं। पाणिनी कृत अष्टाध्यायी (5 3, 118) और चन्द्र भी यही कहते हैं कि मालव न तो ब्राह्मण थे और न ही क्षत्रिय, पाणिनी के गणपाठ में परशु, असुर, बाह्लिक आदि अनेक कबीलो के संघों का वर्णन किया गया है। इस में परशु को परसवाल कबीले के जाटों के रूप मै लिया गया है मनुस्मृति और महाभारत इन्हे व्रात्य अथवा बाह्य की संज्ञा प्रदान करता है जिस के अर्थ हैं बाहरी एवं निम्न वर्ग। तोमर एवं हंस दो जाट कबीले हैं, महाभारत इन दोनों को मलेच कहता है।47 वायुपुराण (47/58) के अनुसार नलिनी नदी मध्य एशिया के बिन्दु-सर से उमड़ती हुई पूर्व दिशा की ओर बढ़ती है और यह तोमर तथा हंसों की भूमि से हो कर जाती है। कुण्डू कबीले (जिसे भारतीय साहित्य में कुनिद नाम से वर्णित किया गया है) को पर्वतीय लोगो का कबीला माना गया है।48 यह कबीला महाभारत युद्ध में पाण्डवों की ओर से लड़ा।49 अफगानिस्तान का कुन्डुज नगर इन्हीं के नाम पर है। वायु पुराण (47—53) का यह कहना पूर्ण रूप से उचित है कि ये लोग मध्य एशिया मैं सीता नदी के किनारे निवास करते थे। कुन्दुओं के पामीर नगर का नाम भी उन के नाम पर ही रखा गया। महाभारत में जूणों का भी उल्लेख पहलवों, दरदों, किरातो, यवनो, शकों, चीना/छीनाओं, हरहूणों, तुषारों, सैंधवों, जागुहों और मुण्डो के साथ मिलता है।50 इस में छिन्ना, तुषार/तुषीर संधु, जाखड, मुंड आदि सभी जाट नाम हैं। अर्थशास्त्र51 में एक मादक पेय का नाम हारहुरक के रूप में मिलता है जो कि भारत में हूणों का नाम है जाटों के एक अन्य कबीले का नाम अत्री है किन्तु इसे इसी नाम के ब्राह्मणों के एक गोत्र से पृथक्‌ रखना होगा। क्योंकि भीष्म पर्व (10-67) में उसे (अत्री) को मलेच्छ कहा गया है। जैसा कि सर्वविदित है महाभारत का वर्तमान रूप भृगु ब्राह्मणों द्वारा रचा गया था।

45. MBT, Drona Parvan, 155, 11-15.
46. ibid., Adi Parvan, 57,93-94.
47. MBT, Bhishma Parvan, 10, 68.
48. ibid., Aranyaka Parvan, 249, 7.
49. ibid., Karna Parvan, 89, 2-7.
50. MBT, Aranyaka Parvan 48, 20-21.
51. Chapter 46.

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और ब्राह्मण अपने किसी गोत्र को तो कभी मलेच्छ नहीं कहेंगे। मौर्य को भी असुर, शूद्र तथा वृषल कहा गया था। युग पुराण इन्हें अधार्मिक लोग कहता है। हेमाद्रि द्वारा रचित चतुर वर्ग चिन्तामणि52 में स्पष्ट शब्दों में मौयों का उल्लेख करते हुये उन्हें "वृषलः अति अधार्मिकः" कहा गया है। अर्थात्‌ मौर्य वृषल अत्यधिक अधार्मिक थे। सम्भवतः पातञ्जलि ने जेयो वृषलान्‌ का आह्वान किया।53 इस आह्वान का अर्थ है कि यद्यपि वृषल को जीता नहीं जा सकता, फिर भी उस पर अवश्य ही विजय प्राप्त करनी होगी। पातञ्जलि के इस आह्वान को जिस के माध्यम से वह मौर्यो को सत्ताच्युत देखना चाहता है, इस संदर्भ में समझना होगा कि उस ने मौर्यो के लिये अन्य स्थानों पर भी अपमानजनक शब्दों का प्रयोग किया है, जिन के अनुसार उन्हें स्वर्ण के भूखे लोभी अथवा ऐसे और सम्बोधन दिये गये हैं। सम्भवतः पातञ्जलि के इस आह्वान का प्रत्युत्तर पुष्यमित्र सुंग ने दिया, जिस ने अन्तिम मौर्य सम्राट् को मारा। यही धारणा एच.पी. शास्त्री की भी लगती है।53(a)
अतः यह स्पष्ट होता है कि असुर आदि नाम इन लोगों की पहचान को चिन्हित करते हैं और जब नियमबद्ध हो कर पुराण आदि कुछ लोगों को इन अपशब्दों से सम्बोधित करते हैं तो इस इस बात की निश्चित सम्भावना हो उठती है कि पुराणों व उपरोक्त अन्य ग्रंथों के रचनाकार विदेशियों की ओर ही संकेत कर रहे हैं और वह विदेशी मध्य एशिया के वे जाट ही थे, जो अभी भारत में नहीं पहुंचे थे या फिर नये नये ही आये थे।
गिरीश चन्द्र द्विवेदी अपने एक लेख (The Origin of Jats) में इस आधार पर देव संहिता और चन्द्र गोमिन के इस विषय में सम्बन्धित संदर्भों को संदेह की दृष्टि से देखते हैं कि जाटों में अपने महान् अभियानों को स्मारकों के रूप में सुरक्षित रखने की ऐतिहासिक परम्परा का अभाव रहा है।54 क्या द्विवेदी जी ने इस तरह की टिप्पणी करने से पूर्व किसी साधिकारी जाट विद्वान से कोई सम्पर्क किया? हम द्विवेदी जी को आमंत्रित करते हैं कि इस प्रस्तुत कृति से अपनी धारणाएं बनाएं. जाट शब्द का ही और उन के सभी कबीलों के नाम का एक ही अर्थ राजा एवं शीर्षस्थ व्यक्ति जैसे कश्वान, मण्ड, मोर, दाही, उटार, ढांचक, गानलान, काद्याल आदि शब्द एक ही अर्थ व्यक्त करते हैं, राजा अथवा शीर्षस्थ। इस की स्पष्टता के लिये हमें संस्कृत का आश्रय नहीं लेना होगा अपितु पहलवी तथा तुखर/शकों की भाषाओं की ओर ध्यान देना होगा। बहुत सारे जाट वंशों के नामों का अर्थ फारसी-अंग्रेजी शब्द कोष मे उपलब्ध है।
जैसा कि हम देख चुके हैं कि जाट नाम इस तरह निरन्तरता से बना हुआ है कि यह एशिया और यूरोप के कोने-कोने तक साधारण रूपांतरण के साथ पाया जाता है।

52. Part III, Section 2, p. 771.
53. Mahabhashya, 1/1/50.
53a. JASB, 1910, p. 259 ff.
54. JIH, 1970, p. 377 and 392.

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इस शब्द के कई विविध रूप है लेकिन वे सामान्यतां लिये हुये हैं। जैसे भारत, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, फारस, अजरबेजान, उजबेकिस्तान अथवा मध्य एशिया के अन्य क्षेत्रों में उन्हें जाट अथवा जट्ट कहते हैं। जट्टलैंण्ड (डेनमार्क) में उन्हें जट कहते है इसी तरह स्वीडन में गात, जर्मनी में गोत, बाल्टिक सागर में स्थित गाथलैंण्ड में गाथ, अरब में जोता/जोत, लेटिन में गतई, तुर्की और मिश्र में जतरोम में उन्हें गेओथपलाइनीटालमी उन्हें जतई कहते हैं। चीनी उन्हें यू-ची अथवा येथा, येरा कहते हैं। इस सम्बन्ध में यह भी महत्वपूर्ण है कि कार्ल ग्रेन के अनुसार चीनी शब्द यू.ची गुती शब्द के रूप में उचारित है जिस का अर्थ है, चन्द्रवंशी55 चीनी इतिहासकारों के अनुसार तदान्तर काल में उसी जाति के एक अन्य कबीले जिसे चीनी ही हिअंग-नू अथवा हो कहते थे, के दबाव के कारण यू.ची दक्षिण तथा पश्चिम की ओर प्रस्थान कर गये। इन में से जो शाखा संख्या में कम थी वह दक्षिण में तिब्बत की ओर चली गई। उन्हे सियायों-यू-ची कहा गया, जिस का अर्थ है लघु यू-ची। इन का बड़ा भाग पश्चिम की ओर चला गया तथा उन्होंने दहिया (ताहिया बल्ख, बक्‍तरिया बुखारा) पर अधिकार कर लिया। इन लोगों को ता-यू-ची कहा गया, जिस का अर्थ है बड़े गुट्टी अथवा महान्‌ जाट। जैसा कि ऊपर बताया गया है शब्द यू-ची गुट्टी के रूप में उच्चारित होता है, अतः ता-यू-ची का भी वही अर्थ है जो यूनानियों और फारसियों का "मस्सा जटी है" व्यक्त करता है। सभी चीनी स्रोत इस तथ्य पर सहमत हैं कि कुशान यू-ची जाति से विकसित हुये थे। चीनी पुस्तक (Thang-Kiang Nu) का लेखक 555 इस्वी में लिखता है कि अपतल और हेपथेलाईट ता-यू-ची जाति से थे। मर्तुवानलिन का विश्व कोश येता को ता-यू-ची जाति से मानता है और आईतन भी उसी जाति से सम्बन्धित थे, जिस से यू-चीतुखर तूर, कंग (चीनी भाषा में क्यांगनू और पुराणों में प्रयुक्त कन्क) के बारे में हमें अधिक विवरण देने की आवश्यकता नहीं सिवाये इस के कि ये सभी जाटों के विभिन्न कबीले थे, जो कि अब भी भारत में विद्यमान हैं तथा बड़े गर्व के साथ स्वयं को जाट उद्घोषित करते हैं। इस के कुछ और विवरण अगले अध्यायों में दिये जायेंगे। फिलहाल हम तीन वंशों अथवा कबीलों की चर्चा कर रहे हैं, जिन के विषय में कुछ मतभेद हैं, वे कबीले हैं, शक, कुशाण और श्वेत हूण (हेपथेलाईट) किन्तु इस से पूर्व एक निष्कर्ष पर पहुंचना आवश्यक है।

"अन्तिम निष्कर्ष"

सभी प्राप्य तथ्यों और विचारों पर पुनर्विचार करने पर हम पाते हैं कि जाट एक अत्यन्त प्राचीन शब्द है और एक उपाधि है जिस का अर्थ है "शासक" / "राजा"। आर्यों

55. See Jari-Churpentier, Die-Ethno Graphische Stellung der Toohaser, 1917, pp. 347-388.

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के सर्वाधिक प्राचीन ग्रन्य ऋग्वेद में भी यह शब्द बहुतायत से मिलता है। वहां इस का रूप "जात" है और स्वामी दयानन्द भी इस का अर्थ शासक के रूप में करते हैं। ऋग्वेद में कोई चालीस से अधिक जाट वंशों के नाम हैं और बहुतों को खुल कर जाट कहा गया है जैसे “हरि जात, देवजात, पुरूजात, शूर जात" आदि आदि। इन वंशो को आजकल हरि, देवल, पौर, शूरान नामों से क्रमशः जाना जाता है। दस राजाओं के युद्ध में जिन अज, भेद और यामुन तथा शिग्रु वंशो का वर्णन आता है, वे आजकल जाटों के अजरा, भेद, यामुन/जामुन और सिगरवार वंश हैं। ऐसा लगता है कि प्राग्‌ ऐतिहासिक काल में केवल पांच वंशों को ही जात कहा जाता था, इसीलिये ऋग्वेद में "पंचजाताः" कहा गया है और उन्हें सरस्वती नदी द्वारा पोषित कहा गया है ये पांच जात वंश, आर्य, तुर, दहि, शूर और शर्मत थे जिन्हें भारतीय परम्परा भूल चुकी थी। (अथवा जान बूझ कर भुला दिया गया था) किन्तु अवेस्त ने याद रखा और इन नामों को लिखा है। यहां केवल शर्मत नाम ही व्याख्या चाहता है और यह अलान/औलान वंश का नाम है। शेष चारों नाम जाटों के आर्य, तुर दहिया और शूरान वंशों के हैं।
पश्चिम तथा यूरोप में जाने वाले वंशो में गुट/गाट/गोट/गोथ अत्यन्त प्रसिद्ध हुआ, इस वंश के वंशज आज भी भारत में राजस्थान में हैं और अपने को गाट कहते हैं। यह गाट शब्द भी, गात/गाथ/गाथिन से निकल्म लगता है और गाथिन वंश का विश्वमित्र, जिस ने ब्राह्मणों की प्राथमिकता को कभी नहीं स्वीकार किया, सर्व प्रसिद्ध है। अत जाट और गाट, दोनों शब्द ऋग्वैदिक जात गाथ ही हैं, केवल दन्तव्य (त/थ) का तालव्य (ट) हुआ है। जैसा कि ऋग्वेद में लिखा है, जात/सुजात लोग ही शासक बन सकते थे और शासक का चुनाव कर सकते थे, अन्य जनसाधारण नहीं। शासकों के शासक को “इन्द्र" पद से विभूषित किया जाता था, और उसे "अधि-जात" कहते थे।
इन को मध्य एशिया में जात ही कहा जाता रहा और अठारहवीं शताब्दी तक, मुगलो (शुद्ध रूप मुखल/मुखर) के खान को जात का शासक कहते थे। आर्य मंजू श्री मूलकल्प में भी हर्ष वर्धन और समुद्र गुप्त आदि के लिये जात लिखा गया है। अतः भारत में भी आठवीं शती तक इसे जात ही लिखा जाता था।
अतः बहुत से जाट वंश आरम्भ से ही हरियाणा, पंजाब वर्तमान पाकिस्तान, अफ्गानिस्तान और उस के उत्तरी भागों में मध्य एशिया में थे। जब वे ही मध्य एशिया के वंश, शक, पहलव, यौन, जौवल, किदार आदि कबीलों के संगठन बन कर भारत आये तो आक्रमणकारी होने से भारतीय वंशों ने उन का विरोध किया और भारतीय पुराणकारो ने उन्हें असुर वाह्य और शूद्र तक कहा। किन्तु कुछ समय पश्चात्‌ वे भी जाट समुदाय में मिल कर भारतीय हो गये, केवल उन को छोड़ कर जो मध्य एशिया में अथवा अफगानिस्तान में रहते हुये इस्लाम धर्म को अपना चुके थे। जैसे मुहम्मद गौरी, शेरशाह


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सूरी और मुगल। यह तीनो भी जाटों के गौर/गौरी शूर और मुखल वंशों से सम्बन्धित थे और धर्म परिवर्तन के कारण ही अन्य जाटों से अलग रहे।
गुजर वंश भी जो बाद में एक अलग संगठन बन गया, आरम्भ में एक वंश विशेष का नाम था जिसे गुरज/गूर्ज कहते हैं। इसी प्रकार खत्री भी एक वंश है जाटों का, जिस का बाद में अलग संगठन बन गया। खत्री जाटों के रोहतक जिले में 24 गांव है। इतिहास में बार बार ऐसा हुआ है कि एक वंश विशेष ने सारे समुदाय अथवा संगठन को अपना नाम दिया, जैसे आर्य, गुट/गाट, हरि, तातार/तातरान, शिवि, शक, कुश्वान आदि। यही कारण है कि जाट वंशों के कुछ भाग गुजर/आभीर/ और खत्री संगठनों में मिल गये और आज ये वंश सभी समुदायों में पाये जाते हैं।

शकों से समानता

अब हम आप का ध्यान इस पुस्तक के अन्त में दिये गये मानचित्र की ओर दिलाना चाहते हैं।56 हम ने इस मानचित्र में केवल इतना ही परिवर्तन किया है कि उन नदियों एवं सागरो के नाम दिये हैं जो मूल मानचित्र में नहीं थे। इस मानचित्र में शको को अलेग्जेंड्रिया के ऊपर तथा सोगदियाना के उत्तर व मस्सगटई तथा अरल सागर के पूर्व में स्थित दिखाया गया। अरल सागर और कैस्पियन सागर के मध्य भाग में दहये लोगों को स्थित बताया गया है। सिथियौं को डन्सूब (Danube) और डोन (Don) नदियों के बीच कृष्ण सागर के पश्चिम के क्षेत्र में स्थित बताया गया है। इतिहासकारों में इस बात पर आम सहमति है कि भारत-ईरान के शक तथा यूरोप के सिथियन एक ही थे। यूनान के क्लासकीय लेखक शको को सकाए (Sakai) कहते हैं। उन के भारत आगमन के बाद टाल्मी (Ptolemy) इन्हे भारतीय सिथियन का नाम देता हैं। यही बात एच.एच.विल्सन विष्णु पुराण की टीका करते हुये कहता है। विभाजन पूर्व पंजाब के जाटों का उल्लेख करते हुये हेविट्ट लिखता है, "उन का नाम ही उन्हें थ्रेस के गटिटयों से सम्बद्ध करता है और इन (जाटों) का नाम ही इन्हें थ्रेस के जटई लोगों से, पीथिया के अनुसार बाल्टिक सागर के दक्षिणी तट पर स्थित जट्टान से, टाल्मी और टेसिटस के अनुसार लिथुआनिया देश में विस्तूला नदी पर आवासित जट्टान से, तथा गाथलैन्ड (स्वीडन) के गाथों से, सम्बद्ध करता है"। इस प्रथा का प्रमाण अत्यधिक महत्व रखता है क्यों कि यह भैय्याचारा57 अथवा भाई चारा विशुद्ध रूप में एक जाट प्रथा है और यह अन्यत्र कहीं भी देखने को नहीं मिलती। फिर यह भी एक तथ्य है कि भारतीय सिथ लोग सिर मुंडवाया करते थे और यह प्रथा अब भी उन भारतीय जाटों में प्रचलित है, जिन्होंने सिख धर्म नहीं अपनाया। ज्येष्ठता के अधिकार को भी जाटों ने कभी नहीं माना और इस बात के पुष्ट प्रमाण हैं कि सिथ लोग अपनी सम्पत्ति अपने सभी पुत्रों में समान रूप से बांटा करते थे | हैरोडोटस

56. Taken from D. P. Singhal's India and World Civilisation, p. 417.
57. op. cit., p. 481.

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के अनुसार थ्रेस की (आज का बुल्गारिया) जातियों में जटई अत्यधिक शूरवीर एवं स्पष्टवादी थे। वे संगीत प्रेमी भी थे। उन की एक पुरानी प्रथा भी थी, जिस में वह वंशावली का इतिहास लिखने वालों को विशेष रूप से नियुक्त करते थे ताकि पौराणिक वंशावलियों के रूप में वह अपनी जाति एवं कबीले का इतिहास सुरक्षित रख सके। यह प्रथा भारतीय जाटों में आज भी विद्यमान है। हरिद्वार, मथुरा आदि के पंडे, भाट और मिरासी अब भी जाटों की वंशावली व इतिहास सुरक्षित रखते हैं, और किसी विशेष परिवार के किसी महत्वपूर्ण अवसर पर, घरों की छतों पर बैठ कर उन्हे सुनाते हैं। हम ने कुछ समान प्रथाओं का उल्लेख केवल इस आपत्ति का निराकरण करने के लिये किया है जो यह मानती है कि नामों की समरूपता समानता का प्रमाण नहीं होती। यहां केवल वंशों के नाम ही एक जैसे नहीं हैं बल्कि उन की सामाजिक परम्पराएं तथा सम्पत्ति के अधिकार आदि की प्रथाएं भी एक जैसी हैं।

"जर्मन कबीलों से अभिन्नता"

सभी विद्वान मानते हैं कि जर्मन कबीले इन्डो-यूरोपीयन या आर्य या श्वेत जाति से हैं। स्वयं जर्मन शब्द 90ईस्वी पूर्व में रोम के Posi द्वारा प्रयुक्त किया गया था। ये भी गांवों में और चोकोर घरों में, अपनी रसोई चूल्हा और पशुओं के साथ रहते थे। गेहूं, जौ आदि की खेती करते थे और सभी प्रकार के पालतू पशु रखते थे। एक ग्राम एक ही गोत्र (Clan) के लोगों द्वारा बसाया जाता था और ग्राम की भूमि गोत्र के लोगों में बांट दी जाती थी। शामलात भूमि, जंगल, चरागाह, पानी आदि समस्त ग्रामीणों की सम्पत्ति थे। एक ग्राम और दूसरे ग्राम के मध्य वन या खाली भूमि स्थित रहती थी | शस्त्र धारण की क्षमता रखने वाले सभी लोग अपने अपने गोत्रों में गठित हो कर युद्ध के लिये तैयार रहते थे। व्यक्ति की प्रतिष्ठा गोत्र की प्रतिष्ठा थी और व्यक्ति के ऋण द्वेष आदि भी पूरा गोत्र पूरा करता था। मेलो और त्योहारों पर देव पूजा होती थी और जहां देव पूजा होती थी वह भूमि पवित्र समझी जाती थी। पूजा स्थल पेड़ों या झरनो के पास होते थे। राजनैतिक और धार्मिक कार्यों को वे स्वयं करते थे, कोई पुरोहित नहीं होते थे सर्वोच अधिकार एक सभा (पंचायत) को प्राप्त थे, जहां मुकद्दमों को सुना जाता था और दुर्व्यवहार, देशद्रोह आदि के लिये दोषियों को बहिष्कृत कर दिया जाता था।
यह सभी कुछ भारतीय जाटों में आज भी है। परिवार की कृषि भूमि और निवास स्थान को छोड़ कर, सब कुछ सांझा है। गुड़गांवां में देवी मंदिर के पुरोहित भी जाट हैं ब्राह्मण नहीं | प्रायः सभी जर्मन कबीले, भारतीय जाटों में भी प्रतिनिधित्व पाते हैं, जैसे मान, रोज, ढिल्लन, नारा, कल्यान, कालों, कोह्ल, छिल्लर/शील्लर, हंस, मायर, गाल, बरिंग डब्स/डबास, टेबट, मिन्स/मिन्हास, ब्यूहलर/भुल्लर, भिन्डर आदि आदि।
सिकन्दर के आक्रमण के समय मल्ली जाट अपने खेतों में काम कर रहे थे और ग्रीक सेना को देख कर वे अपने घरो की ओर भागे और घरों से हथियार ले कर युद्ध भूमि में


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आ डटे। वह एक मल्ली जाट था जिस ने अपने भाले से वह घाव दिया जो सिकन्दर के लिये जानलेवा सिद्ध हुआ।
कुछ और स्रोतों और विशेषज्ञों द्वारा प्रस्तुत उद्धरणों पर भी दृष्टिपात करे। The Historians' History of the World58 के अनुसार सिथियन मध्य एशिया व उत्तरी यूरोप के उन कबीलों का नाम था, जो अपनी पड़ोंसी जातियों पर सदा आक्रमण करते रहते थे। सिथिया को एक पुराना देश बताया गया है जो केस्पियन सागर के पूर्व से ले कर अमु तथा सिर नदियोंडन्यूब और डौन नदियों के बीच घाटी तक फैला हुआ था। उन्होंने यूनान पर हमला किया और एथन्स पर अधिकार कर लिया। होमर और हिसियोड उनका नाम देते हैं। वह दूध का खूब पान करते थे और युद्ध उनके लिये व्यवसाय था। थुसीडाइड के अनुसार वह संख्या में इतने अधिक थे और इतने भयानक कि यदि वह संगठित हो जाते तो वह अप्रतिरोध्य सिद्ध होते थे। डियोडोटस के अनुसार मस्सा गटई सिथियों के वंशज थे। इस से यह पता चलता है कि सिथियन/साक/शक कृष्णा सागर के पश्चिम से लेकर अरल सागर तक फैले हुये थे। इस मानचित्र में मस्सा गटईयों को (500 ई. पू. में) अरल सागर के पूर्वीय किनारे पर बसा हुआ दिखाया गया है। दहियों को अरल सागर के दक्षिणी तट पर तथा केस्पियन सागर के पूर्व के क्षेत्रों में रहने वाला दिखाया गया है। यद्यपि इन कबीलों को अलग-अलग नामों के अन्तर्गत दिखाया गया है, किन्तु यह सभी एक ही जाति से थे और वह जाति है, जाटदहियों का उल्लेख विष्णु पुराण में भी हुआ है और वह लोग भारत में रहने वाले आज के दहिया जाट ही हैं। ये दहिया वही हैं जिन्हें टाल्मी ने दहे के रूप में और चीनियों ने तहिया के रूप में वर्णित किया है।59

कुषाणों से समानता

चांग की (Chang Kieu) के संस्मरणों के अनुसार जो उस की कृति सी-की में संगृहीत है, महान यू-ची मूल रूप से तुन हवांग और की-लीन के मध्य में रहते थे।60 शी-की चेंग-इ विशेषज्ञों के हवाले से लिखता है कि यू-ची का पुराना देश चीन का कंसु प्रति था। हिअंगनू, जो आगे चल कर हूण कहलाए, उन के पड़ोसी थे।61 शुरू में यू-ची बहुत शक्तिशाली थे और वह हिअंगनू को अपने से तूच्छ मानते थे। किन्तु जब तूमन का पुत्र माउदन हूणों का प्रमुख बना तो उस ने यू-ची पर आक्रमण कर के उन्हें पराजित किया। 176 ई.पू. लिखे एक पत्र में हूणो के इस मुखिया ने चीन के सम्राट् को यू.ची पर अपनी विजय की सूचना दी। ये यू.ची पश्चिम की ओर कैसे गये, उन्होंने चीन साहित्य के क्षेत्र तहिया (आज का बल्ख, पुरातन काल का बक्तरिया) पर अधिकार

58. Historians' History of the World, Vol. II, p. 400.
59. AIG, pp. 263-66.
60. Sse-ki chapter 123, Fol. 4.
61. IA, 1905, p. 75 & 1919, p. 70.

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कैसे किया, उन्होने अपनी पांच रियासते कैसे स्थापित कीं और फिर इन में एक के मुखिया ने उन्हे कैसे संगठित कर के कुषान साम्राज्य की नींव रखी, यह इतिहास के प्रत्येक विदयार्थी को भली भान्ति विदित है और इसे यहां दोहराए जाने की आवश्यकता नहीं है। इस बात पर मतभेद नहीं है कि यू.ची जाट ही थे। यह बात हम पहले भी कह चुके है और इस तथ्य को अच्छी तरह ध्यान में भी रखने की आवश्यकता है कि यू.ची का उच्चारण गुट्टि रूप में किया जाता है और इस से आगे बढ़ कर हम यह भी याद रखें कि यू.ची की मुख्य शाखा को चीनी ता-यू-ची कहते हैं और यह पुराने क्लासकीय लेखको द्वारा वर्णित मस्सा जटी ही है, तब हमें यह कहते हुये तनिक भी कठिनाई या संकोच नहीं होता कि कुषान जाट ही थे। नहीं तो हम इस तथ्य को कैसे सिद्ध कर सकते हैं कि यू.ची के सभी कबीले जाटों के ही कबीले हैं ? इन जाटों को तुर्क राष्ट्रीयता प्रदान करने वाली सभी मान्यताएं कोई ठोस आधार नहीं लिये है। कल्हण अपनी राजतरंगिनी में कनिष्क एवं उस के वंश के अन्य सदस्यों का उल्लेख करते हुये उन्हें तुरुष्क कहता है, जिस का अर्थ है तुर्क, "तुरुष्कान्व्योद्भूत।"62 अलबेरूनी भी उन्हें तुर्की शाहिया वंश, जिस का मूल सम्बन्ध तिब्बत से था, मानता है।63 केनेडी तो उन की तुर्क राष्ट्रीयता केवल उन की शारीरिक रूपरेखा में ही नहीं बल्कि उनके पहरावे तक में देखता है और कनिष्क के नयन नकश को बिल्कुल अपनी जाति के अनुरूप पाता है। "कनिष्क स्वयं को एक कुषान कहता है। उस के सिक्के उसे सुगठित शरीर वाले एक बर्बर राजा के रूप में प्रदर्शित करते है जो कि एक डीला कोट तथा बड़े एवं भारी बूट (जूते) पहने हुये है और यह तुर्किस्तान के लोगों की आम पोशाक थी। तोकरी महान तुर्क परिवार से सम्बन्धित थे और कनिष्क का चहरा मोहरा अपनी जाति की सभी विशेषताएं लिये है, उसका कपाल पैना था, उस के गालों की हड्डियां उभरी हुई थीं, उस की नाक बड़ी लम्बी और भारी थी और दाढ़ी उस की घनी।"64 इतिहासकार भंडारकर भी कुषान राजाओं के ऐसे ही परिधान का उल्लेख करता है जो उन के सिक्कों65 से देखने को मिला। विल्सन के अनुसार उस के चेहरे के लक्षण मंगोल की तरह नहीं बल्कि एक तुर्क की तरह है।66 हिर्थ, कुजुल कहफिस द्वारा प्रयुक्त उपाधि यवुगा और तुर्की उपाधि जबगू67 में एक समानता देखता है। चीनी भिक्षु और कोंग इस का उल्लेख करते हुये कहता है कि 753 ईस्वी में गंधारकाबुल नरेश उन के परिवार व राज्य के अधिकारी तुर्कों की इस राजकीय उपाधि का

62. Rajatarangini, Vol. I, p. 170.
63. AIS, ii, p. 10 ff.
64. JRAS, 1912, p. 670.
65. lA, 1908, p. 41.
66. AA, p. 349.
67. CII, Vol ii, part 1, p. 1.

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प्रयोग करते थे और वह उन को कनिष्क के पुरातन राजकीय परिवार के वंशज मानता है।68
कुषानों के तुर्की मूल के जितने भी मत है वह पूर्णरूप से गलत एवं भ्रांतिपूर्ण हैं। तुर्क शब्द संभवतः छटी अथवा सातवीं ईस्वी में अस्तित्व में आया। कुषान दूसरी ई.पू शताब्दी से ले कर तीसरी शती ईस्वी तक पाये गये। कुषानों के काल में तो तुर्क शब्द भी अस्तित्व में आया ही नहीं था। छटी और सातवीं शती में तुर्कों के उदय के बाद जब उन्होंने उस क्षेत्र पर आधिपत्य जमा लिया, जिसे आज तुर्किस्तान कहते हैं, (और जो कुषानों का गृह राज्य भी रहा), तब इन क्षेत्रों का सम्बन्ध तुर्कों से जुड़ा वास्तविक तथ्य तो यह है कि कुछ यू-ची कबीले जो मध्य एशिया में अपने क्षेत्रों में रह गये थे वे तत्पश्चात तुर्कों से मिल गये जो उन के कबीले में से ही एक थे और तुर कहलाते थे। लेकिन दूसरी ओर तीसरी ईस्वी पूर्व जब तुर्को का नाम अस्तित्व में ही नहीं था, तो कुषानों के तुर्क मूल के मानने का प्रश्न ही पैदा नहीं होता। सीधी-सी बात है पहले कौन आता है पिता या पुत्र? चीनी स्रोत अपनी इस मान्यता पर निरन्तर स्थिर रहे हैं कि तुर्क हियुंग-नू अथवा हूणों के वंशज हैं न कि उस के उलट। 551 ईस्वी में अलतई क्षेत्र के लोगो ने जुजुआनों (एक जाट कबीला जिसे आज जंजुआ कहते हैं) के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। इस विद्रोह के बाद उन्होंने मंगोलिया के बाह्य क्षेत्र में स्थित ओरखोन के समीप राजधानी बना कर अपना राज्य स्थापित किया। इन लोगों को चीनियों ने तु-क्यु कहा और अन्य लोगों ने है तुर्क। 551 ईस्वी से पूर्व तो तुर्क शब्द का कहीं प्रयोग ही नहीं मिलता और यदि कहीं उन का कोई कबीला भी रहा होगा तो बहुत साधारण एवं छोटा-सा होगा।69 हां सुदूर अतीत में, तुर एक महान्‌ वंश था जिन्होंने तुरान को अपना नाम दिया और ऋग्वेद में नाम पाया। फिर उनकी शक्ति क्षीण हो गई और छटी शती ईस्वी में वे फिर से उभरे और अधिकांश एशिया पर आधिपत्य जमा लिया। तुर के साथ 'क' प्रत्यय लगने से तुर्क बना है।

वहलवी बुन्दहेश तुर, तौर, तुर्क की व्युत्पति इस प्रकार करता है —


फ्रेदुन (Fredun) से

तूर/तुर (Tour/Tur) से

जेशम (Jaeshm) से

पेशंग (Peshang) से

फ्रासिआओ (Frasiao) से
68. IA, 1905, p. 86.
69. See Paul Pelliot, La Haute Asia, p. 12.

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मसूदी के अनुसार तुर अथवा तूर नाम का व्यक्ति तुर्कों पुरखा था। मसूदी के इस मत को काटने का कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं है। यह भी उल्लेखनीय है कि तुर कबीला अब भी भारत में है। लोकसभा के पूर्व सदस्य स्वर्गीय मोहन सिंह तूर इस कबीले के थे। ईरानी स्रोत यह भी कहते है कि फ्रेदुन के वशजों की एक पुत्री बबूदुख्त, कबद (कवध) के साथ 498 ईस्वी में विवाही गई, उस समय कबद (कवध) अक्षुवनों (कशुआनों) के साथ बनवास में था। इस काल ही में उसे नोशेरवां नाम पुत्र प्राप्त हुआ। आगे चल कर नोशेरवां ने खकान की एक अन्य पुत्री से विवाह किया और उस का उत्तराधिकारी हरमुज़्द उस की कोख से उत्पन्न हुआ।70 जब हम विषय पर चर्चा कर ही रहे हैं तो आइए हम तूर के अन्तिम उत्तराधिकारी फ्रासिआओ पर विचार करें। फिरदौसी इस नाम को अफरसिआब के रूप में लिखता है और उस के भाई का नाम करसेवाज़ बताता है। वह तुरानिओ का राजा था, जिस ने ईरान के बादशाह कै खुसरू के विरुद्ध अपने सेनापति पिरान के साथ बल्ख का युद्ध लड़ा।इस युद्ध की समाप्ति एक संधि के साथ हुई। इस के पश्चात् भी तुरानी राजा अर्जस्प ने फिर एक युद्ध किया और उस ने केवल कै खुसरू के पुत्र लोर्हस्प को मौत के घाट उतारा ही नहीं बल्कि उस ने जरतुष्त धर्म के (आज का फारसी मत) संस्थापक जरतुष्व को भी मार दिया। वह उन के मंदिरों में प्रज्वलित पवित्र अग्नि को बुझाता चला गया और उन का गुश्ताष्प पराजित हो कर भाग निकल।71 अब हमारा प्रश्न यह है कि क्या बुंदहेश का फ्रांसिआओ और फिरदौसी जिसे अफरसिआब कहता है तथा भारत में जिन्हें भारशिव कहा जाता है, एक ही नाम नहीं है? भारशिव अथवा मथुरा/ग्वालियर के शासक, जो कुषाणों के अन्तर्गत एवं उन के बाद सत्ता में रहे,मध्य एशिया के फ्रासिआओं के समान होने चाहिये। इन दोनों में इतनी समानता है कि इस के अतिरिक्त व्याख्या की आवश्यकता नहीं। वैसे भी भारतीय नाम भारशिव किसी तर्कसंगत अर्थ की ओर संकेत नहीं करता। भार का अर्थ बोझ अथवा वज़न है और शिव का अर्थ तो भगवान्‌ शिव है ही। अतः भारशिव का अर्थ हुआ "शिव का/पर बोझ” क्या वे....शिव पर बोझ समान थे या भगवान् शिव इन पर कोई बोझ था?
अतः मथुरा आदि के भारशिव, जाटों के तुर कबीले से ही हो सकते है और वह कोई भारत की स्थानीय शक्ति नहीं थे, जिन्होंने भारत से कुषानों को भगा दिया। इस संदर्भ में डॉक्टर जायसवाल का मत जो केवल सिक्कों पर अंकित प्रमाणों पर आधारित है पूर्ण रूप से युक्तियुक्त एवं तर्क सिद्ध नहीं है।72 भारशिव जाटों के तूर गोत्र से सम्बन्धित थे, इस लिये वह अपने ही जाट साम्राज्य जोकि कश्वान कबीले के अधीन था, को नष्ट करने का साधन नही बन सकते थे। इस बात को मानने में तनिक भी कठनाई

70. See J. J. Modi in JBBRAS 1914, Vol. XXIV, p. 575.
71. ibid., p. 10.
72. JNSI, VP. III, p. 134.

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नहीं होनी चाहिये कि भारशिव शब्द फ्रांसिआओं का ही संस्कृतनिष्ठ रूप है। अब भी अफरसियाब नाम का एक नगर समरकंद के पास स्थित है, जहां पर जी. ट्रेवेर ने खुदाई का काम किया था।73
अतः सिद्ध यह हुआ कि तूर प्रथम फ़ासिआओं का परदादा था, यह फ्रासिआओं भारत में भारशिव थे उन के नाम त्रय, हय, बरहिण निश्चित रूप में भारतीय नाम नहीं हैं और भार भी एक जाट गोत्र है।
जहां तक उन के तिब्बती उद्भव का सम्बन्ध है, हम ऊपर बता चुके हैं कि चीनी सीमाओं को छोड़ते समय यू.ची दो भागों में विभाजित हो गये थे। लघु यू-ची तिब्बत की और प्रस्थान कर गये और सम्भवतः वहां से कश्मीर के उत्तरी भाग व स्वात घाटी को पार करते हुये वह काबुल आदि तक पहुंचे। लेकिन इतना होने पर भी वे रहे तो यू-ची, जाट जाति के ही। इतिहासकार कोनोओ73A इस तर्क का खण्डन करता है कि कुषान तुर्क मूल के थे। वह उन्हे ईरानी मूल के मानता है। कोनोओ, जोयस (Joyce) को उद्धरित करते हुये यह स्थापित करता है कि उन की लम्बी नाक, घनी दाढ़ी और चेहरे मोहरे व शरीर के अन्य लक्षण "होमो-अल्पाइन" कहे जाने वाले लोगो की शारीरिक विशेषताएं लिए हैं और यह लोग बहुल संख्या में चीनी तुर्किस्तान में पाये जाते रहे हैं। इस क्षेत्र कों आज चीन का सिन किसांग प्रान्त कहा जाता है। उस ने धवल गुलाबी चेहरा, औसत से बड़ा कद, उभरी हुई नाक, लम्बा अण्डाकार चेहरा और भारी मात्रा में बाल आदि की तुलना यह सिद्ध करने के लिये कि तकला मकन जनसंख्या ईरानी ही है। उस ने यह प्रमाणित भी किया कि युवुग और कुजुल उपाधियां पुरातन शकों द्वारा प्रयुक्त की जाती थीं। उस ने यह भी दिखाया कि कुषानों द्वारा प्रयुक्त कई शब्दों एवं पद नामों, उपाधियों की पूर्ण व्याख्या ईरानी भाषा में उपलब्ध है, जो तुर्किस्तान में बोली एवं साहित्य में प्रयुक्त की जाती है। उस ने इस भाषा को शक भाषा का नाम दिया है। शाओ शब्द को ले कर वह यह कहता है कि यह एक शक शब्द है जिसका अर्थ राजा होता है।74 इसी प्रकार उस ने कुषानों द्वारा प्रयुक्त अन्य भी कई शब्दों के हवाले दिये हैं और यह दिखाया है कि यह शक शब्द ही है। पेलियोट (Pelliot) ने कुषानों की इस भाषा को पूर्वी ईरानी भाषा कहा है।75 ग्राउसट (Grousset) भी यही मत लिये है कि तरिम घाटी में बसने वालों की शकल-ओ-सूरत ईरान की उपजाति काकेसियन से बहुत मिलती जुलती है। उस ने फरनान्ड ग्रेनार्ड को उद्धृत किया है जो इन लोगों का वर्णन करते हुये कहता है कि उन के काले बाल प्रचुर मात्रा में होते थे, वह दाढ़ी रखते थे, उन की गालें गुलाबी हुआ करती थीं, जब तक कि वह सूर्य के ताप से ताम्र रूप नहीं ले लेती थीं, उन

73. G. Trever, Less Monuments de-L'art Greco-Bactriem, p. XL.
73A. Konow is also a Jat clan.
74. CII, Vol. ii, part 1, p. 1 ff.
75. SBAW, 1913, p. 408 ff; 1919, p. 734 ff.

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के चेहरे लम्बे एवं अण्डाकार थे, उन की नाक प्रायः तीखी और भूरी आंखें (जो तिरछी नहीं थी) हुआ करती थीं। उन ने पुरातन एवं पूर्व मध्यकाल के चीनी यात्रियों को भी उद्धृत किया है, जो इन लोगों की इसी प्रकार की विशेषताओं का उल्लेख छोड़ गये हुये हैं। जहा तक भाषा का सम्बन्द है मध्य एशिया में जो उत्खनन कार्य हुये हैं उन से पता चलता है कि नौवीं शती ईस्वी तक तुरफान, करशहर, कूचा और काशगर के लोग तुर्की नहीं बोलते थे बल्कि वह शुद्ध रूप में एक भारतीय-यूरोपीय भाषा का प्रयोग करते थे, जो ईरानी संस्कृत एवं यूरोपीय भाषाओं से घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित थी।76 वी. वाई. जेजनकोव (V. Y. Zegenkov) का मत यह है कि कुषाण काल की जो भी ऐतिहासिक साम्रगी है चाहे वह बहुत कम मात्रा में उपलब्ध है, वह उन की मूल जनसंख्य का सम्बन्ध महान् यूरोपीय जाति से जोड़ती है और वह है, जिसे श्वेत अथवा आर्य जाति कहा जाता है।77

कुशान अथवा क्षुवान (वास्तविक रूप)

इस शब्द के शुद्ध उच्चारण एवं उस की शुद्ध वर्तनी को ले कर बहुत वाद-विवाद है। कई भाषाओं में यह शब्द विभिन्न रूपों में लिखा गया है। यहां तक इस शब्द का शुद्ध उच्चारण कई इतिहासकारो के लिये अत्यधिक कष्टप्रद सिद्ध हुआ।78 खारोष्टी के पुरातन शिलालेखों में इसे खुशान अथवा के गुशान के में पढ़ा गया है। जनरल कोर्ट द्वारा 1834 में जिला रावलपिंडी (पाकिस्तान) में गांव मनिकियाला के पास एक शिलालेख ढूंढ निकाली गई, वहां पर इसी शब्द को गुषण पढ़ा गया। सिंध नदी पर स्थित पंजतर जो कि ज़िला पेशावर और हज़ारा (पाकिस्तान) के बीच एक स्थान है, से 122 ईस्वी से सम्बन्धित शिलालेख पाया गया, जिस पर भी इसी शब्द का यही रूप अंकित है। पहले और दूसरे शिलालेख का वास्तविक पाठ इस तरह से है :—

  1. महाराजस कनिष्कस गुशानवंश संवर्धक लल79
  2. महारायस गुशानस (राजा रमी)।80

पहले आलेख का अनुवाद इस प्रकार है, "महाराज कनिष्क के गुशान वंश का संवर्धक लललल एक क्षत्रप (सेनापति) था कनिष्क का तथा वह लाली/लल्ली कबीले का जाट था जो आज भी पंजाब के फगवाड़ा तथा फिल्लौर के आस पास के गांवों में पाए जाते हैं।
तक्षिला से प्राप्त चान्दी के पत्र (The Taxila Silver Scroll) पर आलेख का काल

76. RSCE, p. 70-71.
77. KSIU, pp. 150-151.
78. Baldev Kumar, The Early Kushana, p. 1.
79. JRAS, 1909, p. 666, IA, Vol. X, 1881, p. 215.
80. CII, Vol. II, pt. 1, p. 70; EI, Vol. XIV, p. 134.

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शक सम्वत्‌ 136 दिया गया है। शक सम्बत्‌ कनिष्क द्वारा 78 ईस्वी में शुरू किया गया था अतः इस आलेख का काल 136 + 78 = 214 ईस्वी बनता है। इस आलेख में पढ़ा गया शब्द "खूशान" है। ये दो रूप हमे राजा कुजुल कदफीस के सिक्कों पर भी अंकित मिलते हैं। खारोष्ठी लिपि में वर्तनी का अन्तर इसलिये हुआ है क्योकि दीर्घ स्वरों को इस लिपि में स्थान नहीं दिया गया। कुजल एक उपाधि और कदफीस नाम कद से बना है पहलवी में कद का अर्थ है नेता + फीस, संस्कृत में यही शब्द पेश और ज़ेन्द भाषा में Раеsа के रूप में पाया जाता है, जिस का अर्थ महान्‌ है। अतः कदफीस का पूरा अर्थ हुआ महान्‌ नेता। उन के सिक्कों पर यूनानी आख्यानों में यह शब्द कोसानो (Kosano), कोषानों (Cocano) और क्षुसान के रूप में प्राप्य है।81
मट (मथुरा) में पाये गये एक ब्राह्मी लिपि के आलेख में यह शब्द "कुशनाम पुत्र” के रूप में अंकित है। अर्थात कुशानों के पुत्र।82 सासानी वंश के ईरानी सम्राटों के सिक्कों पर भी आलेख वही हैं, लेकिन इस में नाम का दूसरा स्वर लम्बा (दीर्घ) कर दिया गया है, रब्ब कुशान83 इसी शब्द का चीनी रूप है "को-शुआंग" (Koi Shuang) अथवा कवीश-वांग (Kwishwang)84 चीनी भाषा के (Koi Shuang) कुशुआंग बांग का शाब्दिक अर्थ है कुशान राजा। थामस इस शब्द को कुश (Kusa)85 और विद्या भूषण इसे कुशन86 रूप मे ग्रहण करते हैं। वास्तव में इस शब्द का शुद्ध पाठ है कुशवान। यह आधुनिक काल के जाटों का एक गोत्र भी है।
इस शब्द के कुशान रूप पर ही आते है। कुशान एक कबीले का नाम है, क्योंकि इस कबीले के लोग बल्ख, सोगदियाना आदि पर शासन करते थे, अतः उन के साम्राज्य को कुशान साम्राज्य कहा जाने लगा, उन के राजाओं के नाम भी इसी तरह कुशान रूप में ही चलते रहे। चीनी पुस्तक Heou-Han-Chou दहिया (बल्ब का पुराना नाम) को पांच राज्यो में बंटे होने का उल्लेख करती है, इन में से एक राज्य कुशानों का था और आगे चल कर इस पुस्तक में यह उल्लेख भी किया गया है, “लगभग सौ वर्षों के बाद कुजुल कदफीस" जोकि को-श्वांग का राज कुमार था, ने आक्रमण कर के शेष चारों राज्यों को अपने अधीन कर लिया और स्वयं को इस नवगठित साम्राज्य का राजा (Wang, वांग) घोषित कर दिया। इसी साम्राज्य को को-श्वांग (कुशाण) कहा गया। इस के बाद इसी राजकुमार ने असी (पर्थिया) पर आक्रमण किया, उस ने Kao-fu (काबुल) को भी अपने अधिकार में ले लिया। फिर वह पोता और किपिन का विनाश करने के बाद, इन सभी

81. JNSI, Vol. VIII, p. 60 and CCIM p. 66.
82. JRAS, 1914, p. 370.
83. EHI, p. 51.
84. IA, 1917, p. 261.
85. IA, 1903, p. 356.
86. JPASB, 1910, p. 479.

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देशों का पूर्ण रूप से अधिपति बन गया। उस के पश्चात्‌ उस के पुत्र ने (Tian-Chu) सिंधु प्रदेश (भारत) पर विजय प्राप्त की।" सभी देश उन को को-शवांग का नाम देता हैं और उनके राजा को को-श्वांग राजा। किन्तु हान लोग इन के मूल एवं प्राचीन स्वरूप को सुरक्षित रखे हुये उन्हें ता-यू-ची के नाम से ही सम्बोधित करते है।87 चीनी इतिहासकार उन्हें जाट जाति से सम्बद्ध करते हैं और उनका कुलनाम कुश्वान देते हैं।
इस संदर्भ में यह भी उल्लेखनीय है कि इतिहास के उदय काल से ही अमू और सिर नदियों के क्षेत्र (जिहोन, सिहोन, ओक्सस/वक्शु, इतिहास में इन नदियों को भिन्न नामों से पुकारा गया है) पर सदा ही जाटों का अधिकार रहा है, केवल कुछ अन्तराल को छोड़ कर जब सिकन्दर महान्‌ के बाद यूनानी शासकों ने इस क्षेत्र को अपने अधीन रखा। जब युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ किया तो यह लोग पाण्डव राजा को उपहार देने के लिये अपने अश्व इन्द्रप्रस्थ ले कर आए। महाभारत के सभापर्व के अनुसार, "शकास्तुरवारा कंकाश्व रोमशः शृगिणो नराः"88 अर्थात्‌ शक, तुखर, कंक जो भेट के घोडे लाए थे, वे सब जाट कबीले ही थे, यही कबीले आज सिकरवार, तुखर और कंग कहलाते है। जब अर्जुन उत्तर पश्चिम क्षेत्र की ओर दिग्विजय के लिये गया, तो उसने वहां एक अन्य जाट कबीले के साथ युद्ध किया, जिन्हें लाम्बा कहा जाता था। संस्कृत में यह नाम लम्पाक रूप धारण कर लेता है, जिस का अर्थ है, लम्बा ऊंचे कद का। महाभारत में एक अन्य जाट कबीले का भी उल्लेख मिलता है, “लोहान्‌ परम काम्बोजान्‌।"89 लोहान आजकल भी जाट कबीले के रूप मे मिलते है। जबकि कम्बोज हिन्दुओं की एक अलग जाति के रूप में मिलते हैं, जिन्हें आजकल कम्बोह अथवा कमोह कहा जाता है। ये लोग आजकल जी.टी. रोड पर स्थित करनाल नगर के पास व अन्य क्षेत्रों में पाए जाते हैं। हेमचन्द्र कृत अभिधान चिंतामणि में भी कहा गया है, "लम्पाक मुरुन्डःस्युः" अर्थात्‌ लम्पाकों को मुरुन्डों के साथ लिखा है।90
इनके अतिरिक्त अन्य जाट कबीलें भी हैं, जैसे लाम्बा, मण्ड, कंग आदि। इन में कंग वहीं हैं, चीनी जिन्हें कियांग नू कहते हैं। किन्तु आगे बढ़ने से पहले कुषान शब्द की ओर एक बार फिर ध्यान दें। इस बात की ओर ध्यान देना महत्वपूर्ण है कि चौथी शताब्दी में, जब बल्ख क्षेत्र श्वेत कहे जाने वाले हूणों के अधीन था, तो इन को कुशान शब्द जैसे शब्द ही से सम्बोधित किया गया था। ईरानी कृति बहमानयश्त में एक जगह उल्लेख किया गया है। "क्षियोन उत्त तुर्क जज़र उत्त तुपित" अर्थात्‌ रक्षीओन (खियोन) तुर्क खज़र तिब्बति। हमारा प्रयास इस में प्रयुक्त प्रथम शब्द क्षीजोन (Xyon) की ओर आप

87. HHC, chap. 118, quoted by Baldev Kumar in The Early Kushanas, p. 2.
88. MBT, II, 47, 26.
89. ibid., 22-26.
90. See Vayu Purana, 47/44 and Matsya Purana, 121, 145, quoted by Buddha Prakash in Kalidas and Hunas.

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का ध्यान आकर्षित करना है। जिस राजा ने पेरोज (459-484 ईस्वी) के शासनकाल में ईरान पर आक्रमण किया और युद्ध में उसे मार गिराया, उसे दिनावरी ने अक्षुवान कहा है। तबारी इसे अक्षुण्वर का नाम देता है और फिरदौसी इसे खुसनुवाज लिखता है। दिनावरी, तबारी और फिरदौसी से तीनों फारसी के साहित्यकार है। हमारा संकेत यह है कि इन में से Bahman Yasht (बहमन यष्त)दिनावरी ने शब्द का सही रूप प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। तबारीफिरदीसी ने इस शब्द को फारसी रूप दे कर लिखा है। सही शब्द क्षवान है, जिस का उच्चारण क्षवां, कश्वां के कप में भी होता है। यह एक जाट कबीला है, जो आज भी अस्तित्व में है। एफ. डब्ल्यू. के. मुल्लर का यह कहना पूर्ण रूप से उचित है कि मूल सोग्दी शब्द क्षेवां (Khshevan) पर आधारित इस के विभिन्न पाठ हैं, जिन का अर्थ है, "राजा"।91 आर. घिरश्मान भी यह धारणा व्यक्त करते हुए अधिक गलत नहीं है कि यह शब्द खेवा है, जो खियोनियों का नाम है। इस में पहला संयुक्‍त अक्षर "क्ष" है, जो संस्कृत का है। यही अक्षर प्राकृत आदि में सामान्य रूप "ख" में परिवर्तित हो जाता है। उदाहरण के लिये संस्कृत का लक्ष्मण तत्सम्‌ से तद्भव होता हुआ लखन बन जाता है। अतः डा. बुद्ध प्रकाश का यह विवेचन पूर्ण रूप से सही है कि सभी नाम खेवां, खिओन अथवा हिआन, हयोन अथवा हूण सोग्दी शब्द "खशेवां"के सदृश्य ही हैं जिस का अर्थ है, राजा। इस संदर्भ में उल्लेखनीय बात केवल इतनी ही है कि पहला अक्षर "ख" न हो कर "क्ष" है, जिस के बारे में ऊपर स्पष्ट किया जा चुका है।
अतः हेपथेलाईट और खिनोई कहे जाने वाले लोग वास्तव में एक ही लोग हैं और आर. घिरश्मान ने उन्हें उचित रूप में इसी तरह लिया है।92 यह जानना भी रुचिकर होगा कि 122 ईस्वी के पंजतर शिलालेख मे दो वृक्षों के उपहार का वर्णन करते हुए इस शब्द का उल्लेख विशेष रूप में इस पंक्ति मे हुआ है, "उर्मिथ पुत्र मोइक द्वारा कसुओं के पूर्वी क्षेत्र को पवित्र किया गया।"93 यहां शब्द "कसुआ" का अर्थ कुश्वान लोगों के भू-क्षेत्र से है। इस विषय के समापन में हम एक पत्र को उद्धृत कर रहे हैं। यह पत्र सोग्दी व्यापारी नानई बंदक द्वारा अपने एक सहयोगी नानई द्वार को लिखा गया जो समरकंद में रहता था। इस पत्र में, जिन लोगों ने 313 ईस्वी में लोयांग पर विजय प्राप्त की थी, उन को XWN कहा गया है।94 इस शब्द में स्वर प्रयुक्त नहीं किये गये और इसी शब्द को मुल्लर कश्वान्‌ (Kshavan) के रूप में लेता है। यही वह शब्द है, जिसे चीनी को-शुआंग अथवा को-चवांग लिखते हैं। यह नाम एक जाट कबीले का है, जिसे कश्वान्‌ अथवा कुश्वान कहा जाता है और इस कबीले को इतिहासकारों ने कुशान रूप में ग्रहण

91. Sogdische Texte, Vol. I, p. 108.
92. R. Ghirshman, Las Chionites-Hephthalites, p. XII.
93. EI, Vol. XIV, p. 134 & CII, part 1.
94. BSOAS, 1948, pp. 601-615.

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किया है। यह भी एक सर्वविदि तथ्य है कि जब महान्‌ जाटों ने दहिया को अपने अधिकार में लिया तो उन्होंने उसे पांच भागो में विभाजित कर दिया था। इनमें से एक भाग पर कुशवान्‌ राज्य करते थे और तद्पश्चात उन्होंने इन पांचों राज्यों को अपने आधिपत्य में लेकर कश्वान्‌ अथवा कुशान सासाज्य को स्थापित किया। कुछ इतिहासकार अनावश्यक रूप में इस विवाद को ले बैठे हैं कि क्या इन पांचों राज्यों के शासक दहिया थे या कि जाट, तहिया अथवा यू-ची। वह इस महत्वपूर्ण तथ्य को अनदेखा कर देते हैं कि दहिया भी जाट थे और कुशान भी जाट ही थे। अन्तर तो केवल कबीलों से नामकरण का है या सामूहिक जाति नाम देने का। Otto Maenchen Helfen ने यह मान कर पूर्ववर्ती इस दृष्टिकोण का समर्थन ही किया है कि पांच प्रमुख, कुशानों सहित, कुशान बड़े सामंत थे तथा वह अपने प्रमुख राजा यू-ची पर निर्भर थे और वह उसकी जाति एवं राष्ट्रीयता लिये थे।95 इस लेखक ने इस संदर्भ में यह भी कहा है कि कुशान साम्राज्य की स्थापना से बहुत पहले ही कुशाणों के कुश नामक गण उत्तरीय तरिम की घाटी में बसे हुए थे।
इसी प्रसंग मे यह बात भी महत्वपूर्ण है कि उइघर ग्रंथोन में कूच को कुश अथवा कुशन कहा गया है और रशीद-उ-दीन के इतिहास में उसे कोशां कहा गया है।96 इस के अतिरिक्‍त सासानी सम्राट् शाहपुहर (प्रथम) में (241-272 ईस्वी) में कुशानों के साथ युद्ध किया बताया गया है और इस सम्राट्‌ को कश की विजय का श्रेय भी दिया गया है। यह कश क्षेत्र उस समय ट्रांसोक्सियाना के दक्षिण पश्चिमी भाग में स्थित था और उस समय बुखारा इस के ठीक मध्य में था। यह कस ही वह शब्द है जिस से आगे चल कर कुसवां और कशवां आदि शब्द विकसित हुए। यह क्षेत्र कुशानों का ही था और यही वह क्षेत्र है जिस का उल्लेख प्रख्यात पंजतर शिलालेख में हुआ है, जिस पर तिथि के रूप में श्रावण मास का प्रथम दिन और वर्ष 122 अंकित है।97 यही क्षेत्र मोइक द्वारा पवित्र किया गया था। यहां इस प्रसंग में यह जानना भी महत्वपूर्ण है कि इन लोगों के लिये चीनी शब्द, होआ/हुआ के प्रथम अक्षर, ह का उच्चारण, क्ष/ख से होता है। इस प्रकार होआ शब्द खोआ/क्षोआ बनता है — जिस का बहुवचन रूप Xoau हो जाता है। यह शब्द बिल्कुल वही है जो सोग्दी शब्द XWN है, अर्थात्‌ क्शेवां है और जिस का अर्थ है राजा। हूणों का ईरानी नाम अवेस्ता में हयोन तथा पहलवी लिपि में खियोन है। अवेस्ता के हयोन से भारतीय उच्चारण हूण निकला है। हमारा दृष्टिकोण इस से और भी अधिक स्पष्ट होता है कि वास्तव में हूण शब्द के प्रारम्भ में जो कष्ठस्थ अवरोध पैदा होता है, वह ईरानी उच्चारण "क्ष" अथवा "ख" से मेल खाता है।98 इस शब्द का पहलवी भाषाई रूप

95. JAOS, 1945, p. 72-73.
96. JA, 1934, p. 59, quoted by Buddha Prakash. SIH & C, p. 290.
97. EI, Vol. XIV. p. 134.
98. SIH&C, p. 306.

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खियौन है और इन लोगों के लिये यूरोपीय नाम खियोन अथवा "खियोनाइट" के रूप में मिलते हैं। "खियोनाइट" कबीले चोल पर यज़्द गिरद (तृतीय) ने 440 ईस्वी के आसपास आक्रमण किया था। यह चोल आज के चहल जाट ही हैं। इन्हें दहिस्तान में पराजय का मुंह देखना पड़ा था और दहिस्तान दहिया जाटों के नाम पर रखा गया इन का मूल स्थान भी है।99
इस के साथ ही यह याद रखना भी जरूरी है कि चीनी साहित्य भी कई कबीलों का नाम देते हे और कई जगह उन्हें उनकी जातीयता एवं राष्ट्रीयता यैटा से सम्बोधित हैं। अतः जब वे होआ (Hoa) कहते हैं तो कबीले के नाम को व्यक्त करते हैं और जब वे येटा अथवा यू-ची कहते हैं तो वे जातीयता को दर्शाते हैं। इसी प्रकार जब चीनी येटा लिटो का उल्लेख करते हैं तो वह जाटों के सर्वोच्च प्रमुख पद की बात करते हैं। येटा लिटो शब्द मात्र लिप्यान्तर है, अनुवाद नहीं। येटालिटो→ जटलाट→ जटराट = "जाटों का राजा" वास्तव में यह लाट/राट शब्द एक उपाधि के रूप में प्रयुक्त होता है, जिस का मूल सम्बन्ध मध्य एशिया से है और इस को हम भारत में लाट शब्द के रूप में पाते हैं। बाद में इस लाट नाम पर गुजरात में शकों का एक महत्वपूर्ण राज्य भी रहा। आज भी हरियाणा, राजस्थान और कुछ अन्य क्षेत्रों में (पंजाब में भी) लाट शब्द एक सर्वोच्च सत्ता का बोध कराता है। उदाहरण के रूप में जब कोई व्यक्ति घमण्डी होकर बात करता है तो हम उसे कहते हैं, "क्या तुम कोई लाट साहिब हो ?" मध्य एशिया के लोगों का "ल" प्रति मोह सर्वविदित है और सम्भवतः लाट शब्द को संस्कृत के शब्द राट के तुल्य रख कर देखना होगा। समाट् शब्द राट से निर्मित है, अर्थात्‌ राट=राज=बड़ा राजा, अर्थात् सम्राट्। राट से राठी तथा लाट से लाठर वंश जुड़े हैं।

महाभारत में प्रमाण

महाभारत "चीनान्हूणा शकानोढ़्रान पर्वतान्तरवासिन"100 का उल्लेख करता है। इस से प्रयुक्त शब्द ओद्रान का रूपान्तर ओड्रान (शकाोड्रान) भी है। महाभारत से उद्धृत इस वाक्य विशेष में चीना, हूण, शक तथा ओड्रान जिन्हें पर्वतों (हिमालय) के पार अलग में रहने वाले बताया गया है, को एक ही जाति का माना गया है। जाटों के चीना एवं ओड्रान कबीले आज भी पाए जाते हैं। ओड्रान उड़ीसा के लोग नहीं है, जैसा कि कुछ लोग कहते हैं, वह उत्तर पश्चिम के रहने वाले थे और यह हो सकता है कि वे बाद में उड़ीसा की ओर भी चले गए हों क्योंकि कुशानों एवं हूणों के साम्राज्यों की सीमाएं वहां तक भी विस्तृत हो चुकी थीं और यह भी सम्भव हो सकता है कि उड़ीसा नाम भी उन्हीं लोगों का दिया हुआ हो। इसके अतिरिक्‍त महाभारत में प्रयुक्त एक और शब्द "खवा काषा" भी विशेष महत्व रखता है। आप इस के प्रथम अक्षर "ख" को "क्ष"

99. See J. Harquart, Eran Sahr, p. 56.
100. MBT, Sabha Parvan, chapter 47.

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में परिवर्तित करके देखिये तो आप यह पूरा शब्द "कशवा" अर्थात पंजतर शिलालेख पर अंकित "कसुआ" के रूप में पाएंगे। वैसे खोवा भी उत्तर प्रदेश का एक जाट वंश है, जो खोवा मौर्य कहलाता है। दूसरा शब्द जो पहले के समतुल्य ही है, काषा है, जो कश्वान और कुशान का रूप धारण कर लेता है। चीनी शब्द हियुंगन्नू के उच्चारण को लेकर रोबर्ट शेफर कहता है कि खियांग-नू है, क्योंकि चीनी अक्षर ह (H) (ख) के रूप में ध्वनित होता है।101 इस से यह सिद्ध होता है कि केवल श्वेत हूण कहे जाने वाले लोग ही नहीं, खियोनी और हेपथेलाई भी कुशानों से सीधे रूप में सम्बन्धित थे और कई जगह तो शासन करने वाला कबीला भी वही था अर्थात् कश्वान् जाट आजकल हरियाणा के सिरसा फतेहाबाद क्षेत्रों में पाए जाते हैं। महाभारत में कुश्वान् नाम के एक देश का भी वर्णन मिलता है जो मान सरोवर के उत्तर में स्थित था।101a यह भी कुश्वान् वंश के सही प्रदेश की ओर संकेत करता है।
आज तक इतिहासकार यही मानते आए कि कुशान भारत में प्रथम शताब्दी या उसके बाद आए। लेकिन यदि उड़ीसा के एक राजा खारवेल के काल के हाथी गुम्फ़ा शिलालेख का पाठ शुद्ध है101b तो हम उपरोक्त लेख में उन का वर्णन पाते हैं। पाठ इस प्रकार है, "कुसुवानाम् क्षत्रियनाम च साहायूयता बताम् प्राप्तं मसिक नगरम्।" इस का अर्थ यह है कि मसिक का नगर कुसुवां क्षत्रियों की सहायता से प्राप्त किया गया। कुसुवा कोई अन्य न हो कर कसुवान अथवा कुश्वान् ही थे। कसुवां जाट आजकल राजस्थान के लगभग 300 गांवों (चुरू, रतनगढ़ तथा बीकानेर के क्षेत्रों में) रह रहे हैं। ऐसा लगता है कि कुशान साम्राज्य की स्थापना के पूर्व भी कुश्वान् वंश के लोग भारत में रह रहे थे।

"कुशान जाट थे" कुछ आलेख आधारित प्रमाण

स्टेन कोनो यू-ची शब्द का विश्लेषण करते हुए कहता है इसके प्रथम अंश यू का उच्चारण चीनी-जापानी में जेत्सु, अनामी में नूजोत अथवा नजुएत और चीन के तांग काल में न्गीव उत रूप में होता था।102 दूसरे अंश ची का उच्चारण ती के रूप में होता था, कैण्टन में तई (Tiei) और तांग काल में तीई। इस के बाद क्लप्रोथ और प्रो. कार्लग्रेन को उद्धृत करते हुए स्टेन कोनो ने यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि यू-ची शब्द का उच्चारण गत, गात अथवा गुत रूप में भी हो सकता है। जुन्नार आलेख से भी उस ने दो पुरुषों के नाम लिये हैं। ये नाम हैं, यवन, इरल (वैडल इसे अंग्रेज़ी की उपाधि Earl के रूप में ग्रहण करता है) और चितस। इस दोनों व्यक्तियों को गुटन कहा

101. Robert Shafer, Ethnography of Ancient India, p. 160.
101a. Vana Parvan (130/18).
101b. IGH, 1938, p. 263, JNSI, Vol. II, p. 93, JRAS, /1894, p.244.
102. CII, Vol. II, Part 1, p. LVIII ff.

पृष्ठ 42 समाप्त

गया है।103
आइए अब हम कुशान काल के कुछ शिलालेखों के माध्यम से जाट कबीलों के नामों का परिचय पाने का प्रयास करें।
(1) प्रथम शब्द तो स्वयं कुशान ही है। हम ऊपर बता चुके हैं कि यह शब्द जाटों के एक कबीले कश्वान् अथवा कुसुआन से आया है। इसे कुशवान भी कह सकते हैं। यह कबीला वही है जो परवर्ती काल में राजपूत नाम धारण करता हुआ कशवाह अथवा कुशवाह बना और संस्कृत में इसे कश्यपघट अथवा कच्छप का नाम दिया गया क्योंकि यह शब्द "कछुए" शब्द की ध्वनि लिये है। प्राकृत भाषा में, कछुवा एक जल प्राणी है। किन्तु वास्तव में कश्वान् (तोखरी भाषा का XWN) का भी शुद्ध अर्थ राजा है और इसका "कछुवा" शब्द से किसी प्रकार का भी सम्बन्ध नहीं है जैसा कि कुछ पंडित अनुमान लगा कर सिद्ध करने का प्रयास करते रहे हैं। The Texila Ladle Copper आलेख में यह शब्द कश्विन रूप में अंकित है।104 यह शब्द कुछ अन्य आलेखों में भी उपलब्ध है।105 स्टेन कोनो इस पाठ का अर्थ यह लेता है, "संघरक्षिता का काश्यपीय आचार्यों के उर्श राज्य में चतुर्दिक समुदायों के सम्मेलन को उपहार।" उर्शा आज का हज़ारा ज़िला ही है।
आइए अब हम रेखांकित पंक्ति के अनुवाद का विवेचन करें। इसमें शब्द कश्विन का अनुवाद करते हुए उसे काश्यपीय का रूप दे दिया गया है जिस का कोई आधार ही नहीं है। क्या हम यह मान सकते हैं कि आचार्य किसी राज्य उर्श—राज्य के अधिपति हो सकते थे। वह किसी राज्य में रह तो सकते हैं लेकिन उस पर अपना आधिपत्य नहीं रख सकते। तब इस वाक्यांश "काश्यपीय आचार्यों के उर्श राज्य" का क्या अर्थ लिया जाए। स्टेन कोनो स्पष्ट रूप से इसके साथ यह भी कहता है कि जिस शब्द को आचार्य रूप में प्रयुक्त किया गया है, वह "आचार्यनेन" के समान दिखाई देता है। इस का अर्थ यह है कि स्टेन कोनो स्वयं भी इस शब्द पर विश्वस्त रूप में कुछ नहीं कह रहा। हमारा मत यह है कि शब्द है ही नहीं। और इस शब्द से पूर्व शब्द है कश्विन अर्थात् कस्वान है, अतः यह वाक्यांश इस तरह लिया जाना चाहिये, कश्विनों का उर्श राज्य अर्थात् कश्वानों का उर्श राज्य। यह तो इतिहास सम्मत है ही कि कुशानों के अधीन उर्श एक पृथक् राज्य था।106
(2) शिव सेन का मुद्रा आलेख भी उपलब्ध है और इतिहासकार कनिन्घम ने इस का पाठ इस तरह प्रस्तुत किया है, "अत्री वंशी शिव सेन, पोठोवर का क्षत्रप" अर्थात् "शिव सेन जो अत्री कुल का था और जो पोठोवर"107 का सूबेदार था। यहां अत्री एक

103. JRAS, 1912, p. 379 ff.
104. CII, Vol. II, p. 87-88.
105. ibid., XXXIV. p. 89.
106. See J.F. Fleet, JRAS, 1914, p. 369 & 811 and J. Allen, ibid, p. 403 ff.
107. ibid., XXXVIII, p. 103.

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जाट कबीले का परिचायक है।
(3) मनिकियाला के प्रस्तर आलेख पर एक नाम "खुदा चीना" अंकित है।108 जिस व्यक्ति का नाम दिया है, वह छीना जाट है और पुराणों में यह शब्द चीना रूप में प्रयुक्त होता है।
(4) मनिकियाला कांस्य कलष आलेख का पाठ इस प्रकार है, "राज्यपालपुत्र, कपिश के राज्यपाल, ग्रण व्यर्क का उपहार" अर्थात् "कपीस के राज्यपाल का उपहार, जो ग्रण व्यर्क का पुत्र है।"109 यह प्रयुक्त व्यर्क का भाव एक विर्क जाट वंश से ही है।
(5) तोरढेरी शीला आलेख में एक व्यक्ति "योला मीर शाही" का नाम आया है।110 शाही एक जाट कबीला ही है।
(6) पठियार शिलालेख में वायुल राठी नामक एक व्यक्ति के एक तालाब का उल्लेख है। प्रो. वोगल को इस सम्बन्ध में यह कहते पाया गया है कि यह राठी वही हैं, जो कांगड़ा क्षेत्र में एक किसान जाति है। मजूमदार इस सम्बन्ध में यह कहते हैं कि वायुल एक अभारतीय नाम है।111 वोगल तथा मजूमदार दोनों ही सही हैं और राठी एक जाट कबीला है।
(7) हम क्षत्रप अथवा राज्यपाल लियाक कुजुल और उसके पुत्र पतिक कुजुल के नामों से तो परिचय ही हैं। इस कबीले का नाम भी कोज़ोल कड़फीस के कबीले के नाम से जुड़ा हुआ है। स्टेन कोनो उचित रूप से प्रो. लुडर के इस विचार की पुष्टि करते हुए यह मानता है कि कुजुल अथवा कोज़ोल एक पारिवारिक नाम है,112 लेकिन वास्तविकता यह है कि यह एक कबीले का नाम है, जो आजकल कजल अथवा कजला के रूप में लिया जाता है। कजला जाट आज भी बीकानेर के क्षेत्र में पाए जाते हैं।113 (आप इतिहासकार W. Hoey से भी कोजोल शब्द के कुछ विवरण प्राप्त कर जकते हैं।)
(8) उन्द (पाकिस्तान) के समीप शक संवत 11 से सम्बन्धित जेदा शिलालेख कनिष्क काल में एक कुआं खोदने का उल्लेख करता है जो एक हिप्पिआ धिया द्वारा राज्यपाल लियाक को समर्पित किया गया था।114 यहां समर्पणकर्त्ता निश्चित रूप से दहिया कबीले का जाट है। आज भी कई लोग दहिया को धिया रूप में लिखते हैं। इस शिलालेख में आगे यह भी प्रमाणित होता है कि समर्पणकर्त्ता व्यक्ति बलख क्षेत्र से था,

108. ibid., LXXVI, p 149-50.
109. ibid., LXXVII, p. 150-51.
110. ibid., XCII, p. 173 ff.
111. ibid., XCIV, p. 178.
112. CII. Vol. II, pt. I, p. XXXIII.
113. JRAS, 1902, pp. 428-29; also pp. 754-762.
114. CII, Vol. II, pt. I, pp. 142 and 145; also EI, Vol. XX, p. 1 ff.

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जिसे चीनी दहिया कहते थे, क्योंकि उस काल में उस क्षेत्र में दहियों का ही प्रभुत्व था। हिप्पिआ शब्द यूनानी अधिक दिखाई देता है न कि फारसी। यह शिलालेख एक अन्य ऐतिहासिक प्रक्रिया कि ओर से भी संकेत करता है जिस के अन्तर्गत चीनियों द्वारा कहा गया दहिया क्षेत्र आगे चलकर 200 वर्षों के लम्बे समय के लिये यूनानियों के अधीन रहा। हिप्पिआ का अर्थ है अश्वपति।
(9) हम अगला उदाहरण यूनानी भाषा में लिखे हुए प्रख्यात सुर्ख कोतल शिलालेख के आधार पर प्रस्तुत कर रहे हैं। यह शक संवत् 31 के काल से सम्बन्धित है। इसमें कनिष्क द्वारा एक पूजास्थल की मुरम्मत किये जाने का उल्लेख है। यह शिलालेख दो व्यक्तियों द्वारा लिखा गया था जिनके नाम मिहर मान और बुर्ज मिहर पुहर के रूप में अंकित हैं। यह दोनों व्यक्ति तत्कालीन साम्राज्य के कई बड़े अधिकारी रहे होंगे और यह दोनों यह दोनों मान और पुहर अथवा पवार कबीलों के जाट थे। यह दोनों नाम निश्चित रूप से ईरानी नाम हैं।115
(10) अगला शिलालेख अटक के पास पाया गया आरा शिलालेख है, जो खारोष्ठी लिपि में लिखा गया है और इसका काल 41वां वर्ष बताया गया है। इस शिलालेख में भी एक कुआं खोदे जाने का उल्लेख है जो किसी दशवहर द्वारा अपने माता पिता की स्मृति में और स्वयं अपने, अपनी पत्नी, अपने पुत्रों तथा सभी के कल्याण की कामना करते हुए खोदा गया था। यह नाम एक और जाट कबीले की याद करवाता है, जिसे आजकल देशवाल अथवा दशवाल कहा जाता है।
(11) इसी संदर्भ में हम अगला उदाहरण लखनऊ संग्रहालय में सुरक्षित एक शिलालेख के माध्यम से प्रस्तुत कर रहे हैं। इस शिलालेख की ब्राह्मी और काल है शक सम्वत 9 और इस पर एक उपहार का आलेख करते हुए कहा गया है कि यह गहपला नाम की एक महिला ने दिया, जो गृह मित्र की पुत्री है और एकराडल की पत्नी। यह डल शब्द भी एक डल्ल अथवा ढल जाट कबीले की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करता है और यह भी संकेत देता है कि किसी भारतीय युवती का विवाह किसी नवागन्तुक के साथ हुआ होगा।
(12) एक और शिलालेख काबुल के पास बरदक में पाया गया है। इसका काल 51वां वर्ष है। यह किसी व्यक्ति वग्रम्रेगा द्वारा भगवान बुद्ध की स्मृति में एक स्तम्भ के रूप में निर्मित कराया गया है। वग्रम्रेगा को कम गुल्या का वंशज कहा गया है और यह गुल्या भी जाटों के एक कबीले गुलिया से ही मेल खाता है।
(13) मथुरा शिलालेख काल 28वां वर्ष, खर नाम के एक अधिकारी का उल्लेख करती है, जिसे कनसरूक मान का बेटा बताया गया है जो सालेर (सालर, एक जाट

115. BSOAS, Vol. XXIII, pt. I, pp. 47-55.

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कबीला भी) और वरवान का शासक था। मान शब्द एक बार फिर जाटों के प्रख्यात कबीले मान की ओर हमारा ध्यान दिलाता है।116
(14) अन्तिम उदाहरण उसी प्रख्यात पंजतर (पाकिस्तान) शिलालेख से दिया जा रहा है, जिसमें उस का निर्माण काल 122 शक संवत दिया गया है। यह एक व्यक्ति लल का उल्लेख करती है, जिसे महाराजा कनिष्क के कुशान राजवंश का संरक्षक बताया गया है। यह लल एक लल्ली जाट ही था। इस शिलालेख में उपहार स्वरूप लगाए गए दो वृक्षों का भी ज़िकर है, यह उपहार कश्वां के पूर्वी क्षेत्र में किसी मोईका द्वारा दिया गया। इसमें अन्तिम शब्द कश्वा, जोकि कुशान कबीले और क्षेत्र का ही एक नाम है, जो आज भी विद्यमान है।117
यह सभी उदाहरण इस बात के प्रमाण हैं कि इतिहास के उस काल में शासक जाट ही थे। उपर्युक्त सभी शिलालेख दो अन्य बातों को भी स्पष्ट करते हैं, प्रथम यह कि नाम प्राचीन पहलवी मूल के हैं और दूसरी यह कि यह लोग बौद्ध धर्म से अधिकतर प्रभावित थे।

श्वेत हूण, हेपथलाइट, एपटलाइट, अबदलाइट, अबदाली

जो हूण भारत में आए उन्हें कई तरह के नामों से सम्बोधित किया जाता है। श्वेत हूण क्योंकि उनका रंग श्वेत था, हेपथलाइट क्योंकि इन के कम से कम तीन राजाओं को हपथल कहा गया है। इस क्रम में अगले तीन नाम एपटलाइट, अबदलाइट, अबदाली, शब्द हेपथल के ही विभिन्न रूप हैं। इस शब्द का वर्तमान रूप अफ़तर है। पश्चिमी जगत् में सबसे पहले इतिहासकार प्रोकोपियस ने उन की ओर ध्यान दिलाया। यह इतिहासकार लिखता है, "हेपथल लोग घुम्मकड़ लोग नहीं हैं, अपितु यह तो बहुत पहले से ही कृषि भूमियों पर बस चुके थे। उन्होंने रोमनों पर कभी आक्रमण नहीं किया किन्तु मीड के सेनाओं के साथ वह अवश्य युद्धरत रहे। इस में अन्तिम पंक्तिकुछ स्पष्टीकरण मांगती है। यहां यह मान लिया गया है कि हेपथलाइट लोगों ने पूर्व काल में रोमन सेनाओं पर आक्रमण किये थे लेकिन मीड लोगों के साथ मिल कर (मीड शब्द को शुद्ध रूप में मंड लिखा जाना चाहिये) हूणों में केवल मीड अथवा मण्ड लोगों की त्वचा ही श्वेत थी और उन की आंखे छोटी छोटी नहीं थी। वह श्वेत हूण आम हूणों जैसा जीवन भी व्यतीत नहीं करते थे। वह उन की भान्ति पशुओं की तरह नहीं रहते थे बल्कि एक राजा द्वारा शासित थे। उन की सरकार थी जो कायदे कानून बनती थी। यह लोग आपस में और अपने पड़ोसियों के साथ ठीक एवं न्यायोचित सम्बन्ध रखते थे और उन का जीवन स्तर रोमनों से तनिक भी निम्न नहीं था।"118

116. IHQ, IX, p. 145 ff; p. 800 ff.
117. EI, Vol. XIV, p. 134.
118. Debello Persico, 1, 3.

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Otto Maenchen Helfen अपने एक लेख, "हूण तथा हियूंग नू" में यह सिद्ध करता है कि संस्कृत रचनाओं में प्रयुक्त हूण वास्तव में हेपथलाइट ही थे।119 Thung-Kiang-Nu (थंग-कियांग नू) का चीनी लेखक 555 ईस्वी में लिखता है कि अपतल ता-यू-ची (महान् जाटों) की जाति में से ही थे। Ma Tuan-lin का विश्वकोष यह कहता है कि जेटा तथा आइता उसी जाति से सम्बन्धित थे जिस से यू.ची। अपने शारीरिक गठन, रंग रूप, कद, बालों की लम्बाई, नाक और आंखों तथा भाषा के लिहाज़ से वह भारत-युरोपियन ही थे। यही मत W. M. McGovern का है।120 अफ़गान लेखक अहमद अली कोहजाद अपने एक निबन्ध (जो 11 दिसम्बर 1961 में दिल्ली में आयोजित Asian History Congress में Movements of People & Ideas from Prehistoric Times to Early Seventh Century... के शीर्षक से पढ़ा गया था, में यह धारणा व्यक्त करते हैं कि हूणों की भाषा पुश्तों से मिलती जुलती थी।
उन की एक प्रथा यह थी कि वे अपने राजाओं की अन्त्येष्टि के समय स्वयं को घायल किया करते थे। हेरोडोटस के अनुसार यही प्रथा सिथियों में भी पाई जाती थीं। अतः हूणोंशकों की प्रथाएं एक समान थीं। एक भारतीय कृति (ललित विस्तार) में, विभिन्न लोगों की लिपियों का उल्लेख कर हुये 45 लीपियां सूचीबद्ध की गई हैं तथा हूण लिपि को क्रम 23 पर रखा गया है। चीनियों ने इन कृतियों का अपनी भाषा में अनुवाद किया, 587 ईस्वी का ज्ञान गुप्त का "फू पून हिंग त्सी—किंग, चूफा हूण (308 ईस्वी में) Pou Yas King व दिवाकर (683) के Fang Kamang में इन के अनुरूप जो प्रविष्टियां दी गई हैं, वे हैं क्रमशः मोन, हियुंग-नू और हौन। यह सब नाम मान तथा हूण (हेंगा) आदि जाट कबीलों के रूपांतरित नाम हैं। इस से यह सिद्ध होता है कि चीनी यह जानते थे कि यह सभी कबीले एक ही जाति यू-ची (गुत्ती) के वंशधर थे। इसलिये चीनियों ने जाति यू-ची के नाम का प्रयोग किया या फिर किसी विशेष समय के किसी विशेष कबीले का नाम, जिस से वह पूर्ण रूप से परिचित था, उस का प्रयोग किया। इन विविध नामों को एक दूसरे का स्वरूप माना गया, जिस का अर्थ यह है कि विविध कबीलों में जातीय और भाषाई रूप में विशेष अन्तर नहीं था। एच.डी. गुगनिस पांच खण्डों पर आधारित अपनी कृति (हूण/तूर/मंगोल इतिहास...) में चीनियों के द्वारा वर्णित हियुंग-नू को यूरोप के हूणों के ही सदृश्य देखता है।121 रूसी विद्वानों एन.ए.अरिस्तोव तथा के. इनोत्रान्चशेव ने चीनी प्रमाण-पत्रों के आधार पर यह सिद्ध किया कि हियूंग-नूहूण एक ही थे। एफ. हिर्थ भी इसी परिणाम पर पहुंचा था, जैसा कि डाक्टर बुद्ध प्रकाश ने अपनी कृति "कालिदास तथा हूण" में उस को उद्धृत करते हुये लिखा। जे. जे. मोदी मस्सा जटी, टकरी तथा दहियों का उल्लेख करते हैं जो

119. Byzantism, 1944-45, Vol. XVIII, p. 230.
120. The Early Empires of Central Asia, p. 405.
121. Tartaras, 1756-58, Vol. II, p. 1-124.

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ईरान के सीमावर्ती क्षेत्रों में रहते थे।122 इस संदर्भ में मोदी फिर कहते हैं, दहिये "दहीनाम् दखयुनाम" के दही लगते हैं, जिन का उल्लेख पारसियों के ग्रंथ फरवदिर्यन यष्ट (यष्ट III, 144) में भी हुआ है जिस में तत्कालीन विश्व के जाने माने पांच देशों का उल्लेख है।123 इन्हीं दहियों के कारण ईरान-रूस सीमा पर स्थित सीमा क्षेत्र दहिस्तान के रूप में जाना जाता है। मोदी इन लोगों को हूण ही मानते दिखाई देते हैं क्योंकि उन के अनुसार, "गोथ प्राचीन हूणों की एक शाखा थे।"124 मोदी यह भी लिखते हैं कि ईरान की प्राचीन परम्पराओं के अनुसार इरानियोंतुरानियों के संस्थापक आपस में भी ही थे।125 इस से उन के आर्यों जैसे नख शिख रखने की बात भी स्पष्ट हो जाती है। यहां उल्लेखनीय बात यह है कि मोदी जाटों और हूणों में कोई अन्तर नहीं देखते क्योंकि उन के अनुसार, "वे मस्सा जटई जिन के विरुद्ध खुस महान् लड़ा तथा शक अथवा सिथियन जिन के विरुद्ध दारा लड़ा, सब हूणों के ही कबीले थे।" आगे चल कर अटिला की मृत्यु के बाद कुलुर गरी व उतार गरी नाम के दो कबीलों ने "पवित्र" रोमन साम्राज्य पर आक्रमण कर दिया और वह 485 ई. से ले कर 557 ई. तक निरन्तर 72 वर्ष तक उस से लड़ते रहे। कुलुर गरी व उतार गरी के वंशजों को बलगरी कहा गया, जिन के नाम पर आज के बुलगारिया राज्य का नाम पड़ा। 630 ई. में कुव्रत के नेतृत्व में उन्होंने सम्राट् हेराक्लियस (Heraclius) के साथ संधि कर ली। यह दोनों कबीले भारत में कुलार तथा उटार कहे जाने वाले कबीले ही हैं और बलगर भी भारत में बलहर कहलाते हैं। 46 ई. का हूणों का सम्राट् पौणु भारतीय जाट कबीले पन्नू का प्रतीक हो सकता है।
कुछ इतिहासकार चीनी इतिहास में वर्णित हियूंग-नू (हूणों)भारत ईरान के हेफथलाईटों में अन्तर करने का प्रयास करते हैं, जिन्हें फिर किदारों से भिन्न मानने का प्रयास किया जाता है। लेकिन उन में कोई अन्तर है ही नहीं। शारीरिक एवं जातीय दृष्टि से सब भारत-यूरोपीय ही हैं और भाषाई रूप में भी उन मे बहुत कुछ एक समान था। हियूंग-नू (हूण) मंगोली नहीं थे। उन के नयन नक्श आर्यों जैसे थे, जैसे कि चीनियों द्वारा मारे गये उन के सैनिकों के चेहरों से स्पष्ट होता है। उन का रंग गोरा था, उन की नाक तीखी और लम्बी थी, वे घने बालों वाली दाढ़ियां रखते थे। मंगोलों के चेहरे की विशिष्टता चपटी नाक थी, जो हूणों में कभी नहीं पाई गई। उत्खनन के दौरान जो प्रमाण मिले हैं उन से उन के चेहरों, कालीनों व अन्य वस्तुओं के ईरानी होने की बात पुष्ट होती है। हम जानते हैं कि बाबर के साथ मुगल भारत में आये थे। किसी भी मुगल की आकृति मंगोलों जैसी नहीं थी, जहां तक कि मुगलों से पूर्व जो तुर्क भी भारत आये, उन की

122. JIH, 1957.
123. JBBRAS, 1914, p. 548.
124. ibid., p. 562.
125. See his article in ABORI memorial volume.

पृष्ठ 48 समाप्त

आकृति भी मंगोलो जैसी नहीं थी। निस्संदेह जाटों-राजपूतों, गुज्जरों और अहीरों की नाक तीखी है और उन के शरीर पर भरे-भरे बाल हैं। अतः यह कहना पूर्ण रूप से उचित है कि हूणों (हियूंग नू) के जितने भी कबीले सूचीबद्ध किये गये हैं, वह सब तुर्की हैं और सभी तुर्क भारत-यूरोपीय नयन नक्श, चेहरा मोहरा लिये है। इन के मंगोल होने का यदि ढूंढने पर कोई सूत्र हाथ लगता भी है तो इसी कारण कि चीनी महिलाओं के विवाह व्यापक स्तर पर हूणों के साथ हुये। राहुल सांकृत्यायन एक चीनी महिला, जिस का विवाह एक गुज्जर (WOSUN) जाति के पुरुष के साथ हुआ, के रस गीत का इस प्रकार उल्लेख करते हैं।126

"भाइयों ने मेरा विवाह किया,
बुसन राजा के संग,
भेजा मुझे दूर, औरों के देश में,
जहां लोग रहते हैं, झोपड़ियों में नमदा ओढ़ कर
और खाते हैं मांस, पीते हैं दूध।"

यह तो विदित है कि हियूंग नू के प्रमुख को शनयु अथवा (चन-यू) कहा जाता था। अर्तद्र तथा हीरकोद (ई.पू.प्रथम शताब्दी) सकरौकी कबीले के दो राजाओं के सिक्कों पर इस प्रमुख पद को ई.डबलू थामसए. कन्निघम द्वारा Tasnyu अथवा Chanyu (चानयु) के रूप में पढ़ा गया है।127 उल्लेखनीय है कि सकरौकी कबीला पौराणिक सकरवाक, रूसी सकराव तथा भारतीय सकरवार/सिकरवार जाट ही हैं। इस पाठ से यह भी स्पष्ट होता है कि हियूंग नू लोगों की मध्य एशिया के शकों एवं सिथियों के साथ गहरी सांझ थी। अब हम उसी स्रोत के एक लम्बे उदाहरण के रूप में उस का सार प्रस्तुत करते हैं।
"राबर्ट गोब्ल ने इस लेखक को बताया कि किदार लोग वहीं थे जो हफथल थे, किन्तु Pei-she में वे ता-यू-ची अथवा कुशानों के रूप में दिखाई देते हैं। चीनी निश्चित रूप से यह जानते थे कि हफतल लोग होआ (Hoa) अथवा हवा अथवा ये-ता-ली-तो ही हैं। अतः यह प्रमाणित करने का कोई आधार नहीं है कि चीनी ता-यू-ची, की-तो-लो तथा ये-ता-ली-तो को ले कर किसी भ्रान्ति में थे या कोई भ्रान्ति पैदा कर रहे थे। पी-शी (Pei-she) में इस विषय पर जो उदाहरण दिये गये हैं उन से स्पष्ट होता है कि किदारों को हफतलों से भिन्न रूप में लेना होगा क्योंकि उन की (किदारों की) समानता महान यू-ची (Ta-Yue-Che) से सिद्ध हो चुकी है।"
"निस्संदेह Thang-Kiang-Nu तथा Ma-Tuan-lin के विश्व कोष में हफतलों

126. MAKI, Vol. 1, p. 98.
127. See SIH&C, p. 292. note 51.

पृष्ठ 49 समाप्त

को भी ता-यू-ची जाति से सम्बन्धित बताया गया है। जैसा कि की-ती-लो अथवा किदार को Pei-She में महान यू-ची (Ta-Yue-Che) का राजा कहा गया है। लेकिन इस संदर्भ में यह भी उल्लेखनीय है कि हफतलों ने स्वयं को अपने सिक्कों पर कभी कुशानों के रूप में अंकित जबकि किदार स्वयं को अपने सिक्कों पर स्पष्ट रूप से एक कुशान राजा के रूप में अपना परिचय देता है, जैसा कि "किदार कुशान शाह" से स्पष्ट होता है। हफतलों और किदारों के सिक्कों के अध्ययन से यह स्पष्ट रूप में प्रमाणित होता है कि वे दोनों दो विभिन्न एवं विशिष्ट वंशों से सम्बन्धित थे। यद्यपि निस्संदेह यह सत्य है कि हफतल और किदार यू-ची कहे जाने वाले घुम्मकड़ ईरानी मूल से सम्बन्धित थे, लेकिन फिर भी यह साफ है कि वह तो भिन्न एवं विशिष्ट वंश हैं।128

हमारी टिप्पणी

(1) चीनियों ने कहीं कोई भ्रांति पैदा नहीं की। महान यू-ची (Ta-Yue-Che) एक जातीय नाम है, जो यूनानी शब्द मस्सा जटई के अनुरूप है। कितोलो (Kitolo) एक कबीले का नाम है या फिर एक किसी राजा का जो किदार अथवा भारतीय कटारिया कबीले का कोई पुरखा था और जेटा लिटो (Jeta Lito) तो एक सर्वोच्च उपाधि है जटलाट, जिस के बारे में विशद रूप में पिछले पृष्ठों पर चर्चा की जा चुकी है।
(2) दूसरी बात हम उद्धरण अन्तिम से पहले की पंक्ति में इरानियों शब्द के स्थान पर इंडो-युरोपियन शब्द प्रयुक्त करना चाहेंगे और इस पर कोई आपत्ति भी नहीं होगी। संयोगवश जिस कबीले ने किदारों को उत्तर पूर्व की ओर धकेला चीनियों के जुआन-जुआन (Juan-Juan), और अन्य उसे जू-जुआन कहते हैं, भारत में इस कबीले की तादत्मयता जाट कबीले जेनजुआ अथवा जुंजुआ से हो सकती है। यह जाट कबीला राजपूतों में भी पाया जाता है।
"शक्ति संगम तन्त्र" (पुस्तक खण्ड तीन अध्याय 7, श्लोक 43-44) में हम हूणों का उल्लेख नायकों के रूप में पाते हैं, जो राजस्थान मरुस्थल के उत्तर में व कामगिरी पर्वत माला की घाटी में रह रहे थे, जिस का अर्थ पंजाब का भू क्षेत्र है।129 यहां पर हूणों का उल्लेख कुंतलों के साथ मिलता है। यह कुंतल, खूण्टल अथवा कुंटेल जाटों के ही समान हैं। इतिहासकार जदुनाथ सरकार इन का उल्लेख "कुन्तलहूण"130 के रूप में करते हैं। इन तांत्रिक कृतियों का अनुवाद चीनी भाषा में 566 ई. में नरेन्द्र यशस द्वारा किया गया, जिस से उन की प्राचीनता का संकेत मिलता है और जो भारत में हूण साम्राटों तोरमान, मिहिरकुल तथा अजित के राज्यकाल (490 से 554 ई. आदि तक) के साथ मेल खाता है।

128. ibid, p. 371.
129. Upendra Thakur, The Hunas in India, p. 55, f.n. 2.
130. Studies in Geography of Ancient and Mediaeval India, p. 71.

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वायु पुराण (43-44) में, सन्ध्रान (सन्ध्रान जाट) तुषार, लाम्बा, पल्लवालछिकारादि को वक्षु (Oxus) नदी की घाटी में बसा बताया गया है। मत्स्य पुराण इसी कोटी में बब्बरपरोदों के नाम भी जोड़ लेता है। महाभारत में सभापर्व (27—22-24) लोहानों, आर्सिकों तथा उटारों को तुखरों, कांगों व रोमशों (घने भरपूर बालों वाले जाट) के साथ उत्तर में स्थित पर्वतमाला के सुदूर क्षेत्रों में आवासित कहा गया है। इर सम्बन्ध में वायु पुराण (47/43) यह कहता है कि कुनिन्द (कुन्डू) सीता नदी के किनारे रहते थे, जो मध्य एशिया में बहती है। तोमरोंहनस् (Hans) कबीलों की भी यही आवासीय स्थिति बताई गई है। यह सभी जाट वंश हैं।
अन्ततः हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि चीनी नाम हियूंग-नू (Hiung-Nu) पूर्ण रूप से सही है, क्योंकि तत्कालीन वस्तुस्थिति यह थी कि हियूंग-नू कबीला उस समय अपना प्रभुत्व रखने वाला कबीला था। यह वही कबीला था जिस ने ईसा पूर्व की प्रथम तीन शताब्दियों में तौमन, माओदून और गिया जैसे सम्राट इतिहास को दिये। यह हियूंग-नू अब भी भारत में पाये जाते हैं और उन्हें हेंग अथवा हेन्गा कहा जाता है। इस संदर्भ में हमें यह याद रखना चाहिये कि चीनी कांगों को अपनी भाषा में कांग नू (Kang-Nu) नाम देते हैं। इस तरह हेंग उन के लिये हेंग नू (Heng-Nu) या हियांग-नू थे। यह मथुरा के हूण मंडलेश्वर, हूण मण्डलों के शासक ही थे, जो 10 वीं शती तक भारत की प्रायः सभी शक्तियों के साथ निरन्तर युद्ध करते रहे।
उत्तर प्रदेश के मथुरा ज़िले में अभी भी इन के 360 गांव हैं। आयकर आयुक्‍त स्वर्गीय हरप्रसाद सिंह एक हेंगा जाट थे। पंजाब में यह शब्द "हूण" अर्थात् अभी, इसी वक्‍त हल्ला बोलने का समय या अन्तिम वार करने का अवसर। इस सम्बन्ध में О. M. Helfen भी यह व्यक्त करते हुये सही हो सकता है कि Hun (हूण) परा-जर्मन भाषा का कोई विशेषण है131 जिस के अर्थ है ऊँचा। जैसा पहिले लिख चुके हैं, सभी जाट कुल नामों का अर्थ है - उच्चस्थ एवं शीर्षस्थ, अथवा वरिष्ठतम, प्रमुख, राजमुकुट अथवा राजा।
यह भी जानना कम रोचक नहीं होगा कि महाभारत के सभापर्व में ज्योहा नाम के लोगों का उल्लेख हुआ है।132 इन लोगों को सुमेरू और मंदर गिरी पर्वतों के बीच बहने वाली नदी शैलोद के दोनों किनारों पर अवस्थित बताया गया हैं। ये लोग युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ के लिये पिपलिका स्वर्ण (च्यूंटियों द्वारा एकत्रित) ले कर आए थे। अब ऐसा दिखाई देता है कि यह ज्योह लोग जौहल ही हैं, इस में केवल "ल" प्रत्यय जोड़ दिया गया है, जैसा कि कबीलों के नामो में प्रायः जोड़ दिया जाता है। अतः ऐसा लगता

131. Central Asiatic Journal, 1955, Vol. I, pt. II, pp. 101-106.
132. MBT, Sabha Parvan, 48/2-3

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है कि तोरमान एवं मिहिरकुल {के} कबीलों से (जब वह पामीर के पर्वतों के पास रहते थे) महाभारतकार परिचित थे।
मजूमदार और अल्तेकर इस सम्बन्ध में यह मत व्यक्त करते हैं कि श्वेत हूण कहे जाने वाले सम्भवतः कुशान ही थे।133 इसी तरह जायसवाल भी मानते हैं कि तोरमान जिस ने छटी ईस्वी के प्रारम्भ में उत्तर भारत पर विजय प्राप्त की थी, एक कुशान ही था।134 इतिहासकार फलीट भी ऐसा ही मानते हैं।135 यह सभी मत केवल इसीलिये प्रस्तुत किये गये हैं, क्योंकि वास्तव में हूण कहे जाने वाले लोगों व कुशान कहे जाने वाले लोगों में कोई अन्तर था ही नहीं। वह सब एक ही कुल जाति के थे और वह कुल जाति थी जाट। जैसा कि ऊपर चर्चित किया जा चुका है चीनी इतिहासकार अपना यह मत निरन्तर व्यक्त करते आ रहे हैं कि श्वेत हूण हेफतल और कुशान, ता-यू-ची (महान जाटों) की जाति से सम्बन्धित थे।135(a)
हमने पहले ही लिखा है कि हूण कहलाने वाले लोग वास्तव में हिआंग-नू (चीनी वृत्तो के) अर्थात्‌ हेगा वंश के जाट थे। भारतीय हूण सम्राट-तोरमान और मिहिरकुल का वंश, उनके अपने सिक्कों और शिलालेखो में, जौवर/जौहल लिखा हैं, जो एक जाट वंश है। इन्होंने ही अफगानिस्तान के एक क्षेत्र-जौलिस्तान को अपना कुल नाम दिया।
रोम का इतिहासकार जोनारस (Zonaras) ईरान पर 358 ई. में आक्रमण करने वाले इन लोगों को "मस्सा जटी" कहता है। इनका राजा ग्रुमवत था और रोमन सेना से अमीदा के युद्ध में (360 ई.) ग्रुमवत का पुत्र मारा गया, जब वह ईरानी सम्राट शापुर द्वितीय की सहायता कर रहा था। इतिहासकार अम्भियानुस ने उसकी अन्त्येष्टि का पूर्ण विवरण दिया है। उसका संस्कार चिता में लिटा कर अग्निदाह द्वारा किया गया था। ईरानी लोग अग्नि को पवित्र मानते हैं, अतः ईरानी सम्राट की धार्मिक भावनाओं के विपरीत, अग्नि-संस्कार करना, उन हूणों को जाट सिद्ध करता है। क्योंकि प्राचीन जर्मन गाट भी अग्निदाह संस्कार ही करते थे। यूरोप की ओर गये हुणा भी अग्नि-संस्कार ही करते थे, क्योंकि खुदाई में उसके अवशेष स्पष्ट रूप से मिले हैं।" (देखिये आर्कियोलोगीया हंगेरिका 32.) 1953 (पृ. 105) इतिहासकार प्रोकोपियस (Wars, 1, 3) हूणों के विषय में लिखता है कि हफतल हूण (Hephthalites) घुमन्तु नहीं थे, वे गोर वर्ण के थे और उनका नकशक भी सामान्य था।
इस प्रकार हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि कुषाण, हूण, हफतल, शक आदि कहे जाने वाले लोग वास्तव में जाट ही थे और उन्होंने सदा ही स्वयं को ऐसा ही कहा।

133. The Vakataka-Gupta Age.
134. JBORS, Vol. XXVIII, p. 29 and Vol. XVI p.287.
135. IA Vol. XV, p. 245.
135a. IHQ, 1954, Vol. XXX.

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यहां तक कि जब वह मध्य एशिया में थे, तब भी वे स्वयं को जाट ही कह रहे थे। जब यह भारतीय सीमाओं तक आए या यूरोप की ओर गये, वे जोर दे कर स्वयं को जाट ही कहते रहे। जब उन्होंने पांचवीं व छटी शताब्दी में इंग्लैंड पर आक्रमण किया उन्होंने अपने आप को "Jute" जट्ट कहा और यहीं वे लोग भी थे, जिन्होंने डेन्मार्क प्रायद्विप को जटलैंड का नाम दिया। स्केन्डीनेविया के धर्म ग्रन्य एइड्ड (Aidda) में यह लिखा है कि स्केन्डीनेविया के प्राचीन निवासी "Jattas" जट्टा थे, जिन्हें आर्य कहा जाता था। यहां तक कि आधुनिक काल में भी यह लोग स्वयं को जाट ही कहते हैं, चाहे वे भारत में या पाकिस्तान में, अफगानिस्तान या मध्य एशिया अथवा डेन्मार्क या जर्मनी आदि कहीं भी क्यों न रह रहे हों।

छीना जाट

महाभारत के सभापर्व में विदेशी कबीलों की एक सूची दी गई है, जिस में हूण और चीना नाम भी शामिल हैं। वराहमिहिर अपनी कृति "महावस्तु" में चीना लोगों के साथ हूणों का वर्णन करता है।136 यहां संकेत जाटों के कबीले छीना की ओर है और चूंकि वे एक ही कुलवंश के थे इन का उल्लेख हूणों के साथ किया गया है। छीना लोगों का यह जाट कबीला आज भी विद्यमान है अब तक इतिहासकार छीना लोगों को चीना अथवा चीनी लोग के रूप में लेते रहे हैं। यहां केवल "च" और "छ" का अन्तर है अर्थात्‌ चीना अथवा छीना। लेकिन यहां इस ऐतिहासिक तथ्य का उललेख आवश्यक है कि चीनी भारत में कभी भी उत्तरी पश्चिमी सीमा से नहीं आए। वास्तव में चीन और भारत के सम्बन्ध मध्य एशियाई कबीलों के माध्यम से रहे, जो एक तरह से मध्यस्थों का काम करते थे। चीनी तीर्थ यात्रियों की निजी भारत यात्रा व भारत के बौद्धों की निजी चीनी यात्राओं को छोड़ कर समूचे इतिहास काल में कभी भी उत्तर पश्चिमी सीमा से चीनी इतनी बड़ी संख्या में भारत में नहीं आये कि उन्हें कबीले का नाम दिया जा सके।137 अतः छीना शब्द चीनियों के लिये कभी भी प्रयुक्त नहीं किया जा सकता। चीनी सीमा पर हमारे समीपतम पड़ौसी तिब्बती रहे हैं जिन्हें हम भोट कहते थे। भूटान शब्द इन्हीं तिब्बतियों की पहचान पर ही आधारित है। भूटान शब्द संस्कृत के "भोटांत" शब्द से लिया गया है अर्थात्‌ भोटों का अन्त अर्थात् भोट तिब्बतियों के देश का सीमान्त। यह ऐसा इसलिये भी है, क्योंकि जातीय एवं सांस्कृतिक रूप में तिब्बतियों और भारतियों के बीच भूटान, वास्तव में एक विभाजक रेखा के समान है व्यावहारिक रूप में हमारे चीन के साथ सीधे एवं स्वतन्त्र सम्बन्ध पूर्वी और उत्तर पूर्वी सीमाओं के रास्ते या समुद्र के रास्ते से थे। अतः महाकाव्य महाभारत व पुराणों में चीना शब्द चीनियों के लिये नहीं अपितु जाटों के एक कबीले छीना के लिये प्रयुक्त हुआ है। यह विष्णु पुराण की इस उक्ति के समान

136. Brihat Samhita, Vol. Xl, p. 61.
137. See E.H. Cutts, in IHQ, Vol. XIV, p. 493-94.

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ही है, "सौवीरा सेन्धवा हूणः" इस में संकेत जाटों के सौवल और संधु कबीलों की ओर है, जिन्हें हूणों के साथ रखा गया है। जाटों के कई अन्य कबीलों की चर्चा हम अगले अध्यायों में करेंगे। यहां हमारा उद्देश्य केवल भारतीय प्राचीन कृतियों में पाए जाने वाले कतिपय नामों पर प्रकाश डालना है, जो इतिहासकारों को भ्रमित करते रहे हैं, इस के साथ ही हमारा उद्देश्य यह सिद्ध करना भी है कि ये सब नाम जाटों के विभिन्न कबीलों के हैं। चीना और छीना में केवल च और छ का नगण्य अन्तर है। दूसरी ओर यह सम्भव है कि चीन को यह नाम देने वाले, और चीन के प्रथम शासक, चीना वंशी रहे हों।

शब्द जौवल तथा जौह्ल जाट

जौवल शब्द को ले कर इतिहासकारों में बड़ा विवाद रहा है। अरबों ने जौवल शब्द को जौबुल अथवा जौहुल के रूप में विकृत कर दिया। इसलिये उन के प्रदेश को जुबलिस्तान कहा गया अर्थात्‌ जौबलों का भू स्यान। जैसा कि अभी हम सिद्ध करेंगे कि तोरमान और मिहिरकुल के सिक्कों एवं अभिलेखो में इस शब्द का शुद्ध उच्चारण जौवल ही किया गया है। कुछ इतिहासकारों ने इस शब्द को एक उपाधि के रूप में लिया है, जो किसी भी तरह उपयुक्त नहीं है। कुछ अन्य इतिहासकारों ने शब्द यवुग के समान इसे एक सामंती पद अथवा एक उप उपाधि के रूप में लिया है, लेकिन ये इतिहासकार यह स्पष्ट करने मे असमर्थ हैं कि यह शब्द एक उप उपाधि के रूप में न केवल तोरमान (जो स्वतन्त्र रूप में एक समाट् बना) बल्कि मिहिरकुल और उस के पुत्र जिसे प्रभूसत्ता सम्पन्न सम्राट्‌ मांना गया है द्वारा क्यों निरन्तर रूप से प्रयुक्त होता रहा है। यह कठिनाई इसलिये पैदा होती है क्योंकि ये इतिहासकार यह तथ्य नहीं समझ पाते कि जौवल शब्द उन के कबीले का नाम है न कि उन की कोई उपाधि। यह नाम एक कबीले का था और आज भी है, जिसे जौहल अथवा जौह्ल के रूप में लिखा जाता है। इस कबीले के लोग आज भी पंजाब (भारतीय) में बसे हुये हैं, पेशावर के समीप प्रख्यात किला, जिस की तुलना दिल्ली के लाल किले से की जाती है, इसी कबीले के नाम पर रखा गया था। आज भी इसे जौहलों का किला अथवा जौहल फोर्ट कहा जाता है। यह जौहल जाट ही थे, जो शताब्दियों तक अरबों से खैबर दर्रे की रक्षा करते रहे, जबकि किकन अथवा किकनान कबीले के वीर जाट बोलान दर्रे के रक्षक रहे।138 682 ईस्वी में इन्हीं किकन जाटों ने अरबों का डट कर प्रतिरोध किया और उन के हमलों का मुंह तोड़ा। खलीफा-ए-मेहदी (786-809 ई.) के शासन काल में उस की सेनाओं को बोलान दर्रे के इन सख्तजान जाटों की तलवारों के साथ अपनी तलवारों की धार परखनी पड़ी।139 जौवल ही वह शब्द है जिसे तोरमान और मिहिरकुल अपने सिक्कों व शिलालेखों पर प्रमुखता के साथ प्रयोग करते रहे। बूहलर के अनुसार तोरमान शब्द न संस्कृत का है और न प्राकृत भाषा का, यह शब्द तुर्की मूल

138. R.C. Mazumdar, History and Culture of Indian People, Vol. III, p. 174.
139. ibid., Vol. IV. I, p. 127.

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का है, जिस का वहां अर्थ है एक विद्रोही अथवा राजद्रोही।140 इस तरह इस शब्द (जौवल) को "बाज" के साथ जोड़ कर देखना चाहिये। जैसा कि पहले कहा जा चुका है कि शब्द तुर्की नहीं अपितु शक मूल का है और यह भी उल्लेखनीय है कि ऐसे सभी नाम प्राचीन पहलवी भाषा से मेल खाते हैं। बूहलर इसी संदर्भ में फिर कहता है कि शाही एक उपाधि है अथवा कूल नाम है और जौवल एक कबीले का नाम हो सकता है या फिर एक विरुद। इतना कहते हुये बूहलर ने सही तथ्य की ओर संकेत कर दिया है कि वास्तव में जौबल उन के कबीले का नाम है। कन्निघम तोरमान जौहल की पहचान सिंध के एक राजकुमार जाबूइन के साथ मिलाता है। इस राज कुमार का नाम सिंध के इतिहास चाचनामा में आया है और जिस के बारे में कहा गया है कि उस ने मुल्तान का प्रख्यात सूर्य मंदिर बनवाया था। इस उत्कृष्ट मंदिर की आधारशिला 505 ईस्वी में रखी गई थी। फिरदौसी की विख्यात कृति "शाहनामा के आधार पर जे.जे. मोदी यह सुझाव देते है कि जौ शब्द वास्तव में जौगन अथवा जौगनी है, जो शब्द चगानी का ही एक भिन्न रूप है।" मोदी का मत है कि हूण राजा को जौगन इसलिये कहा जाता था, क्योंकि हूण लोग अपनी अत्यधिक प्रिय भूमि जौगन के साध मूलरूप एवं भावनात्मक रूप से जुड़े हये थे और जिसे वह हर मूल्य पर अपने हाथ में रखने की लालसा लिये थे। यहां तक तो ठीक हैं कि ये लोग चगान क्षेत्र को अपने नियन्त्रण में रखना चाहते थे, क्योंकि यह उन के पुरखों की भूमि थी लेकिन जौ शब्द से जौगन शब्द की व्युत्पत्ति मानना सही नहीं है और जे.जे.मोदी यही आ कर पूर्ण रूप से निशाने से चूक गए हैं। निशाना यह है कि जौ, वास्तव में महाभारत में वर्णित ज्योह है (सभापर्व 48/2-3)। ज्योह के आगे 'ल' प्रत्यय लगने से ज्योहल होता है और मूल नाम के आगे 'गण' लगने से जोहगण/ज्योहगण अर्थात्‌ जोह्‌/ज्योह लोग
जायसवाल के अनुसार कुरा अभिलेख में प्रयुक्त शब्द जौवल को जौवण के रूप में पढ़ा जाना चाहिये।141 लेकिन यह सही नहीं होगा, चाहे रेपसन142 भी कुछ अन्य सिक्कों पर यही नाम पढ़ता है। सिक्कों पर जौवण शब्द का पाठ ठीक हो सकता है लेकिन निश्चित रूप से इस शब्द की जौवल शब्द के साथ कोई समानता नहीं है। हमें एक ऐसे अन्य कबीले का पता है जिस का नाम जौण अथवा जूण था और यह हो सकता है कि चर्चित सिक्के इस जौण कबीले के राजाओं के रहे हों। हेरफील्ड143 और जुन्कर144 कुछ सिक्कों पर इस शब्द को जोबोलो (Zobolo) रूप में पढ़ते हैं। हैनिन्ग इसे एक उपाधि मानता है। यह भी कहा गया है कि कुषाणों द्वारा प्रयुक्त शाही उपाधि हेफतलों अथवा

140. EI, Vol. I, p. 239.
141. JBORS, Vol. XVIII, p. 201 ff.
142. ICR, p. 29.
143. MASI, No. 38, p. 19.
144. Span, 1930, p. 650.

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श्वेत हूणों द्वारा भी अपनाई जाती रही। इसी तरह जौवल अथवा जोबोल भी कहीं से उधार ले लीं गई होगी। ये दोनों ही मान्यतायें गलत हैं। न तो शाही उपाधि कहीं से ली गई न ही कबीले का नाम जौवल कहीं से उधार मांगा गया। शाही उपाधि तो इन लोगों द्वारा ईसा पूर्व नवीं शताब्दी से प्रयुक्त की जाती रही है। यह सुझाव ही मूर्खतापूर्ण समझा जाना चाहिये कि कोई व्यक्ति अपने कबीले का नाम उधार मांगने जाएगा जोकि निर्विवाद रूप में उस के किसी पूर्वज का नाम रहा होगा। उपेन्द्र ठाकुर जौवल को एक विशेषण देते हैं, "तथाकथित कबीला विरूद" और इस के साथ वह यह भी कहते हैं कि यह कबीला हूणों का वह अंश रहा होगा जो भारत की ओर आते हुये जबुलिस्तान कहे जाने वाले भू-क्षेत्र में बस गये होंगे जोकि हिन्दुकूश के दक्षिण में स्थित था (अर्थात्‌ आधुनिक अफगानिस्तान)145 यहां तक तो उपेन्द्र ठाकुर ठीक है, लेकिन इस के बाद कृति के पृष्ठ 100 पर वह यह निश्चित मत व्यक्त करते हैं कि जौवल शब्द नाम न हो कर एक उपाधि है। यहां पर ठाकुर गलत हैं। बिवर (Bivar) भी यही सुझाव देते हैं कि यह शब्द किसी वंश की राजकीय उपाधि था। उसे उरूजगां (अफगानिस्तान) में दो शिलालेख मिले जहां "साहो जबोलो" शब्द पाए गये।146 यह सभी धारणाएं कभी कभार सत्य के कगार तक पहुंचती हैं लेकिन पूर्ण सत्य तक नहीं निस्संदेह शाही शब्द वही हैं जो फारसी शब्द शाही है, जिस का अर्थ है राजकीय जबकि जौवल एक कबीले का नाम है जिस से तोरमान के काल में हूण लोग सम्बन्धित थे। जैसा कि ऊपर कहा गया है कि यह कबीला आज भी विद्यमान है और आजकल यह लोग अपना नाम जौहल अथवा जोहल के रूप में लिखते हैं। यह नाम पुनः महेन्द्र पाल के एक शिलालेख (893/912 ईस्वी) में अंकित पाया गया है। एक तोमर प्रमुख का परिचय देते हुये उस शिलालेख में एक व्यक्ति जौवल का भी उल्लेख हुआ है। यह उस कबीले का वही नाम है जिस से तोरमान सम्बन्धित था। "इस तरह तोमरों, गुजरों, हूणों के परस्पर सम्बन्ध निरन्तर बने रहे"।147 हमें आशा है कि इस से स्तिथि बिल्कुल स्पष्ट हो जायेगी।
अतः यह निश्चित है कि शब्द जबुलिस्तान मूल शब्द जौवलीस्तान अथवा जौलस्थान का अरबी रूप है और इस में काबुल, गजनी व आसपास के क्षेत्र शामिल थे। सातवीं शताब्दी के चीनी यायावर हयून-त्सांग ने अपने सस्मरणों में यह लिखा है कि जबुलिस्तान का राजा बहुत लम्बे समय से आने वाले राजाओं के वंश का उत्तराधिकारी था और वह सूर्य अथवा क्षुण की उपासक परम्परा का अनुयायी था।148 घिर्शमान के अनुसार इस वंश का एक राजा वक्थ (Vakth) भी हुआ, जिसके सिक्के भी पाए गए है और भारतीयकरण

145. The Hunas in India, p. 98.
146. JRAS, 1954, p. 115.
147. P.C. Bagchi, India and China.
148. S. Beal, Buddhists Records, Vol. II, p. 285.

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की ओर उन्मुखता व्यक्त होती है। परवर्ती राजाओं में एक राजा नपकी मलक (Napki Malka) हुआ उस के सिक्के परवर्ती तुर्की शाही तेगिन द्वारा ढाले गये।149 इस संदर्भ में यह भी उल्लेखनीय है कि जब अरबों ने 654-55 ईस्वी में चीनी यायावर की यात्रा के लगभग एक दशक बाद जबुलिस्तान पर आक्रमण किया तो उन्होने जुनबिल शब्द का वहां के राजा की उपाधि के रूप में ही उल्लेख किया और वे उन्हें तुर्की से सम्बन्धित नहीं मानते। यह जुनबिल शब्द पुनः जबुल अथवा जौवल से ही विकृत हुआ है।

कुशाणों, श्वेत हूणों, तथा कंगों के अन्तः सम्बन्ध

इतिहासकार इस बात को लेकर भी उलझन में पड़े रहे कि इन तथाकथित हूणों ने उन तथाकथित कुशाणों और कंगों के साथ बराबर का और सम्मानपूर्ण व्यवहार क्यों किया। राहुल सांकृत्यायन के अनुसार शक, हेफतल और कंग और इन के साथ मध्य एशिया के प्रायः सभी लोग चिरकाल तक बाणों मे पीतल निर्मित नोक का प्रयोग करते रहे और इन सब का पहनावा, रीति रिवाज व भाषा एक जैसी ही थी। राहुल जी के शब्दों मै "कुशाणों के काल में ऐसा लगता है कि कंगों के साथ कुषाणों के बराबर ही व्यवहार होता था। (यद्यपि कंग कुशाणों के अधीनस्थ थे) क्योंकि कंग भी शक जाति से ही सम्बन्धित थे। उन के साथ वैसा ही व्यवहार होता था, जैसा कि एकेमिनियन साम्राज्य में मण्ड लोगों के साथ होता था। इस में कोई आश्‍चर्य की बात नहीं कि कंगो के भारत आगमन के बाद उन्हें कुशाणों में से ही एक माना गया।150 इसी संदर्भ में राहुल जी फिर कहते है कि पांचवीं शती में जब हेफतलों अथवा श्वेत हूणों ने मध्य एशिया में और पंजाब में कुशाण साम्राज्य को निरस्त कर दिया और हेफतल राजा पीकंद के अधीन, कंगों को भी पराजित कर दिया तो भी उन्होंने कंगो के साथ समानता का व्यवहार किया। बला के योद्धा होने के कारण कंग हेफतलों के लिये विशेष रूप से लाभदायक सिद्ध हुए। इस तरह बिना किसी प्रयास के हेफतलों को कुषाणों, कंगो व अन्य शक कबीलों की बनी बनाई सेनाएं उपलब्ध हो गई।
ऐसे ही विचार अन्य इतिषासकारों द्वारा भी व्यक्त किये गये हैं। किन्तु यदि हम इस तथ्य को ध्यान में रखे कि ये सब लोग एक ही थे, मात्र राजकुलो में ही परिवर्तन होता रहा, एक कबीला दूसरे कबीले की जगह लेता रहा तो हम यह बात अच्छी तरह समझ सकते हैं कि पराजितों के साथ बराबरी का व्यवहार क्यों होता रहा। इसी से यह बात भी स्वतः स्पष्ट होती है कि बकतरिया के ताहियों (दहियों) द्वारा यू-ची लोगों का क्यों प्रायः स्वागत किया गया। जैसा कि राहुल सांकृत्यायन ने स्वयं लिखा है, इन लोगों

149. See JA, 1935, p. 289; and JRASB, Numismatic Supplement, Vol. 46, p. 6.
150. History of Central Asia (Hindi).

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की शासन पद्धति लोकतांत्रिक आधार लिये थी और हर कबीले का अपना एक मुखिया होता था। इस से उच्च मुखिया, कुछ कबीले आपस में मिल कर निर्वाचित कर लेते थे और उसको कगान, खकान अथवा खान कहा जाता था। सभी कबीलों के मुखिया तदोपरान्त एक सर्वोच्च प्रमुख को निर्वाचित कर लेते थे, जिसे खकान-ए-खकान कहा जाता था अर्थात मुखियों का प्रमुख। सिक्कों पर अंकित राज अधिराज से भी यही अर्थ व्यक्त होता है। यह भी आवश्यक नहीं था कि अगला सर्वोच्च प्रमुख उसी कबीले का हीं हो। यही कारण है कि हमें शासनकर्ता कबीलों में इतने परिवर्तन मिलते हैं। एक विशेष कबीले अथवा कबीलों के एक समूह को जिस में महिलाएँ व बच्चे भी शामिल रहते थे, को उर्दू कहा जाता था। ये उर्दू वर्ष में तीन बार सभी कबीलों का एक सामूहिक समारोह आयोजित किया करते थे। इन समारोहो में धार्मिक अनुष्ठान पूरे किये जाते थे और राजनीतिक निर्णय लिये जाते थे। इस सर्वोच्च सभा में कबीलों के आपसी झगडे भी निपटाये जाते थे। इसी शब्द (उर्दू) का बाद में मुगलों ने भी सैनिक छावनी के रूप में प्रयोग किया और इसी शब्द से उर्दू भाषा को भी नाम मिला, जो आज की भारतीय भाषाओं में एक प्रतिष्ठित भाषा है। उर्दू भारत के कई हिस्सों में बोली और लिखी जाती है और यह पाकिस्तान की सरकारी भाषा भी है।
जर्मन विद्वान फ्रांज एल्थीम (Franz Altheim) सोगदियान के श्वेत हूण राजा को कांग खास (Kang Khas)151 के रूप में लेता है और जिसे प्रिसकस (Priscus) ने किदारों का एक राजा कहा है। पाल पेल्लियट (Paul Реlliot) ने भी "कांगकस" (Kung Kas) का उल्लेख किया है। फारसी के लेखकों द्वारा यह नाम श्वेत हुणों अथवा किदारों के एक राजा के लिये प्रयुक्त किया गया है। यह नाम भी एक जाट कबीले का है, जिसे आजकल घण्गस कहा जाता है। मेरे विचार में यह एक ऐसा नाम है, जिस पर दो मत हो ही नहीं सकते और विश्व भर मे सम्भवतः इससे मिलता जुलता अन्य कोई नाम है ही नहीं। अतः यह इसलिये विशेष रूप से महत्वपूर्ण है क्योंकि यह सोगदियान के एक राजा के कबीले का नाम था, जिस ने ईरान के सासानी राजाओं के विरुद्ध युद्ध लड़े और वह घंगस कबीले आज भी भारतीय जाटों में हैं। जर्मन भाषा में इसका अर्थ है राजकुमार।152
इस के अतिरिक्‍त इन लोगो के मूल सिद्धान्तों में एक सिद्धान्त यह भी था कि इन में हर व्यक्ति एक दूसरे के समान समझा जाता था। यहां तक कि जब कोई व्यक्ति-विशेष सर्वोच्च/प्रमुख पद के लिये चुना जाता था तो वह सब से ऊंचा नहीं समझा जाता था। वह नेतृत्व के मामलों को छोड़ सबके बराबर ही रहता था। नेतृत्व सम्बन्धी मामलों में उर्दू की सभाओं में, युद्ध एवं शान्ति के प्रश्नों पर उसके विचारों को अधिमान दिया जाता था। यह अलिखित कानून जाटों में आज भी बना हुआ है। यहां हर जाट एक दूसरे के

151. JA, 1934, p. 42.
152. Mentioned as Khangas in Tribes & Castes, Vol. II.

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बराबर है। एक गरीब जाट, जिसे दो समय की रोटी भी जुटानी कठिन हो, स्वयं को किसी अन्य जाट से हीन नहीं समझता, चाहे वह कोई मुख्यमंत्री अथवा उच्च पद पर आसीन कोई व्यक्ति ही क्यों न हो। शकों, कुषाणोंहफतलों में एक दूसरे के साथ समान व्यवहार का यही कारण था। उनकी भाषा में हिन्दी शब्द "आप" जैसा कोई शब्द नहीं है। सभी जाट एक दूसरे को "तू" कह कर पुकारते हैं। (पंजाबी में कभी "तुसी" भी कह देते हैं।)

भाषाई एवं अन्य समानताएं

यह बात विशेष रूप से विचारणीय है कि पेल्लियट कुषाणों और यू-ची के लोगों में विशेष भेद मानते हुए भी सहमति रखता है कि उर्दू घर गाथाओ (Colophones) की तोखरी भाषा तखरों की तोखरियन भाषा ही है, हियून-त्सांग ने भी तुखरिस्तान में यही भाषा देखी। इन्हीं Colophones में कूचा क्षेत्र की कुशाण भाषा भी पाई गई। ये दोनों भाषाएं एक ही परिवार से सम्बन्धित हैं। हमारा मत यह है कि कुषाणों, तखरों, कंगो और दहियों की भाषाएँ ही केवल एक जैसी नहीं थीं बल्कि ये शक भाषा के समान ही थीं, जो जाटों की भाषा है, इन में केवल कुछ स्थानीय भिन्नता अवश्य हो सकती है। जैसे आजकल भी राजस्थानी, हरियाणवी और खड़ी बोली में अन्तर है।
आइए अब हम बुद्ध प्रकाश द्वारा उस की कृति Studies in Ancient Indian History and Civilisation में दी गयी एक पाद टिप्पणी को देखें :—
"कि भारत के कुषाण स्वयं को शकों से सम्बन्धित मानते हैं इस तथ्य की पुष्टि मट एवं मथुरा में पाई गई उन के देवकुल की प्रतिमाओं से होती है। उन प्रतिमाओं में विम कडफीसकनिष्क के साथ यशोमोतिक के पुत्र चष्टन (चान्दन) की प्रतिमा भी पाईं गई है। चष्टन सौराष्ट्र और मालवा का एक पश्चिमी क्षत्रप था।153 इससे यह सिद्ध होता है कि चष्टन जो जन्म से शक था, कुषाण सम्राटों द्वारा अपने ही कबीले के एक सदस्य के रूप में लिया गया। यह भी उल्लेखनीय है कि इस संग्रहालय में एक प्रतिमा का सिर भी सुरक्षित है, जिस पर ऊंची सिथियन टोपी है जो आगे से नोकीली है, यह सिर हमें "शक तिग्रखुद" की नोकीली टोपी का स्मरण कराता है।"154
भारतीय शकों एवं कुषाणों के परिधान एवं आभूषण सरमेतियों अथवा अलानों की कब्रों से उपलब्ध परिधानों एवं आभूषणों के समान हैं। वास्तव में अलान शब्द मूल अल के साथ आन्‌ प्रत्यय लगाने से बना है और यह जाटों के ऐलावत कुल के ही समान है। ऊचे जूते, पतलून, लम्बा कोट तेथा सिर का परिधान आदि इन सब लोगों

153. J. Ph. Vogel in ASIAR, 1911-12 p. 126.
154. SIH & C, p. 251 (footnote).

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में एक जैसे ही पाए गए हैं। यही पहनावा है जो भारत के तथाकथित गुप्तों के सिक्कों पर अंकित पाया गया है। गुप्तकाल के ये राजा जाटों के धारण कबीले से सम्बन्धित थे। बाद में जब इन राजाओं का भारतीयकरण हो गया, तब परवर्ती काल के सिक्कों पर इन गुप्त राजाओं को भारतीय धोती पहने हुए दिखाया गया। युद्ध शस्त्रों में इन के लिये तलवार एवं भाला सर्वाधिक महत्वपूर्ण थे। धनुष एवं बाण का युग बीत रहा था। इन के लिये भारी पहियों का कवच और गोल वृत्त के कवच ही अधिक प्रमुख थे। अजेस (Azes) के सिक्कों पर राजा को एक लम्बा कोट पहने दिखाया गया है। विम कड़फीस की प्रतिमा में लम्बी तलवार और मज़बूत भाला प्रमुखता के साथ प्रदर्शित किये गये हैं। कनिष्क की प्रतिमा में लम्बी तलवार उस के कोट के साथ बंधी हुई है, कुछ सिक्कों पर उसे भाले के साथ दिखाया गया है। वासुदेव और उस के उत्तराधिकारियों द्वारा कवच को प्रमुक्ता दी गई है। मध्य एशिया के जाटों के परम्परागत पहनावे कोट, पेंट व बूट उनके देवताओं द्वारा भी पहने गये। मथुरा में सूर्यदेव जी की प्रतिमा में उसे लम्बे बूट पहने दिखाया गया है।
यदि और प्रमाणों की आवश्यकता है तो यह वे प्रमाण हैं जो भारतीय सिथियनों अथवा शकों एवं कुशानों की समानता पृष्ट करते हैं। जैसा कि पहले कहा जा चुका है, इन लोगों को एक समान व्यवहार करते देख कर तनिक भी आश्चर्य नहीं होना चाहिये। चष्टन, रुद्रदमन रुद्र सिंह तक सभी शक शासक, कुशान और कंग जाटों के ही समान थे।
वास्तव में उन के परिधान तथा आभूषण पतलून कोट पेटी बूट लम्बी तलवारें आदि उत्कृष्टतम वेशभूषा भी थी जिसे चीनियों ने तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व के आरम्भ में हियूंग-नू से नकल किया था। इस बात की पुष्टि बार्थोल्ड लाफर ने155 एम.आई. रोस्तोबजिफ ने156 टी. टाल्बोट राइस157 व अन्य इतिहासकार भी करते हैं। इन लोगों का मूल निश्चित रूप से ईरानी एवं सिथियन था।

जूट, जाट, गौथ, गौत

कुछ लोग इस समानता पर संदेह इस आधार पर करते हैं कि जाट, जटई और गौथ एक दूसरे से भिन्न हैं और वे एक ही नहीं हो सकते। इन लोगों का यह कहना है कि स्वरों की समान ध्वनियां समरूपता का प्रमाण नहीं बन सकतीं। ज अक्षर का ग में परिवर्तित हो जाना ऐसी धारणाओं का आधार हो सकता है लेकिन जैसा कि पहले कहा जा चुका है कि ज का ग में बदल जाना एक सहज प्रक्रिया है और यह ग्रिम्म के प्रख्यात

155. Chinese Clay figures; Prolegomena on the History of Defensive Armonic, Chicago (1914) p. 218.
156. Iranians & Greeks in Southern Russia, OXFORD (1922). p. 204.
157. The Scythians, pp. 193-196.

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law of variation पर आधारित है। इस नियम के अन्तर्गत संस्कृत का "स" फारसी के "ह" में परिवर्तित्त हो जाता है। इसी तरह भारतीय शब्द हंस जर्मनी भाषा में गन्स (Gans) बन जाता है और इन दोनों शब्दों का अर्थ है हंस। इसी संयम के अन्तर्गत "ल" व "र" "ल" व न तथा ज व ग परस्पर परिवर्तित होते हैं। ग्रिम के इस नियम के आधार पर संस्कृत का शब्द "जीव" रूसी भाषा में झिव तथा लिथुआनिया की भाषा में गुव158 बन जाता है। इसी तरह यूरोपीय शब्द जार्ज एवं जार्जिया का उच्चारण ज से होता है न कि ग से। इसी नियम के आधार पर जाट मध्य एशिया में जटई और यूरोप में गौत अथवा गौथ बन जाता है लेकिन डेन्मार्क में यह शब्द ज के साथ ही लिखा जाता है जैसे जूट और जटलैण्ड में। जे.जे. मोदी के अनुसार, "गौथ पूर्ववर्ती हूणों की एक शाखा हैं।"159 हैविट्ट इस विषय में जो विचार रखता है,159A उन का उल्लेख पहले ही किया जा चुका है।
सर हेनरी इलियट ने स्पष्ट रूप से लिखा है कि जाट उत्तर-पश्चिम यूरोप से भारत में आए। हम इन के उत्तर पश्चिम से स्थानांतरित होने की धारणा से सहमत नहीं हैं। उत्तर पश्चिम यूरोप के लोगों के साथ जाटों की समानता में कोई संदेह तो नहीं है, कर्नल टाड भी यही मत रखते हैं। इस तरह कई और भी मत प्रस्तुत किये जा सकते है। किन्तु इसकी आवश्यकता नहीं है क्योंकि कुछ लोग ही इस एकात्मता पर सन्देह करते हैं। यह तथ्य कि इन के बहुत से उपनाम एक समान हैं, इस मत को और भी पुष्ट करते हैं। उदाहरण के रूप में एक दूसरे के समान उपनाम नीचे दिये जा रहे हैं :—

158. See MAKI, Vol. II, p. 566.
159. JBBRAS, 1914, p. 562.
159A. 'Ruling Races of Prehistoric Times'

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काहलों/कल्लन
चवान
क्लीन
चवान्नस (इतिहासकार)

यह समानता नगरों के नामों से भी हो जाती है। हम यहां केवल तीन उदाहरण दे रहे हैं।
पहला असीगढ़, यह मालवा में स्थित है और यह बीका जाट द्वारा बसाया गया था। इस नाम से मिलता जुलता नगर स्कैंडेनेविया में असीगोर्ड है।160 वहां इस सम्बन्ध में यह भी कहा गया है कि स्कैंडेनेविया में ओडिन (बोदिन, बुद्ध ?) का उत्तराधिकारी गौतम (भगवान बुद्ध का ही एक नाम) था। यह संभवतः इसलिये कहा गया है क्योंकि मध्य एशिया के जाट बुद्ध मत के प्रभाव में बहुत पहले ही आ गए थे और यह ऐसा माने बगैर सम्भव नहीं हो सकता कि यह लोग मध्य एशिया से ही उत्तरी यूरोप की ओर गए थे।
दूसरा अलवर, यह नगर भी एक विख्यात नगर है, जो उत्तरी राजस्थानहरियाणा की सीमा पर स्थित एक पूर्व रियासत की राजघानी रहा है। अलवर शब्द गौथिक अथवा

160. Annals of Rajasthan, Vol. I, p. 54.

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जाट मूल का है।161 यह नाम व्यक्ति के नाम के रूप में भी प्राप्य है, जैसे स्पेन का अलवरो (Alvaro) तीसरा जैसलमेर, ऐसे ही नाम का एक नगर हालैंड डेन्मार्क की सीमा जिसे पर स्थित है जिसे इजैसलमीर कहा जाता है। यह सब शब्द एक दूसरे से स्वतन्त्र नहीं होसकते। पुराने वृत्तों में भारतीय जैसलमेर के भट्ठियों की मान्यता है कि वे जबुलिस्तान या उससे भी पार के क्षेत्रों से आए। चाहे बाद में जाकर उन्होने यह दावा करना शुरू कर दिया कि वह यदुवंश के वंशज हैं। संयोगतश जाटों के लगभग सभी कबीले राजपूतों में भी पाए जाते हैं, जैसे दहिया, भट्टी, चौहान, मिन्हास, सौलंकी, पचार, गेहलोत, धनखड़ आदि आदि और इस विषय पर विस्तृत चर्चा आप को आगामी अध्याय में मिलेगी। यहां पर तो हम इस प्रश्न पर विचार कर रहे हैं कि भारतीय और यूरोपीय जाटों में कितनी समरूपता है। ये बातें पहले भी कही जा चुकी हैं कि स्कैंडीनेविया के लोगों के घर्म ग्रन्थ एड्डा (Aidda) के अनुसार ये लोग यहां के मूल वासियों, जित्तों के वंशज हैं जो अपने आप को आर्य कहते थे। इस धर्म ग्रन्थ में यह भी लिखा है कि इन लोगों सी को असी भी कहा जाता था, क्योंकि यह लोग आक्सस नदी के मध्य एशियाई क्षेत्रों से आए थे। यह वही क्षेत्र हैं, यहां से भारतीय जाट भी आए और MAKI के अनुसार शकों के एक कबीले का नाम भी असी है। नवीं शताब्दी के अन्त में हूण जाति के दो कबीलों के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने अटिल्ला (Attila) की मृत्यु के बाद रोमन साम्राज्य पर आक्रमण किये और वह 485 से लेकर 558 ईस्वी तक निरन्तर युद्ध करते रहे।162 इन दोनों कबीलों के नाम कुलुर गरीउतार गरी कहे गए हैं। परवर्ती काल में जब यह दोनों इकट्ठे हो गए तो इन को बलगरी कहा गया और इन के नाम पर आधूनिक बुल्गारिया का नाम पड़ा। अब यह दोनों नाम जाटों के दो भारतीय कबीलों के भी हैं, जिन्हें अब कुलार और उडार लिखा जाता है। वास्तव में बलगरी एक स्वतन्त्र कबीला है और भारत में बल्हर अथवा बलहारा कहलाता है। यहां केवल "ह" का "ग" में परिवर्तन है जैसे सिंह, सिंघ में परिवर्तित हो जाता है। एक अन्य जाट कबीले का भारतीय नाम अब छिल्लर के रूप में लिखा जाता है और जर्मनी में इसे शिल्लर (Schiller) कहा जाता है। इसी तरह जर्मन कबीले का नाम क्लीन (Klein) भारतीय नाम कल्लन से मिलता है और जर्मन कबीला कोहल (Kohl) का भारतीय रूप काहलों हैं। आगे हम ने जाटों के भारतीय कबीलों की एकबद्ध की हुई सूची भी दी है। जिस पाठक को किसी भी रूप में इस विषय में रुचि हो तो उस के लिये इस सूची को मात्र देख लेना ही पर्याप्त होगा। यदि समोचित ढंग से शोध कार्य किया जाए तो यह पता चलेगा कि केवल उन कबीलों को छोड़ कर जो भारत तथा यूरोप में आगमन के बाद अस्तित्व में आए, शेष सब के नाम एक सांझापन लिये हुए हैं। यह तथ्य भी बिना महत्व के नहीं है कि कई

161. JRAS, 1954, p. 138, note III.
162. See J.J. Modi in JBBRAS, 1914, p. 548.

पृष्ठ 63 समाप्त

कलाकृतियां और सिक्के (विशेषतः कुशान काल के) बुद्ध की एक प्रतिमा आदि फ्रांस, जर्मनीयूरोप के स्कैंडीनेविया क्षेत्र में पाए गए हैं। 1950 के मध्य में एक छोटे से द्वीप लिलियन, जो स्टोकहोम के 20 किलोमीटर पश्चिम में स्थित है, के उत्खनन में कई अन्य वस्तुओं के साथ बुद्ध की एक सुन्दर कांस्य प्रतिमा मिली है जिस में बुद्ध पालथी मारे कमलासन मुद्रा मे दिखाए गए हैं। विल. होल्मक्विस्त, जिस ने इस पुरातत्व खुदाई की जांच का कार्य किया, के अनुसार यह बुद्ध प्रतिमा भारतीय या मध्य एशिया मूल की है।163 इतिहासकार इस तथ्य से भली भान्ति अवगत हैं कि बुद्ध की प्रतिमाएं सर्वप्रथम कुशानों के काल में गंधार और मथुरा की कला शैलियों में निर्मित की गई थीं। अतः उपरोक्त बुद्ध प्रतिमा अवश्य ही कुशानों के काल की रही होगी जो कि जाटों का ही एक कबीला था और यह प्रतिमा उन लोगों के साथ उत्तर पश्चिम यूरोप में होगी जो यहां से स्थानांतरण कर गए हों या फिर उन लोगों के माध्यम से जो दोनो क्षेत्रों में व्यपार आदि करते रहे होंगे। यह बात भी ध्यान में रखनी चाहिये कि सोवियत संघ में हाल में हुए उत्खनन के अनुसार कुशान साम्राज्य क्रीमिया तथा डेन्यूब तक फैला हुआ था और वहां से स्केण्डीनेविया तो बहुत कम दूरी पर स्थित है।
कोरदोवा के अलवर (10वीं शताब्दी) से सम्बन्धित एक अत्यधिक रुचिकर लेख मिला है। इस अलवर को "अन्तिम गाथ" कहा गया है। वह स्पेन के जाट राजा का पौत्र था। इस विशेष लेख में, अलवर यह स्पष्ट दावा करते हैं कि वह प्रतिष्ठित प्राचीन जाति गटी से उत्पन्न हैं।164 आइए देखें कि अलवर अपनी जाति के बारे में अपने मुख से क्या कहता है :-

ताकि तुम जान सको मैं कौन हूं, सुनो विर्जिल कोः
"गटी जो मृत्यु का तिरस्कार और घावों की प्रशस्ति करते हैं।"
और फिर :— "वह अश्व जिस पर गटन सवार हैं।"

फिर कवि के शब्दों में :—

"इस ओर दकि और उस ओर गटन का दबाव है।"

मैं तुम्हें बताऊं मैं उस जाति का हूं जिस के बारे में सिकन्दर ने कहा था 'उससे बचो' ; भयभीत था जिससे पाइर्रहस तथा कांपता था जिस से सीज़र। हमारा अपना जेरोम हमारे विषय में कहता है इस तरह :—

"उस के आगे सींग हैं, अतः दूर रहो उस से"

यहां दकियन हंगरी निवासियों के लिये प्रयुक्त हुआ है, जिन को हूणों से यह नाम मिला- हंगरी। दकी/दखी/दधी — यह सब दही कुल नाम के उच्चारण हैं। घटना विशेष में, शत्रु को एक ओर से दहिया और दूसरी ओर से गाट वंशी जाटों ने दबोचा हुआ था।

163. Cited in SIH&C, p. 268.
164. JRAS, 1954, p. 138.

पृष्ठ 64 समाप्त

किन्तु रोचक बात तो यह है कि "इनके सींग हैं" मुहावरा भारत मे भी खूब प्रचलित है। फिर गटान और जट्टान भारतीय शब्द गट/जट का बहुबचन हैं। 1192ई. में पृथ्वीराज पराजित हुआ था और हरियाणा के जाटों ने जटवान नाम के एक नेता के नेतृत्व में अपने परम्परागत विद्रोह का झंडा बुलन्द किया था। हांसी (हिसार ज़िला) के पास हुए "इस हठीले टकराव मे," ताज-उल-मासिर के अनुसार, सेनाओं ने एक दूसरे पर इस तरह आक्रमण किये जैसे इस्पात के दो पहाड़ आपस में टकरा रहे हो। युद्ध का मैदान योद्धाओं के रक्त से रंजित हो गया। अल्लाह के शक्तिशाली हाथों से जटवान के बहू-देववाद व उसके नरकपात के सभी चिन्ह मिटा दिये गये।165

मध्य एशिया में उनके वंशज

प्रायः ऐसा होता है कि जब बड़ी संख्या में लोग पलायन व स्थानांतरण करते हैं तो कुछ लोग उन के साथ स्थानांतरित नहीं होते और वे अपने मूल स्थान पर ही टिके रहने को प्राथमिकता देते हैं। ऐसा ही, 1947 में भारतपाकिस्तान बनते समय हुआ। कई मुसलमान भारत में रहे और कई सिखहिन्दू पाकिस्तान में ही रहे। इसी तरह कई जाट मध्य एशिया में ही रहे और बाद में वे स्थानीय आबादी में घुल मिल गए। इतना होने पर भी, आज तक उन्होंने अपने कबीलों के मूल नाम सुरक्षित रखे हुए हैं। मध्य एशिया के कई अन्य कबीलों के नाम समानांतर रूप में भारत में नहीं भी मिलते, क्योंकि इन में कई कबीले बाद में अस्तित्व में आये। अर्थात 6वीं शताब्दी से बाद, जब मध्य एशिया के जाट भारत में आ चुके हुए थे। नीचे कुछ समानांतर नाम दिये जा रहे हैं, जो भारतीय जाटोंमध्य एशिया के जाटों में आज भी पाए जाते हैं।166

क्रमांक
भारतीय जाट कबीले का नाम
मध्य एशियाकबीले का प्रतिरूप नाम
(यह एक अरबी उच्चारण है। इस का वास्तविक उच्चारण तातरान है, वैसा ही जैसा कि जर्मन में तातरांन)


165. Elliot, Vol. II, p. 218.
166. Taken from MAKI, Vol. II....

पृष्ठ 65 समाप्त

सूची को और भी अधिक विस्तार दिया जा सकता है। हेनरी हावर्थ द्वारा लिखित लेख167 में चंगेज़ खां को "वीर बोग्दा" के नाम से सम्बोधित किया गया है। एक भारतीय जाट कबीला है जिसे बोग्दावत के नाम से पुकारा जाता है। चंगेज खां की सेना की सरंचना दी गई है जिस में कहा गया है कि इस में 30,000 जाट थे तथा 20,000 अन्य सैनिक जो "भारतीय मूल" के थे, एक बेला नोयन के नेतृत्व में थे। जैसा कि पहले बताया जा चुका है, यह नोयन वंश, वही है जैसा कि वर्तमान जाटों का कबीला नयन/नैन। हम पूर्ण विश्वास के साथ नहीं कह सकते कि चंगेज खां जाटों के बोगदावत कबीले से सम्बन्धित था लेकिन बोग्दा विशेषण के रूप में विशेष रूप से ध्यानाकर्षित करता है। यह एक सम्मानजनक उपाधि भी हो सकती है, उच्च वीर आदि। तैमूरलंग की आत्मकथा में हम उस के जाटों के साथ बार-बार युद्धों के उदाहरण पाते हैं। एक समय में तो तैमूरलंग समरकंद जाट राज्यपाल खोजा अथवा ओझलान का सलाहकार बनने पर भी विवश हुआ था। ओझलान भारत के एक अन्य विद्यमान जाट कबीले का नाम है। तैमूरलंग की विजयों में से यहां एक उद्धरण प्रस्तुत किया जा रहा है। परिस्थितियां पहले से भी अधिक निकृष्ट हो चुकी हैं... उस जैनुद्दीन ने कहा, "यहां तक कि प्रमुख मुल्ला होते हुए भी मुझे यहां छिप कर रहना पड़ रहा है, जहां तुम ने (तैमूरलंग) मुझे पाया है। बोखारा में, खोगोंद में और कर्शी में भी... सर्वत्र यही हाल है ... कोई ऐसा तातार राजकुमार नहीं जो हमारा नेतृत्व कर सके। तुम मात्र एक ऐसे राजकुमार हो जिस ने जाट गढ़ों के समीप जाने का साहस दिखाया था।" इतना कहने के बाद जैनुद्दीन बड़े गौर से मेरा चेहरा पढ़ता रहा। मैंने एक बार अल्लाह की पवित्र ओढ़नी पहननी कबूल की थी, अब दोबारा मैं उसे पहनना नहीं चाहता था। मैंने कटाक्ष करते हुए कहा, "दुआ

167. *Chingiz Khan & his Ancestors* I.A. 1886 Vol. XV p. 129. f.

पृष्ठ 66 समाप्त

करो कि जाटों पर खुदा का कहर टूटे," और फिर क्षणिक प्रेरणा में मैने यह भी संजीदगी के साथ कहा, "यह दुआ भी करो कि उन के घोड़ों पर अल्लाह की मार पड़े। घोड़ों के बगैर जाट शक्तिहीन होते हैं।"168 अपनी आत्म कथा के इस अंश में तैमूरलंग मध्य एशिया के तत्कालीन मुसलमानों की उस दयनीय स्थिति की ओर संकेत कर रहा है, जो जाट सेनापति बिकिजुक व अन्य जाटों ने मुसलमानों की कर रखी थी। तैमूरलंग यह कह रहा है कि वह अल्लाह अथवा इस्लाम के नाम पर एक बार जाटों से युद्ध कर चुका है और अब वह दोबारा उन से युद्ध नहीं करना चाहता। ऐसा लगता है कि शायद समरकंद के उस प्रमुख मुल्ला की दुआ अल्लाह ने कबूल कर ली और इत्फाक ऐसा हुआ कि जाटों के घोड़े एक घातक बीमारी से ग्रस्त हो गए और कहा जाता है कि इस बीमारी जाटों के घोड़े बड़ी संख्या में मारे गए, जिस का परिणाम यह हुआ कि जाटों को अपना सामान सिरों पर ढोना पड़ा। इस तरह अन्ततः तैमूरलंग विजयी हुआ। मध्य एशिया के कबीलों पर विजय करने के बाद ही तैमूरलंग भारत आ सका और दिल्ली में लूट मचा सका।
रूस के अन्ते वही हैं, जो भारत के अन्तल हैं। इसी तरह रूस के "वैन" भारत के बेन्हवाल अथवा वेनवाल दिखाई देते हैं। जहां तक कि रूसी शब्द, स्लाव जोकि रूस की बहुसंख्यक आबादी है, सकलव से निकला है और जो भारतीय पुराणों में सकरवक के रूप में पाया जाता है और यही शब्द भारतीय जाटों का सगरवार अथवा सकरवार है।169 मध्य एशिया के लोगों का "र" के स्थान पर "ल" के प्रति मोह सर्वचिदित है।
भारतीय, मध्य एशिया और यूरोपीय जाटों की समरूपता के इस अध्याय को यहां समाप्त करने से पहले मैं क्रीमियासोवियत संघ के पश्चिमी भागों में हुए खनन कार्यों का उल्लेख अवश्य करना करना चाहूंगा। 1971 में तोवस्ता (यूक्रेन) में हुई खुदाई में शकों की बहुत-सी वस्तुएं प्राप्त हुई हैं। इन में से एक स्वर्ण निर्मित छाती का कवच है जिस का वजन लगभग अढ़ाई पाउंड है। इस कवच पर गायों और घोड़ियों के लगभग 44 चित्र अंकित हैं और इस के बीच में दो शक अवस्थित दिखाए गए हैं जिन की घनी जटाएं और भरपूर दाढियां हैं बिल्कुल आज के पंजाब के सिखों की तरह। यूक्रेन में ही सोलोखा के स्थान पर चौथी शताब्दी ई.पू. का स्वर्ण निर्मित मद्यपान का एक बर्तन और एक अन्य प्याला भी मिला है। इस पर एक शक शिकारी को अश्व पर सवार दिखाया गया है, जो अपने भाले से शेर को मार रहा है। स्वर्ण निर्मित एक कंघी भी मिली है। इस के अतिरिक्‍त ठोस स्वर्ण एवं चांदी से बना एक भारी कंठहार भी पाया गया है, शक जिन्हें पहनने के

168. Autobiography of Timur, Eng. Trans. by Major Stewart (1830) from Persian Malfuzat-i-Timuri by Abu Talib Husaini.
169. See MAKI, Vol. II, p. 563.

पृष्ठ 67 समाप्त

अत्यधिक शौकीन थे और यह कंठहार आधुनिक काल के भारतीय जाटों द्वारा पहने जाने वाले कंठों और हंसलों की तरह ही है, और ग्रामीण अंचलों में आज भी जाटों को उसे पहने हुए देखा जा सकता है। पुरुषों के कर्णफूल भी हैं, जिन्हें मुर्की कहा जाता है। राजस्थान क्षेत्र के भारतीय जाटों में यह आज भी प्रचलित है यद्यपि इन का प्रयोग अब समाप्त हो रहा है।
अतः हम पूर्ण विश्वास के साथ कह सकते हैं कि भारतीय जाट, रूस के स्लाव व उत्तरीय यूरोप के कई समुदाय एक ही जाट जाति से सम्बन्धित हैं। नीचे राहुल सांकृत्यायन का एक उद्धरण प्रस्तुत कर रहे हैं, जिस पर ध्यान दिया जाना चाहिये
"प्राचीन शक रूस के स्लाव लोगों के रूप में पुनः प्रकट हुए हैं और आज भीं विद्यमान हैं।" पश्चिमी शक शकद्वीप से स्थानांतरित हो कर कई देशों में प्रवेश कर गए और भारत में हिन्दुओं के शक ब्राहमणों, राजपूतों, जाटोंगुजरों के रूप में खप गए। संस्कृत और रूसी भाषा में निकटतम समानता इन के इतिहास पर दृष्टिपात करने से ही स्पष्ट हो जाती है। यह इस कारण से है क्योंकि रूसी भी उन्हीं शकों के वंशज हैं जिन के स-बंधु आर्य लोग भारतईरान में प्राचीन काल में बस गए थे। इन के आपसी सम्पर्क टूटे नहीं थे, बल्कि इस के विपरीत कई शताब्दियों के अन्तराल के बाद शक एक बहुत बड़ी संख्या में पुनः भारत आए।170

सूर्यमुखी का फूल, धार्मिक एवं सामाजिक मान्यताएं

हम पहिले लिख चुके हैं कि सूर्यमुखी एक भारतीय चिन्ह नहीं है। कला और धार्मिक कार्यों में, सर्वोत्तम भारतीय पुष्पचिन्ह तो कमल है, सूर्यमुखी नहीं। किन्तु सुमेर और बेबीलोन में पह एक मुख्य मूलभाव है, जहां से, सम्भवतः, इसे मध्य एशियाई लोगों ने अपनाया।
ईरानी इतिहास में सुमेर के सम्राट नरमसिन के प्रस्तरपट पर एक प्रतिकृति में सम्राट् को हारे हुवे नीग्रो (हब्शी) शत्रुओं के साथ दिखाया गया है।171 इस प्रस्तरपट के ऊपरी भाग में दो सूर्यमुखी फूल प्राधान्यता से दिखाये हैं। ई. पू. तीसरे सहस्राब्द में यह सम्भवतः प्रथम प्रमाण है जहां सूर्यमुखी पुष्प प्रयुक्त हुये।
सिथियोंकुशानों के भारत आगमन के बाद हम भारत के सूर्य मंदिरों मे सूर्यमुखी का फूल अंकित पाते हैं। राहुल सांकृत्यायन ने अपनी कृति "मध्य एशिया का इतिहास" में इसका विधिवत रूप में उल्लेख किया है इससे सम्बन्धित एक महत्वपूर्ण प्रसंग का उल्लेख कालिदास ने भी किया है।172 दत्ता ने पश्चिमी बंगाल के ज़िला 24 परगना

170. MAKI, Vol. II, p. 585.
(Translated from the original in Hindi).
171. P. Sykes, A History of Persia, Vol. I, p. 66.
172. Datta in IHQ, 1933, Vol. IX, p. 202.

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Image of Suryanarain (Sun God) of 11th-12th Century discovered from Village Beri in Rohtak district. Note the contrast with Harihar (Frontispiece) regarding personal attire, Sunflower and footwear which no Indian god wears except Surya.
[Photo: Courtesy- Public Relations Dept., Haryana.]

अनाम पृष्ठ समाप्त

में दो सूर्य प्रतिमाएं पाए जाने की बात कही है। इस में पहली आकृति निश्‍चित रूप से सूर्य देवता की है, जो काशीपुर में एक ग्रामीण को तालाब की खुदाई करते हुए मिले थी। काशीपुर अलीपुर उप मण्डल में जयनगर पुलिस थाने में स्थित है। यह आकृति लगभग अढ़ाई फुट लम्बी है और यह नीले रंग में है जो किसी असिताष्म चट्टान को काट कर बनाई गई है। इस आकृति में सूर्य देव को सिर पर एक टोपी जैसा उष्पाशि पहने दिखाया गया है, जिस के नीचे से, बल खाते हुए उन के केश, कंधों पर फैल रहे हैं। इस आकृति में सूर्यदेव को एक छोटा कंठहार भी पहनाया गया हुआ है जोकि मनकों से जड़ा है और उसके मध्य में एक चकोर पट्टी है। इस आकृति में सूर्यदेव ने एक लम्बा अंगरखा और सादा कड़े पहन रखे हैं और इस आकृति के सारे परिधान बिल्कुल वैसे ही है, जैसे भूमरा के गुप्त कालीन मंदिर के आले में रखी एक सूर्य मूर्ति में हैं।173 कुशान काल की मूर्तियों में भी यही परिधान दिखाई देता है। स्पष्ट रूप में यह उदीच्य परिधान है जिसे वराह मिहिर ने अपनी कृति "बृह्त संहिता" में सूर्यदेव के लिये निश्चित किया है।174 इसके दोनों हाथों में कमल के डण्ठल हैं जो कंधों तक ऊंचे उठे हुए कमल-कुंज में अन्त होते हैं। और इसके विपरीत परवर्ती काल की आकृतियों में केवल एक कमल दिखाया गया है। कमर पर एक पेटी बांधी गई है जिस के मध्य में एक जड़े हुए बटन से दो फुंदे लटक रहे हैं। इसके साथ ही बायीं ओर एक पट्टी की सहायता से स्थित एक तलवार लटक रही है।175
अब यह मूर्ति निश्चित रूप से चौथी अथवा पांचवीं शताब्दी की है और दत्ता का यह कहना कि यह फूल कमल का फूल है निश्चित रूप से गलत है। यह तो एक साधारण आदमी भी बता सकता है कि यह फूल कमल का फूल न होकर सूर्यमुखी का फूल है। पहली बात तो यह कि कमल के फूल को कभी गुच्छे के रूप में नहीं दिखाया जाता और दूसरी बात यह है कि कमल के फूल की केवल पत्तियां एक डण्ठल होता है। सूर्यमुखी के फूल के मध्य में बीज उत्पन्न करने वाला भाग प्रमुखता से दिखायी देता है और यह कमल के फूल में कभी नहीं पाया जाता, कमल के फूल की केवल पत्तियां ही होती हैं। हम इस संदर्भ में केवल यह कहना चाहते हैं कि यह सूर्य मूर्ति जिसे पेटी व तलवार के साथ दिखाया गया है, भारतीय मूल की नहीं है अपितु यह कुषाण अथवा गुप्तकाल में मध्य एशिया के अप्रवासियों द्वारा बनाई गई होगी। भारतीय देवताओं की मूर्तियों में तलवार को कभी इस स्थिति में नहीं दिखाया गया है और फिर सिर पर टोपी जैसा पहनावा मूर्ति के मध्य एशियाई मूल की ओर संकेत करता है। स्पष्टतः इस मूर्ति का निर्माण मध्य एशिया के लोगों के सीधे आदेश के तहत हुआ और बहुत संभव है कि यह

173. Plate XIV, MASI, No. XVI.
174. Plate XII, catalogue, Museum of Archaeology, Sanchi.
175. op. cit,

पृष्ठ 69 समाप्त

आदेश कुशानों द्वारा ही दिया गया हो जिन का साम्राज्य उस समय उड़ीसा, बंगाल और सम्भवतः असम तक फैला हुआ था। जे.एन. बैनर्जी ऐसी ही एक सूर्य आकृति का उल्लेख करते हैं, जो गांधार में पाई गई।176 इसमें देवता ने अन्य चीज़ों के साथ बूट पहन रखे हैं। भूमर मंदिर में उपलब्ध गुप्तकाल की सूर्य मूर्ति का परिधान भी लगभग वैसा ही दिखाया गया है, जो इस तथ्य के पक्ष में जाता है कि गुप्त कहे जाने वाले सम्राट्‌ मध्य एशिया से आए अप्रवासी थे। इस संदर्भ में यह जानना भी महत्वपूर्ण है कि प्रारम्भिक गुप्त सम्राटों को उनके सिक्कों में मध्य एशियाई पहनावा कोट, पैंट व बूट पहने दिखाया गया है। लेकिन हम इसकी विशद चर्चा गुप्तों से सम्बन्धित एक अलग अध्याय में करेंगे।
इस समय तो हम प्राचीन जाटों के देवताओं और धार्मिक मामलों पर विचार कर रहे हैं। हम यह जानते हैं कि पश्चिम एशिया के एक शासक उतुखेगल जो एक विर्क था, ने ईसा से 2000 वर्ष पूर्व सूर्य और चन्द्र देवताओं के मंदिरों का निर्माण कराया था। आर्मेनिया का वेन अथवा बेन राजवंश प्रमुख रूप से सूर्य-उपासक था। मान तथा मण्ड भी सूर्य की पूजा उपासना में आस्था रखते थे। तोमीरिस जो मेसागती (दहियों) की एक रानी थी, सूर्य देवता की शपथ लिया करती थी और इसी तरह शुण्क जो दारा महान्‌ के विरुद्ध सिथियों का नेता था, भी सूर्य देवता की ही शपथ लेता था। भारत में सूर्य की उपासना-विघि मग पुरोहितों द्वारा प्रचलित की गई। ये मग पुरोहित शकद्वीप से आए थे, जिसकी सीमाएं दधि (दधि-दहिये-दही) सागर को छूती थीं।177 डी. के. विश्वास यह सिद्ध करते हैं कि आर्यों की सूर्य उपासना विधि निश्चित रूप से ईरान से आई।178 शक द्वीप के वासियों को मग क्यों कहा जाता था। इस प्रश्न का उत्तर भविष्य पुराण इस प्रकार देता है कि एक सूर्य उपासक को मग इसलिये कहा जाता था क्योंकि वह "म" वर्ण पर ध्यान केन्द्रित करता था।

(मकारो भवान्देवो भास्करः परिकीर्तितः)179

उनको भोजक भी कहा जाता है। क्यों? इस का उत्तर भी भविष्य पुराण इन शब्दो में देता है।

धूपपमाल्यैर्यतक्षापि उपहारैस्तथैव च ।
भोजयन्ती सहस्राशु तेन ते भोजका स्मृता ।180


176. Development of Hindu Iconography, 1936, p. 434.
177. Vayu Purana, p. 49-75.
178. D.K. Biswas, IHQ, XXlI, pp. 173-175.
179. Bhavisya Purana, 1/44/250.
180. ibid., 1/44/26.

पृष्ठ 70 समाप्त

Image of Harihara belonging to 11-12th Century.
(Courtesy : Public Relations Dept., Haryana.)

अनाम पृष्ठ समाप्त

अर्थात् क्योंकि वे (भोजक) सूर्य देवता को धूप, पुष्प, मालाएं तथा अन्य अपहार अर्पित करते हैं।
उच्च तथा निम्न जन्मजात वर्ग बहेग के प्रति घृणा को इस मध्य एशियाई/ईरानी प्रभाव के तहत स्पष्ट करना होगा। धार्मिक अनुष्ठानों में ब्राह्मण तथा शूद्र एक समान हैं और उन में न कोई आध्यात्मिक अन्तर और न ही कोई बाहरी भेदभाव।181 "ब्राह्मण एवं शूद्र का जन्म एक ही विधि से होता है। सभी वर्ग एक समान है। संस्कार निरर्थक हैं।"182 "बलि (यज्ञ) उन कमज़ोर नावों की तरह है, जिन पर कोई भरोसा नहीं किया जा सकता। जो लोग इन पर विश्वास रखते हैं। उनका उन अंधे व्यक्तियों की तरह अन्धकार व अज्ञानता के सागर में डूब जाना निश्चित है, जिन का नेतृत्व स्वयं अंध व्यक्तियों के हाथ में होता है। यही उन की नियति है।"183 और इसी लिये आर. सी. हज़रा का कहना है कि मगों ने अपने धार्मिक मामलों में महिलाओं व निम्न जाति के लोगों को प्रतिष्ठा प्रदान की।184 कुछ भिन्न विचारों के बावजूद, मण्ड साम्राज्य व उसके बाद तक जातिगत वर्ण व्यवस्था थी ही नहीं। आर. के. अरोड़ा के अनुसार पुराणों द्वारा सकद्वीप में जिस वर्ण व्यवस्था का उल्लेख किया गया है, वह न तो ठीक है और न ही तर्क संगत। अतः उसे अस्वीकृत किया जाना चाहिये।185 श्री अरोड़ा की कृति से यहां कई उदाहरण दिये गये हैं। और अन्त में भविष्य पुराण इस संदर्भ में यह कहता है, "लोगों ने अपने कर्मों तथा अपने स्वभाव के आधार पर अपने अप को विभिन्न जातियों अथवा वर्गों में बांट रखा है।"186 अन्यथा सभी एक समान हैं और वे कोई भी व्यवसाय या धंधा अपना सकते हैं। प्राचीन आर्यों में भी कोई जाति प्रथा नहीं थी। ऐत्रेय ब्राह्मण के अनुसार ब्राह्मण क्षत्रियों के रूप में भी जाने जाते थे क्षत्रिय ब्राह्मण भी होते थे।187 सन्यास आदि की भी कोई प्रथा नहीं थी क्योंकि आर्य लोग मृत्यु पर्यन्त अपना जीवन अपने पुत्रों तथा पौत्रों के बीच व्यतीत करना पसन्द करते थे।188 ऋग्वेद में मोक्ष एवं सन्यास आदि शब्द विशेष रूप से अनुपस्थित पाए गए हैं।189 अतः प्राचीन आर्य लोग एवं उनके परवर्ती लोग भरपूर आनन्दमय जीवन व्यतीत किया करते थे और जातिगत पुराग्रहों से पूर्ण रूप से मुक्त थे। उनकी जीवन शैली सरल, सहज और व्यावहारिक थी क्योंकि वे शहरी न होकर ग्रामीण लोग थे। ये लोग ब्राह्मणों

181. ibid., 1/41/29.
182. ibid., 1/43/15.
183. Kathu Upanishad, 1, 2, 5.
184. Studies in the Upapuranas, 1958, Vol. I, p. 31.
185. Historical alld Cultural Data from Bhavisya Purana, p. 30.
186. Bhavishya Purana, 1/44/24.
187. Aitereya Brahmana, VII, 2 and III, 2.
188. Rigveda, X, 85, 36.
189. Buddha Prakash, P&SM, p. 67.

पृष्ठ 71 समाप्त

(पुरोहितों) की सहायता के बिना अपने यज्ञ आप किया करते थे। महाभारत में पंजाब के लोगों को राज-याजक190 कहा गया है और पाणिनी इन्हें क्षत्रिय याजक कहता है। अर्थात् वे अपने यज्ञों में स्वयं ही पुरोहित कर्म करते थे।

पश्चिमी एशिया में जाट

इस संदर्भ में यह जानना भी रुचिकर होगा कि सातवीं शताब्दी ईस्वी में जाट अरब क्षेत्र में भी पाए गए। अरब इतिहास में एक ऐसे जाट डॉक्टर का उल्लेख मिलता है जिसने इस्लाम मत के प्रवर्तक हजरत मुहम्मद साहब की पत्नी आयशा का उपचार किया था191 और यह तथ्य भी बिना ऐतिहासिक आधार के नहीं है कि अरबों ने जब प्रथम बार भारतीय भूमि पर कदम रखे तो उन्हें यहां केवल जाट ही मिले और उन्हीं से उन्हें युद्ध करना पड़ा। संभवतः इसी धारणा के अन्तर्गत प्राचीन मुसलमान इतिहासकारों ने उन सभी भारतीयों के लिये जाट शब्द का प्रयोग किया, जिन के साथ भारत की उत्तर पश्चिमी सीमाओं पर मुसलमान अपने आगमन के समय सम्पर्क में आए या उनसे भिड़े।
सातवीं, आठवीं और नौंवी शताब्दियों में इस्लामी अरब राज्यों में जाटों के विद्यमान होने के प्रमाण इन चार उद्धरणों से सिद्ध होते है।
"हज्जाज की ओर से नियुक्‍त सेनापति मोहम्मद इब्न कासिम को, हज्जाज द्वारा 2000 चुने हुए घोड़े व सिविस्तान से 4000 लड़ाकू जाट भारत में भेजे गए। कुछ अन्य गढ़ों को अपने अधिकार में लेने के बाद उसने मुल्तान पर भी कब्जा कर लिया।192
उपरोक्त संदर्भ, मोहम्मद इब्न कासिम द्वारा 712 ई. में सिंध पर विजय प्राप्त करने का है। इतिहासकार यह बात अच्छी तरह जानते ही हैं कि सिंध राज्य में जाट सम्भवतः इसलिये विभाजित हो चुके थे क्योंकि उनके अपने भाई अरबों की ओर से लड़ रहे थे। हम जानते हैं कि सिंध के पश्चिमी प्रान्तों के जाट अरबों से मिल कर लड़ रहे थे जबकि सिंध के पूर्वी प्रान्तों के जाट युद्ध में राजा दाहिर का साथ दे रहे थे।193 ऐसा क्यों हुआ यह हम अन्य अध्याय में बताएंगे।
दूसरा उद्धरण हम History and Culture of Indian People से लिया है और उस का सम्बन्ध 786-809 ईस्वी से है।
"खलीफा अल्महदी की सेनाओं को उन सख्तजान किकान जाटों से भी युद्ध करना पड़ा, जिन के बारे में ज्ञात है कि वे तो 662 ईस्वी से ही अरबों का प्रतिरोध करते चले आ रहे थे।"194

190. MBT, Karna Parvan, 45, 40.
191. D.P. Singhal, India & World Civilisation, Vol. I, p. 145.
192. Majumdar, History & Culture of Indian People, Vol. III, p. 172.
193. See Chachnama, translated by M.K. Beg, p. 124.
194. op. cit., Vol. IV, p. 127.

पृष्ठ 72 समाप्त

तीसरा उद्धरण हम ने А History of Persia से लिया है जो 14वीं शताब्दी में मध्य एशिया में जाट राज्यों पर प्रकाश डालता है।
"उस काल में मंगोलिया अथवा जातः का गवर्नर तुगलक खान था जिसने आक्सानिया में फैली अराजकता को देख कर उसे अपने राज्य के साथ मिलाने का दृढ़ निश्चय किया। वह इस अभियान पर 761 हिजरी (1360 ई.) में निकला और उसने केश पर चढ़ाई कर दी। हाजी बरलास ने जब देखा कि वह तुगलक खां का मुकाबला करने की स्थिति में नहीं है तो उसने बचाव के लिये प्रतिरोध नहीं किया बल्कि खुरासान की ओर भाग गया और बाद में वह वहां लुटेरों के हाथों मारा गया....। इस स्थिति में बचने के लिये तैमूरलंग ने तुगलक खान के आगे हथियार डालने का निर्णय किया.... अगले वर्षो में जतः के खान ने समरकंद को अपने नियन्त्रण में ले लिया और उसने अपने बेटे खोजा उर्फ ओझलान को आक्सानिया का गर्वनर नियुक्त कर दिया और तैमूरलंग को उसका सलाहकार बना दिया।"195
जैसा कि पहले बताया जा चुका है कि यह वंश जाटों के ओझलान कबीले का था जो उस समय बौद्ध धर्मी थे। यहां यह उल्लेख किया जाना भी आवश्यक है कि खान मुसलमानों की उपाधि नहीं है। अपितु यह मुसलमानों से पूर्व मध्य एशियाई उपाधि है, जो कई बौद्ध राजाओं ने अपनाई। खान शब्द की व्युत्पति खकान/कगान खान रूप में हुई उपाधि भारत में 14वीं शताब्दी तक प्रयुक्त होती रही। कल्हण की राजतरंगिनी में गुजरात (पंजाब) के एक राजा अलखान का उल्लेख मिलता है और जोनराज के ऐतिहासिक संकलनों से यह पता चलता है कि कश्मीर के सुलतान शहाबुद्दीन (1354-1373) की अटक के समीप स्थित उदभाण्ड (जिसे आजकल उण्ड कहते हैं) पर विजय के समय इस के शासक का नाम गोविन्द खान196 था। इतिहासकार यह भी जानते हैं कि 1289 ई. में अबगा के बेटे अरघुण नाम के जाट राजा ने खुरसान के ईसाईयों के समक्ष मुसलमानों पर संयुक्त आक्रमण करने का प्रस्ताव रखा था जो उस समय वक्षु क्षेत्र में एक नई शक्ति के रूप में उभर रहे थे। अरघुण का उत्तराधिकारी गजन खान था, जिसने 1295 ई. में सिंहासन पर आसीन होने के बाद स्वयं को मुसलमान घोषित कर दिया था। गजन खान पहला मध्य एशियाई जाट राजा था, जिस ने इस्लाम अपनाया और उससे ही मध्य एशिया में इस धर्म में परिवर्तित होने की प्रक्रिया शुरू हुई।
हम इस्लामी अरब देशों में जाटों के अस्तित्व के इस प्रकरण का समापन History of Persia (खण्ड दों) के इस उद्धरण के साथ कर रहे है।
वालिद (प्रथम) के आदेशानुसार हमारे संवत की आठवीं शती के आरम्भ में, बड़ी संख्या में जाटों (जिन्हें अरब जाट पुकारते थे) को उनकी भैंसों के साथ सिंधु घाटी

195. op. cit., Vol. II, p. 119.
196. See, Konow's note J in Rajatarangini

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के निचले क्षेत्रों से निकाल कर टिग्रिस नदी के पास दलदली क्षेत्र में पहुंचा दिया गया। जैसे ही ये लोग (जाट) वहां पर मजबूती से जम गए, उन्होंने वहां लूट मार शुरू कर दी, बसरा-बगदाद सड़क को बन्द करके उन्होंने राजधानी में खाद्य पदार्थों अनाज आदि की कीमतों में वृद्धि कर दी और उन्होंने बाद में आने वाले खलीफों को विवश किया कि वे उन्हें दबाने के लिये अपनी सेनाएं भेजें। उनकी धृष्टता एवं उद्दण्डता का उल्लेख इस कविता में मिलता है जो तबन के पृष्ठों में सुरक्षित है :—

बग़दाद के वासियों वरण करो तुम मृत्यु का
अनन्त काल तक तुम डूबे रहे चिन्ताओं में
यह हमीं का भुजबल था, बाधित किया जिसने तुम को
खुले प्रदेश में युद्ध के लिये
यह हमीं हैं जिन्होंने तुम्हें अपने सम्मुख भगाया था,
निर्बल रेवड़ों की भान्ति।

"मर्रम के सेनापति इन (जाटों) के उत्पात पर काबू पाने में नितान्त असफल रहे। तब मोतासिम ने अपना पहला काम यह तय किया कि वह ओजेफ नाम के एक विश्वसनीय अरब सेनापति को इन विदेशियों के दमन के लिये भेजे। ओजेफ 834 ई. में उन की संचार व्यवस्था को काट कर अपने अभियान में सफल रहा। अन्ततः जाटों ने आत्म-समर्पण कर दिया। ओजेफ ने आह्लादित बगदादवासियों के सामने इन जाटों को उन की राष्ट्रीय पोशाकों में व वाद्यों को बजाते हुए नावों में घुमाया और उसके बाद उन्हें तुर्की के सीमान्त प्रदेश खनिकिन और सुदूर सीरिया की सीमा पर निर्वासित कर दिया, जहां वे अपनी भैंसों के साथ चले गए। ये जाट यह श्रेय ले सकते हैं कि पश्चिम एशिया और यूरोप क्षेत्र को यह उपयोगी पशु उन्हीं के माध्यम से उपलब्ध हुए।"197
लल्ली जाट :- इसे एक संयोग ही माना जाना चाहिये कि जाटों का जो अन्तिम राज्य जबुलिस्तान था और जिसे मुसलमानों ने नष्ट किया, वह लल्ली कबीले के जाटों का ही राज्य था। तथ्यात्मक एवं ऐतिहासिक रूप में यह कहना गलत है कि लल्ली शाही के नाम से जाना गया राज्य ब्राह्मण मूल का था जिन्होंने अपने पूर्ववर्ती जौवलों के तुर्क शाही वंश के राज्यों पर अपना आधिपत्य जमा लिया था। किसी भी ब्राह्मण ने कभी भी अपना उपनाम लल्ली नहीं रखा, जबकि लल्ली नाम के जाटों का कबीला आज भी विद्यमान है। फिर यह तो कल्पना भी नहीं की जा सकती कि कोई भी भारतीय और विशेष रूप से एक ब्राह्मण, कभी भी अपने पुत्रों का नाम लल्ली, तुरमान और कमालु आदि रखेगा और यह नाम लल्लियां शाही राजवंश के राजाओं के नाम हैं। जैसा कि सर्वविदित है कि ये नाम भारतीय नहीं हैं और यह सोचा भी नहीं जा सकता कि पुरातन

197. op.cit., Vol. II.

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पंथी ब्राह्मणों ने अपने बच्चों व अपने वंश को विदेशी नाम दिये होंगे। वास्तव में हुआ यह होगा कि जौवल कबीले का जाट राज्य किसी अन्य जाट कबीले अर्थात् लल्ली जाटों द्वारा हथिया लिया गया होगा। इस विषय को हम इसी कृति में आगे चलकर और भी अधिक स्पष्ट करेंगे।

जाटों के बारे में कानूनगो क्या कहता है।

कानूनगो वैसे तो उन्हें आर्य ही मानता है किन्तु इन के मूल निवास पर उसे संदेह है और ऐसा लगता है कि कानूनगो को यह मान्यता स्वीकार नहीं कि उन का मूल सम्बन्ध मध्य एशिया से था। "महान्‌ जटी लोगों के राज्य, जिस की राजधानी जक्षरती के तट पर स्थित थी, ने खुस महान से लेकर चौदहवीं शती में तब तक अपना नाम और अपनी पवित्रता को अक्षुण्ण बनाए रखा, जब तक उन का धर्म मूर्ति पूजा से इस्लाम में परिवर्तित नहीं हो गया। हेरोडोट्स हमें यह जानकारी देता है कि जटी लोग आस्तिक थे और उन्हें आत्मा की अमरतः पर पूर्ण विश्वास था और DeGuignes चीनियों से प्राप्त आधार पर यह निश्चित मत व्यक्त करता है कि बहुत पहले ही इन लोगों ने "फो" अथवा बोद्ध धर्म ग्रहण कर लिया था। जटी लोगों ने चिरकाल तक अपनी स्वतन्त्रता को अक्षुण्ण रखा। तोमिरस ने खुश महान के विरूद्ध खड़े होकर उनकी इस स्वतन्त्रता की रक्षा की थी।" यह मत कर्नल टाड का है।198 कर्नल टाड एक शिलालेखीय प्रमाण के आधार पर यह भी सिद्ध करता है कि 409ई. में एक जाट राज्य रहा, जिस का नाम जाट-काठिडा था। क्या यह काठिडा शब्द आज के काठियावाड का ही पूर्ववर्ती नाम नहीं था ? नहीं तो फिर काठियावाड का मूल कौन और कहां से हो सकता है ? निस्सन्देह, काठ/गठ वंशी जाटों ने यह नाम इस क्षेत्र को दिया है।
कानूनगो का निम्न उद्धरण इस विषय पर बहुत प्रकाश डालता है।
"हमें बताया गया है कि जाटों को सुशकअबर और ऐसे कई अन्य नामों से पुकारा जाता था। वास्तविकता यह नहीं है कि जाटों ने सुशकआभीर जैसे नाम अपनाए अपितु वास्तविकता यह है कि इन परवर्ती कबीलों ने पूर्ववर्ती, अपने से श्रेष्ठ जाटों का कुलनाम ग्रहण किया। शकों, यूचीओं, हूणों तथा तुर्की लोगों के इन महान विजेता कबीलों को किस शक्ति ने प्रेरित किया कि वे जेता तथा जटई जैसे नाम धारण करें? नितान्त सहज एवं स्वाभाविक रूप में किसी को भी यह शंका हो सकती है कि ऐसा केवल इसीलिये हुआ होगा क्योंकि इस नाम (जाट) के साथ एक उच्च सभ्यता श्रेष्ठतर रक्त एवं कुलीनता की महान्‌ परम्परा सम्बद्ध रही है और यही परम्परा उनके यह नाम धारण करने के लिये एक महान्‌ आकर्षण थीं।"199
यहां कानूनगो का यह कथन पूर्ण रूप से उचित है कि जाटों के नाम के साथ अवश्य

198. Annals and Antiquities of Rajasthan, Vol. I.
199. History of Jats, p. 330.

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ही कुलीनता एवं श्रेष्ठता-बोध सम्बद्ध है और यही कारण है कि इन लोगों ने, जो विभिन्न नामों से जाने जाते थे, जाट नाम अपनाया। यह श्रेष्ठ एवं महान्‌ नाम विस्मृत्त एवं प्राचीनतम काल से लेकर ऐतिहासिक काल तक निरन्तरता के साथ चला आ रहा है। अपने इतिहास के तीव्र गति से आए विभिन्न अन्तरालों में ये जाट महान्‌ साम्राज्य स्थापित करते चले गए, उन्होंने यूरोपएशिया के बहुत बड़े भू-भागों को एक ही सत्ता के अधीन गठित कर दिया। यह स्थिति मण्ड साम्राज्य के समय थी, जिस की राजधानी अकबटाना थी और यही स्थिति माओ-दून और उसके उत्तराधिकारियों जो भारतीय मौर्यों के समकालीन थे, के समय में भी रही। और यह कहना भी सही नहीं है कि गैर जाटों ने जाटों के नाम अपनाए। कम-से-कम भारत में ऐसी स्थिति पनपनी असम्भव थी, क्योकि यहां ब्राह्मणों के जातीय दुराग्रह आरम्भ से ही पूर्ण रूप से प्रभावी थे। जैसा कि हम आगे चलकर भी स्पष्ट करेंगे इन जाटों ने ब्राह्मणों के पुरोहितवाद की श्रेष्ठता एवं बर्चस्वता को कभी भी स्वीकार नहीं किया और यही कारण है कि वह औपचारिक रूप में हिन्दू धर्म में परिवर्तित नहीं हुए। इसी पृष्ठभूमि के कारण ब्राह्मणों और उन की देखा-देखी अन्य भारतीय वर्णों व अन्य जाति के लोगों द्वारा जाटों को "पतित क्षत्रिय" और यहां तक कि "शूद्र" भी समझा गया और उन को हेय दृष्टि से देखा गया। जाटों ने इस बात की कभी परवाह नहीं की; क्योंकि समाज की हर स्थिति की, उस के हर पक्ष की, बागडोर तो उनके हाथ में थी, वे लगभग सारी भूमि व सभी सम्पतियों के स्वामी थे और वह इस से कतई प्रभावित नहीं थे कि उन्हें पूर्ण क्षत्रिय समझा जाता है या नहीं। लेकिन इस स्थिति ने अपना प्रभाव छोड़ा अवश्य। यह एक सर्व मान्य ऐतिहासिक प्रक्रिया है कि लोग उच्च कबीलोंवंशों के नाम ग्रहण करते हैं, वे कभी भी निम्न सामाजिक स्तर के नाम नहीं अपनाते। यदि जाटों ने ब्राह्मणों के नाम अपनाए होते तो हमें शकों, हूणों, अभीरों द्वारा जाट नाम अपनाने की बात समझ में आ सकती थी। न तो यह सम्भव है और न ही इस की कोई सम्भावना हो सकती थी कि इन महान्‌ विजेता कबीलों ने स्वेच्छा से कट्टर हिन्दू समाज के निम्न स्तर के लोगों के नाम अपनाए होंगे। हम यह प्रक्रिया मुसलमानों में भी कार्यरत देखते हैं। बहुत से मुसलमान जो हिन्दुओं की निम्न जातियों से धर्म परिवर्तित हुए वे अपना सीधा सम्बन्ध हज़रत अली सैय्यद आदि से जोडते हैं, हालांकि सभी जानते हैं कि ये धर्म परिवर्तित मुसलमान किसी भी रूप से अरबों के वंशज नहीं थे बल्कि भारतीय हैं। शकों, हूणों आदि नाम के लोगों ने स्वयं को जाट इस लिये कहा क्योंकि वे थे ही जाट और उन्होंने अपना वंश बदलने की बात कभी स्वप्न में भी नहीं सोची। अतः हम यह बात पूर्ण विश्वास के साथ कह सकते हैं कि हूणों की जाति भारत-यूरोपीय जाति थी और यह बात हाल ही में बाह्य मंगोलिया, मध्य एशिया, एशिया के कई भागों व यूरोप में हुए उत्खनन कार्यों से भी प्रमाणित हुई है। किन्त इन की जाति में मंगोल रक्‍त आ मिलने की सम्भावना को भी एक दम नकारा


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नहीं जा सकता। इतना तो हम निश्‍चित रूप से जानते ही हैं कि जाट अपनी जीवन संगिनी के चुनाव में सदा ही उन्मुक्त रहे और लोक प्रसिद्ध हुए। एक जाट किसी भी स्रोत से प्राप्त किसी भी महिला को अपनी पत्नी बना सकता है और जिसको वह पत्नी बना लेता है वह जाटनी कहलाती है। देखिये एक लोकोक्ति, "जाट के आई, जाटनी कहलायी।" वास्तव में ब्राह्मणोंजाटों में मूल मतभेद के दो कारणों में से एक कारण उन की यह पत्नी चुनाव पद्धति भी रही है।
अतः हम देखते हैं कि शक अथवा सिथ, कुशान, श्वेत हूण अथवा हफतल केवल जाट ही नहीं थे अपितु वे तो निरन्तर ही साग्रह्यता के साथ (कम से कम चीनियों द्वारा) जाट ही पुकारे गए। दुर्भाग्य की बात तो यह है कि वक्षु घाटी में हेरोडोट्स जैसा कोई इतिहासकार नहीं था, जो इन महान्‌ शूरवीरों के उदात कारनामों के साथ यथोचित न्याय करता और इस से बड़ी त्रासदी तो यह है कि भारतीय इतिहास व मध्य एशियाई क्षेत्र के उत्तर में जिन की सीमाएं भारत के साथ सटी हुई हैं, के इतिहास में भी इन के नाम का मात्र सांकेतिक उल्लेख कर दिया गया है। यह एक प्रकार से जाटों से ऐतिहासिक प्रतिशोध लिया गया है। इतिहास के पन्नों से जाट नाम को निष्कासित करने का हर सम्भव प्रयास किया गया है, लेकिन इन परमवीरों, कर्मठ एवं सरल स्वभाव के जीवन्त लोगों को हमारे शत-शत नमन कि उन्होंने केवल अपने नाम ही को अक्षुण्ण नहीं रखा अपितु उन्होने अपने जातीय नाम, अपने कबीलों के नाम व अपने से आ जुड़े कबीलों के नामों तक को भी जीवित रखा। उनके जो नाम 3000 वर्ष पूर्व थे, वे उन्होंने आज भी एक धार्मिक श्रद्धा एवं आस्था के साथ सुरक्षित रखे हुए हैं। यह बात स्वयं में ही उन की जीवटता का, हर स्थिति में स्वयं को ज़िन्दा रखने की अदम्य संकल्प शक्ति का यथेष्ठ प्रमाण समझी जानी चाहिये।
सारांश यह है कि जाट नाम वैदिक जात है और युद्ध, कृषि, पशु पालन उनके जीवन निर्वाह के साधन हैं। चीनियों ने जाट शब्द को येथा अथवा येता लिखा। तदनंतर काल में वर्ण य, ज और ग में परिवर्तित हो गया तथा ये शब्द जोधा अथवा जुद्ध बन गये। अतः मूल रूप गुत, गौथ, गौट, जौट और गेत, गित, जित, जाट हैं। राजस्थान में यह शब्द आज भी जित ही है तथा Hindu Tribes and Castes के अनुसार, "भारत के 36 राजकीय वंशों की जातियों की प्राचीन सम्पूर्ण सूची में जित शब्द पाया गया है और कहीं भी उसे राजपूत नहीं कहा गया। राजपूत औपचारिक रूप में हिन्दू मत में लाए गए जाट तथा गुज्जर ही हैं और जिन्होंने कट्टर ब्राह्मण व्यवस्था के आदेशों व शर्तों का पालन नहीं किया, उन्हें औपचारिक रूप में हिन्दू मत में ग्रहण नहीं किया गया, इसलिये ये लोग आज भी वही जाट, गुज्जर और अहीर है जिनकी समरूपता मध्य एशिया के गटई, गुसुरों तथा अबरों/अबीरों से पाई जा सकती है। इसीलिये इन कबीलों के विशुद्ध रूप मे, अभारतीय नाम, जाटों, गूजरों और राजपूतों में समान रूप से पाए


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हैं. उदाहरण के रूप में दहिया कबीले का नाम लेते हैं। हरियाणा, उत्तर प्रदेशराजस्थान में भीलवाड़ा क्षेत्र के दहिया स्वयं को जाट ही कहते हैं। जोधपुर क्षेत्र के दहिया स्वयं को राजपूत कहते हैं और गुजरों के कबीले का नाम भी दहिया है और यही बात तोमर, पवार, धनखड कबीलों के नामों पर भी लागू होती हैं। इसी कारण से कानूनगो यह लिखते हुए गल्ती का शिकार हो गया कि भूमि पर बसने वाले पूर्ववर्ती जट नये राजपूत अप्रवासियों द्वारा खदेडे गए; मालवा में परमारों ने जाटों का स्थान ले लिया तनवरों ने ढिल्लों जाटों के हाथों से दिल्ली छीन ली, राठौरों ने बीकानेरभट्ठियों ने जोहिया जाटों से जेसलमेर हथिया लिये।200 ऐसा लिखते हुए कानूनगो भूल गए कि पवार (परमार), तनवर, भट्टी, जोहिया, राठौर आदि नाम जाटों और राजपूतों में समान रूप में पाए जाते हैं। जाटों के स्थान पर राजपूतों को ला खड़ा करना वास्तव में ब्राह्मणवादी षड्यन्त्र था, जो जाटों के विरूद्ध व राजपूतों के पक्ष में था, क्योंकि इन राजपूतों का नया धर्म परिवर्तन हुआ था और यह बात लगभग ऐसी ही थी कि तुम मेरी प्रशंसा करो, मैं तुम्हारी प्रशंसा करूंगा।" ब्राह्मणों ने राजपूतों को क्षत्रियों का पद दे दिया और उन की प्रशंसा में प्रशस्तियां लिखी और उनका सम्बन्ध सीधे राम और अर्जुन (अर्थात्‌ सूर्य एवं चन्द्र वंशियों) से स्थापित कर दिया और बदले में राजपूतों ने मोटी दक्षिणाएं एवं अग्रहार दिये।

पाणिनी के काल में जाट

वी.एस. अग्रवाल ने अपनी कृति में कई ऐसे शक कबीलों का उल्लेख किया है, जो आज भी जाटों में पाए जाते हैं। इन में शक द्वीप के ऋषिकों का भी उल्लेख है। वह यह भी लिखते हैं कि अर्जुन ने वक्षु नदी (जो शक देश के बीच बहती थी) के पार बसे ऋषिकों पर विजय प्राप्त की। तदांतर काल में ये ऋषिक यू-ची (Yue-Che) के रूप में जाने गए जिन की भाषा अरसी बताई गई (यूनानी भाषा में जिसे असी-ओई कहा गया)। आगे चल कर अग्रवाल कई ऐसे नगरों का उल्लेख भी करते हैं, जिन के अन्त में कंठ शब्द आता है। (मध्य एशिया में यह कन्द हैं) और वह इस परिणाम पर पहुंचते हैं कि पांचवीं शती ई.पूर्व में पंजाब के मध्य में शक नगरों का स्थित होना यह सिद्ध करता है कि वे पाणिनी के पूर्व काल में भारत आए।201 ई.पू. दूसरी शती में जो शक भारत आए वह उन का दूसरी बार आगमन था तथा इस के पश्चात्‌ कुशानों की बारी आई।202 अग्रवाल, कात्यायन के हवाले से यह बताते हैं कि शकों द्वारा निर्मित कुंए दो प्रकार के होते थे, सकन्धु और कर्कन्धु और यह वापी (सीढीदार कुएं) व रहट के ही समान थे। अतः मध्य

200. ibid.
201. India as Known to Panini, pp. 68-69.
202. See H.W. Bailey, ASLCA, Transactions of Philological Society, 1945, pp. 22-23.

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एशिया के शक ही इन कुओं के प्रथम निर्माता थे जैसे कि मध्य एशिया में कंग सातवी शती ई.पू में नहरों की खुदाई के जन्मदाता थे। अग्रवाल एक अन्य विशेषज्ञ के हवाले से यह भी कहते हैं कि जिन शहरों व जगहों के नामो में कंद आता है उन के नाम मूल रूप से सिथियन ही हैं। मध्य एशिया के ऐसे नगरों के उदाहरण आज के समरकंदताशकंद हैं। विख्यात सीमावर्ती कबीला जो सिकंदर के नेतृत्व में यूनानियों के साथ लड़ा, भारतीयोंपाणिनी ने उसे कठ कहा है और यूनानियों ने उनको कठोई कहा है। ये लोग आज के कठिया अथवा गठवाल जाट ही थे।203 एक अन्य महत्वपूर्ण जाट कबीले का उल्लेख पाणिनी ने किया है वह विर्क है।204 वह विर्कों की समरूपता दारा महान्205 के बहीस्तून अभिलेख में वर्णित फारसी में लिखित वर्कनों से स्थापित करते हैं और "शक होम वर्क" में बहुबचन रूप भी वर्क है। विर्कों के देश के विर्कानिया (यूनानियों द्वारा हिर्कनियां) कहा जाता था तथा यह पार्थिया के उत्तर में व कैस्पियन सागर के पूर्व में स्थित था। फारस के लोग इन्हें शक ही मानते थे (परसीपोलिस समाधि अभिलेख देखिये) अग्रवाल यह भी कहते हैं कि अफगानिस्तान क्षेत्र में यह शब्द (वर्क) वेरक अथवा वुरक के रूप में लिखा जाता है। उन का यह कहना भी सही है कि विर्क पंजाब के जाटों का वर्ग है जो मूल रूप से शक थे।206 जाटों का यह कुल (विर्क) आज भी विद्यमान है और पाणिनी द्वारा उन का उल्लेख उन को ई.पू. 5वीं शती के प्राचीनकाल तक ले जाता है,जो पाणिनी का रचना काल था। काशिका में भी कुछ जाट कबीलों का वर्णन है। त्रिगर्त संगठन के 6 सदस्यों का वर्णन करते हुए काशिका दो कबीलों का नाम देती है-काण्डोप्रथ और डाण्डकी। इन कबीलों के आज के वंशधरों को अब भी इन्हीं नामों से पुकारा जाता है तथा वे भारत के कुण्डु और डांडा जाट हैं। पाणिनी के पर्वः आज के परसवाल जाट ही हैं। वी.एस. अग्रवाल ऋग्वेद (VIII, 6, 46) का उद्धरण यह सिद्ध करने के लिये देते हैं कि ये लोग, परसवाल, उस काल में भी विद्यमान थे।207 परसवालों की फारस के लोगों के साथ समरूपता का जो संकेत अग्रवाल देते हैं वह भी सही है लेकिन इस से इतना ही सिद्ध होता है कि परसवाल जाटों के ईरान के साथ सम्बन्ध चिरकाल से थे और निश्चित रूप में वे ईरान से होकर भारत आए थे।
एक अन्य कबीले महाराजकी का उल्लेख भी वी.एस. अग्रवाल द्वारा किया गया है। मोगा (ज़िला फरीदकोट) के महाराजकी जाट आज भी विख्यात हैं। इसी क्षेत्र में उनके सिक्के भी पाए गए हैं। वे शारीरिक रूप में हृष्ट पुष्ट हैं और किसी भी तरह की अधीनता के घोर विरोधी माने गए हैं।208

203. op. cit., pp. 1-5.
204. ibid., p. 77.
205. ibid.
206. ibid., p. 444.
207. Rig Veda, VIII. 6,46.
208. Punjab Gazetteer, Vol. I, p. 453.

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यहां यह बात भी ध्यान में रखी जानी चाहिये कि जब जाट विजेताओं के रूप में भारत आए तो उन्हें ब्राह्मणों व्यवस्था में विलीन करने के लिये विधिवत एवं सुनिश्चित प्रयास हुए। विख्यात ब्रात्यस्तोम यज्ञ विदेशी शकों के भारतीयकरण के लिये विशेष रूप से निर्धारित किया गया। जैसा कि अग्रवाल लिखते हैं कि इन यज्ञों को करने की विधि बड़ी ही सरल थी और मात्र एक औपचारिकता थी ताकि जो विदेशी भारत के शासक बन बैठे हैं उन्हें पुरोहित सत्ता के अधीन लाने के लिये हिन्दू बना दिया जाए। इसी दिशा में अगली प्रक्रिया के अन्तर्गत इनके कबीलों के नामों का संस्कृतकरण करने का सुनिश्चित प्रयास किया गया। इन्हीं प्रक्रियाओं के तहत सोलगी कबीले को पुराणों में शुलिक अथवा शौलिक आदि कहा गया। इसी तरह पवार कबीले का नाम परमार कर दिया गया। लेकिन जिस सर्वाधिक महत्वपूर्ण कबीले का नाम इस तरह परिवर्तित किया गया, वह सहरावत था। जिस प्रक्रिया के अधीन ईरानी उपाधि सत्रप को संस्कृत में क्षत्रप रूप दिया गया उसी तरह सहरावत के साथ किया गया तथा जाटों के इस विख्यात कबीले को क्षहरात के रूप में लिखा गया। सौराष्ट्र, काठियावाड़, गुजरात, उज्जैन, मथुरा आदि के प्रसिद्ध क्षत्रप इसी कबीले से सम्बन्धित थे। चष्टन और रूद्रदमन महान्‌ जैसे क्षत्रपों का सम्बन्ध भी सहरावत कबीले से ही था। भारत के पूर्व सुरक्षामंत्री व हरियाणा के प्रमुख जाट नेता चौधरी बंसी लाल भी इसी कबीले से सम्बन्धित हैं।208a इतिहासकार अच्छी तरह जानते हैं कि जाटों का यह कबीला पश्चिमी मध्य भारत पर 500 वर्षों तक राज्य करता रहा और एक अन्य जाट कबीला धारण भी था, जिसके कुल को अशुद्ध रूप में "गुप्त" नाम दिया गया, इस कबीले ने चन्द्रगुप्त द्वितीय के नेतृत्व में इन सभी राज्यों को केन्द्रीय शासन के अधीनस्थ कर लिया था।
क्षहरात :- सत्रप और सहरावत दोनों शब्दों मे प्रथम अक्षर "स" है, किन्तु जब ये शब्द भारत में प्रचलित हो गए तो इन के प्रथम शब्द "स" को "क्ष" में परिवर्तित करके इन का संस्कृतकरण कर दिया गया। इसी तरह इस कबीले का नाम क्षहरात के रूप में लिया गया। किन्तु संतोष की बात यह है कि जाटों ने प्रायः अपने सभी कबीलों के नाम मूल रूप में ही सुरक्षित रखे और सहरावत आज भी इसी रूप में बोला अथवा लिखा जाता है। ऐसा लगता है कि इस में वत प्रत्यय का भी आंशिक रूप से भारतीयकरण हुआ है और यह भी हो सकता है कि इस का मूलरूप ऐसा ही हो। हमें एक अन्य कबीले का भी पता चलता है जिसे मध्य एशिया में गुरलेत कहते हैं और भारत में इसे गुरलावत कहा जाता है। इसी तुलनात्मक आधार पर क्षहरातसहरावत में जो अन्तर दिखाई देता है वह समझा जा सकता है। यह भी ध्यान में रखे जाने लायक है कि E.J. Rap-

208a. On further enquiry, it is learnt that the clan of Mr Bansi Lal is, not Sahrawat, but Legha (cf James Legge, author of "A Record of Buddhist Kingdoms by Fa-hien" Oxford, 1886)

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son ने सत्रप भूमक के सिक्कों का उल्लेख करते हुए इन दोनों शब्दों को खरोष्ठी लिपि में "च" व ब्राहमी लिपि209 में "क्ष" से शुरू किया है। इस संदर्भ में एक बार फिर स्टेन कोनो का एक लेख विशेष प्रकाश डाल सकता है। इस लेख में सर्वप्रथम कोनों यह लिखता है कि कुषाण वास्तव में शक ही थे। ऐसा लिखते हुए लगता है कि कोनो व्यर्थ में ही उस विवाद में उलझ गया है, जो कतिपय इतिहासकारों ने शकों, कुशानोंयू-चीओं को लेकर यू ही खड़ा कर रखा है।210 यह सारा विवाद पूर्णतया निरर्थक एवं अनावश्यक है। विभिन्न नामों से पुकारे जाने वाले इन लोगों में कोई अन्तर था ही नहीं। लेकिन हम यहां जिस मुद्दे को उठाना चाहते हैं, वह डाक्टर बैनर्जीजायसवाल के वे निरर्थक प्रयास हैं जिन से वह नहपाण शब्द को नहवन अथवा नर-वाहन अथवा नभपन आदि संस्कृत रूप देने का प्रयास कर रहे हैं। कोनो ने अपनी पूर्ण योग्यता से डाक्टर बैनर्जीजायसवाल द्वारा स्थापित उक्त सिद्धान्त का यह कह कर खण्डन किया है कि नहपाण एक ईरानी शब्द है, जिस का अर्थ है "जन संरक्षक"।211 नहपाण के दामाद का नाम उसवदात था जोकि दिनक का पुत्र था। उसवदात में दात शब्द का अर्थ है नियम और दूसरा नाम दिनक फारसी के शब्द दीन से बना है, जिस का अर्थ है धर्म-मजहब। इसी दीन शब्द से अकबर द्वारा संचालित घर्म दीन-ए-इलाही का प्रारम्भिक शब्द दीन लिया गया है। इसी तरह एक अन्य सत्रप चष्टण भी ईरानी मूल का नाम है। इसका सम्बन्ध पश्तों भाषा के शब्द "चस्तन" से हो सकता है जिस का अर्थ होता है -स्वामी।
इस प्रकार हम देखते हैं कि न तो सत्रपों के नाम और न ही यह उपाधि भारतीय मूल की है, हालांकि इनको संस्कृत रूप देने का प्रयास पहले भी होता रहा है और अब भी हो रहा है। यह जानना भी रुचिकर होगा कि जब मुसलमान भारत में आए तो उन्होने अपनी उपाधि सुलतान ही रखी। लेकिन भारतीय लेख प्रमाणों में दिल्ली के इन मुसलमान सुलतानों को शक और तुरूषक लिखा गया और उनकी उपाधि सुलतान को सुरत्राण अथवा स्वरतान का रूप दे दिया गया। यहां तक कि मुहम्मद के नाम को भी महामन्द के रूप में लिखा गया। अतः विदेशी नामों के संस्कृतकरण की यह प्रक्रिया मुगल काल तक भी निरन्तर जारी रही। (देखिये ज़िला रोहतक में बोहर के स्थान पर मिला एक अभिलेख जिस का समय विक्रमी सम्वत्‌ 1335 है।)212
अतः जाट कबीले सहरावत को जानबूझ कर एक निश्चित उद्देश्य से संस्कृत रूप देने का प्रसास किया गया। हमें भारत की सारी जनसंख्या के किसी भी भाग में कोई भी ऐसा कबीला नहीं मिलता जिस का नाम क्षहरात हो। स्टेन कोनो की यह धारणा कि यह नाम एक उपाधि हो सकता है भी सही नहीं है।213 सहरावत एक उपाधि नहीं, एक

209. In JRAS, 1904, p. 372.
210. His article in IHQ, 1938, Vol. XIV, p. 137.
211. JRAS, 1906, p. 211.
212. JASB, Vol. VLIII, pt. I, p. 108 and EI, Vol. XX, p. 79.
213. Op. cit.

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कबीले का नाम हैं, जिसे मूल रूप से सहरौत लिखा जाता था। इनके लोगों के ज़िला गुड़गांव में आज भी होडल कस्बे सहित 24 गांव हैं।
कंग :- कंग जाट भी एक अत्यधिक प्राचीन कबीला है। उनका उल्लेख ई.पू. 7वीं शताब्दी के काल तक मिलता है। चीनी इन का उललेख कियांग-नू के रूप में करते हैं। राहुल सांकृत्यायन कंगों को मस्सगेटई की एक शाखा बताते हैं।214 राहुल मस्स गटेई शब्द की उत्पत्ति मास्सग में देखते हैं, जो उनके अनुसार महाशक शब्द से लिया गया "रामायण" में महिषकों का उल्लेख ऋषिकों के साथ हुआ है,215 पाणिनी के एक सूत्र पर काशिका की टिप्पणी है।

"ऋषिकेषु जात आर्षिकः महिषी केषु जातः महिषिक"

अर्थात्‌ आर्षिकों का जन्म ऋषिकों से हुआ और महिषिकों का महिषिकों से इससे मस्स गेटई अथवा महान जाटों का सम्बन्ध शकों से भी स्थापित होता है। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि दहिया जाटों के पार्थियन नामक साम्राज्य का अधिनायक अर्षक था और उसके नाम पर ही इस साम्राज्य को अर्षक वंश का साम्राज्य भी कहा गया है। कंगो के बारे में राहुल सांकृत्यायन का कहना है कि जिन लोगों ने मध्य एशिया में नहर प्रणाली को जन्म दिया, वे कंगों के ही पूर्वज थे अर्थात्‌ वे मस्सगेटई ही थे।216 मध्य एशिया में जाटों द्वारा निर्मित इन नहरों का उत्खनन रूसियों द्वारा किया जा रहा है। पुरानी नहरें अपने मूल रूप में कायम हैं और में समीपी मरूस्थलों से आई रेत भर चुकी है। कंगों के कई नगर ढूंढ निकाले गए हैं, सिक्के आकृतियों, जहां तक कंगों की भाषा के अभिलेख तोप्रक कला में पाए गए हैं।217
उपरोक्त खोजों से उन समस्त मतों का खण्डन हो जाता है जिन के अनुसार मध्य एशिया के जाटों की प्रकृति बर्बर कही गई थी। उन के जीवन यापन को खानाबदोशों जैसा जीवन यापन कहा गया। मध्य एशिया के नगर, वहां प्रयुक्त भाषाएं, उनके सिक्के, मूर्तियां और अन्ततः उन द्वारा खोदी गई नहरें नवीं शती ई.पू. में उन के एक सुस्थिर जीवन एवं समाज का पूर्व अनुमाने प्रस्तुत करती हैं। निस्संदेह और जैसा कि भली भान्ति विदित है, जाटों के केवल दो व्यवसाय थे, युद्ध या फिर कृषि एवं पशु पालन। इसीलिये उन्होंने सिंचाई के लिये बड़ी-बड़ी नहरों की खुदाई की और इसी लिये जैसा कि अग्रवाल ने लिखा है218 उन्होने सीढ़ीदार कुओं, वापी तथा रहटों को विकसित किया। निस्संदेह ये लोग अपने पशुओं को चराने के लिये बड़े-बड़े भू-क्षेत्र सुरक्षित रखा करते थे। उनका यही स्वभाव आज भी है। आजकल भी प्रतिवर्ष सूखे के मौसम में बड़ी संख्या में पशु

214. MAKI, p. 75; also see Bergermann, Les Scythes.
215. Kishkindha Kanda, 41, 10.
216. op. cit.
217. ibid., p. 162, and Archaeology in USSR.
218. op. cit.

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जैसलमेरजोधपुर क्षेत्रों की ओर से उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा के क्षेत्रों में चले आते हैं। यद्यपि आबादी की बहुत बड़ी संख्या शहरों व कस्बों में बसी हुई थी, फिर भी आबादियों का एक बड़ा भाग अपनी गायों, भैसों और घोड़ों के साथ निरन्तर गतिमान रहता था और निस्संदेह ये लोग अपने शस्त्र तो सदा अपने साथ रखते ही थे।
Maki के अनुसार महान्‌ जाटों द्वारा जो नहरें बड़े परिश्रम से बनाई गई थीं, वे पांचवी शती या उस के बाद रेत से भर गई। ये नहरें हखमनी साम्राज्य से पूर्व बनाई गई थीं और कंगों ने साईरस महान के हाथों पराजित होने से इन्कार कर दिया था। ये नहरें अब किजीलकन के मरूस्थलों के गर्भ में दबी पडी हैं।219 वही लेखक यह भी कहता है, यू-ची भाषाई रूप में शक थे और वुसुन ; सैवांग कंग तथा पार्थियन (पहलवी) शक भाषा की बोलियां थीं।220 इसीलिये चीनी यायावर, चंग कियान लिखता है कि फरगाना से लेकर पार्थिया तक एक ही भाषा बोली जाती थी।221 पार्थियों ने अपना साम्राज्य कैस्पियन सागर तक स्थापित कर रखा था।222 इसी पार्थियन साम्राज्य के काल में ही यू-ची भू-क्षेत्रों से बहुत से शक पूर्वी ईरान में आकर बस गये और जिस क्षेत्र में वे आकर बसे उसे शकस्तान का नाम दिया गया, जिसे आजकल सीस्तान कहा जाता है। यही कारण है कि शक और पार्थी चाहे भारत के अन्दर या बाहर आपस में बुरी तरह लड़ते रहे, लेकिन शान्तिकाल में एक दूसरे से भाइयों जैसा व्यवहार करते रहे। ईस्वी शताब्दी शुरू होने के बाद उन्होंने भारत को सहरावत, कश्वान, धारण (गुप्त) आदि बहुत-से राज परिवार दिये और उन्होंने केवल भारत को ही ऐसे राज परिवार नहीं दिये कम-सें-कम तीन राजवंश इन लोगों ने चीन को प्रदान किये। यह भी भली भान्ति विदित है कि इन लोगों ने बहुत-सी चीनी महिलाओं के साथ विवाह भी किये और शताब्दियों तक यह प्रक्रिया निरन्तर चलती रही। चीनी रक्‍त में सम्मिश्रण के कारण ही इतिहास के परवर्ती काल में इन लोगों को मंगोलों जैसे कुछ नखशिख प्राप्त हुए।

शिवि/सिबिया जाट

यह भी जाटों का एक अन्य ऐसा कबीला है जिस का उल्लेख इतिहास के प्राचीनतम काल में उपलब्ध है। सिबिया नाम उन्हें अपने प्रथम पूर्वज शिवि से मिला। ऋग्वेद के अनुसार दस राजाओं के महायुद्ध में शिबि भी सुदास के विरूद्ध लड़े थे।223 पाणिनी पर शोध करने वालों ने भी इन का उल्लेख किया है। उनका पूर्वज शिबि/शिवि, उशीनार का पुत्र था।224 शिबियों के एक अन्य राजा का नाम अमित्रतपन था।225

219. MAKI, p. 160.
220. ibid., p. 186.
221. JAOS, 1917, p. 89.
222. op. cit., p. 189.
223. Rig Veda, VII, 18, 7.
224. Srauta Sutra, III, 53/22.
225. Aitereya Brahmana, VIII, 23/10.

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शोरकोट के प्रख्पात अभिलेख पर उनकी राजधानी शिबिपुरा226 के रूप में अंकित है। झंग जिला (पाकिस्तान) में शोरकोट का टीला शिबिपुरा का ही स्थल है। यह स्थल पंजाब की दो नदियों रावी तथा चिनाव के बीच स्थित था।
यूनानी लेखकों ने भी उन का खूब वर्णन किया है। अरियन उन्हें सिबई227 के नाम से पुकारता है। डायोडोरिस ने भी उनका उल्लेख किया है। 326 ई. पू. सिकन्दर के आक्रमण के समय इन के पास शस्त्रों से सज्जित 40,000 सैनिक थे, जो यूनानियों के साथ युद्ध करने के लिये तैयार खड़े थे। अर्रियन इन के बारे में इस प्रकार लिखता है।
"जब सिकन्दर की सेना एक भारतीय कबीले सिबई के सामने आयी तो उन्होंने देखा कि इन लोगों ने खाले पहन रखी है। उन का यह परिधान देख कर यूनानी सेना ने घोषणा कर दी कि ये लोग (सिबे) उन के वंशज हैं, जो हरक्लीस (पुनः जाटों का सम्बन्ध हरक्लीस के साथ) के अभियान में शामिल हुए थे किन्तु पीछे छूट गए थे।" ये लोग खालें पहनने के अतिरिक्त अपने हाथ में एक लट्ठ भी रखते थे तथा उन के बैलों की पीठ पर एक गदा का चिन्ह भी अंकित रहता था जिसे मकदूनिया के इन यूनानियों ने हरक्लीस का एक स्मृति चिन्ह समझा।228 बी.सी. ला (जो इन संदर्भों का उल्लेख तो कर रहे हैं किन्तु जाटों के सीबिया कबीले के साथ उन की समरूपता नहीं देख रहे हैं) इस तथ्य को अनदेखा करते हुए लिखते हैं, "उन के परिधान व उनके शस्त्रों के उपरोक्त उल्लेख से यह अनुमान लगाना युक्ति संगत हो सकता है कि यह कबीला उस जातीय दल से सम्बन्धित था जौ विशुद्ध रूप से आर्य नहीं थे।"229 हमारा विचार है कि केवल बी.सी. ला के पास ही कोई ऐसी चमत्कारी शक्ति हो सकती है, जिस के बल पर वह किन्हीं लोगों की वेशभूषा व शस्त्र देख कर ही उनकी जातीय रूपरेखा की पहचान प्राप्त कर लेता है। बी. सी. ला का वाक्यांश "विशुद्ध रूप से आर्य नहीं" पूर्ण रूप से निराधार है। क्या वे किसी अन्य रूप से आर्य थे? वे छटी शताब्दी ई.पू. में साइरस महान्‌ तथा दारा के हाथों मण्ड साम्राज्य के पतन के बाद पंजाब में आए होंगें किन्तु इस के साथ यह भी सत्य है कि शिबि लोग ऋग्वेद के काल में भी भारत में ही थे। उन के परिधान से केवल यही स्पष्ट होता है कि वह कर्मठ स्वभाव के ये, वे उस ऐश्वर्य से भ्रष्ट नहीं हुए थे जिन से देश भीरू एवं शक्तिहीन पड़ जाते हैं। उन की गाएं और बैल उन के पशु पालन एवं कृषि व्यवसाय का पता देते हैं, जबकि उनकी सेना एवं उन के शस्त्र पाणिनी के शब्दों में यह प्रमाणित करते हैं कि वह आयुद्ध जीवी थे।
प्रारम्भ में वे भारत के चन्द्र भागा (चिनाब) नदी के तट पर बसे पाए गए और तदांतर काल में उनमें से कुछ तो राजस्थान की ओर चले गए और कुछ दक्षिण की ओर

226. EI., 1921, p. 16.
227. Indica, V, 12.
228. ibid.
229. Tribes in Ancient India.

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कावेरी नदी के साथ-साथ बसते चले गए। शिवि जातक (क्रम 499) के अनुसार उन के एक राजा के दो नगर थे, अरित्यपुर तथा जेतूत्तर। पहले का उल्लेख टाल्मी ने अरिस्तो बाथरा (पंजाब के उत्तर में स्थित), के रूप में किया है।230 दूसरा नगर जेतूत्तर एन.एल.डे के अनुसार चितौड़ के उत्तर में 11 मील की दूरी पर स्थित नगरी गांव है। अल्बेरूनी ने इसे मेवाड की राजधानी जतरूर बतलाया।231 चित्तौड़ के समीप मध्यमिका के स्थान पर उन के बहुत-से सिक्के मिले हैं तथा उन सिक्कों पर इन का परिचय इस प्रकार अंकित है। "मझमिकाय शिविजन पदस" अर्थात्‌ मध्यमिका (चित्तौड़) के शिवि जनपद के सिक्के।
बसन्तर जातक में भी उन के शासन की लोकतंत्रीय व्यवस्था का उल्लेख है जिस के अनुसार शिवियों के राजा ने अपने लोगों की मांग पर अपने पुत्र बसन्तर को देश से निष्कासित्त कर दिया था।
महाभारत में भी एक पक शिविराष्ट्र का उल्लेख है, जिस पर राजा उशीनर का शासन था।232 परजिटर233 (Pargiter) के अनुसार उशीनर के पुत्र शिवि ने न केवल सिवियों को संस्थापित किया अपितु अपने चार पुत्रों वृषदर्भ, सुबीर, केकय तथा मद्रक के साथ मिल कर सम्पूर्ण पंजाब को अपने अधीन कर लिया। इन चारों पुत्रों ने अपने नाम पर राज्य स्थापित किये234 सुबीर और मद्रक के नाम पर ही पुराणों में पंजाब के लोगों को सुबीर तथा मद्रक कहा गया है। शिवि भारत के सुदूर दक्षिण तक भी स्थानांतरित होते हुए पहुंचे। दश कुमार चरितम्‌ में कावेरी नदी के तट पर शिबियों की एक बस्ती का उल्लेख है। वराहमिहिर अपनी कृति बृहत्‌ संहिता में दक्षिण में शिबिया नाम के एक देश का वर्णन करता है। एच.सी. रे. चौधरी दक्षिण के सीबियों को चोल शासक परिवार के समरूप देखते हैं।234 किन्तु चोल एक अन्य कबीला भी है, जिसे आजकल चहल/चहर कहते हैं।

उनके जाट होने के प्रमाण

उन के जाट होने का प्रथम प्रमाण तो निस्सदेह स्वयं उन का नाम ही है। शिवि अथवा सिबि उन के पूर्वज का नाम है और शिबिया एक व्युतपत्ति प्राप्त शब्द है, जिस का अर्थ है शिबि के वंशज। किसी कबीले के नाम के रूप में यह शब्द केवल जाटों में ही मिलता है भारत के किसी अन्यत्र जाति समुदाय में नहीं। जिस तरह दही से दहिया, पूनी से पूनिया, इसी प्रकार शिवि से ही शिबिया बना। ये शिबिया जाट आज भी विद्यमातन हैं। पंजाब के एक पूर्व मंत्री गुरबख्श सिंह सिबिया इसी प्राचीन कबीले के वंशज

230. N.L. Dey, Geographical Dictionary, p. 11.
231. AIS, Vol. 1, p. 202.
232. MBT, III, 130-131.
233. Ancient Indian Historical Tradition, pp. 41, 264.
234. H.C. Ray Chaudhuri, Political History of Ancient India, p. 205, f.n. 5.

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हैं। दूसरा प्रमाण उन के नगर जेतूत्तर का है, जो जत शब्द पर आधारित है अर्थात्‌ जाटों का नगर। संयोगवश यह इस तथ्य का भी एक और प्रमाण है कि मेवाड चिरकाल तक जाटों के अधीन रहा। इस तरह इस के अन्य कई शहरों, जैसे जैसलमेर, सीकर, सिरोही आदि के नाम भी हैं। इन में से दो अन्तिम नाम सीकर एवं सिरोही तो विशुद्ध रूप से जाट कबीलों के ही नाम हैं। तीसरे प्रमाण के लिये हम कर्नल टाड को उद्धृत कर रहे हैं।235
"सीवी (अथवा सिबे) जोकि स्कैंडीनेवीया की एक अत्यधिक महत्वपूर्ण जतिक राष्ट्र है, ने उपसल के विख्यात मंदिर निर्मित किये, जिन में उन्होंने थोर, वोदन (ओदिन) तथा फरियम (जो स्कैंडीनेविया के असी लोगों के तीन देवता हैं), की मूर्तियां प्रतिष्ठित थीं भारत की त्रिमूर्ति देव।"
यहां निश्चित रूप में सिबियों को एक जाट (जतिक) राष्ट्र कहा गया है।
यूरिक गाट 466 से 484 ई. तक स्पेन का राजा था। उस काल में सिबियों को अपने ही भाई जाटों के हाथों विवश हो कर भू-मध्य सागर पार कर के अफ्रीका जाना पड़ा। इन तथ्यों से न केवल भारतीय जाटों, जर्मन गातों तथा स्कैंडीनेविया के जूटों की समरूपता सिद्ध होती है अपितु इन से यह भी प्रमाणित होता है कि सिबि कबीले के नेतृत्व में ये लोग स्पेन से अफ्रीका तक भी गए। और उन के जाट होने का अन्तिम प्रमाण निस्संदेह उनका पहनावा, उन की जीवन शैली, पशु पालन एवं युद्ध का व्यवसाय है जो आज भी यह जाटों के प्रमुख व्यवसाय है। जहां तक खाले पहनने का प्रश्न है, यह सिथ जाटों का (दूसरों का भी) आम पहनावा था। यहां हम सिकन्दर महान्‌ के उस भाषण को उद्धृत कर रहे हैं जो उसने मकदूनिया के अपने विद्रोही सैनिकों को सम्बोधित करते हुए ओपिस में दिया था। "तुम निराश्रित थे और निर्धनता से ग्रस्त थे, तुम चमड़ा पहनते थे, तुम भेड़ों को चराया करते थे और तुम थ्रेसिया के गटई से अपनी सुरक्षा स्वयं नहीं कर सके थे। इन परिस्थितियों में मेरे पिता ने तुम्हें अपने संरक्षण में लिया, तुम्हें सैनिकों की वर्दी पहनाई और युद्ध की कला में तुम्हें गटई के बराबर खड़ा किसा।"236

235. Annals of Rajasthan, Vol. I, p. 56.
236. ibid.

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