Jat Prachin Shasak/Bhumika

From Jatland Wiki
Jump to navigation Jump to search
जाट प्राचीन शासक (1982)
लेखक - बी. एस. दहिया (आइ आर एस, रिटायर्ड)

विकिफाईअर : चौ. रेयांश सिंह


मुख्य पृष्ठ, अनुक्रमणिका पर जाएँ
«« दो शब्द पर जाएँ
पाठ 1 पर जाएँ »»


भूमिका
एक मान्यता : एक व्यक्तव

भारत का इतिहास, जैसा कि वह आज कल हमारे स्कूलों, कालेजों तथा विश्वविद्यालयों में पढ़ाया जाता है, उस से कई प्रश्नों के उत्तर प्राप्त नहीं होते । इतिहास अध्ययन की प्रक्रिया में हमें प्रायः हर अगले पग पर प्रश्नचिन्ह लगाना पड़ता है और इन प्रश्न चिन्हों का क्रम ऐतिहासिक काल के प्रारम्भ से ही शुरू हो जाता है, जैसे :-
"क्या आर्य इसी देश के मूलवासी थे या वे बाहर से आए थे? यदि वे बाहर से आए थे तो कहां से ? नंद तथा मौर्य लोग कौन थे? इन्हें शूद्र शासकों के युग का सूत्रधार क्यों कहा जाता है ? क्षहरातों तथा गणतंत्रात्मक कबीलों का क्या हुंआ ? गणतंत्रवाद केवल भारत के उत्तर पश्चिमी अंचलों में ही क्यों पनपा ! महरौली स्थित लौह स्तम्भ अभिलेख का राजा चन्द्र कौन था? गुप्त लोग कौन थे? पुराण मौर्य एवं गुप्त वंशों के राजाओं का उल्लेख क्यों नहीं करते ? वे कौन थे, जिन्होंने हमारे राष्ट्रीय सम्वत शक तथा विक्रमी प्रारम्भ किये ? कशाणों से पूर्व मध्य तथा पूर्वी भारत के शासक कौन लोग थे? मंदसौर के विष्णु वर्धन के उत्तराधिकारियों, यहां तक कि उन के पूर्वजों, का कया हुआ ? कलकिल यवन बिध्य-शक्ति कौन था? हर्षवर्धन के पिता पृथ्वी पर घुटने टेके सूर्य की उपासना करते हए अपने शरीर पर श्वेत वस्त्र तथा सिर पर श्वेत पटका क्यों धारण करते थे ? संस्कृत व्याकरणाचार्यों द्वारा अभीरों को महाशूद्र का नाम क्यों दिया गया ? ये लोग गुज्जरों के साथ भारत के कई भागों पर शासन कर रहे थे फिर भी हिन्दू समाज द्वारा इन्हें घृणा की दृष्टि से क्यों देखा गया ? जाट, गुज्जर, अहीर तथा राजपूत कौन हैं ? क्या ये लोग भारत के प्राचीन क्षत्रिय हैं या ये बाहर से आए थे। ऐसे महत्त्वपूर्ण प्रश्नों की सूची का कहीं अन्त नहीं होता और हम इन के उत्तर इस लिये प्राप्त नहीं कर सके क्योंकि हम ने अपनी खोज की सीमा केवल भारत तक ही सीमित रखी । हम जम्बूद्वीप को केवल भारत के समरूप ही देखते हैं और यहीं हम उन समाधानों को तलाशते हैं जो यहां से हमें प्राप्त हो नहीं सकते । पुराण स्पष्ट रूप से कहते हैं कि भारतवर्ष जम्बुद्वीप का केवल एक वर्ष अर्थात्‌ एक खण्ड अथवा भाग है। पुराण दक्षिण कुरुओं का उल्लेख हरियाणा क्षेत्र में करते हैं तथा वे उत्तर करुओं का भी उल्लेख मेरू पर्वत/ (पामीर पर्वतमाला) हिमवन्त के उत्तर में करते हैं पुराणों के अनुसार मद्र लोग


पृष्ठ (v) समाप्त

पंजाब में भी हैं तथा उत्तर मद्र में भी हैं। ऋग्वेद के काल से ही हम पख्तूनों अथवा पश्तुनों को काबुल/कंधार/पेशावर के क्षेत्र में वर्णित पाते हैं किन्तु फिर भी हम यह पाते हैं कि ईसा से 2300 वर्ष पूर्व असीरिया का राजा सरगोन प्रथम, उत्तर पश्तूनों के साथ केपोडोसिया में उन्हीं के नगर पुरुषखण्ड में उन के साथ लड़ रहा था । हम केस्पियन सागर के पश्चिम में कुर अथवा कुरु नाम की एक नदी तथा वर्तमान इराक के पश्चिम में कौरूपीडियन (Kourupedion) नाम के एक क्षेत्र का भी उल्लेख पाते है | बिल्कुल उसी रूप में जैसा कि हम भारत में करुक्षेत्र (कुरुओं की धरती) का उल्लेख पाते हैं | ये सभी तथ्य और ऐसे ही अन्य बहुत सारे तथ्य एवं जानकारियां इस महातथ्य का प्रतिपादन कंरते हैं कि उत्तर करुओं, उत्तर मद्रो उत्तर पख्तूनों द्वारा आवासित भू-खण्ड अरल तथा कृष्ण सागर के बीच क्षेत्र में स्थित थे और वह उत्तर तथा दक्षिण दोनों दिशाओं की ओर फैले हुए थे । इसी आधार पर आर० जी० हर्षे और के० पी० भटनागर यह निष्कर्ष निकालते हैं कि वेदों में वर्णित बहुत से लोगों के कई नाम प्राचीन इराकी क्षेत्र में पाए जाने वाले नाम हें।
अतः जीо एम० बोनगार्ड लेवीन और बी० वाई० स्तावस्की के शब्दों में, "यहीं (मध्य एशिया) पर ही पूर्वीय इतिहास और पूर्व संस्कृति के अनसुलझे रहस्यों के उत्तर ढुंढने के प्रयास किये जाने चाहिएं ।" इसी स्वर में ए० केо नारायणन ने इंडियन हिस्ट्री कांग्रेस (1968) के भागलपुर अधिबेशन में अपने अध्यक्षीय भाषण में यह घोषणा की थी "हमारी पुरातत्वीय एवं साहित्यिक स्रोत सामग्री से यह पूर्ण रूप से स्पष्ट होता है कि जिन विचार प्रवाहों एवं लोगों ने 13वीं शताब्दी तक भारत के इतिहास को पूर्ण त्वरिता के साथ प्रभावित किया वे किसी न किसी रूप में मध्य एशिया से ही सम्बन्धित थे। यह कहना भी कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि हमारी बहुत सी ऐतिहासिक समस्याओं की कुंजी मध्य एशिया की मुट्ठी में बन्द है । मेरे विचार में भारतीय संघ का इतिहास यदि इस के सही परिपेक्ष्य में लिखा जाना है तो इस में केवल यही नहीं सम्मिलित किया जाना चाहिये कि पाकिस्तान में क्या हुआ अपितु यह भी कि अफगानिस्तान तथा मध्य एशिया में क्या होता रहा ।"
मैं तो इस से भी आगे बढ़ कर यह कहना चाहूंगा कि यदि हमें अपने प्राचीन इतिहास की वास्तविकता की पहचान करनी ही है तो हमें पश्चिम में चीन की दीवार से ले कर कृष्ण सागर तक तथा दक्षिण पूर्व से मिस्र तथा सुमेर तक के लोगों के अभियानों, उन के लक्ष्यों तथा वहां के विचार प्रवाहों का गहराई से अध्ययन करना होगा।


पृष्ठ (vi) समाप्त

प्रस्तुत कृति प्राचीन भारतीय साहित्य की ठोस सहायता से उसी दिशा में किये गये एक अन्वेषन का परिणाम है | इस खोज के परिणामस्वरूप सामान्य रूप में इतिहास के कई पक्ष, और विशेष रूप में जाटों की पहचान, और भी अधिक स्पष्ट हो कर सामने आए है । वास्तव में ये परिणाम केवल विचारों को उद्देलित करने वाले ही नहीं हैं अपितु वे कई स्थानों पर तो चौंकाने वाले भी हैं । प्राचीन मध्य पूर्व (पश्चिम एशिया) तथा मध्य एशिया का प्रायः हर कबीला भारत के वर्तमान जाटों में विद्यमान पाया जाता है। इन समस्त कबीलों के अपने निजी इतिहास हैं और उल्लेखनीय तथ्य यह है कि उन्हें गुटी/गट/जटी/जतोई/गेट/जित अथवा जट कहा जाता है । ईसा से 3000 वर्ष पूर्व हम न केवल गुटियों को सुमेर अकद तथा लगाश और बेबीलोनिया के शासकों के रूप में उल्लिखित ही नहीं पाते अपितु हम उनके देश का नाम भी वर्णित पाते हैं, जिसे गुटियम कहा गया है | हम उनके प्रथम राजा का उल्लेख भी पाते हैं, जिसे मुरूत अथवा मरूत कहा गया है। उनका अन्तिम राजा त्रिगन था, जिसे वरक के उत्तूखेगल ने सत्ताच्युत कर दिया था | यह वरक आज के जाटों के विर्क कूल से ही हैं, जो प्राचीन सुमेर ईरान के वरक हैं, यूनानी लेखकों ने इन्हें ही उरकान (वरकान) अथवा हिर्कन कहा है । पुनः हम ऐसे लोगों का उल्लेख भी पाते हैं जिन्हें मिस्र निवासियों ने अमूरू कहा है और इतिहासकारों ने अमोर। Cambridge Ancient History के अनुसार अमूरू या अमोर में प्रथम अक्षर (अ) केवल शामी (Semitic) लोगों के उच्चारण की सुविधार्थ जोड़ दिया गया है। अतः मूल रूप में यह नाम मुरू/मोर/मूर/मोर (यूरोप में) तथा भारतीय जाटों के मोर /अथवा मौर और अशोककालीन मौर्य के रूप में अस्तित्व में रहा है । उल्लेखनीय है कि मिस्री इतिहास में यह दर्ज है कि अमूरू अथवा अमोर लोग जटी नाम के देश से, जटों की भूमि से, प्राचीन सुमेरों, बेबीलोनियों, असीरियों द्वारा वर्णित गुटियम देश से आए थे | अतः यह जाटों का मोर अथवा मूर कबीला ही था जिस ने ईसा पूर्व 22वीं शताब्दी में लघुजाब तथा अरारत पर्वत श्रृंखला की ओर से मिस्र पर आक्रमण किया था | रियाड शहर में रियाड कुल को आज भी याद किया जाता है तथा तत्कालीन परशूआ तथा तरेर आज के परसवाल तथा तरर कुल हैं ।
इस के साथ ही हम पुनः ई० पू० 10वीं शताब्दी में आर्मेनिया में प्रख्यात झील वेन पर वेन राज्य का उल्लेख पाते हैं । ये वेन परवर्ती यूनानी लेखकों के बिनई हैं तथा भारत में जाटों के एक कुल बेनीवाल अथवा वेन्हवाल कुल के है जिस कुल का एक राजा, चक्रवर्ती बेन/वेन (चकवाबेन) भारतीय लोक गाथाओं


पृष्ठ (vii) समाप्त

में पंजाब से लेकर बंगाल तक विख्यात है हालांकि आधुनिक काल में लिखित इतिहास में इस लोक कथा नायक का कहीं भी उल्लेख नहीं है। उल्लेखनीय है कि बैन राजाओं ने राजाधिराज तथा विश्व सम्राट जैसी उपाधियां धारण कीं और यही वे उपाधियां हैं जो आगे चल कर ईरान के हख्मनी राजाओं ने अपने लिए प्रयुक्त की। इस के अतिरिक्त वेन राजाओं ने अपने को बीयेनस के राज्य तथा नाइरे का राजा भी कहा। इन उपाधियों से पता चलता है कि बेन राज्य में जाटों के नारा तथा |बैंस कुल भी सम्मिलित थे। इन वेन राजाओं ने मान्न/मन्नई तथा डयानी/दही लोगों को भी अपनी सत्ता के अधीन कर लिया था | उर्मिया झील के दक्षिणी किनारे पर स्थित ये मन्नई जाटों के मान कुल के ही लोग हैं और САН भी स्पष्ट रूप से कहती है कि मन्नई, मान लोगों की भूमि थी । असीरियों के दयानी /दयेनी (Da yeni) यूनानी लेखों तथा बेरोस्स के दहि (Dahai) तथा प्राचीन ईरान के दही (अवेस्ता में लिखित दहीनाम दहियुनाम) ही है। यही वे लोग थे जिन्होंने राजा अर्धक (Arsaces) के नेतृत्व में पार्थियन साम्राज्य स्थापित किया था और उन्होंने (256 ईо पूo से लेकर 224 ई०) 480 वर्षों तक ईरान पर शासन किया था। पुनः सिकन्दर के ये दहिए ही थे जिन्होंने Mc Crindle's Invasion of India के अनुसार, ईo पूо 326 में सर्वप्रथम पोरस पर आक्रमण किया था । उन के देश को दहिस्तान कहा जाता था जो आज भी सोवियत संघ के एक प्रदेश दघिस्तान (Daghistan) के रूप में जाना जाता है तथा उसकी प्रशासकीय राजधानी मकचकला (Petrovsk) है, जो केस्पियन सागर के पचिम में स्थित एक बन्दरगाह है । भारत तथा मध्य एशिया में 'ह' का “घ” तथा "ख" में सहज परिवर्तन हो जाता है, ठीक उसी तरह जैसे कि हम सिंघ को सिंह (Singh). विदेख को विदेह, सारांघ को सरान्ह, बेनख को वेन्ह, वतघन को वृत्रहन के रूप में ग्रहण करते हैं ।
संयोगवश शातपथ ब्राह्मण में वर्णित विदेध माथव का नाम, पूर्वी साईबेरिया में आवासित उदेघ लोगों के साथ मिलता है (भारतीय सिक्‍कों में यही नाम उदेहिक (Uddehika) के रूप में अंकित है ।) सोवियत संघ एक भौगोलिक सर्वे (Soviet Union —a Geographical Survey) नाम की कृति में एक उदेघ व्यक्ति का छाया चित्र प्रकाशित है जिसकी लम्बी सीधी तथा मोटी नाक है । उसका शिर-बस्त्र कोणाकार है, उस ने रंगदार पतलून पहनी है तथा उस के हाथ में पुरातन धनुषबाण तथा भाले के स्थान पर एक बन्दूक है। वह लम्बा तथा हृष्ट-पुष्ट है। यही कृति बेनक्ख/दघिस्तान लोगों तथा आघाई समूह का भी उल्लेख करती है तथा कहती है कि इन लोगों का साहित्य में सर्वप्रथम


पृष्ठ (viii) समाप्त

उल्लेख ईo पूо 2000 एव 1000 वर्षों में हुआ तथा प्रातत्वीय खोजो से उपलब्ध सामग्री इस बात का संकेत देती है कि 5000 तथा 3000 ईo पूo काल से भी इनका सम्बन्ध हो सकता है अथवा उस काल में इन लोगों के समान ही भूमि जोतने तथा पशु पालने वाली संस्कृतियां समूचे काकेशास पर्वतमाला में पनप रही थी।
यूनानी लेखकों द्वारा वर्णित बसई (Busai) बस्सी जाट कुल है । इसी तरह मर्दई, अमरदी, मिर्धा जाट हैं | असीरिया के खलीबी, खरब जाट हैं जो इलाहाबाद स्तम्भ अभिलेख में अंकित खरपरी भी हो सकते हैं । इस अभिलेख में कम से कम 10 विभिन्न जाट कुलों के नाम हैं । ईरानी अभिलेखों के असिगर्त, हैरोडोटस द्वारा वर्णित सगर्त, असियाग जाट ही हैं जैसे कि यूनानी लेखकों के सरंगी आजकल सारंग जाट हैं। इसी तरह ईरान के मदीय आज के मद/मधान जाट हैं। आज के मण्ड कुल के लोग पुराने मण्ड ही हैं । तोरमान तथा मिहिरकुल का कुल, आज के जौहल/जोहल जाटों में अपना प्रतिनिधित्व पाता है और उत्तर प्रदेश के कलकिल जाट प्रख्यात विध्य-शाक्ति के कुल का प्रतिनिधित्व करते हैं। डरबीस जिन्होंने खुश की महानता को तहस नहस कर डाला था, आज के डबास हैं जो कि दहिया कुल का एक अंग हैं। चीनियों द्वारा वर्णित क्यांग-नु आज के कंग जाट हैं, ठीक उसी तरह जैसे हिआंग-नु मथुरा के हेंगा जाट हैं। चीनियों का यह कथन पूर्ण रूप से उचित है कि हियँग-नु (हेयांग) यू-ची (गुटी) लोगों का अंग थे तथा इन गुटी लोगों के दो मुल्य भाग थे, ता यू-ची तथा सियाओ यू ची, जो हेरोडोटस द्वारा वर्णित मस्साजटी तथा थिस्साजटी के पूर्णतया अनुरूप है और जिनका अर्थ है, क्रमशः महान जाट (बहुसंख्यक) तथा लघु जाट (अल्पसंख्यक)।
कुषाणों के सम्बन्ध में हम पाते हैं कि उनका शुद्ध नाम कशुआन था जो हरियाणा तथा राजस्थान के आज के कशवां जाट ही हैं | इसी तरह केदारी आज के कटार (कटारिया) जाट हैं । घंगस जाट तथाकथित श्वेत हूणों के राजा कंगखस के प्रतिनिधि हैं, जैसे जाटों का पीरू कुल केदार के उत्तराधिकारी राजा पीरू का प्रतिनिधित्व करता हैं । आज का गोंदल कुल कश्मीर के 'गोनन्द' वंश का प्रतिनिधित्व करता है । लोहर जाट कश्मीर के लोहर राजाओं के वंशज हैं जैसे कि कल्हण की "राजतंरगिणी' में वर्णित कुलो का प्रतिनिधित्व लल्ली, शाही, बलहारा, बरिग, तक्खर, ढोन्छक, समिल, कुलार आदि करते हैं । और अन्ततः क्षहरात राजाओं के वंशज सहरौत सहराबत के रूप में विद्यमान है तथा धारण/गुप्त तथा विर्क/विष्णुवर्धन राजाओं के कुल आज भी उन्हीं नामों से


पृष्ठ (ix) समाप्त

जाने जाते है | मैंने हर्ष के कुल को विर्क के रूप में लिया है किन्तु कारलायल तथा कन्निघम उसे बैंस कुल से मानते हैं और इसी कुल के नाम पर उत्तरी भारत कभी बैंसवाड़ा कहलाया था।
जिक स्तर पर मेरी यह मान्यता है कि परवर्ती काल के राजपृत पूर्ववर्ती काल के जाट तथा गुज्जर ही हैं और जहां तक गुज्जरों तथा अहीरों का सम्बन्द है जाटों में ऐसे दो कुल हैं जिन्हें गुस्सर तचा अबर (अभीर) कहा जाता है! कुशान अभिलेखों में वर्णित प्रायः सभी कुल जाट ही हैं। पुराण, महाकाव्य, वराहामिहिर कृत बृहत-संहिता आदि सभी ग्रन्थ जाटों के अधिकांश कुलों का उल्लेख लिये हैं। जाटो/गुज्जरो का राजपूतों में रूपान्तरण 7बीं सताब्दी के बाद शुरू हुआ और यह प्रक्रिया समतावादी बौद्ध घर्म के अवमूल्यन पर कट्टरपंथी हिन्दुवाद के पूर्नोदय के साथ शरू हई। वे लोग, जिन में अधिकांश राज परिवारों के प्रमूख थे, अग्नि स्तोम एवं अन्य यज्ञों के बल पर ब्राह्मणों द्वारा औपचारिक रूप में हिन्दू धर्म में दीक्षित कर लिये गये, राजपूत कहलाए तथा उन्हें ब्रह्म-क्षत्रियों की नई योद्धा जाति कहा गया । ब्रहम-क्षत्रियों का अर्थ उन क्षत्रियों से लिया गया जो ब्राह्मणवाद में दीक्षित किये गये थे | मेवाड़ तथा अन्य राजपूत राजवंशों के कथित ब्राह्मण मूल की बात इसी संदर्भ में समझी जानी चाहिये । बुद्ध प्रकाश स्पष्ट रूप से यह कहते हैं कि पंजाब के पुराने गणतंत्रों में पुरोहित पंथियों को विशेष सम्मान प्राप्त नहीं था | इसी प्रकार आरо सीо मजुमदार कहते हैं कि 'ब्राह्मणवाद के पुनरुत्थान से समस्त सामाजिक ढांचे का पुनर्गठन सा हो उठा, जिस के परिणाम-स्वरूप एक ओर तो जाती प्रथा को विशिष्ट एवं कठोर बना दिया गया तथा दूसरी ओर नई जातियों क्रा बहुलता के साथ प्रादुर्भाव हो उठा । नये धर्मान्तरितों के लिये नह वंशावलियां खोजी गईं और उन्हें सूर्य एवं चन्द्र वंशों से सम्बन्धित घोषित कर दिया गया। मालव लोग ब्रहमऋषि के पद पर अपना अधिकार जताने लगे, वाकाटकों को ब्राह्मण मान लिया गया हालांकि वे "यवन" थे । "कदम्ब परिवार मानने लगा कि वह ब्राह्मण भी है और क्षत्रिय भी ।" नई वंशावलियों व उनके मूल सम्बन्दों का एक नमूना काक (काकुस्थ) शासकों का है, जिन्होंने उद्घोषणा की पुरातन ईक्ष्वाकू रघुकुल को कलियुग में काक वंश कहा गया ।
यहां पर एक आपत्ति की जा सकती है कि केवल नाम की समानता, यहां तक कि नामों की अभिन्‍नता, से यह तो प्रमाणित नहीं होता कि वे लोग जाट थे | इस आपत्ति का उत्तर इस आधार पर दिया जा सकता है कि इन में अधिकांश वास्तव में जटी गुट या यू-ची (गुटी के रूप में उच्चरित) कह कर पुकारे


पृष्ठ (x) समाप्त

जाते रहे है, चाहे वह महान यू-ची कहे गए या लघु यू-ची, मुझे इससे कुछ लेना-देना नहीं | मेरा सरोकार तो केवल इस तथ्य से है कि ये सभी कुल आज भी जाटों में विद्यमान हैं अतः यह मान लेना होगा कि ये प्रारम्भ से ही जाट थे और यह तथ्य तब तक अकाट्य रहेगा जब तक कि इसके विपरीत तथ्य सिद्ध नहीं होते । यह बात स्पष्ट रूप से समझ ली जानी चाहिये कि जाट कभी भी धर्म परिवर्तन से गठित समाज नहीं रहा । उनकी प्रथाए, रीति-रिवाज, सामाजिक एबं धार्मिक मान्यतायें तथा विचार, जैसा कि पुराणों तथा साहित्य में वर्णित है, वे केवल अभारतीय ही नहीं अपितु कई स्थानों पर तो वे कट्टर तथा रूढ़िवादी हिन्दू समाज के सर्वमान्य सिद्धान्तों के सर्वथा विपरीत भी हैं । उनकी बहुपति प्रथा, उनकी कोट-पतलून तथा बूटों वाली वेश-भूषा जोकि उन्होंने अपने देवताओं तक को धारण कराई, उनके सिक्कों पर शृंग बाहुल्य का अंकन, पेंट तथा बूट पहने ही नैवेद्य अर्पित करने की उन की रीतियां, फिर अपने शरीर तथा सिर पर दो श्वेत वस्त्रों को धारण कर भूमि पर घुटने टेकने की पूजा विधि, उनकी नमन मुद्रा, उन की युद्ध प्रियता, लड़ाइयों में एक विशेष आनन्द व आह्लाद की अनुभूति, शौर्य तथा विजय में उनकी पूर्ण संलग्नता, घोड़ों तथा हिरणों द्वारा खींची जाती उनकी छकड़ानुमा गाड़ियां, बड़े भाई की विधवा के साथ उनके विवाह और अन्ततः ज्येष्ठाधिकार के प्रति उनकी पूर्ण तिरस्कार भावना-ये कुछ ऐसे तथ्य हैं जो उनके अभारतीय होने तथा मध्य एशिया से मूल रूप में सम्बन्धित होने के स्पष्ट संकेत देते हैं । उल्लेखनीय यह भी है कि पुराणों में उन्हें असुर, शूद्र, म्लेच्छ, यवन या वृषल कह कर सम्बोधित किया गया है । यह भी उनके अभारतीय मूल को ही चिन्हित करता है, और मानसिक जलन का ही परिणाम है ।
जब तक कि इस के विपरीत कुछ सिद्ध नहीं किया जाता, तब तक नामों की समानता तथा समरूपता यथेष्ठ प्रमाण के रूप में ग्रहण की जानी चाहिए । श्री रॉलिनसन के शब्दों में, "फिर भी, नाम की समरूपता चाहे वह एकमात्र ही प्रमाण क्यों न हो, एक ऐसा तर्क है जिसका प्रत्युत्तर दिया जाना ज़रूरी है तथा जब तक यह प्रत्युत्तर सकारात्मक आपत्तियों के रूप में नहीं मिलता तब तक इससे जातीय सम्बन्ध की पूर्व धारणा स्वयं ही अनुमोदित हो जाती है ।"
इस प्रसंग में यह भी याद रखा जाना चाहिए कि सिथियों का उद्भव तरगित अथवा तरगतौ से माना जाता है और ऋग्वेद में तरगत्‌ नाम आता है (1/164/30) सिथ शब्द का पर्याय स्वीडिश भाषा में शकजत (Skjuta) है।


पृष्ठ (xi) समाप्त

प्राचीन यूनानी लेखकों के सिथियन गटई, वेदों में जिन्हें गर्त अथवा गर्तसद कहा गया है (गर्त, जर्त का ही एक रूप है) इन लोगों का राजा रूद्र कहा गया है, वे स्वयं को मरूत कहते हैं । ऋग्वेद तथा अथर्ववेद में इन्हें इन्द्र के सैनिक कहा गया है । गैटिक राष्ट्रों में प्रचलित अश्व बलि की प्रथा इस बात का ठोस प्रमाण है कि ये लोग सिधियनों के वंशज है । वेदों में वर्णित गर्तसद तदांतर काल में भारतीय साहित्य में शाक तथा स्वीडन के शकजत एक ही लोग हैं । यहां शायद तरगुट जाटों के तर कबीले को शकजट, शक कबीले को इंगित करते हैं और जाट शब्द के दोनों रूप, जट अथवा गुट इन में हैं । महाभारत तो जाट कुलों के नामों से भरा पडा है । तुषार, कन्क, लम्पाक, ओड़ान, चीना, सिधु, जाखड़, जागलेन, लोहान, खटकल, हंस, हाल, तोमर, चौहान, दरर, तंगल, योध्येय, काक, बल, शिवि, मद्र आदि कुल इस महाकाव्य में स्थान प्राप्त किये हुए हैं।
मैं यहां इतिहास से दो उद्धरण प्रस्तुत करना चाहूंगा जो मेरी इस मान्यता की पुष्टि करेंगे कि जाटों का उल्लेख तो हुआ है लेकिन इतिहासकारों ने इन्हें सदा अनदेखा ही किया । एक उद्धरण सिंध के एक सरदार द्वारा निर्मित सुण्डा अभिलेख से है जिस में कहा गया है, "जिस प्रकार अमरावती इन्द्र से, अयोध्या रघू के वंशजों से, मथूरा गोविन्द से, उज्जियनी गट्ट से तथा हस्तिनापुर मरूतपुत्र (भीम) से शोभायमान हैं इसी प्रकार इराम्बरपूर, सिंध के सरदार चावुण्ड द्वारा सुशोभित है ।” इस उद्धरण में शेष सभी प्रसंग सहज ही समझ में आ जाते हैं किन्त किसी ने भी यह स्पष्ट करने का प्रयास नहीं किया कि गट्ट (अथवा गट्टल) कौन था या कौन थे, जिन के कारण उज्जियनी विख्यात थी । वे गट/ गाट वंशज जाट ही हो सकते है ।
दुसरा उद्धरण The Travels of HuenTsang in India लेखक ठाकुर प्रसाद शर्मा (सुरेश) से लिया गया है । यह हियूनसांग की भारत यात्राओं का हिन्दी अनुवाद है | इस में मिहिरकुल और मगध के बालादित्य की कथा दी गई है । मिहिरकुल कहता है कि उसने जो राज्य अपने पूर्वजों से प्राप्त किया उसको, खो दिया । बह बालादित्य की माता से यह भी कहता है, "कुछ समय पूर्व मैं एक जित देश का राजा था और अब मैं एक मृत्युदण्ड प्राप्त बंदी हूं । अब यहा मिहिरकुल स्वयं को "जित देश का राजा" क्यों कहता हैं? बालादित्य, मिहिरकुल को जीवित ही वापस नहीं भेजता, अपितु उससे अपनी छोटी बेटी का विवाह भी कर देता है । इतिहासकार इस कहानी का उल्लेख तो करते हैं किन्त इत तथ्यों का उल्लेख नहीं करते अपितु इसे बालादित्य कें हाथों


पृष्ठ (xii) समाप्त

मिहिरकुल की पराजय का आधार अवश्य बना लेते हैं और बालादित्य को वे एक राष्ट्रीय नायक का पद तक प्रदान कर देते हैं, जब कि हियुनसांग तो स्पष्ट रूप से यह कहता है कि मगध का बालादित्य तो मिहिरकुल की प्रभुसत्ता के अधीनस्थ था तथा स्वतन्त्र होने के प्रयास के बाद उसे अपनी पुत्री का विवाह अपने प्रभुसत्ता सम्पन्न सम्राट मिहिरकुल से करने के लिए विवश होना पड़ा जैन ऐतिहासिक उल्लेखों के अनुसार अजितन्जेय पटलीपुत्र में मिहिरकुल के उत्तराधिकारी के रूप में सिहासन पर आसीन हआ । अतः तोरमाण मिहिरकुल तथा अजितन्जेय, AMMK में लिखित हरी (वैष्णव धर्म के अनुयायी) हर (शिव के अनुयायी) तथा अजित के ही नाम हैं । फिर अजित के ही शासन काल में जोहल (जौहल) कुल का भारतीय साम्राज्य छिन्न-भिन्न हुआ और वह भी एक अन्य जाट, विष्णवर्धन विर्क द्वारा । इस युद्ध तथा इस के परिणाम का आँखों देखा वर्णन, महान व्याकरणाचार्य चन्द्रगोमिन (घूमन गोत्री) ने अपनी प्राकृत व्याकरण में यह कहते हुए किया है "अजेय जाटों ने हूणों को हरा दिया।" कितनी बिडम्बना है कि इस ऐतिहासिक सत्य की अवहेलना करते हुए हमारे इतिहासकार आरo सीo मजुमदार तथा एसo केo बैलवेलकर तक यह कहते दिखाई देते हैं कि यहां जाट शाब्द गलती से लिखा गया है और उसके स्थान पर गुप्त शब्द होना चाहिए ।
अब अन्तराष्ट्रीय क्षेत्र की ओर आते हैं । यह देखा गया है कि जाटों के कुछ कुलों को आज भी गलत (Galat) नाम से सम्बोधित किया जाता है । विशेष रूप से मुण्डतोर तथा गुलिया कुलों को इसी नाम से पुकारा जाता है | कया इनका कोई सम्बन्ध युनानी लेखकों द्वारा लिखित गलति, युरोपीय इतिहास में पाए जाने बाले कल्त (Calt) लोगों से हो सकता है ? यह विषय अभी शोध की मांग करता है और इस से भी कभी इस बात की सत्यता सिद्ध हो सकती है कि भारतीय गलत, पश्चिम के कलत/गलत एक हैं ।
ऋग्वेद में कई जाट कुलो का वर्णन है । इन का उल्लेख इस कृति में समुचित स्थलों पर किया गया है । परवर्ती साहित्य विशेषतः महाभारत इनकी कथाओं से भरा पड़ा है | महाभारत के केवल भीषम पर्व (अध्याय 9) में चालीस-पचास के लगभग जाट कुलों का उल्लेख है ।
मेरी मान्यता है कि परवर्ती कालों में इन में कई कुल नामों को संस्कृतनिष्ठ कर दिया गया जैसे मूर/मोर को मयूरक अथवा मौर्य, कश्वान को कश्यपघट, बैंस को महिष, माच्छल/माच्छर को मत्स्य आदि आदि । ऐसा सम्भवतः प्राकृत के कई शब्दों के साथ इन कुल नामों की आकस्मिक समानता होने के


पृष्ठ (xiii) समाप्त

कारण किया गया । जैसे मोर, मोर पक्षी के लिये, भैंस के लिए बैंस, हाथ के चुल्लू के लिये चुलिक, कछुए के लिये कशवान्‌, माछ, मछली के लिये आदि आदि | वास्तविकता तो यह है कि इन कुल नामों का इन पक्षियों तथा जानवरों के साथ किसी भी प्रकार का कोई सम्बन्ध नहीं है । सभी कुल नामों का अपनी-अपनी जगह अर्थ है, राजसी, राजा, शीर्षस्थ, सरदार तथा मुखिया सूर्य, चन्द्र आदि ।
मैंने उस समय और भी अधिक संतोष का अनुभव किया जब मैंने पाया कि महाभारत में कई बार मेरे इन विचारों का अनुमोदन हुआ है । सभापर्व (अध्याय 31) में यह स्पष्ट उल्लेख है कि युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में विभिन्न क्षेत्रों के राजा तथा लोग सम्मिलित हुए । इसी अध्याय का 13वां शलोक कह रहा है, "विराटः सह पत्रश्च माचेल्ल सह महारथः ।" यहां मत्स्य राजा विराट को उसके पुत्र सहित स्पष्ट रूप से माचेल्ल महारथी कहा गया है । इस से पूर्ण रूप से स्पष्ट होता है कि इन लोगों का नाम माचेल (वर्तमान में माछाल अथवा मच्छर) ही था और इस कुल नाम को इस स्थान पर संस्कृतनिष्ठ मत्स्य रूप नहीं दिया गया । विराट्‌ उत्तर-कुरुओं तथा उत्तर-भद्रों के मुकूटधारी राजाओं की उपाधि है । (ऐतरेय ब्राह्मण 38/3)
मैं यहां इतना अवश्य कहना चाहूँगा कि मैं इस लेखन कार्य में इस सिद्धान्त पर अटूट आस्था रखते हुए आगे बढ़ा हूं कि कभी भी किसी चीज का इतना समूल नाश नहीं होता कि वह अपना कोई अवशेष ही न छोड़े । इस संदर्भ में मेरी खोज सचमच ही उपलब्धिपूर्ण रही है। अब इस प्रश्न का उत्तर देना इतिहासकारों का काम है कि "व्यावहारिक रूप में सभी प्राचीन कुलों के नाम आज के जाटों में क्यों पाए जाते हैं और कई बार केवल जाटों में ही क्‍यों पाए जाते हैं ?"
यहां एक प्रश्न पैदा हो सकता है कि यदि मौर्य, गुप्त, विष्णुवर्धन, कलकिल, वाकाटक आदि जाट थे और वे समूचे उत्तर भारत में शासन कर रहे शे तो उन के वंशज पूर्वीय भारत में क्यों नहीं पाए जाते। इस प्रश्न का उत्तर बड़ा सरल है। अंग्रेजों तथा मुगलों ने भारत पर शताब्दियों तक शासन किया । मुगलों के कितने वंशज आज शोष हैं ? अंग्रेजों के उत्तराधिकारी कहां हैं ? इस प्रश्न का उत्तर इस तथ्य में निहित है कि शासक सदा ही अल्पसंख्यक होते है । चाहे तानाशाह हों या लोकतांत्रिक । बहुसंख्यकों पर तो शासन होता है, जब तक कि कोई नया वंश आ कर पुराने वंश से सत्ता का अधिकरण नहीं कर ता । और फिर 7वीं शताब्दी के बाद या आस-पास, जाटों को राजपूत एवं क्षत्रिय बना दिया गया जिन्होंने परम्परागत पुरोहितों द्वारा धर्म परिवर्तित होने से


पृष्ठ (xiv) समाप्त

इन्कार कर दिया वे लोग अपने सशक्त गढ़ उत्तर-पश्चिम की ओर पलट आए, जहां वे अपने ढंग से अपना जीवन-यापन कर सकते थे | इसलिए मध्य भारत से लेकर यमुना तथा रावी नदियों के बीच के क्षेत्र में जाटों के स्थानांतरण की अनेक श्रंखलाएं पाई जाती हैं। एक समान तथा एक ही तरह के कुल नामों के अतिरिक्त विभिन्न राजाओं की वास्तविक पहचान के कुछ निम्नलिखित अन्य जांच-बिन्द भी हैं, इन से स्पष्ट हो सकता है कि कोई एक विशेष राजा भारत का मूल निवासी था या कि बह भारत में आवर्जक या आक्रमणकर्त्ता के रूप में आया था:-
1. इन लोगों ने कभी भी ज्येष्ठाधिकार के नियम का पालन नहीं किया जिस में सब से बड़ा लड़का स्वतः ही अपने पिता का उत्तराधिकारी समझा जाता है । मौर्यों से लेकर हर्ष तक, सिंहासन के उत्तराधिकारी अपने पिताओं के ज्येष्ठ पुत्र नहीं थे । केवल अपनी योग्यता के बल पर ही कोई सिंहासन प्राप्त कर उत्तराधिकारी बनता था । अशोक तथा स्कंदगुप्त इस के दो ज्वलंत उदाहरण हैं ।
2. इन लोगों को जाति प्रथा बिलकूल स्वीकार्य नहीं थी और हम देखते हैं कि राजा द्वारा प्रजा में समानता पर अधिक बल दिया जाता था । चाणक्य ने उस ब्राह्मण के लिये मृत्यु दण्ड की व्यवस्था की थी जो राज्य प्राप्ति की इच्छा रखता हो । अशोक ने एक ब्राह्मण कन्या से विवाह किया था । विधवा विवाह एक सामान्य प्रथा के रूप में सहज स्वीकार्य था । राजा लोग बूट तथा पेंट पहने खड़े हो कर नैवैद्य अर्पित किया करते थे, जो एक भारतीय परम्परा कदापि नहीं हों सकती । भारतीय तो जूते पहन कर रसोई में भी नहीं जाते ।
3. इन राजाओं की वेश-भूषा तथा आभूषण अलंकार भी विशेष महत्त्व रखते हैं | कुशाण तथा गुप्त राजा बूट-पैंट व कोट पहनते थे तथा स्वयं को मध्य एशिया की लम्बी तलबारों से अलंकृत करते थे । हर्ष के पिता अपने सिर तथा शरीर पर श्वेत वस्त्र धारण कर भूमि पर घुटने टेक सूर्य की उपासना करते थे । यह एक ईरानी प्रथा है, सुद्रेह श्वेत कमीज तथा कुष्टी अव्यांग का उल्लेख विशोष रूप में मिलता है।
4. उन के सिक्कों पर अंकित चिन्ह भी विशेष महत्त्व रखते हैं । सूर्य, अर्ध-चन्द्र तथा शृंग (समृद्धि का प्रतीक) ये सब मध्य एशियाई प्रतीक है। विशेष रूप से अन्तिम, शृंग आरदक्षो तथा नन्ना मध्य एशियाई लोगों की दो महत्त्वपूर्ण उपास्य देवियां हैं, ये दोनों देवियां भारत में लक्ष्मी तथा सुविख्यात नयना देवी का रूप ग्रहण करती हैं। यह भी इन लोगों के मध्य एशियाई सम्बन्धों की ओर संकेत देते हैं।
अतः प्रगितर के शब्दों में में, "कोई ऐसा मानता है कि तथ्यात्मक


पृष्ठ (xv) समाप्त

उल्लेख निरर्थक है तो उसका यह परम दायित्व है कि वह केवल शांकाओं और अटकलों को ही प्रस्तुत न करे अपितु अपनी मान्यताओं के लिए ठोस आधार एवं तर्क भी प्रस्तृत करे ।"
जेo एफ़o हेवीट्ट (J.F. Hewitt) के अनुसार गुट (Gut) शब्द का अर्थ वृषभ अथवा बैल से है, फारसी-अंग्रेजी-शब्द-कोष गट/गुट की परिभाषा महान तथा उदात्त के रूप में करता है । भारतीय साहित्य में जाट का अर्थ राजा के रूप में लिया गया है । पाणिनी इसका अर्थ एक संघ के रूप में लेते हैं । जित तथा गुत शब्द का प्रयोग जाटों में आज भी होता है जिसका अर्थ हैं 'लम्बे बाल' जो यह स्पष्ट करता है कि ये लोग आज के सिक्खों की तरह लम्बे बाल तथा दाढी रखा करते थे और देव संहिता में यह बात यों ही नहीं कह दी गई कि इस धरती पर प्रथम शासक जाट ही थे, जिन के शौर्यपूर्ण अभियानों तथा गरिमामय इतिहास को जान-बुझ कर दबाए रखा गया । वे (अर्थात जाट) कद के लम्बे हैं, पृष्ट देहधारी हैं, वीर हैं, कर्मठ हैं, चतुर भी हैं और सुन्दर भी, वे आडम्बर रहित हैं और निश्च्छल भी, वे हठघर्मी भी हैं तथा कठोर भी । जाटों के बीच ये शारीरिक एव स्वभावगत विशेषताएं सर्वत्र विद्यमान है | दमन उत्पीड़न के प्रति अदम्य प्रतिरोध उन का जन्मजात संस्कार है | स्वतन्त्रता एवं समानता के सिद्धांत, और खुले ग्रामीण परिवेश में उन्मुक्त भ्रमण उन्हें जीवन घड़ी के रूप में जन्म के साथ प्राप्त हाए है | उनका शारीरिक गठन कितना सम्पष्ट है, बह इस लोकोक्ति में पूर्ण रूप से व्यक्त होता है, "जाट मरा तब जानिये जब तेरहवीं हो जाय ।"
एक अन्य लोकोवित यह भाव व्यक्‍त करती है, "एक घाव की तरह जाट बंधा हुआ ही अच्छा होता है ।" लोकोक्तियां उसी दण्ड के परिणामस्वरूप ही है जो पुनरुदित रूढ़िवाद ने उन्हें प्रदान किया, क्योंकि इन जाटों ने औपचारिक रूप से उनका धर्म ग्रहण करने से इन्कार कर दिया था, क्योंकि इन के परम्परागत राजसी जन्मजात संस्कारों ने इन जाटों को किसी को भी, विशेषतः नये धर्म परिवतिंतों को, अपने से श्रेष्ठ मानने की अनुमति नहीं दी । बहुत सी ऐसी कहावतें हैं जिन में समान व्यवहार, जहां तक कि राजाओं के साथ भी, के प्रति उन का विशेष आग्रह परिलक्षित होता है । यें जाट ही थे जिन्होंने दिल्‍ली पर शासन करने वाली प्रथम तथा अन्तिम महिला रजिया बेगम को शरण दी थीं, हालाँकि वे यह अच्छी तरह से जानते थे कि इस के परिणाम क्या होंगे । फिर जब दिल्ली का एक राजकुमार जान बचा कर भाग रहा था तो एक जाट ने ही उसे भोजन कराया, आश्रय दिया। कृतज्ञता स्वरूप जब उस राजकुमार ने उसे अपना वास्तविक परिचय दिया और कहा कि वह कोई ऐसा पुरस्कार मांग ले जो


पृष्ठ (xvi) समाप्त

वह उसे दे सकता हो, तो जैसा की इस दंतकथा में कहा गया है, उस जाट ने उत्तर दिया, "मुझे आप से किसी वस्तु की इच्छा नहीं है । हां, यदि आपको मुझ से कुछ चाहिए तो अवश्य कहिए।" इसी प्रकार की एक और दंतकथा भी प्रचलित है। एक बार एक जाट अपने खेत से तरबूज इकट्ठे कर रहा था और उन के दो अलग-अलग ढेर बना रहा था । संयोग से मुगल शहंशाह अकबर ने उसे ऐसे करते देख लिया तथा उससे तरबूजों के अलग-अलग ढेर बनाने का कारण पूछा । जाट ने इसका उत्तर देते हए कहा कि बढ़िया फल मैं अकबर को भेंट करने के लिए अलग रख रहा हूं | हालाँकि वह जाट नहीं जानता था कि वह अकबर सें ही बात कर रहा है | इस उत्तर को सुनकर अकबर नें कहा, "शहनशाह को तो काबूल तथा समरकंद से उसके मन पसन्द फल प्राप्त होते हैं, बह तुम्हारे इन तरबूजों को स्वीकार नहीं करेगा ।" यह सुनकर उस स्वाभिमानी जाट ने अपने विशेष अंदाज़ में कहा, "मेरी तो यह इच्छा है कि जो मेरे पास सर्वोत्तम फल है, मैं वह भेंट करूं, यदि अकबर फिर भी वह स्वीकार नहीं करता तो वह जाए अपनी बहिन को............... |" जाट के इस उत्तर से आग-बबूला हुआ अकबर आगरा लौटा और अगले दिन जब जाट अपने तरेबूजों के साथ दरबार में हाजिर हुआ तो अकबर ने उससे कहा, "हां भई जाट, अब अगर मैं तुम्हारे इस उपहार को स्वीकार न करू तो.............. ?" स्थिति को भली-भान्ति समझते जाट ने वहीं तत्कालिक निर्णय लिया और कहा, "जहांपनाह, मेरा उत्तर बही है जो कल था |” स्वाभिमान के मूल्य पर अपनी बात से फिरना जाट स्वभाव में नहीं है । एक अन्य लोकोक्ति के अनुसार एक जाट अपने अनाज के ढेर पर खड़ा था, उसने राजा के हाथियों के महावतों से कहा, "क्या तुम लोग इन छोटे गधों को बेचोगे?"
मैं अच्छी तरह जानता हूं कि भूमिका में किम्बदतियों तथा लोकोक्तियों के लिये स्थान नहीं होता फिर भो जाट चरित्र तथा स्वभाव समझने के लिए ये नितांत आवश्यक हैं । जाट के साथ यदि अच्छा व्यवहार किया जाए तो वह एक निष्ठावान प्रजा की तरह होता है, किन्तु धमकी उस पर प्रतिकूल प्रभाव डालती है। जब रोमनों ने गोथ अलारिक (410 ई०) को अपती विशाल जनसत्ता के साथ धमकी दी तथा अपना आतंक दिखाया तो उसने भी वही विशिष्ट जाट उत्तर दिया, "घास जितनी सघन हो, उतनी ही सुगमता से कटती है ।
इस प्रस्तुत कृति में मैंने विषय-वस्तु को जाटों के विविध कुलो की पहचान तथा उनके पूर्वज की खोज तक ही सीमित रखा है । और वह भी अरब आक्रमणों के काल तक अर्थात्‌ 10वीं शताब्दी के पूर्व तक । मैंने उनके बाद के अभियानों,


पृष्ठ (xvii) समाप्त

गतिविधिओं को इस अध्ययन में नहीं लिया। क्योंकि मेरा उद्देश्य उनका पूर्ण इतिहास लेखन नहीं था । इस अध्ययन में आप यह भी पाएंगे कि नितान्त भिन्न प्रश्नों में कई नए तथ्य उभर कर सामने आए हैं, नयें विचारों को जन्म मिला है तथा यह आशा की जा सकती है कि कुछ इतिहासकार इन पर मनन करके इनका समुचित विकास करेंगे। जाटों का इतिहास पूर्ण रूप से उपेक्षित रहा है, जैसा कि डिगर्गानस (Deguignes) ने हूणों के विषय में कहा था कि बे एक राष्ट्र थे, इतिहास ने जिनकी सर्वथा उपेक्षा की । इसी स्वर में पंजाब के पूर्व मुख्यमन्त्री सरदार प्रकाश सिंह बादल ने अप्रैल, 1977 में एक बार कहा था कि पंजाबी बार-बार इतिहास का निर्माण करते रहे हैं लेकिन आज तक किसी ने उनका इतिहास नहीं लिखा | वाई० पी० शास्त्री तथा के० आर० कानूनगो को छोड किसी ने भी जाटों के इतिहास के विषय में कोई नाम लेवा पुस्तक नहीं लिखी । इस प्रस्तुत अध्ययन को इस दिशा में एक शुरूआत समझा जा सकता है और यह आशा की जा सकती है कि भविष्य में इस दिशा में श्रेष्ठ कार्य तथा शोध हो सकेगी । इस सम्बन्ध में Uighav Colophones तथा सोवियत उत्खनन के परिणाम जोकि Karatepe II & III (लेखक V.A. Livshitz & V.G. Lukonin) के पुस्तक आकार रूप में अभी हाल हीं में सामने आए हैं, जानकारी का एक महत्त्वपूर्ण स्रोत सिद्ध हो सकते हैं । मझे यह कृतियां उपलब्ध न हो सकी । इन में 2000 वर्ष पूर्व के भारत तथा मध्य एशिया के समानांतर कुलो का उल्लेख अवश्य होगा । इस लेखन में मैं यदा-कदा भावुक भी हो उठा हूं, फिर भी यह आशा तो कर ही सकता हूं कि इस "क्षम्य पक्षपात" पर मुझे क्षमा किया जाएगा ।
अन्त में मैं डाक्टर केо वीo शर्मा, कार्यकारी निवेशक वीo वीo आरo आई० होशियारपुर का धन्यवाद करना चाहूंगा जिनके सौजन्य से मुझे उनके संग्रहालय से कई संदर्भ पुस्तकें उपलब्ध हो सकी । मैं वी० वीo आई० आर० कें पुस्तकालय अध्यक्ष श्री एस० एल० डोगरा तथा डीo एo वीo कालेज, जालन्धर के पूस्तकालयाध्यक्ष श्री एच० के० शर्मा का भी इसी प्रकार की सहायता तथा सहयोग के लिए विशेष रूप से आभारी हूं।
मैं श्री जे० एस० ढिल्लों के प्रति भी आभार व्यक्त करता हूं जिन्होंने अनथक परिश्रम से टाइप एवं शुद्धिकरण का कार्य पूरा किया है और अपने मित्रों एवं शुभचिन्तकॉ का भी मैं आभारी हूं जिनसे मुझे इस लेखन कार्य में विशेष प्रेरणा एवं प्रोत्साहन मिला है ।

बीo एसo दहिया


(1980)



पृष्ठ (xviii) समाप्त

|| भूमिका समाप्त ||